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________________ लम्बन लेकर की गयी है । पर्यायाथिक नय का अवलम्बन करने पर मोहनीय की असंख्यात लीक मात्र प्रकृतियाँ हैं, अन्यथा असंख्यात लोकमात्र उसके उदयस्थान घटित नहीं होते हैं । __ लगभग इसी प्रकार का स्पष्टीकरण धवलाकार द्वारा आयुकर्म के प्रसंग में भी किया गया है।' यह पूर्व में कहा जा चका है कि सत्रकार द्वारा नामकर्म की असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियां निर्दिष्ट की गयी हैं (सूत्र ४,२,१४,१५-१७)। इसकी व्याख्या में धवला में यह शंका उठी हैं कि यहाँ पर्यायार्थिक नय का अवलम्बन क्यों किया गया है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि आनुपूर्वी के भेदों के प्रतिपादन के लिए यहाँ पर्यायाथिकनय का अवलम्बन लिया गया है। उन्होंने आगे क्रम से नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी आदि चारों आनुपूर्वियों की शक्तियों (प्रकृतिभेदों) को स्पष्ट किया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि इन आनुपूर्वी प्रकृतियों के उत्तर भेदों का उल्लेख प्रायः उसी रूप में स्वयं सूत्रकार द्वारा आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में किया गया है। __ जैसा कि धवलाकार को अपेक्षा रही है, सूत्रकार ने यहीं पर उन आनुपूर्वी-प्रकृतिभेदों का उल्लेख क्यों नहीं किया, जिनका उल्लेख उन्होंने आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में किया है। यह विचारणीय है। आगे समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्याश्रय इन दो अनुयोगद्वारों में सूत्रकार द्वारा क्रम से समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास के आश्रय से जो प्रकृतिभेदों की प्ररूपणा की गयी है, धवलाकार ने यथाप्रसंग उसका स्पष्टीकरण किया है। माहारकद्विक व तीर्थकर नारकर्मों के विषय में विशेष ऊहापोह विशेष इतना है नामकर्म के प्रसंग में सूत्रकार ने सामान्य से यह कहा है कि नामकर्म की एक-एक प्रकृति को बीस, अठारह, सोलह, पन्द्रह, चौदह, बारह और दस कोडाकोडि सागरोपमों को समयप्रबद्धतार्थता से गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतने विवक्षित प्रकृति के भेद होते हैं (सूत्र ४,२,१४,३७-३६)। उसकी व्याख्या करते हुए धवला में उस प्रसंग में शंका की गयी है कि आहारकद्विक की समयप्रबद्धार्थता संख्यात अन्तर्मुहूर्त मात्र है । यहाँ शंकाकार ने कहा है कि आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त के ऊपर संयत होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक आहारकद्विक को बांधता है और फिर नियम से थक जाता है। कारण यह है कि प्रमत्तकाल में आहारक द्विक का बन्ध नहीं होता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक उसका अबन्धक होकर पुन: अप्रमत्त होने पर उसे अन्तर्मुहर्त तक बांधता है। इस क्रम से अप्रमत्त-प्रमत्तकाल में उसका बन्धक-अबन्धक होकर पूर्वकोटि के अन्तिम समय तक रहता है । इन अन्तर्मुहूर्तों को सम्मिलित रूप में ग्रहण करने पर संख्यात अन्तर्मुहूर्त मात्र ही उस आहारकद्विक की समयप्रबद्धार्थता होती है। आगे शंकाकार तीर्थकर प्रकृति की समयप्रबद्धार्थता को भी साधिक तेतीस सागरोपम मात्र १. धवला पु० १२, पृ० ४८३ २. पु० १२, पृ० ४८३-८४; इस प्रसंग में सूत्र ५,५,११६-२२ (पु० १३, पृ० ३७१-९३) द्रष्टव्य हैं। बदलण्डागम पर टीकाएँ । ५.३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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