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________________ मंगल आदि छह मूल ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य पुष्पदन्त ने पंचपरमेष्ठि- नमस्कारात्मक जिस मंगल को किया है उसकी उत्थानिका में धवलाकार ने एक प्राचीन गाथा उद्धृत करते हुए कहा है-"आचार्य परम्परागत इस न्याय को मन से अवधारण करके पूर्व आचार्यों का अनुसरण रत्नत्रय 'का हेतु है' ऐसा मानते हुए पुष्पदन्ताचार्य सकारण मंगल आदि छह की प्ररूपणा हेतु सूत्र कहते हैं" । " मंगलादि छह की सूचक वह गाथा इस प्रकार है मंगल- निमित्त हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वारिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्यभाइरियो || अर्थात् १ मंगल, २ निमित्त, ३ हेतु, ४ परिमाण, ५ नाम और ६ कर्ता इन छह का व्याख्यान करके तत्पश्चात् आचार्य को अभीष्ट शास्त्र का व्याख्यान करना चाहिए । - धवला पु० १, पृ० ७ इस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि यह सूत्र ( ' णमो अरिहंताणं' आदि ) सकारण उन मंगल आदि छह का प्ररूपक कैसे है। उसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह सूत्र 'तालप्रलम्ब' सूत्र के समान देशामर्शक है --विवक्षित अर्थ के एक देश की प्ररूपणा करके उससे सम्बद्ध शेष समस्त अर्थ का सूचक है । ---- से क्या अभिप्रेत है, इसका कुछ स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता हैतालप्रलम्ब सूत्र साधु के लिए क्या कल्प्य ( ग्राह्य) है और क्या अकल्प्य (अग्राह्य) है, इस प्रकार कल्प्याकल्प्य के प्रसंग में वह सूत्र कहा गया है । 'ताल' शब्द वनस्पति के एक देशभूत वृक्षविशेष का परामर्शक होकर उपलक्षण से वह हरितकाय तृण, औषधि, गुच्छा, लता आदि अन्य सभी वनस्पतियों का बोधक है। जैसे—साधु के लिए जब यह कहा जाता है कि 'तालपलंबं ण कप्पदि' तब उसका अभिप्राय यह होता है कि ताल के समान समस्त हरितकाय औषधि आदि (अग्रप्रलम्ब) और मूलप्रलम्बरूप कन्दमूलादि अकल्प्य हैं उनका उपभोग करना निषिद्ध है । 'भगवती आराधना' में इसका उदाहरण इस प्रकार देखा जाता है सामासितं आचेलक्कं ति तं खु ठिदिकप्पे । लुतोऽथवाऽऽदिसद्दो जह तालपलंबसुत्तम्मि ॥। ११२३ ॥ दस प्रकार के स्थितिकल्प में 'आचेलक्य' यह प्रथम है । यहाँ 'अचेलकता' में 'चेल' शब्द से उपलक्षण रूप में समस्त बाह्य परिग्रह का ग्रहण होने से वस्त्रादि समस्त बाह्य परिग्रह का परित्याग अभीष्ट रहा है । प्रकारान्तर से यह भी कहा गया- अथवा यहाँ 'आदि' शब्द का लोप हो गया समझना चाहिए। इस प्रकार उक्त स्थितिकल्प में चेल (वस्त्र) आदि समस्त बाह्य परिग्रह के परित्याग का विधान है । इसी प्रकार प्रकृत में धवलाकार ने उस तालप्रलम्बरूप सूत्र को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करके उक्त पंचपरमेष्ठि- नमस्कारात्मक मंगलगाथा को देशामर्शक कहा है और उससे सूचित मंगल-निमित्तादि छह को धवला में क्रम से प्ररूपित किया है । यथा १. धवला पु० १, पृ० ७-८ Jain Education International षट्खण्डागम पर टीकाएं / ३६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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