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________________ है। वह १६ जिल्दों में से छठी जिलद में प्रकाशित हुआ है। द्वितीय खण्ड : क्षुद्रकबन्ध (खुद्दाबन्ध) 'क्षुद्रकबन्ध' यह प्रस्तुत षट्खण्डगम का दूसरा खण्ड माना जाता है। जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चका है, मूलग्रन्थकार ने इन खण्डों की न कहीं कोई व्यवस्था की है और न इन खण्डों में प्रस्तुत 'खुद्दाबंध" के अतिरिक्त अन्य किसी खण्ड का उन्होंने नामनिर्देश भी किया है । धवलाकार ने भी प्रस्तुत खण्ड की 'धवला' टीका को प्रारम्भ करते हुए महादण्डक के प्रारम्भ में (पृ० ५७५) ग्यारह अनुयोगद्वारों में निबद्ध 'खुद्दाबंध' का नाम निर्देश किया है । पर वह षट्खण्डागम का दूसरा खण्ड है ऐसा संकेत उन्होंने कहीं भी नहीं किया। इसी प्रकार उन्होंने अन्यत्र यथाप्रसंग इसके सूत्रां को उद्धृत करते हुए प्रायः 'खुद्दाबंध' इस नाम निर्देश के साथ ही उन्हें उद्धृत किया है । पर वह प्रस्तुत षट्खण्डागम का दूसरा खण्ड है, ऐसा उन्होंने कहीं संकेत भी नहीं किया। इसमें बन्धक जीवों की प्ररूपणा संक्षेप से की गई है, इसीलिए इसे नाम से 'क्षुद्रकबन्ध' कहा गया है। यह अपेक्षाकृत नाम निर्देश है । कारण यह कि आचार्य भूतबलि के द्वारा जो प्रस्तुत षट्खण्डागम का छठा खण्ड 'महाबन्ध' रचा गया है वह ग्रन्थप्रमाण में तीस हजार (३०,०००) है, जब कि यह क्षुद्रकबन्ध उनके द्वारा १५८६ सूत्रों में ही रचा गया है। बन्धकसत्त्व यहां सर्वप्रथम "जे ते बन्धगा णाम तेसिमिमो णिद्देसो" इस प्रथम सूत्र के द्वारा बन्धक जीवों की प्ररूपणा करने की सूचना करते हुए आगे के सूत्र में गति व इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं का निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् यथाक्रम से उन गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में बन्धक-अबन्धक जीवों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है। यथा-- गतिमार्गणा के अनुसार नरकगति में नारकी जीव बन्धक हैं । तिर्यंच बन्धक हैं। देव बन्धक हैं । मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। सिद्ध अबन्धक हैं (सूत्र ३-७)। ___इस पद्धति से आगे इन्द्रिय आदि शेष तेरह मार्गणाओं के आश्रय से यथासम्भव उन बन्धक-अबन्धक जीवों के अस्तित्व की प्ररूपणा की गई है। इसमें सब सूत्र ४३ हैं । इसका उल्लेख अनुयोगद्वार के रूप में नहीं किया गया है। इस प्रकार बन्धक-अबन्धकों के अस्तित्व को दिखलाकर आगे उन बन्धक जीवों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत इन ग्यारह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया ह--१. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, २. एक जीव की अपेक्षा काल, ३. एक जीव की अपेक्षा अन्तर, ४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, ५. द्रव्यप्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम, ७. स्पर्शनानुगम, १. गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरश्या बन्धा तिरिक्खिा बंधा..... सिद्धा अबंधा। एवं .. खुद्दाबंध एक्कारस अणियोगद्दारं णेयव्वं । २. यह सूत्र इसी रूप में जीवस्थान के सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में भी आ चुका है । पृ० १, पृ० १३२, सूत्र ४ मूलगतग्रन्थ विषय का परिचय / ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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