SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. त० वा० में 'संसारिण स्त्रस-स्थावराः' इस सूत्र (२-१२) की व्याख्या के प्रसंग में कहा गया है कि स्थावर नामकर्म के उदय से जिन जीवों के विशेषता उत्पन्न होती है वे स्थावर कहलाते हैं। इस पर वहाँ शंका उठायी गई है कि जो स्वभावतः एक स्थान पर स्थिर रहते हैं उन्हें स्थावर कहना चाहिए । इसके उत्तर में कहा गया है कि ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि वैसा मानने पर वायु, तेज और जल जीवों के वसरूपता का प्रसंग प्राप्त होता है । इस पर यदि यह कहा जाय कि उक्त वायु आदि जीवों को त्रस मानना तो अभीष्ट ही है तो ऐसा कहना आगम के प्रतिकूल है । कारण यह कि आगमव्यवस्था के अनुसार सत्प्ररूपणा में कायमार्गणा के प्रसंग में द्वीन्द्रियों से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त जीदों को त्रस कहा गया है। इसलिए चलने की अपेक्षा त्रस और एक स्थान पर स्थिर रहने की अपेक्षा स्थावर नहीं कहा जा सकता है, किन्तु जिनके त्रसनामकर्म का उदय होता है उन्हें त्रस और जिनके स्थावर नामकर्म का उदय होता है उन्हें स्थावर जानना चाहिए। ___ इस शंका-समाधान में यहाँ आगम व्यवस्था के अनुसार जिस सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत काय वर्गणा से सम्बन्धित सूत्र की ओर संकेत किया गया है वह इस प्रकार है'तसकाइया बीइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।" --ष० ख० सूत्र १,१,४४ (पु०१)। ५. त० वा० में स्वामी, स्वलाक्षण्य व स्वकारण आदि के आश्रय से औदारिकादि पांच शरीरों में परस्पर भिन्नता दिखलाई गई है। उस प्रसंग में वहाँ स्वामी की अपेक्षा उनमें भिन्नता को प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि औदारिकशरीर तिर्यचों और मनुष्यों के होता है तथा वैक्रियिकशरीर देव-नारकियों, तेजकायिकों, वायुकायिकों एवं पंचेन्द्रिय तिर्यंचों व मनुष्यों के भी होता है । इस पर वहाँ यह शंका उपस्थित हुई है कि जोवस्थान में योगमार्गणा के प्रसंग में सात प्रकार के काययोग की प्ररूपणा करते हुए यह कहा गया है कि औदारिक और औदारिकमिश्र काययोग तिर्यंचों व मनुष्यों के तथा वैक्रियिक और वैक्रियिक मिश्र काययोग देवों और नारकियों के होता है। परन्तु यहाँ यह कहा जा रहा है कि वह (वैक्रियिकशरीर) तिर्यंचों व मनुष्यों के भी होता है; यह तो आगम के विरुद्ध है । इस शंका का समाधान करते हुए वहाँ यह कहा गया है कि इसमें कुछ विरोध नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्यत्र उसका उपदेश है--- व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों में शरीरभंग में वायु के औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण ये चार शरीर कहे गये हैं। ये ही चार शरीर वहाँ मनुष्यों के भी निर्दिष्ट किये गये हैं । इसपर शंकाकार ने कहा है कि इस प्रकार से तो उन दोनों आर्षों (आगमों) में परस्पर विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में आगे वहाँ कहा गया है कि अभिप्राय के भिन्न होने से उन दोनों में कुछ विरोध होनेवाला नहीं है । जीवस्थान में देव-नारकियों के सदा काल उसके देखे जाने के कारण वैक्रियिक शरीर का सद्भाव प्रकट किया गया है । परन्तु तिर्यंचों व मनुष्यों के वह सदा काल नहीं देखा जाता है, क्योंकि वह उनके लब्धि के निमित्त १. यहाँ यह स्मरणीय है कि श्वे० परम्परा में तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसम्मत 'तेजोवायू द्वीन्द्रिया दयश्च त्रसाः' इस सूत्र (त०सू० २-१४) के अनुसार तेज और वायुकायिक जीवों को चलन क्रिया के आश्रय से त्रस माना गया है। २. त० वा० २,१२,५ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | २११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy