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वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगद्वारों के आश्रय से उन्हीं अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों (अनुभागबन्धस्थानों) की प्ररूपणा की गई है। धवलाकार ने 'अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान' से 'अनुभागबन्धस्थान' का अभिप्राय व्यक्त किया है (सूत्र १६७)। यह दूसरी चूलिका १६७ वें सूत्र से प्रारम्भ होकर २६७वें सूत्रपर समाप्त हुई है। चूलिका ३ __ प्रस्तुत भावविधान से सम्बद्ध इस तीसरी चूलिका में जीवसमुदाहार के अन्तर्गत ये आठ अनुयोगद्वार निर्दिष्ट किए गए हैं-एकस्थानजीवप्रमाणानुगम, निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।
१. एकस्थानजीवप्रमाणानुगम में एक-एक अनुभागबन्धस्थान में जघन्य से इतने और उत्कर्ष से इतने जीव होते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (२६६)।
२. निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम के आश्रय से निरन्तर जीवों से सहगत अनुभाग-स्थान इतन और उत्कर्ष से इतने होते हैं, यह स्पष्ट किया गया है (२७०)।
३. निरन्तर जीवों से विरहित वे स्थान जघन्य से इतने और उत्कर्ष से इतने होते हैं, इसे सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम में स्पष्ट किया गया है (२७१)।
४. नानाजीवकालप्रमाणानुगम में एक-एक स्थान में जघन्य से इतने और उत्कर्ष से इतने जीव होते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (२७२-७४)।
रोपनिधा और परम्परोपनिधा के आश्रय से जी प्रकट किया गया है (२७५-८६)।
६. क्रम से बढ़ते हुए जीवों के स्थानों के असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है। उससे ऊपर के सब स्थान जीवों से विशेष हीन होते गये हैं। इसका स्पष्टीकरण यवमध्यप्ररूपणा में किया गया है (२६०-६२)।
७. स्पर्शन अनुयोगद्वार में अतीत काल में एक जीव के द्वारा एक अनुभाग-स्थान इतने काल स्पर्श किया गया है, इसका विचार किया गया है (२६३.३०३)।
८. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में पूर्वोक्त तीनों अनुभाग स्थानों के अल्पबहुत्व का विवेचन किया गया है (३०४-१४)।
इस प्रकार यह तीसरी भावविधान-चूलिका २६८ वें सूत्र से प्रारम्भ होकर ३१४ वें सूत्र पर समाप्त हुई है। इन तीनों चूलिकाओं के समाप्त हो जाने पर प्रस्तुत वेदनाभावविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है।
८. वेदनाप्रत्ययविधान-इस अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मवेदनाओं के प्रत्ययों (कारणों) का विचार किया गया है । यथा
नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मवेदनाओं में प्रत्येक के ये प्रत्यय निर्दिष्ट किये गये हैं-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान,
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१. पु० १२, पृ० ८७-२४०
मूलगतग्रन्थ विषय का परिचय | ६५
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