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________________ दस अट्ठारस दसय सत्तरह णव सोलसं च दोण्णं तु । अट्ठ य चोट्स पण यं सत्त लिए दुति वु एगमेयं च ॥ यह गाथा प्रायः इसी रूप में क० का० में गाथा संख्या ७६२ में उपलब्ध होती है । विशेषता यही है कि धवला में उसे 'एत्थ उवसंहारगाहा' कहकर उद्धृत किया गया है, पर क० का० में वैसी कुछ सूचना न करके उसे ग्रन्थ का अंग बना लिया है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि धवलाकार ने उक्त 'बन्ध स्वामित्वविचय' के सूत्र ६ की व्याख्या के प्रसंग में पूर्वोक्त २३ प्रश्नों में 'क्या बन्ध सप्रत्यय है या अप्रत्यय' इसके स्पष्टीकरण में मूल और उत्तर प्रत्ययों की प्ररूपणा की है । जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र ( ८ - १ ) में - निर्देश किया गया है, उन्होंने मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग को मूलप्रत्यय कहा है । प्रमाद को उन्होंने कषाय के अन्तर्गत ले लिया है । इन मूल प्रत्ययों के उत्तर प्रत्यय सत्तावन (५ - १२ +-२५+१५ - ५७) हैं । इन बन्धप्रत्ययों में मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में कहाँ कितने सम्भव हैं, इत्यादि का विचार यथाक्रम से धवला में किया गया है ।" मूल षट्खण्डागम में कहीं भी इस प्रकार से इन बन्धप्रत्ययों का उल्लेख नहीं किया गया है । वहाँ वेदना खण्ड में दूसरे 'वेदना' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत जो वाँ 'वेदना प्रत्ययविधान' अनुयोगद्वार है उसमें नैगम-व्यवहार आदि नयों के आश्रय से प्राणातिपातादि अनेक प्रत्ययों को बन्ध का कारण कहा गया है । धवलाकार ने इन सब बन्धप्रत्ययों का अन्तर्भाव पूर्वोक्त मिथ्यात्वादि चार बन्धप्रत्ययों में किया है । दि० पंचसंग्रह के चौथे 'शतक' प्रकरण में इन मूल और उत्तर बन्ध प्रत्ययों की प्ररूपणा १४० (७७-२१६) गाथानों में बहुत विस्तार से की गई है । एक विशेषता यह भी है कि जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र ( ६,१०-२३) में पृथक् पृथक् ज्ञानावरणादि के प्रत्ययों की प्ररूपणा की गई है उस प्रकार से वह षट्खण्डागम और उसकी टीका धवला में नहीं की गई है, पर क० का० में उनकी प्ररूपणा तत्त्वार्थ सूत्र के समान की गई है ( गाथा ८०० - १० ) । यहाँ यह स्मरणीय है कि षट्खण्डागम के पूर्वोक्त 'बन्धस्वामित्वविचय' खण्ड में विशेष रूप से तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक सोलह कारणों का उल्लेख किया गया है तथा उसके उदय से होनेवाले केवली के माहात्म्य को भी प्रकट किया गया है। सूत्र ३६-४२ ( पु० ८ ) इन तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारणों का निर्देश तत्त्वार्थ सूत्र (६-२४) में भी किया गया है, पर कर्मकाण्ड में उनका उल्लेख नहीं किया गया है । ११. धवला में पूर्वोक्त २३ प्रश्नों के विषय में विचार करते हुए 'क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है' इसे स्पष्ट करने के पूर्व वहाँ गुणस्थानों में यथाक्रम से उदयव्युच्छित्ति की की प्ररूपणा की गयी है ( पु०८, पृ० ६-११) । इस प्रसंग में वहाँ प्रथमतः महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के अनुसार मिध्यादृष्टि गुणस्थान में इन दस प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति दिखलाई गई है— मिध्यात्व, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, १. धवला पु० ८, पृ० १६-२८ २. वही, पु० १२, पृ० २७५-६३ ३. पंचसंग्रह पृ० १०५-७४ Jain Education International बट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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