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________________ योवा नरा नरेहि य असंखगुणिया हवंति नेरइया । तत्तो सुरा सुरेहि य सिद्धाणंता तओ तिरिया || २७१ ॥ ० ख० में आगे इसी प्रसंग में आठ गतियों का निर्देश करते हुए उनमें अल्पबहुत्व को इस प्रकार प्रकट किया है "अट्ठ गदीओ समासेण । सव्वत्थोवा मणुस्सिणी । मणुस्सा असंखेज्जगुणा । णेरइया असंखेज्जगुणा । पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ । देवा संखेज्जगुणा । देवीओ संखेज्जगुणाओ । सिद्धा अनंतगुणा । तिरिक्खा अनंतगुणा । " सूत्र २,११, ७-१५ (१०७) 'जीवसमास' में भी इस अल्पबहुत्व को देखिए योवाउ मणुस्सीओ नर-नरय- तिरिक्खिओ असंखगुणा । सुर- देवी संखगुणा सिद्धा तिरिया अनंतगुणा ॥ २७२ ॥ इस प्रकार से इस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान है । विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहाँ मनुष्य, नारक और तिर्यंचनियों के वह अल्पबहुत्व पृथक्पृथक् ३ सूत्रों में निर्दिष्ट किया है वहीं जीवसमास में उसे संक्षेप में 'नर-नरय- तिरिक्खिओ असंखगुणा' इतने गाथांश में द्वन्द्व समास के आश्रय से प्रकट कर दिया गया है। इसी प्रकार ० ख० में देव और देवियों में वह अल्पबहुत्व २ सूत्रों में तथा सिद्धों और तिर्यंचों के विषय में भी वह पृथक्-पृथक् २ सूत्रों में प्रकट किया गया है । किन्तु 'जीवसमास' में समस्त पदों के आश्रय से संक्षेप में ही उसकी प्ररूपणा कर दी गई है । इतना संक्षेप होने पर भी अभिप्राय में कुछ भेद नहीं दिखाई देता । उपसंहार इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में विषय-विवेचन की प्रक्रिया और प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा में बहुत कुछ समानता देखी जाती है। विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जिस प्रकार आगे द्रव्यप्रमाणानुगम आदि अनुयोगद्वारों के प्रसंग में पृथक्-पृथक् यथाक्रम से गति आदि चौदह मार्गणाओं के श्राश्रय से विवक्षित द्रव्यप्रमाण आदि की प्ररूपणा है उस प्रकार से 'जीवसमास' में सभी मार्गणाओं के आश्रय से उन की प्ररूपणा नहीं की गई है । फिर भी वहाँ विवक्षित विषय से सम्बन्धित अन्य प्रासंगिक अनेक विषयों को स्पष्ट कर दिया गया है, जिनकी प्ररूपणा ष० ख० में उन प्रसंगों में नहीं है । उदाहरण के रूप में द्रव्यप्रमाण को हो ले लीजिए। 'जीवसमास' में वहाँ द्रव्यप्रमाण के निरूपण के पूर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से प्रमाण के चार भेदों का निर्देश करते हुए आगे स्वरूप के निर्देशपूर्वक उनके कितने ही अवान्तर भेदों को भी स्पष्ट किया गया है । तत्पश्चात् ष० ख० के समान ओघ की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवर्ती जीवों संख्या को प्रकट किया गया है । अनन्तर गतिमार्गणा के प्रसंग में नारकियों आदि की संख्या दिखलाते हुए कायमार्गणा से सम्बद्ध बादर पृथिवीकायिक आदि जीवों की संख्या को प्रकट किया गया है । - गाथा ८७ - १६५ ( द्रव्य क्षेत्रादिप्रमाण ५७ + गुण-संख्या ५ + बादर पृथिबी आदि संख्या १७) ष०ख० में उस ब्रव्यप्रमाणानुगम के प्रसंग में प्रमाण के भेद-प्रभेदों का स्पष्टीकरण 'जीवसमास' के समान नहीं हुआ है । Jain Education International षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २२७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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