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है । यह ज्ञान का प्रथम भेद है । इस लब्ध्यक्षरज्ञान को समस्त जीवराशि से खण्डित करने पर जो लब्ध हो उसे उसमें मिला देने पर ज्ञान का दूसरा भेद होता है । फिर इस दूसरे ज्ञान को उस जीवराशि से खण्डित करने पर ज्ञान का तीसरा भेद होता है । इस प्रकार छह वृद्धियों के क्रम से असंख्यात लोकमात्र स्थान जाकर अक्षरज्ञान के उत्पन्न होने तक ले जाना चाहिए । अक्षरज्ञान के आगे उत्तरोत्तर एक-एक अक्षर की वृद्धि से उत्पन्न होनेवाले ज्ञानभेदों की 'अक्षरसमास' संज्ञा है ।
यहाँ कुछ आचार्यों का कहना है कि अक्षरज्ञान के आगे छह प्रकार की वृद्धि नहीं है, किन्तु दुगुने तिगुने आदि के क्रम से अक्षरवृद्धि ही होती है । किन्तु दूसरे कुछ आचार्यों का कहना है कि अक्षरज्ञान से लेकर आगे क्षयोपशमज्ञान में छह प्रकार की वृद्धि होती है। इस प्रकार इन दो उपदेशों के अनुसार पद, पदसमास, संघात व संघातसमास आदि ज्ञानभेदों की प्ररूपणा करना चाहिए ।
उक्त प्रकार से श्रुतज्ञान के भेद असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। मतिज्ञान भी इतने ही हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है। कार्य के भेद से कारण में भेद पाया ही जाता है । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान के भेदों की प्ररूपणा जैसे मंगलदण्डक में की गयी है वैसे ही यहाँ करना चाहिए। केवलज्ञान एक ही है ।
- इसी प्रकार दर्शन के भेद भी असंख्यात लोकमात्र जानना चाहिए, क्योंकि सभी ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होते हैं ।
जितने ज्ञान और दर्शन हैं उतनी ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण की आवरणशक्तियाँ हैं । इस प्रकार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र हैं, यह सिद्ध है ( पु० १२, पृ० ४७९-८० ) ।
यहाँ सूत्रकार द्वारा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय इन कर्मों के साथ नामकर्म की भी असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियाँ निर्दिष्ट की गयी हैं ( सूत्र ४,२, १४, १५-१६) । शेष वेदनीय, मोहनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय कर्मों की यथाक्रम से दो, अट्ठाईस, चार और पाँच प्रकृतियाँ उसी प्रकार से निर्दिष्ट हैं; जिस प्रकार कि उनका उल्लेख इसके पूर्व 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका'
और इसके आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में किया जा चुका है ।"
वेदनीय कर्म के प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि सुख और दुःख के अनन्त भेद हैं । तदनुसार वेदनीय की अनन्त शक्तियाँ ( प्रकृतिभेद) सूत्रकार द्वारा क्यों नहीं निर्दिष्ट की गयीं। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह सच है. यदि पर्यायार्थिकनय का अव लम्बन किया गया होता, किन्तु यहाँ द्रव्यार्थिक नय का अवलम्बन किया गया है इसीलिए उसकी अनन्त शक्तियों का निर्देश न करके दो शक्तियों का ही निर्देश है ।
जैसा कि अभी ऊपर कहा गया है, सूत्रकार ने मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों का ही निर्देश किया है (सूत्र ४, २, १४,६-११) ।
इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यह प्ररूपणा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का आ
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका, सूत्र १७ १८, १९, २५-२६, ४५ और ४६ ( पु० : ६ ) तथा प्रकृतिअनुयोगद्वार सूत्र ८७६०, ६८-६६,१३४-३५ और १३६-३७ (पु० १३ )
२. धवला पु० १२, पृ० ४८१
५०२ / ट्ण्डागम-परिशीलन
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