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________________ ८. नानाजीवों की अपेक्षा काल, ६. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर, १०. भागाभागानुगम और ११. अल्पबहुत्वानुगम । १. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व उक्त क्रम से इन ग्यारह अनुयोगद्वार के आश्रय से उन बन्धकों की प्ररूपणा करते हुए क्रमप्राप्त इस 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्वानुगम' के प्रसंग में सर्वप्रथम सूत्रकार द्वारा 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् गतिमार्गणा के अनुसार नरक गति में 'नारकी' कैसे होता है, ऐसा प्रश्न उठाते हुए उसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि नरकगति नामकर्म के उदय से नारकी होता है। इसी पद्धति से आगे तिर्यंचगति नामकर्म के उदय से तियंच, मनुष्य गति नामकर्म के उदय से मनुष्य और देवगति नामकर्म के उदय से देव होता है, यह स्पष्ट किया गया है। इसी प्रसंग में आगे सिद्धगति में सिद्ध कैसे होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सिद्ध क्षायिकलब्धि से होता है (३-१३)। इसी पद्धति से आगे क्रम से इन्द्रिय आदि शेष मार्गणाओं के आश्रय से भी यथायोग्य उन बन्धकों के स्वामित्व की प्ररूपणा की गई है (१४-६१)। यहाँ सब सूत्र ६१ हैं। २. एक जीव की अपेक्षा कालानुगम ___ इस दूसरे अनुयोगद्वार में एक जीव की अपेक्षा उन बन्धकों के काल की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः नरक गति में नारकी कितने काल रहते हैं, यह पृच्छा की गई है। पश्चात् उसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वे वहाँ जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम काल तक रहते हैं। (१-३)। यह उनके काल का निर्देश सामान्य से किया गया है। आगे विशेष रूप में पृथिवियों के आश्रय से उनके काल की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि प्रथम पृथिवी के नारकियों का काल जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम है । अनन्तर द्वितीय पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों का जघन्य काल क्रम से एक, तीन, सात, दस, सत्रह और बाईस सागरोपम तथा वही उत्कृष्ट क्रम से तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम कहा गया है (४-६)। __ आगे इसी पद्धति से तिर्यंच गति में तिर्यचों (१०-१८), मनुष्य गति में मनुष्यों (१६-२४) और देवगति में देवों (२५-३८) के काल की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् उसी पद्धति से आगे क्रम से इन्द्रिय आदि अन्य मार्गणाओं के आश्रय से प्रकृत काल की प्ररूपणा की गई है। इस अनुयोगद्वार की सूत्र संख्या २१६ है । यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रस्तुत काल की प्ररूपणा इसके पूर्व जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत पाँचवें कालानुगम अनुयोगद्वार में की जा चुकी है। पर वहाँ जो उसकी प्ररूपणा की गई है वह क्रमसे गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थानों के आश्रय से की गई है। किन्तु यहाँ उसकी प्ररूपणा गुणस्थान निरपेक्ष केवल मार्गणाओं मे ही की गई है । यह उन दोनों में विशेषता है। यही विशेषता आगे एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम आदि अन्य अनुयोगद्वारों में भी रही है। ६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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