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________________ उनके पूर्व में जो 'बन्धक सत्त्वप्ररूपणा' एवं अन्त में 'महादण्डक' (चूलिका) प्रकरण है उन सब में रूपित विषय का परिचय संक्षेप से 'मूलग्रन्थगत-विषय-परिचय' में कराया जा चुका है । उक्त अनुयोगद्वारों में धवलाकार द्वारा प्रसंग के अनुसार विवक्षित विषय की जो प्ररूपणा विशेष रूप में की गयी है उसका परिचय यहाँ कराया जाता है इस खण्ड के प्रारम्भ में गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में कौन जीव बन्धक हैं और कौन अबन्धक हैं, इसे दिखलाया है। धवला में यह शंका उठायी गयी है कि बन्धक जीव ही तो हैं, उनकी प्ररूपणा सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों द्वारा प्रथम खण्ड जीवस्थान में की जा चुकी है। उन्हीं की यहाँ पुनः प्ररूपणा करने पर पुनरुक्त दोष का प्रसंग आता है। इसके समाधान में धवला में कहा है कि जीवस्थान में उन बन्धक जीवों की प्ररूपणा चौदह मार्गणाओं में गुणस्थानों की विशेषतापूर्वक की गयी है, किन्तु यहाँ उनकी यह प्ररूपणा गुणस्थानों की विशेषता को छोड़कर सामान्य से केवल उन गति - इन्द्रियादि मार्गणाओं में ग्यारह अनुयोगद्वारों के आश्रय से की जा रही है, इसलिए जीवस्थान की अपेक्षा यहाँ उनकी इस प्ररूपणा में विशेषता रहने से पुनरुक्त दोष सम्भव नहीं है । बन्धक भेद-प्रभेद आगे धवला में नाम स्थापनादि के भेद से चार प्रकार के वन्धकों का निर्देश है। उनमें तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यबन्धकों के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— कर्मबन्धक और नोकर्मद्रव्यबन्धक । इनमें नोकर्मद्रव्यवन्धक सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार के हैं । उनमें हाथी-घोड़ा आदि के बन्धकों को सचित्त, मूल व चटाई आदि निर्जीव पदार्थों के बन्धकों hat अत्ति और आभरणयुक्त हाथी घोड़ा आदि के बन्धकों को मिश्र नोकर्मबन्धक कहा गया है । कर्मबन्धक दो प्रकार के हैं— ईर्यापथकर्मबन्धक और साम्परायिककर्मबन्धक । इनमें ईर्यापथकर्मबन्धक छद्मस्थ और केवली के भेद से दो प्रकार के तथा इनमें भी छद्मस्थ उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के भेद से दो प्रकार के हैं । साम्परायिक बन्धक भी दो प्रकार के हैं-- सूक्ष्मसाम्परायिक बन्धक और बादरसाम्परायिक बन्धक । सूक्ष्मसाम्परायिक बन्धक भी दो प्रकार के हैं—असाम्परायिक आदि बन्धक ( उपशमश्रेणि से गिरते हुए) और वादर साम्परायिक आदि बन्धक । बादरसाम्परायिक आदि बन्धक तीन प्रकार के हैं- असाम्परायिक आदि, सूक्ष्मसाम्परायिक आदि और अनादि बादरसाम्परायिक आदि। इनमें अनादि बादर साम्परायिक उपशामक, क्षपक और अक्षपक-अनुपशामक के भेद से तीन प्रकार के हैं । उपशामक दो प्रकार हैं- अपूर्वकरण उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक । इसी प्रकार क्षपक भी अपूर्वकरणक्षपक और अनिवृत्तिकरणकपक के भेद से दो प्रकार के हैं। अक्षपक-अनुपशामक दो प्रकार के हैं—अनादि - अपर्यवसित बन्धक और अनादि सपर्यवसित वन्धक | इन सब बन्धकों में यहाँ कर्मबन्धकों का अधिकार है (पु० ७, पृ० १-५) । बन्धाकरण यहाँ गतिमार्गणा के प्रसंग में बन्धक अवन्धकों का विचार करते हुए सूत्रकार ने सिद्धों को अबन्धक कहा है । ( सूत्र २,१.७ ) इसकी व्याख्या में धवलाकार ने मिथ्यात्व असंयम, कपाय और योग को बन्ध का कारण और इनके विपरीत सम्यग्दर्शन, संयम, अकपाय और अयोग को मोक्ष का कारण कहा है। ४४८ / षट्खण्डागम- परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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