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________________ (४) जीवस्थान-अन्तरानुगम में प्रसंगप्राप्त तियंचगति में तिर्यचमिथ्यादृष्टियों का अन्तर एक जीव की अपेक्षा कुछ कम तीन पल्योपम प्रमाण कहा गया है।-सूत्र १,६,३५-३७ इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि इस विषय में दो उपदेश हैं-एक उपदेश के अनुसार जीव तियंचों में दो मास और मुहूर्तपृथक्त्व के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम ग्रहण करता है । मनुष्यों में वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्ष का होने पर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम को ग्रहण करता है । यह दक्षिण प्रतिपत्ति है । दक्षिण, ऋजु और आचार्यपरम्परागत-ये समान अर्थ के वाचक हैं। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि जो जीव (मनुष्य) आठ वर्ष व अन्तर्मुहूर्त का होकर सम्यक्त्व, संयम व संयमासंयम को ग्रहण करता है वह गर्भ से लेकर आठ वर्ष का होने पर उन्हें ग्रहण करता है। इसे दक्षिण प्रतिपत्ति कहा गया है । उत्तर प्रतिपत्ति के अनुसार वह आठ वर्षों के ऊपर उन्हें ग्रहण करता है। इसी प्रकार का एक प्रसंग प्रत्येक शरीरद्रव्यवर्गणा की प्ररूपणा करते समय भी प्राप्त हुआ है। वहां धवलाकार ने प्रथमतः गर्भनिष्क्रमण से लेकर आठ वर्ष कहा है और तत्पश्चात् वहीं पर आगे गर्भ से लेकर आठ वर्ष कहा है। इस प्रकार इन दोनों कथनों में भिन्नता हो गयी है। -पु० १४, पृ० ६६ व ७१ दूसरे उपदेश के अनुसार तियंचों में उत्पन्न हुआ जीव तीन पक्ष, तीन दिन और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त करता है । मनुष्यों में उत्पन्न हुआ जीव आठ वर्षों के ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम को प्राप्त करता है। यह उत्तरप्रतिपत्ति है। उत्तर, अनुजु और आचार्यपरम्परा से अनागत-इनका एक ही अर्थ है।' ___ इस प्रकार धवलाकार ने तिर्यंच मिथ्यादृटियों के सूत्रनिर्दिष्ट कुछ कम तीन पल्योपम प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर को स्पष्ट करते हुए सम्यक्त्व व संयमासंयम के ग्रहण का प्रसंग पाकर उससे सम्बन्धित उपर्युक्त दो उपदेशों का उल्लेख किया है। इसमें उन्होंने आचार्यपरम्परागत उपदेश को दक्षिणप्रतिपत्ति और आचार्यपरम्परा से अनागत उपदेश को उत्तरप्रतिपत्ति कहा है । प्रकृत में धवलाकार ने आचार्यपरम्परागत प्रथम उपदेश के अनुसार ही उपर्युक्त अन्तर की प्ररूपणा की है व दूसरे उपदेश की उपेक्षा की है। (५) वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए प्रसंगवश धवला में कहा गया है कि विवक्षित अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थानों का स्वामी गुणितकौशिक होता है। इस प्रसंग में वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि गुणितकौशिक जीव के इनसे अधिक स्थान क्यों नहीं होते । इसके उत्तर में वहां कहा गया है कि गुणितकौशिक के उत्कर्ष से एक ही समयप्रबद्ध बँधता व हानि को प्राप्त होता है ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है। आगे वहाँ कहा गया है कि गुणितकौशिक के इस अनुत्कृष्ट जघन्य प्रदेशस्थान से गुणितघोलमान का उत्कृष्ट प्रदेशस्थान विशेष अधिक होता है । इसको छोड़ कर और गुणितकौशिक के जघन्य प्रदेशस्थान प्रमाण गुणितघोलमान के अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थान को ग्रहण करके एक परमाणुहीन व दो परमाणुहीन आदि के क्रम से हीन करते हुए गुणितघोलमान के उत्कृष्ट १. धवला, पु० ५, पृ० ३१-३२ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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