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________________ (२३) कसायपाहुड-पूर्वोक्त भावविधान की दूसरी चूलिका में परम्परोपनिधा की प्ररूपणा के प्रसंग में धवला में यह एक शंका उठायी गई है कि अधस्तन संख्यात अष्टांक और ऊर्वक के अन्तरालों में हतसमुत्पत्तिक स्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, यह कहाँ से जाना जाता है। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि वह आचार्य के उपदेश से अथवा अनुभाग की वृद्धिहानिविषयक "हानि सबसे स्तोक है; वृद्धि उससे विशेष अधिक है" इस अल्पबहुत्व से जाना जाता है। इसी प्रसंग में आगे प्रकारान्तर से वहां यह भी कहा गया है कि अथवा वह कसायपाहुड के अनुभागसंक्रमविषयक सूत्र के व्याख्यान से जाना जाता है कि वे हतसमुत्पत्तिक स्थान सर्वत्र नहीं उत्पन्न होते हैं। इसे आगे कसायपाहुडगत उस सन्दर्भ से स्पष्ट भी कर दिया गया है।' -वेदनाभावविधान में वर्ग व वर्गणाविषयक भेदाभेद के एकान्त का निराकरण करते हुए धवला में द्रव्याथिकनय की अपेक्षा वर्गणा को एक और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा अनन्त भी कहा गया है। आगे इस प्रसंग में शंकाकार ने कहा है वर्गणा की एक संख्या को छोड़कर अनन्तता प्रसिद्ध नहीं है । इस पर यह पूछे जाने पर कि उसकी एकता कहाँ प्रसिद्ध है-इसके उत्तर में शंकाकार ने कहा है कि वह पाहुरचुण्णिसुत्त में प्रसिद्ध है, क्योंकि वहां लोकपूरणसमुद्घात की अवस्था में योग की एक वर्गणा होती है, ऐसा कहा गया है। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि एक वर्गणा में कहीं पर अनेकता का व्यवहार देखा जाता है । जैसे—एक प्रदेशवाली वर्गणाएँ कितनी है इसे स्पष्ट करते हए कहा गया है कि वे अनन्त हैं, दो प्रदेशवाली वर्गणाएँ अनन्त हैं, इत्यादि वर्गणाविषयक व्याख्यान से उनकी अनन्तता जानी जाती है । यह व्याख्यान अप्रमाण नहीं है, क्योंकि उसे अप्रमाण मानने पर व्याख्यान की अपेक्षा समान होने से उस चूणिसूत्र के भी अप्रमाणता का प्रसंग प्राप्त होता है। उपसंहार ___ जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, धवलाकार ने आचार्य यतिवृषभ-विरचित कषायप्राभूतचूणि का उल्लेख कहीं कसायपाहुडचुण्णिसुत्त, कहीं चुण्णिसुत्त, कहीं पाहुड, कहीं पाहडचण्णिसुत्त और कहीं पाहुडसुत्त इन नामों के निर्देशपूर्वक किया है । संक्षेप में उन उल्लेखों को इस प्रकार देखा जा सकता है (१) कसायपाहुड-धवला पु० १, पृ० २१७ । पु० ८, पृ० ५६ । पु० १०-१० ११३१४, २०८, २६८-६६ व ४५१ । पु० १२-पृ० ११६, १२६, २३०-३२ व २४४-४५ । पु० १५, पृ० २७५ । पु० १६-पृ० ३४७ व ५२७-२८ । १. देखिए धवला, पु० १२, पृ० २३०-३१ तथा क.प्रा० चूणि ५२३-३६ (क०पा० सुत्त पृ०३६२-६४) २. देखिए धवला, पु० १२, पृ० ६४-६५ व क० प्रा० का यह संदर्भ-लोगे पुण्णे एक्का वग्गणा जोगस्से त्ति समजोगो ति णायब्वो ।-क० पा० सुत्त, पृ० ६०२, चूणि १२ ३. धवला, पु० १२, पृ० ६४-६५ ५८२/ षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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