SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में इन स्थितिबन्धस्थान की प्ररूपणा सर्वथा समान रही है। क० प्र० के टीकाकार मलयगिरि सूरि ने इन गाथाओं में संक्षेप से निर्दिष्ट उन स्थानों का पष्टीकरण प्रायः उन्हीं शब्दों में कर दिया है जिन शब्दों द्वारा १० ख० में उनकी प्ररूपणा विस्तार से की गई है। ष० ख० में आगे यहीं पर जिन संक्लेश-विशुद्धिस्थानों की प्ररूपणा चौदह (५१-६४) सूत्रों में की गई है उनकी सूचना क० प्र० में 'संक्लेसाई (य) सव्वत्थ' (पूर्व गा० ६६ का च० चरण) 'एमेव विसोहीओ (गा० का प्र० चरण) इन गाथानों में कर दी गई है। उनका स्पष्टीकरण टीकाकार मलयगिरि सूरि ने ष०ख० के ही समान किया है। ३. १० ख० में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत नौ चूलिकाओं में आठवीं 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका है । उसमें प्रथम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व तथा दर्शनमोह और चारित्रमोह के उपशम व क्षय की प्ररूपणा की गई है। इनमें प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव की योग्यता को प्रकट करते हुए यहाँ उसकी इन विशेषताओं को दिखलाया गया है सर्वप्रथम वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि वह जब ज्ञानावरणीय आदि सब कर्मों की स्थिति को अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । आगे इसे और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उसे पंचेन्द्रिय, संजी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्वविशुद्ध-अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन विशुद्धियों से विशुद्धहोना चाहिए । उक्त सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को जब वह संख्यात सागरोपम से हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है तब प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। उस प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ वह अन्तमुहूर्त हटता है--अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करके वह मिथ्यात्व के तीन खण्ड करता है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । इस प्रकार वह दर्शनमोह को उपशमाता है। उसे उपशमाता हुआ वह चारों गतियों, पंचेन्द्रियों, संज्ञियों, गर्भोपक्रान्तिकों और पर्याप्तकों में उपशमाता है। इसके विपरीत वह एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों आदि में उसे नहीं उपशमाता है। वह उसे संख्यातवर्षायूष्कों में और असंख्यातवर्षायुष्कों में भी उपशमाता है।' ___ दर्शनमोहनीय की उपशामना किन क्षेत्रों व किसके समक्ष होती है, इसके लिए कोई विशेष नियम नहीं है-वह किसी भी क्षेत्र में और किसी के भी समक्ष हो सकती है।' क० प्र० में छठा उपशामनाकरण है। उसकी उत्थानिका में वृत्तिकार मलयगिरि सूरि ने उसके प्रतिपादन में इन आठ अधिकारों की सूचना की है-(१) सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा, (२) देश विरतिलाभप्ररूपणा, (३) सर्वविरतिलाभप्ररूपणा, (४) अनन्तानुबन्धिविसंयोजना, (५) दर्शनमोहनीयक्षपणा, (६) दर्शनमोहनीय उपशामना, (७) चारित्रमोहनीय उपशामना और (८) देशोपशामना। इनमें प्रथमतः ग्रन्थकार ने सम्यक्त्वोत्पाद प्ररूपणा के प्रसंग में उपशामना के करणकृता और अकरणकृता इन दो भेदों का निर्देश करते हुए 'अनुदीर्णा' अपर नामवाली दूसरी अकरण १. ष०ख० सूत्र १, ६-८, ३-६ (पु. ६)। २. १०ख० सूत्र १,६-१,१० (इसकी धवला टीका भी द्रष्टव्य है) ३. क० प्र० मलय० वृत्ति, पृ० २५४/२ षट्खण्डागम की अन्य प्रन्यों से तुलना / १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy