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जानना चाहिए, क्योंकि उसके उस बन्ध का अन्त होने वाला है ( गा० १२२-२३) ।
आगे इसी प्रकार से उत्तर प्रकृतियों में भी इस चार प्रकार के बन्ध का उल्लेख किया गया है (१२४-२६)।
इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में समान रूप से इस चार प्रकार के बन्ध की प्ररूपणा की गयी है । केवल पद्धति में भेद रहा है।
१३. षट्खण्डागम की टीका धवला में उपपादादि योगों के अल्पबहुत्व की जिस प्रकार से प्ररूपणा है ठीक उसी प्रकार से उसकी प्ररूपणा कर्मकाण्ड में भी की गई है जैसे
सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपादयोग सबसे स्तोक है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त का जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है । ( पु० १०, पृ० ४१४)
इसी अल्पबहुत्व को कर्मकाण्ड की इस गाथा में प्रकट किया गया हैसुमगलहिणं तण्णिवत्तीजहण्णयं तत्तो ।
लद्धिअपुण्णुक्कस्सं बावरलद्धिस्स अवरमदो ॥२३३॥
उसकी यह समानता आगे भी दोनों ग्रन्थों में दृष्टव्य है । '
१४. धवला में प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में यह स्पष्ट किया गया है कि एक योग से आये हुए एक समान प्रबद्ध में आयु का भाग सबसे स्तोक होता है। नाम और गोत्र दोनों का भाग समान होकर आयु से विशेष अधिक होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का भाग परस्पर समान होकर उससे विशेष अधिक होता है। उससे मोहनीय का भाग विशेष अधिक होता है । वेदनीय का भाग उससे अधिक होता है । इस स्पष्टीकरण के साथ वहाँ 'वृत्तं च ' ऐसा निर्देश करते हुए इन दो गाथाओं को उद्धृत किया गया हैआउगभागो थोवो णामागोवे समो तदो अहियो । आवरणमंतराए भागो अहिओ दु मोहे वि ॥
सव्वरि वेयणी भागो अहिओ वु कारणं किंतु ।
पयडिविसेसो कारण णो अण्णं तबणुवलंभादो ॥ पु० १०, पृ ५११-१२ कर्मकाण्ड में कुछ परिवर्तित रूप में ये गाथाएँ इस प्रकार उपलब्ध होती हैंआउगभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहियो ।
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घादितिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये ॥ १६२॥
सुह- दुक्खणिमितादो बहुणिज्जरगो त्ति वेयणीयस्स । सहितो बहुगं दव्वं होवि त्तिणिद्दिट्ठ ॥ १६३॥
१५. महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के अन्तर्गत कृति - वेदनादि पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारों में १२वाँ 'संक्रम' अनुयोगद्वार है । इसमें धवलाकार आचार्य वीरसेन के द्वारा संक्रम के नामसंक्रम, स्थापनासंक्रम, द्रव्यसंक्रम, कालसंक्रम और भावसंक्रम इन भेदों का निर्देश करते हुए संक्षेप में उनका स्वरूप स्पष्ट किया गया है । उनमें नोआगमद्रव्यसंक्रम के तीन भेदों में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य को कर्मसंक्रम और नोकर्मसंक्रम के भेद से दो प्रकार का बतलाकर कर्मसंक्रम को
१ धवला पु० १०, ४१४- १७ और कर्मकाण्ड गाथा ४३३-४०
३३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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