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सम्यग्मिथ्यात्व, देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग और उच्चगोत्र-इन बारह प्रकृतियों के पांचों संक्रम होते हैं। - तीन संज्वलन और पुरुषवेद इन चार प्रकृतियों के अधःप्रवृत्तसंक्रम और सर्वसंक्रम ये दो संक्रम होते हैं।
हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों के अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये तीन होते हैं। ___ औदारिकशरीर, औदारिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और तीर्थकर इन चार प्रकृतियों के अधःप्रवृत्तसंक्रम और विध्यातसंक्रम ये दो होते हैं । ___उपर्युक्त प्रकृतियों में सम्भव इन संक्रम-भेदों को एक दृष्टि में इस प्रकार देखा जा सकता है
प्रकृति । ३६ | ३० । ७ | २० | १ | १ | १२ | ४ । ४ । ४ । संक्रमभेद | १ | ४ | २ | ३ | ३ | ४ | ५ | २ | ३ | २
आगे इन संक्रमों के अवहारकाल के अल्पबहुत्व को दिखाकर उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेशसंक्रम के स्वामित्व के विषय में विचार किया गया है (पु०१६, पृ० ४२१-४०)।
तत्पश्चात् एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के काल को प्रकट करते हुए यह सचना कर दी गई है कि एक जीव की अपेक्षा जघन्य प्रदेशसंक्रमकाल व अन्तर तथा नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर का कथन स्वामित्व से सिद्ध करके करना चाहिए (पृ० ४४१-४२)। . अल्पबहत्व के प्रसंग में प्रथमतः सामान्य से और तत्पश्चात् विशेष रूप से नारक आदि गतियों में उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशसंक्रमविषयक अल्पबहुत्व का विचार किया गया है।
(पृ० ४४२-५३) भुजाकारसंक्रम के प्रसंग में स्वामित्व व एक जीव की अपेक्षा काल की प्ररूपणा करके आगे यह सूचना कर दी गयी है कि एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर की प्ररूपणा एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व और काल से सिद्ध करके करनी चाहिए । तत्पश्चात् प्रसंगप्राप्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है (पृ० ४५३-६१)।
आगे पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रम की प्ररूपणा करते हुए प्रस्तुत संक्रम अनुयोगद्वार को समाप्त किया गया है (पृ० ४६१-८३)। १३. लेश्या अनुयोगद्वार
यहाँ लेश्या का निक्षेप करके नोआगम द्रव्यलेश्या के अन्तर्गत तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यलेश्या के स्वरूप का निर्देश है। तदनुसार चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गलस्कन्धों के वर्ण का नाम तद्व्यतिरिक्त द्रव्यलेश्या है। वह कृष्ण-नीलादि के भेद से छह प्रकार की है। वह किनके होती है, इसे कुछ उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया गया है।
१. धवला पु० १६, पृ० ४०८-२१
षट् ण्डागम पर टीकाएँ। ५४६
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