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________________ (१) धातु-धातु के प्रसंग में धवलाकार ने 'मंगल' शब्द को 'मगि' धातु से निष्पन्न कहा है। आवश्यकसूत्र (पृ० ४) और दशवकालिक-नियुक्ति (१, पृ० ३) की हरिभद्र विरचित वत्ति के अनुसार 'मंगि' धातु का अर्थ अधिगमन अथवा साधन होता है। तदनुसार 'मङ्ग्यते हितमनेनेति मङ्गलम् , मङ ग्यतेऽधिगम्यते गाध्यते इति यावत्' इस नियुक्ति के अनुसार अभिप्राय यह हुआ कि जिसके आश्रय से हित का अधिगम अथवा उसकी सिद्धि होती है उसका नाम मंगल है।' (२-३) निक्षेप व नय-निक्षेप के प्रसंग में धवला में मंगल के ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव मंगल । इनके विषय में वहां प्रथमतः नयकी योजना की गयी है और तत्पश्चात् क्रम से अन्य प्रासंगिक चर्चा के बाद उक्त नामादिस्वरूप छह प्रकार के मंगल की विस्तार से विवेचना की है। अन्त में एक गाथा उद्धृत कर उसके आश्रय से निक्षेप का प्रयोजन, अप्रकृत का निराकरण, प्रकृत का प्ररूपण, संशय का विनाश और तत्त्वार्थ का अवधारण कहा गया है। निष्कर्ष के रूप में वहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जो वक्ता निक्षेप के बिना सिद्धान्त का व्याख्यान करता है अथवा जो श्रोता उसे सुनता है वह कुमार्ग में प्रस्थित हो सकता है। (४) एकार्थ--एकार्थ के प्रसंग में मंगल के ये समानार्थक नाम निर्दिष्ट किये गये हैंपुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, शुभ, कल्याण, भद्र और सौख्य आदि । साथ ही, वहाँ समानार्थक शब्दों के कथन प्रयोजन को भी स्पष्ट कर दिया गया है। (५) निरुक्ति-निरुक्ति के प्रसंग में 'मंगल' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गयी है'मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयतीति मंगलम् ।' इस प्रसंग में मल के अनेक भेदों का उल्लेख किया गया है। प्रकारान्तर से 'अथवा मङ्गसुखम्, तल्लाति आदत्ते इति वा मङ्गलम्' इस प्रकार से भी 'मंगल' शब्द को निरुक्ति की गई है। तीसरे प्रकार से भी उसकी नियुक्ति इस प्रकार की गई है--'अथवा मंगति गच्छति कार्यसिद्धि मनेनास्मिन् वेति मंगलम् ।६।। (६) अनुयोगद्वार-इसी प्रसंग में 'मंगलस्यानुयोग उच्यते' ऐसी सूचना के साथ धवला में यह गाथा उद्धृत है कि कस्स केण कत्थ य केचिरं कविविधो य भावो ति। छहि अणिओगद्दारेहि सव्वेभा वाणुगंतव्वा । १. धवला पु० १, पृ०६-१० २. वही, १०-३१ ३. वही, ३१-३२ ४. वही, ३२-३३ ५. वही, ३३ ६. धवला पु० १; पृ० ३४ ७. यह गाथा मूलाचार (८-१५), जीवसमास (४) और आव० नि० (८६४) में भी उपलब्ध होती है। त० सूत्र में इन ६ अनुयोगद्वारों का उल्लेख इस प्रकार से किया गया हैनिर्देशस्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः । (सूत्र १-८) ३६६ / षट्सण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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