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प्रधान सम्पादकीय
आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली कृत षट्खण्डागम सूत्र और उसकी आचार्य वीरसेन कृत धवला टीका की ताड़पत्रीय प्रतियाँ एक मात्र स्थान मूडबिद्री के जैन भण्डार में सुरक्षित थीं, और वे प्रतियाँ अध्ययन की नहीं, किन्तु दर्शन-पूजन की वस्तु बन गयी थीं। इसकी प्रतिलिपियाँ किस प्रकार उक्त भण्डार से बाहर निकलीं यह भी एक रोचक घटना है । जब सन् १९३८ में विदिशा निवासी श्रीमन्त सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्दजी के दान के निमित्त से इस परमागम के अध्ययन व संशोधन कार्य में हाथ लगाया गया तब समाज में इसकी भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ हुईं। नयी पीढ़ी के समझदार विद्वानों ने इसका हार्दिक स्वागत किया और कुछ पुराने पण्डितों और शास्त्रियों ने, जैसे स्व० पं० देवकीनन्दन जी शास्त्री, पं० हीरालाल जी शास्त्री, पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री और पं० बालचन्द्र जी शास्त्री का क्रियात्मक सहयोग प्राप्त हुआ । किन्तु विद्वानों के एक वर्ग ने इसका बड़ा विरोध किया । कुछ का अभिमत था कि षट्खण्डागम जैसे परमागम का मुद्रण कराना श्रुत की अविनय है । यह मत भी व्यक्त किया गया कि ऐसे सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ने का भी अधिकार गृहस्थों को नहीं है । यह केवल त्यागी - मुनियों के ही अधिकार की बात है । किन्तु जब इस विरोध के होते हुए भी हमारे सहयोगी विद्वान ग्रन्थ के संशोधन में दृढ़ता से प्रवृत्त हो गये और एक वर्ष के भीतर ही उसका प्रथम भाग सत्प्ररूपणा प्रकाशित हो गया तब सभी को आश्चर्य हुआ। कुछ काल पश्चात् जैन शास्त्रार्थ संघ मथुरा की ओर से 'कषायप्राभृत' का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तथा भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से 'महाबन्ध' का प्रकाशन होने लगा। इस प्रकार जो धवल, जयधवल और महाधवल नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थ पूजा की वस्तु बने हुए थे वे समस्त जिज्ञासुओं के स्वाध्याय हेतु सुलभ हो गये । श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द जी द्वारा स्थापित जैन साहित्योद्धारक फण्ड से समस्त षट्खण्डागम और उसकी टीका का अनुवाद आदि सहित संशोधन - प्रकाशन १६ भागों में १६३६ से १९५६ ई० तक बीस वर्षों में पूर्ण हो गया ।
समूचा ग्रन्थ प्रकाशित होने से पूर्व ही एक और विवाद उठ खड़ा हुआ । प्रथम भाग के सूत्र ६३ में जो पाठ हमें उपलब्ध था, उसमें अर्थ - संगति की दृष्टि से 'संजदासंजद' के आगे 'संजद' पद जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई। किन्तु इससे फलित होने वाली सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं से कुछ विद्वानों के मन आलोडित हुए और वे 'संजद' पद को वहाँ जोड़ना एक अनधिकार चेष्टा कहने लगे । इस पर बहुत बार मौखिक शास्त्रार्थ भी हुए और उत्तर- प्रत्युत्तर रूप लेखों की श्रृंखलाएँ भी चल पड़ीं जिनका संग्रह कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थों में प्रकाशित भी हुआ है । इसके 'मौखिक समाधान हेतु जब सम्पादकों ने ताड़पत्रीय प्रतियों के पाठ की सूक्ष्मता से जांच करायी
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