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________________ इसी प्रकार वहां आचार्य नागहस्ती के विषय में भी कहा गया है कि वे व्याकरण में कुशल होकर पिण्डशद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिरोध, प्रतिलेखन और गुप्ति आदि अभिग्रहस्वरूप करण के ज्ञाता एवं कर्मप्रकृतियों के प्रमुख व्याख्याता थे । इस प्रकार उनके महत्त्व को प्रकट करते हुए उनके वाचकवंश की वृद्धि की प्रार्थना की गयी है। इस स्थविरावली में आर्यमंगु के उल्लेख के पूर्व में क्षोभ से रहित समुद्र के समान आर्यसमुद्र की वन्दना की गयी है (गाथा २७) । इससे यह ध्वनित होता है कि आर्यमंगु आर्य समुद्र के शिष्य रहे हैं। इसी प्रकार वहां नाग हस्ती के उल्लेख के पूर्व में ज्ञान व दर्शन आदि में निरन्तर उद्य क्त रहनेवाले आर्यनन्दिल क्षमण की वन्दना की गयी है (गा० २६)। इससे यह प्रकट होता है कि नागहस्ती आर्यनन्दिल के शिष्य रहे हैं । हरिभद्रसूरि-विरचित वृत्ति में स्पष्टतया आर्यनन्दिल को आर्य मंगु का शिष्य और नागहस्ती को आर्यनन्दिल का शिष्य कहा गया है।' इस स्थविरावली के अनुसार इनमें गुरु-शिष्य परम्परा इस प्रकार फलित होती है१. आर्यसमुद्र २. आर्य मंगु ३. आर्यनन्दिल ४. आर्यनागहस्ती इस गरु-शिष्य परम्परा में यह एक बाधा उपस्थित होती है कि जयधवला के अनुसार आचार्य गुणधर ने कषायप्राभूत के उपसंहारस्वरूप जिन १८० गाथाओं को रचा था वे आचार्यपरम्परा से आकर आर्यमंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुईं तथा उन दोनों ने यतिवषभ को उनके गम्भीर अर्थ का व्याख्यान किया। ये यतिवृषभ आर्यमंक्षु के शिष्य और नागहस्ती के अन्तेवासी रहे हैं। इस प्रकार यहाँ आर्यमंक्षु और नागहस्ती को समान समयवर्ती और यतिवृषभ के गरु कहा गया है। इसकी संगति उक्त गुरु-शिष्य-परम्परा से नहीं बैठती है, क्योंकि उक्त गरु-शिष्यपरम्परा के अनुसार नागहस्ती आर्यमंक्षु के प्रशिष्य ठहरते हैं, इससे उन दोनों के मध्य में समय का कुछ अन्तर अवश्यंभावी हो जाता है। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में यह कहा गया है कि गुणधर मुनीन्द्र ने एक सौ तेरासी (?) मल गाथासूत्रों और तिरेपन विवरण-गाथाओं की कषायप्राभृत, अपरनाम प्रेयोद्वेषप्राभत, के नाम से रचना की व उन्हें पन्द्रह महाधिकारों में विभक्त कर उन्होंने उनका व्याख्यान नागहस्ती और आर्यमक्ष के लिए किया । यतिवृषभ ने उन दोनों के पास उन गाथासूत्रों को पढ़कर उनके ऊपर १. वड्ढउ वायगवंसो जसवंसो अज्जणागहत्थीणं । वागरण-करणभंगिय कम्मप्पयडीपहाणाणं ।।-गा० ३० २. आर्यमंगुशिष्यं आर्यनन्दिलक्षपणं शिरसा वन्दे ।XXX आर्यनन्दिल क्षपणशिष्याणां आर्य नागहस्तीनां .....। हरि० वृत्ति० ३. देखिए जयधवला १, मंगल के पश्चात् गा० ७-८ प्रन्थकारोल्लेख/६४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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