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________________ इत्यादि क्रम से मूलाचार में जो विविध जीवों की गति आगतिविषयक प्ररूपणा की गई है वह सरल व सुबोध है । किन्तु ष० ख० में जो इस गति - आगति की प्ररूपणा की गई है वह प्रायः चारों गतियों के अन्तर्गत भेद-प्रभेदों का आश्रय लेकर गुणस्थान क्रम के अनुसार की गई है । इससे विवक्षित जीव की गति प्रागति के क्रम को वहाँ तदनुसार ही खोजना पड़ता है । ' इसके अतिरिक्त मूलाचार में तापस, परिव्राजक और आजीवक आदि अन्य लिंगियों, निर्ग्रन्थ श्रावकों व आर्यिकाओं, निर्ग्रन्थ लिंग के साथ उत्कृष्ट तप करनेवाले अभव्यों और रत्नत्रय से विभूषित दिगम्बर मुनियों आदि के भी उत्पत्ति क्रम को प्रकट किया गया है । ष० ख० में इनकी वह प्ररूपणा उपलब्ध नहीं होती । यद्यपि वहाँ उन तापस आदि के उत्पत्ति के क्रम की प्ररूपणा मनुष्यगति के प्रसंग में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों की विवक्षा में की जा सकती थी, पर सम्भवतः सूत्रकार को इस विस्तार में जाना अभिप्रेत नहीं रहा । मूलाचार में इस गति - आगति के प्रसंग को समाप्त करते हुए अन्त में यह सूचना की गई है कि इस प्रकार से मैंने सारसमय - व्याख्याप्रज्ञप्ति में जिस गति-आगति का कथन किया गया है उसकी प्ररूपणा तदनुसार ही यहाँ कुछ की है। मुक्तिगमन नियम से मनुष्य गति में ही अनुज्ञात है । 3 गाथा में निर्दिष्ट यह सारसमय कौन-सा आगमग्रन्थ मूलाचार के कर्ता के समक्ष रहा है, यह अन्वेषणीय है । वृत्तिकार आचार्य वसुनन्दी ने उसका अर्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति किया है । * इसका आधार उनके सामने सम्भवतः धवला टीका रही है । धवला में उस गति - प्रगति चूलिका का उद्गम उस व्याख्याप्रज्ञप्ति से निर्दिष्ट किया गया है । आ० वसुनन्दी ने मूलाचार की उस वृत्ति में जहाँ-तहाँ धवला का अनुसरण किया है । इसका परिचय आगे धवला से सम्बद्ध ग्रन्थोल्लेख में कराया जानेवाला है । व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का पाँचवाँ अंग है । उसमें गति प्रागति की भी प्ररूपणा की गई है। १. उदाहरणस्वरूप पूर्वोक्त मूलाचार में जिन अपर्याप्त, सूक्ष्मकाय व तेज- वायुकाय आदि जीवों की गति - भगति की प्ररूपणा की गई है उसके लिए ष० ख० में सूत्र १, ६ - ६, ११२-४० द्रष्टव्य हैं - ( पु० ६, पृ० ४५७-६८ ) २. मूलाचार १२, १३१-३५ आदि । ३. एवं तु सारसमए भणिदा दु गदीगदी मया किंचि । णियमा दु मणुसगदिए णिव्वुदिगमणं अणुण्णादं ।। १४३ || ४. एवं तु अनेन प्रकारेण सारसमये व्याख्याप्रज्ञप्त्यां सिद्धान्ते तस्माद् वा भणिते गति आगती ...। मूला • वृत्ति १२ - १४३ । (यहाँ पाठ कुछ भ्रष्ट हुआ है, क्योंकि इस गाथा की संस्कृत छाया के स्थान में किसी अन्य गाथा की छाया आ गई दिखती है ) । ५. वियाहपण्णत्ती दो गदिरागदी णिग्गदा । - धवला पु० १, पृ० १३० ६. व्याख्याप्रज्ञप्तौ सद्विलक्षाष्टाविंशतिपदसहस्रायां षष्ठिर्व्याकरणसहस्राणि किमस्ति जीवो नास्ति जीवः क्वोत्पद्यते कुत आगच्छतीत्यादयो निरूप्यन्ते । - धवला पु० ६, पृ० २०० १५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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