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तब पता चला कि वहाँ की दोनों भिन्न प्रतियों में हमारा सुझाया गया संजद पद विद्यमान है। इसस दो बातें स्पष्ट हुईं । एक तो यह कि सम्पादकों ने जो पाठ-संशोधन किया है वह गम्भीर चिन्तन और समझदारी पर आधारित है । और दूसरी यह कि मूल प्रतियों में पाठ मिलान की आवश्यकता अब भी बनी हुई है; क्योंकि जो पाठान्तर मूडबिद्री से प्राप्त हुए थे और तृतीय भाग के अन्त में समाविष्ट किये गये थे उनमें यह संशोधन नहीं मिला। __ जीवस्थान षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड है। उसका प्रथम अनुयोगद्वार सत्प्ररूपणा है । उसमें टीकाकार ने सत्कर्म-प्राभृत और कषाय-प्राभूत के नामोल्लेख तथा उनके विविध अधिकारों के उल्लेख एवं अवतरण आदि दिये हैं । इनके अतिरिक्त सिद्धसेन दिवाकर कृत 'सन्मतितर्क' का 'सम्मईसुत्त' नाम से उल्लेख किया है तथा उसकी सात गाथाओं को उद्धृत किया है और एक स्थल पर उनके कथन से विरोध बताकर उसका समाधान किया है। उन्होंने अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थ राजवार्तिक का तत्त्वार्थभाष्य नाम से उल्लेख किया है और उसके अनेक अवतरण कहीं शब्दश: और कहीं कुछ परिवर्तन के साथ दिये हैं। इसके सिवाय उन्होंने जो २१६ संस्कृत व प्राकृत पद्य बहुधा 'उक्तं च' कहकर और कहीं-कहीं बिना ऐसी सूचना के उद्धृत किये हैं। उनमें से हमें कुछेक आचार्य कन्दकन्द कृत 'प्रवचनसार', 'पंचास्तिकाय' व उसकी जयसेन कृत टीका में, 'तिलोयपण्णत्ती' में, बटुकेर कृत मलाचार में, अकलंकदेव कृत लघीयस्त्रय में. मलाराधना में. वसनन्दि-श्रावकाचार में, प्रभाचन्द्र कृत शाकटायनन्यास में, देवसेन कृत नयचक्र में तथा आचार्य विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा में मिले हैं । गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड की जीवप्रबोधिनी टीका में इसकी ११० गाथाएँ भी पायी जाती हैं जो स्पष्टतः वहां पर यहीं से ली गयी हैं। कई जगह तिलोयपण्णत्ती की गाथाओं के विषय का उन्हीं शब्दों में संस्कृत पद्य अथवा गद्य द्वारा वर्णन किया गया है। पं० बालचन्द्र शास्त्री ने अपनी इस पुस्तक में इन सभी बातों की विस्तार एवं विशद रूप से समीक्षा की है । ___षट्खण्डागम के छह खण्डों में प्रथम खण्ड का नाम जीवट्ठाण है। उसके अन्तर्गत सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व-ये आठ अनुयोगद्वार तथा प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थान-समुत्कीर्तन, तीन महादण्डक, जघन्य स्थिति, उत्कृष्ठ-स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति-आगति ये नौ चूलिकाएँ हैं । इस खण्ड का परिमाण धवलाकार में अठारह हजार पद कहा है। पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकाओं में गुणस्थान और मार्गणाओं का आश्रय लेकर विस्तार से वर्णन किया गया है । इसमें जो शंका-समाधान हैं उन्हें हम यहाँ उद्धृत कर देना उपयुक्त समझते हैं---
शंका-पुण्य के फल क्या हैं ? समाधान-तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की
ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। शंका-पाप के फल क्या हैं ? समाधान-नरक, तिथंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और
दारिद्र्य आदि की उत्पत्ति पाप के फल हैं । शंका-अयोगी गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता इसलिए उनकी द्रव्य.
प्रमाणानुगम में द्रव्य-संख्या कैसे कही जायेगी?
6 / षट्खण्डागम-परिशीलन
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