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________________ काल की अपेक्षा उन आठ समयों में एक-एक गुणस्थान में उत्कर्ष से संचय को प्राप्त हुए उन जीवों का समस्त प्रमाण सूत्र (१,२,१०) में संख्यात कहा गया है । वह पूर्वनिर्दिष्ट क्रम के अनुसार तीन सौ चार (१६ + २४ + ३० + ३६+४२+४८+ ५४ + ५४ - ३०४) होता है । कुछ आचार्यों के मतानुसार उपर्युक्त उत्कृष्ट प्रमाण में जीवों से सहित सब समय एक साथ नहीं पाये जाते हैं । अतः वे उक्त प्रमाण में पाँच कम करते हैं । धवलाकार ने इस व्याख्यान को आचार्य परम्परा से आने के कारण दक्षिणप्रतिपत्ति कहा है तथा पूर्वोक्त व्याख्यान को आचार्य परम्परागत न होने से उत्तरप्रतिपत्ति कहा है ।" आगे के सूत्र (१, २, ११) में चार क्षपकों और अयोगिकेवलियों का जो द्रव्यप्रमाण प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन अथवा उत्कर्ष से एक सौ आठ कहा गया है उसको स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि आठ समय अधिक छह मास के भीतर क्षपक श्रेणि के योग्य आठ समय होते हैं । उन समयों में विशेष की विवक्षा न करके सामान्य से कथन करने पर जघन्य से एक जीव और और उत्कर्ष से एक सौ आठ जीव तक क्षपक गुणस्थान को प्राप्त होते हैं। विशेष की अपेक्षा प्ररूपणा करने पर प्रथम समय में एक जीव को आदि लेकर उत्कर्ष से बत्तीस जीव तक क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ होते हैं। आगे द्वितीयादि समयों में क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ होनेवाले क्षपक जीवों के प्रमाण का क्रम पूर्वोक्त उपशामक जीवों के प्रमाण से क्रमशः दूना दूना जानना चाहिए । यहाँ भी धवला में प्रमाण के रूप में इस अभिप्राय की पोषक एक गाथा उद्धृत की गयी है । काल की अपेक्षा सूत्र (१, २, १२) में जो उन सब का प्रमाण संख्यात कहा गया है उसे उन आठ समयों में एक-एक गुणस्थान में उत्कर्ष से संचय को प्राप्त हुए सब जीवों को एकत्रित करने पर उपशामकों की अपेक्षा दूना अर्थात् छह सौ आठ (३२+४८ + ६० + ७२ +८४.+ ६६ +१०८+१०८ -६० ६०८) जानना चाहिए । अन्य आचार्यों के अभिमतानुसार जहाँ उपशामकों के उस प्रमाण में पाँच कम किया गया था व उस व्याख्यान को धवला में दक्षिणप्रतिपत्ति तथा पूर्व व्याख्यान को उत्तरप्रतिपत्ति कहा गया था वहाँ उक्त आचार्यों के अभिमतानुसार इन क्षपकों के उस समस्त प्रमाण में दस कम किया गया है तथा इस व्याख्यान को दक्षिणप्रतिपत्ति तथा पूर्व व्याख्यान को उत्तरप्रतिपत्ति कहा गया है। आगे 'एसा उवसमग-खवगपरूपणगाहा' ऐसी सूचना करते हुए धवला में दो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं व उनके आश्रय से यह कहा गया है कि कुछ आचार्य उपशामकों का प्रमाण तीन सौ, कुछ आचार्य तीन सौ चार और कुछेक आचार्य उसे पाँच कम तीन सौ (२६५) बतलाते हैं । क्षपकों का उनके मतानुसार उससे दूना (६००, ६०८, ५६० ) जानना चाहिए । अन्य कुछ आचार्य उन उपशामकों का प्रमाण तीन सौ चार और कुछ उसी प्रमाण (३०४) को पाँच कम बतलाते है । तत्पश्चात् धवला में “एगेगगुणट्ठाणम्हि उवसामगखवगाणं पमाणपरूवणगाहा" इस निर्देश के साथ एक अन्य गाथा उद्धृत की गयी है, जिसमें कहा गया है कि एक-एक गुणस्थान में आठ १. धवला पु० ३, पृ० ६०-६२; दक्खिणं उज्जुवं आइरियपरंपरागदमिदि एयट्टो । उत्तरमज्जुवं आइरियपरंपराए अणागदमिदि एयट्ठो ।-धवला पु० ५, पृ० ३२ ३९६ / षट्खण्डागम- परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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