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________________ किसी जीव में उसका पूर्णतया प्रभाव भी सिद्ध होता है।' (३) पीछे 'व्याकरणविषयक वैदुष्य' के प्रसंग में यह कहा जा चुका है कि सर्वस्पर्श के स्वरूप को प्रकट करते हुए सूत्र (५,३,२२) में परमाणु का दृष्टान्त दिया गया है। इस प्रसंग में उस परमाणु के दृष्टान्त को असंगत बतलाते हुए वादी ने एक परमाणु के दसरे परमाण में प्रविष्ट होने का निषेध किया है। इसके लिए उसने परमाणु क्या दूसरे परमाणु में प्रविष्ट होता हुआ एक देश से उसमें प्रविष्ट होता है या सर्वात्मना, इन दो विकल्पों की उठाकर कहा है कि वह दूसरे परमाणु में एक देश से प्रविष्ट होता है, इस प्रथम पक्ष को तो स्वीकार नहीं किया जा सकता है। कारण यह कि प्रसंगप्राप्त सूत्र में ही सर्वात्मना प्रवेश का विधान है । तब ऐसी परिस्थिति में उस प्रथम पक्ष को स्वीकार करने पर सूत्र से विरोध अनिवार्य है। इसलिए यदि सर्वात्मना प्रवेश रूप दूसरे पक्ष को स्वीकार किया जाता है तो उस अवस्था में द्रव्य का द्रव्य में, गन्ध का गन्ध में, रूप का रूप में, रस का रस में और स्पर्श का स्पर्श में प्रविष्ट होने पर परमाणु द्रव्य कुछ शेष नहीं रहता है, उसके अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। पर परमाणु का अभाव होना सम्भव नहीं है, क्योंकि द्रव्य के अभाव का विरोध है । इत्यादि युक्ति-प्रयुक्ति के साथ वादी ने अपने पक्ष को स्थापित कर परमाणु के दृष्टान्त को असंगत सिद्ध करना चाहा है। वादी के इस पक्ष का निराकरण करते हुए धवलाकार ने परमाणु क्या सा५५ है या निरवयव, इन दो विकल्पों को उठाया है व उनमें उसके सावयव होने का निषेध करते हुए उसे निरवयव सिद्ध किया है। इस प्रकार से उन्होंने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि अवयव से रहित अखण्ड परमाणुओं का जो देशस्पर्श है वही द्रव्यार्थिक दृष्टि से उनका सर्वस्पर्श है। कारण यह कि देशरूप से स्पर्श करने योग्य उनके अवयवों का अभाव है। विकल्प के रूप में वहाँ यह भी कहा गया है-अथवा दो परमाणुओं का देशस्पर्श भी होता है, क्योंकि उसके बिना स्थल स्कन्धों की उत्पत्ति नहीं बनती। साथ ही उनका सर्वस्पर्श भी है, क्योंकि एक परमाणु में दूसरे परमाणु के सर्वात्मस्वरूप से प्रविष्ट होने में कोई विरोध नहीं है। इत्यादि प्रकार से यहाँ धवलाकार ने दार्शनिक पद्धति से ऊहापोह कर सूत्रोक्त परमाणु के दृष्टान्त की असंगति का निराकरण किया है और उसे सार्थक सिद्ध किया है। (४) इसी वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में ४३वें सूत्र की व्याख्या करते हुए श्रुतज्ञान के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-शब्दलिंगज और अशब्दलिंगज। इनमें अशब्द १. धवला पु० ६, पृ० ११४-१८; इसके लिए निम्न पद्य द्रष्टव्य हैं दोषावरणयोर्हानिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।--आ० मी०, ४ धियां तर-तमार्थवद्गतिसमन्वयान्वीक्षणाद् भवेत् ख-परिमाणवत् क्वचिदिह प्रतिष्ठा परा। प्रहाणमपि दृश्यते क्षयवतो निमूलात् क्वचित् तथायमपि युज्यते ज्वलनवत् कषायक्षयः ।।-पात्रकेसरिस्तोत्र, १८ २. धवला पु० १३, पृ० २१-२४ षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ३६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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