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प्ररूपणा है उसी प्रकार यहाँ प्रसंगानुसार गणना-संख्यात के परीतासंख्यात आदि भेद-प्रभेदों का विवेचन है।
सूत्र (१,२,१७) में उपर्युक्त नारक मिथ्यादष्टियों के क्षेत्र प्रमाण को जगप्रतर के असंख्यातवे भाग मात्र असंख्यात जगश्रेणि कहा गया है तथा उनकी विष्कम्भसूची को अंगुल के द्वितीय वर्गमूल से गुणित उसी अंगुल के वर्गमूल प्रमाण कहा गया है।
उसकी व्याख्या में धवलाकार ने 'सब द्रव्य, क्षेत्र और काल प्रमाणों का निश्चय चूंकि विष्कम्भसूची से ही होता है, इसलिए यहाँ हम उसकी प्ररूपणा करेंगे' ऐसी प्रतिज्ञा कर उसकी प्ररूपणा वर्गस्थान में खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुवित और विकल्प द्वारा लगभग उसी प्रकार की है जिस प्रकार कि पूर्व में ओघ के प्रसंग में की गयी है।
नारक मिथ्यादृष्टियों के भागहार के उत्पादन की विधि को दिखलाते हुए ववला में कहा गया है कि जगप्रतर में एक जगश्रेणि का भाग देने पर एक जगश्रेणि आती है। उक्त जगप्रतर में जगश्रेणि के द्वितीय भाग का भाग देने पर दो जगश्रेणियाँ आती हैं। इसी क्रम से उसके तृतीय, चतुर्थ आदि भागों का भाग देने पर तीन, चार आदि जगश्रेणियाँ प्राप्त होती हैं। इस तरह उत्तरोत्तर उसके एक-एक अधिक भागहार को तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक कि नारकियों की विष्कम्भसूची का प्रमाण नहीं प्राप्त हो जाता। ___अनन्तर उस विष्कम्भसूची से जगश्रेणि के अपवर्तित करने पर जो लब्ध हो उनका जगप्रतर में भाग देने पर विष्कम्भसूची प्रमाण जगश्रेणियां आती हैं। इसी प्रकार से अन्यत्र भी विष्कम्भसूची से अवहारकाल के लाने का निर्देश यहाँ कर दिया गया है। भागहार से श्रेणि के ऊपर खण्डित-विरलित आदि पूर्वोक्त विकल्पों के आश्रय से अवहारकाल का कथन करना चाहिए , ऐसा निर्देश कर प्रकृत में उन सबका विस्तार से प्ररूपण किया गया है।
तत्पश्चात् सूत्र (१,२,१८) में सासादन सम्यग्दृष्टियों से लेकर असयत सम्यग्दृष्टियों तक उनके द्रव्यप्रमाण का, जो ओघ के समान निर्दिष्ट किया गया है, स्पष्टीकरण धवला में विस्तार से मिलता है। ___ आगे विशेष रूप में पृथिवी क्रम के अनुसार नारक मिथ्यादष्टियों के प्रमाण की प्ररूपणा करते हुए सूत्रकार ने प्रथम पृथिवी के नारक मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण सामान्य नारक मिथ्या. दृष्टियों के समान कहा है (१,२,१६)।
इस पर शंका उत्पन्न हुई है कि पूर्व में जो सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण कहा गया है वही. यदि प्रथम पृथिवी के नारक मिथ्यादृष्टियों का है तो उस परिस्थिति में शेष द्वितीयादि पृथिवियों में नारक मिथ्यादृष्टियों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि आगे सूत्रों (१,२,२०-२३) में द्वितीयादि पृथिवियों में स्थित नारक मिथ्यादृष्टियों के प्रमाण का निर्देश किया गया है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह समानता केवल असंख्यात जगश्रेणियों, जगप्रतर के असंख्यातवें भाग, द्वितीयादि वर्गमूलों से
१. धवला पु०३, पृ० १२३-२५ व पीछे पृ० ११-१६ २. वही, पृ० १३१-४१ व पीछे पृ० ४०-६३ ३. धवला पु०३, पृ० १४१-१६ ४. वही, १५६-६०
४०० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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