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________________ कोडिकोडीओ | उदही तीसमसाते ।।' इस गाथांश में कर दी गई है।' यहाँ इस गाथा में यद्यपि उनके आबाधाकाल और कर्मनिषेक का निर्देश नहीं किया गया है, पर उसकी व्याख्या में टीकाकार मलयगिरि सूरि ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जिन कर्मों की जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति होती है उतने सौ वर्ष उनका अबाधाकाल' होता है । तदनुसार उक्त बीस कर्मप्रकृतियों की स्थिति चूंकि तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है, इसलिए उनका उत्कृष्ट अबाधाकाल उपर्युक्त नियम के अनुसार तीस सौ ( ३०००) वर्ष प्रमाण ही सम्भव है । इस अबाधाकाल से हीन उनका कर्मदलिक निषेक होता है । 3 उक्त प्रबाधाकाल के नियम का निर्देश आगे स्वयं मूल ग्रन्थकार ने इस प्रकार कर दिया है वाससहस्समबाहा कोडाकोडीदसगस्स सेसाणं । अणुवाओ अणुवट्टगाउसु छम्मा सिगुक्कोसो | -बन्धन क० ७५ अभिप्राय यह है कि जिन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है उनका अबाधाकाल एक हजार वर्ष होता है । शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का वह अबाधाकाल इसी अनुपात से त्रैराशिक प्रक्रिया के आश्रय से - जानना चाहिए । अनपवर्त्य आयुवालों - देवनारकियों और असंख्यात वर्षायुष्क मनुष्य-तिर्यचों में परभव सम्बन्धी आयु का उत्कृष्ट अबाधाकाल छह मास होता है । इसी प्रकार से दोनों ग्रन्थों में शेष कर्मों की भी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा आगे-पीछे समान रूप में की गई है । २. ष० ख० में चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वारों में छठा 'वेदनाकालविधान' अनुयोगद्वार है । उसकी प्रथम चूलिका में मूलप्रकृतिबन्ध के प्रसंग में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है— स्थितिबन्ध स्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । इनमें स्थितिबन्ध स्थानों की प्ररूपणा इस प्रकार है "द्विदिबंधट्टाणपरूवणदाह सव्वत्थोवा सुहुभेइंदियप्रपज्जत्तयस्स द्विदिबंधद्वाणाणि । बादरेइंदि अपज्जत्तस्स द्विदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ।" इत्यादि सूत्र ४, २, ६, ३६-५० ( ०११, पृ० १४०-४७) । इस प्रकार यहाँ चौदह जीवसमासों में स्थितिबन्धस्थानों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । कर्मप्रकृति में इन्हीं स्थितिबन्धस्थानों की प्ररूपणा संक्षेप से इन दो गाथाओं में कर दी गई है fosबंधट्ठणाई सुम अधज्जत्तगस्स थोवाइ' । बायर - सुमेयर-बि-ति-चरदिय-अमण-सण्णीनं ॥ संखेज्जगुणाणि कमा असमत्तियेर बिदियाइम्मि | नवरमसंखेज्जगुणाइ Jain Education International २. क० प्र० बन्धन, क० ७०, पृ० ११० ३. श्वे० ग्रन्थों में आबाधा के स्थान में 'आबाधा' शब्द प्रयुक्त हुआ है । ४. क०प्र०, मलयवृत्ति बन्धन क० गा० ७०, पृ०१११ १८४ / षट्खण्डागम-परिशीलन 11 —बन्धन क० ६८-६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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