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षट्खण्डागम-परिशीलन
'षट्खण्डागम' जैन दर्शन और सिद्धान्त का सर्वाधिक प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी टीकाओं का इतना विपुल विश्लेषणात्मक साहित्य है कि आचार्यों के ज्ञान की विशदता और शब्दार्थ-साधना की तन्मयता को देखकर बुद्धि हतप्रभ हो जाती है। परम्परा से आचार्य-कुलों में, साधु-श्रावकों में पीढ़ियों के बाद पीढ़ियाँ इनके अध्ययन की निपुणता को ज्ञान की गरिमा का निकष मानती रही हैं। आधुनिक युग में विश्वविद्यालय स्तर पर इनका अध्ययन-परिशीलन होता आ रहा है। इसी दिशा में प्रस्तुत कृति 'षट्खण्डागम-परिशीलन' एक ऐसे विद्वान् के दशाब्दियों के चिन्तन-मनन का सुफल है जिसने मूल ग्रन्थ और उसकी टीकाओं का आलोडन किया है और आधुनिक शैली में सम्पादन की भूमि गोड़ी है। 'षट्खण्डागम-परिशीलन' का प्रकाशन एक प्रकार से ऐतिहासिक घटना है. क्योंकि लगभग बारह हजार पृष्ठों में संग्रथित एवं प्रकाशित सामग्री के सार-संचय को विद्वान् लेखक ने सुबोध बनाकर प्रस्तुत किया है। शास्त्रीय भाषा में जिसे 'हस्तामलकवत्' कहते हैं उसका एक प्रकार से. यह निदर्शन है, नमूना है। 'षट्खण्डागम' का अध्ययन उच्चतम एवं विशद स्तर पर जिन-जिन पहलुओं से किया जाना चाहिए वह सब प्रस्तुत परिशीलन में समाविष्ट है; यथा-आगम साहित्य की पृष्ठभूमि, ग्रन्थकारों और टीकाकारों की विवेचनापद्धति, मूलग्रन्थ का विषय-परिचय, अन्य ग्रन्थों से तुलनात्मक अध्ययन, प्रमुख टीकाकार और टीकाएँ, इन सबका व्यापक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन
और इतिहास आदि। अनेक उपयोगी टीकाओं तथा सोलह जिल्दों में प्रकाशित षट्खण्डागम और उसकी टीकाओं में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों की वर्णक्रम से विस्तृत सूची भी ग्रन्थ में नियोजित की गयी है। जैन दर्शन एवं सिद्धान्त के अध्येताओं और शोधकर्ताओं के लिए यह अद्वितीय सामग्री अनेक दृष्टिकोणों से उपादेय और लाभदायक सिद्ध होगी।
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