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________________ सत्तवाससहस्साणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेओ।" -०ख०, सूत्र १,६-७,४-१२ (पु०६) कर्मकाण्ड में इस सम्पूर्ण अभिप्राय को तथा आगे के सूत्र १३-१५ के भी अभिप्राय को संक्षेप से इन गाथाओं में व्यक्त कर दिया गया है दुक्ख-तिघादीणोधं सादिच्छी-मणुद्गे तदद्धतु । सत्तरि वंसणमोहे चरित्तमोहे य चत्तालं ॥१२८।। उवयं पडि सत्तण्हं आबाहा कोडिकोडिउवहीणं । वाससयं तप्पडिभामेण य सैसट्टिवीणं च ॥१५॥ आवाहूणियकम्मदिदि णिसेगो दु सत्तकम्माणं । आउस्स णिसेगो पुण सगट्टिवी होवि णियमेण ।।१६०॥ इस प्रसंग से सम्बद्ध दोनों ग्रन्थों में अर्थसाम्य तो है ही, साथ ही शब्दसाम्य भी बहुत कुछ है। ___आयुकर्म की आबाधा से सम्बन्धित धवलागत इस प्रसंग का भी कर्मकाण्ड के प्रसंग से मिलान कीजिए ---- "जधा णाणावरणादीणमाबाधा णिसेयट्ठिदिपरतंता, एवमाउअस्स आबाधा णिसेयट्रिदी अण्णोण्णा यत्ताओ ण होंति त्ति जाणावण8 णिसेयट्ठिदी चेव परूविदा । पुवकोडितिभागमावि कावण जाव असंखेपद्धा त्ति एदेसु आबाधावियप्पेसु देव-णे रइयाणं आउअस्स उक्कस्स णिसेयट्ठिदी संभवदि ति उक्तं होदि।" -धवला पु० ६, पृ० १६६-६७ पुष्वाणं कोडितिभागादासंखेयभखवोत्ति हवे । आउस्स य आबाधा ण ट्ठिविपडिभागमाउस्स ॥-कर्मकाण्ड, १५८ उपर्युक्त धवलागत सभी अभिप्राय इस गाथा में समाविष्ट हो गया है । जैसा कि ऊपर कहा गया है, कर्मकाण्ड (गा० १५६) में किस कर्मस्थिति की कितनी आबाधा होती है, इसके लिए इस साधारण नियम का निर्देश किया गया है कि एक कोडाकोडि प्रमाण स्थिति की प्राबाधा सौ वर्ष होती है । तदनुसार शेष कर्मस्थितियों की आबाधा को पैराशिक क्रम से ले आना चाहिए। जैसे मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण है। उसकी आबाधा राशिक विधि से इस प्रकार प्राप्त होती है-यदि एक कोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थिति की आबाधा सौ वर्ष होती है तो सत्तर कोड़ाकोडि प्रमाण स्थिति की कितनी आबाधा होगी, इस राशिक क्रम के अनुसार फल राशि (१०० वर्ष) को इच्छाराशि (७० कोड़ाकोडि सागरोपम) से गणित करके प्रमाणराशि (१ कोड़ाकोड़ि सागरोपम) का भाग देने पर ७००० वर्ष प्राप्त होते है। यही उस मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति की आबाधा जानना चाहिए। धवला में भी विवक्षित कर्मस्थिति की आबाधा को जानने के लिए उसी त्रैराशिक नियम का निर्देश इस प्रकार किया गया है___ तेरासियकमेण पण्णारसवाससदमेत्तआबाधाए आगमणं उच्चदे-तीसं सागरोवम कोडाकोडिमेत्तकम्मट्टिदीए जदि आबाधा तिण्णि वाससहस्साणि मेत्ताणि लब्भदि तो पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत ट्ठिदीए किं लभामो त्ति फलेण इच्छं गुणिय पमाणेणोवहिदे पण्णारस षट्खण्डागम की अन्य प्रन्यों से तुलना | ३२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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