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समाधान--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि भूतपूर्व न्याय का आश्रय लेकर अयोगी गुणस्थान की
द्रव्य-संख्या का कथन सम्भव है । अर्थात् जो जीव पहले मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में प्रकृतिस्थानों के बन्धक थे वे ही अयोगी हैं। इस प्रकार अयोगी गुणस्थान की
द्रव्यसंख्या का प्रतिपादन किया जा सकता है। शंका-मार्गणा किसे कहते हैं ? समाधान-सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा
खोजे जाते हैं उसे मार्गणा कहते हैं । शंका-मार्गणाएं कितनी हैं ? समाधान-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व,
सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार-ये चौदह मार्गणाएँ हैं। इनमें जीव खोजे जाते हैं। शंका-जीवसमास किसे कहते हैं ? समाधान—जिस में जीव भली प्रकार से रहते हैं।
शंका-जीव कहाँ रहते हैं ? समाधान-जीव गुणों में रहते हैं।
शंका-वे गुण कौन-से हैं ? समाधान-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक-ये पांच
प्रकार के गुण अर्थात भाव हैं। इनका खुलासा इस प्रकार है-जो कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है उसे औदायिक भाव कहते हैं । जो कर्मों के उपशम से होता है उसे औपशमिक भाव कहते हैं । जो कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं । जो वर्तमान समय में सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से और अनागत काल में उदय में आने वाले सर्वघाती के स्पर्धकों के सदवस्था रूप उपशम से उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । जो कर्मों के ऐसे उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा के बिना जीव के स्वभावमात्र से उत्पन्न होता है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। इन गुणों के साहचर्य से आत्मा भी गुण संज्ञा को प्राप्त होता है। -सासादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं होने से मिथ्यादृष्टि नहीं है। समीचीन रुचि का अभाव होने से सम्यदृष्टि भी नहीं है। तथा इन दोनों को विषय करने वाली सम्यग्मिथ्यात्व रूप रुचि का अभाव होने से सम्यग्मिथ्यादष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि नहीं है। अर्थात्
सासादन नाम का कोई स्वतन्त्र गुणस्थान नहीं मानना चाहिए। समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि सासादन गुणस्थान में विपरीत अभिप्राय रहता है इसलिए
उसे असद्-दृष्टि ही जानना। शंका-यदि ऐसा है तो उसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए ? समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरणचरित्र का प्रतिबन्ध करने वाले
अनन्तानुबन्धि-कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभि
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