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________________ तीन अधिकारों की प्ररूपणा की है।' अनन्तर धवलाकार ने 'अब हम यहाँ देशामर्शक सूत्र से सूचित अनुयोगद्वारों को कहते हैं' इस प्रतिज्ञा के साथ उन तेरह मूलकरणकृतियों के विषय में यथाक्रम से सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है। * इस प्रकार उक्त देशामर्शक सूत्र के द्वारा सूचित उन पदमीमांसादि तीन अधिकारों और सत्प्ररूपणादि उन आठ अनुयोगद्वारों की विस्तार से प्ररूपणा करने के पश्चात् धवलाकार ने प्रसंग के अन्त में 'इदि मूलकरणकदीपरूवणा कदा इस वाक्य के द्वारा मूलकरणकृति की प्ररूपणा के समाप्त होने की सूचना की है । १२. वेदनाद्रव्यविधान के अन्तर्गत पदमीमांसा अनुयोगद्वार की प्ररूपणा के प्रसंग में "ज्ञानावरणीय की वेदना क्या द्रव्य से उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है" यह पृच्छासूत्र प्राप्त हुआ है । अगले सूत्र में इन पृच्छाओं को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह उत्कृष्ट भी है; अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है । सूत्र ४, २, ४, २-३ धवलाकार ने इन दोनों सूत्रों को देशामर्शक कहकर उनके अन्तर्गत क्या वह सादि है, क्या अनादि है, इत्यादि अन्य नौ पृच्छाओं को भी व्यक्त किया है । इस प्रकार सूत्रोक्त चार व उससे सूचित नौ ये तेरह पृच्छाएं सूत्रों के अन्तर्गत हैं, यह अभिप्राय धवलाकार का है । इन तेरह पृच्छाओं को स्पष्ट करते हुए वहाँ धवलाकार ने कहा है कि इस प्रकार इस सूत्र (२) में तेरह अन्य सूत्र प्रविष्ट हैं, ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार सामान्य से तेरह तथा विशेष रूप से उनमें प्रत्येक में भी तेरह-तेरह, तदनुसार सब पृच्छाएँ १६६ (१३ X १३) होती हैं । इस स्पष्टीकरण के साथ धवलाकार ने उन तेरह पृच्छाओं को उठाकर यथासम्भव उनको स्पष्ट किया है । 3 १३. इस वेदनाद्रव्यविधान की चूलिका में सूत्रकार द्वारा योगअल्पबहुत्व और प्रदेशअल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । प्रसंग के अन्त में प्रत्येक जीव के योग गुणकार को पल्योपम के असंख्यातवें भाग-प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है । —सूत्र ४,२,४,१४४-७३ - अन्तिम सूत्र (१७३ ) की व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने प्रकृत मूलवीणा के अल्पबहुत्वआलाप को शामर्शक कहकर उसे प्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारों का सूचक कहा है व उससे सूचित प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों की यहाँ प्ररूपणा की है । * १४. वेदनाकालविधान की चूलिका में सूत्रकार ने स्थितिबन्धस्थानों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है । — सूत्र ४, २, ६, ३७- ५० १. इस सब के लिए धवला, पु० ६, पृ० ३२४- ५४ (सूत्र ६८-७१) देखना चाहिए । २. धवला, पु० ६ -- सत्प्ररूपणा, पृ० ३५४-५६; द्रव्यप्रमाणानुगम, पृ० ३५६-६४; क्षेत्रानुगम, पृ० ३६४-७०; स्पर्शानुगम, पृ० ३७०-८० कालानुगम, पृ० ३८०-४०३; अन्तरानुगम, पृ० ४०३ - २८; भावानुगम, पृ० ४२८ व अल्पबहुत्वानुगम, पृ० ४२६-५० ३. धवला, पु० १०, पृ० २०-२८, धवलाकार ने आगे प्रसंग के अनुसार इसी पद्धति से वेदनाक्षेत्रविधान, वेदना कालविधान और वेदनाभावविधान में भी इन १३ १३ पृच्छाओं को स्पष्ट किया है। देखिए पु० ११, पृ० ४ ११ व ७८ से ५४ तथा पु० १२, पृ० ४ ११ ४. धवला, पु० १०, पृ० ४०३ ३१ ७३८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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