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________________ अमृतचन्द्र सूरि ने भी इस गति आगति की प्ररूपणा अपने तत्त्वार्थसार में की है।' उसका श्राधार सम्भवत: मूलाचार का यही प्रकरण रहा है। कारण यह कि इन दोनों ही ग्रन्थों में इस प्ररूपणा का क्रम व पद्धति सर्वथा समान है । इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो तत्त्वार्थसार में मूलाचार की गाथाओं का छायानुवाद-सा दिखता है । 3 इसी प्रकार तत्त्वार्थसार में जो योनि, कुल, ' आयु और उत्सेध आदि की प्ररूपणा की गई है उसका आधार भी यही मूलाचार का पर्याप्ति अधिकार हो सकता है । ६. मूलाचार के इस अधिकार में जीवस्थान ( जीवसमास ), गुणस्थान और मार्गणास्थानों आदि की भी जो संक्षेप में प्ररूपणा की गई है" उनकी वह प्ररूपणा ष० ख० के उस सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में यथाप्रसंग की गई है । इस प्रसंग में यहाँ मार्गणाओं के नामों का निर्देश करनेवाली जो गाथा (१२-१५६) आयी है वह थोड़े-से शब्द परिवर्तन के साथ ब० ख० में सूत्र के रूप में उपलब्ध होती है । इसी प्रकार जिन अनन्त निगोदजीवों ने कभी त्रस पर्याय नहीं प्राप्त की है उनका उल्लेख करनेवाली 'अत्थि अनंता जीवा' आदि गाथा (१६२) तथा आगे एक - निगोदशरीर में अवस्थित जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपक 'एगणिगोदसरीरे' आदि गाथा ( १६३), ये दोनों गाथाएँ ष० ख० में सूत्र के रूप में उपलब्ध होती हैं । " ७. मूलाचार में निगोदों में वर्तमान एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिकों का प्रमाण अनन्त तथा एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक और वायुकायिक जीवों का प्रमाण असंख्यात लोकमात्र निर्दिष्ट किया गया है (१६४) । ष० ख० उनका यही प्रमाण कहा गया है । " ८. मूलाचार में सकायिकों का प्रमाण प्रतरच्छेद से निष्पन्न असंख्यात श्रेणियाँ निर्दिष्ट १. तत्त्वार्थसार २,१४६-७५ २. विशेष जानकारी के लिए 'आ० शान्तिसागर स्मृतिग्रन्थ' में 'तत्त्वार्थसार' शीर्षक द्रष्टव्य है - ( पृ० २१५ - २२ ) । ३. संखातीदाऊणं संकमणं नियमदो दु देवेसु । पडी तणुकसाया सव्वेसि तेण बोधव्वा ॥ - मूलाचार १२,१२८ संख्यातीतायुषां नूनं देवेष्वेवास्तु संक्रमः । निसर्गेण भवेत् तेषां यतो मन्दकषायता ॥ - त० सा० २,१६० ४. मूलाचार १२,५८-६३ व त०सा० २,१०५-११ ५. मूलाचार १२, १६६-६६ व त०सा० २,११२-१६ ६. मूलाचार १२,६४-८३ व त०स० २,११७-३५ ७. मूलाचार १२, १४-३० व त०सा० २,१३६-४५ ८. जीवसमास १५२-५३, गुणस्थान १५४-५५, मार्गणास्थान १५६ व इन मार्गणास्थानों में जीवसमास आदि १५७-५६ ६. ष० ख०, पु० १, पृ० १३२ तथा पु० ७, पृ० ६ १०. वही, १४, पृ० २३३ व २३४ ११. सूत्र १,२, ६५ व ८७ (पु० ३) Jain Education International षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / १५७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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