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________________ प्रतरसमुद्घातगत और लोकपूरणसमुद्धातगत केवलियों के क्षेत्र की प्ररूपणा पूर्व पद्धति के अनुसार पृथक्-पृथक् की है।' प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र प्रमाण के प्रसंग में उद्धत दो गाथाओं के आधार से धवला में ऊर्वलोक और अधोलोक का घनफल दिखलाया गया है। इसी प्रसंग में आगे लोकपर्यन्त अवस्थित वातवलयों से रोके गये क्षेत्र के प्रमाण को भी गणित-प्रक्रिया के आश्रय से निकाला गया है। तदनुसार समस्त वातवलयरुद्ध क्षेत्र इतना है १०२४१६८३४८७ जगप्रतर १०६७६० इस वातवलयरुद्ध क्षेत्र को धनलोक में से कम कर देने पर. प्रतरसमुद्घात केवली का क्षेत्र कुछ कम लोकप्रमाण सिद्ध होता है। इसे अधोलोक के प्रमाण से करने पर वह साधिक एक अधोलोक के चतुर्थ भाग से कम दो अधोलोक प्रमाण होता है । अत्रलोक के प्रमाण से करने पर वह ऊर्वलोक के कुछ कम तृतीय भाग से अधिक दो ऊर्वलोक प्रमाण होता है। आवेश की अपेक्षा क्षेत्रप्रमाण __ इस प्रकार ओघ की अपेक्षा क्षेत्र प्रमाण की प्ररूपणा के समाप्त हो जाने पर, आगे आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जितने गुणस्थान सम्भव हैं उनमें प्रस्तुत क्षेत्र प्रमाण की प्ररूपणा की गयी है । प्ररूपणा की पद्धति प्रसंग के अनुसार पूर्ववत् ही रही है। यथा सर्वप्रथम गतिमार्गणा के आश्रय से नरकगति में वर्तमान नारकियों में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक प्रत्येक गुणस्थानवी नारकियों का क्षेत्र सूत्र (१,३,५) में लोक का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है। उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने स्वस्थानस्वस्थान व विहारवत्स्वस्थान तथा वेदना, कषाय व वैक्रियिक समुद्घातगत नारकमिथ्यादृष्टियों का सामान्यलोक, अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और तिर्यग्लोक इन चार का असंख्यातवाँ भाग तथा अढ़ाईद्वीप से असंख्यातगुणा बतलाया है । इसे विशद करते हुए उन्होंने गणित प्रक्रिया के अनुसार प्रथमादि पृथिवियों में यथाक्रम से सम्भव १३ व ११ आदि पाथडों में वर्तमान नारकियों के शरीरोत्सेध के प्रमाण को निकाला है । तत्पश्चात् अवगाहना में सातवी पृथिवी को और द्रव्य की अपेक्षा प्रथम पृथिवी को प्रधान करके स्वस्थानस्वस्थान आदि उन पदों में परिणत कितनी जीवराशि सम्भव है, इत्यादि का विचार करते हुए मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चारों गुणस्थानों में क्षेत्र प्रमाण को व्यक्त किया है । विशेषता यह रही है कि सासादनसम्यग्दृष्टि के उपपादपद सम्भव नहीं है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के मारणान्तिकसमुद्घात सम्भव नहीं है। इस प्रकार सामान्य नारकियों के क्षेत्र को बतलाकर आगे सूत्र (१,३,६) में केवल यह सूचना कर दी है कि इसी प्रकार सातों पृथिवियों में इस क्षेत्रप्रमाण को जानना चाहिए। __ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि सूत्र में द्रव्याथिकनय की १. धवला पु० ४, पृ० ४८-५६ २. वही, पृ० ५६-६५ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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