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भी यह स्पष्ट कहा गया है कि अन्तिम जिन के मुक्त होने पर ३४५ वर्षों के बीतने पर ग्यारह । अंगों के धारक मुनिवर हुए। इस प्रकार उपर्युक्त २ वर्ष की भूल रहे बिना यह ३४५ वर्ष भी घटित नहीं होते ६२+१००+१८१ =३४३ । इस प्रकार कुल ३४५ के स्थान पर ३४३ ही रहते हैं।
२. इसी प्रकार दश-नव-अष्टांगधरों में प्रत्येक के अलग-अलग निर्दिष्ट किये गये कालप्रमाण में कहीं पर दो वर्ष अधिक हो गये हैं। कारण यह कि इसी पट्टावली की गाथा १२ के उत्तरार्ध में उन चारों का सम्मिलित काल ६७ वर्ष कहा गया है, जो जोड़ में उक्त क्रम से ६६ होता है अर्थात् ६ +१८+२३+५२ =६६ । अतः यहाँ भी २ वर्ष की भूल हो जाना निश्चित है । इसके अतिरिक्त आगे १५वीं गाथा में जो यह कहा गया है कि अन्तिम जिन के मुक्त होने के बाद ५६५ वर्षों के बीतने पर ५ आचार्य एक अंग के धारक हुए, यह भी तदनुसार असंगत हो जाता है, क्योंकि उक्त क्रम से उसका जोड़ ५६७ आता है अर्थात् ६२+१००-१८३+ १२३+६६ =५६७; जबकि वह होना चाहिए ५६५ वर्ष ।
इस पट्टावली के अनुसार धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि-ये तीनों आचार्य वीरनिर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्ष के ही भीतर आ जाते हैं यानी ६२ -१००+१८३ +१२३ । ६७+२८+२१+१६+३०+२०-६८३ । इस ६८३ वर्ष प्रमाण सम्मिलित काल का भी उल्लेख उस पट्टावली की १७वीं गाथा में अर्हदबली आदि उन ५ एक अंग के धारको क समुदित काल को लेकर किया गया है। इसके अतिरिक्त उक्त पट्टावली के अनुसार आचाय धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि एक अंग के धारक सिद्ध होते हैं ।
इस पट्टावली की विशेषताएँ
१. तिलोयपण्णत्ती, धवला, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों में इस श्रुतधरपरम्परा का उल्लेख करते हुए प्रत्येक आचार्य के काल का पृथक-पृथक निर्देश नहीं किया गया है, जबकि इस पट्टावली में उनके काल का पृथक्-पृथक उल्लेख है तथा समुदित रूप में भी उसका उल्लेख किया गया है।
२. अन्यत्र जहाँ नक्षत्राचार्य आदि ५ एकादशांगधरों का काल-प्रमाण २२० वर्ष कहा गया है वहाँ इस पड़ावली में उनका वह काल-प्रमाण १२३ वर्ष कहा गया है। उक्त ५ आचार्यों का काल २२० वर्ष अपेक्षाकृत अधिक व असम्भव-सा दिखता है।
३. अन्यत्र जहाँ इस आचार्य परम्परा को लोहार्य तक सीमित रखा गया है व समुदित समय वीरनिर्वाण के पश्चात ६८३ वर्ष कहा गया है वहाँ इस पड़ावली में उसे लोहाचय्य (लोहाचार्य) के आगे अर्हबली आदि अन्य भी पाँच आचार्यों का उल्लेख करने के पश्चात् समाप्त किया गया है तथा लोहार्य तक का काल ५६५ वर्ष बतलाकर व उसमें अन्यत्र अनिर्दिष्ट इन पाँच अर्ह बली आदि एक अंग के धारकों के ११८ वर्ष काल को सम्मिलित कर समस्त काल का प्रमाण वही ६८३ (५६५+११८) वर्ष दिखलाया गया है।
४. सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाह और लोहार्य को अन्यत्र जहाँ एक आचारांग व शेष अंगपूर्वो के एक देश के धारक कहा गया है। वहाँ इस पदावली में उन्हें दस, नौ और आठ अंगों के धारक कहा गया है। इस प्रकार इस पट्टावली के अनुसार सूत्रकृतांग आदि १० अंगों का एक साथ लोप नहीं हुआ है, किन्तु तदनुसार उक्त सभद्राचार्य आदि चार आचार्य दस, नौ
षट्खण्डागम : पीठिका / १७
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