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उत्थानिका
पंजिका के प्रारम्भ में उत्थानिका के रूप में यह उल्लेख है-'महाकर्मप्रकृतिप्राभूत' के चौबीस अनुयोगद्वारों से कृति (१) और वेदना (२) अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वेदना-खण्ड में की गयी है। आगे [(३) स्पर्श, (४) कर्म, (५) प्रकृति और (६) बन्धन] अनुयोगद्वारों में से बन्धन अनुयोगद्वार के अन्तर्गत बन्ध और बन्धनीय इन दो अनुयोगद्वारों के साथ स्पर्श, कर्म और प्रकृति की प्ररूपणा वर्गणा-खण्ड में की गयी है । बन्धनविधान नामक अनुयोगद्वार की प्ररूपणा महाबन्ध (छठे खण्ड) में और बन्धक अनुयोगद्वार की प्ररूपणा क्षुद्रकबन्ध खण्ड में विस्तार से की गयी है। शेष अठारह अनुयोगद्वारों (७-२४) की प्ररूपणा सत्कर्म में की गयी है। तो भी उसके अतिशय गम्भीर होने से अर्थविषयक पदों के अर्थों को यहां हम हीनाधिकता के साथ पंजिका के रूप से कहेंगे।' अर्थविवरणपद्धति
भूमिका के रूप में इतना स्पष्ट करके आगे वहाँ यह कहा गया है कि इन अठारह अनुयोगद्वारों में प्रथम निबन्धन अनुयोगद्वार की प्ररूपणा सुगम है। विशेष इतना है कि उसके निक्षेप की जो छह प्रकार से प्ररूपणा की गयी है उसमें तीसरे निक्षेप द्रव्य निक्षेप के स्वरूप की प्ररूपणा के लिए आचार्य इस प्रकार से कहते हैं____ "जं दव्वं जाणि दव्वाणि अस्सिदण परिणमदि जस्स वा दश्वस्स सहावो दवंतरपटिबद्धोतं दव्वणिबंधणमिदि ।"-निबन्धन अनु०, पृ० २ (धवला पु० १५) ।
इसका अभिप्राय स्पष्ट करते हुए पंजिका में कहा गया है कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से परिणत संसारी जीव जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी स्वरूप कर्मपुद्गलों को बांधता है व उनके आश्रय से चार प्रकार के फलस्वरूप अनेक प्रकार की पर्यायों को प्राप्त करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है । इन पर्यायों का परिणमन पुद्गलनिबन्धन है। मुक्त जीव के इस प्रकार का निबन्धन नहीं है, वह स्वस्थान से पर्यायान्तर को प्राप्त होता है।
__ आगे 'जस्स वा दव्वस्स सहावो दवंतरपडिबद्धों' का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जीवद्रव्य का स्वभाव ज्ञान-दर्शन है । दो प्रकार के जीवों का वह ज्ञान-स्वभाव विवक्षित जीवों से भिन्न जीव व पुद्गल आदि सब द्रव्यों के जानने रूप से पर्यायान्तर-प्राप्ति का निबन्धन है । इसी प्रकार दर्शन के विषय में भी कहना चाहिए।
पश्चात् 'जीवद्रव्य का धर्मास्तिकाय के आश्रय से होनेवाले परिणमन का विधान कहा जाता है' ऐसा कहते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवों का आनपूर्वी कर्म के उदय से, विहायोगति कम के उदय से, और मरणान्तिकसमुद्घात के वश
१. संतकम्मपंजिया (परिशिष्ट), पृ० २ २. यहां आचार्य के नाम का निर्देश नहीं किया गया है । उत्थानिका में यह कहा गया है
...'पुणो तेहिंतों सेसट्टारसाणियोगद्दाराणि संतवम्मे सव्वाणि परूविदाणि । तो वि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविषमपदाणमत्थे थोसत्थयेण पंजियसरूवेण भणिस्सामो।
-पंजिका पृ० १ (पु० १५ का परिशिष्ट) ५६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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