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के भी उसका सद्भाव प्रकट किया गया है।'
१७. तत्त्वार्थसत्र में आहारक शरीर का सद्भाव प्रमत्तसंयत के ही प्रकट किया गया है।'
किन्तु ष० ख० में योग मार्गणा के प्रसंग में आहारककाययोग का सद्भाव सामान्य से ऋद्धिप्राप्त संयतों के निर्दिष्ट किया गया है। वहाँ विशेष रूप में प्रमत्तमंयत का कोई उल्लेख नहीं किया गया, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में अवधारणपूर्वक उसका सद्भाव प्रमत्तसंयत के ही कहा गया है। इसके अतिरिक्त ष० ख० में तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा 'ऋद्धिप्राप्त' यह विशेषण अधिक है।
वह आहारकशरीर प्रमत्तसंयत के क्यों होता है, इसे स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि जब आहारकशरीर के निर्वर्तन को प्रारम्भ किया जाता है तब संयत प्रमाद से यक्त होता है, इसीलिए सूत्र में उसका सद्भाव प्रमत्तसंयत के कहा गया है। __ आगे जाकर ष० ख० में भी विशेष रूप से स्वामित्व को प्रकट करते हुए उन आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग का सद्भाव एक मात्र प्रमत्त संयत गुणस्थान में ही निर्दिष्ट किया गया है।
धवलाकार ने पूर्व सूत्र (५६) की उत्थानिका में 'आहारशरीरस्वामिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह' ऐसी सूचना की है और तत्पश्चात् अगले सूत्र (६३) की उत्थानिका में उन्होंने 'आहारकाययोगस्वामिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह' ऐसी सूचना की है।
इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृत आहारकशरीर और आहारककाययोग के स्वामियों के विषय में परस्पर कुछ मतभेद रहा है, जिसे मूल ग्रन्थ और टीका में स्पष्ट नहीं किया गया है।
१८. तत्त्वार्थसूत्र में नारकी और सम्मूर्च्छन जन्मवाले जीवों को नपुंसकवेदी, देवों को नपुंसकवेद से रहित-पुरुष-वेदी व स्त्रीवेदी-तथा इन से शेष रहे सब जीवों को तीनों वेदवाले कहा गया है। __ष० ख० के उक्त सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में वेदमार्गणा के प्रसंग में सामान्य से स्त्रीवेदी, पुरुष वेदी और नपुंसकवेदी इन तीनों वेदवाले जीवों के अस्तित्व को दिखा कर आगे गुणस्थान की प्रमुखता से स्त्री और पुरुष इन दो वेदवाले जीवों का अस्तित्व असंज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक और नपुंसकवेदियों का अस्तिव एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण तक प्रकट किया गया है । आगे के गुणस्थानवी जीव वेद से रहित होते हैं। इस प्रकार सामान्य से वेद की स्थिति को प्रकट करके आगे गतियों में उस वेद की स्थिति दिखलाते हुए कहा गया है कि नारकी जीव चारों गुणस्थानों में शुद्ध-स्त्री व पुरुषवेद से
१. त० सूत्र २-२५ व ष० ख० १,१,६० (पु० १, पृ० २६८) २. त० सूत्र २-४६ ३. ष० ख० १,१, ५६ (पु० १, पृ० २६७) ४. यदाऽऽहारकशरीरं निवर्तयितुमारभते तदा प्रमत्तो भवतीति प्रमत्तसंयतस्येत्युच्यते। .
-स०सि० १-४६ ५. सूत्र १,१, ६३ (पु० १, पृ० ३०६) ६. धवला पु० १, पृ० २६७ और ३०६
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १७३
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