________________
करना चाहिए । इन तीनों में से किसी के भी पादमूल में उस दर्शनमोहनीय के क्षय को प्रारम्भ किया जा सकता है।'
पूर्व में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रसंग में यह कहा जा चुका है कि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति को हजार सागरोपमों से हीन अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है (५)। उसका स्मरण कराते हुए यहाँ पुनः यह कहा गया है कि सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव आयु को छोड़ शेष ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की स्थिति को सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा संख्यातगुणी हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है (१३)।
आगे चारित्र की उत्पत्ति के प्रसंग में कहा गया है कि चारित्र को प्राप्त करने वाला जीव आयु को छोड़ शेष ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की स्थिति को सम्यक्त्व के अभिमुख हुए उस मिथ्यादृष्टि के द्वारा स्थापित स्थिति की अपेक्षा संख्यातगुणी हीन अन्त:कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है (१४) ।
सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करने वाला जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की स्थिति को अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थापित करता है । वेदनीय की स्थिति को वह बारह महूर्त, नाम व गोत्र की स्थिति को आठ मुहूर्त और शेष कर्मों की स्थिति को भिन्न मुहूर्त मात्र स्थापित करता है (१५-१६) ।
__ यहाँ धवला में संयमासंयम तथा क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक इन तीन भेदस्वरूप सकलचारित्र की प्राप्ति के विधान की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। इसी प्रकार आगे सम्पूर्ण चारित्र की प्राप्ति के विधान की भी वहाँ विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की गई है।'
इस सब का स्पष्टीकरण आगे 'धवला' के प्रसंग में किया जाएगा।
९. गति-आगति --उपर्युक्त नौ चलिकाओं में यह अन्तिम है । इसमें गति-आगति के आश्रय से इन चार विषयों का क्रम से विचार किया गया है
१. नारक मिथ्यादृष्टि आदि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हुए उसे वे किस अवस्था में व किन कारणों से उत्पन्न करते हैं, इसका विचार किया गया है (सूत्र १-४३)।
२. नारक मिथ्यादष्टि आदि विवक्षित गति में किस गणस्थान के साथ प्रविष्ट होते हैं और वहाँ से वे किस गुणस्थान के साथ निकलते हैं, इसका स्पष्टीकरण किया गया है (४४-७५)। __३. नारक मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि आदि विवक्षित पर्याय में अपनी आयु को समाप्त करके अगले भव में अन्यत्र किन गतियों में आते-जाते हैं तथा वहाँ वे किन अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं व किन अवस्थाओं को नहीं प्राप्त करते हैं, इसकी चर्चा की गई है (७६-२०२)।
१. धवला पु० ६, पृ० २४६ २. 'सम्पूर्ण चारित्र' से यह अभिप्राय समझना चाहिए कि योग का अभाव हो जाने पर जब ___ अयोगिकेवली के शैलेश्य अवस्था प्राप्त होती है तभी चारित्र की पूर्णता होती है। ३. धवला पु० ६, पृ० २६८-३४२ ४. धवला पु० ६, पृ० ३४२-४१८ ६० / षट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.