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को ही सामान्य कहा जाता है । इस प्रकार से दर्शन का विषय सामान्य सिद्ध है।
इसी दार्शनिक पद्धति से आगे भी यहाँ धवला में उस दर्शन के विषय में ऊहापोह किया गया है।'
इस दर्शनविषयक तर्कणापूर्ण ऊहापोहात्मक विचार धवला में आगे भी प्रसंगानुसार किया गया है।
(२) धवलाकार ने वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में अर्थकर्ता भगवान् महावीर की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्ररूपणा करते हुए द्रव्यप्ररूपणा के प्रसंग में महावीर के शररीगत निरायुधत्व आदि रूप विशेषता को प्रकट किया है तथा उसे ग्रन्थ की प्रमाणता का हेतु सिद्ध किया है। __आगे तीर्थ की प्रमाणता को प्रकट करनेवाली क्षेत्रप्ररूपणा के प्रसंग में समवसरण और उसके मध्यगत गन्धकुटी की विशेषता दिखलाते हुए उसे युक्तिप्रत्युक्तिपूर्वक भगवान् महावीर की सर्वज्ञता का हेतु बतलाया है।
इस प्रसंग में यह शंका की गई है कि जिन जीवों ने भगवान् जिनेन्द्र के दिव्य शरीर और समवसरणादिस्व जिनमहिमा को देखा है उनके लिए भले ही वह जिन की सर्वज्ञता का हेतु हो सके, किन्तु जिन जीवों ने उसे नहीं देखा है उनके लिए वह उनकी सर्वज्ञता का अनुमापक हेतु नहीं हो सकती है । और हेतु के बिना सर्वज्ञतारूप साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं है । इस शंका को हृदयंगम करते हुए आगे धवला में भावप्ररूपणा की गई है।
इस भावप्ररूपणा में जीव के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए उसकी जडस्वभावता के निराकरणपूर्वक उसे सचेतन और ज्ञान-दर्शनादि स्वभाववाला सिद्ध किया गया है। इसी प्रसंग में कर्मों की नित्यता का निराकरण करते हुए उन्हें मिथ्यात्व, असंयम और कषाय के निमित्त से सकारण सिद्ध किया गया है। साथ ही, इनके प्रतिपक्षभूत सम्यक्त्व, संयम और कषाय के अभाव को उन कर्मों के क्षय का कारण सिद्ध किया गया है।
इस प्रसंग में आगे धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार सुवर्णपाषाण में स्वभाविक निर्मलता की वृद्धि की तरतमता देखी जाती है व इस प्रकार से अन्त में वह सोलहवें ताव में पूर्णरूप से निर्मलता को प्राप्त हुआ देखा जाता है तथा जिस प्रकार शुक्लपक्ष के चन्द्रमण्डल में वृद्धि की तरतमता को देखते हुए अन्त में पूर्णिमा के दिन वह अपनी सम्पूर्ण कलाओं से वृद्धि को प्राप्त हुआ देखा जाता है उसी प्रकार जीवों के चूंकि स्वाभाविक ज्ञानदर्शनादि गुणों में वृद्धि की तरतमता देखी जाती है, इससे यह भी सिद्ध होता है कि किन्हीं विशिष्ट जीवों के वे ज्ञानादि गुण काष्ठागत वृद्धि को प्राप्त होते हैं । इस स्वभावोपलब्धि हेतु से जीव की सर्वज्ञता भी सिद्ध होती है।
इसी प्रकार जीवों में चूंकि कषाय की हानि की तरतमता भी देखी जाती है, इसीलिए
१. धवला, पु० १,३७६-८२ २. इसके लिए पु० ६ में ३२-३४ पृ० तथा पु० ७ में पृ० ६६-१०२ दृष्टव्य हैं । ३. धवला, पु० ६.१० १०७-८ ४. वही, १०६-१४
३१./घट्लण्डागम-परिशीलन
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