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________________ गद्यात्मक सूत्रों में किया गया है।' जैसे उक्त तीन गाथाओं में से प्रथम गाथा के प्रारम्भ में यह कहा गया है--- संज-मणदाणमोहीलाभं । इसमें 'संज' से चार संज्वलन, 'मण' से मन:पर्ययज्ञानावरणीय, 'दाण' से दानान्तराय और 'ओही' से अवधिज्ञानावरण व अवधिदर्शनावरण अभिप्रेत रहे हैं । तदनुसार गद्यसूत्रों में उसे इस प्रकार स्पष्ट किया गया है— संज्वलनलोभ सबसे मन्द अनुभागवाला है, संज्वलनमाया उससे अनन्तगुणी है, संज्वलनमान उससे अनन्तगुणा है, संज्वलनक्रोध उससे अनन्तगुणा है, मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तराय ये दोनों परस्पर तुल्य होकर उससे अनन्तगुणे हैं, अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय तीनों परस्पर तुल्य होकर उनसे अनन्तगुणे हैं (सूत्र ११९-२४), इत्यादि । इस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों के समाप्त होने पर आगे प्रस्तुत वेदनाभावविधान से सम्बन्धित तीन चूलिकाएँ हैं । चूलिका १ " यहाँ सर्वप्रथम 'सम्मत्तप्पत्ती वि य' इत्यादि दो गाथाएँ प्राप्त होती हैं। इन गाथाओं द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति, देशविरति संयत, अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन, दर्शनमोह का क्षपक, कषाय का उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और जिन अधःप्रवृत्तकेवली व योगनिरोध के इन स्थानों में नियम से उत्तरोत्तर होनेवाली असंख्यातगुणी निर्जरा और विपरीत क्रम से उस निर्जरा के संख्यातगुणे काल की प्ररूपणा की गई है । आगे इन दोनों गाथाओं के अभिप्राय को गद्यसूत्रों में स्वयं ग्रन्थकार द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है दर्शनमोह के उपशामक की गुणश्रेणिनिर्जरा का गुणकार सबसे स्तोक है । उससे संयतासंयत की गुणश्रेणिनिर्जरा का गुणकार असंख्यातगुणा है। उससे अधःप्रवृत्तसंयत की गुणश्रेणिनिर्जरा का गुणकार असंख्यातगुणा है। उससे अनन्तानुबन्धी के विसंयोजक की गुणश्रेणिनिर्जरा का गुणकार असंख्यातगुणा है, इत्यादि (सूत्र १७५-८५) । इस गुणश्रेणिनिर्जरा का विपरीत कालक्रम योगनिरोधकेवली की गुणश्रेणि का काल सबसे स्तोक है । अधःप्रवृत्त केवली की गुणश्रेणि का काल उससे संख्यातगुणा है । क्षीणकषाय- वीतरागछद्मस्थ की गुणश्रेणि का काल उससे संख्यातगुणा है, इत्यादि (सूत्र १८६ - ६६) । चूलिका २ पूर्व में वेदनाद्रव्यविधान, वेदनाक्षेत्र विधान और वेदनाकालविधान इन तीन अनुयोगद्वारों में अजघन्य और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानों की सूचना मात्र की गई है, उनकी प्ररूपणा वहाँ नहीं की गई है। अब इस दूसरी चूलिका में श्रविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, प्रोज-युग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, १. धवला सूत्र, ११८-७४, पृ० ६५-७५ २. वही, पु० १२, पृ० ७८ ६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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