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में जो १६१,१६२,१९४ और १९६ ये गाथाएँ उपलब्ध होती हैं वे ष०ख० के 'बन्धन' अनुयोगद्वार में गाथासूत्र १२२,१२५,१२७ और १२८ के रूप में अवस्थित हैं।'
(२) जीवकाण्ड में इसी प्रसंग के अन्तर्गत १८५ व १८६ ये दो गाथाएँ मूलाचार के पंचाचाराधिकार में १६ और १६ गाथांकों के रूप में अवस्थित हैं।
(३) जीवकाण्ड के अन्तर्गत गाथाएँ १८ व २७ क्रम से कषायप्राभूत में १०७ व १०८ गाथांकों के रूप में अवस्थित हैं।'
(४) जीवकाण्ड में प्रमत्तसंयत गुणस्थान के प्रसंग में प्रमाद का निरूपण करते हुए जिन ३६-३८, ४० और ४२ इन पाँच गाथाओं का उपयोग किया गया है वे मूलाचार के 'शीलगुणाधिकार' में यथाक्रम से २०-२२, २३ और २५ इन गाथांकों में अवस्थित हैं। विशेषता यह रही है कि मूलाचार की गाथा २१ में जहाँ प्रसंग के अनुरूप 'सील' शब्द का उपयोग हुआ है वहाँ जोवकाण्ड की गाथा ३७ में उसके स्थान में प्रमाद का प्रसंग होने से 'पमद' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार मूलाचार की गाथा २५ में जहाँ प्रसंग के अनुरूप चतुर्थ चरण में 'कुज्जा पढमंति याचेव' ऐसा पाठ रहा है वहाँ जीवकाण्ड की गाथा ४२ में उसके स्थान में 'कुज्जा एमेव सव्वत्थ' ऐसा पाठ परिवर्तित हुआ है।
(५) जीवकाण्ड में ज्ञानमार्गणा के प्रसंग में प्रयुक्त ४०३-६,४११,४२६ और ४२६-३१ ये ६ गाथाएँ ष० ख० के पाँचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में ४-८ और ११-१४ गाथासूत्रों के रूप में अवस्थित हैं।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि आ० नेमिचन्द्र ने अपने से पूर्वकालीन कषायप्राभूतादि अन्य ग्रन्थों से भी प्रसंगानुरूप गाथाओं को लेकर अपने ग्रन्थों का अंग बनाया है।
११. जीवकाण्ड में यथाक्रम से गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं का निरूपण करते हुए प्रत्येक मार्गणा के अन्त में प्रसंग प्राप्त उन जीवों की संख्या को भी प्रकट किया गया है। इस संख्या प्ररूपणा का आधार ष० ख० के प्रथम खण्ड स्वरूप जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में जो दूसरा 'द्रव्यप्रमाणानुगम' अनुयोगद्वार है, रहा है। विशेष इतना है कि जीवकाण्ड में जहाँ गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में यथाक्रम से स्वरूप आदि का विचार करते हुए अन्त में उन जीवों की संख्या का उल्लेख है वहाँ षट्खण्डागम के अन्तर्गत इस अनुयोगद्वार में प्रथमतः ओघ की अपेक्षा क्रम से मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवी जीवों की और तत्पश्चात् गतिइन्द्रियादि मार्गणाओं में प्रसंगप्राप्त जीवों की संख्या का उल्लेख हुआ है। यह 'द्रव्यप्रमाणानुगम' उस संख्या का प्ररूपक स्वतंत्र अनुयोगद्वार है, जो ष०ख० को पु० ३ में प्रकाशित है।
इस प्रसंग में धवला में उद्धृत कुछ गाथाओं को भी यथाप्रसंग जीवकाण्ड में आत्मसात् कर लिया गया है। ___ इसी प्रकार धवला में जीवस्थान के अन्तर्गत क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम और भावानुगम इन अन्य अनुयोगद्वारों में तथा चूलिका में भी यथाप्रसंग जो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं वे जीवकाण्ड में यथास्थान उपलब्ध होती हैं । उन सब की सूची एक साथ आगे दी गई है।
१. १० ख० पु० १४, पृ० २२६-३४ २. कसायसुत्त, पृ० ६३७
घटसणागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / ३०७,
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