________________
की अपेक्षा पुष्पदन्त और भूतबलि दोनों ग्रन्थकर्ता कहे जाते हैं ।
इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार के अनुसार घरसेनाचार्य ने अपनी मृत्यु को निकट जानकर 'इन दोनों को इससे संक्लेश न हो' यह सोचकर ग्रन्थ समाप्त होने के दूसरे दिन प्रिय व हितकर वचनों द्वारा आश्वस्त करते हुए उन्हें कुरीश्वर भेज दिया। वे दोनों ही नौ दिन में वहां पहुंच गये व वहां उन्होंने आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन योग को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार वर्षाकाल को करके वे विहार करते हुए दक्षिण की ओर गये। उनमें पुष्पदन्त नामक मुनि जिनपालित नामक अपने भानजे को देखकर और उसे दीक्षा देकर उसके साथ 'वनवास' देश में पहुंच गये व वहाँ ठहर गये। उधर भूतबलि भी द्रविड़ देश में मथुरा पहुंचे व वहाँ ठहर गये। पुष्पदन्त मुनि ने उस भानजे को पढ़ाने के लिए कर्मप्रकृतिप्राभूत का छह खण्डों द्वारा उपसंहार करके (?) गुणस्थान व जीवसमास आदि बीस प्रकार की सूत्ररूप सत्प्ररूपणा से युक्त जीवस्थान के प्रथम अधिकार की रचना की। पश्चात् उन्होंने उन सो (?) सूत्रों को पढ़ाकर जिनपालित को भूतबलि गुरु के पास उनका अभिप्राय जानने के लिए भेजा। तदनुसार जिनपालित भी उनके पास जा पहुंचा। भूतबलि ने उसके द्वारा पठित सत्प्ररूपणा को सुनकर
और पूष्पदन्त के षट्खण्डागम के रचनाविषयक अभिप्राय को व अल्पआयुष्य को जानकर मन्दबद्धियों की अपेक्षा से द्रव्यप्ररूपणादि अधिकारस्वरूप पांच खण्डों की, जिनका ग्रन्थप्रमाण छह हजार रहा है तथा छठे खण्ड महाबन्ध की जिसका ग्रन्थ-प्रमाण तीस हजार रहा है, रचना की।
पुष्पदन्त भूतबलि से ज्येष्ठ थे : एक विचारणीय प्रश्न
(१) यहां यह स्मरणीय है कि इसके पूर्व प्रकृत श्रुतावतार (श्लोक १२६) में यह स्पष्ट कहा जा चुका है कि धरसेनाचार्य ने ग्रन्थ की समाप्ति (आषाढ़ शुक्ला एकादशी) के दूसरे दिन उन दोनों को गिरिनगर से कुरीश्वर भेज दिया। ऐसी स्थिति में वहीं पर आगे (श्लोक १३१ में) यह कसे कहा गया है कि कुरीश्वर पहुँचकर उन्होंने आषाढ़ कृष्णा पंचमी के दिन वर्षायोग किया? यह पूर्वापर-विरोध है। वर्षायोग आषाढ़ कृष्णा पंचमी को स्थापित किया जाता है, इसके लिए क्या आधार रहा है?
(२) 'कर्मप्रकृतिप्राभृत को छह खण्डों से उपसंहार करके ही' यह वाक्य अधूरा है (श्लोक १३४) । इससे इन्द्रनन्दि क्या कहना चाहते हैं, यह स्पष्ट नहीं होता। क्या पुष्पदन्त ने महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का छह खण्डों में उपसंहार करके जिनपालित को पढ़ाया ? श्लोक १३४-३५ के अन्तर्गत पद असम्बद्ध से दिखते हैं, उनमें परस्पर क्या सम्बन्ध व अपेक्षा है, यह स्पष्ट नहीं होता है।
(३) इसी प्रकार आगे श्लोक १३६ में 'सूत्राणि तानि शतमध्याप्य' यह जो कहा गया है उसका क्या यह अभिप्राय है कि सौ सूत्रों को पढ़ाया, जबकि 'सत्प्ररूपणा' में १७७ सूत्र हैं।
(४) धवला और जयधवला में यह स्पष्ट कहा गया है कि कषायप्राभूत की वे सूत्रगाथाएं आ० आर्यमा और नागहस्ती को आचार्यपरम्परा से आती हुई प्राप्त हुई थीं। इस परिस्थिति में इन्द्रनन्दी ने यह किस आधार से कहा है कि गुणधर ने उन गाथासूत्रों को रचकर उनका
१. इ० श्रुतावतार पृ० २६-४० ६७८ / बट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org