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कृता उपशामना के अनुयोगधरों को--तद्विषयक व्याख्याकुशलों को-नमस्कार किया है।' ____ आगे वहाँ करणोपशामना के सर्वोपशामना और देशोपशामना इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें सर्वोपशामना के गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना तथा देशोपशामना अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना इन दो भेदों का निर्देश किया गया है । साथ ही वहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि उनमें सर्वोपशामना मोह की ही होती है। ___इसी प्रसंग में आगे कर्म प्रकृति में यह स्पष्ट किया गया है कि इस सर्वोपशामना क्रिया के योग्य पंचेन्द्रिय, संज्ञी, लब्धित्रय--पंचेन्द्रियत्व, संज्ञित्व व पर्याप्तता रूप तीन लब्धियों अथवा उपशमलन्धि, उपदेशश्रवण लब्धि और करण त्रय की हेतु प्रकृष्ट योगलब्धि रूप तीन लब्धियोंसे युक्त, करण काल के पूर्व विशुद्धि को प्राप्त होनेवाला, ग्रन्थिक जीवों (अभव्यों) की विशुद्धि का अतिक्रमण कर वर्तमान; तथा मति व श्रुतरूप साकार उपयोगों में से किसी एक उपयोग में, तीन योगों में से किसी एक योग में व विशुद्ध लेश्या में वर्तमान जीव होता है ।
इन विशेषताओं से युक्त होता हुआ जो सात कर्मों की स्थिति को अन्त: कोडाकोड़ी प्रमाण करके अशुभ कर्मों के चतुःस्थानरूप अनुभाग को द्विस्थानरूप और शुभ कर्मों के द्विस्थानरूप अनुभाग को चतु:स्थानरूप करता है, ध्र व प्रकृतियों (४७) को बाँधता हुआ जो अपने भव के योग्य शुभ प्रकृतियों को बांधता है, आयु कर्म को नहीं बाँधता है, योग के वश जो जघन्य,मध्यम अथवा उत्कृष्ट प्रदेशाग्र को बाँधता है; स्थिति काल के पूर्ण होने पर जो नवीन स्थिति को पूर्व की अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन बांधता है तथा अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को जो अनन्तगुणी हानि के साथ और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को अनन्त गुणी वृद्धि के साथ बांधता है; इस विधि के साथ जो क्रम से अन्तर्मुहूर्त कालवाले यथाप्रवृत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करता है वह क्रम से उपशान्ताद्धा को प्राप्त करता
- इसका पूर्वोक्त षटखण्डागम से मिलान करने पर दोनों में पर्याप्त समानता दिखती है। विशेष स्पष्टीकरण दोनों ग्रन्थों की अपनी-अपनी टीका में कर दिया गया है। जैसे
(१) क० प्र० में दर्शनमोह के उपशामक जीव को अन्यतर साकार उपयोग में वर्तमान कहा गया है।
१. करणकया अकरणा वि य दुविहा उवसामणस्थ बिइयाए । अकरण-अणुइन्नाए अणुओगधरे
पणिवयामि ॥-उपशा० १ इसकी प्ररूपणा कषायप्राभत (चूणि) में इस प्रकार की गई है--उवसामणा कदिविधा त्ति ? उवसामणा दुविहा करणोवसामणा अकरणोवसामणा च । जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि --अकरणोवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसामणा त्ति वि । एसा कम्मपवादे । जा सा करणोवसामणा सा दुविहा---देसकरणोवसामणा त्ति वि सव्वकरणोवसामणा त्ति वि । देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि-देसकरणोवसामणा त्ति वि अप्पसत्थउवसामणा त्ति वि। एसा कम्मपयडीसु । जा सव्वकरणोवसामणा तिस्से वि दुवे णामाणि-सव्वकरणोवसामणा ति वि पसत्थकरणोवसामणा त्ति वि ।
-क० पा० चुण्णिसुत्त २६६-३०६, पृ० ७०७-८ ३. क०प्र० (उपशा० क०) गा० ३.८, पृ० २५५ ४. १० ख० सूत्र १, ६-८, ३-१० (पु० ६) ।
१८६ / षट्लण्डागम-परिशीलन
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