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________________ काल है (२५६-६२)। अनन्तरोपनिधा-उक्त पाँच शरीरों में से विवक्षित शरीरवाले जीव के द्वारा पूर्वोक्त क्रम से अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक बाँधा गया प्रदेशाग्र अभव्यजीवों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होकर भी उत्तरोत्तर प्रथम-द्वितीयादि समयों में अपेक्षाकृत हीनाधिक कैसा होता है, इसका स्पष्टीकरण इस अनुयोगद्वार में किया गया है (२६३-७१)। परम्परोपनिधा-पूर्वोक्त क्रम से अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक बाँधा गया वह प्रदेशाग्र उत्तरोत्तर अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त जाकर दुगुणा-दुगुणा हीन होता जाता है, इत्यादि का स्पष्टीकरण इस परम्परोपनिधा अनुयोगद्वार में किया गया है (२७२-८६)।। __ प्रदेशविरच-यहाँ सर्वप्रथम सोलह पदवाले दण्डक के आश्रय से एकेन्द्रिय व सम्मूच्छिम आदि जीवों को लक्ष्य करके स्वस्थान व परस्थान में जघन्य और उत्कृष्ट पर्याप्तनिवृत्ति व निर्वृत्ति-स्थानों में उत्तरोत्तर होनेवाली अधिकता के क्रम का विचार किया गया है (२८७-३१६)। इसी प्रसंग में आगे जघन्य अग्रस्थिति, अग्रस्थिति विशेष, अग्रस्थितिस्थान, उत्कृष्ट अग्रस्थिति, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से प्रकृत औदारिकादि शरीरों से सम्बन्धित अग्रस्थिति और अग्रस्थिति विशेष आदि के प्रमाण का विचार किया गया है (३२०-८६)। जघन्य निर्वृत्ति के अन्तिम निषेक का नाम अग्र और उसकी जघन्य स्थिति का नाम अग्रस्थिति है। तीन पल्योपमों के अन्तिम निषेक का नाम उत्कृष्ट अग्र और उसकी तीन पल्योपम प्रमाण स्थिति का नाम उत्कृष्ट अग्र स्थिति है। उत्कृष्ट अग्रस्थिति में से जघन्य अग्रस्थिति के कम कर देने पर अग्रस्थिति-विशेष का प्रमाण होता है। यहाँ प्रदेशविरच अनुयोगद्वार समाप्त हो गया है। निषेकअल्पबहुत्व में जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्ट पदविषयक तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से औदारिकादि शरीर सम्बन्धी एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर और नाना गुणहानिस्थानान्तरों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है (३६०-४०६)। ___ इस प्रकार समुत्कीर्तनादि छह अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर निषेकप्ररूपणा समाप्त हुई है.। ४. गुणकार --. यह शरीरप्ररूपणा के अन्तर्गत छह अनुयोगद्वारों में चौथा है। इसमें जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्ट इन तीन पदों के आश्रय से औदारिकादि पाँच शरीरों सम्बन्धी जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्ट गुणकार की प्ररूपणा की गई है (४०७-१५)। ५. पदमीमांसा-यह उस शरीरप्ररूपणा का पांचवाँ अनुयोगद्वार है। यहाँ जघन्यपद और उत्कृष्ट पद के आश्रय से औदारिकादि शरीर सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशाग्र के स्वामी का विचार किया गया है (४१६-६६) । यथा-- यद्यपि सूत्र में प्रथमतः जघन्य पद का निर्देश किया गया है, पर प्ररूपणा पहले उत्कृष्ट पद के आश्रय से की गई है। उसे प्रारम्भ करते हुए प्रथमतः औदारिक शरीर का उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है, इसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि वह तीन पल्योपम की स्थिति १३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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