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________________ विशेष) कर्म का क्षयोपशम समान नहीं होता । यदि सब जीवों के द्वारा ग्रहण किया गया अर्थ टाकी से उकेरे गये अक्षर के समान विनष्ट नहीं होता तो पुनरुक्त दोष हो सकता था, पर वैसा सम्भव नहीं है। क्योंकि किन्हीं जीवों में जल में लिखे गये अक्षर के समान उस गृहीत अर्थ का विनाश उपलब्ध होता है। इसलिए भ्रष्ट संस्कार वाले शिष्यों को स्मरण कराने के लिए इस सूत्र का कथन करना उचित ही है ।' ___ इस प्रकार प्रकृत सूत्र के पुनरुक्त होने पर भी धवलाकार ने उसकी विधिवत् संगति बैठा दी है। . (२) इसी 'स्थानसमुत्कीर्तन' चूलिका में सूत्र २४ के द्वारा पृथक्-पृथक् मोहनीय की २१ प्रकृतियों के नामों का निर्देश किया जा चुका है। पर ठीक इसके आगे सूत्र २६ में कहा गया है कि उपर्युक्त २१ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों को छोड़कर १७ प्रकृतियों का स्थान होता है-इस कथन से ही उन १७ प्रकृतियों का बोध हो जाता है। फिर भी आगे सूत्र २७ में उन १७ प्रकृतियों का भी नामोल्लेख किया गया है। ___ इस प्रसंग में धवलाकार ने सूत्र २६ की व्याख्या में कहा है कि-इक्कीस प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धि-चतुष्क के कम कर देने पर सत्तरह प्रकृतियाँ होती हैं' यह सूत्र व्यतिरेकनय की अपेक्षा रखने वालों के अनुग्रहार्थ रचा गया है तथा वे कौन-सी हैं, इस प्रकार पूछने वाले मन्दबुद्धि शिष्यों के अनुग्रहार्थ आगे का सूत्र कहा जाता है।' ___ इस प्रकार से धवलाकार ने यहाँ २७वें सूत्र की पुनरुक्ति का निराकरण स्वयं ही कर दिया है। (३) इसी जीवस्थान चूलिका में 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका (८) के प्रसंग में यह एक सूत्र प्राप्त हुआ है "उवसा मेंतो कम्हि उवसामेदि ? चदुसु वि गदुसु उवसामेदि । चदुसुं वि गदीसु उवसामेंतो पंचिदिएसु उवसामेदि, णो एइंदिय-विलिदएस । पंचिदिएस उवसामेंतो सण्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु । सण्णीसु उवसातो गम्भोवक्कंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गम्भोवक्कंतिएस उवसामेंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि, णो अपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु उवसामेंतो संखेज्जवस्साउगेसु वि उवसामेदि असंखेज्जवस्साउगेसु वि ।"-सूत्र १,६-८,६ (पु० ६, पृ० २३८) इस सूत्र में विशेष सांकेतिक पदों की पुनरुक्ति हुई है। इस समस्त सूत्रगत अभिप्राय को संक्षेप में इस रूप में प्रकट किया जा सकता था "उवसामेंतो चदुस वि गदीसु, पंचिदिएसु, सण्णीसु, गब्भोवक्कंतिएसु, पज्जत्तएसु उवसामेदि । पज्जत्तएसु उवसामेंतो संखेज्जवस्साउगेसु वि' असंखेज्जवस्साउगेसु वि उवसामेदि।" ___लगभग इसी अभिप्राय का सूचक एक अन्य सूत्र पीछे इस प्रकार का ही आ भी चुका "सो पुण पंचिदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो।" --१,६-८,४ (पु० ६, पृ० २०६) १. धवला, पु० ६, पृ० ८१ २. वही, पृ० ६२ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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