Book Title: Siddha Hemchandra Shabdanushasan Bruhad Vrutti Part 01
Author(s): Vajrasenvijay
Publisher: Bherulal Kanaiyalal Religious Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਦਾਲਤ ਦੇ ਕਈ ਹਲਚਲਤ ਚ ਦ ਦੱਸਦੀ - - - ਰਲ ਕੇ ਦਾਸ T c3 ਰਲ ਤੇਲ ਦੇਣ (੨ਣ ਇਸ ਬਣਵਾ 200 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद् विजय दान- प्रेम - रामचन्द्र - भवङ्करसद्गुरुभ्यो नमः कलिकालसर्वज्ञ - श्रीमद् हेमचन्द्र सूरिभगवत्प्रणीतं श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् ( स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति तथा न्यायसारसमुद्धार (लघुन्यास) संवलितम् ) प्रथमो भाग: आद्य-संपादक शासन - सम्राट् पू. आचार्य देव श्रीमद् विजय नेमि सूरीश्वरजी महाराज साहेब की प्रेरणा से प. पू. आचार्य देव श्रीमद् विजय उदयसूरीश्वरजी महाराज. संपादक सुषिशाल गच्छाधिपति पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सा. के शिष्यरत्न अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकर विजयजी गणिवर्य श्री के शिष्यप. पू. आचार्यश्री कुंदकुंद सरीजीके शिष्य पूज्य मुनिवर्य श्री वज्रसेन विजयजी म. सा. सह संपादक पूज्य मुनिराजश्री रत्नसेनविजयजी म. प्रकाशक भेरूलाल कनैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट चन्दनबाला बम्बई Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक शा. भेरुलाल कनैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट चंदनबाला एपार्टमेन्ट रीज रोड - वालकेश्वर बम्बई - 400006 प्रकाशन - तिथि कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा २०४२ ( कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य भगवंत की जन्म तिथि ) आवृत्ति - द्वितीया मूल्य - ७० /- रुपये : प्राप्ति - स्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद O पार्श्व प्रकाशन, नीशा पोल, झवेरीवाड, अहमदाबाद- १ O जशवंतलाल गीरधरलाल दोशीवाडानी पोल, अहमदाबाद - १. मुद्रक हिन्दुस्तान प्रिंटर्स जालोरी गेट के अन्दर जोधपुर (राज० ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की कलम से........ सकल श्री संत्र की सेवा में 'सिद्धहेम बृहवृत्ति लघुन्यास सहित' महाग्रंथ के प्रथम भाग को प्रकाशन करते हम अत्यंत ही आनंद अनुभव कर रहे हैं। परम कृपालु महावीर देव जब बाल्यावस्था में थे तब सौधर्मेन्द्र ने आकर भगवान् से व्याकरण संबंधी जो प्रश्न किये थे। उन सभी का भगवान् ने संतोषप्रद समाधान किया था। बाल्यवय में भी प्रभु की अद्भुत ज्ञान-प्रतिभा को देखकर सभी. दंग (आश्चर्यचकित) रह गये थे। उस काल में सर्वप्रथम जैनेन्द्र व्याकरण प्रसिद्धि में आया--यह बात हम हर वर्ष पर्युषणों में सुनते आये हैं। कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी म. ने सिद्धराज की प्रार्थना को लक्ष्य में रखवार 'सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशान का निर्माण किया। और उन्होंने इस ग्रन्थ के उपर लघुवृत्ति-बहवृत्ति और वृहन्न्यास का भी निर्माण किया था । दुर्भाग्यवश आज वह बृहन्न्यास पूर्णरूप से उपलब्ध नहीं हैं। इस व्याकरण की बहद्वृत्ति के ऊपर पृ. आचार्य श्री कनकप्रभसूरीजी म. विरचितन्याससार समुद्धार (लघुन्यास संज्ञक) उत्तम विवरण ज्ञान भडारों में आज भी मौजूद हैं । परन्तु आज उसकी हालत अत्यंत ही गंभीर हैं । परों जीण हो गए हैं तथा इसके साथ ही दुष्प्राप्य भी हैं। लेकिन जैन-शासन का सौभाग्य है कि उस हालत को देखकर पूज्य आचार्य श्री विजय कुन्दकुन्दसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री षज्रसेन विजयजी म. सा. के हृदय में उसके पुनर्मुद्रण रूप जीर्णोद्धार करवाने की सद्भावना. जगी । दूसरी ओर सिद्धांत दिवाकर प. पृ. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोष सूरिजी म. की ओर से हमारे ट्रस्ट के सदस्यों को इस ग्रन्थरत्न के जीर्णोद्धार के लिए पुनीत प्रेरणा प्राप्त हुई । विशालग्रन्थ रत्न का प्रकाशन करना, एक भगीरथ कार्य था और इस कार्य में प्रायः डेढ़ लाख रूपये से कम खर्च न था। हमारे ट्रस्ट के सदस्यों को पूज्य गुरुवर्यो' की शुभ प्रेरणाओं से यह शुभ मनोरथ हुआ कि 'अपने ट्रस्ट के ज्ञाननिधि का सव्यय करके इस पुण्य कार्य का लाभ क्यों न उठाया जाय ? और आज ऐसे महान् ग्रन्थरत्नों के पीछे अपना अमूल्य समय देने वालों की संख्या अत्यल्प होने से पूज्य मुनि भगवंतों की इस पवित्र भावना को सहर्ष क्यों न अपनायी जाय ? और बस, हमने इस महामन्थरत्न के जीर्णोद्धार में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय कर लिया। इस ग्रन्थरत्न के सुवाच्य पुनः सौंपादन के इस भगीरथ कार्य को परमाज्य, गच्छाधिपति, संघ. हितवत्सल, आचार्यदेव श्रीमविजय रामचन्द्रसूरीश्वजी महाराजा की अनुमति और शुभाशीर्वाद से अतिपरिश्रम पूर्वक पूर्ण करने वाले परम पूज्य अध्यात्मयोगी पंन्यास प्रवर श्री भद्रकरविजयजी गणिधर्य श्री के शिष्य-प्रशिष्य परमपूज्य विद्वद्वर्य मुनिराज श्री बन्नसेन विजयजी महाराज साहेब तथा परमज्य मु. श्री रत्नसेन विजयजी म. सा. के हम सदा ऋणी रहेंगे उनके इस भगीरथ कार्यकी हम बारंबार अनुमोदना करते हैं, एवं सकल श्री संघ को अर्ज करते हैं कि ऐसे संघरत्न मुनि भगवंतो, जो कि श्रुत-मक्ति से निःस्वार्थ श्रुत सेवा कर रहे हैं......उन्हें पूर्ण सहयोग प्रदानकर श्रुत समृद्धि को युगोपर्यंत जीवनदान देकर आत्म कल्याण के पथमें आगे बढे। . लि. श्री भेरुलाल कन्हैयालाल रिलिजीयसः ट्रस्ट Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एँ नमः किंचिद् वक्तव्यम् "श्री सिद्धहैम बृहद्वृत्ति लघुन्यास" यह व्याकरणविषयक एक विशालकाय ग्रन्थरत्न है । इसके संपादन के समय थोडा सा भूतकाल को याद किये विना इस संपादन की भूमिका को समजाना शक्य नहीं है । आज से लगभग २८ वर्ष पहेले संवत् २०१३ की साल में पाटण में परम पूज्य पंन्यासप्रवर श्री हर्ष विजयजी गणिवर्य श्री और मेरे भी संयम जीवन के अनन्य उपकारी परम पूज्य मुनिराज श्री महाभद्र विजयजीमहाराज की निश्रा में पंडित श्री शिवलालभाई के पास में पूज्य मुनिवर्य श्री धुरंधरविजयजी महाराज और मैंने १३ वर्ष की उमर में श्री सिद्ध हैम लघुवृत्ति का अभ्यास मेरे संयम - -दाता, वात्सल्य महोदधि परम पूज्य पंन्यासजी भद्रकर विजयजी गणिवर्य श्री और मेरे उपकारी पूज्य गुरुदेव परम पूज्य आचार्य देव श्री कुंदकुदसूरीश्वरजी महाराज ( उस समय मुनिराज ) के आशीर्वादों से शुरू किया था । उस समय संदिग्धस्थानों को देखने के लिए पंडितजी 'सिद्ध हैम वृद्धवृत्ति लघुन्यास ' की प्रत का उपयोग करते थे । उस समय उस प्रत की जीर्ण शीर्ण अवस्था देखकर हमको मन में ऐसी भावना हुई के बड़े होकर इसका पुनर्मुद्रण करवाएंगे, जिससे अभ्यासीओं को सुगमता प्राप्त हो सके । और तारकालिक उस प्रतकी सुरक्षा के लिए जीलेटीन पेपर के उपर एक-एक पन्ना लगा दीया और दो प्रतों में से एक प्रत को सुरक्षित बनाली । ऐसे इस प्रस्तुत ग्रन्थ का पुनर्मुद्रण का बीजारोपण हुआ था । बाद में यह बात विस्मृत हो गई। फिर से योगानुयोग इसी पाटण में संवत् २०३४ की साल में संघ स्थविर विशाल गच्छाधिपति परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का सुविशाल मुनि परिवार के साथ चातुर्मास हुआ । उस समय परम पूज्य, परम गुरुदेव पंन्यासजी महाराज श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री आदिकी निश्रा में मुझे और मुनि श्री रत्नसेन 'विजयजी को भी रहने का अपूर्व लाभ मिला । उस समय मुनि श्री रत्नसेन विजयजी का बृहदवृत्ति का बांचन चल रहा था । पूज्य पंन्यासजी महाराजश्री शरीर से अस्वस्थ होने के कारण मुझे तो समय का अभाव था । इस कारण मुनि श्री रत्नसेन विजयजी को मैने सूचन किया कि वृहद्वृत्ति के अभ्यास के साथ साथ लघुन्यास की हस्तलिखित प्रत को देखी जाय। उन्होंने मेरे सूचन का सहर्ष स्वीकार किया । और उस समय थोडे प्रकरणों को हस्तप्रत से मिलान कर लिया और बाद में इस कार्य के योग्य प्रयत्न जारी रखे। इस दरम्यान पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय जिनेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के पास पंडितजी की ब्यबस्था होने के कारण उन्होंने पंडितजी के साथ मीलकर इस ग्रन्थ की टीप्पणीयां तैयार करवाने का प्रारम्भ किया और स्वल्प टिप्पणीयां तैयार भी की । लेकिन वह टिप्पणीयां अपूर्ण होने के कारण इस ग्रंथ में उसे नहीं रखी । जो भविष्य में शक्य होगा तो प्रगट करेंगे । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस दरम्यान २०३९ का चातुर्मास जामनगर में हुआ । इस ग्रंथ के पुनः मुद्रण की भावना हृदय में तो थी ही । उसमें परम पूज्य आचार्य देव श्री जयघोषसूरीश्वरजी महाराज की ओर से सुश्रावक हिंमतलालजी को सूचन हुवा की इस प्रथ को "श्री भेरुलाल कनैयालाल कोठारी रीलीजीयस ट्रस्ट, चंदनबाला ( बम्बइ)" की ओर से प्रकाशन का लाभ लेने जैसा है। इस बात को टस्ट के ट्रस्टीओं ने तुरन्त ही स्वीकार लोया और यह काय गतिमान हुआ। जामनगर में व्याकरण के अच्छे अभ्यासी पंडितवर्य श्री ब्रजलालभाई उपाध्याय का योग था । इस कारण पंन्यास श्रीप्रद्युम्न विजयजी गणीवर श्री के पास से प्रति मंगवाकर पंडितजी के पास शुद्धि नादि करने का कार्य प्रारम्भ किया। इसके बाद शरीर अस्वस्थ रहने के कारण इस कार्य में सहयोगके लिए मुनि श्री रत्नसेन विजयजी को कहा और उन्होंने भी इस कार्य में सहयोग देने के लिए अपनी प्रसन्नता बताई। संवत् २०४० के चातुर्मास में रतलाम चातुर्मास दरम्यान मेरी सूचनानुसार योग्य अशुद्धि परिमार्जन के साथ तीसरे अध्याय से सात अध्याय तक 'लधुन्यास' की प्रेस कोपी तैयार की । जिससे प्रिन्टींग आदि में अति सरलता रही। इस प्रकार अनेक महानुभावों की साहाय्य से संपादन कार्य प्रारम्भ हुआ । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन के ऊपर स्वोपज्ञ वृहद्वृत्ति आज भी उपलब्ध हैं । उस वृहद्वृत्ति पर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री ने बृहन्न्यास (८४००० श्लोक प्रमाण) की रचना की थी । किन्तु दुर्भाग्य से वह ग्रन्थ पूर्णरुप से उपलब्ध नहीं है । उसका आंशिक भाग ही उपलब्ध हैं । उस घृहद्वृत्ति के किलष्ट स्थानों पर चान्द्रगच्छशिरोमणि परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय देवेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के शिष्य रत्न परम पूज्य आचार्य देव श्री कनक प्रभसूरिश्वरजी महाराज ने 'न्याससारसमुद्धार' की रचना की है । सद्भाग्य से वह पूर्ण ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है । "श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशामन की बृहदवृत्ति और न्याससार समुद्धार का प्रथम मुद्रण शासन सम्राट् परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद्विजय नेमिसूरीश्वरजी महाराजा का प्रेरणा से प. T. आचार्य म. श्रीमद् विजय उदय सूरीरश्वजी म० ने करवाया था। संवत् १९६२ में पोरवाडज्ञातीय भगुभाई आत्मज मनसुखभाई की ओर से प्रकाशन हुआ था। __कुछ वर्षों पूर्व व्याकरण वाचस्पति आचार्य देव श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी महाराज ने श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन स्वोपर्श तत्त्वप्रकाशिका (हवृत्ति) शब्द महार्णवन्यास के प्रकाशन के साथ साथ प्रथम व द्वितीय अध्याय के लधुन्यास का भी प्रकाशन करवाया था । ___ इस ग्रथ के पुनः प्रकाशन में उपर्युक्त पूर्व की आवृत्तियों का आधार लिया गया है। जहांजहां मुद्रण संबंधी अशुद्धियां थी उन्हें भी परिमार्जित करने का शक्य प्रयत्न किया गया है। प्रत्येक सूत्र की वृहवृत्ति के साथ ही लघुन्यास हो तो अध्ययन में विशेष सुविधा रहेगी, इसलिए प्रत्येक सूत्र के साथ ही लधुन्यास लिया है। पूर्व प्रकाशित लघुन्यास में जहां-जहां साक्षी सूत्रों के सांकेतिक नाम दिए गए थे-उन सूत्रों के क्रमांक का भी इसमें निदेश कर दिया है। . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन-अध्यापन में सुविधा की दृष्टि से इस महाकाय प्रथ को तीन भागों में विभक्त किया , गया है। प्रथम भाग-१ से १० पाद (ढाई अध्याय) । द्वितीय भाग-११ से २० पाद (ढाई अध्याय) स्वोपज्ञ-उणादि, धातुपाठ । तृतीय भाग-२१ से २८ पाद (दो अध्याय) लिंगानुशासन, सूत्रोंकाअकारादिकम । आठ अध्यात्मक इस विशाल ग्रथ को तीन भाग में प्रकाशित करने का निर्णय होने पर एक ही समय में अलग-अलग तीन प्रेसों में मुद्रण कार्य प्रारम्भ हुआ। आज इस बात का आनंद है किअठाइस वर्ष पहेले जो भावना बीज रूप से अंतर में पड़ी थी, वह आज एक विशाल वृक्ष रुप होकर फलीभूत हो रही हैं । अभ्यासीओ के लिए छत्तीस हजार से भी अधिक श्लोक प्रमाण और सोलहसो से भी अधिक पृष्ठ का विस्तार रखता हुआ यह सिद्धहेमबृहवृत्ति लघुन्यास प्रथ का प्रथमभाग प्रकाशित हो रहा है । दुसरे दो भाग जल्दी प्रकाशित हो इसलिए प्रकाशक संस्था प्रयत्न कर रही हैं । इस ग्रथ के पुन: प्रकाशन के भगीरथ कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए परम पूज्य जिनशासनप्रभावक, संघहितचिंतक, सुविशाल गच्छाधिपति, आचार्य देवश्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शुभाशीर्वाद और परम पूज्य अध्यात्मयोगी निःस्पृह शिरोमणि परम गुरुदेव पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री की सतत कृपा वृष्टि, परम पूज्य सौजन्यमूर्ति, आचार्य देव श्रीमद्विजय प्रद्योतन सूरीश्वरजी महाराज साहेब की सतत प्रेरणा और परम पूज्य उपकारी गुरुदेव आचार्य देव श्रीमद् विजय कुन्दकुन्द सूरीश्वरजी महाराज की अदृश्य कृपा और मेरे संसारी पिता पू. मुनिराज श्री महासेन विजयजी म. की सहानुभूति प्राप्त होती रही है। उन राज्यों की असीम शक्ति के बल से ही यह कार्य निर्विघ्न परिपूर्ण हुआ है। उन सब उपकारीयो के पावन चरणों में कोटिशः वंदना पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा की व्याकरण विषयक यह कृति कितनी सरल और सुगम है यह तो अभ्यास करने वाले ही समज सकते हैं। कहा भी है कि व्याकरणात् पद सिद्धिः पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात् तत्त्वज्ञान तत्त्वज्ञानात् परंश्रेयः ।। अर्थात् व्याकरण से पद की सिद्धि होती हैं । पदसिद्धि से अर्थ का निर्णय होता हैं । और अर्थ के निर्णय से तत्त्व की सिद्धि होती है । तत्त्वसिद्धि मुक्ति की प्राप्ति में हेतुभूत बन सकती है ।। इस दृष्टि से व्याकरण के अध्ययन का महत्त्व है । अभ्यासी महात्माओं इस ध्येय पूर्वक इस प्रथ का अध्यन करेंगे तो संपादन का हमरा श्रम विशेष सफल होगा 1 पैसे तो श्रुत सेवा का आर्व लाभ मिलने से संपादन का श्रम सफल ही है। इस ग्रथ के प्रिन्टीग में मतिमंदता से दृष्टिदोष से या प्रेसदोष से कोई क्षतियाँ रही हो. वह सुजन सुधारने की कृपा करे । खास-खास अद्धियां का शुद्धिपत्र दिया गया है। इसके प्रिन्टींग में हिन्दुस्तान प्रिन्टर्स के मालिक और पं. चेतन प्रकाशजी पाटनी का भी आर्व सहयोग मिला है। ... . . . ... . -वज्रसेन विजय Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकार का सक्षिप्त परिचय । लेखक : मुनि रत्नसेन विजय क्लुप्त व्याकरणं नवं विरचितं छंदो नवं द्वयाश्रयाऽलंकारौ प्रथितौ नवौ प्रकटितौ श्री योगशास्त्र नवम् । तर्कः संजनितो नवो जिनवरादीनां चरित्र नषम्, बद्धं येन न केन केन विधिना मोहः कृतो दूरतः ॥ _ (सोमप्रभुसूरि) 'नवीन व्याकरण, नवीन छन्दोनुशान, नवीन द्वयाश्रय महाकाव्य, अलंकार शास्त्र, योगशास्त्र, प्रमाणशास्त्र तथा जिनेश्वरदेवों के चरित्रों की रचना कर के (श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी ने) किस-किस प्रकार से मोह को दूर नहीं किया है ? ! पूर्व वीरजिनेश्वरे भगवति पख्याति धर्म स्वयं, प्रज्ञावत्यभयेऽपि मंत्रिणि न यां कर्तुं क्षमः श्रेणिकः । . अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यधातू, __ यस्याऽऽपीय वचस्सुधां स परमः श्री हेमचन्द्रोगुरुः ।। (पंडित श्रीधर) जिसको साक्षात् वीर भगवान् धर्म का कथन करते थे और प्रज्ञावान् अभयकुमार जैसा मन्त्री था, वह राजा श्रेणिक भी जो जीव रक्षा न कर सका, वह जीव रक्षा जिनके वचनामृतों का पान कर कुमारपाल सरलता से कर सका, घे श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी वास्तव में एक परम (महान् ) गुरु है । एक महान् आत्मा का पृथ्वी तल पर अवतरण : अनन्त ज्ञानी सर्वज्ञ सर्वदर्शी चरम तीर्थाधिपति भगवान् महावीर परमात्मा के परम पावनकारी जिन शासन को प्राप्त कर जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन जिनशासन की अगम्य निधि के संरक्षण में व्यतीत कर...जिन शासन की एक महानू सेवा की है, ऐसे महान् प्रभावक, कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी के पुण्यनामधेय से कौन अपरिचित होगा 2 'आज वे महाधुरुष भौतिक देहधारी के रूप में हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं...परन्तु उनका कीर्ति देह तो आज भी विद्यमान है । काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर पश्चिम बङ्गाल तक विस्तृत इस भारत भूमि के पवित्रतम इतिहास में कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी को कैसे भूल सकते हैं ? ! गुजरात के प्राचीन इतिहास में से यदि कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रा चार्यजी के जीवन-इतिहास को एक और कर दिया जाय...तो गुजरात का इतिहास शुन्य सा प्रतीत होने लगेगा । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश-विदेश के कोने-कोने में उनकी साहित्य सृष्टि फैली हुई है । वे एक महान् योगी थे प्रकांड विद्वान व शास्त्रज्ञ थे, वे एक महान् साहित्यकार-कवि-लेखक और एक महान् आत्मसाधक युग महर्षि थे। _ विराट व्यक्तित्व के स्वामी कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी के तेजस्वी व्यक्तित्व, का परिचय देने का सामर्थ्य इस कलम में कहाँ से आए ?...फिर भी 'शुभकार्य में यथाशक्य प्रयत्न करना चाहिये-इसी न्याय को ध्यान में रखकर उस महान विभूति के विराट व्यक्तित्व के यत् किंचित् परिचयात्मक यह प्रयास किया जा रहा है। इस पवित्र भारत भूमि के इतिहास में गुजरात राज्य का महान् गौरवपूर्ण स्थान रहा । गुजरात की भूमि तीर्थ-भूमि है...अनेक पवित्रतम तीर्थो' को अपनी गोद में लिये वह बैठी हैं । यह पवित्रतम अनेक संत महषियों की जन्मदात्री-जनेता रही है । 'कम्मेसुरा और धम्मेसुरा' जैसे अनेक कर्मवीर और धर्मवीरों को इसने पैदा किया है । मानव के विशाल भाल समान गुजरात का 'भाल -प्रदेश' सुविख्यात है । इस भाल-प्रदेश में 'धंधूका नाम प्रख्यात नगर हैं । इस नगर में बारवी शताब्धि में मोढ वणिको की बस्ती अत्याधिक प्रमाण में थी। मौढ परिवार में चाचिग का अपना एक विशिष्ट स्थान था । एक बार चाचिग की पत्नी पाहिनी रात्रि में सो रही थो ..तभी उसने एक भव्य स्वप्न देखा । स्वप्न के अन्दर 'उसे चिंतामणी रत्न की प्राप्ति हुई और उसने वह चिंतामणी रत्न गुरुदेव के चरणों में भेंट ·धर दिया।' ऐसा देखा । ___इसी बीच पूज्य आचार्यश्री देवचन्द्रसूरिजी म. धंधूका में बिराजमान थे । दूसरे दिन पाहिनी ने अपने स्वप्न की बात गुरुदेव के सामने प्रगट की स्वप्न सुनकर क्षणभर विचारमग्न बने गुरुदेव ने कहा, 'पाहिनी ! तू एक महान् चिंतामणी के सर्जन की पूर्व भूमिका रूप हैं...तू जिनशासन के प्रभावक पुरुष की जन्मदात्री बनेगी ।' गुरुदेवश्री के मुख से इस भविष्यवाणी. को सुनकर पाहिनी का हृदय पुलकित हो उठा । उसने अपने घर की ओर प्रस्थान किया । स्वप्न दर्शन की रात्रि में ही पाहिनी के गर्भ में एक महान् आत्मा का अवतरण हुआ था। धीरे धीरे पाहिनी के देह पर गर्भ के चिन्ह दिखाई देने लगे । गर्भ में एक महान् आत्मा के आगमन के फलस्वरूप पाहिनी के हृदय में विविध प्रकार के उत्तम दोहद पैदा होने लगे । जिनमन्दिर में भगवान की भव्य प्रविष्ठा व परमात्मा की भव्य उग रचना तथा अन्य जीवोंको अभयदान देने आदि के शुभ दोहद पाहिनी के मन में प्रगट हुए और चाचिग ने उन सब दोहदों को पूर्ण करने में पूर्ण सहायता की । पाहिनी गर्भ का सुखार्वक पालन करने लगी और एक दिन उसके लिए सोने का सूरज उग गया । वह दिस था कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा..संवत् ११४५ का...जिस दिन उसने जिन शासन के . महान् प्रभावक पुरुष को जन्म प्रदान किया । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ धीरे-धीरे दिन बीतने लगे और एक शुभ दिन पिता ने पुत्र का नामकरण किया और बालक का नाम 'चौंगदेव' रखा ।', चांगदेव' के भौतिक देह में भी अद्भुत आकर्षण था । शांत व गम्भीर उसकी मुख मुद्रा थी । विशाल भाल, गौर वर्ण और तेजस्वी नेत्र सभी के आकर्षण के लिए पर्याप्त थे । पाहिनी एक सुसंस्कारी और पवित्रात्मा स्त्री थी । जिनशासन का अनुराग उसके रोम रोम में भरा हुआ था । बाल्यकाल से ही माँ पाहिनी ने पुत्र चांगदेव के जीवन में सुसंस्कारों का अद्भुत सिंचन किया था । धीरे-धीरे चांगदेव की उम्र बढ़ने लगी । चांगदेव की उम्र मात्र ५ वर्ष की थी और उसके जीवन में एक अभूतपूर्व घटना बन गई । एक दिन माँ पाहिनी अपने पुत्र रत्न चांगदेव को लेकर जिनमन्दिर दर्शनार्थ निकल पडी ।माँ भक्तिसभर हृदय से परमात्मा के दर्शन कर रही थी... बालक चांगदेव भी साथ में ही था । द्रव्यपूजा समाप्ति के बाद पाहिनी परमात्मा की भावपूजा में तल्लीन थी... इसी समय बालक चांगदेव मन्दिर - से बाहर निकलकर पास में रहे उपाश्रय में पहुँच गया । उस समय उपाश्रय में आचार्य भगवंत विद्यमान नहीं थे... वे बाहर स्थंडिल भूमि गए हुए थे. इसी बीच चांगदेव उपाश्रय में जाकर आचार्य भगवंतश्री के आसन पर बैठ गया' थोड़ी ही देर में आचार्य भगवंत पधार गए' सुश्राविका पाहिनी भी आचार्य भगवंत को वन्दन करने के लिए उपाश्रय में आई । आचार्य भगवंतने उपाश्रय में प्रवेश किया और अपने आसन पर आश्चर्यमुग्ध हो गए' आचार्य भगवंतने वालक की तेजस्वी प्रतिभा को इस बालक को सुयोग्य संयोगों की प्राप्ति हो तो अवश्य ही जिन बन सकता है' इस प्रकार विचार कर आचार्य भगवंतने अत्यन्त सौम्य तू अपने स्वप्न को याद कर ! पुत्र के लक्षण देख... तू अपनी ममता का त्याग कर दे, जिन शासन के चरणों में यदि इस पुत्र का समर्पण करेगी तो यह पुत्र जिनशासन का एक महान् प्रभावक बन सकेगा ।' 'चांगदेव' को बैठे देखकर देखा और सोचने लगे 'यदि शासन का महान् प्रभावक वाणी से कहा, ' हे पाहिनी ! गुरुदेव श्री के मुख से वात्सल्यपूर्ण वाणी सुनकर पाहिनी के हृदय में रहा पुत्र मोह धीरे-धीरे कम होने लगा और आत्महित की आकांक्षा वाली पाहिनी ने पुत्र की ममता को त्याग कर अपने पुत्र को गुरु चरणों में समर्पित कर दिया । पाहिनी एक आदर्श माता थी, जिन शासन के चरणों में अपने पुत्र रत्नकी भेट धरकर एक महान् त्याग किया है । ऐसी महान माताएँ ही स्वार्थ को तिलांजलि दे सकती हैं और आत्महित के मार्ग को अपना सकती है । पांचवर्षीय बालक चांगदेव को साथ में लेकर आचार्य देवचन्द्रसूरिजी म. ने धंधूका से खंभात की ओर विहार प्रारम्भ किया । कुछ ही दिनों की पद यात्रा के बाद आचार्य श्री खंभात पहुँच गए । दीक्षा ग्रहण खंभात पहुँचने के बाद आचार्यश्री के मुख से 'चांगदेव' की दीक्षा के संदर्भ में उदयन मन्त्री को प्रत्ता चला। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० उस ने कहा, 'भगवन्त ! चांगदेव की दीक्षा के महोत्सव का लाभ मुझे दीजिए !' आचार्य भगवन्त ने उस की भावना का स्वीकार किया और उदयन मन्त्री ने चांगदेव की दीक्षा की भव्य तैयारियाँ प्रारम्भ कर दी । महासुद १४, ११४५ शनिवार के शुभ दिन रोहिणी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर और सूर्य आदि सभी ग्रह उच्च स्थान में आने पर पूज्य आचार्यश्री देवचन्द्रसूरिजी म. ने अपने वरद हस्तों से चांगदेव को दीक्षा प्रदान की और नूतन मुनि का 'सोमचन्द्र' नामकरण किया । श्वेत वस्त्रों में सुसज्जित सोमचन्द्र मुनि मुख मण्डल पर अद्भुत तेजस्विता दिखाई दे रही थी । इधर जब चाचिग को पता चला कि पाहिनी ने पुत्ररत्न गुरुचरणों में समर्पित कर दिया है - उसे बड़ा खेद हुआ । पुत्र को घर लाने के लिए वह स्वयं खंभात पहुंचा परन्तु उदयन मन्त्री आचार्य श्री के समझाने पर उसने पुत्र मोह का त्याग कर दिया । दीक्षा अङ्गीकार करने के बाद सोमचन्द्र मुनि संयम की निर्मल साधना और स्वाध्याय में लग गए । वहुत ही अल्पकाल में तर्क, लक्षण, साहित्य, भाषा, न्याय आदि विषयों में वे नितॄण बन गए । सरस्वती साधना : एक बार 'सोमचन्द्र' मुनि ने सोचा, 'पूर्वकाल में तो महात्माओं की बुद्धि कितना विशाल थी... वे पदानुसारिणी बुद्धि के निधान थे और हमारे में कैसी अल्प बुद्धि है ? इस प्रकार सोचकर उन्होंने काश्मीर जाकर सरस्वती को सिद्ध करने का दृढ संकल्प किया और अपने गुरुदेव की आज्ञा और आशीर्वाद को प्राप्त कर काश्मीर की ओर प्रयाण कर दिया । सोमचन्द्र मुनि विहार करते हुए ""तावतार तीर्थ में आए और वहाँ उन्होंने एकाग्रतापूर्वक सरस्वती का ध्यान किया, उनके ध्यान प्रभाव से सरस्वती देवी प्रत्यक्ष उपस्थित हुई, और बोली, हे वत्स ! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हू ं, तुम्हारी सब इच्छाएँ पूर्ण होगी और अब तुम्हे काश्मीर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है ।' इस प्रकार कहकर देवी अदृश्य हो गई । सरस्वती से वरदान प्राप्त कर मुनि सोमचन्द्र प्रसन्न हो गए और उन्होंने काश्मीर जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया । एक बार आचार्य देवचन्द्रसूरिजी म. अपने शिष्य परिवार के साथ विहार करते हुए नागपुर पधारे । उस नगर में धनद नामका श्रेष्ठी रहता था । कोई दुर्भाग्य के उदय से उसकी सब सम्पत्ति नष्ट हो गई और वह निर्धन दशा में जीवन बिताने लगा | मुनि सोमचन्द्र अन्य मुनि के साथ धनद श्रेष्ठी के घर गोचरी पधारे । घर की आर्थिक स्थिति और दरिद्रजन योग्य भोजन सामग्री को देखकर सोमचन्द्र मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ, 'अरे ! इस सेठ के घर में सोने का ढेर पड़ा है... फिर भी ऐसी दरिद्र अवस्था में क्यों जी रहा है ?' सोमचन्द्रमुनि ने जब यह बात वीरचन्द्रगणि को कही तो उन्हें भी बड़ा आश्चर्य हुआ और कहा, 'कहाँ है वह सोने का ढेर ?' श्रेष्ठी ने यह बात सुनी, किन्तु उसे तो वहाँ कोयले ही नजर आ रहे थे । श्रेष्ठी ने सोचा 'इस पवित्र बालमुनि के दृष्टि स्पर्श से ही वह कोयला स्वर्ण बन गया लगता है । सोमचन्द्र मुनि के स्पर्श 7 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कोयले के ढेर को स्वर्ण का ढेर जानकर श्रेष्ठी ने कहा, 'ये बाल मुनि तो प्रत्यक्ष ही स्वर्ण पुरुष है....वे सोमचन्द्र नहीं किन्तु हेमचन्द्र है ।' हे गुरुदेब ! आप जब भी इन्हे आचार्य पद से अलंकृत करो तब उस के महोत्सव का लाभ मुझे प्रदान करे ।' आचार्यपद अभिषेक :- . 'सिद्ध सारस्वत' सोमचन्द्र मुनि की बुद्धि-प्रतिभा दिन प्रतिदिन वढने लगी । शान वृद्धि के साथ ही साथ उनकी वय भी बढने लगी । कुमारवय को वे पूर्ण कर चूके थे । उनके मुख मण्डल पर ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज था....वाणी में अत्यन्त ही मधुरता थी और आँखों में करुणा थी । ___ अनेक गुणों से अलंकृत सिद्ध सारस्वत सोमचन्द्र मुनि के विराट व्यक्तित्व और अद्भुत सामर्थ्य को देखकर गुरुदेवश्री ने उन्हें जिनशासन के तृतीय आचार्यपद से अभिव्यक्त करने का निर्णय लिया । चारों ओर सोमचन्द्र मुनि की आचार्य पदवी के शुभ समाचार फैल गए । भक्त वर्ग ने भव्यातिभव्य प्रभु भक्ति महोत्सव का आयोजन किया और वैशाख शुक्ला तृतीया संवत् ११६६ के शुभ दिन मंगल मुहूर्त में पूज्य गुरुदेवश्री ने उन्हे अत्यन्त ही आनन्द-उल्लास पूर्वक आचार्यपद प्रदान किया और मुनि सोमचन्द्र का नाम आचार्य हेमचन्द्र सूरिजी रखा गया जो 'हेमचन्द्राचार्यजी' के शुभ नाम से विश्व-विख्यात बने । आचार्य पदवी का शुभ-आयोजन स्थभनपुर खंभात में ही हुआ था जो आचार्यश्री की दीक्षा भूमि भी थी और इसी शुभ दिन माँ पाहिनी ने भी राग जन्य सांसारिक परिवारिक बेड़ियों को तोड़कर जिन-शासन के चरणों में अपने जीवन का आत्मसमर्पण कर दिया और माँ पाहिनी भी साध्वी पाहिनी बन गई । . हेमचन्द्रसूरिजी म. आचार्यपदवी के एक वर्ष बाद पू. आ. श्रीदेवचन्द्रसूरिजी म. का स्वर्गवास हो गया । गुरुदेव के स्वर्गगमन के बाद हेमचन्द्राचार्यजीने खभात से पाटण की और विहार-यात्रा प्रारम्भ कर दी और कुछ ही दिनों में वे पाटण की पवित्र धरती पर पधार गए । प्रतिभा की प्रभा: ____एक बार गुर्जर सम्राट् सिद्धराज हाथी पर बैठकर वनवाटिका के लिए निकला हुआ है और श्रीमद् हेमचन्द्रसृरिजी म. सामने से आ रहे है । आचार्यश्री की तेजस्वी प्रतिभा को देखकर सिद्धराज अत्यन्त ही प्रभावित हुआ और आचार्यश्री के निकट आने पर उस ने कहा-हे सूरीश्वर ! आप कुछ कहो ! उसी समय समयज्ञ आचार्यश्री ने कहा-- कारय प्रसर सिद्ध ! हस्तिराजमशङ्कितम् । ... त्रस्यन्तु दिग्गजाः किं ते भूस्त्वयैवोद्धृता यतः ॥ अर्थ-हे सिद्धराज ! तू अपने हाथी को निःशंक होकर आगे बढा। कदाचित् दिग्गज नवरा जाय...तो उसकी चिन्ता मत करना, क्योंकि पृथ्वी को तू ही धारण कर रहा है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आचार्यश्री के मुख से इस काव्योक्ति को सुनकर सिद्धराज अत्यन्त ही प्रभावित हुआ और उसने आचार्यश्री को प्रतिदिन राजसभा में धर्मोपदेश देने के लिए आमन्त्रण दिया । 7 आचार्यश्रीने सिद्धराज के अमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार किया और प्रतिदिन राजसभा में जाने लगे और अपनी बुद्धि प्रतिभा से इस प्रकार धर्म के रहस्यों को समझाने लगे कि जिसे सुनकर सिद्धराज अत्यन्त ही प्रभावित हो गया । क्रमशः सिद्धराज की राजसभा में आचार्यश्री की प्रतिष्ठा बढ़ने लगी । व्याकरण की रचना - क्यों और कब ? - विक्रम संवत् १९९२ का समय था । यशोवर्मा राजा के ऊपर आक्रमण कीया। दोनों ने विजय प्राप्त की । अवसर देखकर सिद्धराज ने मालवा देश के अधिपति राजाओ में परस्पर युद्ध हुआ और उस युद्ध में सिद्धराज मालवा देश को जीतकर जब सिद्धराज ने पाटण के सिद्धद्वार में प्रवेश किया तब पाटण के नगर वासियों ने सिद्धराज का भव्य स्वागत किया । अनेक कवियों ने राजसभा में जाकर सिद्धराज की स्तुति की। हेमचन्द्राचार्य जी ने भी सिद्धराज को आशीर्वाद देते हुए कहा 'भूमि कामगवि ! स्वगोमयरसैरासिञ्च रत्नाकरा । मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुडुप । त्वं पूर्णकुम्भीभव | धृत्वा कल्पतरोर्दलानि सरलैर्दिग्वारणास्तोरणा न्याधत्त स्वकरौवजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः || अर्थः ' हे कामधेनु । तू अपने गोमयरस से भूमि का सिचन कर दे । हे रत्नाकरो ! तुम अपने मोतियों से स्वस्तिक बनाओ ! दिग्गजो ! तुम अपनी सूट को फैला कर कल्पवृक्ष के पत्रों को लेकर तोरणों की रचना करो क्योंकि सिद्धराज पृथ्वी को जीतकर यहाँ आ रहा है ।' हेमचन्द्राचार्य जी के मुख से इस स्तुति को सुनकर विद्वप्रिय सिद्धराज अत्यन्त ही प्रसन्न हो उठा । अवंति के राजभण्डार में से अनेक ग्रन्थ रत्न मिले थे । सिद्धराज ने नियुक्त पंडितों को पूछा, ये कौन से ग्रन्थ हैं ? एक पंडित ने कहा मालवाधिपति भोजराज के द्वारा बनाया हुआ शब्दशास्त्र 'भोज व्याकरण' है । भोजराज के द्वारा निर्मित अन्य अलंकार, तर्क तथा निमित्तशास्त्र भी है। इसके साथ अन्य विद्वानों के द्वारा विरचित गणित, ज्योतिष, वास्तु, सामुद्रिक, स्वप्न, वैद्यक, अर्थशास्त्र, मेघमाला, राजनीति तथा अध्यात्म आदि ग्रन्थ इस भण्डार में है ।' इस बात को सुनकर सिद्धराज को बड़ा खेद हुआ । क्या इस देश का अपना साहित्य भण्डार नहीं है ?' सोचकर सिद्धराज ने कहा, क्या इस गुर्जर देश में रचे गये सुन्दर शास्त्र नहीं हैं ? क्या इस देश में ऐसे सर्वशास्त्र निपुण विद्वान नहीं हैं ? Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धराज की इस वात को सुनकर सभी विद्वानों की दृष्टि हेमचन्द्राचार्य जी पर स्थिर बनी । सभी विश्वास था कि यह भगीरथ कार्य हेंमचन्द्राचार्य जी को छोड़कर अन्य कोई नहीं कर सकता है । よ सिद्धराज तुरन्त ही विद्वानों के अभिप्राय को समझ गया और हेमचन्द्राचार्य जी की ओर दृष्टि डालकर बोला : 'शब्दव्युत्पत्तिकृच्छास्त्र निर्मायास्मन्मनोरथम् | पुरयस्व महर्षे त्वं विना त्वामत्र कः प्रभुः ?" अर्थ :- हे महर्षि ! शब्द की व्युत्पत्ति करने वाले शास्त्र की रचना करके हमारे मनोरथ को पूर्ण करो। आपके बिना यह कार्य करने में अन्य कौन समर्थ है ? अभी अपना देश कलापक - कातन्त्र व्याकरण पढ रहा है, किन्तु उसमें शब्दों की व्युत्पत्ति स्पष्ट नहीं है । 'पाणिनि व्याकरण को वेदांग मानकर ब्राह्मणां विद्यार्थियों की अवगणना कर रहे है । नवीन व्याकरण - निर्माण की तीव्र अभिलाषा व्यक्त करते हुए सिद्धराज ने कहा 'यशो मम तव ख्यातिं पुण्यं च मुनिनायक । विश्वलोकोपकाराय, कुरु व्याकरणं नव || ८४|| ( प्रभावक चरितम् ) अर्थ :- 'हे मुनीश्वर ! आप नवीन व्याकरण की रचना करो, जिससे मुझे यश मिलेगा और आपको ख्याति मिलेगी और समग्र लोक के उपकार का पुण्य होगा ।" सिद्धराज की इस नम्र विनंति को सुनकर हेमचन्द्राचार्य जी ने कहा, हे राजन् ! अभी वर्तमान में आठ प्रकार के व्याकरण विद्यमान है, उन सब व्याकरणों को आप काश्मीर से मंगार ताकि एक सुन्दर व भव्य शब्द शास्त्र की रचना हो सके । हेमचन्द्राचार्य जी के निर्देशानुसार सिद्धराज ने प्रधान पुरुषो को भेजकर काश्मीर से सभी व्याकरण मंगाए और सभी व्याकरण आचार्य भगवन्त को समर्पित किये । हेमचन्द्राचार्य जी ने सभी व्याकरणों का सूक्ष्मता से परीक्षण किया और अपनी बुद्धि-प्रतिभा से उन सब व्याकरणों में रही क्षतियों को ध्यान में रखकर उन्होंने एक सुन्दर व्याकरण शास्त्र रचना की जो अनेकविध विशेषताओं से भरपूर है । उन्होंने इस व्याकरण का नाम 'सिद्व हेमचन्द्र शब्दानु - शासन रखा । यह व्याकरण सर्वाग संपूर्ण है । आठ अध्याय और उनके बत्तीस पादों में यह व्याकरण विभक्त है । प्रत्येक पाद के अन्त में एक-एक श्लोक और अन्त में चार श्लोकों की रचना कर ( कुल ३५ श्लोको ) उन्होंने चौलुक्य राजवंश का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है । शब्दानुशासन रूप शब्दशास्त्र के साथ साथ उन्होंने लघुवृत्ति, वृहद्वति, बृहन्न्यास, अभिधानचिंतामणी, धातुपारायण, द्वयाश्रय, लिंगानुशासन, आदि सभी अंगों की भी रचना की । हेमचन्द्राचार्यजी विरचित व्याकरण की पूर्णता को जानकर सिद्धराज ने उस व्याकरण को पट्टहस्ती Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर रखकर उसका भव्य जुलुस निकाला और तीन सौ प्रतिलिपीकार को बिठाकर उसकी अनेक प्रतियाँ तैयार करबाई और दूर-सुदूर देशों में उसका प्रचार किया गया । पाटण में सर्वप्रथम विद्वद्वय 'काकल कायस्थ ने सिद्धहैम व्याकरण का अध्यापन प्रारम्भ किया । हेमचन्द्राचार्य जी ने व्याकरण के प्रत्येक सूत्रों का प्रयोग सिद्ध करने के लिए व्याश्रय महाकाव्य की भी रचना की । संस्कृत व्याकरण के समस्त सूत्रों को काव्य रूप में ग्रन्थितकर के कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यश्री ने अपने अद्भुत व्यकित्व का परिचय दिया। । याश्रय महाकाव्य में एक ओर सिद्ध हैम के सूत्रों के प्रयोग दिखलाए हैं तो दूसरी ओर मुलराज सोलंकी मे लेकर कुमारपाल महाराजा पर्यंत सोलंकी वंश की कीर्तिगाथा का बहुत ही सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है। संस्कृत द्वयाश्रय बीस सर्गों में विभक्त हैं और प्राकृत द्वयाश्रय आठ सर्गों में विभक्त है । प्राकृत द्याश्रय में कुमारपाल के नित्य जीवन का परिचय दिया है। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं और एक ही अर्थ के अनेक शब्द होते हैं, इस हेतु हेमचन्द्राचार्य जी । ने अभिधान-चिन्तामणी और अनेकार्थ संग्रह नामक दो शब्दकोषों की भी रचना की है। बुद्धि-प्रतिभा एक बार कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य देब श्री पाटण में नेमिनाथ चरित्र के ऊपर प्रवचन कर रहे थे । सभी दर्शन के लोग आचार्य देवश्री की देशना का उत्साह से श्रवण करते थे। इस चरित्र के अन्दर जब पांडवों द्वारा जैन दीक्षा ग्रहण की बात आई तव कुछ ब्राह्मणी ने आपत्ति उठाई और उन्होंने सिद्वराज के पास जाकर शिकायत की कि ये जैनाचाय: वेदव्यास के कथन से विपरीत वात करते...इससे 'स्मृति' का अनादर होता है। जब सिद्धराज ने आचार्य श्री से इस संदर्भ में प्रश्न किया तब आचार्यश्री ने कहा, हे राजन् ! व्यासजी अपनी महाभारत में पांडवों के हिमालय गमन की बात करते हैं और जैन ग्रन्थों में पांडवों के दीक्षा ग्रहण की बात आती हैं, परन्तु वे पांडव और ये पांडव एक ही हैं, ऐसी कोई बात शास्त्र में नहीं आती हैं । पांडव तो बहुत हुए हैं । सुनो ! गांगेय पितामह ने अपने परिवार को कहा था, 'मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर का अग्निदाह उस भूमि में करना जहाँ किसी का अग्निदाह न हुआ हो !' भीष्म पितामह की मृत्यु के बाद उनके देह को उनके परिवारजन एक पर्वत के ऊपर ले गए तब वहाँ देववाणी हुइ -- 'अत्र भीष्मशतं दग्ध, पाण्डवानां शतत्रयम् । द्रोणाचार्य सहस्र तु कर्णसंख्या न विद्यते ॥ यहाँ सो भीष्म, तीन सो पांडव एक हजार द्रोणाचार्य और अगणित कर्णो का अग्निदाह हुआ है।' इससे स्पष्ट हैं कि पांडव अनेक हुए हैं। प्रवचन में जिन पांडवों की बात चल रही हैं ...वे जैन पांडव थे और उन्होंने जैन दीक्षा अङ्गीकार की, इसमें शंका का स्थान ही कहाँ हैं? .. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्राचार्य जी के वाक्चातुर्य को सुनकर सभी ब्राह्मण शांत हो गए और सिद्धराज ने आचार्य श्री को व्याख्यान चालू रखने के लिए निवेदन किया । समर्थ व्याख्याता ___ एक बार सिद्धराज की राजसभा में आमिग नामक पुरोहित ने ईर्ष्या से प्रेरित होकर हेमचन्द्राचार्य जी से प्रश्न किया - विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशनास्तेऽपि स्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः । आहार सुदृढ पुनर्बलकर ये भुञ्जते मानवा स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद विन्ध्यः प्लवेत् सागरे । अर्थः -- बिश्वामित्र और पराशर ऋषि आदि जल और पत्र भोजी थे फिर भी लावण्यपूर्ण स्त्री के मुख कमल को देखकर मोहित हो गए तो जो मनुष्य सुन्दर पुष्टिकर रसवती का भोजन करके इन्द्रिय निग्रह कर सके...तब तो विन्ध्य पर्वत सागर में तर जाय ।' श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य जी के विराट व्यक्तित्व पर शका कर इर्ष्याग्रस्त होकर आमिग ने उपर्युक्त बात कही' परन्तु अत्यन्त प्रतिभाबन्त हेमचन्द्राचार्य जी ने भी उसकी समस्या का सुन्दर समाधान करते हुए कहा 'सिंहो बली हरिणशूकरमांसभोजी, संम्वत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् । पारापतः खरशिलाकणभोजिनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः ? अर्थ : बलवान् ऐसा सिंह हरिण, सुअर आदि का मांस खाने वाला हैं फिर भी वर्ष में एक ही बार विषय सेवन करता हैं; जब कि कबुतर कंकड़ और धान्य खाता हैं फिर भी नि रतर कामी बना रहता हैं । कहो, इसका कया कारण है ? आचार्यश्री के मुख से युक्ति सम्पन्न जवाब सुनकर सिद्धराज अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसने ईर्ष्यालु आमिग को उपालम्भ दिया । सिद्धराज की राजसभा में सम्बत् ११८१ वैशाख शुक्ला तृर्णिमा के दिन दिगंबराचार्य कुमुदचन्द्र और श्वेतांबर आचार्य वादिदेवसूरि के बीच वाद हुआ था और इस वाद में वादिदेवसूरि की विजय हुई थी...इस वाद में आ० वादिदेवसूरिजी को हेमचन्द्रसूरिजी म. का सबल हस्तावलम्ब था । . सिद्धराज के हृदय में आचार्य श्री के प्रति अद्भुत श्रद्धा और बहुमान का भाव था । सिद्धराज आचार्य श्री के साथ अनेकबार धर्मगोष्ठी करता था... क्रमशः आचार्य श्री और सिद्धराज की यशोगाथा दिग्-दिगन्त तक फैलने लगी । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार किसी ईर्ष्यालु ने सिद्धराज को कहा, 'जैन लोग सूर्य को नहीं मानते हैं ? सिद्धराज के पूछने पर आचार्य श्री ने कहा 'सूर्य को जितना जन लोग मानते हैं, उतना अन्य कोई नहीं मानते हैं । उसके अस्त होने पर (उसके विरह में) जन लोग आहार-पानी का भी त्याग कर देते हैं और उसके उदय पाने के बाद (सूर्योदय से ४८ मिनिट बाद) ही अपने मुंह में पानी डालते हैं।' आचार्य श्री के मुख से इस बात को सुनकर सिद्धराज अत्यन्त ही प्रभावित हो गया । सिद्धराज को कोई सन्तान नहीं थी...इसका उसे अत्यन्त ही दुःख था । पुत्र कामना से उसने सोमनाथ आदि तीर्थों की यात्रा करने का संकल्प किया और इस यात्रा के लिए उसने अपनी यौरियाँ आरम्भ कर दी । सिद्धराज ने श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य जी को भी इस यात्रा में पधारने के लिए आमन्त्रण दिया दीर्घद्रष्टा हेमचन्द्राचार्य जी ने तत्काल उसके आमन्त्रण को स्वीकार कर लियो । शुभ मुहूर्त में यात्रा का मंगल प्रारम्भ हुआ । हेमचन्द्राचार्य जी ने बिहार (पद) यात्रा प्रारम्भ की । आचार्य श्री को पैदल चलते देखकर सिद्धराज ने ऊन्हे पालखी में बैठने के लिए आग्रह किया ! किन्तु करुणा के महासागर हेमचन्द्राचाय" जी ने पालखी में बैठने से इन्कार कर दिया । आचार्य जीने उसे समझाया 'जैन मुनि कभी भी वाहन में नहीं बैठते हैं क्योंकि उससे जीवों की विराधना होती है । जीव-रक्षा के पालन के लिए वे सदैव पैदल ही चलते हैं। ___बह बात सुनकर सिद्धराज को बड़ा आश्चर्य हुआ और दो-चार दिन बाद जब उसने पुनः आचार्य श्री को कांजी और निरस अन्न का भोजन करते हुए देखा...तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही और वह आचार्य श्री के पवित्र सात्त्विक और त्यागमय जीवन से अत्यन्त ही प्रभावित हुआ। क्रमशः विहार करते हुए यह यात्रा संघ सिद्धगिरि की पावन धरती पर पहुंच गया । सिद्धराज ने आचार्य श्री के साथ शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा की और परमात्मा आदिनाथ के दर्शन कर सभी भाव विभोर बन गए । सिद्धराजने उदारतापूर्वक इस पावन तीर्थ पर अपनी लक्ष्मी का सद्व्यय किया। ___ सिद्धगिरि की यात्रा पूर्ण कर यह यात्रा संघ गिरनार तीर्थ पर पहुचा और आचार्य श्री के साथ सिद्धराज ने नेमिनाथ प्रभु के भावार्वक दर्शन किये और वहाँ से प्रयाण कर सोमनाथ आए । कुछ इर्ष्यालु ब्राह्मणों के दिल में शंका थी कि हेमचन्द्राचार्य जी सोमनाथ की यात्रा नहीं करेंगे, परन्तु जब सिद्धराज के साथ हेमचन्द्राचार्य जी को शिवालय में जाते देखा तो उनके आश्चय का पार न रहा। वीतराग की स्तुति करते हुए श्रीमद् हेमचन्द्राचाय जी बोले - 'यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । वातदोषकलुषः स चेद् भवा नेक एष भगवन्नमोऽस्तु ते ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अर्थ : जिस किस समय में.. जो कोई... जिस किसी नाम से हो... भगवन् ! यदि आप दोष और मल रहित हो तो आपको मेरा नमस्कार हो ।' आचार्य श्री के मुख से इस स्तुति को सुनकर सिद्धराज अत्यन्त ही प्रभावित हुआ । सोमनाथ की यात्रा के बाद सिद्धराज ने हेमचन्दाचार्यजी को पूछा, 'मुझे सन्तान होगी या नहीं ? मेरे बाद गुजरात का राजा कौन बनेगा ? आचार्यश्री ने अहम तपकी आराधना कर अंबिका देवी की साधना की । प्रसन्न होकर देवी ने कहा, 'सिद्धराज को कोई सन्तान नहीं होगी और दधिस्थली निवासी त्रिभुवनपाल का पुत्र कुमारपाल भावि में गुजरात का सम्राट् बनेगा ।" यात्रा की समाप्ति के बाद सिद्धराज अपने और भाव में कुमारपाल राजा बनेगा' यह जानकर ही द्वेष भाव उत्पन्न हो गया और कुमारपाल की परन्तु जिसका भाग्य बलवान् होता है, उसका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता है । महल में लौट आया । 'मुझे कोई संतति नहीं होगी सिद्धराज के हृदय में कुमारपाल के प्रति अत्यन्त हत्या के लिए उसने अनेक विध षड्यन्त्र रचे । सिद्धराज ने कुमारपाल की हत्या के लिए कुछ चुनंदे सैनिकों को आदेश दिया, किन्तु कुमारपाल को इस षड्यन्त्र की गन्ध मिल जाने से गुप्त वेष धारण कर अत्यन्त दूर प्रयाण कर दिया ! सिद्धराज ने कुमारपाल को खत्म करने के लिए अनेक जाल रचे, किन्तु कुमारपाल उसके जाल में फँसा नहीं । कुमारपाल का रक्षण : श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी खंभात में बिराजमान थे । एक बार मध्याह्न समये वे स्थंडिल भूमि की ओर जा रहे थे, उसी समय उन्होंने अपनी प्राण रक्षा के लिए भटकते हुए कुमारपाल को देखा । उस समय कुमारपाल की स्थिति अत्यन्त ही दयनीय थी... वे अपने प्राणों की रक्षा के लिए जहाँ तहाँ भटक रहे थे । कुमारपाल ने हेमचन्द्राचार्यजी के चरणों में प्रणाम किया । कुमारपाल अत्यन्त ही थके हुए थे और आश्रय की शोध में थे । हेमचन्द्राचार्यजी ने उसके ललाटपट्ट को देखा और सोचने लगे, 'अहो ! यह तो भावि सम्राट् है और भविष्य में जैन शासन की महान् प्रभावना करने बाला है, अतः अवश्य रक्षण करना चाहिये । गुजरात का अभी इसका हेमचन्द्राचार्यजी ने उसे आश्वासन दिया और उसे अपने साथ उपाश्रय में ले आए। उसी समय उदयनमन्त्री गुरुदेव श्री को वंदन के लिए पधारे थे । उदयन मन्त्री ने कुमारपाल की ओर देखा । कुमारपाल ने कहा, 'भगवंत ! मेरा दुःख कब दूर होगा ? आचार्यश्री ने कहा, ' संवत् १९९९ मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्थी रविवार के दिन पुष्यनक्षत्र में दिन के तीसरे प्रहर में तुम गुजरात के राजा बनोगे ।' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपाल ने नम्र होकर कहा, 'यदि मुझे राज्य मिला तो वह आपको भेट कर निरंतर आपके चरण की सेवा करूंगा।' आचार्यश्री ने कहा, 'हमें राज्य से कोई प्रयोजन नहीं हैं... परन्तु तुझे राज्य मिले तो तुम जिन शासन की प्रभावना करना। 'गुरुदेव ! मैं आपके उपकार को कभी नहीं भूलंगा ।' उदयन मंत्री ने कुमारपाल को अपने गुप्तगृह में छुपाया । कुछ दिनों के बाद सिद्धराज को इस बात का समाचार मिला । भयभीत होकर कुमारपाल आचार्यश्री के पास आए और बोले, 'आप मेरी रक्षा करो ।' आचार्यश्री ने उसे पुस्तको के भंडार में छिपा दिया। सिद्धराज के सैनिक आए और उन्होंने कुमारपाल की चारों ओर शोध की परन्तु कुमारपाल मिले नहीं । सैनिको के चले जाने के बाद गुप्त रूप से कुमारपाल ने वहां से विदाई ले ली । धीरे धीरे समय बीतने लगा और संवत् ११९९ के कार्तिक शुक्ला तृतीया के दिन सिद्धराज ने परलोक की ओर प्रयाण कर दिया । गुजरात के भावि सम्राट् के लिए शोध प्रारम्भ हुई और अन्त में कुमारपाल की पसंदगी की गई। संवत ११९९ के मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्थी के शुभ दिन कुमारपाल महाराजा गुजरात के सम्राट् बने । उस समय उनकी उम्र ५० वर्ष की थी। कुमारपाल का राज्याभिषेक श्री देवी ने किया । स्त्रियों ने आनंद में धवल मंगल गीत गाए । कुमारपाल ने उदयन को मुख्यमंत्री बनाया और अन्य उपकारियों का भी उसने यथा योग्य सम्मान किया कुमारपाल के राज्याभिषेक के समाचार जानने के बाद श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी भी विहार कर पाटण पधारे । उदयनमन्त्री ने उनका भव्य स्वागत किया । आचार्यश्री ने मत्री को पूछा, 'उदयन' क्या राजा ने मुझे याद किया था ? उदयन ने कहा, 'नहीं ! गुरुदेव ।' आचार्यश्री ने सोचा, 'सुख में डूबे हुए व्यक्ति को धर्म याद नहीं आता हैं ।' आचार्यश्री ने कहा, 'उदयन ! आज कुमारपाल को कहना कि आज नई रानी के भवन में न जाय ।' उदयन ने कुमारपाल को बात की, और कुमारपाल ने उदयन की बात मान ली। उस रात्रि में बिजली गिरने से नई रानी का महल धराशायी होने के समाचार जव कुमारपाल को मिले, तब उसने उदयन को पूछा 'महल में नहीं जाने की खबर तुम्हे किसने दी ?' उदयन ने कहा, “ हेमचन्द्राचार्यजी ने । ' 'अहो ! आज गुरुदेव ने मेरी जान बचाई और में गुरुदेव को ही भूल गया हूँ.... धिक्कार है मुझ कृतघ्न को ।' . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपाल को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और दूसरे ही दिन उसने गुरुदेवश्री को राजसभा - में पधारने के लिए आमंत्रण भेजा । शासन प्रभावना के निमित्त को जानकर हेमचन्द्राचार्यजी राजसभा में पधारे । कुमारपाल ने उनका भव्य स्वागत किया और अपने अपराध की क्षमापना मांगकर गुरुदेवश्री को राज सिंहासन पर बैठने के लिए आग्रह करने लगा । गुरुदेव ने कहा : यह आसन हमारे लिए अनुचित हैं । गुरुदेव ! आप ही इस राज्य के स्वामी हो... यह राज्य स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करे ।' आचार्यश्री ने कहा : हमें राज्य से कुछ भी प्रयोजन नहीं है....।' आपके उपकार के ऋण को में कैसे वापस लौटा सकता हुँ ? गुरुदेव ने कहा-'जैन धर्म की उन्नति करो।" कुमारपाल ने हाथ जोड़कर गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य की और गुरुदेव श्री को प्रतिदिन धर्म सुनाने के लिए राजसभा में आने के लिए प्रार्थना की। कुमारपाल की इच्छानुसार आचार्य श्री प्रतिदिन राजसभा में आकर धर्म का उपदेश देने लगे । आचार्यश्री की अमृतवाणी को सुनकर कुमारपाल महाराजा के हृदय में दिन प्रतिदिन धर्म के प्रति श्रद्धा बढने लगी। माँ साध्वीजी ...हेमचन्द्राचार्य जी की माँ साध्वीजी प्रवर्तिनी श्री पाहिनीजी का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिर रहा था ... फिर भी उसकी समाधि अत्यन्त ही अनुमोदनीय थी । हेमचन्द्राचार्य जी अपनी माता को समाधि देने के लिए समाधि दायक जिन वचनों का श्रवण कराया । अन्य श्रावक..श्राविका ने साध्वीजी पाहिनी के निमित्त अनेक विध पुण्यकर्म कहे और उस समय कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जी ने भी अपनी माँ साधी की समाधि के लिए तीन लाख नवीन श्लोक रचना करने का पुण्यकम कहा ।। ___माँ साध्वी के मुख पर प्रसन्नता छा गई और अत्यन्त ही समाधिपूर्वक उसने इस नश्वरदेह का त्याग कर दिया । जीबदया का उपदेश हेमचन्द्राचार्य जी को अमृतमयवाणी और उपदेश को सुनकर कुमारपाल ने जीवन भर के लिए मद्य-मांस-शिकार आदि सातों व्यसनों का त्याग कर दिया । 1 कुमारपाल ने कहा 'भगवंत ! आपका मेरे ऊपर जो उपकार हैं उसके ऋण को दूर करने के लिए .. मुझे आशा दीजिए । हेमचन्द्राचार्य जी ने कहा, राजन् ! यदि तेरे दिल में मेरे प्रति भक्ति हैं तो इन तीनों बातों का Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पालन करो 1. प्राणी मात्र के वध को बन्द कराकर सर्व जीवों को अभयदान दो । 2. प्रजा को अधोगति से बचाने के लिए जुआँ, मद्य, माँस शिकार आदि पर प्रतिबन्ध लगाओ । 3. भगवान् महावीर की आज्ञाओं का पालन कर उनका प्रचार करो ! कुमारपालने हेमचन्द्राचार्यजी की इन सभी आज्ञाओं को शिरोधार्य की और अपने विशाल राज्य में जीवहिंसा निषेध का फरमान निकाला और सभी प्रजाजनों को आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति किसी भी निरपराधी जीव की हिंसा न करे । हेमचन्द्राचार्य श्री की उपदेशवाणी का श्रवण कर अठारह देशों में जीव दया का पालन होने लगा । कुमारपाल की आज्ञा थी कि कोई भी व्यक्ति बातचीत के दौरान भी हिंसक शब्दो का प्रयोग न करें । . आचार्यजी की वाणी में एक जादुई प्रभाव था । निःस्वार्थभाव से युक्त उनकी अमृतसम धर्मदेशना का श्रवण कर प्रजाजन स्वेच्छा से ही हिंसा आदि पापों का त्याग करने लगे और सर्वत्र प्रजाजनों के बीच प्रेम - मैत्री - स्नेह और औदार्य का बातावरण बनने लगा । सैकड़ो वर्षों के बाद भी... आज / वर्तमान में भी गुजरात की प्रजा के जनजीवन में अहिंसा व जीवदया के जो संस्कार दिखाई देते हैं, उन संस्कारों के बीजारोपण में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य भगवंत और कुमारपाल महाराजा का बहुत बडा योगदान रहा है I कुमारपाल महाराजा की आज्ञा से अठारह राज्यों में सभी कत्लखाने बन्द हो गए और हिंसा का व्यवसाय करने वालों को अन्य रोजगार भी दिया गया । एक बार नवरात्रि के दिनों में कुलदेवी के पूजारियो ने आकर कहा, 'राजन् कुलदेवी को प्रतिवर्ष नवरात्रि से भैसों का बलिदान दिया जाता है, अतः कृपया आप इनकी व्यवस्था कीजिए ।' कुमारपाल ने जाकर हेमचन्द्राचार्य जी से बात की । आचार्यश्रीने कहा, देव / देवी कभी कवलाहार नहीं करते हैं तो फिर मांस भक्षण की तो बात ही कहाँ ? निरपराधी जीवों की हत्या करने से पूजारी केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं । कुमारपाल ने भैसों का बलिदान देने से इनकार कर दिया और इसके बदले में कुमारपाल ने - जींदे 700 से देवी के मन्दिर में रखवा दिए और बाहर से द्वार बन्द कर दिया । दूसरे दिन मन्दिर खोला गया...तो वे पशु वैसे ही शांत खडे थे । देवी ने किसी भी शु भक्षण नहीं किया था । गुस्से में आकर कुमारपाल ने उन पूजारियों को हांटा और कुलदेवी की सुगंधी धूप, पुष्प आदि से पूजा की । आसो शुक्ला दशमी के दिन जब कुमारपाल ध्यान में बैठा था तब कंटकेश्वरी देवा प्रकट हुई ओर उसने कहा, मैं कुलदेवी हू... तूने पशुओं का बलिदान बन्द क्यों कर दिया ?' Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपाल ने कहा, सत्य तो दयामय धर्म है । हिंसा से धर्म नहीं किन्तु पाप होता है । क्रुद्ध होकर देवी ने उसके शरीर पर त्रिशुल का प्रहार किया.... जिससे कुमारपाल के शरीर में कोट रोग फैल गया... फिर भी कुमारपाल अपने निश्चय से चलित नहीं हुए । किन्तु उन्हें लोग में धर्म की निंदा का भय लगा | उदयन मन्त्री हेमचन्द्राचार्यजी के पास आया और उसने सब घटना कह दी । हेमचन्द्राचार्य जीने मन्त्रित जल दिया जिसके छंटकाव के साथ ही कुमारपाल पुनः नीरोगी वन गए । साधर्मिक उद्धार की प्रेरणा. एक बार हेमचन्द्राचार्यजी का पाटण में भव्य नगर प्रवेश था । उस समय हेमचन्द्राचार्य जी एक खादी की हल्की चादर (कपडा) पहने हुए थे । कुमारपाल ने जब यह देखा तो उसे बडा खेद हुआ । उसने कहा, 'गुरुदेव ! आप इस शुभ प्रसंग पर हल्की चादर क्यों ओढे हुए हों ? इसमें मेरा और आपका अपमान नजर आता है । आचार्यश्रीने कहा, 'राजन् ! यह चादर तो मुझे अमुक गाँव के श्रावक ने भक्ति पूर्वक बहोराई है । उसकी स्थिति सामान्य हैं... अत: वह कीमति वस्त्र कैसे बहोरा सकेगा ? राजन् ! तेरे शासन में साधर्मिकों की ऐसी स्थिति है, इसका तुझे ख्याल रखना चाहिये ।' कुमारपाल के लिए एक संकेत ही पर्याप्त था । उसी समय कुमारपाल ने साधर्मिकों के उद्धार की प्रतिज्ञा की । और उसने अपने जीवन में साधर्मिकों के उद्धार के लिए बहुत प्रयत्न । हेमचन्द्राचार्य जी के उपदेश को सुनकर कुमारपाल महाराज ने शत्रुंजय और गिरनार महातीर्थ का भव्य छ'री पालित संघ निकाला था और इस संघ के द्वारा मार्ग में आए अनेक जिन मन्दिर आदि का जीर्णोद्धार किया था । एक बार कुमारपाल के दिल में अपने पूर्वभव को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई, उसने अपनी भावना हेमचन्द्राचार्य जी के समक्ष अभिव्यक्त की । हेमचन्द्राचार्यजी ने सरस्वती नदी के किनारे सरस्वती की साधना कर कुमारपाल के पूर्व भव को जाना और कुमारपाल को कहा । "मैं पूर्व भव में जयताक नाम का डाकू था... और परमात्मा की १८ पुष्पों से की गई पूजा के फल स्वरूप ही मैं १८ देश का सम्राट् बना हूँ । यह जानकर कुमारपाल के दिल में परमात्मा के प्रति अद्भुत भक्ति भाव जागृत हुआ और उसने प्रभु से प्रार्थना की— जिनधर्म विनिर्मुक्तो मा भुवं चक्रवपि । स्यां चेटोsपि दरिद्रोऽपि जिनधर्माधिवासितः ॥ हे प्रभु ! आपकी भक्ति के फल स्वरूप आगामीभव में जिन धर्म से युक्त दास व दरिद्र के घर जन्म लेना मंजूर हैं किन्तु जिनधर्म से रहित चक्रबर्ती का पद भी मुझे नहीं चाहिये । हेमचन्द्राचार्य जी के सदुपदेश से कुमारपालने अपने जीवन में श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ और चातुर्मास फाल दरम्यान तो उसने विशेष नियम अंगीकार किए 1. चार मास तक नियमित एकाशना का तप 2, चार मास तक वनस्पति (हरियाली) का त्याग । 3. चार मास तक 5 विगई का त्याग 4. चार मास तक ब्रह्मचर्य का पालन 5. चार मास तक नगर बाहर नहीं जान । देवी चमत्कार कुमारपाल के विविध नियम ग्रहण को सुनकर एक बार तुर्किस्तान के सम्राट् ने कुमारपाल के राज्य उपर आक्रमण करने की तैयारी कर दी । कुमारपाल महाराजा हेमचन्द्राचार्यजी के सांनिध्य में चर्चा कर रहे थे । दूत ने आकर शत्रुराजा के आगमन के समाचार दिए । कुमारपाल के लिए समस्या खड़ी हो गई । एक ओर प्रजा के रक्षण का प्रश्न और दूसरी ओर व्रत रक्षण का प्रश्न । कुमारपाल को दुविधा में देख हेमचन्द्राचार्यजी ने कहा 'राजन् ! चिंता क्यों करते हैं ? जो धर्म के प्रति समर्पित रहता हैं--धर्म उसकी रक्षा करता है। उसी समय हेमचन्द्राचार्य जीने ध्यान लगाया और देवी प्रभाव से यवन सम्राट् का पलंग आकाश मार्ग से उड़कर कुमारपाल के सामने आ गया । थोड़ी ही देर बाद यवन सम्राट् की आँख खुली। अपने आपको शत्रु राजा के समक्ष देखकर घबरा गया । अंत में कुमारपालने उसे अपने देश में जीव दया से पालन की शर्त पर मुक्त कर दिया । अभ्यास स्तुति सुनकर कुमारपाल प्रसन्न होकर कुमारपाल द्वारा व्याकरण का एक बार किसी कवि ने आकर कुमारपाल की स्तुति की बोले 'राजा को मेघ की उपम्या अच्छी दी है। राजा के इस वाक्य को सुनकर कपर्दी मन्त्री ने शर्म के अपना मुंह नीचा कर दीया । कुमारपाल ने इसका कारण पूछा। मन्त्री ने कहा, 'व्याकरण नहीं पढ़ने के कारण शब्दों के अशुद्ध प्रयोग से देशांतर में अपकीर्ति होगी इस शर्म से मैंने सिर नीचा कर दिया । इस घटना के बाद कुमारपाल ने संस्कृत व्याकरण सीखने का दृढ संकल्प किया और आचार्य श्री के शुभाशिष को प्राप्त कर उसने एक ही वर्ष में 'सिद्धहेम व्याकरण' का अभ्यास कर लिया....और उसके बाद तो उन्होंने संस्कृत भाषा में परमात्मा की भाववाही स्तुतियाँ भी रची । हेमचन्द्राचार्य जी की उपदेश वाणी से कुमारपाल ने अपने जीवन में Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 1400 तारंगा आदि स्थलमें नवीन जिनमंदिरों का निर्माण कराया । 2. अठारह देश मै जीव दया का पालन कराया । 3. 16000 जिनमंदिरों का उद्धार कराया । 4. प्रतिवर्ष । करोड रु. साधर्मिक की भक्ति में खर्च किया । 5. 21 ज्ञान भण्डार बनवाएँ । 6, अपुत्रियों के धन का त्याग किया। 7. संपूर्ण राज्य में से सात व्यसनों को देश निकाला दिया । साहित्य रचना : कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी ने स्व-पर कल्याण के लिय अपने जीवनकाल में साडे तीन करोड श्लोक प्रमाण साहित्य की रचना की है । दुर्भाग्य से अजयपाल आदि दुष्ट शासकों ने उस अमूल्य महानिधि को अत्यधिक क्षति पहुँचाई...जिसके फल स्वरूप हम आचार्यश्री की पूर्ण साहित्य संपदा को प्राप्त न कर सके...किर भी जो कुछ उनका साहित्य विद्यमान हैं...वह साहित्य जगत में एक गौरवपूर्ण स्थान लिये हुए है । प्रचलित/परिचित साहित्य का अल्य परिचय यहाँ दिया जा रहा हैं1. 'सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन'-मूल संस्कृत सूत्र 3566, प्राकृत सूत्र 1119, रचनाकाल संवत 1193. 2. सिद्धहेमचन्द्र लघुवृत्ति-6000 श्लोक प्रमाण. 3. सिद्ध हेमचन्द्र बृहदवृत्ति (तत्वप्रकाशिका) 18000 श्लोक प्रमाण. 4. सिद्ध हेमचन्द्र गृहन्म्यास-84000 श्लोक प्रमाण (जो आंशिक रूप से उपलब्ध है ।) .5. लिंगानुशासन-शब्दों के लिंग संबंधी विस्तृत जानकारी का संग्रह-ग्रन्थ. 6. लिंगानुशासन-वृत्ति-लिंगानुशासन के मूल 138 श्लोकों पर 3684 श्लोक प्रमाण विस्तृतटीका 7. उणादिगण पाठवृत्ति-उणादि सूत्रों पर 3250 श्लोक प्रमाण टीका । 8. धातुपारायण-धातु पाठ पर विस्तृत टीका-5600 श्लोक प्रमाण. 9. प्राकृत व्याकरण टीका शौरसेनी, मागधी, पिशाची, चुलिका पिशाची तथा अपभ्रंश आदि छह । भाषाओं के सूत्रों पर टीका. 10. अभिधान चिंतामणी कोशवृत्ति-अभिधान चिंतामणी एक विस्तृत शब्द कोष है। उसके 1441 श्लोकों पर 10000 श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका है । 11. अनेकार्थसंग्रह-1829 श्लोक प्रमाण 12. निघंटु शेष-396 श्लोक प्रमाण है। 13. देशी नाममाला-यह 3500 श्लोक प्रमाण है । 14. काव्यानुशासन-अलंकार और विवेक वृत्तिव्युक्त. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ 15. द्वयाश्रय महाकाव्य-संस्कृत व्याकरण के सूत्रों के प्रयोग के साथ साथ इसमें चौलुक्यवंश का विस्तृत वर्णन है । प्राकृतद्वयाश्रय में प्राकृत सूत्रों के प्रयोग के साथ कुमारपाल के चरित्र का सुंदर वर्णन है । 16. छंदोनुशासन - 764 श्लोक प्रमाण इस ग्रंथ में छंद संबंधी विस्तृत जानकारी है । 17. त्रिषष्ठी शलाका पुरुष चरित्र - इस ग्रंथ में चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रति वासुदेव के चरित्रों का विस्तृत वर्णन है । यह ग्रोथ 36000 श्लोक प्रमाण 1 18. परिशिष्ट पर्व : इसमें भगवान महावीर से लेकर वज्रस्वामी तक के जैन इतिहास का भव्य वर्णन है । यह ग्रथ. 3500 श्लोक प्रमाण है । 19. अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका - 32 श्लोक प्रमाण इस ग्रोथ में आचार्यश्री ने जैन दर्शन की मान्यताओं का सुंदर संकलन किया हैं । इस ग्रंथ पर नागेन्दुगच्छीय आचार्यश्री मल्लिषेण सूरिजी म. ने 3000 श्लोक प्रमाण स्याद्वादमंजरी नामक टीका रची है । 20. अयोग व्यच्छेदद्वात्रिंशिका - 32 श्लोक प्रमाण इसमें महावीरदेव की स्तुति है । 21. प्रमाण मीमांसा - जो अपूर्णमात्रा में उपलब्ध है । 22. वीतराग स्तोत्र - 189 श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ में वीतराग के बास्तविक स्वरूप का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है । 23. योग शास्त्र - इस ग्रन्थ में योग के स्वरूप का वहुत ही मार्मिक शैली से वर्णन किया गया है । 12 प्रकाश में विभक्त इस ग्रन्थ पर आचार्यश्री ने 12570 श्लोक प्रमाण अत्यन्तही विस्तृत टीका की रचना की है। इस का अपरनाम अध्यात्मोपनिषत् है । 24. महादेव स्तोत्र - 44 श्लोकप्रमाण इस ग्रन्थ में 'महादेव' के स्वरूप का वर्णन है । इसके सिवाय आचार्यश्रीने सप्तसंधान महाकाव्य, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, अर्हन्नीति आदि अनेक ग्रन्थो की भी रचना की है । सिद्धहेम व्याकरण की उपयोगिता :-अपने मानसिक विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए हमें किसी न किसी 'भाषा' Language का अवलंबन लेना पडता हैं और उस भाषा के सही प्रयोग के लिए उस 'भाषा' के व्याकरण को जानना अत्यन्त ही अनिवार्य है । संस्कृत यह देव वाणी ( भाषा) है । अधिकांशतः अन्य भाषाओं की उत्पत्ति का आधार संस्कृत भाषा ही है । संस्कृत विद्वभोग्य भाषा है । पूर्वकालिक महापुरुषों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए इस भाषा का भी ठीक टीक अवलंबन लिया है । आस्तिक दर्शनकारों के अधिकांश ग्रन्थ इसी भाषा मैं उपलब्ध है । उन महापुरुषों की अमूल्य निधि के बोध के लिए भाषा का ज्ञान अत्यन्त अनिवार्य है । शास्त्र को यदि निधि की उपमा दी जाय तो व्याकरण को चाबी की उपमा देना ही योग्य होगा ! Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी ने ठीक ही कहा हैं 'व्याकरणात् पदसिद्धिः ___पदसिद्धेरर्थ निर्णयो भवति । अर्थात् तत्त्वज्ञानम् , तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः ।। अर्थ:- 'व्याकरण से पद की सिद्धि होती है । पदसिद्धि से अर्थ का निर्णय होता है । अर्थनिर्णय से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती हैं और तत्त्वज्ञान से परमश्रेय (मोक्ष) की प्राप्ति होती है ।' इस प्रकार इस व्याकरण के बोध का अनंतर फल पद सिद्धि और परंपर फल मोक्ष की प्राप्ति है। संस्कृत साहित्य के बोध के लिए संस्कृत व्याकरण का बोध अनिवार्य है । संस्कृत व्याकरण भी अधिक संख्या में उपलब्ध हैं, परन्तु हमें जो विशेषताएँ सिद्धहैमव्याकरण में देखने को मिलती हैं, वह शायद ही अन्यत्र मिल सकेगी। इस व्याकरण की शुद्धता, सरलता और सांगोपांगता को देखकर ही तत्कालिक विद्वान् ने गाया होगा भ्रातः ! संवृणु पाणिनि प्रलपितं कातंत्रकन्था वृथा, मा कार्षी: कटुशाकटायन वच: क्षुद्रणचान्द्रेण किम् ? किं कण्ठाभरणादिभिर्बठरयस्यात्मानमन्यरपि, श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुरा श्रीसिद्धहेमोक्तयः ।।९।। (प्रबंध चिंतामणी) अर्थ : अरे भाई ! यदि श्री सिद्धहेम व्याकरण के अर्थ मधुर बचन सुनाई दे रहे है...तो फिर पाणिनि के प्रलाप को रोक दे, कातंत्र की कथा को व्यर्थ मान, शाकटायन के कटुवचन का उच्चार मत कर, अल्प प्रमाणवाले चान्द्र व्याकरण से भी क्या मतलब है ? और कन्ठाभरण भादि अन्य व्याकरणों से भी अपने आपको जड क्यों बनाते हो ? सिद्ध हेम व्याकरण की अपनी मौलिक विशेषताएँ हैं 1. सूत्र रचना अत्यन्त ही सरल है । 2. भिन्न भिन्न विषयों के अनुसार भिन्न प्रकरण किए गए है, जिससे तत्सम्बन्धी विषय को जानकारी उसी प्रकरण से हो जाती है। 3. सूत्रों को संक्षिप्त करने के लिए अनेक संज्ञाएँ की गई है। उन संज्ञाओं को समझ लेने के बाद आगामी विषय को समझने में देरी नहीं लगती है। 4. पाणिनि व्याकरण की संज्ञाएँ दुर्गम और क्लिष्ट हैं, जब कि सिद्ध हेम की संज्ञाए अत्यन्त सरल और सुवाच्य है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ 5. श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी ने व्याकरण के पांचों अंगों की रचना स्वयं ही की है । सूत्रपाठ, उणादिगणसूत्र लिंगानुशासन, हेमधातुपारायण और गणपाठ की रचना करके हेमचन्द्राचार्यजी ने व्याकरण को परिपूर्ण बना दिया है । 6. व्याकरण के समस्त सूत्रों के Practical प्रयोग रूप ' द्वयाश्रय महाकाव्य' की भी रचना करके हेमचन्द्राचार्यजी ने एक भगीरथ कार्य किया है । 'सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासनम्' पर विरचित अन्य टीका ग्रन्थ : कर्त्ता श्लोकप्रमाण आ. रामचन्द्रसूरि 53000 आ. धर्मघोषसू 9000 ग्रन्थ 1 लघुन्यास 2. लघुन्यास 13. कतिचिद् दुर्गपदव्याख्या 4. न्यासोद्धार 5. लघुवृत्ति 6. हैमबृहद्वृत्तिद्वष्टिका 7. हैम व्याकरण द्वष्टिका 8. हैम ( प्राकृत) व्याकरण द्वन्दिका 9. हैम लघुवृत्ति द्वष्टिका 10. हैम अवचूरि 11. हैमचतुष्कपदवृत्ति 12. हैमव्याकरण दीपिका 13. हैमव्याकरणबृहद् अवचूर्णि 14. हैम व्याकरण अवचूरि 15. " 16. प्राकृतदीपिका 17. प्राकृत अवचूरि 18. हैमदुर्गपदप्रबोध 19. हैमकारकसमुच्चय 20. हैमवृत्तिः 21. आख्यातवृत्तिः आ. देवेन्द्र सूर आ. कनकप्रभसूरि श्री काकलकायस्थ श्री सौभाग्य सागर श्री विनयचन्द्र श्री उदयसौभाग्यगणि श्री मुनिशेखर श्री धनचन्द्र श्री उदयसागर श्री जिनसागर श्री अमरचन्द्रसूरि अज्ञातकर्तृक श्री रत्नशेखरसूरि श्री हरिभद्रसूरि श्री हरिप्रभसूरि श्री वल्लभ पाठक श्री प्रभसूर " आ. नंदसूर लघुतामूर्ति : कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यदेव श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी म. प्रकांड विद्वान् होने पर भी लघुता नम्रता की साक्षात् मूर्ति थे । अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका में वे कहते हैं क्त्र सिद्धसेनस्तुतयो महार्था, अशिक्षितालापकला व चैषा । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5७ अर्थ :- अशिक्षित के आलाप तुल्य कहाँ मेरी स्तुतियाँ और कहाँ आचार्य सिद्धसेन की अर्थ गंभीर स्तुतियाँ ? एक बार कुमारपाल के साथ हेमचन्द्राचार्यजी शत्रुजय तीर्थ पर दादा के दर्शन के लिए गए और प्रभु के दर्शन के साथ ही उन्होंने महाकवि धनपाल विरचित 'ऋषभ पंचाशिका' द्वारा प्रभु की स्तुति की । बाद में कुमारपाल ने पूछा,' प्रभु ! आप तो स्वयं कवि हो फिर अपनी स्तुतियाँ क्यों नहीं बोले १ नम्रतामूर्ति आचार्यश्री ने कहा. महाकवि धनपाल की ये स्तुतियाँ सद्भक्तिगर्भित है । ऐसी स्तुतियों की रचना की ताकत मुझ में कहाँ है ? स्वर्गगमन .. श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी एक महान् योगीपुरुष थे, साहित्यकार थे ... साक्षात् सरस्वती पुत्र थे... महाकवि थे... जिनशासन के बेजोड प्रभावक थे.... और सचमुच ही वे 'कलिकाल सर्वज्ञ' थे। आचार्यश्री के विद्यमान ग्रन्थों का अवलोकन कर पाश्चात्य विद्वान् आचार्यश्री को Ocecn of Knowledge 'ज्ञान के महासागर' कहते है । सिद्धराज और कुमारपाल जैसे नृपतियों को प्रतिबोध कर.... लाखों नर-नारियों को जिनशासन का रसिक बनाकर.. 84 वर्ष के दीर्घायुष्य को पूर्णकर सिद्धस्वरूप के ध्यान में मग्न बनकर आचार्यश्री ने संवत् 1229 में अपने देह का त्याग कर दिया । ___ आचार्यश्री के स्वर्गगमन से कुमारपाल और प्रजाजनों को अत्यन्त ही आघात लगा । कुमारपाल के लिए तो यह विरहवेदना असह्य थी । आचार्यश्री के स्वर्गगमन के छह मास वाद कुमारपाल ने भी समाधिपूर्वक अपना देह छोड दिया । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र प्रथमोऽध्यायः चभत्कारकारि पृष्ठ पंक्ति १ २० १ २१ प्रद्धि ता अशुद्ध चमत्कारि प्रशद्धि निषधः निषधात् विशेष ७३ १३ निषेधः निषेधातू विशेष २ १३, १६ स मी घुटि तरति भवति विलापः वुट् र्भवति विलोप धुट् उदरे अशुद्धि शुद्धि पेज पंक्ति सन्धिप्रतिषधो सन्धिप्रतिषेधो ६७ १७ प्रतिषध प्रतिषेध ७१ ३ तत् [५-१-३५] [५-१-३२] ७३ १८ क) (प्फलति - क)(प्फलति ७४ १५, १६ सप्तमी ८२ २० इति । इति डे तति ८७ १० स्याद्याक्षिस्य स्याद्याक्षिप्तस्य ९३ ६ मादायते मादीयते । ९३ ३२ विशेषण विशेषेण लु या लुप्ताया ९६ २२ वेदपान वेदपाठेन ११०, ७ हू-पू-गो हू-पू-गोन्नी ११० ७ धेःनू अन्याद्यभाष्टौ अन्याद्यभीष्टौ १२० ३ शब्दस्यानेनं शब्दस्यानेन १२१ १९ भाव्या भाव्यम् १२२ १५ प्राप्नाति प्राप्नोति १२३ २० क्वस्व. क्वस्स० १२६ १ स्वरस्व स्वरस्य १२७ २७ व्याख्येय व्याख्येयम् १२८ ८ व्यञ्जनान्ताट व्यञ्जनान्ताद् १२८ १३ कर्तृ १३२ १९, २१ कान १० १७ १७ २१ १७ २५ १७ २८ २४ २२ . काल स्यो स्यौ धेनूः ३८ ११ समासादेभ सफल प्राप्ताति व्या त्या निबधः आष्ठो श्रादिभ्य अविवक्षिर्थ आ आर्यभ्य ७-२-१६ तस्मा स्या । ग्रहणाद ऽवयवाक्यवि "पुसः" समासादेर्भ सकल प्राप्नोति ब्यावृत्त्या निषेधः ओष्ठो श्वादिभ्यः अविवक्षितार्थ आ आर्येभ्य ७-२-१२६ तस्मात् स्यात् ग्रहणाद् ऽवयवासयवि "पुंसः" ५० २५ २४ ५२ ११ ५३ २७ ५३ २५ कत द्वितीयोऽध्यायः ५९ २७ यम् ङ्योसि यम ड्योसि पुरुष निषधे १३७ १९ १४१ १२ १४२ २६. पुरुषे नेवम् नैवम् निषेधे Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धि पेज पंक्ति लक्षण विधाना स्वा वा कार्यम् पितः पर्युदासत्वा शुद्धि लक्षणं ३०० २५ विधानात् ३०३ २३ स्वाद् ३०४ तत् ३०४ वात् ३०४ १५ पितु: ३१० २० पर्युदासत्वाद् ३२६ १ गाः ३२९ २३ षुणोति __३३० १२ व्यञ्जनाद् हण्यते ३५१ १९, २१, मन * * * .. :: . . . . . . . ॐ षणोति व्यञ्जना हण्यते ष्टिव ष्ठित - योगात् चली चला ऋषि अशुद्धि शुद्धि पेज पंक्ति म्जञ्जनादौ व्यअनादौ १६३ ३ विज्ञादिह विज्ञानादिह घोत धातो १६९ २१ तद् तत् १७८ स्या स्यात् १७९ ३० कार्या १८१ २ स्याता स्याताम् १८१ २९ अथाऽवुडित्यत्र अथाऽधुडित्यत्र २०४ सत् २१३ दृशिग्रहणा दृशिंग्रहणाद . २१७ १ राभरण राभरणैः २२८ २ प्रप्तायां ... प्राप्तायां २३२ ..२ सत्यमेत . सत्यमेतत् २४७ १० योगा २४७ १२ कालककालकम् , .१४ निषधात् निषेधात् २४८ ३ चारादिमतः चक्षुरादिमतः २५२ १७ सत्तव्या सर्तव्याः २६३ २१ धातुमेदा धातुभेदात् २७८ २८ स्या स्यात् २९९ १ स मी सप्तमी २८२ २१ अधिकर अधिकरणे २८३ ७ स मी सप्तमी २८७ ७, १३ विवक्षयां विवक्षायां २९० १६ भक्त्वा भुक्त्वा २९९ २१ प्रधाना प्रधानाद् २९४ ४ २९४ मित्याह २९५ ६ सपन्नादि संपन्नादि २९७ ११ चरणे चरणैः २९७ प्रतिषध प्रतिषेधः २९८ न्यस्मित न्यस्मिन् २९८ मति धा प्रतिषेधा भिधान मिधानं ३५४ २७ ३५४ २८ प्राप्नाति खर मृद्वा प्राप्नोति खुर मृद्वी वर्णः गौरादि स्वो ३६६ १६ ३७६ २३ ३९० २ ४०६ १२ वण: गौरादि स्वा . * * * मत्यह तृतीयोऽध्यायः धात्पसर्गयो धातूपसर्गयोः ४२० ५ प्रतायत प्रतीयत , २३ धातुपा . धातुपाडे ४२१ ५. तिष्टत्यादयोश्चरबारी तिष्टत्यादयश्वरवारो ,, धातोः , २० केशावी केवाशी ४२३ १० मूलविभूजादय: मूलविभूजादित्वात , १६ केवलमालीयते केवमालीयते , २६ ५-३-११० ५-३-५६ ४२९ २४ 'विशेणणसर्वावि' "विशेषणसर्वादि ४३४ २४ ३-१-१५० धातो ३०० २३ २ . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धि -शुद्धि पेज पंक्ति अशुद्धि शुद्ध पेज पंक्ति प्रादिपूर्व प्रादिपूर्वे ४३८ २४ २-२-१०६, २-२-११६ न्याया : न्यायात् ४४१ ७. १-४-५९ - ३-२- ६ ५०३ २८ प्रथमोक्तं प्रथमोक्तम् ४४४ ३ । तुलवले तुल्वलादयः ५०४ समुदायस्यवायं समुदायस्यैवायं ४५६ २३ ... ३-२-६ ४-२-११४ निषध निषेध २-२-६१ ४-४-४० ५५० २५ ... प्रतिषध प्रतिषेध . ४५८ २५. शोलमस्य शीलस्य ५५२ ३ ५-३-९२ . ६-२-२६ ५६६ १४ अपपार्धम् अपार्धम् .. ४६१ ६ ..... ७-१-१५५ ७-१-४५ ५६६ २७ 'क्रुतसंपदादिभ्यः' 'क्रुतसंपदादयः' ४६२ ४..... पञ्चमिर्गाभिः -- पञ्चभिर्गार्गीभिः ५६८ २८ ..... 'ट्रेर'अ. सख्यासमाहारे . संख्यासमाहारे..., १९ . .... ५७० १३ ६-१-१२३ - ६-१-११३ । ३-१-९९. , ३-१-२८ प्रज्ञादिभ्योऽण् ‘प्रज्ञाद्यण -- ५८६ २१, सुगमौवेत्ति सुगमैवेति ४६८ २२ दीर्घप्रतिधात् दीर्घप्रतिषेधात् ५८८ १० श्वभिर्लहनीय श्वभिलेहनीय , २५ . पद्भावोमावाल- यद्भावोभावा३-४-११५ -१-११ क्षणम् लक्षणम् ४८२ २५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण अपनी विशिष्ट देशना-लब्धि के द्वारा जनमानस में जमे हुए मिथ्यात्वरूपी पिशाच को दूर, भगानेवाले अपने बाह्य और अभ्यंतर विराट्-व्यक्तित्व के द्वारा जनमन के घट-घट में जिनशासन के प्रति अद्भुतराग प्रगटानेवाले, हजारो के तारणहार...व्याख्यान वाचस्पति जिनशासन प्रभावक, गच्छाधिपति . आचार्य देव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज! आपके कर कमलों में यह ग्रंथ समर्पित करते हुए हमें अत्यंत ही आनंदानुभव हो रहा हैं. क्योंकि आप की कृपादृष्टि से यह कठिन कार्य भी सुगम हो पाया हैं । आपकी कृपा का यह फल आपको ही हम समर्पित करते हैं । मुनि वज्रसेन विजय मुनि रत्नसेन विजय Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका प्रकाशक की कलम से... . किञ्चिद् वक्तव्यम् ग्रन्थकार का संक्षिप्त परिचय प्रथमोऽध्यायः प्रथमपादः द्वितीयपादः तृतीयपादः चतुर्थ पादः द्वितीयोऽध्यायः प्रथमपादः द्वितीयपादः तृतीयपादः चतुर्थपादः wM तृतीयोऽध्यायः प्रथमपादः द्वितीयपादः ४१८ ५४४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहं॥ ॥ अनन्तलब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने नमः ॥ ॥ श्रीमद् दान-प्रेम-रामचन्द्र-भद्रङ्करसद्गुरुभ्यो नमः ॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीतं ॥ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् ॥ ( स्वोपजतत्त्वप्रकाशिकाभिधबृहद्वत्ति-मनीषिकनकप्रभविरचित न्याससारसमुद्धार (लघुन्यास) संवलितम् ) [ तत्र प्रथमोऽध्यायः ] अथ स्वोपज्ञतत्त्वप्रकाशिकाभिधा बृहद्वृत्तिः-- प्रणम्य परमात्मानं श्रेयःशब्दानुशासनम् । प्राचार्यहेमचन्द्रेण स्मृत्वा किञ्चित् प्रकाश्यते ॥1॥10 अर्ह ॥ १. १. १ ॥ अहंइत्येतदक्षरम्,परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकम्,सिद्धचक्रस्यादिबीजम्, सकलागमोपनिषद्भूतम्, अशेषविघ्नविघातनिघ्नम्, अखिलदृष्टादृष्टफलसंकल्पकल्पद्रुमोपमम्, प्राशास्त्राध्ययनाध्यापनावधि प्रणिधेयम् । प्रणिधानं चानेनाऽऽत्मनः सर्वतः संभेदस्तदभिधेयेन चाभेदः । वयमपि चैतच्छास्त्रारम्भे प्ररिण-15 दध्महे । अयमेव हि तात्त्विको नमस्कार इति ॥ १॥ अथ न्याससारसमुद्धारः - प्रणम्य केवलालोकावलोकितजगत्त्रयम्। जिनेशं श्रीसिद्धहेमचन्द्र शम्दानुशासने ॥१॥ शब्दविद्याविदां वन्धोदयचन्द्रोपदेशतः । न्यासतः कतिचिद्दुर्गपदव्याख्याऽभिधीयते ॥२॥ प्रणम्येत्यादि-इह निःशेषशेमुषीसमुन्मेषनिमितानेकविद्वज्जनमनश्चमत्कारिशास्त्र-20 निकरविस्मापितविशदप्रद्धिमहद्धिकानेकसूरिः निष्प्रतिमप्रतिभासंभारापहस्तितत्रिदशसूरिः श्रीकुमारपालक्ष्मापालप्रतिबोधविधाननिखिलक्षोणिमण्डलाभयप्रदानप्रभृतिसंख्यातिक्रान्तप्रभावनानिर्माणस्मृतिगोचरसंचरिष्णुकृतचिरन्तनवरस्वाम्यादिप्रवरसूरिः सुगृहीतनामधेयः Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] बृहवृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १.] श्रीहेमचन्द्रसूरिनिबिडजडिमग्रस्तं समस्तमपि विश्वमवलोक्य तदनुकम्पापरीतचेता: शब्दानुशासनं कर्तु कामः प्रथमं मङ्गलार्थमभिधेयादिप्रतिपादनार्थं चेष्टदेवतानमस्कारमाह-प्रणम्येति ननु प्रयोगोऽयं भावे कर्मणि वा ? उच्यते-भावे एव । तहि कथं परमात्मानमिति कर्म ? उच्यतेसकर्मकारणामुत्पन्नस्त्यादिर्भावविवक्षया । अपाकरोति कर्मार्थ स्वभावान्न पुनः कृतः ॥ ३ ।। 5 नत्वेत्यनेनापि सिध्यति किं प्रकारेण? प्रकारो मानसिक द्योतयति उपहासनमस्कारं च निराकरोति नमस्यं तत् सखि ! प्रेम घण्टारसितसोदरम् ।। क्रमक्रशिमनिःसारमारम्भगुरुडम्बरम् ॥४॥ इत्यादिवत् । परमेति-परमात्मानमित्यत्र “कर्मणि कृतः" [ २. २. ८३. ] इति षष्ठी प्राप्नोति,10 परं "तृन्नुदन्ता०' [ २. २. ६०. ] इति निषधः । श्रेय इति "प्रशस्यस्य श्रः" [७. ४. ३४] इति श्रादेशविधानबलात् क्रियाशब्दत्वेनागुणाङ्गादपि प्रशस्यशब्दादीयस् । “नैकस्वरस्य" [७. ४. ४४. ] इति निषेधात् “श्यन्त्यस्वरादे०" [७. ४. ४३. ] नान्त्यस्वरादिलोपः । "अवर्णवर्णस्य" [७.४.६८.] इत्यपि न प्रवर्तते । "व्यन्त्यस्वरादेरनेकस्वरस्य" [७. ४. ४३. ] इत्येकयोगेनैव सिद्ध पृथग्योगकरणमस्यापि बाधनार्थमिति । शब्दानु-15 शासनमिति अत्र कथं षष्ठीसमासः "तृतीयायाम्" [ ३. १. ४. ] इति निषधात् ? सत्यम्प्रत्यासत्ति-न्यायेन यस्य कृत्प्रत्ययस्यापेक्षया षष्ठी यदि तदपेक्षयैव तृतीया स्यात्, अत्र तु प्रकाश्यत इत्यस्यापेक्षया तृतीया, अनुशासनइत्यपेक्षया च षष्ठीति न समासनिषधः । प्राचार्येति-पाचर्यते सेव्यते विनयार्थमिति घ्यण् १; आचारे साधुः “तत्र साधौ" [ ७. १. १५. ] इति य: २; आचारान् यातीति, “क्वचित्" [ ५. १. १७१. ] इति20 ड: ३; पाचारानाचष्टे "णिज् बहुलम् ." [ ३. ५. ४२. ] इत्यनेन णिज्; आचारयतीति "शिक्यास्याड्य." [उणा० ३६४.] इत्यनेन निपात्यते ४; आचारान् गृह्णाति ग्राहयति वा "कर्मणोऽण्" [५. १. ७२.] पृषोदरादित्वात् साधुः ५। किमपि चिनोति क्विप्, किमः सर्वविभक्त्यन्तान् “चित्-चनौ” इति किञ्चिदिति अखण्डमव्ययं वा। मौलोऽर्थः प्रतीत एव । 25 अथ पूर्वार्धमावृत्त्या व्याख्यायते-परम् प्रात्मानं च प्रणम्य प्रह्वीकृत्य सावधानीकृत्येति योगः। किविशिष्टं परम् ? श्रेयःशब्दाननुशासयति श्रेयःशब्दानुशासनस्तम्, किंविशिष्टं चात्मानम् ? श्रेयःशब्दाननुशास्ति श्रेयःशब्दानुशासनस्तम् उभयत्र "रम्यादिभ्यः." [ ५. ३. १२६. ] इत्यनट् । पूर्वं तावद् बौद्धोक्ता अतिशयाः कथ्यन्ते । परमात्मानमित्यनेन स्वार्थसंपत्तिः,स्वार्थसंपत्त्यपायलक्षणश्च द्वौ, श्रेयःशब्दानुशासनमित्यनेन 30 परार्थसंपत्तिः, परार्थसंपत्त्युपायलक्षणश्च द्वौ लभ्यते । एवं सर्वदर्शनानुयायित्वेनातिशया भावनीयाः । अत्र च नमस्कारे चतुस्त्रिशदतिशयसंग्राहकातिशयचतुष्टयमध्ये क: केन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः पदेनोच्यते सूच्यते वा इत्यभिधीयते-परमात्मानमित्यनेन पूजातिशयः, अत एव "सन्महत्परम." [३. १. १०७.] इत्यनेन पूजायां समासः । द्वितीयपादेन वचनातिशयः, श्रेयांश्च ३ एकशेषे श्रेयांसः, ते च ते शब्दाश्च ताननुशास्तीति व्युत्पत्तेवंचनातिशयः। वचनातिशयश्च न ज्ञानातिशयं विनेति वचनातिशयेन ज्ञानातिशय आक्षिप्यते। ज्ञानातिशयश्च नापायापगमातिशयं विनेति तेनापायापगमातिशयाऽऽक्षेपः-अपायभूता हि रागादयस्तेषामपगमः स 5 एवातिशय इति। अहमिति-अर्हति पूजामित्यहम् "अ" [ उणा० २. ] इत्यः । पृषोदरादित्वात् सानुनासिकत्वम् । अहमिति मान्तोऽप्यस्ति निपातः। ननु अहमिति अव्ययं स्वरादौ चादौ च न दृष्टम्, तत् कथमव्ययं ? सत्यम्--- इयन्त इति संख्यानं निपातानां न विद्यते । प्रयोजनवशादेते निपात्यन्ते पदे पदे ॥५॥ 10 ननु अहमिति वर्णसमुदायत्वात् कथमक्षरम् ? सत्यम्-न क्षरति न चलति स्वस्मात् स्वरूपादिति अक्षरम्, तत्त्वं ध्येयं परमब्रह्मति यावत् । व्याख्यानं त्रिधा स्यात्-स्वरूपाख्यानम् , अभिधा, तात्पर्यं चेति । अक्षरमिति स्वरूपाख्यानम् । परमेष्ठिनो वाचकमित्यभिधा । सिद्धचक्रस्यादिबीजमिति तात्पर्यव्याख्यानमिति । परमेष्ठिनः पञ्च ततः शेषचतुष्टयव्यवच्छेदायाऽऽह-परमेश्वरस्येति । चतुस्त्रिशदतिशयरूपपरमैश्वर्यभाजो जिनस्येत्यर्थः । ननु यद्यपि15 परमेष्ठीति सामान्यं पदं तथापि अहमिति भणनादर्हन्नेव लभ्यते, किं परमेश्वरस्येतिपदेन ? सत्यम् देवतानां गुरूणां च नाम नोपपदं विना । उच्चरेन्नब जायायाः कथञ्चिन्नात्मनस्तथा ॥६॥ इति । सिद्धति-सिद्धा विद्यासिद्धादयस्तेषां चक्रमिव चक्र तस्य पञ्चबीजानि तेषु चेद-20 मादिबीजम् । सकलेति-सकलाः समस्ता ये आगमा लौकिका लोकोत्तराश्च तेषामुपनिषद्भूतं रहस्यभूतम् । ननु अहमित्यस्याहद्वाचकत्वे सति कथं लौकिकागमानामुपनिषद्भूतमिदमिति ? सत्यम्-सर्वपार्षदत्वाच्छब्दानुशासनस्य समग्रदर्शनानुयायी नमस्कारो वाच्यः, अयं चाहमपि तथा । तथाहिप्रकारेणोच्यते विष्णू रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तस्तदन्ते परमं पदम् ॥७॥25 ___ इति श्लोकेनाहंशब्दस्य विष्णुप्रभृतिदेवतात्रयाभिधायित्वेन लौकिकागमेष्वपि अर्हमिति पदमुपनिषद्भूतमित्यावेदितं भवति । तदन्त इति तुरीयपादस्यायमर्थः-तस्याहंशब्दस्यान्त उपरितने भागे परमं पदं सिद्धिशिलारूपं तदाकारत्वादनुनासिकरूपा कलाऽपि परमं पदमित्युक्तम् । निघ्नमिति-नियमेन हन्यते ज्ञायते पारतन्त्र्येणेति "स्थादिभ्यः कः" [५. ३. ८२.] बाहुलकानपुंसकत्वम् । दृष्टेति-दृष्टं राज्यादि, अदृष्टं स्वर्गादि ।30 प्राशास्त्रेति-पाङ अभिविधौ, स च शास्त्रेण सह संबध्यते, अवधिशब्दस्तु मर्यादायाम्, स चाध्ययनाध्यापनाभ्याम् ; ततोऽयमर्थ:-शास्त्रमभिव्याप्य ये अध्ययनाध्यापने ते मर्यादीकृत्य Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघु न्याससंवलिते [पा० १. सू० २. ] प्रणिषेयमिदमित्यर्थः । प्रणिधानं चतुर्धा - पदस्थम्, पिण्डस्थम्, रूपस्थम्, रूपातीतं चेति । पदस्थमपदस्थस्य, पिण्डस्थं शरीरस्थस्य, रूपस्थं प्रतिमारूपस्य, रूपातीतं योगिगम्यमर्हतो ध्यानमिति । एष्वाद्ये द्व े शास्त्रारम्भे संभवतो नोत्तरे द्व े । अनेनात्मनः सर्वतः संभेद: इत्युक्त पदस्थम् । तदभिधेयेनेत्यादिना पिण्डस्थमिति । वयमपीति - विशिष्ट प्रणिधेय-प्ररिणधानादिगुणप्रकर्षादाऽऽत्मन्युत्कर्षाधानाद गुणबहुत्वेनात्मनोऽपि तदभिन्नतया बहुत्वाद् 5 वयमिति बहुवचनेन निर्देश: । तात्त्विक इति तत्त्वमेव "विनयादिभ्य इकरण " [७. २. १६६. ] तत्त्वं प्रयोजनमस्येति वा ।। १ ।। सिद्धिः स्याद्वादात् ॥ १.१.२ ॥ ४ ] स्याद् इत्यव्ययमनेकान्तद्योतकम्, ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादः, नित्या - नित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् । ततः सिद्धिनिष्पत्तिर्ज्ञाप्तिर्वा 10 प्रकृतानां शब्दानां वेदितव्या । एकस्यैव हि ह्रस्व-दीर्घादिविधयोऽनेककारक संनिपातः, सामानाधिकरण्यम्, विशेषरण - विशेष्यभावादयश्च स्याद्वादमन्तरेण नोपपद्यन्ते । सर्वपार्षदत्वाच्च शब्दानुशासनस्य सकलदर्शनसमूहात्मकस्याद्वादस - माश्रयणमतिरमणीयम् । यदवोचाम स्तुतिषु --- श्रन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषान विशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥ 2 ॥ [ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका - श्लो० ३०. ] 15 स्तुतिकारोऽप्याह - नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव रोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्ररणता हितैषिणः ॥ 3 ॥ इति । 20 [ श्री समन्तभद्राचार्यकृत - बृहत्स्वयम्भू स्तोत्रावल्यां श्रीविमलनाथस्तोत्रम् - श्लो० ६५. ] श्रथवा 'वादात् ' विविक्तशब्दप्रयोगात् 'सिद्धिः सम्यग्ज्ञानं तद्द्वारेण च निःश्रेयसं 'स्याद्' भवेद् इति शब्दानुशासनमिदमारभ्यत इत्यभिधेयप्रयोजनपरतयाऽपीदं व्याख्येयम् ॥२॥ न्या० स० – पद्धिरित्यादि- लोके प्रसिद्धसाधुत्वानां शब्दानामन्वाख्यानार्थमिदं 25 शब्दानुशासनमारभ्यते । अन्वाख्यानं च शब्दानां प्रकृत्यादिविभागेन सामान्य विशेषवता लक्षणेन व्युत्पादनम् । तच्च शब्दार्थसंबन्धमन्तरेण न संभवति । शब्दार्थ संबन्धसिद्धिश्च स्याद्वादाधीना इत्यत आह-सिद्धिः स्याद्व दात् । दशधा सूत्राणि संज्ञा - १ परिभाषा - २ Sधिकार - ३ विधि - ४ प्रतिषेध-५ नियम ६ विकल्प ७ समुच्चया-८ ऽतिदेशा - Sनुवाद - १० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० २. ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ५ रूपाणि । तत्र " प्रौदन्ताः स्वराः " [ १.१.४. ] इति १ " प्रत्ययः प्रकृत्यादेः " [ ७. ४. ११५; ] इति २; " त्रुटि" [ १.४.६८ ] इति ३; "नाम्यन्तस्थाकवर्गात् ०" [ २. ३. १५. ] इति ४; " न स्तं मत्वर्थे” [१.१.२३. ] इति ५; " नाम सिदय्व्यञ्जने " [ ११२१ ] इति ६; "सौ नवेतौ” [ १.२.३८. ] इति ७; "शसोऽता ०" [ १.४. ४ε.] इति ८; "इदितो वा " [ ८. ४. १ ] इति ; " तयोः समूहवच्च बहुषु" [ ७.३. ३. ] 5 इति १० इत्यादीनि सूत्रारिण प्रत्येकं ज्ञातव्यानि । एतेषां मध्ये इदमधिकारसूत्रमाशास्त्रपरिसमाप्तेः । स्यादित्यव्ययमिति विभक्त्यन्ताभत्वेन स्वरादित्वाद् वाऽनेकान्तं द्योतयति वाचकत्वे नेत्प्रनेकान्तद्योतकम् । श्रनेकान्तवाद इति श्रमति गच्छति धर्मिणमिति "दम्यमि० ' [ उरणा० २०० ] इति तेऽन्तो धर्मः, न एकोऽनेकः, अनेकोऽन्तोऽस्यासावनेकान्तः तस्य वदनं याथातथ्येन प्रतिपादनम्, तच्चाभ्युपगतस्यैव भवतीति । "1 10 नित्यानित्यादीति - श्रादिशब्दात् सदसदात्मकत्व - सामान्यविशेषात्मकत्वाऽभिलाप्यानभिलाप्यत्वग्रहः । " नेध्रुवे" [ ६. ३. १७ ] इति त्यचि नित्यम्, उभयाद्यन्तापरिच्छिन्न सत्ताकं वस्तु तद्विपरीतमनित्यम् । आदीयते गृह्यतेऽर्थोऽस्मादिति " उपसर्गाद् द: कि : " [ ५. ३.८७ ] इति कौ आदिः । धरन्ति धर्मिणो धर्मरूपतामिति धर्मा वस्तुपर्यायाः, ते च सहभुवः सामान्यादय:, क्रमभुवश्च नवपुराणादयः पर्यायाः, धर्ममन्तरेण धर्मिणः स्वरूप- 15 नाशात् । शाम्यति विरुद्ध धर्मैर्युगपत्परिणतिमुपयाति " शमेर्व च वा” [ उणा० ४७०. ] इत्यले शबलम् । एत्यभेदं गच्छति "श्रीशलि० " [ उरणा० २१. ] इति के एकम् । वसन्ति सामान्यविशेषरूपा धर्मा अस्मिन्निति "वसेणिद्वा" [ उणा० ७७४ ] इति तुनि वस्तु । नित्यानित्यादिभिरनेकधर्मैः शबलं यदेकं वस्तु तस्याऽभ्युपगमः प्रमाणाविरुद्धोऽङ्गीकारः, तत एव शब्दानां सिद्धिभवति नान्यथेत्यत श्राह - एकस्यैवेति । तथाहि यस्यैव वर्णस्य ह्रस्वत्वं 20 विधीयते तस्यैव दीर्घत्वादि, तस्य च सर्वात्मना नित्यत्वे पूर्वधर्म नवृत्तिपूर्वकस्य ह्रस्वादिविधेरसंभव:; एवमनित्यत्वेऽपि जन्मानन्तरमेव विनाशात् कस्य ह्रस्वादिविधिरिति वर्णरूपसामान्याऽऽत्मना नित्यो ह्रस्वादिधर्मात्मना त्वनित्य इति तथा द्रव्याणां स्वपराश्रयसमवेतक्रियानिर्वर्तकं सामर्थ्यं कारकम्, तच्च कर्त्राद्यनेकप्रकारमेकस्याप्युपलभ्यते; यथा-पीयमानं मधु मदत, वृक्षमारुह्य ततः फलान्यवचिनोति विषयेभ्यो बिभ्यदनात्मज्ञस्तेभ्य एवात्मानं 25 प्रयच्छंस्तरेव बन्धमाप्नोतीत्यादि ; तच्च कथमेकस्य सर्वथा नित्यत्वे एकरूपां वृत्तिमवलम्बमानस्याऽवस्थान्तराभिव्यक्तरूपोपलम्भाभावात् घटते ? इति साध्य-साधनरूपकारकव्यवहारविलापः । अनित्यत्वेऽपि न घटते, तथाहि -स्वातन्त्र्यं कर्तृत्वम्, तच्च इदं कमियं क्रिया कररणमेतदेष क्रमो, व्ययोऽयमनुषङ्गजं फलमिदं दशेयं मम । अयं सुहृदयं द्विषन् प्रकृत देशकालाविमाविति प्रतित्रितर्कयन् प्रयतते बुधो नेतरः ॥ ७ ॥30 इत्येवमात्मकपरिदृष्टसामर्थ्यं कारकप्रयोक्त त्वलक्षणम्, तदपि नानित्यस्य क्षणमात्रावस्थायित्वेनोपजननानन्तरमेव विनष्टस्य युज्यते, किं पुनः कारकसंनिपात: ? इति नित्यानित्यात्मकः स्याद्वादोऽङ्गीकर्तव्यः । तथा तमन्तरेण सामानाधिकरण्यम्, विशेषणविशेष्यभावोऽपि नोपपद्यते ; तथाहि - भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयोः शब्दयोरेकत्रार्थे वृत्तिः Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २.] सामानाधिकरण्यम्, तयोश्चात्यन्तभेदे घट-पटयोरिव नैकत्र वृत्तिः, नाप्यत्यन्ताभेदे भेदनिबन्धनत्वात् तस्य, नहि भवति नीलं नीलमिति । किञ्च, नीलशब्दादेव तदर्थप्रतिपत्तौ उत्पलशब्दाऽऽनर्थक्यप्रसङ्गः । तथैकं वस्तुसदेवेति नियम्यमाने विशेषण-विशेष्यभावाभावः, विशेषणाद् विशेष्यं कथञ्चिदर्थान्तरभूतमवगन्तव्यम्, अस्तित्वं चेह विशेषणम्, तस्य विशेष्यं वस्तु, तदेव वा स्याद् , अन्यदेव वा ? न तावत् तदेव, नहि तदेव तस्य विशेषणं 5 भवितुमर्हति, असति च विशेष्ये विशेषणत्वमपि न स्यात्, विशेष्यं विशिष्यते येन तद् विशेषणमिति व्युत्पत्तेः, अथान्यत तर्हि अन्यत्वाविशेषात सर्व सर्वस्य विशेषणं स्यात; समवायात् प्रतिनियतो विशेषण-विशेष्यभाव इति चेद्, न-सोऽप्य विष्वग्भावलक्षण एवैष्टव्यः, रूपान्तरपरिकल्पनायामनवस्थाप्रसङ्गः, अतो नासावत्यन्तं भेदेऽभेदे वा संभवतीति भेदाभेदलक्षणः स्याद्वादोऽकामेनाप्यभ्युपगन्तव्य इति । आदिग्रहणात् स्थान्यादेश-10 निमित्तनिमित्ति-प्रकृति-विकारभावादिग्रहः। किञ्च, शब्दानुशासनमिदम्, शब्दं च प्रति; विप्रतिपद्यन्तेनित्य इत्येके, अनित्य इत्यपरे, नित्यानित्य इति चान्ये । तत्र नित्यत्वाऽनित्यत्वयोरन्यतरपक्षपरिग्रहे सर्वोपादेयत्वविरहः स्यादित्याह सर्वपार्षदत्वाच्चेति-स्वेन रूपेण व्यवस्थितं वस्तुतत्त्वं पृणाति पालयतीति "प्रः सद्" [ उणा० ८६७. ] इति सदि पर्षद् तत्र साधु “पर्षदो ण्यरणौ" [७. १. १८.] इति णे 15 पार्षदं साधारणमित्यर्थः। अथवा पार्षदः परिचारक उच्यते, स च पर्षत्साधारण इत्यर्थः, पार्षदत्वेन च साधारणत्वं लक्ष्यते, तेन सर्वेषां पार्षदं सर्वसाधारणमित्यर्थः। दृश्यते तत्त्वमेकदेशेनैभिरिति दर्शनानि नयाः, समस्तदर्शनानां यः समुदायः तत्साधारणस्याद्वादस्याभ्युपगमोऽतितरां निर्दोष इत्यर्थः। अतिरमणीयमिति-रिणगन्तात "प्रवचनीयादयः" [५. १. ८. ] इत्यनीयः । 20 एतदेव स्वोक्तेन द्रढयति-अन्योऽन्येत्यादि-साध्यधर्मवैशिष्ट्य न पच्यते व्यक्तीक्रियते हेत्वादिभिरिति "मा-वा-वदि०"-[ उणा० ५६४. ] इति से पक्षः-साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी, शब्दो नित्य इत्यादिः, प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः, अन्योऽन्यं पक्षप्रतिपक्षास्तेषां भावः, एकस्मिन् मिणि परस्परविरुद्धधर्मोपन्यास इत्यर्थः, ततः । यथेति दृष्टान्तोपन्यासे । परे भवच्छासनादन्ये । सातिशयो मत्सरोऽसहनताऽस्त्येषामतिशायने मत्वर्थीये मत्सरिणः ।25 प्रकर्षणोद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतोऽर्थो यैरिति "व्यञ्जनाद् घ" [५. ३. १३२.] इति घत्रि प्रवादाः प्रवचनानि । यथा परस्परविरोधात् परे प्रवादा मत्सरिणः, न तथा त्वत्समय इति । अत्र विशेषणद्वारेण हेतमाह-पक्षपातीति-यतो रागनिमित्तवस्तस्वीकाररूपं पक्षं पातयति नाशयतीत्येवंशीलः, रागस्य जीवनाशं नष्टत्वात् । अत्रैव हेतुमाह-नयानशेषानविशेषमिच्छन्निति-नयान् नैगमादीन् समस्तानविशेषमभेदं यथा भवत्येवमङ्गीकुर्वन् । अयं30 भावः-नयानां समत्वेन दर्शनाद् रागमयस्य पक्षस्य पातितत्वात् समयस्य मत्सराभावः, परेषां तु विपर्ययात् तत्सद्भाव इति । सम्यगेति गच्छति शब्दोऽर्थमनेनेति "पुन्नाम्नि." [५. ३. १३०.] इति घे समयः संकेतः । यद्वा, सम्यगयन्ति गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः, स्वस्मिन् रूपे प्रतिष्ठा प्राप्नुवन्त्यस्मिन्निति समय प्रागमः । मत्सरित्वस्य विधयत्वात् तेनैव नत्रः संबन्धात् पक्षपातिशब्देन त्वसंबन्धात् प्रक्रमभेदाभावः । 35 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ७ परोक्त नापि द्रढयति-नया इत्यादि नीयन्ते प्राप्यन्ते जीवादयोऽर्था एकदेशविशिष्टा एभिरितिनयाः, निरवधारणा अभिप्रायविशेषाः, सावधारणस्य दुर्नयत्वात्, समस्तार्थप्राप्तेस्तु प्रमाणाधीनत्वान्, ते च नैगमादयः सप्त, तत्र स्यात्पदेन चिह्निता अभिप्रेतं फलन्तिलिहाद्यच [ "लिहादिभ्यः" ५. १.५०, ] अभिप्रेतं फलं येभ्य इति बहुब्रीहिर्वा । प्रणता इति-प्रणन्तुमारब्धवन्तः । हितैषिण इति विशेषणद्वारेण हेतुः, हितैषित्वादित्यर्थः। 5 'पाराद् दूरान्तिकयो:' सम्यग्ज्ञानाद्यात्मकमोक्षमार्गस्याऽऽरात् समीपं याताः प्राप्ताः, दूरं वा पापक्रियाभ्यो याताः इत्यार्याः। नन्वस्तु युक्तियुक्तः स्याद्वादस्तदधीनत्वाच्छब्दसिद्ध:, तथापि अनभिहिताभिधेयप्रयोजनत्वात् कथमिदं प्रेक्षावत्प्रवृत्तिविषय इत्याशङ्कयाऽऽहअथवेति-विविक्तानामसाधुत्वविमुक्तानां शब्दानां प्रयुक्त : सम्यग्ज्ञानरूपा सिद्धिः । साधुशब्दाश्चात्राऽभिधेया:। यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत् प्रयोजनमिति सम्यग्ज्ञानमनन्तरं10 प्रयोजनम्, तद्द्वारेण तु निःश्रेयसं परमिति । यतः द्व ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्मरिण निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।। ८ ॥ [त्रिपुरातापिन्युपनिषद् ४. १७.] व्याकरणात् पदसिद्धिः पदसिद्ध रर्थनिर्णयो भवति । 15 अर्थात् तत्त्वज्ञान तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः ॥ ६॥ इति । संबन्धस्त्वभिधेय-प्रयोजनयोः साध्य-साधनभावः, शब्दानुशासनाभिधेययोस्तु अभिधानाभिधेयरूपः, स च तयोरेवान्तर्भूतत्वात् पृथग् नोपदर्शित इति ।। २ ।। लोकात् ॥ १. १.३॥ उक्ताऽतिरिक्तानां क्रिया-गुण-द्रव्य-जाति-काल-लिङ्ग-स्वाङ्ग-संख्या-परि-20 मारणा-ऽपत्य- वीप्सालुगवर्णादीनां संज्ञानां *परान्नित्यम्*, *नित्यादन्तरङ्गम्* *अन्तरङ्गाच्चानवकाशं बलीयः* इत्यादीनां न्यायानां च लोकाद् वैयाकरणसमयविदः प्रामाणिकादेश्च शास्त्रप्रवृत्तये सिद्धिर्भवतीति वेदितव्यम्, वर्णसमाम्नायस्य च ।। ३ ।। तत्र 25 न्या० स-लोकादिति-लोक्यते तत्त्वनिश्चयाय घत्र , लोकते सम्यक् पदार्थानित्यचि वा लोकः । उक्तति-उक्ताभ्यः स्वरादिसंज्ञाभ्योऽतिरिक्ता अधिकास्तासाम् । साध्यरूपा पूर्वापरीभूताऽवयवा क्रिया, विशेषणं गुणः, “सत्त्वे निविशतेऽपैति०" इत्यादिलक्षणो वा। विशेष्यं द्रव्यम्, “प्राकृतिग्रहणा." इत्यादिरूपा जातिः, त्रुट्यादिलक्षणः Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४.] कालः, लिङ्ग पु-स्त्री-नपुसकरूपम्, "अविकारोऽद्रवम्" इत्यादि स्वाङ्गम्. एकाद्यभिधानप्रत्ययहेतुः संख्या, सर्वतो मानं परिमारणम्. अपत्यं प्रसिद्धम्, नानाभिधायिनां शब्दानां क्रिया-गुण-द्रव्ययुगपत्प्रयोक्तुाप्तुमिच्छा वीप्सा, अदर्शनं लुक, अष्टादशभेदोऽकारादिसमुदायोऽवर्णः प्रादिशब्दादिवर्णादिपरिग्रह इति वैयाकरणाः । कर्म (क्रिया) उत्क्षेपणादि, द्रव्याश्रयो गुरणः, गुणाश्रयो द्रव्यम्, अनुवृत्तप्रत्ययहेतुः सामान्य जातिः। 5 परापरादिप्रत्ययहेतुः कालः। अनुमानं लिङ्गम् । स्वाङ्गयारम्भकमवयवरूपं स्वाङ्गम् । अणु-महदादिप्रत्ययहेतुः परिमारणमिति तार्किकाः। परान्नित्यम् इति-तथाहि-वनानीत्यादौ "शसोऽता." [१. ४. ४६.] इति दीर्घ बाधित्वा परत्वात् “नपुसकस्य शिः" [१. ४. ५५.] इत्येव भवति । तस्माच्च नित्यं बलीयः, यथा-'स्योन' इत्यत्र परमपि गुणं बाधित्वा नित्यत्वादट । तथा *नित्यादन्त-10 रङ्गम्* यथा-ज्ञाया ओदनो ज्ञौदनस्तमिच्छति क्यन्, ततः सनि, अकृतव्यूहत्वाद् 'ज्ञा ओदन य स' इति स्थिते द्वित्वं प्राप्नोति औत्वं च, ततो नित्यत्वाद् द्वित्वे प्राप्ते तद् बाधित्वाऽन्तरङ्गत्वादौत्वं भवति-जुज्ञौदनीयिषतीति । तथा *प्रन्तरङ्गादनवकाशम् यथा-गर्गस्यापत्यानि यत्र , तेषां छात्राः "दोरीयः" [ ६. ३. ३२. ] ततोन्तरङ्गत्वाद “यत्रत्रः०" [६. १. १२६.] इति यत्रो लुप् “न प्राजितीये." [६. १. १३५.] इति 15 तनिषेधश्च प्राप्नुतः, परमनवकाशत्वाद् “न प्राजितीये." [६. १. १३५.] इत्येव प्रवर्तते, ततो गार्गीया इति सिद्धम् । तथा आदिशब्दात् पराबन्तरंगम् अपि, यथा-सिवे: "प्या-धा-पन्यनि०" [उणा० २५८.] इति नेऽपवादत्वाद् वलोपं बाधित्वा गुणात् पूर्व नित्यत्वादूटि च कृते परत्वाद् गुणे प्राप्तेऽन्तरङ्गत्वात् तं बाधित्वा यत्वं भवति 'स्योन' इति । एतासां क्रियादीनां संज्ञानां न्यायानां च शास्त्रप्रवृत्तये लोकात् सिद्धिर्वेदितव्या, न20 च लोकमन्तरेण तज्ज्ञानोपायोऽस्ति, न च तज्ज्ञानं विना "क्रियार्थो धातुः" [३. ३. ३. ] "गुणादस्त्रियां नवा" [२. २. ७७.] "जातिकालसुखादेर्नवा" [३. १. १५२.] "स्वाङ्गादेरकृतमित०" [२. ४. ४६.] इति, "संख्यानां ष्र्णाम्" [ १. ४. ३३. ] "परिमाणात् तद्धित." [२. ४. २३.) इति, "ङसोऽपत्ये" [ ६. १. २८. ] “वीप्सायाम्" [७. ४. ८०.] "लुगस्यादेत्यपदे" [ २. १. ११३. ] "अवर्णस्येवर्णादिना०" [१. २. ६.] इति, "इवर्णा-25 देरस्वे स्वरे." [ १. २. २१. ] इत्यादिशास्त्रप्रवृत्तिः। नीयते प्राप्यते संदेहदोलामधिरूढोऽर्थो निर्णयपदमेभिरिति "न्यायावाय." [५. ३. १३४.] इति घत्रि न्याया युक्तयः ॥ ३॥ औदन्ताः स्वराः ॥ १.१.४ ॥ औकारावसाना वर्णाः स्वरसंज्ञा भवन्ति, तकार उच्चारणार्थः । अ आ30 १. ह्रस्व-दीर्घ-प्लुतादिभेदयुक्तः । २. सामान्यं परिमाणमिति इ। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ५. ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ । प्रदन्ता इति बहुवचनं वर्णेष्वपठि - तानां दीर्घपाठोपलक्षितानां प्लुतानां संग्रहार्थम्, तेन तेषामपि स्वरसंज्ञा । स्वरप्रदेशाः–“इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्” [१. २. २१.] इत्येवमादयः ।। ४ ।। [s " न्या० स० - श्रौदन्ता इत्यादि - प्रत्रान्तशब्दोऽवयववाचीत्यवयवेन विग्रहः, समुदायः समासार्थः, अवयवस्य चावश्यं समुदायरूपेऽन्यपदार्थेऽन्तर्भावः श्रत एवात्र तद्गुणसंविज्ञा- 5 नोऽयं बहुव्रीहिः, यथा - लम्बकर्ण इत्यादौ न त्वतद्गुरणसंविज्ञानः, यथा - चित्रगुरित्यादौ । ज्ञापकं चात्र "प्रष्ट प्रौर्जस् - शसोः " [ १४. ५३ ] " प्रतो एव श्रौ : " [४२.१२०. ] "उत प्रविति व्यञ्जनेऽद्व े : " [४. ३. ५६ ] इत्यादि । श्रौकारस्य हि स्वरत्वाभावे "अष्ट औ: ० " [१. ४. ५३.] इत्यादिसूत्रेषु "स्वरे वा" [१. ३. २४.] इत्यनेन यलोपो न स्यात् । तकार इति - उच्चार्यते स्वरूपेरण स्वीक्रियतेऽनेनेत्युच्चारणम्, स्वरूपपरिग्रह इति भावः 110 तपरत्वान्निर्देशस्य 'प्रत्' इत्युक्ते प्रकारस्वरूपं प्रतीयते तकाराभावे तु प्राबन्ता इति कृते कष्टा प्रतीतिर्भवेदिति भावः । ननु लकारः कृपिस्थ एव प्रयुज्यते, न च तत्र स्वरसंज्ञायाः किमपि प्रयोजनम्, लृकारस्य तु सर्वथा प्रयोग एव नास्तीति ? नैवम् क्लृप्तः 'क्ल ३ शिख !', इत्यादी द्वित्व- प्लुतादेः स्वरकार्यस्य दर्शनात् । तथाहि - "प्रदीर्घाद् विरामैक०" [ १. ३. ३२. ] इत्यनेन द्वित्वम्, "दूरादामन्त्यस्य ० " [ ७. ४. ६६ ] इत्यनेन 15 प्लुतश्च स्वराश्रितः प्रतिपादितः तत्र स्वरस्याधिकृतत्वाद्, असति स्वरत्वे तन्न स्यादिति । प्रदेशा इति - प्रदिश्यन्ते संज्ञाप्रयोजनान्येषु इति "व्यञ्जनाद् घञ” [५. ३. १३२. ] इति घञि प्रदेशा:, संज्ञाप्रयोजनस्थानानीत्यर्थः ॥ ४ ॥ एकदिवत्रिमात्रा ह्रस्वदीर्घप्लुताः ॥ १. १. ५ ।। मात्रा कालविशेषः, एक द्वि- त्र्युच्चारणमात्रा प्रदन्ता वरर्णा यथासंख्यं 20 ह्रस्व-दीर्घ- प्लुतसंज्ञा भवन्ति । एकमात्रो ह्रस्वः अ इ उ ऋ लृ । द्विमात्रो दीर्घः आ ई ऊ ऋ लृ ए ऐ ओ औ । त्रिमात्रः प्लुतः -प्रा३ ई३ ऊ३ इत्यादि । ऐदौतौ चतुर्मात्रावपीत्यन्ये । दन्ता इत्येव ? प्रतक्ष्य, प्रत्रार्धमात्रिकयोर्व्यञ्जनयोः समुदायस्यैकमात्रत्वेऽपि ह्रस्वसंज्ञाया प्रभावात् तोऽन्तो न भवति । वर्णानां च ह्रस्वादिसंज्ञाविधानात् 'तितउच्छत्रम्' इत्यादावकारोकारलक्षण-25 वर्णसमुदायस्य द्विमात्रत्वेऽपि दीर्घसंज्ञाया प्रभावाद् द्वित्वविकल्पो न भवति । सन्ध्यक्षराणां तु एक्रमात्रिकत्वाभावाद् ह्रस्वसंज्ञा न भवति । ह्रस्वादिप्रदेशाः“ऋलृति ह्रस्वो वा ” [१. २. २. ] इत्यादयः ।। ५ ।। न्या० स० – एक - द्वीत्यादि० एकमात्र इति - स्वरस्यात्यन्तापकृष्टो निमेषोन्मेष Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ६-७.] क्रियापरिच्छिन्न उच्चारणकालो मात्रा। अर्धमात्रिकयोरिति-मात्राया अर्धमर्धमात्रा, साऽस्त्यनयो: “व्रीह्यादिभ्यस्तौ" [७. २. ५.] इति इकः। वर्णसमुदायस्येति-औदन्ता इत्यनुवृत्त्या वर्णा इति लाभात् 'तितउ' इत्यत्र 'अउ' इत्येवंरूपवर्णसमुदायस्य दीर्घत्वनिषेधः। संध्यक्षराणां विति-अन्यैः कालापकाद्यैः संध्यक्षराणां दीर्घसंज्ञाऽपि न कृता, ततोऽत्र संज्ञाद्वयेऽपि संदेहः, यद्वा, अप्रा इत्यादौ क्रमेण ह्रस्व-दीर्घसंज्ञा दृष्टा, ए ऐ इत्या- 5 दावपि किं तथैवेत्याशङ्कायामिदमुक्त संध्यक्षराणां त्वित्यादि ।। ५ ।। अनवर्णा नामी ॥ १. १. ६ ॥ . अवर्णरहिता प्रौदन्ता वर्णा नामिसंज्ञा भवन्ति । इ ई उ ऊ ऋ ऋ लु ल, ए ऐ ओ औ । बहुवचनं प्लुतसंग्रहार्थम्, एवमुत्तरत्रापि । नामिप्रदेशाः"नामिनस्तयोः षः” [२. ३. ८.] इत्यादयः ।। ६ ।। 10 न्या० स०–अनवर्णेत्यादि-अविद्यमानोऽवर्णो येषु तेऽनवर्णाः । ननु संज्ञिसमानाधिकरणत्वेन संज्ञानिर्देशे सति “प्रौदन्ताः स्वराः" [१. १. ४.] इतिवन्नामिन इति बहुवचनेन निर्देशो युज्यते तत् किं नामीत्येकवचननिर्देश: ? सत्यम्, वचनभेदेन संज्ञां कुर्वन्नेवं बोधयति-'यत्र नामिनः कार्य क्रियते तत्र कार्याद् यदि कार्यों स्वरो न्यूनो भवति, तत्रैव नामिसंज्ञाप्रवृत्तिर्नान्यथा' तेन 'ग्लायति, म्लायति' इत्यादौ न गुणः, अत एव तत्राऽऽह-15 'ऐकारोपदेशबलान्नामित्वाभावाद् गुणाभावः' इति । अत्रोत्तरयोश्च बहुवचनं प्लुतसंग्रहार्थम् विशेषणविशेष्यभावस्तु वचनभेदेऽपि सामान्य-विशेषभावेन, यथा-पञ्चादौ चुट, वेदाः प्रमाणम्, इति ।। ६ ।। ल.दन्ताः समानाः ॥ १. १.७ ॥ ल कारावसाना वर्णाः समानसंज्ञा भवन्ति । अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ20 ल ल । समानप्रदेशाः-“समानानां तेन दीर्घः" [१. २. १.] इत्यादयः ॥ ७ ॥ न्या० स०-ल्दन्ता इत्यादि-उदात्ताऽनुदात्त-स्वरितसानुनासिक-निरनुनासिकभेदादष्टादशधा भिद्यन्तेऽवर्णादय इति । समानं तुल्यं मानं परिमारणं परिच्छेदो वा येषां ते समानाः, परस्परविलक्षणाकारं बिभ्राणा अपीति । तथा लकारस्य समानसंज्ञायाम्,25 कल्पनं क्लप "कत्संपदादिभ्यः क्विप" [५.३.११४.] कलायाः क्लप, तामकार्षीत णिचि अन्त्यस्वरादिलोपे समानलोपात् "उपान्त्यस्यासमानलोपि०" [४. २. ३५.] इति ह्रस्वत्वाभावे "असमानलोपे०" [४. १. ६३.] इति सन्वद्भावाभावे च 'अचकलाकद्' इति भवति, क्ल कार इति समानदीर्घत्वं च फलम् ।। ७ ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ८-१०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ११ ए-ऐ-ओ-औ संध्य क्षरम् ॥ १. १.८॥ ए-ऐ-प्रो-ौ इत्येते वर्णाः सन्ध्यक्षरसंज्ञा भवन्ति । सन्ध्यक्षरप्रदेशाः"ऐदौत् सन्ध्यक्षरैः” [१. २. १२.] इत्यादयः ।। ८ ।। न्या० स०-ए-ऐ-ग्रो-प्रो० इत्यादि-संधौ सति अक्षरं संध्यक्षरम्, तथाहि-अवर्णस्येवर्णेन सह संधावेकारः, एकारैकाराभ्यामैकारः, अवर्णस्योवर्णेनौकारः, प्रोकारौकाराभ्या- 5 मौकारः ।। ८ ।। अं अः अनुस्वारविसगौ ॥ १. १. ६ ॥ __ अकाराव च्चारणाथौं, 'अं' इति नासिक्यो वर्णः, 'अः' इति कण्ठयः, तौ यथासंख्यमनुस्वार-विसर्गसंज्ञौ भवतः । अनुस्वार-विसर्गप्रदेशा:-"नोऽप्रशानोऽनुस्वारानुनासिकौ च पूर्नस्याधुट्परे" [१. ३. ८.] "रः पदान्ते विसर्ग-10 स्तयोः" [१. ३. ५३.] इत्यादयः ।। ६ ।। न्या० स०-अं अः इत्यादि-विसृज्यते विरम्यते घत्रि विसर्गः, कर्मप्रत्ययोपलक्षणं चेदम्, तेन विसृष्टो विसर्जनीय इत्यपि संज्ञाद्वयं द्रष्टव्यम् ॥ ६ ॥ कादियंजनम् ॥ १. १. १० ॥ कादिनों हकारपर्यन्तो व्यञ्जनसंज्ञो भवति । क ख ग घ ङ, च छ15 ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म, य र ल व, श ष स ह। व्यञ्जनप्रदेशा:-"नाम सिदय्व्य ञ्जने' [१. १. २१.] इत्यादयः ॥ १० ॥ न्या० स०-कादि०-आदीयते गृह्यतेऽस्मादर्थ इत्यादिः। स च सामीप्यव्यवस्था-प्रकाराऽवयवादिवृत्तिः। यथा-ग्रामादौ घोष इति सामीप्ये, ब्राह्मणादयो वर्णा20 इति व्यवस्थायाम्, पाढ्या देवदत्तादय इति प्रकारे, देवदत्तसदृशा इत्यर्थः, स्तम्भादयो गृहा इति अवयवे, स्तम्भावयवा इत्यर्थः । तत्र सामीप्यार्थवृत्तिग्रहणे ककारस्य व्यञ्जनसंज्ञा न स्यात्, उपलक्षणस्य कार्येऽनुपयोगात्, यथा-चित्रगुरानीयतामित्युक्त चित्रंगवोपलक्षितः पुमानेवाऽऽनीयते न तु चित्रा गौरिति । व्यवस्थार्थोऽपि न घटते, वर्णसमाम्नायस्य व्यवस्थितत्वेन व्यभिचाराभावात् *संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद् इति हि न्यायः । कादीनां25 'परस्परमत्यन्तवैसदृश्यात् प्रकारार्थोऽपि न समीचीनतामञ्चति । अवयवार्थवृत्तिस्तु संगच्छते । ककार आदिरवयवो यस्य वर्णसमुदायस्य स कादिः, अत एवेह तद्गुरगसंविज्ञानो Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] बृहद्वृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० १. मू० ११-१३.] बहुव्रीहिः समुदायस्यावयवेषु समवेतत्वात्, न्यग्भूतावयवत्वेन च समुदायप्राधान्यादेकवचनम् । संज्ञिसामानाधिकरण्येऽपि स्मृतयः प्रमाणम्'इतिवदाविष्टलिङ्गत्वा व्यञ्जनमिति नपूसकत्वम् । व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनम्, स्वराणामर्थप्रकाशने उपकारकम्, यथा-सूपादीन्योदनस्येति । कस्य आदिः कादिरिति व्याख्याने व्यवस्थावाच्यप्यादिशब्द:, तेन स्वराणां न व्यञ्जनसंज्ञा, अनुस्वारविसर्गयोस्तु भवति । ततोऽनुस्वारस्य व्यञ्जनसंज्ञायां 5 संस्कर्तेत्यत्रानुस्वाररूपव्यञ्जनात् परस्य सस्य "धूटो धूटि स्वे वा" [ १.३.४८.] इत्यनेन लुक् सिद्धः । विसर्गस्य तु व्यञ्जनत्वे सुपूर्वस्य दुःखयतेः क्विपि, णिलुकि, सेश्च लुकि "पदस्य" [२. १. ८६.] इति विसर्गरूपसंयोगान्तस्थस्य खस्य लुक् सिद्धः; विसर्गस्य च कस्यादिरिति व्युत्पत्त्या अपञ्चमान्तस्थः० [ १. १. ११. ] इति धुट्त्वे च "धुटस्तृतीयः" [ २. १. ७६. ] इति स्थान्यासन्ने गत्वे सति सुदुगिति सिद्धम् ।। १० ।। 10 अपञ्चमान्तस्थो धुद ॥ १. १. ११ ॥ वर्गपञ्चमान्तस्थावर्जितः कादिनर्णो धुट्संज्ञो भवति । क ख ग घ, च छ ज झ, ट ठ ड ढ, त थ द ध, प फ ब भ, श ष स ह । धुटप्रदेशा:-"धुटो धुटि स्वे वा" [१. ३. ४८.] इत्यादयः ।। ११ ।। 15 पञ्चको वर्गः ॥ १. १. १२ ॥ कादिषु वर्णेषु यो यः पञ्चसंख्यापरिमाणो वर्गः स स वर्गसंज्ञो भवति । क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ म । वर्गप्रदेशाः-"कवर्गकस्वरवति" [२. ३. ७६.] इत्यादयः ॥ १२ ॥ न्या० स०–पञ्चक-सजातीयसमुदायो वर्गः । स च वर्गः कवर्गादिभेदेनाष्टधा वर्णसमाम्नाये केवलिकादिशास्त्रेषु प्रसिद्धः, तत्र च यः पञ्चसंख्यात्वेन व्यवस्थित-20 स्तस्येह वर्गसंज्ञेत्यत आह-कादिष्विति । यो य इति-संज्ञिनां बहुत्वादगृहीतवीप्सोऽपि पञ्चशब्दो वीप्सां गमयतीति । वृणोत्यात्मीयमेकत्वेन व्यवस्थापयति “गम्यमि०" [उणा० ६२.] इति गे वर्ग:, जात्यपेक्षमेकवचनम् ।। १२ ।। आद्यद्वितीयशषसा अघोषाः ॥ १. १. १३ ॥ वर्गाणामाद्य-द्वितीया वर्णाः श-ष-साश्चाघोषसंज्ञा भवन्ति । क ख, च25 छ, ट ठ, त थ, प फ, श ष स । बहुवचनं सर्नवर्गाणामाद्य-द्वितीयपरिग्रहार्थम् । अघोषप्रदेशा-"अघोषे प्रथमोऽशिट:" [१. ३. ५०.] इत्यादयः ॥ १३ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १०-१६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १३ न्या० स०-प्राद्य० अविद्यमानो घोषो येषाम्, यथा-अनुदरा कन्येति, बहुव्रीहिणा गतत्वान्न मतुः । ननु लाघवार्थं समाहार एव युक्तः, यतः *मात्रालाघवमप्युत्सवाय मन्यन्ते वैयाकरणा:* इत्याह-बहुवचनमिति, अन्यथा श-ष-ससाहचर्यात् क-खयोः केवलयोरेव ग्रहः स्यात् । अव्यभिचारिणा व्यभिचारी यत्र नियम्यते तत् साहचर्यम् ।। १३ ।। अन्यो घोषवान् ॥ १. १. १४ ॥ अघोषेभ्योऽन्यः कादिनों घोषवत्संज्ञो भवति । ग घ ङ, ज झ ञ, ड ढ ण, द ध न, ब भ म, य र ल व ह। घोषवत्प्रदेशाः-"घोषवति" [१. ३. २१.] इत्यादयः ।। १४ ।। __ न्या० स०-अन्य०-घोषो ध्वनिविद्यते यस्य स तथा । अन्वर्थता च10 "तुल्यस्थानास्य०" [१. १. १७.] इत्यत्र दर्शयिष्यते । घोषवानिति जातिनिर्देशः, अघोषापेक्षया चान्यत्वम्, तेन येषामतिशायी घोषस्तेऽन्यत्वजात्यध्यासिता घोषवन्त इत्यर्थः ।। १४ ।। ____20 य-र-ल-वा अन्तस्था . ॥ १. १. १५ ॥ य, र, ल, व, इत्येते वर्णा अन्तस्थासंज्ञा भवन्ति । बहुवचनं सानुनासि-15 कादिभेदपरिग्रहार्थम् । अन्तस्थाप्रदेशाः-"अञ्वर्गस्यान्तस्थातः” [१. ३. ३३.] इत्यादयः ।। १५ ।। न्या० स०-य-र-ल-वा०-"लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वाद्" इति वर्णविशेषणमपि अन्तस्थाशब्दः स्त्रीलिङ्गो बाहुलकात् शब्दशक्तिस्वाभाव्याद् बहुत्ववृत्तिश्च प्राय इति । य र ल व इतीति-अर्थवत्त्वाभावे नामत्वाभावान्न स्यादिः ।। १५ ॥ अंxक)(पशषसाः शिद् ॥ १. १. १६ ॥ अनुस्वारो विसर्गो वज्राकृतिर्गजकुम्भाकृतिश्च वर्णः श-ष-साश्च शिट्संज्ञा भवन्ति । अकार-ककार-पकारा उच्चारणार्थाः । बहुवचनं वर्णेष्वपठितयोरपि Xक-) (पयोनर्णत्वार्थम् । शिटप्रदेशा:-"शिट: प्रथमद्वितीयस्य" [१. ३. ३५.] इत्यादयः ।। १६ ।। 25 ग्या० स०-अं अः०-शिट्-धुट्शब्दयोविषयनामत्वात् पुस्त्वम्। -क)(पयो Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] बृहद्वृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १७.] देशकाल-लिपिभेदेऽपि रूपाभेदाइ दृष्टान्तमाह-वज्राकृतिरिति-वज्रस्येव प्राकृतिर्यस्य स । तथा, गजकुम्भयोरिवाकृतिर्यस्य सोऽपि तथा । ककार-पकारौ चानयोः परदेशस्थावुच्चार्येते, सर्वत्र परसंबद्धावेवैतौ भवतः, न स्वतन्त्रौ, नापि पूर्व संबद्धावनुस्वारवदिति । रेफादेशत्वात् कख-पफसंनिधावेव तयोः प्रयोगादल्पविषयत्वम्, अत एव सत्यपि संज्ञिसामानाधिकरण्येऽल्पीयस्त्वज्ञापनाय शिडित्येकवचनेन निर्देशः कृतः। अथ कथमनयोर्वर्णत्वं वर्णसमाम्नाये 5 पाठाभावात् ? सत्यम्-रेफस्य वर्णत्वात् तयोश्च रेफादेशत्वाद् वर्णत्वसिद्धिः । न च वर्णाऽऽदेशत्वेन लोपस्यापि वर्णत्वमाशङ्कनीयम्, तस्याभावरूपत्वात्, न चाभावो भावस्याऽऽश्रयो भवितुमर्हति अतिप्रसंगात्, अयमेवार्थो बहुवचनेन सूच्यते, अनुवादकत्वेन तस्य साधकत्वाभावादित्याह-बहुवचनमिति । ननुक)(पयोर्व्यञ्जनसंज्ञाऽपि पूर्वेषामस्ति तत् कथं तैः सह न विरोधः ? उच्यते-रेफस्थानित्वेन व्यञ्जनसंज्ञाऽपीति न विरोधः ।। १६ ।। 10 तुल्यस्थानास्यप्रयत्नः स्वः॥ १. १. १७ ॥ यत्र पुद्गलस्कन्धस्य वर्णभावापत्तिस्तत् स्थानम्, कण्ठादि । यदाहुः-- "अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा। जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च”॥ ४ ॥ [पाणिनीयशिक्षा, श्लो० १३.] 15 अस्यत्यनेन वर्णानित्यास्यम्, अोष्ठात् प्रभृति प्राक् काकलकसंज्ञकात् कण्ठमणेः । आस्ये प्रयत्न प्रास्यप्रयत्नः, प्रान्तरः संरम्भः । स चतुर्धास्पृष्टता १, ईषत्स्पृष्टता २, विवृ तता ३, ईषद्विव तता ४ । तुल्यौ वर्णान्तरेण सदशौ स्थानाऽऽस्यप्रयत्नौ यस्य स वर्णस्तं प्रति स्वसंज्ञो भवति । करणं तू जिह्वामूलमध्याग्रोपाग्ररूपं स्थानाऽऽस्यप्रयत्नतुल्यत्वे सति नाऽतुल्यं भवतीति20 पृथग् नोक्तम् । तत्र स्थानम्-अवर्ण-हविसर्ग-कवर्गाः कण्ठ्याः । 'सनमुखस्थानमवर्णम्, ह-विसर्गाव रस्यौ, कवर्गो जिह्वामूलीयः' इत्यन्ये । इवर्ण-चवर्गयशास्तालव्याः । उवर्ण-पवर्गोपध्मानीया ओष्ठयाः । ऋवर्णटवर्ग-र-षा मूर्धन्याः, 'रेफो दन्तमूलः' इत्येके । लुवर्णतवर्ग-ल-सा दन्त्याः । ए-ऐ तालव्यौ, 'कण्ठय-तालव्यौ' इत्यन्ये । अो-औ ओष्ठ्यौ , 'कण्ठयोष्ठयौ' इत्यन्ये । वो25 दन्त्यौष्ठयः, 'सृक्कस्थानः' इत्यन्ये । जिह्वामूलीयो जियः, 'कण्ठयः' इत्यन्ये । नासिक्योऽनुस्वारः, 'कण्ठय-नासिक्यः' इत्यन्ये । ङ-अ-ण-न-माः स्वस्थान-नासिकास्थानाः । अथाऽऽस्यप्रयत्नः-स्पृष्टं करणं स्पर्शानाम्, स्पर्शा १. 'इत्येके' प्रा। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १७.] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १५ वाः । ईषत्स्पृष्टं करणमन्तस्थानाम् । ईषद्विव तं करणमूष्मणाम् । विव तं करणं स्वराणाम्, 'ऊष्मणां च' इत्यन्ये, ऊष्माणः श-ष-स-हाः । स्वरेषु ए-अो विव ततरौ, ताभ्यामपि ऐ-ौ, ताभ्यामप्यवर्णः, 'अकारः संवतः' इत्यन्ये । तत्र त्रयोऽकारा उदात्ताऽनुदात्त-स्वरिताः, प्रत्येकं सानुनासिक-निरनुनासिकभेदात् षट्, एवं दीर्घ-प्लुताविति अष्टादश भेदा अवर्णस्य ; ते सर्ने कण्ठस्थाना 5 विव तकरणाः परस्परं स्वाः । एवमिवर्णास्तावन्तस्तालव्या विव तकरणाः स्वाः । उवर्णा अोष्ठया विव तकरणाः स्वाः । ऋवर्णा मूर्धन्या विव तकरणाः स्वाः । लुवर्णा दन्त्या विव तकरणाः स्वाः, 'लुवर्णस्य दीर्घा न सन्तीति द्वादश' इत्यन्ये । संध्यक्षराणां ह्रस्वा न सन्तीति तानि प्रत्येकं द्वादशभेदानि; तत्र-10 एकारास्तालव्या विव ततराः स्वाः, ऐकारास्तालव्या अतिविव ततराः स्वाः, ओकारा अोष्ठया विव ततराः स्वाः, औकारा प्रोष्ठ्या अतिविव ततराः स्वाः । वर्याः पञ्च पञ्च परस्परं स्वाः । य-ल-वानामनुनासिकोऽननुनासिकश्च द्वौ भेदौ परस्परं स्वौ। रेफोष्मणां तु अतुल्यस्थानाऽऽस्यप्रयत्नत्वात् स्वा न भवन्ति । प्रास्यग्रहणं बाह्यप्रयत्ननिवृ त्त्यर्थम्, ते हि "अासन्नः' [७. ४. १२०.] 15 इत्यत्रैवोपयुज्यन्ते, न स्वसंज्ञायाम् ; के पुनस्ते ? विवारसंवारौ श्वास-नादौ घोषवदघोषता अल्पप्राण-महाप्राणता उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेत्येकादश । कथं पुनरेते अास्याद् बाह्याः स्पृष्टतादयस्तु प्रान्तराः ? उच्यते-वायुना कोष्ठेऽभिहन्यमानेऽमीषां प्रादुर्भावात्, स्पृष्टतादीनां तु कण्ठादिस्थानाभिघाते भावात् । तथा चाऽऽपिशलि: शिक्षामधीते-"नाभिप्रदेशात् प्रयत्नप्रेरितः प्राणो नाम20 वायुरू माक्रामन्नुरः प्रभृतीनां स्थानानामन्यतमस्मिन् स्थाने प्रयत्नेन विधार्यते, स विधार्यमाणः स्थानमभिहन्ति, तस्मात् स्थानाभिघाताद् ध्वनिरुत्पद्यते आकाशे, सा वर्णश्रुतिः, स वर्णस्याऽऽत्मलाभः। तत्र वर्णध्वना त्पद्यमाने यदा स्थान-करण-प्रयत्नाः परस्परं स्पृशन्ति सा स्पृष्टता, यदेषत् स्पृशन्ति सेषत्स्पृष्टता, यदा सामीप्येन स्पृशन्ति सा संव तता, दूरेण यदा स्पृशन्ति सा25 विव तता; एषोऽन्तः- प्रयत्नः । स इदानीं प्राणो नाम वायुरूवं माक्रामन् मूनि प्रतिहतो निवृ त्तः कोष्ठमभिहन्ति, तत्र कोष्ठेऽभिहन्यमाने कण्ठबिलस्य विव तत्वाद् विवारः संव तत्वात् संवारः । तत्र यदा कण्ठबिलं विव तं भवति तदा श्वासो जायते, संव ते तु नादः, तावनुप्रदानमाचक्षते; अन्ये तु ब्रुवतेअनुप्रदानमनुस्वानो घण्टादिनिर्बादवद्' इति । तत्र यदा स्थान-करणाभिघातजे 30 ध्वनौ नादोऽनुप्रदीयते तदा नादध्वनिसंसर्गाद् घोषो जायते, यदा तु श्वासोऽनुप्रदीयते तदा श्वासध्वनिसंसर्गादघोषो जायते । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १७.] ___ अल्पे वायावल्पप्राणता, महति महाप्राणता जायते; महाप्राणत्वा- । दूष्मत्वम् । यदा सर्वाङ्गानुसारी प्रयत्नस्तीवो भवति तदा गात्रस्य निग्रहः कण्ठबिलस्य चाण त्वं स्वरस्य च वायोस्तीव्रगतित्वाद् रौक्ष्यं भवति तमुदात्तमाचक्षते । यदा तु मन्दः प्रयत्नो भवति तदा गात्रस्य स्रसनं कण्ठबिलस्य च महत्त्वं स्वरस्य च वायोर्मन्दगतित्वात् स्निग्धता भवति तमनुदात्तमाचक्षते । 5 उदात्ताऽनुदात्तस्वरसंनिपातात् स्वरित इत्येष कृत्स्नो बाह्यः प्रयत्न इति । अथवा विवारादयो वर्णनिष्पत्तिकालादूज़ वायुवशेनोत्पद्यन्ते, स्पृष्टतादयस्तु स्थानाऽऽस्यप्रयत्नव्यापारेण वर्णोत्पत्तिकाल एवेति वर्णनिष्पत्तिकालभावाऽभावाभ्यां विवारादीनां बाह्यत्वम्, स्पृष्टतादीनां चाभ्यन्तरत्वम् । तत्र वर्गाणां प्रथम-द्वितीयाः श-ष-स-विसर्ग-जिह्वामूलीयोपध्मानीयाश्च विव त-10 कण्ठाः श्वासानुप्रदाना अघोषाः । वर्गाणां तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमा अन्तस्था हकाराऽनुस्वारौ च संव तकण्ठा नादानप्रदाना घोषवन्तः । वर्गाणां प्रथमतृतीय-पञ्चमा अन्तस्थाश्चाल्पप्राणाः । इतरे सर्वे महाप्राणाः । स्थानग्रहणं किम् ? क-च-ट-त पानां तुल्याऽऽस्यप्रयत्नानामपि भिन्नस्थानानां मा भूत्, किञ्च स्यात् ? 'तप्र्ता, तप्तुम्' इत्यत्र' “धुटो धुटि स्वे वा” [१. ३. ४८.] 15 इति पकारस्य तकारे लोपः स्यात् । अास्यप्रयत्नग्रहणं किम् ? चवर्ग-यशानां तुल्यस्थानानामपि भिन्नाऽऽस्यप्रयत्नानां मा भूत्, किञ्च स्यात् ? 'अरुश् 'श्च्योतति' इत्यत्र “धुटो धुटि स्वे वा" [१. ३. ४८.] इति शकारस्य चकारे लोपः स्यात् । स्वप्रदेशाः-"इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्" [१. २. २१.] इत्यादयः ।। १७ ।। 20 न्या० स०-तुल्य०-तोल्यतेऽनया भिदाद्यङि तुला, तुलया संमितस्तुल्यः "हृद्य-पद्य०" [ ७. १. ११. ] इत्यादिना यः । प्रयत्न उत्साहः । नासिकौष्ठौ चेति-व्यस्तावेतौ, समासे तु "प्राणितूर्य०' [ ३. १. १३७. ] इति समाहारः स्यात् । कलयति ईषदास्यभावम्, अच्, अल्पाद्यर्थे कपि, णके वा, कु ईषत् कलकः काकलक: "अल्पे" [३. २. १३६.] इति कादेशः; काकलक इति संज्ञा यस्य स तथा. ग्रीवायामुन्नतप्रदेशः ।25 आन्तर इति-अन्तरा भवः "भवे" [६. ३. १२३.] अण, अन्तर्जातो वा, भवे त्वर्थे दिगादित्वाद् यः स्यात् । स्पृश्यन्ते स्म स्पृष्टा वर्णाः, तेषां भावः स्पृष्टता-वर्णानां प्रवृत्तिनिमित्तम् ; स्पृष्टताहेतुत्वात् प्रयत्नोऽपि स्पृष्टता, "अभ्रादिभ्यः" [७. २. ४६. ] इत्यप्रत्यये वा, संज्ञाशब्दत्वात् स्त्रीत्वम् । प्रयत्नानां संज्ञा इमा यथाकथञ्चिद् व्युत्पाद्यन्ते, एवं सर्वत्र । एवमीषत्स्पृष्टताऽपि। विवियन्ते स्म विवृता वर्णास्तेषां भावः, ईषद् विवियन्ते30 स्मेत्यादि । करणमिति-वर्णोत्पत्तिकाले स्थानानां प्रयत्नानां च सहकारि कारणम् । सर्वेति-सर्वं मुखं स्थानमस्य, मुखस्थितानि सर्वाण्यपि स्थानानि अवर्णस्येत्यर्थः । कण्ठतालव्याविति-कण्ठतालुनि भवौ, देहांशसमुदायादपि यः। स्वरेषु ए-श्रो विवृततराविति Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १७ ननु विवृततरताऽतिविवृततरताऽतिविवृततमतारूपाणां प्रयत्नान्तराणां सद्भावात् सप्तधा प्रयत्न इति वक्त मुचितम्, कथं चतुर्धेत्युक्तम् ? सत्यम्-विवृततरतादीनपि विवृततया परिगृह्योक्तं चतुर्धा इति, विशेषस्य सामान्येऽन्तर्भावात् । प्रकारः संवृत इत्यन्ये इतिसंवृतताऽऽख्यं पञ्चमं प्रयत्नमन्ये मन्यन्त इत्यर्थः। अकारं संवृतं शिक्षायामके पठन्ति, तेनाकाराकारयोः संवृत-विवृतयोभिन्नप्रयत्नत्वात् स्वसंज्ञा न प्राप्नोतीति विवृत एवात्र 5 प्रतिज्ञायते, प्रयोगे तु संवृत एवाऽसौ स्वरूपेणेत्यन्य इत्युक्तम् । सानुनासिकेति-नासिकामनुगतो यो वर्णधर्मः स तथा, सह तेन वर्तते यो वर्णः स तथा। निर्गतोऽनुनासिकाद् यः स तथा। स्वरः संजातो येषां ते स्वरिताः। यथाकथञ्चिद् व्युत्पत्तिः । अनुनासिक इति-अनुनासिको धर्मोऽस्यास्तीति अभ्रादित्वाद् अः, तद्धर्मरहितोऽननुनासिक इति । रेफोमरणां विति-अन्यवर्णापेक्षया तेषां स्वत्वाभावः, रेफस्य तु रेफः स्वो भवंत्येव ।10 एवमूष्मणामपि स्वा न भवन्तीति । ननु वर्णानां तुल्याऽऽस्यप्रयत्नत्वे कथं श्रुतिभेद: ? उच्यते-कालपरिमाण-करणप्राणकृतगुणभेदात् श्रुतिभेदः । तथाहि-यावता कालेनाक्ष्ण उन्मेषो निमेषो वा भवति तावान् कालो मात्रा, मात्राकालो वर्णो मात्रिकः, द्विस्तावान् द्विमात्रः, त्रिस्तावान् त्रिमात्रः, अर्धमात्राकालं व्यञ्जनम् ; तदिदं वर्णेषु चतुर्विधं कालपरिमाणं भेदकृद् भवति । करणं च15 श्रुतिभेदकरं भवति, तत् प्रागेवोक्तम् । प्राणकृताश्च गुणभेदा घोषाघोषादय इति । निवृत्त्यर्थमिति-तेनारुशश्च्योततीत्यत्र शकार-चकारयोस्तुल्यस्थान-बाह्यप्रयत्नत्वे सत्यपि "धुटो धुटि." [१.३. ४८.] इति शकारस्य चकारे लोपो न भवति । ते ह्यासन्न इत्यत्रैवेति"अासन्नः" [७. ४. १२०.] इत्यत्रापि महाप्राणस्यवावकाशः, अन्येषां च वेदे प्रयोजनम् । उपयुज्यन्त इति-उपयुक्ता भवन्तीत्यर्थः। शिक्षामिति-वर्णोत्पत्तिप्रतिपादक शास्त्रम् ।20 कोष्ठे उ.रे । अन्यतमस्मिन्निति-मतान्तरेणाऽयं साधुः, स्वमतेऽन्यतरग्रहणादन्यस्वार्थिकप्रत्ययान्तानां सर्वादित्वनिषेधान्न सिध्यति । अनुप्रदानमिति-अनुप्रदीयते वर्णान्तरसंजननार्थमेकत्र मील्यते "भुजि-पत्यादिभ्य:०" [५. ३. १२८.] [इत्यनट] निग्रह इति-स्तब्धत्वं कठिनत्वमिति यावत् । अणुत्वम्-सूक्ष्मत्वम् । स्रसनम्-श्लथत्वमित्यर्थः । वर्णनिष्पत्ति वेति-अत्राल्पस्वरत्वेन भावशब्दस्य पूर्वनिपातः। श्वासलक्षणमनप्रदानं येषां ते25 तथा। इतरे इति-इतरत्वं पूर्ववाक्याऽपेक्षम्, न सर्वेषामित्यर्थः। उदात्तादीनां स्वरेष्वेव संभवान्न व्यञ्जनेषु इति व्यञ्जनोत्पत्तौ न कथ्यन्ते उदात्तादयो बाह्यप्रयत्नाः ।। १७ ।। स्योजसमौशस्टाभ्याभिस्ङेभ्यामभ्यस्ङसिभ्याम्भ्यसङसोसाम्ङ्योस्सुपां त्रयी त्रयी प्रथमादिः॥ १. १. १८ ॥ त्यादीनां प्रत्ययानां त्रयी त्रयी यथासंख्यं प्रथमा-द्वितीया-तृतीया-चतुर्थी-30 + पञ्चमी-षष्ठी-सप्तमीसंज्ञा भवति । इ-ज-श-ट-ङ-पा अनुबन्धाः “सौ नवेतौ" [१. २. ३८.] इत्यादौ विशेषणार्थाः । बहुवचनं स्याद्यादेशानामपि प्रथमादि Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १६-२०.] संज्ञाप्रतिपत्त्यर्थम् । प्रथमादिप्रदेशाः-"नाम्नः प्रथमैकद्विबहौ” [२. २. ३१.] । इत्यादयः ।। १८ ॥ न्या० स०–स्यौजस्०-त्रयी त्रयोति भवनक्रियायां वीप्सा । विशेषरणार्था इति-विशेषो विशेषणं व्यवच्छेद इति यावा, तत्प्रयोजना इत्यर्थः । प्रथमा आदिर्यस्य संज्ञासमूहस्य । बहुवचनमिति-*तदादेशास्तद्वद् भवन्ति* इति न्यायात् साध्यसिद्धि-5 भविष्यति किं बहवचनेन ? सत्यम्-न्यायं विनाऽपीत्थं साधितम् । इयं हि महती शक्तिर्यत् परिभाषां न्यायांश्च विना साध्यत इति ।। १८ ।। स्त्यादिविभक्तिः ॥ १. १. १६ ॥ 'स्' इत्युत्सृष्टानुबन्धस्य सेर्ग्रहणम्, 'ति' इति उत्सृष्टानुबन्धस्य तिवः; आदिशब्दो व्यवस्थावाची। स्यादयस्तिवादयश्च प्रत्ययाः सुप्-स्यामहिपर्यन्ता10 विभक्तिसंज्ञा भवन्ति । विभक्तिप्रदेशाः-“अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम" [१. १. २७.] इत्यादयः ।। १६ ।। न्या० स०-स्त्यादि०-विभज्यन्ते विभागशः प्रकाश्यन्ते कर्तृ-कर्मादयोऽर्था अनयेति, विभजनं वा 'श्वादिभ्यः" [५. ३. ६२.] इति क्तिः । अनुबध्यते कार्यार्थमुपदिश्यते इत्यनुबन्ध इत, उत्सष्टस्त्यक्तोऽनबन्धो येन यस्य वा स तथा तस्य । व्यवस्थावाचीति-तेन15 ये यदनुबन्धा यावन्तो विभक्तिसंज्ञायां पूर्वाचार्यैर्व्यवस्थापितास्त एव तदनुबन्धा एव तावन्त एवाऽत्र गृह्यन्त इति ।। १६ ।। तदन्तं पदम् ॥ १. १. २० ॥ स्याद्यन्तं त्याद्यन्तं च शब्दरूपं पदसंज्ञं भवति । धर्मो वः स्वम् । ददाति नः शास्त्रम् । अन्तग्रहणं पूर्वसूत्रे तदन्तप्रतिषेधार्थम् । पदप्रदेशाः-"पदस्य"20 [२. १. ८६.] इत्यादयः ।। २० ।। न्या० स०-तदन्त-पद्यते-गम्यते कारकसंसृष्टोऽर्थोऽनेनेति पदम् "वर्षादय:०" [५. ३. २६.] इत्यल् । नन्वन्तग्रहणं किमर्थम् ? न चासत्यन्तग्रहगे 'सा पदम्' इति कृते स्त्यादेरेव पदसंज्ञा स्यात, ततश्च 'अग्निष' इत्यादौ पदमध्ये विधीयमानं षत्वं पदादौ न स्यादिति वाच्यम् । “प्रत्ययः प्रकृत्यादेः [७. ४. ११५.] इति परिभाषया25 तदन्तविधेर्लब्धत्वादिति, सत्यम्-पदसंज्ञायामन्तग्रहणमन्यत्र संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्तप्रतिषेधार्थम्, अन्यथा “प्रत्ययः प्रकृत्यादेः" [७. ४. ११५.] इति परिभाषया स्त्याद्यन्तस्य विभक्तिसंज्ञा स्यात. तस्यां च सत्यां 'काष्ठगृहं युष्मत्पुत्राणाम्' इत्यादौ काष्ठशब्दस्य Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २१-२२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १६ गृहमिति विभक्त्या पदत्वे ततः परस्य युष्मदः स्थाने पुत्राणामिति विभक्त्या सह वसादेशः स्यादित्य तव्याप्तिः 'ददाति नः शास्त्रम्' इत्यादौ च ददातीत्यादेविभक्तिसंज्ञकत्वेन पदा भावान्नो न स्यादित्यतिव्याप्तिः, इति ते [अतिव्याप्त्यव्याप्ती] मा भूतामित्यन्तग्रहणम् ।। २०॥ नाम सिदयव्यञ्जने ॥ १. १. २१ ॥ सिति प्रत्यये यकारवजिते व्यञ्जनादौ च परे पूर्ण नाम पदसंज्ञं भवति । भवदीयः, ऊर्णायुः, अहंयुः, अहँय्युः, शुभंयुः, शुभैय्युः । व्यञ्जने-- पयोभ्याम्, पयस्सु, राजता, दृक्त्वम्, राजकाम्यति । नामेति किम् ? धातोर्मा भूत्-वच्मि, यज्वा । सिदय्व्यञ्जन इति किम् ?, भवन्तौ, राजानौ। यवर्जनं किम् ? वाचमिच्छति वाच्यति । अन्तर्नतिन्यैव10 विभक्त्या तदन्तस्य पदत्वे सिद्धे सिद्ग्रहणं नियमार्थम्, तेन प्रत्ययान्तरे न भवति-सौश्रुतम्, भागवतम् ।। २१ ।। न्या० स०-नामे०–नमति धातवे इति नाम, नमति प्रह्वीभावं गच्छति अर्थ प्रति इति वा “सात्मन्नात्मन् ०" [ उणा० ६१६. ] इति साधुः। वेति विशिष्टार्थप्रतीति जनयतीति विः “नी-वी-प्र-हृभ्यो डित्" [ उणा० ६१६. ] इति डित् इः । ननु 'नाम15 सिदयव्यञ्जने' इत्येव क्रियतां कि यवर्जनेन ? न च 'वाच्यति' इत्यादावपि पदसज्ञाप्राप्तिरिति वाच्यम्, यतो व्यञ्जनद्वाराऽनेनैव 'राजीयति' इत्यादौ पदत्वेऽपि सिद्ध “नं क्ये" [ १. १. २२. ] इति सूत्रं नियमसूत्रतया व्याख्यास्यते-नकारान्तमेव क्यप्रत्यये पदसंज्ञं भवति नान्यद् इति, नान्तं क्यप्रत्यय एव पदम्, न प्रत्ययान्तरे, इति विपरीतनियमोऽपि कथं न भवति ? तथा च 'राजा, सीमा' इत्यादावपि पदत्वं न स्यादिति चेत्, तन्न-“युवा20 खलति०" [ ३. १. ११३. ] इत्यादिनिर्देशात् । सत्यम्-यवर्जनाभावे 'सत्सु साधु-सत्यम्' इत्यादिषु “नाम सिद०" [१.१.२१. ] इति पदसंज्ञा स्यादित्येतदर्थं यवर्जनमिति । राजतेति, सौश्रुतमित्यादौ नियमस्य चरितार्थत्वात्, पयोभ्यामित्यादौ च 'अय्व्यञ्जने' इत्यस्य, राजता, दृक्त्वपित्यत्रोभयप्राप्ती स्पर्धे परम [ "स्पर्द्ध" ७. ४. ११६. ] इति न्यायाद् व्यखनाश्रितं पदत्वं भवति ।। २१ ।। 25 नं क्ये ॥ १. १. २२ ॥ क्य इति उत्सृष्टानुबन्धानां क्यन्-क्यब्यङ्षां ग्रहणम्, नकारान्तं नाम क्ये प्रत्यये परे पदसंज्ञं भवति । राजानमिच्छति क्यन्-राजीयति । राजेवाऽऽचरति क्यङ्-राजायते। अचर्म चर्म भवति क्यश् चर्मायति, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] बृहद्वृत्ति - लवन्यास संवलिते चर्मायते, पदत्वान्नलोपः । नमिति किम् ? सामनि साधुः सामन्यः । एवं वेमन्यः । वचनम् ।। २२ । [पा० १. सू० २३-२४.] वाच्यति । क्य इति किम् ? प्रयिति प्रतिषेधात् पूर्वेणाऽप्राप्ते न्या० स० नं क्य० - 'क्ये' इति सामान्यनिर्देशेऽपि क्या-क्यपोर्नामाधिकारेण व्यावर्तितत्वाद् अन्यस्य निरनुबन्धस्याभावाद् उत्सृष्टानुबन्धस्य क्यमात्रस्य ग्रहण- 5 मित्याह वय इत्यादि । चर्मायतीति - चर्मणः प्रागतत्तत्त्वासंभवात् व्यर्थाभावे क्यङष् न प्राप्नोतीति तद्वद्वत्तेवर्मन् शब्दात् प्रत्ययः, अचर्मवान् चर्मवान् भवतीति, यथा-निद्रायतीत्यादि । श्रयितीति - अन्तर्वर्तिन्या विभक्त्या " तदन्तं पदम् " [ १.१.२० ] इति पदत्वं प्राप्तम्, तत् सित्येवेति नियमेनापोदितमपि 'व्यञ्जने' इत्यंशेन पुनः प्रसूतम्, ततः 'अय्' इति प्रतिषेधेन प्रतिषिद्धमनेन प्रतिप्रसूयते ।। २२ । 10 नस्तं मत्वर्थे ॥ १. १. २३ ।। सकारान्तं तकारान्तं च नाम मत्वर्थे प्रत्यये परे पदसंज्ञं न भवति । यशस्वी । मतोरपि मत्वर्थाव्यभिचाराद् मत्वर्थशब्देन ग्रहणम् । पेचुष्मान्, विदुष्मान्, यशस्वान्, तडित्वान्, मरुत्वान्, विद्युत्वान् । स्तमिति किम् ? तक्षवान्, राजवान् । मत्वर्थ इति किम् ? पयोभ्याम् । अय्व्यञ्जन 15 इति प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् ।। २३ ।। न्या० स० - न स्त० - मतुर्मत्वर्थोऽर्थो यस्येति समानाधिकरणो बहुव्रीहिः, यथा-उष्ट्रो मुखमस्येत्युष्ट्रमुख इत्यत्र, नहि प्राणी प्राण्यन्तरस्य साक्षान्मुखं भवतीति सामर्थ्यात् सादृश्यप्रतीतिः, समग्रेण चोष्ट्रेण सह सादृश्याभावादुष्टशब्दोऽवयवे बर्तते, मुखेनैव च मुखसादृश्यं प्रसिद्धमिति सामर्थ्यान्मुखमिव मुखमस्येत्यर्थोऽवतिष्ठते; एवमिहापि मतुशब्दस्यार्थेन 20 सामानाधिकरण्यमनुपपद्यमानं मतुशब्दं मत्वर्थवृत्तिं गमयतीत्युक्तम् - मतोरपीति - मतुशब्दस्यापि मत्वर्थाव्यभिचाराद् मत्वर्थेन ग्रहणमिति । पेचुष्मानिति - "स्थानी वावर्णविधौ " [ ७. ४. १०६. ] इति न्यायेन प्रपदसंज्ञस्याऽऽदेशोऽप्यपदमित्युषादेशे कृते सन्तत्वाभावेऽन्यपदत्वात् "घुटस्तृतीय:" [ २.१.७६ ] इति षस्य डत्वं न भवति ।। २३ ।। मनुर्नभोऽङ्गिरो वति ॥ १.१.२४ ॥ मनुस् नभस् अङ्गिरस् इत्येतानि नामानि वति प्रत्यये परे पदसंज्ञानि न वन्ति । मनुरिव मनुष्वत्, एवम् - नभस्वत्, अङ्गिरस्वत् । पदत्वाभावाद् र्न भवति, षत्वं तु भवति ।। २४ ।। 25 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २५. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ २१ वृच्यन्तोऽसषे ॥ १. १. २५ ॥ परार्थाभिधानं वृत्तिः, तद्वाँश्च पदसमुदायः समासादिः, तस्या अन्तोऽवसानं पदसंज्ञो न भवति; 'असषे' सस्य षत्वे तु पदसंज्ञैव । परमदिवौ, श्वलिहौ, गोदुहौ, परमवाचौ, बहुदण्डिनौ । एषु पदत्वाभावादुत्व-ढत्वघत्व - कत्व- लुगादीनि न भवन्ति । वृत्तिग्रहणं किम् ? चैत्रस्य कर्म । अन्त- 5 ग्रहणं किम् ? राजवाक्, अत्र नलोपो भवति । वाक्- त्वक् स्र ुच इति त्रयाणां वृत्तौ न द्वयोः पृथग्व त्तिरिति मध्यमस्य निषेधो न भवति । अथ 'वाक्त्वचम्' इत्यत्र समासान्ते सति वृत्त्यन्तत्वाभावात् पदत्वं प्राप्नोति, तथा च कत्वं स्यात् उच्यते-समासात् समासान्तो विधीयत इति त्वचो वृत्त्यन्तत्वम् । असष इति किम् ? सिञ्चतीति विच् सेक्, दध्नः सेक् दधिसेक्, दधिसेचौ । ईषदून: 10 सेक्, बहुसेक्, बहुसेचौ । अत्र पदसंज्ञायां पदादित्वात् सकारस्य "नाम्यन्तस्था०” [२. ३. १५.] इत्यादिना षत्वाभावः सिद्धः । अन्तर्वर्तिन्या विभक्त े : स्थानिवद्भावेन पदत्वं प्राप्तमनेन निषिध्यते । न च सित्येवेति नियमेन तन्निवर्तयितुं शक्यम्, “प्रत्ययः प्रकृत्यादेः " [ ७. ४. ११५. ] इति हि यस्मात् समुदायात् प्रत्ययविधानं तस्यैव पदत्वं नियमेन निवर्त्यते, न तु तदवयवस्येति 15 ।। २५ ।। न्या० स०- - वृत्त्यन्त - वर्तनं वृत्तिः क्तिः, वर्तनव्यापारवतीत्यर्थः, वर्तनं तु अवयवार्थापेक्षया परस्य समुदायार्थस्य प्रतिपादनम् ; यद्वा 'वर्तिषीष्ट - परार्थमभिधेयाद्' इत्याशास्यमाना वृत्तिः कर्तरि तिक्; यद्वा वर्तन्ते स्वार्थपरित्यागेन पदान्यत्रेति आधारे तो वृत्तिः पदसमुदायादिरूपा । साधा - समासवृत्तिः १ तद्धितान्तवृत्तिः २ नामधातु - 20 वृत्तिश्चेति; 'राजपुरुषः, श्रौपगवः, पुत्रकाम्यति' इत्यादि । परार्थाभिधानमिति-अवयवार्थापेक्षया परोऽर्थः समुदायार्थः, यद्वा अवयवपदापेक्षया परोऽर्थः समुदायार्थः, यद्वा अवयवपदापेक्षया समुदायः परमदिव्लक्षणः परस्तस्यार्थः तस्याभिधानम् । अनेकार्थत्वात् परार्थाभिधानेऽपि वृत्तिशब्दः । श्रवसानमिति - श्रवसीयतेऽस्मिन् इत्यवसानम् । लीढ इति लिहौ, क्विप्, शुनो लिहौ श्वलिहौ “षष्ठ्ययत्नाच्छेषे" [ ३. १. ७६ ] इति समास:, इति 25 कर्तव्यम्, न तु श्वानं लीढ इति, यतस्तस्मिन् कृते *गतिकारक इति क्विबन्तेन लिह इत्यनेन समासे सति लिह इत्यस्याविभक्त्यन्तत्वेन पदत्वप्राप्तिरेव नास्तीति । लुगादीनीति - प्रदिशब्दाद ढत्वे सत्यस्यैव डत्वम्, धत्वे सति " गडदबादे: ० " [ २.१.७७. ] इति दस्य धत्वम्, कत्वे सति गत्वम्, लुगभावे "ह्रस्वान्ङणनो द्व” [ १. ३. २७. ] इति द्वित्वं च न भवति । राजवागिति - श्रत्रान्तग्रहणात् पूर्वस्य पदत्वे सति नलोपः, तथाऽवयवाश्रित- 30 A Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] बृहद्वृत्ति - लवन्याससंवलिते [ पा० १. सू० २६. ] पदत्वप्रतिवेवेऽपि समुदायविभक्त्याश्रितं पदत्वमस्तीति कत्वं बभूवेति । वाक्-स्त्रक्-त्र ुच इति - पत्र वाक्शब्दापेक्षया त्वक्शब्दो वृत्त्यन्त इति परस्याऽऽशयः । त्वक्त्वचमिति प्रत्र समासान्ते कृते वृत्तिरकारान्ता भवति; न च तत्र त्वगिति वृत्त्यन्तः, ततः “वृत्त्यन्तोऽसषे” [ ११२५ ] इति पदत्वप्रतिषेधस्त्वचो न प्राप्नोति । समाधत्ते - उच्यत इत्यादिना । अयमर्थः समासात् समासान्तो विधीयमानस्तस्यैवान्तत्वं व्याहन्ति, न तु तदवयवस्य त्वचः, 5 तस्य समासावयवत्वात्, नहि समुदायावयवोऽवयवस्यावयवो भवति । यद्व ेत्थं व्याख्यासमासशब्देन समासावयवोऽभिधीयते, ततः समासावयवात् त्वचः समासान्तो विधीयत इति भवत्वद्वृत्त्यन्तत्वं त्वचस्तथापि सित्येवेति नियमेन पदत्वं निवर्त्यत इति भावः । अथवा समासात् परः समासान्तो विधीयते, ततः स्यादेः पूर्वस्त्वच एव परो भवति, इति प्रस्तु प्रवृत्त्यन्तत्वं त्वचः, तत्र च पदत्वप्राप्तिरेव नास्तीति कत्वाभाव इति । समासशब्दस्तु 10 लक्ष्यवशात् क्वचित् समासावयवं क्वचित् समासं चाऽऽहेति । दधिसेगिति सिञ्चतीति विच् [सेक्, ] ततो दध्नः सेगित्येव कार्यम्, दधि सिञ्चतीति तु न, यतः 'सोपपदात् सिचो विज् नेष्यते' इति न्यासः ।। २५ ।। सविशेषणमाख्यातं वाक्यम् ॥ १.१. २६ ॥ त्याद्यन्तं पदमाख्यातम् । साक्षात् पारम्पर्येण वा यान्याख्यातविशेषणानि 15 तैः प्रयुज्यमानैरप्रयुज्यमानैर्वा सहितं प्रयुज्यमानमप्रयुज्यमानं वाऽऽख्यातं वाक्यसंज्ञं भवति । धर्मो वो रक्षतु, धर्मो नो रक्षतु, साधु वो रक्षतु, साधु नो रक्षतु, उच्चैर्वो वदति, उच्चैर्नो वदति, भोक्तुं त्वा याचते, भोक्तुं मा याचते, शालीनां ते प्रोदनं ददाति, शालीनां मे श्रोदनं ददाति, अप्रयुज्यमानविशेषणम् - लुनीहि३, पृथुकाँव खाद, पुनीहि ३, सक्तंश्च पिब । अप्रयुज्यमान -20 माख्यातम् - शीलं ते स्वम्, शीलं मे स्वम् । अर्थात् प्रकरणाद् वाऽऽख्यातादेर्गतावप्रयोगः । लोकादेव वाक्यसिद्धौ साकाङ्क्षत्वेऽप्याख्यातभेदे वाक्यभेदार्थं वचनम्, आख्यातमित्यत्रैकत्वस्य विवक्षितत्वात् । तेन श्रोदनं पच, तव भविष्यति, मम भविष्यति पच, तव भविष्यति, मम भविष्यति ओदनम्, तव भविष्यति, मम भविष्यतीत्यादौ श्रूयमाणे गम्यमाने वाऽऽख्यातान्तरे भिन्नवाक्यत्वाद् 25 वस्-नसादयो न भवन्ति । लौकिके हि वाक्येऽङ्गीक्रियमाणे प्रख्यात भेदेऽप्येकवाक्यत्वाद् वस्–नसादयः प्रसज्येरन्निति । कुरु कुरु नः कटमित्यादौ तु कृते द्विर्णचनेऽर्थाभेदादेकमेवाख्यातमित्येकवाक्यत्वाद् वस् - नसादयो भवन्ति । वाक्यप्रदेशाः - “पदाद् युग्विभक्त्यैकवाक्ये वस्नसौ बहुत्वे " [२. १. २१ ] इत्यादयः ।। २६ ।। 30 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ २३ न्या० स०-सविशेषण-पाख्यायते स्म क्रियाप्रधानत्वेन साध्यार्थाभिधायितया वा इत्याख्यातम्, तच्च त्याद्यन्तमिति । क्रियोपलक्षणं चैतत्, तेन 'देवदत्तेन शयितव्यम्' इत्याद्यपि वाक्यं भवति । साक्षादित्यादि-यत् क्रियायाः साधनस्य वा तदतदात्मनोऽतद्र पादव्यवधानेन व्यवच्छेदकं क्वचित् तत् साक्षाद विशेषणम्, यत् तद्विशेषणस्य विशेषणं तत् पारम्पर्येण । 'धर्म' इत्यादौ यत्र क्रियापदं कर्तरि तत्र कर्ता क्रियापदस्य समानाधिकरणं 5 विशेषणमन्यानि व्यधिकरणानि, कर्मणि तु क्रियापदे कर्म समानाधिकरणम् । साधु वो रक्षत्वित्यादौ साध्विति रक्षणादिक्रियायाः समानाधिकरणम्, रक्षत्वित्यादिक्रियापदस्य तु व्यधिकरणमिति । शालीनां ते इति-अत्रौदनस्य साक्षाद विशेषणस्य विशेषणत्वाच्छालीनामिति पारम्पर्येण विशेषणम् । शीलं ते स्वमिति-अत्रास्तीत्यादि क्रियापदं न प्रयुज्यते परं तस्याप्रयुज्यमानस्यापि स्वमिति समानाधिकरणम् । ननु शब्द-10 प्रयोगोऽर्थप्रतिपत्त्युपायः, तस्य चाप्रयुज्यमानस्यापि विशेषण-विशेष्यभावेऽतिप्रसङ्गः, अप्रयुज्यमानत्वाविशेषात् सर्वं सर्वस्य विशेषणं विशेष्यं च स्यात् । किञ्च, यद्यप्रयुज्यमानमपि शब्दरूपं विशेष्यं विशेषणं वा गमयेत् तदाऽनर्थकः सर्वत्र तत्प्रयोग इत्याह-अर्थात इत्यादि। लोकादेवेति-लोको हि साकाङ क्षत्वे सति क्रियाभेदेऽप्येकवाक्यत्वं प्रतिपद्यत इति साकाङ क्षत्वेऽपि क्रियाभेदे वाक्यभेदार्थं वचनमिति भावः । कुरु कुरु न इति-अत्र 15 युगपद्वाक्यद्वयप्रयोग इति एकवाक्यत्वाभावान्नसादेशस्य न प्राप्तिरिति पराभिप्रायः ।। २६ ।। अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम ॥ १. १. २७ ॥ अर्थोऽभिधेयः-स्वार्थः, द्रव्यम्, लिङ्गम्, संख्या, शक्तिरिति, द्योत्यश्च समुच्चयादिः । तद्वच्छब्दरूपं धातुविभक्त्यन्त वाक्यजितं नामसंज्ञं भवति 120 व क्षः, प्लक्षः, शुक्लः, कृष्णः, डित्थः, डवित्थः, स्वः, प्रातः, धवश्च खदिरश्च । धातु-विभक्तिवर्जनं किम् ? अहन्, वृक्षान्, अयजन्; अत्र नामत्वाभावे "नाम्नो नोऽनह्नः" [२. १. ६१.] इति नलोपो न भवति । विभक्त्यन्तवर्जनाच्चाऽऽबादिप्रत्ययान्तानां नामसंज्ञा भवत्येव । प्राप्-अजा, बहुराजा। डी-गौरी, कुमारी, डायनि-गाायणी, गौकक्ष्यायणी। ति-25 युवतिः । ऊ-ब्रह्मबन्धूः, करभोरू: । कृत्-कारकः, कर्ता, भिनत्तीति भिद्; एवं छित् । तद्धित:-औपगवः, आक्षिकः । वाक्यवर्जनं किम् ? साधुर्धर्मं ब्रूते । अर्थवत्समुदायस्य वाक्यस्य नामसंज्ञाप्रतिषेधात् समासादेर्भवत्येव-चित्रगुः, • राजपुरुषः, ईषदपरिसमाप्तो गुडो बहुगुडो द्राक्षा । अर्थवदिति किम् ? वनम्, धनम् ; नान्तस्यावधेर्मा भूत्, नामत्वे हि स्याद्युत्पत्तौ पदत्वान्नलोपः स्यात् ।30 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] बृहद्वृत्ति - लवन्याससंवलिते [पा० १. सू० २७.] यदाऽनुकार्यानुकरणयोः स्याद्वादाश्रयणेनाभेदविवक्षा तदाऽर्थवत्त्वाभावान्न भवति नामसंज्ञा; यथा-गवित्यमाहेति ; यदा तु भेदविवक्षा तदाऽनुकार्येणार्थेनार्थवत्त्वाद् भवत्येव-पचतिमाह, चः समुच्चये, “नेर्विश:" [३. ३. २४.] “परावेर्जेः” [३. ३. २८ . ] इत्यादि । नामप्रदेशाः - " नाम सिदय्व्यञ्जने” [१. १. २१.] इत्यादयः ।। २७ ।। T 5 विशिष्टोऽर्थोऽनेनेति बाहुलकात् करणेऽपि 10 न्या० स० - श्रधातु० - उच्यते घ्यरिण वाक्यम्, कर्मरिण तु प्रतीतमेव । अर्थो द्वधा - अभिधेयो द्योत्यश्व । तत्राभिवेयः स्वार्थादिभेदात् पञ्चधा, द्योत्यश्व समुच्चयादिरिति । यद्वा चकारादिना द्योत्स्यापि समुच्चयादेः समासादिनाऽभिधीयमानत्वादभिवेयत्वमस्तीत्याह - द्योत्यश्चेत्यादि - अभिवेय इति शेषः, न केवलं स्वार्थादिरभिवेयो द्योत्यश्च समुच्चयादिरभिवेय इति चार्थ: 110 समुच्चयादिरिति प्रादिपदाद् 'वा विकल्पादी' 'एवोऽवधारणे' इत्यादि बोध्यम् । तथा द्योतकानां विशेषणं नास्ति, यथा- 'घटश्च भव्यम्' इति । तथा चादीनां स्वार्थोऽपि द्योत्यतया न वाचकतयेत्ये कोऽप्यभिधेयो नास्ति । स्वरादीनां तु लिङ्गसंख्ये न स्तः । ननु 'श्रहन्' इत्यत्र विभक्त्यन्तद्वारेणैव नामत्वं न भविष्यति किं धातुवर्जनेन ? सत्यम् - तथापि 'हन्ति' इत्यत्र धातुवर्जनाभावे विभक्त ेः प्राक्तनस्य 'हन्' इत्यस्य नामत्वे " नाम सि० " 15 १. १. २१. ] इति व्यञ्जनद्वारा पदत्वे च नलोपः स्यादिति धातुवर्जनमिति । अथ 'वृक्षान्' इत्यत्र नकारविधानसामर्थ्यादेव नलुग् न भविष्यति किं विभक्तिवर्जनेनेति ? सत्यम्-‘कांस्कान्' इत्यादी "शसोडता०" [ १. ४. ४९ ] इति नविधानं चरितार्थमित्यत्र नलोपः स्याद् इति । ननु 'साधुर्घमं ब्रूते' इत्यत्र विभक्त्यन्तत्वादेव नामत्वं न भविष्यति किं वाक्यवर्जनेन ? सत्यम् - " प्रत्ययः प्रकृत्यादेः " [ ७. ४. ११५. ] इति परिभाषया 20 ब्रू धातोरेव विभक्त्यन्तत्वं न तु समग्रवाक्यस्य ततो वाक्यस्य नामत्वे साधुर्धर्मं ब्रूते इत्येवंरूपाद् वाक्याद् विभक्तावनिष्टरूप प्रसङ्ग इति । सपा सादेभवत्येवेति अन्यथा ह्यर्थवच्छ्रब्दरूपस्य नामत्वे विधीयमानेऽर्थवत्समुदायरूपस्य वाक्यस्य प्रसङ्ग एव नास्ति किं वाक्यवर्जनेन ? ततश्च तदेव वाक्यवर्जनं बोधयति - समासादे: समुदायस्य भवत्येवेति । ननु धातु - विभक्तीत्यत्र पर्युदासाश्रयणादर्थवत एव नामत्वं भविष्यति नार्थोऽर्थवदित्यनेन, 25 सत्यम् - प्रर्थवदिति संज्ञिनिर्द्देशार्थम् । पर्युदासाऽऽश्रयणे हि केन धर्मेण सादृश्यमाश्रीयत इत्यप्रतिपत्तिः स्यात, ततश्चानर्थकानामपि धर्मान्तरेण सदृशत्वे नामसंज्ञाप्रसङ्ग इत्याहअर्थवदिति । व्युत्पत्तिपक्षाऽऽश्रयणे 'वन' इत्यादेरखण्डस्यैवार्थवत्त्वं न तु तदवयवस्य 'वन्' इत्यादेर्नान्तस्येति; व्युत्पत्तिपक्षे तु धात्वर्थेनार्थवत्तायामपि धातुद्वारेणैव वर्जनसिद्धिरिति । ननु 'गौः' इति वक्तव्ये शक्तिवैकल्याद् 'गो' इति केनचिदुक्तम्, तत्समीपवर्ती 30 तदुक्तमपरेण पृष्टः सन्ननुकरोति तदा तदनुकरणस्य नामसंज्ञा स्याद् वा नवेत्याहयदेत्यादि । अनुकार्येणेति-वर्णावलीरूपेणेत्यर्थः ।। २७ ।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २८-३०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ २५ शिघु ॥ १.१.२८ ॥ जस्-शसादेशः शिर्घुट्संज्ञो भवति । पद्मानि तिष्ठन्ति, पद्मानि पश्य । घुट्प्रदेशा:- " घुटि" [१. ४. ६८. ] इत्यादयः ।। २८ ।। पुं-स्त्रियोः स्यमैौजस् ॥ १.१.२६ ।। रिति प्रथमा द्वितीयाद्विवचनयोरविशेषेण ग्रहणम् । सि अम् औ २5 जस् इत्येते प्रत्ययाः पुंलिङ्ग स्त्रीलिङ्ग च घुट्संज्ञा भवन्ति । राजा, राजानम्, राजानौ तिष्ठतः, राजानौ पश्य, राजानः । स्त्रियाम् -सीमा, सीमानम्, सीमानौ तिष्ठतः, पश्य वा, सीमानः । “नि दीर्घः” [१. ४. ८५. ] इति दीर्घः । पुं-स्त्रियोरिति किम् ? सामनी, वेमनी; घुट्त्वाभावाद् दीर्घो न भवति । किं पुनः पुमान् स्त्री वा ? लिङ्गम् । किं पुनस्तत् ? अयम्, इयम्, 10 इदम् इति यतस्तत् पुमान् स्त्री नपुंसकम् इति लिङ्गम् । तच्चार्थधर्म इत्येके, शब्दधर्म इत्यन्ये, उभयथापि न दोषः ।। २६ ।। न्या० स०- - पुंस्त्रियोः ० - अलौकिकोऽय निर्देशः । अन्यथा पुमांश्व स्त्री चेति कृतेSत्वात्स्त्रीशब्दस्य प्राग्निपाते स्त्रियाः पुंसो द्वन्द्वाच्च' [ ७. ३. ९६. ] इति समासान्ते च स्त्रीपुं मयोरिति स्यात् । अनेन चैतज्ज्ञाप्यते क्वचिदलौकिको निर्देशो भवतीति । स्यमौज-15 सिति । अत्र व्यतिक्रमनिर्देश एवावृत्यौकारद्वयं ग्रहणं साधयति । तथाहि श्रच प्रश्च श्रमौ । ततः सिश्च प्रमौ च जस् चेति कृतेऽम्सहचरितस्य द्वितीयाद्विवचनस्य ग्रहः । त्या तु व्याख्याने श्रश्व जस् च श्रौजस् । सिव श्रम् च प्रजस्चेति कृते जस् साहचर्यात्प्रथमाद्विवचनस्य ग्रहः । एकशेषो वा क्रियते । श्रश्च श्रश्व श्रावो । ततः सिश्च श्रम् च प्रवौ च जस् च तत्तथेति, इत्याह श्रौरिति । 20 स्वरादयोऽव्ययम् ॥ १. १. ३० ।। स्वः सुखयति, स्वरागच्छति । एहि जाये ! “छायेव या स्वरादयः शब्दा अव्ययसंज्ञा भवन्ति । स्वा रोहाव, स्वः संजानीते, स्वः स्पृहयति, श्स्वर्जलधेर्जलेषु” । स्वर्णसति, अन्तर्यामि अन्तर्गसति । 'प्रत्युच्चसौ, प्रत्युच्चैस ः ' इत्यत्रोच्चैरतिक्रान्तो यस्तदभिधायकस्य पूर्णपदार्थप्रधानस्य समासस्य संबन्धी 25 स्यादिर्नोच्चैः शब्दस्य, तेन "अव्ययस्य" [ ३. २. ७.] इति लुप् न भवति, 'परमोच्चैः, परमनीचं :' इत्यत्र तु उत्तरपदार्थप्रधानत्वात् समासस्याव्यय Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] बृहद्वृत्ति-लवुन्याससंवलिते . [पा० १. सू० ३०.] संबन्ध्येव स्यादिरिति भवत्येव । अन्वर्थसंज्ञा चेयम्-'अव्ययम्' इति [तेन] । लिङ्ग-कारक-विभक्तिनानात्वेऽपि न नानारूपतां प्रतिपद्यत इति, यदुक्तम्-- "सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम्" ॥5॥ अन्वर्थाश्रयणे च स्वराद्यव्ययमव्ययं [स्वरादि अव्ययम्-अव्ययं] 5 भवतीति स्वरादेविशेषणत्वेन तदन्तविज्ञानात् परमोच्चैः परमनीचैरित्यादावप्यव्ययसंज्ञा भवति । स्वर्, अन्तर्, सनुतर्, पुनर्, प्रातर्, सायम्, नक्तम्, अस्तम्, दिवा, दोषा, ह्यस्, श्वस्, कम्, शम्, योस्, मयस्, विहायसा, रोदसी, प्रोम्, भूस्, भुवस्, स्वस्ति, समया, निकषा, अन्तरा, पुरा, बहिस्, अवस्, अधस्, असाम्प्रतम्, अद्धा, ऋतम्, सत्यम्, इद्धा, मुधा, मृषा, वृथा, वृषा,10 मिथ्या, मिथो, मिथु, मिथस्, मिथुस्, मिथुनम्, अनिशम्, मुहुस्, अभीक्ष्णम्, मक्षु, झटिति, उच्चैस्, नीचैस्, शनैस्, अवश्यम्, सामि, साचि, विष्वक्, अन्वक्, ताजक्, द्राक्, स्राक्, ऋधक्, पृथक्, धिक्, हिरुक्, ज्योक्, मनाक्, ईषत्, जोषम्, ज्योषम्, तूष्णीम्, कामम्, निकामम्, प्रकामम्, अरम्, वरम्, परम्, चिरम्, पारात्, तिरस्, मनस्, नमस्, भूयस्, प्रायस्, प्रबाहु, प्रबाहुक्,15 प्रबाहुकम्, आर्य, हलम्, आर्यहलम्, स्वयम्, अलम्, कु, बलवत्, अतीव, सुष्ठु, दुष्ठु, ऋते, सपदि, साक्षात्, सन्, प्रशान्, सनात्, सनत्, सना, नाना, विना, क्षमा, शु, सहसा, युगपत्, उपांशु, पुरतस्, पुरस्, पुरस्तात्, शश्वत्, कुवित् (द्), आविस्, प्रादुस्, इति स्वरादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेनान्येषामपि चादिषूपात्तानामनुपात्तानां च स्वरादिसधर्मणामव्ययसंज्ञा भवति । स्वरादयो20 हि स्वार्थस्य वाचका न तु चादिवद् द्योतका इति । अव्ययप्रदेशाः"अव्ययस्य" [३. २. ७.] इत्यादयः ।। ३० ।। __न्या० स०-स्वरे०-प्रत्युच्चसाविति-ननु पूर्वपदमप्यत्राव्ययम्, ततस्तत्संबन्धित्वाल्लुप् प्राप्नोतीति, सत्यम्-अतिक्रान्तेऽर्थे लिङ्ग-संख्यायोगादतिशब्दः सत्त्वे वर्तते इति नाव्ययम् । "अतिरतिक्रमे च" [३. १. ४५.] इत्यत्र बाहुलकात् क्वचित् समासाभावेऽति 25 स्तुत्वेत्यादौ क्रियासंबद्धस्यातिशब्दस्य द्योतकत्वमेवेति । परमनीचैरित्यत्र त्वित्यादि-अत्र तुशब्दो विशेषणार्थः, पूर्वस्माद् विशेषं द्योतयति, तेन किं सिद्धम् ? यत्रानुपसर्जनः स्वराद्यन्तो भवति तत्रावयवः समुदायश्चोभयमप्यव्ययं भवत्येव, समासस्योत्तरपदार्थप्रधानत्वात् । ' Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ २७ ननु भवत्वेवं तथापि संज्ञाविधौ तदन्तप्रतिषेधस्य ज्ञापितत्वाद *ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधि:* इति प्रतिषेधाच्च कथं परमोच्चैरित्यादौ तदन्तस्याव्ययसंज्ञेत्याह-प्रन्वर्थाश्रयणे चेत्यादि-न व्येति-न नानात्वं गच्छति सत्त्वधर्मान्न गृह्णाति इत्यन्वर्थसिद्धिः । अयमर्थः-यदन्वर्थसंज्ञाकरणाद् द्वितीयमव्ययमित्युपस्थापितं तद् विशेष्यत्वेन विज्ञायते, तस्य स्वरादीति विशेषणत्वेन, ततश्च "विशेषणमन्तः" [७. ४. ११३.] इति न्यायात् 5 तदन्तविज्ञानम', केवलस्य तु व्यपदेशिवद्भावात्, परमोच्चरित्यादावयव्ययसज्ञा वि इत्यर्थः। यद् अव्ययम् अक्षयं शब्दरूपं किंविशिष्टम् ? स्वरादि स्वराद्यन्तं तदव्ययसंज्ञं भवतीति च सूत्रार्थः समजनि । अथाव्ययार्थाः-१ खर् दिवि । २ अन्तर् मध्ये । ३ सनुतर् अधोभागे। ४ पुनर् भूयोऽर्थे । ५ प्रातर् प्रभाते। ६ सायं संध्यायाम् । ७ नक्त रात्रौ । ८ अस्तम् शैविशेषादर्शनयोः। ६ दिवा दिनम् । १० दोषा रात्रिः । ११10 ह्यस् अतीतदिनम् । १२ श्वस् भविष्यदिनम् । १३ कम् मस्तके । १४ शं सुखे । १५ योस् विषयसुखम् । १६ मयस् सुखम् । १७ विहायसः गगनम् । १८ रोदसो द्यावाभूमी । १६ प्रोम् अङ्गीकारे । २० भूस् भूमिः । २१ भूवस् गगने। २२ स्वस्ति श्रेयसि । २३-२४ समया निकषा द्वयमपि सामीप्ये । २५ अन्तरा मध्ये । २६ पुरा पूर्वार्थे । २७ बहिस् कालवाची । २८-२६ अवस् अधस् अधोभागे । ३० असांप्रतम् अयुक्तम् । ३१ अद्धा निश्चये 15 कालवाची च। ३२-३३ ऋतम्, सत्यम् प्राकाश्ये । ३४-३५ इद्धा, मुधा वैफल्ये । ३६-३७-३८ मृषा, वृथा, मिथ्या अनृते । ३६ मिथो रहः सहार्थयोः। ४०-४१-४२-४३ मिथु, मिथस्, मिथुस्, मिथुनम् प्रीतिबन्धे। ४४ अनिशम् अनवरतम् । ४५-४६ मुहुस्, आभीक्ष्ण्यम् पौनः पुन्यम् । ४७ मङ क्षु शीघ्रम् । ४८ झटिति सत्वरे मध्ये। ४६ उच्चैस् उच्चे । ५० नीचैस् नीचे । ५१ शनैस् मन्दे । ५२ अवश्यम् निश्चये। ५३ सामि अद्ध 120 ५४ साचि वक्रत्वे । ५५ विष्वक् सामस्त्ये। ५६ अन्वक् प्रानुकल्ये पश्चादर्थे वा । ५७-५८-५९ ताजक्, द्राक्, स्राक् शीघ्र। ६० ऋधक मत्स्ये । ६१ पृथक् भिन्न । ६२ धिक निंदायाम् । ६३-६४ हिरुक, ज्योक वियोग-हिंसा-वर्जनेषु । ६५ मनाक् कालाल्पत्वे । ६६ ईषत् अल्पे। ६७-६८-६९ ज्योषम्, जोषम् तूष्णीम् मौने । ७०७१-७२ कामम्, निकामम्, प्रकामम् अतिशये। ७३ अरम् शीघ्रम् । ७४ वरम् मना-25 गिष्टे । ७५ परम् केवले । ७६ पारात् दूरान्तिकयोः । ७७ तिरस् व्यवधाने। ७८ मनस् नियमे। ७९ नमस् नतौ। ८० भूयस् प्राचुर्य। ८१ प्रायस् बाहुल्ये। ८२ प्रबाह ऊर्थेि । ८३ प्रबाहक समकाले । ८४ प्रबाहकम् प्रीतिबन्धे । ८५ ार्य प्रीतिसंबोधने । ८६ हलम् प्रतिषेधविषादयोः। ८७ आर्यहलम् विशिष्टशीले। ८८ स्वयम् आत्मनि। ८६ अलम् अतिशये। ९० कु कुत्सायाम् । ६१ बलवत् प्रकाश्ये ।30 ६२ अतीव अतिशये । ६३ सुष्ट शोभनत्वे । ६४ दुष्अ शोभनत्वे । ६५ ऋते विनार्थे । १६ सपदि झोटीत । ६७ साक्षात् प्रत्यक्षं।६८-६९ सन् प्रशान् चिरतने । १०० सनात् हिंसायाम् । १०१-१०२ सनत्, सना कल्पने। १०३ नाना अनेकत्वे । १०४ विना १. "विज्ञानात्" । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते २८ ] [पा० १ सू० ३१.] १०६ शु पूजायाम् । अभावे । १०५ क्षमा सहने । १०७-१०८ सहसा, युगपत् एक-काले । १०६ उपांशु एकान्ते । ११०-१११-११२ पुरतस् पुरस्- पुरस्तात् अग्रार्थे । ११३ शश्वत् निरन्तरे । ११४ कुवित् योगप्रशस्तिभावेषु । ११५ ११६ श्राविस् - प्रादुस् द्वौ प्राकाश्ये । इति स्वरादय इति - इतिशब्द एवंप्रकारार्थः एवंप्रकाराः स्वरादयो गृह्यन्ते न त्वेतावन्त इत्यर्थः । यतः " इयन्त इति संख्यानं निपातानां न विद्यते । प्रयोजनवशादेते निपात्यन्ते पदे पदे" ।। १० ।। 5 प्राकृतिगरणार्थमिति - प्राक्रियतेऽनयेति प्रकृतिर्वणिकाप्रकारः, तस्या गरणस्तदर्थमिति । " अव्ययीभावस्य चाव्ययत्वं नाङ्गीकर्तव्यम्, तदङ्गीकारेण हि उच्चकैर्नीचकैरित्यादिवद् 'उपाग्नि, प्रत्यग्नि' इत्यत्रापि "अव्ययस्य को द च" [७. ३. ३१] इति श्रक् 10 प्रसज्येत । तथा उपकुम्भमन्यमित्यादौ 'दोषामन्यमहः' इत्यादिवद् मागमप्रतिषेधः स्यात् । थायीभावस्य " तृप्तार्थपूर्णाव्यय० " [३. १. ८५.] इति षष्ठीसमासप्रतिषेधोऽव्ययसंज्ञाफलमिति चेत् ? न तत्र समासकाण्डे बहुलाधिकारादेव सेत्स्यतीति । किञ्च, अव्ययीभाव इति महतीं संज्ञां यच्च कृतवान् श्राचार्यस्तज्ज्ञापयति क्वचिदव्ययत्वमपीति, तेन चैत्रस्योपकुम्भमित्यत्र न समासः ।। ३० ।। 15 चादयोsसच्वे ॥ १. १. ३१ ॥ सीदतोऽस्मिँल्लिङ्ग-सङ्ख्ये इति सत्त्वम्, लिङ्ग-सङ्ख्यावद् द्रव्यम्, इदम्तदित्यादिसर्वनामव्यपदेश्यं विशेष्यमिति यावत्; ततोऽन्यत्र वर्त्तमानाश्वादयः शब्दा अव्ययसंज्ञा भवन्ति, निपाता इत्यपि पूर्वेषाम् । वृक्षश्च प्लक्षश्च । असत्त्वे इति किम् ? यत्र षां सत्त्वरूपेऽनुकार्यादावर्थे वृत्तिस्तत्र मा भूत्-चः 20 समुच्चये । इव उपमायाम् । एवोऽवधारणे । च, ग्रह, ह, वा, एव, एवम्, नूनम्, शश्वत्, सूपत्, कूपत्, कुवित्, नेत्, चेत्, नचेत्, चरण, कच्चित्, यत्र, नह, नहि, हन्त, माकिस्, नकिस्, मा, माङ्, न, नञ्, वाव, त्वाव, न्वाव, वावत्, त्वावत्, न्वावत्, त्ौ, तुवै, न्ौ, नुवै, रै, नै, श्रौषट्, वौषट् वषट्, वट्, वाट्, वेट्, पाट्, प्याट्, फट्, हुंफट्, छंवट्, अध, आत्, स्वधा, स्वाहा, अलम्, चन, 25 हि, अथ, ओम्, अथो, नो, नोहि, भोस्, भगोस्, अघोस्, अङ्घो, हंहो, हो, अहो, आहो, उताहो, हा, ही, है, है, हये, अयि, अये, अररे, अङ्ग, रे, अरे, अवे, ननु, शुकम्, सुकम्, नुकम्, हिकम्, नहिकम्, ऊम्, हुम्, कुम्, उब् सुञ्, कम्, हम्, किम्, हिम्, अद्, कद्, यद्, तद्, इद्, चिद्, क्विद्, स्विद्, उत, बत, इव, तु, नु, यच्च, कच्चन, किमुत, किल, किङ्किल, किंस्वित्, उदस्वित्, 30 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३२.] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ २६ आहोस्वित्, अहह, नहवै, नौ, नवा, अन्यत्, अन्यत्र, शव, शप्, अथकिम्, विषु, पट्, पशु, खलु, यदिनाम, यदुत, प्रत्युत, यदा, जातु यदि, यथाकथाच, यथा, तथा, पुद्, अथ, पुरा, यावत्, तावत्, दिष्ट्या, मर्या, आम, नाम, स्म, इतिह, सह, अमा, समम्, सत्रा, साकम्, सार्धम्, ईम्, सीम्, कीम्, आम्, आस्, इति, अव, अड, अट, बाह्या, अनुषक् खोस्, अ, आ, इ, ई, उ, 5 ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, दुस् - एतौ रान्तावपि, आङ्, नि, वि, प्रति, परि, उप, अधि, अपि, सु, उद् अति, अभि इति चादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ३१ ।। वाचक न्या० स० - चादय - ० अनुकार्यादाविति प्रादिशब्दादत्युच्चैसावित्यत्र स्यातिशब्दस्य, चिनोतीति 'चः ' इत्येवं क्रियाप्रधानस्य च चशब्दस्य नाव्ययसज्ञेति 10 ।। ३१ ।। अधप्तस्वाद्या शसः ॥ १. १. ३२ ॥ क्व, कदा, धण्वर्जितास्तस्वादयः शस्पर्यन्ता ये प्रत्ययास्तदन्तं शब्दरूपमव्ययसंज्ञं भवति । देवा अर्जुनतोऽभवन्, अत्र षष्ठ्यन्ताद् “व्याश्रये तसुः " [ ७. २. ८१.] ततः; अत्र पित्तस्, तत्र, इह, एतर्हि, 15 अधुना, परारि, ऐषमः, कहि, यथा, कथम्, पञ्चधा, द्वधा, पञ्चकृत्वः, द्विः, सकृत्, बहुधा, प्राक्, दक्षिणतः, इदानीम्, सद्यः, परेद्यवि, पूर्वेद्युः, पश्चात्, पुरः, पुरस्तात्, उपरि, उपरिष्टात्, दक्षिणा, दक्षिणाहि, दक्षिणेन । द्वितीया करोति क्षेत्रम् । शुक्लीकरोति । अग्निसात् संपद्यते 120 देवत्रा करोति । बहुशः । प्रधरिणति किम् ? पथि धानि, संशयत्र धानि । आस इति किम् ? पचतिरूपम् ।। ३२ ।। उभयद्युः, परुत्, ऐकध्यम्, द्वैधम्, न्या० स० - अधरण ० - तस्वादयः प्रत्ययाः, ते च प्रकृत्यविनाभाविन इति तैः प्रकृतिरनुमीयते तस्याचं ते विशेषणत्वेनाऽऽश्रीयन्ते, ततः, “विशेषणमन्त:" [ ७. ४. ११३.] इति तदन्तविज्ञानं भवतीत्याह - तदन्तमिति । किश्च प्रत्ययस्यैवाव्ययत्वे अर्जुनत इत्यादौ25 `प्रत्ययमात्रादव्ययादर्थवत्त्वेन नामत्वे स्याद्युत्पत्तौ “प्रत्ययः प्रकृत्यादेः ” [ ७. ४. ११५. ] इति वचनात् प्रत्ययमात्रस्यैव प्रकृतित्वेन तदन्तत्वे पूर्वस्य च "नाम सिद०" [ १.१.३१. ] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते । [पा० १. सू० ३३-३४.] इति पदत्वे "सपूर्वात प्रथमान्ताद् वा" [२. १. ३२. ] इति विकल्पप्रसङ्गः, तस्मात् तदन्तः समुदाय एवाव्ययम्, न प्रत्ययमात्रमिति। अर्जुनत इति-अत्र सप्तम्येकवचनस्य लुप् ।। ३२ ।। विभक्तिथमन्ततसाद्याभाः ॥ १. १. ३३ ॥ विभक्त्यन्तप्रतिरूपकाः, थमवसाना ये तसादयः प्रत्ययास्तदन्तप्रतिरूपकाश्च शब्दा अव्ययसंज्ञा भवन्ति । अहंयुः, शुभंयुः । अस्तिक्षीरा ब्राह्मणी । कुतः, यथा, तथा, कथमिति । अहम् १; शुभम्, कृतम्, पर्याप्तम् २; येन, तेन, चिरेण, अन्तरेण ३; ते, मे, चिराय, अह्नाय ४; चिरात्, अकस्मात् ५; चिरस्य, अन्योन्यस्य, मम ६; एकपदे, अग्रे, प्रगे, प्राह णे, हेतौ, रात्रौ, वेलायाम्, मात्रायाम् ७ । एते प्रथमादिविभक्त्यन्तप्रतिरूपकाः । अस्ति,16 नास्ति, असि, अस्मि, विद्यते, भवति, एहि, ब्रूहि, मन्ये, शङ्क, अस्तु, भवतु, पूर्यते, स्यात्, पास, आह, वर्त्तते, नवर्त्तते, याति, नयाति, पश्य, पश्यत, प्रादह, आदङ्क, आतङ्क इति तिवादिविभक्त्यन्तप्रतिरूपकाः ।। ३३ ।। न्या० स०-विभक्ति-भावति-अत्र "तकु कृच्छ्रजीवने" इत्यस्य स्थाने दकुरिति पठन्ति ।। ३३ ।। वत्तस्याम् ॥ १. १. ३४ ॥ तत्-तस्याम्प्रत्ययान्तः शब्दोऽव्ययसंज्ञो भवति । वत्-तसिसाहचर्याद् 'आम्' इति तद्धितस्य "किंत्याद्येऽव्यय०" [७. ३. ८.] इत्यादिना विहितस्यामो ग्रहणम् । मुनेरहँ मुनिवद् वृत्तम्, “तस्याहे क्रियायां वत्" [ ७. १. ५१. ] इति वत् । क्षत्रिया इव क्षत्रियवद् युद्धयन्ते, "स्यादेरिवे"25 [ ७. १. ५२. ] इति वत् । पीलुमूलेनैकदिक्-पीलुमूलतो विद्योतते विद्युत्, "तसिः" [ ६. ३. २११. ] इति तसिः । उरसैकदिक्-उरस्तः, “यश्चोरसः" [ ६. ३. २१२. ] इति तसिः। अाम्-उच्चस्तराम्। उच्चस्तमाम् ।। ३४ ॥ 20 न्या० स०-वत्तस्याम०-पामिति षष्ठीबहवचनस्य तद्धितस्य परोक्षास्थान-30 निष्पन्नस्य चाविशेषेण त्रयाणामपि ग्रहणं प्राप्नोति, द्वयोरेव चेष्यतेऽतोऽतिव्याप्त्युपह Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १ सू० ३५-३६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रचब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ३१ ,, तत्वादलक्षणमेतद् इत्याह-वत्तसीति । तद्धितस्येत्युपलक्षणम्, ततः “धातोरनेकस्वरात् ०' [ ३. ४. ४६. ] इत्यादिना विहितस्याप्यामो ग्रहरणम् तेन पाचयाञ्चषेत्यादौ टालोपे पदत्वादनुस्वारसिद्धिः । न चोपलक्षणात् षष्ठीबहुवचनस्यापि ग्रहणं किं न स्यादिति वाच्यम्, यतो य आम् ग्रामेव भवति स एव गृह्यते, अयं तु नाम् साम् वा भवतीति । यद्वा वत्तसी अविभक्ती, तत्साहचर्यादामोऽपि प्रविभक्तरेव ग्रहरणम्, ततो दरिद्राश्वकृ-5 वद्भिरित्यत्र क्वसुस्थाननिष्पन्नस्य पचतितरामित्यत्र " किंत्याद्येऽव्यय०" [ ७.३. ८. ] इति विहितस्य च ग्रहणं भवति, यत एतावेव तयोर्वत्-तस्योरविभक्तित्वेन हिताविति व्युत्पत्त्या तद्धितावित्यभिधीयते । अस्मिश्च व्याख्याने "कित्याद्येऽव्यय०" [ ७. ३.८.] इत्यनेन इत्यन्तेन इदमेव सूत्रं संपूर्णं गृह्यते, प्रदिशब्देन तु "धातोरनेकस्वर०" [ ३. ४. ४६. ] इति विहितस्य क्वसु- कानस्थानस्येति । तथा दरिद्राञ्चकृवद्भिरित्यत्रामन्तस्याव्ययत्वेऽपि 10 कुत्सिताद्यर्थे "अव्ययस्य को द् च" [ ७. ३. ३१.] इति अक् न भवति, अपरिसमाप्तार्थत्वेनामन्तस्य कुत्सितार्थासंभवाद् इति । उच्चस्तरामिति - "क्वचित् स्वार्थे" [ ७. ३. ७. ] इति प्रकृष्टे चार्थे तरप् ।। ३४ ।। क्त्वातुमम् ॥ १. १. ३५ ।। क्त्वा, तुम्, अम् इत्येतत्प्रत्ययान्तं शब्दरूपमव्ययसंज्ञं भवति । क्त्वा - 15 कृत्वा, हृत्वा, प्रकृत्य, प्रहृत्य । तुम् - कर्त्तुम्, हर्त्तुम् । प्रमिति णम्ख्णमोरुत्सृष्टानुबन्धयोर्ग्रहणम्, न द्वितीयैकवचनस्य क्त्वा तुम्साहचर्यात् । यावज्जीवमदात् ।स्वादुंकारं भुङ्क्ते ।। ३५ ।। न्या० स० - क्त्वा तुम ० - क्त्वेति ककारोऽसंदेहार्थः, अन्यथा त्वा इति निर्देशे संदेहः स्यात् किमयं क्त्वाप्रत्ययस्य निर्देश: ? किं वा विदितं गोत्वं यकाभिस्ता विदित - 20 गोवा इति त्वप्रत्ययस्याबन्तस्य ? इति न द्वितीयैकवचनस्येति । द्वितीयैकवचनान्तस्याव्ययत्वे "अव्ययस्य को द च" [ ७. ३. ३१.] इति अक् स्यात् । तथा देवस्य दर्शनं कुवित्यादी "तृन्न दन्त० " [२.२ १०.] इत्यनेन षष्ठी न स्यात् । नन्वेवं ह्यस्तन्यद्यतन्यमन्तस्याव्ययत्वं कथं निषिध्यते ? सत्यम् - द्वितीयं च तदेकवचनं चेति विग्रहे तस्यापि संग्रहः, द्वितीयापेक्षया द्वितीयं चैकवचनं ह्यस्तन्यद्यतन्योरमिति ।। ३५ ।। गतिः ।। १.१.३६ ॥ गतिसंज्ञाः शब्दा अव्ययसंज्ञा भवन्ति । अदः कृत्य, अत्राऽव्ययत्वे "अतः 'कृ - कमि - कंस - कुम्भ - कुशाकर्णी-पात्रेऽनव्ययस्य " [ २. ३. ५. ] इति सकारो न भवति ।। ३६ ।। 25 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ३७-३८.] अप्रयोगीत् ॥ १. १. ३७ ॥ इह शास्त्र उपदिश्यमानो वर्णस्तत्समुदायो वा यो लौकिके शब्दप्रयोगे न दृश्यते स एत्यपगच्छतीति इत्संज्ञो भवति । अप्रयोगित्वानुवादेनेत्संज्ञाविधानाच्चास्य प्रयोगाभावः सिद्धः । उपदेशस्तु धातु-नाम-प्रत्यय-विकाराऽऽगमेषु कार्यार्थः । धातौ-एधि, एधते । शीङ्–शेते; इङित्त्वादात्मनेपदम् । 5 यजी-यजते, यजति । चिंग्ट्-चिनुते, चिनोति । कण्डूग्-कण्डूयते, कण्डूयति; ईगित्त्वात् फलवत्यात्मनेपदम् । टुदु-दवथुः; ट्वित्त्वादथुः । नाम्नि-चित्र आश्चर्ये चित्रीयते । माङ्-मा भवान् कार्षीत् ; अत्र माङयद्यतनी। प्रत्यये[वित्-] भवति । विकारे-[ख्यांग-] व्याख्यातासे, व्याख्यातासि । आगमे-- [इट्--] पपिथ । इत्प्रदेशा:--"इङितः कर्तरि" [ ३. ३. २२.] इत्यादयः10 ।। ३७ ।। न्या० स०-अप्रयोगी०-प्रयोगः शब्दस्योच्चारणम्, सोऽस्यास्तीति प्रयोगी, न प्रयोगी अप्रयोगी इति सज्ञिनिर्देशः, इदिति च संज्ञेति । लौकिक इति-लोकस्य ज्ञाते "लोकसर्वलोकाज्ज्ञाते" [ ७. ४. ८४. ] इतोकण् ।। ३७ ।। अनन्तः पञ्चम्याः प्रत्ययः ॥ १. १. ३८ ॥ 15 पञ्चम्यर्थाद् विधीयमानः शब्दः प्रत्ययसंज्ञो भवति । अनन्त:-न चेदन्तशब्दोच्चारणेन विहितो भवति । "नाम्नः प्रथमैकद्विबहौ" [ २. २. ३१. ] वृक्षः, वृक्षौ, वृक्षाः। “स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डीः" [ २. ४. १. ] राज्ञी, की । “प्रात्" [ २. ४. १८. ] खट्वा । “गुपौधूप-विच्छि-परिण-पनेरायः" [ १. ४. १. ] गोपायति, धूपायति । "ऋवर्ण-20 व्यञ्जनाद् घ्यण" [ ५. १. १७. ] कार्यम्, पाक्यम् । अनन्त इति किम् ? अन्तशब्दोच्चारणेन विहितस्याऽऽगमस्य मा भूत्, यथा “उदितः स्वरान्नोऽन्तः" [ ४. ४. ६६. ] इत्यादि । प्रत्ययप्रदेशाः-"प्रत्यये च” [ १. ३. २. ] इत्यादयः ॥ ३८ ॥ न्या० स०-अनन्त:०-न विद्यतेऽन्तशब्दो वाचकोऽभिधायको यस्य स. तथा 125 पञ्चमीति प्रत्ययोऽभिधीयते, स च प्रकृत्यविनाभावीति तेन प्रकृतिराक्षिप्यते, तया चार्थ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः इत्याह-पञ्चम्यदित्यादि । शब्द इति-स च शब्दो वर्णस्तत्समुदायो वा भवति, शब्द्यत इति कृत्वा शब्दशब्देनोच्यत इति । ननु नागमस्य प्रत्ययत्वे को दोष इति ? सत्यम्-'अनन्दत' इत्यादौ नागमेन धातोः खण्डितत्वाद् 'नन्द्' धातो: प्राक "अड़ धातो." [४. ४. २६. ] इत्यडागमो न स्यात् । अथ 'अरुणद्' इत्यादौ श्नप्रत्ययवत् *तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते इति भविष्यति, तर्हि अस्य न्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थमन्तग्रहणम्, 5 तेन यका सका इत्यादी इत्वप्रतिषेधः सार्थकः, कस्य प्रकृत्यवयवत्वे त्वित्वप्राप्तिप्रसङ्ग एव न स्यात् । तथाऽन्तग्रहणाभावे लाङ्काकायनिरित्यत्र "चमिवमि." [६. १. ११२. ] इत्यायनित्रि कागमे तस्य प्रत्ययत्वे "ड्यादीदूतः के" [२. ४. १०४. ] इत्यनेन ह्रस्वः स्याद् इति । तथाऽन्तग्रहणाभावे पञ्चम्याद बिधीयमानत्वेनाऽऽगमस्यापि *प्रत्ययाऽप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव इति न्यायात् 'प्रेण्वनम्' इत्यादावेव "वोत्तरपदान्त०" [२.३.७५.] 10 इत्यनेन णत्वं स्यात्, न तु 'भद्रबाहुना कुलेन' इत्यादौ 'अनाम् स्वरे०" [ १. ४. ६४. ] इति षष्ठ्यन्ताद् विधीयमानस्य प्रत्ययत्वाभावात् । अपरञ्च-"ऋत्तृष-मृष०" [४. ३. २४.] इत्यत्र "श्रथुङ शैथिल्ये" इत्यस्य प्रत्ययाऽप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव* इति न्यायेन नाऽऽगमस्य प्रत्ययत्वे सत्येव ग्रहणं स्यात्, न तु "श्रन्थश् मोचन-प्रतिहर्षयोः" इत्यस्य तस्मादन्तग्रहणं विधेयम् । उभयथाऽपि पञ्चम्यां सम्भवन्त्याम् “परः" [ ७. ४. ११८. ]15 इति परिभाषया प्रत्ययो नियन्त्र्यते-प्रकृतेः पर एवेति । तहि स्वरात् पूर्वो नोऽन्त इत्यपि कथं न लभ्यते ? इति चेत्, सत्यम्-"नो व्यञ्जनस्या०" [ ४. २. ४५. ] इत्यत्रानुदित इति भणनात. अन्यथोपान्त्यत्वाभावात प्राप्तिरेव नास्तीति ।। ३८ ।। डत्यतु सहयावत् ॥ १. १. ३६ ॥ डतिप्रत्ययान्तमतुप्रत्ययान्तं च नाम सङ्ख्यावद् भवति, एक-व्द्यादिका20 लोकप्रसिद्धा सङ्ख्या, तत्कार्यं भजत इत्यर्थः । कतिभिः क्रीत:-कतिकः, “सङ्ख्या-डतेश्चा-शत्तिष्टे: कः" [६. ४. १३०.] इति कः । कतिभिः प्रकारैःकतिधा, “सङ्ख्याया धा" [७. २. १०४.] इति धा। कति वारा अस्यकतिकृत्वः, “वारे कृत्वस्" [७. २. १०६.] इति कृत्वस् । एवम्-यतिकः, यतिधा, यति कृत्वः; ततिकः, ततिधा, ततिकृत्वः । अतु-यावत्कः, यावद्धा,25 यावत्कृत्वः; तावत्कः, तावद्धा, तावत्कृत्वः; कियत्कः, कियद्धा, कियत्कृत्वः ।। ३६ ॥ न्या० स०-डत्यत्वित्यादि-वत्करणाभावे *कृत्रिमाकृत्रिमयो:* इति न्यायाद् एक-द्वयादीनामकृत्रिमाणां न स्यादिति ।। ३१ ।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] बृहद्वृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४०-४२.] बहु-गणं भेदे ॥ १. १. ४० ॥ 'बहु' 'गण' इत्येतौ शब्दौ भेदे वर्तमानौ सङ्ख्यावद् भवतः, भेदो नानात्वमेकत्वप्रतियोगि । बहुकः, बहुधा, बहुकृत्वः । गणकः, गणधा, गणकृत्वः । भेद इति किम् ? नैपुल्ये सङ्घ च सङ्ख्याकार्य मा भूत् । बहुगणौ न नियतावधिभेदाभिधायकाविति सङ्ख्याप्रसिद्धेरभावाद् वचनम्, अत एव 5 भूर्यादिनिव त्तिः ।। ४० ।। न्या० स०-बहुगरणमित्यादि । वैपुल्य इति-यथा रजोगणः, रजःसंघात इत्यर्थः । अथ बहु-गणशब्दयोर्भेदवचनत्वात् सङ्ख्यात्वमस्त्येव, यतो भेदः परिगणनं सङ्खय ति, ततश्च क-व्द्यादीनामिव बहु-गणशब्दयोरपि लोकादेव सङ्ख्यात्वसिद्धौ किमनेनातिदेशवचनेन ? अतिदेशो हि अन्यत्र प्रसिद्धस्यान्यत्र प्रसिद्धिप्रापणार्थ इत्याह-बहुगणावित्यादि-10 लोके ह्यक-व्द्यादीनां नियतावधिभेदाभिधायित्वे सङ्ख्याप्रसिद्धिः, अनयोश्च न तथेति सङ्घयाप्रसिद्ध रभाव इति ।। ४० ।। क-समासेयः ॥ १. १. ४१ ॥ अध्यर्धशब्दः कप्रत्यये समासे च विधातव्ये सङ्ख्यावद् भवति । अध्यर्धेन क्रीतम्-अध्यर्धकम्, “सङ्ख्या-डतेश्चाशत्तिष्टेः कः" [६. ४. १३०.] इति15 कः । अध्यर्थेन शूर्पण क्रीतम्-अध्यर्धशूर्पम्, अत्र सङ्ख्यापूर्वत्वेन द्विगुत्वे क्रीतार्थस्येकणः “अनाम्न्यद्विः प्लुप्" [६. ४. १४१.] इति लुप् । क-समास इति किम् ? धादिप्रत्ययविधौ न भवति ।। ४१ ।। अपूर्वपदः पूरणः ॥ १. १. ४२ ॥ समासावयवभूते पदे पूर्णपदमुत्तरपदं चेति प्रसिद्धिः, अर्धपूर्वपदः पूरण-20 प्रत्ययान्तः शब्दः कप्रत्यये समासे च विधातव्ये सङ्ख्यावद् भवति । अर्धपञ्चमकं अर्धपञ्चमशूर्पम् ।। ४२ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानु शासनबृहद्व त्तौ प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ॥ हरिरिव बलिबन्धकरस्त्रिशक्तियुक्तः पिनाकपाणिरिव । 25 कमलाश्रयश्च विधिरिव जयति श्रीमूलराजनृपः ।। १ ।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १-२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ३५ 0 अथ द्वितीयः पादः । समानानां तेन दीर्घः ॥ १. २. १ ॥ समानसंज्ञकानां वर्णानां तेन परेण समानेन सहितानां दी? भवति, आसन्नः [७. ४. १२०.] । दण्डाऽग्रम् । तवाऽऽयुः । खट्वाऽत्र । साऽऽगता । दधीदम् । दधीहते । नदीन्द्रः । नदीहते । मधूदकम् । मधृहनम् । वधूदरम् । वधूढा । पितृ षभः । मातृ कारः । कृ कारः । समानानामिति किम् ? वागत्र । 5 तेनेति किम् ? दधि शीतम् । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम्, तेनोत्तरसूत्रेण लु-ऋतोरपि ऋ-लुति ह्रस्वो भवति-क्लऋषभः, होतृलकारः, अन्यथा "ऋस्तयोः" [१. २. ५.] इति परत्वाद् ऋरेव स्यात् ।। १ ॥ न्या० स०-समानामित्यादि-अत्राऽनन्तराऽनन्तरिभावसम्बन्धे षष्ठी। 'तेन' इति तृतीयानिदशः स्थानित्वप्रतिपत्त्यर्थः । ननु 'तेन' स्थाने 'स्वेन' क्रियताम्, किं तेन' इति ? 10 एवं सति 'इवर्णादेरस्वे स्वरे०" [१. २. २१.] इत्यत्रास्वग्रहणं न कृतं स्यादिति फलम् ; उच्यते-'इवर्ण-चवर्ग-य-शास्तालव्याः' इति न्यायाद् 'दधि शीतम्, इत्यत्र दीर्घत्वं स्यात, तन्मा भूदित्येवमर्थम् । ननु 'तेन' इति सहार्थे [ २. २. ४५. ] तृतीयेति द्वयोर्दीर्घत्वं प्राप्नोति, यथा-पुत्रेण सह स्थूल इति, नैवम्-अत्र 'अजाक्षीरेण सहौषधं पिबेइ' इतिवद् एक एव दीर्घ इति ज्ञातव्यम् । 'दण्डाऽग्रम्' इत्यत्र "वृत्त्यन्तोऽसष" [ १. १. २५. ] इत्यग्र-15 शब्दस्य पदत्वाभावे दण्डशब्दाऽकारस्य "लुगस्यादेत्यपदे" [ २. १. ११३. ] इति. कथं न लुग् भवति ? इति चे , उच्यते-सर्वं वाक्यं सावधारणं भवति* इति न्यायाद् 'अपदे' इति सावधारणं व्याख्येयम्-अपदे एव यद्यकारो भवतीति, अयं तु वाक्यावस्थायां पदेऽपीति । तर्हि *गतिकारक ०* इति न्यायात् 'प्रायणम्' इत्यादी विभक्त्युत्पत्तेः प्रागेव समासे कथं न भवतीति ? सत्यम्-'अपदे' इत्युत्तरपदमपि गृह्यते, उत्तरं च तत् पदं चेति 20 कृते "ते लुग् वा" [ ३. २. १०८. ] इत्युत्तरशब्दलोपादिति ।। १ ।। ऋ-लुति ह्रस्वो वा ॥ १. २. २ ।। समानानामकारे लकारे च परे ह्रस्वो वा भवति । बालऋश्यः, ' बालीः । खट्वऋश्यः, खट्वीः । महऋषिः, महर्षिः धूलिऋतुः, धूल्य॒तुः । नदि ऋच्छति, नघृच्छति । तनुऋजुता, तन्व जुता। वधुऋणम्, वध्व णम् ।25 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] बृहवृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ३-४.] कर्तृ ऋषभः, कतृ षभः । बाललकारः, बालल्कारः । कन्यलकारः, कन्यल्कारः, इत्यादि । ह्रस्वकरणसामर्थ्यादेव कार्यान्तरं न भवति, अत एव ह्रस्वस्यापि ह्रस्वः क्रियते । समानानामित्येव ? वृक्षाव च्छति । ऋ-तृतीति किम् ? दण्डाग्रम्, कन्याया ऋकारः कन्यर्कारः। तकार उच्चारणार्थः । कश्चिद् ह्रस्वत्वाभावपक्षे प्रकृतिभावमपीच्छति, तन्मते-खट्वाऋश्यः, नदीऋश्य इत्या- 5 द्यपि भवति । प्रार्छतीत्यादौ तु परत्वादारेव भवति । “ह्रस्वोऽपदे वा" [१. २. २२.] इत्येव सिद्धेऽवार्थं पदार्थ स्वार्थं च वचनम् ।। २ ॥ न्या० स०-ऋ-लतीत्यादि-अत्र तकारमन्तरेण लकारात् सप्तम्येकवचने लत्वे च लस्वरूपस्य विकृतत्वात् किमयं लकारः ? उत लकार: ? इति सन्देहः स्यात् ।। २ ॥ लुत ऋ-ल. ऋ-लुभ्यां वा ॥ १. २. ३ ॥ 10 लतः स्थाने ऋता लता च परेण सहितस्य यथासंख्यम् 'ऋ ल.' इत्येतावादेशौ वा भवतः । 'ऋ' इति स्वरसमुदायो वा स्वर- व्यञ्जनसमुदायो वा वर्णान्तरं वा, तदपीषत्स्पृष्टकरणं द्विरेफतुरीयमध्यर्धस्वरमात्रमित्येके, संवृततरं सफलरेफर्कारमर्धमात्रस्वरभक्तिकमित्यन्ये, द्विरेफश्रुतिकमध्यर्धस्वरमात्रमित्यपरे । एवम् 'ल.' इत्यपि । ऋता-कृ कारः, पक्षे पूर्वेण ह्रस्व15 उत्तरेण ऋकारश्च-क्लऋकारः, कृ कारः । लता-क्ल कारः, पक्षे दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं च, क्लृ कारः, क्ललकारः । लवर्णस्य स्थानित्वमिच्छन्त्येके ।। ३ ।। न्या० स०-लत इत्यादिः । ऋ, इति दीर्घश्चेद् उत्तरेण सिद्धत्वादत्र विधानमनर्थकमिति सविशेषमादेशमाह-'ऋ' इति स्वरसमुदायो वेति । वर्णान्तरत्वे मतभेदानाह-तदपोति । द्विरेफतुरीयमिति-रेफस्य तुरीयौ रेफतुरीयौ, एकस्य रेफस्य चतुर्भागी-20 कृतस्य द्वौ चतुर्थभागावित्यर्थः, द्वौ रेफतुरीयावस्मिन्निति । अधिकमधं यस्याः सा, अध्यारूढाऽर्धेन वा अध्यर्धा, स्वरस्य मात्रा स्वरमात्रा, अध्यर्धा स्वरमात्राऽस्मिन्निति अध्यर्धस्वरमात्रम्, पादोन मात्राद्वयमित्यर्थः । सकलरेफर्कारमिति-सकल: परिपूर्णो रेफ ऋकारश्चात्र तत् तथा । अर्ध मात्रा यस्याः सा अर्धमात्रा, स्वरस्य भक्तिर्भागः स्वरभक्तिः अर्धमात्रा स्वरभक्तिर्यस्य तत् तथा ।। ३ ।। ऋतो वा तौ च ॥ १. २. ४ ॥ ऋकारस्य स्थाने ऋता लुता च परेण सहितस्य यथासंख्यम् 'ऋ-ल.' Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ५-६.] . श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ३७ इत्यादेशौ वा भवतः, तौ च ऋकार-लकारौ ऋता लता च सह ऋकारस्य वा भवतः । ऋता-पितॄषभः, पितृ षभः, पितृऋषभः । लता-होत्ल कारः, पक्षे होतृ कारः. होतृलकारः । तौ च-पितृषभः, होत्लकारः, पक्षे यथाप्राप्तम् । अत्रापि ऋवर्णस्य स्थानित्वमिच्छन्त्येके ।। ४ ।। ___ न्या० स०-ऋतो० इत्यादि-होल्कार इति-होतुल कार इति षष्ठीसमासः, होतृ-5 संबन्धी, होत्रा लिखित उच्चारितो वा लकार इत्यर्थः ।। ४ ॥ ऋस्तयोः ॥ १. २. ५॥ तयोः-पूर्वस्थानिनोल कार-ऋकारयोः स्थाने यथासंख्यमृता लता च परेण सहितयोऋकारो द्विमात्र आदेशो भवति । कृषभः । होतृ कारः ।।५।। न्या० स०-ऋस्तयोरिति । अथ ऋकार-लकारयोः सजातीयत्वस्य पूर्व प्रति-10 पादितत्वात् “समानानां तेन०" [ १. २. १. ] इत्यनेनैव द्विमात्र ऋ कारः सेत्स्यति, किमनेन ? न च वाच्यं क्लऋषभ इत्यत्र लकारस्य स्थानित्वाद् दीर्घत्वे, प्रत्यासन्नत्वाद् लू कारः स्यादित्यादि, यतो द्वयोः स्थानित्वमुक्तं तत्र ऋकारमेव स्थानिनमाश्रित्य दीर्घ क्रियमाणे प्रत्यासत्त्या ऋकार एव भविष्यति, सत्यम्-स्यादेवं यदि ऋकारस्यैव स्थानित्वे किञ्चिनियामकं स्यात्, यावता द्वयोः षष्ठी-तृतीयानिदिष्टयोः स्थानित्वमिति पूर्वं परं15 वा लकाररूपं स्थानिनमाश्रित्य दीर्घ क्रियमाणे लू कारोऽपि स्यात्, ऋकार एव चेष्यते इत्येतदर्थमस्यारम्भ इति ।। ५ ।। अवर्णस्येवर्णा दिनैदोदरल ॥ १. २. ६ ॥ अवर्णस्य स्थाने इवर्णोवर्ण-ऋवर्ण-लवर्णैः परैः सहितस्य यथासंख्यमेत् प्रोत् अर् अल् इत्येते आदेशा भवन्ति । देवेन्द्रः । तवेहा । मालेयम् ।20 सेक्षते । तवोदकम् । तवोढा । गङ्गोदकम् । सोढा ।'वृक्ष इन्द्रम्, त इन्द्रमित्यादौ च डौ जस इकारे चैकपदाश्रयत्वेनान्तरङ्गमेत्वमेव भवति, न तु परपदाश्रितं बहिरङ्गमिकारस्य दीर्घत्वम् । परमर्षिः । तवर्कारः। महर्षिः । सर्कारेण । तवल्कारः । सल्कारेण । त्रिमात्रादेरपि स्थानिनः स्थाने द्विमात्रावेवैदोतौ - भवतः, सूत्रे तयोरेव विवक्षितत्वात् । अवर्णस्येति किम् ? दधीदम् । मधूदकम् ।25 पितृ षभः । क्लृ कारः । इवर्णादिनेति किम् ? दण्डाग्रम् ॥ ६ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते . [पा० २. सू० ७-८.] ऋणे प्र-दशार्ण-वसन-कम्बल-वत्सरवत्सतरस्यार ॥१. २.७॥ प्रादीनामवर्णस्य ऋणशब्दे परे परेण ऋकारेण सहितस्यारित्ययमादेशो भवति । अरोऽपवादः । प्रगतमृणं प्रार्णम् । दशानामृणं दशार्णम्, दश ऋणान्यस्य दशार्णः क्षत्रियः, दश ऋणानि जलदुर्गाण्यस्यां दशार्णा नदी। 5 ऋणस्यावयवतया संबन्धि ऋणम्-ऋणार्णम् । वसनानामृणम्-वसनार्णम् । एवम्, कम्बलार्णम् । वत्सरार्णम् । वत्सतरार्णम् । समानानामिति बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वेनोक्तत्वादिहोत्तरत्र च ह्रस्वोऽपि भवति-प्रऋणम्, दशऋणमित्यादि। वत्सरशब्दस्याऽऽरं नेच्छन्त्येके ।। ७ ।। न्या० स०-ऋणे प्रेत्यादि-दश ऋणानि अस्येति-वर्णानुपूर्वीविज्ञानार्थं व्युत्पत्ति-10 मात्रमेतत् यावता संज्ञाशब्दोऽयम् । यद्यपि परत्वात् सर्वत्रार् प्राप्नोति तथाप्यर एव बाधक पारादेशो न ह्रस्वस्येत्याह–समानानामिति ।। ७ ।। ऋते तूतीयासमासे ॥ २. १.८ ॥ ऋतशब्दे परे यदवर्णं तस्य स्थाने परेण ऋकारेण. सहितस्याऽऽरित्ययमादेशो भवति, तौ चेन्निमित्तनिमित्तिनावेकत्र तृतीयासमासे भवतः । शीतेन15 ऋतः-शीतार्तः । दुःखेन ऋत:-दुःखार्तः। ह्रस्वोऽपि भवति-शीतऋतः, दुःखऋतः । ऋत इति किम् ? सुखेतः, दुःखेतः । तृतीयाग्रहणं किम् ? परमर्तः । समास इति किम् ? सुखेनर्तः, दुःखेनर्तः । ऋतेन कृतः-ऋतकृतः, परमश्चासौ ऋतकृतश्च-परमर्तकृत इत्यत्र तु निमित्त-निमित्तिनौ नैकत्र तृतीयासमास इति न भवति । अवर्णस्येत्येव ? पितृ तः । कथम् "क्षुधातः सन् 20 शालीन् कवलयति मांस्पाकवलितान्” ? क्षुधशब्दस्य हि व्यञ्जनान्तत्वात् 'क्षुदृत' इति प्राप्नोति, नैवम्-पाङ्पूर्व ऋते तृतोयान्तस्यासमस्तस्यायं प्रयोगः । आ ऋत इति उत्तरेणार्-आर्तः, तत क्षुधेत्यनेन संबन्धः । यस्य तु व्यञ्जनान्तादप्याप् तन्मते-क्षुधया ऋत इति समस्तप्रयोग एवायम् ।। ८ ।। __ न्या० स०-ऋते इत्यादि। क्षुधात इति-पत्र तृतीयान्तस्य 'क्षुध्' शब्दस्य25 "अोमाङि" [ १. २. १८. ] इति आलोपे प्रसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे* इति न्यायान्न धस्य दत्वम् ॥ ८॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६-१०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ३६ ऋत्यारुपसर्गस्य ॥ १. २. ६ ॥ उपसर्गस्य संबन्धिनोऽवर्णस्य स्थाने ऋकारादौ धातौ परे परेण ऋकारेण सहितस्यारादेशो भवति । सर्वापवादः । प्रार्च्छति । परार्छति । प्रार्नोति । परार्नोति । ऋतीति किम् ? उपेतः । उपसर्गस्येति किम् ? इहर्च्छति, इहऋच्छति । येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तं प्रति गत्युपसर्ग- 5 संज्ञाः तेनेह न भवति-प्रगता ऋच्छका अस्मात् प्रछेको देशः, एवम्, प्रर्षभं प्रश्यं वनम् । आरिति वर्तमाने पुनराम्रहणमारेव यथा स्यादित्येवमर्थम्, तेनेहोत्तरयोश्च ह्रस्वत्वं बाध्यते ॥ ६ ॥ न्या० स०-ऋत्येत्यादि-उपसृत्य धातुमर्थविशेष सृजतीति लिहाद्यचि न्यङ्कवादित्वाद् गत्वे उपसर्गः । सर्वापवाद इति-पूर्वसूत्रविहित पारादेशः "अवर्णस्य."10 [ १. २. ६. ] इत्यर एव बाधको न ह्रस्वस्य, अयं त्वरो ह्रस्वस्य च सर्वस्य प्राप्नुवतो बाधक इत्यर्थः । प्रार्छतीति ऋच्छेरतर्वा "श्रौति." [५. २. १०८.] इति ऋच्छादेशे येन धातुनेति-यद्येवं प्रणसं मुखमित्यादौ प्रशब्दस्योपसर्गत्वाभावे "उपसर्गात्" [७. ३. १६२.] इत्यनेन नसादेशो न प्राप्नोति, उच्यते-*यत्रोपसर्गत्वं न संभवति तत्रोपसर्गशब्देन प्रादयो लक्ष्यन्ते, न तु संभवत्युपसर्गत्वे* इति । नन्वेवं प्रगता ऋच्छका यस्मात् स प्रर्छक 15 इत्यादौ प्रादित्वेन प्रशब्दस्योपसर्गत्वादार् प्राप्नोति, नैवम्-प्रशब्दोऽत्र गतार्थमन्तर्भाव्य प्रवर्त्तमानो णकप्रत्ययस्याथं कर्तारं विशिनष्टि न ऋच्छेर्धातोरर्थमित्येतद्धातुसंबन्धाभावाद् एनं प्रति अनुपसर्गत्वमस्योच्यते इति ।।६।। नाम्नि वा ॥ १. २. १० ॥ उपसर्गसम्बन्धिनोऽवर्णस्य स्थाने ऋकारादौ नाम्नि-नामावयवे धातौ20 परे परेण ऋकारेण सहितस्य 'पार्' आदेशो वा भवति । प्रार्षभीयति, प्रर्षभीयति । केचित् तु पक्षे ह्रस्वत्वमपि मन्यन्ते-प्रऋषभीयति । उपसर्गस्येत्येव ? इहर्षभीयति । ऋतीत्येव ? उपोष्ट्रीयति, ऋकारमिच्छति-उपर्कारीयति ।। १० । __ न्या० स०-नाम्नीत्यादि । नाम्नीत्यनेन ऋकारकादिर्धातुः सामानाधिकरण्येन 25 विशेषयितु न शक्यत इत्यवयवद्वारेण ऋकारादिसमुदायो धातुम्निीत्यनेन विशेष्यत इत्याह-नामावयवे इति ।। १० ।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ११-१३.] लुत्याल वा ॥ १. २. ११ ॥ उपसर्गसम्बन्धिनोऽवर्णस्य लति-लकारादौ नामावयवे धातौ परे परेण लुकारेण सहितस्य 'पाल' वा भवति । अलोऽपवादः । उपाल्कारीयति, उपल्कारीयति । अत्रापि पक्षे ह्रस्वत्वमिच्छन्त्येके-उपलकारीयति । उपसर्गस्येत्येव ? इहल्कारीयति । तृतीत्येव ? ल कारमिच्छति-उपल्कारीयति ॥ ११ ॥ 5 ऐदौत् सन्ध्य क्ष ॥ १. २. १२ ॥ अवर्णस्य स्थाने सन्ध्यक्षरैः परैः सहितस्य 'ऐत् औत्' इत्यादेशावासन्नौ भवतः, एवं चैकारैकाराभ्यां सहितस्य ‘ऐकारः' ओकारौकाराभ्यां सहितस्य तु “ौकारः'। तनैषा, खट्नैषा, तसैन्द्री, सैन्द्री, तवौदनः, खट्वौदनः, तवौपगवः, खट्वौपगवः । अवर्णस्येत्येव ? दध्येतत्, दध्यैच्छत्, मध्वोदनः,10 साध्वौषधम् । 'सन्ध्यक्षरैः' इत्यत्वनिर्देशाद् 'उपसर्गस्य' इति निवृ त्तम् । ।। १२ ॥ ___ न्या० स०-ऐदोदित्यादि। नन्वत्र त्रिमात्र-चतुर्मात्रयोरादेशिनोः स्थाने कथं द्विमात्रावेवादेशौ भवतः ? यावता *स्थान्यासन्नः* इति न्यायात् त्रिमात्रौ चतुर्मात्रौ च प्राप्नुत इति, सत्यम्-‘सन्ध्यक्षरैः' इति बहुवचनं द्विमात्रादेशप्रतिपत्त्यर्थम्, अन्यथैकवचनेन15 निदिशेत् ; एतदर्थं च सद् उपसर्गनिवृत्तिमपि करोतीत्याह–सन्ध्यक्षररिति ।। १२ ।। ऊटा ॥ १. २. १३ ॥ अवर्णस्य परेणोटा सहितस्य स्थाने अौकारादेशो भवति, आसन्नः । धौतः, धौतवान् । लावयति पावयतीति क्विपि णिलोपे “अनुनासिके च च्छ्वः शूट्" [४. १. १०८.] इत्यूटि-लौः, पौः । ओकारापवादो योगः । 20 ॥ १३ ॥ न्या० स०-ऊटेति । 'ऐदौद्' इति समुदायानुवृत्तावपि “प्रासन्नः" [७. ४. १२०.] इति न्यायाद् प्रौदेव भवतीत्याह-प्रौकारादेश इति । लौः, पौः, इति-प्रकारस्याप्युदाहरणमिदमेव, लू-पूभ्यामजन्ताभ्यामलन्ताभ्यां वा लवमाचष्टे पवमाचष्टे "णिज् बहुलम्" [ ३. ४. ४२. ] इति णिचि क्विबादिः पूर्ववत् ।। १३ ।। 25 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १४-१५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ४१ प्रस्यैषैष्योढोढ्यूहे स्वरेण ॥ १. २. १४ ॥ प्रशब्दसम्बन्धिनोऽवर्णस्य 'एष एष्य ऊढ ऊढि ऊह' इत्येतेषु परेषु परेण स्वरेण सहितस्य स्थाने 'ऐदौतौ' आदेशौ भवतः, आसन्नौ । प्रैषः, प्रेष्यः, प्रौढः, प्रौढिः, प्रौहः । ऊहे नेच्छन्त्येके । प्रस्येति किम् ? अपोढः, उपोढः । एषादिष्विति किम् ? प्रेतः, प्रोतः । कथं प्रेषः, प्रेष्यः ? ईषे ईष्ये च 5 भविष्यति, यदापि 'पा + ईष्य-एष्य' तदापि “प्रोमाङि" [१. २. १८.] इत्यवर्णलोपे प्रेष्य इत्येव भवति, यस्मिन् प्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्य बाधको भवति इति न्यायाद् “उपसर्गस्याऽनिणेधेदोति" [१. २. १६.] इत्यस्यैवायं बाधकः, न "अोमाङि" [१. २. १८.] इत्यस्य । अथेह कस्मान्न भवति-प्रेषते, प्रेष्यते, प्रोढवान्' इति ? अर्थवद्ग्रहणेऽनर्थकस्याग्रहणात्र । 10 कथं तर्हि 'ऊढि' शब्दस्य ण्यन्तस्य सार्थकस्य प्रयोगे प्रोढयतीति ? 'ऊढ' शब्देन सार्थकेन स्याद्यन्तेन साहचर्याण्ण्यन्ते श्रौत्वाभावात्, प्रौढादिशब्दात् तु गौ प्रौढयतीत्यादि भवत्येव ।। १४ ।। न्या० स०-प्रस्येत्यादि । अवर्णस्य कायिणोऽनुवृत्तेस्तस्य च प्रशब्देन सामानाधिकरण्याऽयोगाद् अवयवावयविसम्बन्धे षष्ठीत्याह-प्रशब्दसम्बन्धिनोऽवर्णस्येति । यदा15 'प्रा+ईष्य' इति क्रियते तदापि “ोमाङि" [१.२.१०.] इत्यस्य विषयेऽपि "उपसर्गस्याऽनिणे." [ १. २. १६. ] इत्यस्य प्राप्तिरेव *उभयो: स्थाने०* इति न्यायेन 'पाङ +ई' इत्येतयोरुभयोः स्थाने निष्पन्नस्य एतो यदा प्राङा व्यपदेशस्तदा “प्रोमाङि" [१. २. १८.] इत्यस्य, अन्यथा "उपसर्गस्य." [ १. २. १६.] इत्यस्येत्यत आहयस्मिन् प्राप्ते० इति-प्राप्त एवेत्यवधारणं व्याख्यानात् ।। १४ ।। स्वैर-स्वैर्यक्षोहिण्याम् ॥ १. २. १५ ॥ 'स्वैर स्वैरिन् अक्षोहिणी' इत्येतेषु अवर्णस्य परेण स्वरेण सहितस्य "ऐत् औत्' इत्येतावादेशौ भवतः । स्वस्येरः-स्वैरः, घञ्; स्व ईरोऽत्रेतिस्नैरमास्यताम् ; स्वयमीरति ईर्ते वा स्वैरः, नाम्युपान्त्यलक्षणः कः । स्वयमीरितुं शीलमस्येति-स्ौरी, नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् इति25 स्नैरिणी। अक्षाणामूहोऽस्यामस्तीति-अक्षौहिणी। स्नैरशब्दान्मत्वर्थीयेनैव 'इना सिद्धे पृथक् ‘स्नैरिन्' ग्रहणं ताच्छीलिकादिणिन्नन्तेऽपीरिन्शब्दे ऐत्वार्थम् । ॥ १५॥ 20 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १६.] न्या० स०-स्वरेत्यादि-सममात्रौषधनिष्पन्नश्चूर्णोऽपि सम इत्यवयवधर्मेण समुदायस्य व्यपदेशः, एवमिहापि स्वैरावयवयोगात् समुदायोऽपि त्यात्मक: स्वैरः, स्वैर्यवयव. योगात् स्वैरी, अक्षौहिण्यवयवयोगादक्षौहिणी, ततः स्वैरश्चासौ स्वैरी च, स चासो अक्षौहिणी चेति कर्मधारयः, यथा-"मर्यादाभिविधौ च य:०" इत्यत्र समुदायोऽवयवशब्देन मर्यादावयवत्वाद् मर्यादा, अभिविध्यवयवत्वाभिविधिरिति व्यपदिश्यते ततो विशेषण- 5 समासो भवति, समुदाये च स्वरस्वैर्यक्षौहिणीरूपे कार्यासम्भवाद् अवयव एव स्वैर इत्यादिः कार्यभागिति: सौत्रो वा निर्देशः, तेनेतरेतरयोगे बहवचनं समाहारे च हस्वत्वं न भवति, एवमन्यत्रापि। तथाऽत्र सूत्रे विषयसप्तमी, तेन स्वैरादिषु निष्पत्स्यमानेषु योऽकार इत्यर्थः । स्वेन आत्मना ईरः-स्वरः "कारकं कृता" [ ३. १. ६८. ] इति समासः, ईर इति सामान्येन घान्तस्य कान्तस्य च परिग्रह इत्युभयत्रापि कार्यम्, स्वैर-10 शब्दस्य घनन्तस्यापि अभ्रादिदर्शनान्मत्वर्थीयेनाप्रत्ययेन कत्रभिधानं भवति । स्वयमीरतीति-युजादित्वात् पाक्षिकणिजन्ततया प्रयोगोऽयम् । एत्वार्थमिति-अन्यथा णिनि स्वेरीत्यनिष्टरूपमापद्येत ।। १५ ।। अनियोगे लुगवे ॥ १. २. १६ ॥ नियोगो नियमोऽवधारणम्, तदभावोनियोगोऽनवक्तृप्तिः, तद्विषये15 एवशब्दे परेऽवर्णस्य लुग-लोपोऽदर्शनं भवति । इहेव तिष्ठ, अद्येव गच्छ; स्वेच्छाव त्तिरत्र गम्यते, नावधारणम् ; नियोगे तु इहैव तिष्ठ, मा गाः । ये त्वनियोगे अव्यापारणे इच्छन्ति तन्मते शास्त्र-लोकप्रतीतप्रयोगविरोधः, तथाहि-"अमैवाऽव्ययेन" [पाणि० २. २. २०.] "धातोस्तन्निमित्तस्यैव" [पाणि० ६. १. ८०.] "तपस्तपःकर्मकस्यैव" [पाणि० ३. १. ८८.] “लङ:20 शाकटायनस्यैव" [पाणि० ३. ४. १११.]; 'येनैव हेतुना वाक्यं तेनैव वृत्तिरपि प्राप्नोति' [पाणि सू० , भाष्ये] 'यथैव तर्हि' [पाणि० सू० १. १. ३. भाष्ये] 'इहैव स्याद्' [पाणि० सू० १. १. २०. भाष्ये] इति; “यदैव पूर्वे जनने शरीरम्" [कुमारसं० १. ५३.] "०दृशैव कोपारुणया रिपोरुरः०" [कादम्बरीमङ्गल श्लो० ३] "अद्यैवाऽऽवां रणमुपगतौ तातमम्बां च नत्वा०"25 [वेणीसंहारे, ४. १५.] “तरसैव कोऽपि भुवनैकपुरुष ! पुरुषस्तपस्यति०" [किरातार्जु० १२. २६.] इति कथम् ? 'शकानामन्धु:-शकन्धुः; अटतीतिअटा, कुलात् कुलस्य वा अटा-कुलटा; पततीति-पतः; पतोऽञ्जले:पतञ्जलिः; सीम्नोऽन्तः-सीमन्तः, केशविन्यास एव; प्रार्थनायाऽध्ययनम् Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० १७ - १८.] [ ४३ प्रध्ययनम्; हलस्य ईषा - हलीषा, एवम् - लाङ्गलीषा; मनस ईषा - मनीषा; हलीशा ; लाङ्गलीशा' इत्यादि, पृषोदरादित्वाद् भविष्यति । कथं तुवै त्वौ, वैन् ? निपातान्तरमेतत् ।। १६ ।। श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः न्या० स० - श्रनियोग इत्यादि । श्रवधारणम् अवश्यम्भाव इत्यर्थः । इहेवेतिवाक्यालङ्कारे एवशब्दः । प्रमवेति एतेषु सर्वेष्वपि स्वरूपाख्यानमेवास्ति, न तु व्यापारण- 5 मिति । यद्यव्ययेन सह समासस्तदा श्रमा-श्रमन्तेनैवेत्यर्थः, निमूलकाषं कषतीत्यादाविति । वृत्तिरपीति - 'मुमूर्ष' इत्येवंरूपा सन्प्रत्ययस्य वा वृत्तिः प्रवृत्तिरित्यर्थः । सीम्नोऽन्त एकदेशः । प्रध्ययनमिति - प्रशब्दस्य प्रत्ययान्तस्य हितादित्वात् समासः । त्वै इति - तुशब्दस्यो कारलोपे त्वं इति रूपं मन्यते परः, ततः केन सूत्रेणावर्णलोप इति परस्याशयः । ।। १६ ।। 10 वौष्ठतौ समासे ॥ १.२.१७ ॥ प्रोष्ठशब्दे श्रोतुशब्दे च परेऽवर्णस्य लुग् वा स्यात्, तौ चेन्निमित्तनिमित्तिनावेकत्र समासे भवतः । बिम्बोष्ठी, बिम्बोष्ठो, बिम्बोष्ठा, बिम्बोष्ठा; स्थूलोतु:, स्थूलौतुः । समास इति किम् ? हे राजपुत्रौष्ठं पश्य, हे छात्रौत्स्वरं शृण ु । अवर्णस्येत्येव ? शुच्योष्ठी ।। १७ ।। 6 15 न्या० स० – वौष्ठौतावित्यादि श्रत्र सौत्रत्वात् समाहारः, अन्यथा “प्राणितूर्य ० ' [३. १. १३७ ] इति 'स्वैः' इति व्या त्या निषधः स्यात्, यद्वा पुटापुटिकेतिवद् प्रष्ठावयवयोगात समुदायोऽप्योष्ठ इति प्रक्रियया कर्मधारयः । तौ चेन्निमित्तंति - तेन प्रा ईषद् ओष्ठः - अनेनैवाऽऽङो लोपे प्रोष्ठः, परम प्राष्ठो यासां ताः परमौष्ठा इत्यत्र लुग् न भवति । बिम्ब्याः फलं बिम्बम्, " हेमादिभ्योऽञ" [६. २. ४५.] ।। १७ ।। 20 ओमाङि ॥ १.२.१८ ॥ अवर्णस्य प्रोमि प्राङादेशे च परे लुग् भवति, आङि दीर्घत्वेनैव सिद्धे लुग्विधानमनर्थकं स्यादिति 'आङ्' इति प्राङादेशो गृह्यते । अद्योङ्कारः, सोमित्यवोचत् ; आङि - प्रा + ऊढा - प्रोढा, अद्य + प्रोढा - प्रद्योढा; सा + प्रोढासोढा ; आ + ऋश्यात् - अर्थात्, अद्य + अर्थात् - अद्यर्थ्यात् खट्वा + अर्थात् - 25 खट्वर्ण्यात्, आ + इहि - एहि ; उप + एहि - उपेहि; परा + एहि - परेहि; एवम्उपेतः । प्रमाङीति किम् ? तवोदनः । अवर्णस्येत्येव ? आ + ऋतोः - प्रर्तोः, दध्यर्तोः ।। १८ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १६-२१.] न्या० स०-प्रोमाङोति । प्रा+ऊढा-प्रोढेति-"गति-क्वन्य." [३. १. ४२ ] इति समासः । ऋशेः सौत्राद् गत्यर्थात् स्तुत्यर्थाद् वा "ऋशि-जनि०" [ उणा० ३६१. ] इति किति ये ऋश्यः, खट्वयात् 'निक्षेपणीया' इत्यादिक्रिया योज्या, तथा 'बध्यतॊः' इति 'भक्षणीयं वर्जनीयं वा' इति योगः ।। १८ ।। उपसर्गस्यानिणेधेदोति ॥ १. २. १६ ॥ उपसर्गसम्बन्धिनोऽवर्णस्य इण एधतिवजिते एकारादावोकारादौ च धातौ परे लुग् भवति । प्रेलयति, परेलयति, प्रोखति, परोखति । उपसर्गस्येति किम् ? प्रगता एलका अस्मात् प्रैलको देशः । अनिणेधिति किम् ? उपैति, परैति, उपैधते, परैधते । एदोतीति किम् ? उपायते, प्लायते ॥ १६ ॥ न्या० स०-उपसर्गस्येत्यादि-इण च एच्च-इणेत्, न इणेत्-अनिणेत्, अनिणेच्च 10 तत् एच्च-अनिणेधेत्, अनिणेच्च ओच्चेत्यादिविग्रहः, न विद्यते इणेधौ यत्र सोऽनिणेध्, स प्रासावेच्च, ततो द्वन्द्व इति वा ॥ १६ ॥ वा नाम्नि ॥ १. २. २० ॥ नामावयवे एकारादावोकारादौ च धातौ परे उपसर्गसम्बन्धिनोऽवर्णस्य लुग् वा भवति । उपेकीयति, उपैकीयति ; प्रोषधीयति, प्रौषधीयति ॥ २० ॥ 15 न्या० स०–वा नाम्नीति । उपेकोयतीति-अत्र पस्य "धुटस्तृतीयः" [२. १. ७६.] इति बत्वं न *प्रसिद्ध बहिरङ्गम् इति न्यायात्, न च वाच्यम्-"स्वरस्य परे." [७. ४. ११०.] इत्यस्य "न सन्धि०" [७. ४. १११.] इत्यादिना बाधितत्वात् प्राप्नोतीति, . यतस्तत्र परिभाषाऽपि *प्रसिद्ध बहिरङ्गम् इत्यनेन न्यायेनाबाधि, तत्र सूत्रे सन्धावपि सिद्ध द्विग्रहणात् ।। २० ।।। इवदिरस्वे स्वरे य-व-र-लम् ॥ १. २. २१ ॥ इवर्णोवर्ण-ऋवर्ण-लुवर्णानामस्वे स्वरे परे यथासङ्घय 'य, व, र, ल्' इत्येते आदेशा भवन्ति । दध्यत्र, नद्येषा, मध्वत्र, वध्वासनम्, पित्र्यर्थः, क्रादयः, लनुबन्धः, लाकृतिः । इवर्णादेरिति किम् ? पचति । अस्व इति किम् ? दधीदम् । स्वर इति किम् ? मधु पिबति । केचित् तु 'इवर्णादिभ्यः25 परान् य-व-र-लान्' इच्छन्ति-दधियत्र, तिरियङ्, मधुवत्र, भूवादयः, तन्मत 20 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० २२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ४५ सङ्ग्रहार्थम् ‘इवर्णादेः' इति पञ्चमी व्याख्येया ।। २१ ।। न्या० स०-इवर्णेत्यादि । केचिदिति-देवनन्द्यादयः । 'अस्वे स्वरे' इति-असमस्तनिर्देशः स्वरसम्बन्धनिवृत्त्यर्थः, तेन “एदैतोऽयाय" [१. २. २३.] इत्यादौ स्वरस्यैवानुवृत्तिर्न तु 'अस्वे' इत्यस्य, तेन "रायन्द्री" इत्यादौ स्वेऽपि भवति । पित्रर्थ इति-पित्रे अयमिति अस्वपदेन विग्रहः, "तदर्थार्थन" [३. १. ७२.] इति अर्थशब्देनैव चतुर्थ्यां 5 अभिहितत्वाद् वाक्याभावेऽर्थशब्देनैव नित्यसमासः ।। २१ ।। हस्वोपदे वा ॥ १. २. २२॥ इवर्णादीनामस्वे स्वरे परे ह्रस्वो वा भवति, अपदे-न चेत् तौ निमित्तनिमित्तिनावेकत्र पदे भवतः । नदि एषा, नद्येषा; दधि अत्र, दध्यत्र; मधु अत्र, मध्वत्र; अति एति, अत्येति; अनु एति, अन्वेति । ह्रस्वस्यापि ह्रस्वः10 पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्ते, ह्रस्वविधानसामर्थ्याच्च कार्यान्तरं न भवति । कश्चित् तु पक्षे प्रकृतिभावमपीच्छति-कुमारी अत्र । अपदे इति किम्, नद्यौ, वध्वौ, नधुदकम्, वध्वासनम्, नद्यर्थः, गौर्याराधः, अन्तर्वतिविभक्त्यपेक्षया पदभेदेऽपि समासे सत्यैकपद्यम्, एवम्-अनुव्यचलत् अथवा 'अनुप्राविशद्' इत्यादिवदखण्डमव्ययं विभक्त्यन्तत्वाच्चैकपदत्वम्, अत एवैतद्योगे “सपूर्वात्15 प्रथमान्ताद् वा" [२. १. ३२.] इति विकल्पेन वस्नसादयो भवन्ति-अथो अनुव्यचलद् वो देवदत्तः, अथो अनुव्यचलद् युष्माकं देवदत्तः, अथो अनुप्राविशद् वो जिनदत्तः, अथो अनुप्राविशद् युष्माकं जिनदत्त इत्यादि । इवर्णादेरित्येव ? हे मुनयाचर, हे साधवाचर । स्वर इत्येव ? नदी वहति । अस्व इत्येव ? दधीदम् ।। २२ ।। न्या० स०-ह्रस्व इत्यादि । प्रति एतीति-ह्रस्वोऽपि सन्धिकार्यमिति “नित्या धातूपसर्गयोः” इति प्रवर्तत एवेति । ह्रस्वस्यापीति-अयमर्थ:-*व्यक्तिः पदार्थः तत्र प्रतिव्यक्तिलक्षणेन प्रवर्तितव्यम्, अप्रवृत्तौ चानर्थक्यं तस्य स्यात्, इति पर्जन्यवत् फलाभावेऽपि तेन प्रतितव्यम्, पर्जन्यो हि यावदूनं पूर्ण च सर्वमभिवर्षति । वध्वाविति-ननु ऊकारस्य प्रौकारस्य च औष्ठ्यत्वाद् अस्वस्वराभावेन 'अपदे' इति व्यावृत्ते यङ्ग-25 विकलतेति, सत्यम्-मतान्तरेण औकारः कण्ठ्यौष्ठ्य इति ऊकारमोष्ठ्य प्रति अस्व इति न द्वयङ्गविकलतेति, एवं 'नद्येषा' इत्यत्राप्यस्वस्वरत्वमभ्यूह्यम् । 'नधुदकम्' इत्यादी षष्ठीसमासे सत्यष्यन्तर्वतिविभक्त्यपेक्षया पदत्वमपीति युगपत पदत्वापदत्वे अत्र, सत्रे'अपदे' इति सूत्रांशे नत्रः प्रसज्यस्याऽऽश्रयणम्, तत्र विधेः सामर्थ्यप्राप्ततया गौणत्वात् प्रतिषेधस्य 20 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद वृत्ति - लघुन्याससंवलिते च विधीयमानतया प्राधान्यात् तदाश्रितमेव कार्यं भवतीति भावः । एवमिति - " नाम नाम्नैकार्थ्ये" [ २. १. १८. ] इति समासे सतीत्यर्थः, ततः 'अनुव्यचलत्' इत्यतः समासात् सेलुंग् “दीर्घङयाप्०” [ १. ४. ४५. ] इत्यनेन । श्रथवेति-स्वरादेराकृतिगणत्वाद् विभक्त्यन्ताभत्वाद् वा अव्ययत्वमित्यर्थः श्रव्ययत्वात् स्याद्युत्पत्तिः, अर्थव एवेति ।। २२ ।। ४६ ] [ पा० २. सू० २३-२५ . ] 5 एदैतोऽयाय् ॥ १. २. २३ ।। एकारैकारयोः स्थाने स्वरे परे यथासङ्ख्यम् 'अय् आय्' इत्येतावादेशौ भवतः । नयनम्, नायकः । 'अस्वे' इति इवर्णादिसम्बद्धं तन्निवृत्तौ निवृत्तम्, तेन स्वेऽपि भवति-वृक्षयेव, रायैन्द्री । स्वर इत्येव ? जले पद्मम्, रैधृतिः । ।। २३ ।। 10 Too - एवं इत्यादि - राय ऐन्द्रीति षष्ठीसमासः । " धृङ त् स्थाने" ध्रियते स्वेन रूपेणाऽऽत्माऽनयेति " श्रादिभ्यः " [ ५. ३. ε२. ] इति क्तो धृतिः, ततः षष्ठीसमासः । ।। २३ ।। औदौतोऽवात् ॥ १. २. २४ ॥ ओकारौकारयोः स्थाने स्वरे परे यथासङ्ख्यम् 'अव् ग्राव्' इत्येतावादेशौ 15 भवतः । लवनम्, लावकः, पटवोतुः गावौ । स्वर इत्येव ? गोशृङ्गम्, नौकाष्ठम् ।। २४ ।। व्यक्ये ॥ १.२. २५ ।। ओकारौकारयोः स्थाने क्यवर्जिते यकारादौ प्रत्यये परे यथासङ्खयम् 'अव् आव्' इत्येतावादेशौ भवतः । गव्यति, गव्यते, नाव्यति, नाव्यते, लव्यम्, 20 पव्यम्, अवश्यलाव्यम्, अवश्यपाव्यम्, गव्यम्, नाव्यम्, यीति किम् ? गोभ्याम्, नोभ्याम् । अक्य इति किम् ? उपोयते, प्रौयत, लौयमानि: । क्यवर्जनाद् यकारादिः प्रत्ययो गृह्यते, तेनेह न भवति - गोयूतिः, नौयानम्, कथं 'गव्यूतिःक्रोशद्वयम्' ? क्रोश-योजनादिवदव्युत्पन्नः संज्ञाशब्दोऽयम्, गवां यूतिर्गव्यूतिरिति व्युत्पत्तिपक्षे तु पृषोदरादित्वाद् भविष्यति । शरव्यमिति तु शरसमा -25 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० २६-२८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ४७ नार्थात् शरुशब्दादुवर्णान्तलक्षणे ये, शरान् व्ययतीति वा डे भविष्यतीति । ।। २५ ।। न्या० स०–ग्यक्य इति । गव्यमिति-गोशब्दस्य युगादौ पाठो हितादावर्थे तदन्तार्थः, तेन 'सुगव्यम्, अतिगव्यम्' इत्यादावपि "उवर्णयुगादेर्यः" [७. १. ३०.] इति यः सिद्धः । शरशब्दाद् यप्रत्यये अोकाराभावादवादेशाभावे कथं शरव्यमित्याशङ्कयाऽऽह- 5 शरव्यमितीति ।। २५ ॥ तो रस्तद्धिते ॥ १. २. २६ ॥ ऋत ऋकारस्य यकारादौ तद्धिते परे रादेशो भवति । पितरि साधु पित्र्यम्, भ्रात्र्यम् । तद्धित इति किम् ? कार्यम् ।। २६ ।। न्या० स-ऋत इत्यादि । ननु 'कार्यम्' इत्यत्र परत्वाद् 'घ्यण' इत्यत्र णोपदेशाद 10 वा वृद्धिरेव भविष्यति, किं तद्धितग्रहणेन ? सत्यम्-अत्र तद्धितग्रहणं विना 'जागृयात्, इययात्' इत्यनयो रत्वं स्यात् । ननु 'परिसर्या' इत्यत्रापि प्राप्नोति, न-तत्रान्यदपि वक्तु शक्यम्-क्यपोऽधिकारे यग्रहणं गुणार्थमिति ।। २६ ।। एदोतः पदान्तेऽस्य लुक ॥ १. २. २७ ॥ एदोद्भ्यां पदान्ते वर्तमानाभ्यां परस्याकारस्य लुग् भवति । तेऽत्र, पटोऽत्र,15 यजन्तेऽत्र । एदोत इति किम् ? दध्यत्र । पदान्त इति किम् ? नयनम्, लवनम् । अस्येति किम् ? तयिह, पटविह ।। २७ ।। न्या० स०-एदोत इत्यादि-यद्यपि 'पदान्ते' इति व्यधिकरणं विशेषणमकारस्यैतदोतश्च सम्भवति, तथाप्येदोतोरेव कर्तव्यम्, “गोर्नाम्न्यः " [१. २. २८.] इत्यत्राकारलोपबाधनार्थमवादेशविधानात्, अकारस्य पदान्त इति विशेषणे गवाक्ष इत्यत्रापदान्तत्वाद-20 कारस्य लोपप्राप्तिरेव नास्ति, कुतस्तदपवादोऽवादेशः सम्भवति ?, किञ्च, “एदोत:०" [१. २. २७.] इत्यत्रैव सूत्रे 'अस्य' इत्यस्मिन्नेव सूत्रांशेऽकारस्य "नाम सिद्" [१. २. २१.] इति पदत्वे "एदोतः पदान्ते." [१. २. २७.] इत्यनेन लोपप्राप्तिर्नान्यत्रेति एदोतोरेव पदान्त इति विशेषणमिति ।। २७ ।। गोर्नाम्न्यवोक्षे ॥ १. २. २८ ॥ 25 गोरोकारस्य पदान्ते वर्तमानस्याक्षशब्दे परे नाम्नि-संज्ञायां गम्यमा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ३१-३४.] श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ४९ वाsत्यसन्धिः ॥ १. २. ३१ ॥ गोरोकारस्य पदान्ते वर्तमानस्य, अति-प्रकारे स्वरे परे, असन्धिःप्रकृतिभावो वा भवति । गोग्रम्, गोप्रजिनम् ; पक्षे यथाप्राप्तम् - गोऽग्रम्, गवाग्रम्, गोऽजिनम्, गवाजिनम् । प्रतीति किम् ? गवेङ्गितम्, गवाननम् । गोरित्येव ? द्योऽग्रम् । प्रत इत्येव ? चित्रग्वग्रम् | हे चित्रगोऽग्रमित्यत्र तु 5 लाक्षणिकत्वान्न भवति । पदान्त इत्येव ? गौरिवाचरति - गवति ।। ३१ ।। प्लुतोऽनितौ ॥ १. २. ३२ ।। इतिशब्दवजिते स्वरे परे प्लुतोऽसन्धिर्भवति, सन्धिकार्यभाग् न भवतीत्यर्थः । देवदत्त३ अत्र न्वसि ?, जिनदत्त ३ इदमानय, सुश्लोक ३ श्रागच्छ, सुमङ्गल३ इदमानय । अनिताविति किम् ? सुश्लोकेति सुमङ्गलेति । केचित् 10 तु इतिशब्दे विकल्पमिच्छन्ति - सुश्लोक ३ इति, सुश्लोकेति; सुमङ्गल३ इति, सुमङ्गलेति ।। ३२ ।। न्या० स० - प्लुत इत्यादि । 'अति' इति नानुवर्तते इतिशब्दवर्जनवैयर्थ्यादित्याहइतिशब्देत्यादि । श्रसन्धिरिति न विद्यते सन्धिर्यस्येति बहुव्रीहिणा व्याख्येयम्, एवमुत्तरत्र । देवदत्त३ प्रत्र न्वसीति-देवदत्तशब्दादामन्त्यविहितस्य से: “प्रदेतः स्यमोर्लु क्” [१.४.४४.]15 इति लुकि " दूरादामन्त्यस्य० " [ ७. ४. ε६. ] इति प्लुतः, 'श्रागच्छ भो देवदत्त !' इति कस्यचिद वाक्यस्यान्ते इदमामन्त्र्यपदं द्रष्टव्यम्, वाक्यान्ते प्लुतस्य विधानादिति ।। ३२ ।। इ३ वा ॥ १.२. ३३ ।। इ३ इति प्लुतः स्वरे परे वाऽसन्धिर्भवति, इतावप्राप्तेऽन्यत्र च प्राप्ते उभयत्र विकल्पोऽयम् । लुनीहि३ इति, लुनीहीति, चिनुहि३ इदम्, चिनुहीदम् 120 कथं वशा३ इयम्, वशेयम् ? छान्दसावेतौ ।। ३३ ।। न्या० स० - ६३ वेति । 'वशा३ इयम्' इत्यत्र प्लुतोऽपि छान्दसत्वाद् भवति ।। ३३ ।। ईदूदेद् विवचनम् ॥ १. २. ३४ ॥ 'ईत् ऊत् एत्' इत्येवमन्तं द्विवचनं स्वरे परेऽसन्धिर्भवति । त्रपुणी प्रत्र, 25 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३१-३४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ४६ वाऽत्यसन्धिः ॥ १. २. ३१ ॥ गोरोकारस्य पदान्ते वर्तमानस्य, अति-अकारे स्वरे परे, असन्धिःप्रकृतिभावो वा भवति । गोअग्रम्, गोअजिनम् ; पक्षे यथाप्राप्तम्-गोऽग्रम्, गवाग्रम्, गोजिनम्, गवाजिनम् । अतीति किम् ? गवेङ्गितम्, गवाननम् । गोरित्येव ? द्योऽग्रम् । अोत इत्येव ? चित्रग्वग्रम् । हे चित्रगोऽग्रमित्यत्र तु 5 लाक्षणिकत्वान्न भवति । पदान्त इत्येव ? गौरिवाचरति-गवति ।। ३१ ।। प्लुतोऽनितौ ॥ १. २. ३२ ॥ इतिशब्दवजिते स्वरे परे प्लुतोऽसन्धिर्भवति, सन्धिकार्यभाग् न भवतीत्यर्थः । देवदत्त३ अत्र न्वसि ?, जिनदत्त३ इदमानय, सुश्लोक ३ आगच्छ, सुमङ्गल३ इदमानय । अनिताविति किम् ? सुश्लोकेति, सुमङ्गलेति । केचित्10 तु इतिशब्दे विकल्पमिच्छन्ति-सुश्लोक ३ इति, सुश्लोकेति; सुमङ्गल३ इति, सुमङ्गलेति ॥ ३२ ॥ न्या० स०-प्लुत इत्यादि । 'अति' इति नानुवर्तते इतिशब्दवर्जनवैयर्थ्यादित्याहइतिशब्देत्यादि । असन्धिरिति-न विद्यते सन्धिर्यस्येति बहुव्रीहिणा व्याख्येयम्, एवमुत्तरत्र । देवदत्त३ प्रत्र न्वसीति-देवदत्तशब्दादामन्त्र्यविहितस्य सेः “अदेतः स्यमोर्नुक" [१.४.४४.]15 इति लुकि "दूरादामन्त्र्यस्य." [ ७. ४. ६६. ] इति प्लुतः, 'पागच्छ भो देवदत्त !' इति कस्यचिद् वाक्यस्यान्ते इदमामन्त्र्यपदं द्रष्टव्यम्, वाक्यान्ते प्लुतस्य विधानादिति ।। ३२ ।। इ३ वा ॥ १. २. ३३ ॥ इ३ इति प्लुतः स्वरे परे वाऽसन्धिर्भवति, इतावप्राप्तेऽन्यत्र च प्राप्ते उभयत्र विकल्पोऽयम् । लुनीहि३ इति, लुनीहीति, चिनुहि३ इदम्, चिनुहीदम् । 20 कथं वशा३ इयम्, वशेयम् ? छान्दसावेतौ ।। ३३ ।। न्या० स०-इ३ वेति । 'वशा३ इयम्' इत्यत्र प्लुतोऽपि छान्दसत्वाद् भवति ईदूदेद् द्विवचनम् ॥ १. २. ३४ ॥ 'ईत् ऊत् एत्' इत्येवमन्तं द्विवचनं स्वरे परेऽसन्धिर्भवति । त्रपुणी अत्र,25 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३५. ] मुनी इह, साधू एतौ अमू इति कुण्डे अत्र, माले इति पचेते इति पचेथे इति, पचावहे आवाम् । ईदूदेदिति किम् ? वृक्षावत्र । द्विवचनमिति किम् ? कुमार्यत्र । एषां प्लुतानामितावपि सन्धिर्न भवति - प्रग्नी३ इति, वायू३ इति । स्वर इत्येव ? तव ई - कामौ तवे । प्रत्यासत्तेः स्वरनिमित्तककार्यप्रतिधादिह भवत्येव - तव ई तवे साते । केचित् तु " मणीवोष्ट्रस्य लम्बेते 5 प्रियौ वत्सतरी मम" [ महाभारते ] इति प्रयोगदर्शनाद् 'मरणी इव - मणीव' इत्यादावसन्धिप्रतिषेधं वर्णयन्ति तदयुक्तम् -- वाशब्देनोपमानार्थेन सिद्धत्वात्, "मणी इवोद्भिन्नमनोहरत्विषौ" इत्यादावसन्धिदर्शनाच्च । अन्ये तु यथादर्शनं सन्धिमसन्धि चेच्छन्ति --- मरणीव, दम्पतीव, रोदसीव, मरणी इव ।। ३४ ।। ५० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते न्या० स० - ईदूदेदित्यादि- 'अग्नी३ इति' इत्यादी "दूरादामन्त्यस्य०" [७.४.६६.]10 इति प्लुतः । त इति यथा स्वरे परे सन्धिकार्यनिषेधस्तथा पूर्वस्थितेऽपि किं नेति ? सत्यम् सप्तम्या निर्दिष्टे पूर्वस्य इति न्यायात् स्वरापेक्षया पूर्वदेशव्यवस्थितस्यैव ईदादेः सन्धिनिषध:, न तु पूर्वस्थिते स्वरे । यद्यप्येवं यत्र परत्र स्वरो भवति - ' तवे साते' इति, तत्र पूर्वेणापि सह सन्धिप्रतिषेधः प्राप्नोतीत्यत श्राह - प्रत्यासत्तेरित्यादि । अयमर्थ:यस्मिन् सति यद् भवति तत् तस्य निमित्तमिति परस्वराश्रितत्वात् प्रथमं यत्वस्य तदनु 15 यादेशस्य च निषेधः, ते एव च परस्य स्वरस्य प्रत्यासन्न े, एत्वं तु परं स्वरमन्तरेणापि भवतीति न तत् स्वनिमित्तम्, न तत् प्रत्यासन्न चेति प्रत्यासत्तिन्यायात तन्निमित्तकस्यैव कार्यस्य निषध:, नातन्निमित्तकस्येति । वाशब्देनेत्यादि भाष्यकार वार्तिककारयोरसम्मतवाच्चेति । 'दम्पती' इत्यत्र राजदन्तादित्वाद जायाया दम्भावः । द्यौश्व पृथिवी च पृषोदरादित्वाद 'रोदसि' इदन्त प्रदेशः, ततो द्विवचनम् ।। ३४ ।। 20 अदोमु-मी ॥ १.२.३५ ।। अदस्शब्दसम्बन्धिनौ ‘मुमी' इत्येतावसन्धी भवतः स्वरे परे । मुमुईचा, मी प्रासाते, मी अश्वा: । अदसिति किम् ? अम्यत्र ।। ३५ ।। न्या० स० - श्रद इत्यादि - प्रदसो मु-मी इति विग्रहः । ननु प्रमुष्य मु-मी इति विग्रहः प्राप्नोति, कथमदस इति ? सत्यम् अविवक्षि गर्थस्य प्रायोगिक स्यादस्शब्दस्यात्र25 प्रयोगः, तत्र तु सार्थको गृह्यत इति प्रदस शब्दसम्बन्धि कार्याभावेऽदस इति भवति । हस्वत्वाभावे तु स्वैरादिवत् सर्वं द्रष्टव्यम्, सौत्रत्वाद् वा समाहारेऽपि न ह्रस्वः । प्रयत्रेति - "श्रमं गतौ” इत्यतो भावे घञि प्रमः सोऽस्यास्तीति इन् । ३५ ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ५१ चादिः स्वरोऽनाङ्॥ १. २. ३६ ॥ आजितश्चादिरव्ययसंज्ञकः स्वरे परेऽसन्धिर्भवति । अ अपेहि, प्रा एवं किल मन्यसे, आ एवं नु तत्, इ इन्द्रपश्य, ई ईदृशः संसारः, उ उत्तिष्ठ, ऊ ऊषरे बीजं वपसि, ए इतो भव, प्रो अोश्रावय । चादिरिति किम् ? अ! [विष्णो ! ] आगच्छ-आगच्छ । कथं तितउ:-परिवपनम् ? "तनेर्डउः" 5 [उणा० ७४८.] इति डउविधानबलादसन्धिर्भविष्यति । उत्तरत्रान्तग्रहणादिह केवलो गृह्यते, तेनेह न भवति-चेति, इतीह, नन्विति, वेति । स्वर इत्येव ? जानु उ-जानू । स्वरे परे इति प्रत्यासत्तेस्तन्निमित्तकसन्धिप्रतिषेधादिह दीर्घत्वलक्षणः सन्धिर्भवत्येव-जानु उ अस्य रुजति-जानू अस्य रुजति । केचित् तु चाद्यचादिस्थानस्याचादिरूपत्वात् स्वरनिमित्तकमपि सन्धिमिच्छन्ति-10 जानु उ अस्य रुजति-जान्वस्य रुजति । अनाङिति किम् ? आ ईषद् उष्णम्-प्रोष्णम्, आ इहि-एहि, आ उदकान्ताद्-प्रोदकान्तात् प्रियप्रोथमनुव्रजेत्, आ आर्येभ्यः-आर्येभ्यो यशो गतं गौतमस्य, "ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः । एतमातं डितं विद्याद् वाक्य-स्मरणयोरङित्" ।। ३६ ।। 15 न्या० स०–चादिरित्यादि । 'अनाङ' इत्यत्र पर्यु दासाश्रयणेन सदृशग्रहणात्, चादिना स्वरस्य विशेषणात् तदन्तत्वासम्भवात् सामानाधिकरण्यलाभात् केवलस्य ग्रहणमित्याह-प्रावजितश्चादिरव्ययसंज्ञकः स्वर इति-वृत्तौ तु द्वितीयमुत्तरम् । प्रा एवं किल मन्यसे इति-अत्राकारो वाक्यालङ्कारे, पूर्ववाक्यार्थविपर्ययद्योतको वा। ऊष्यते पीड्यते बीजादि वस्त्वनेनेति "व्यञ्जनाद् ०" [५. ३. १३२.] घत्रि ऊषः, सोऽस्मिन्नस्ति "मध्वा-20 दिभ्यो रः" [ ७. २. २६. ] इति रे ऊषरः। शृणोतेरिणगि अलि श्रावः, प्रोः श्राव:अोश्रावः, तं करोति णिचि पूर्ववद् हौ 'पोश्रावय' इति क्रियापदमखण्डम् । प्रा उदकान्तादिति-अत्राङ मर्यादायाम्, तेन प्रियप्रोथानुव्रजनस्योदकमर्यादाभाव प्राङा द्योत्यते । प्रा प्रार्यभ्य इति-अत्राङ अभिविधौ, तेन यशोगति प्रति आर्याणाम भविधित्वं द्योत्यते । मर्यादाऽभिविधौचेति-अवधिमताऽसम्बद्धोऽवधिः, अभिविधिः-अभिव्याप्ति:, अवधिमपि यो25 व्याप्नोतीत्यर्थः, अवधिमताऽसम्द्धो योऽवधि: स मर्यादा, त परित्यज्य यो वर्तत इत्यर्थः । वाक्यस्मरणयोरिति-वाक्यशब्देन वाक्यार्थ उच्यते, चादीनां द्योतकत्वाद अर्थस्यैव द्योत्यत्वात्, न तु शब्दस्येति । प्रा एवं किल मन्यसे पूर्वप्रक्रान्तवाक्यार्थस्यान्यथात्वद्योतनायायमत्राकारः, अन्ये तु वाक्यशब्देन वाक्यमेवाहुः, तत आ एवं किल मन्यसे, 'नैवं पूर्वममस्थाः, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ३७-३८.] सम्प्रति मन्यसे' इति वाक्यसूचनायाऽऽकारः प्रयुज्यते। तथा स्मृतेः सूचक आकारः प्रयुज्यते, ततः स्मृत्यर्थो निर्दिश्यते-प्रा एवं नु तदिति ।। ३६ ।। ओदन्तः ॥१. २. ३७ ॥ ओकारान्तश्चादिः स्वरे परेऽसन्धिर्भवति । अहो अत्र, उताहो इदम्, अहो एतत्, अथो अस्मै, हंहो आगच्छ, अडो एहि, नो इन्द्रियम् । चादि- 5 रित्येव ? गवीश्वरः, अगौगौंः समपद्यत-गोऽभवत् ; मिथोऽत्र, मिथोशब्दः स्वरादिर्न तु चादिः, 'तिरोऽभवत् ; नमोऽकरोत्; अदोऽभवद्' इत्यादिषु लाक्षणिकत्वाच्च न भवति । 'अहो' इत्यादयोऽखण्डाश्चादय इति पृथग् योगः ।। ३७ ।। न्या० स०-प्रोदन्त इति । 'समपद्यत' इति वृत्तावर्थकथनम्, न तु च्वेरारम्भक-10 मिदं वाक्यम्, “कृभ्वस्ति" [ ७. २. १ ६. ] योगे एव च्वेविधानात् । गोऽभवदिति-पत्र "अधरण तसु०" [१. १. ३२.] इति, “गतिः" [ १. १. ६. ] इति वाऽव्ययत्वे सेलु पि "एदोतः पदान्तेऽस्य." [ १. २. २७. ] इति अलोपः । इत्याद्यपीति-'तिरस् नमस् अदस्' इत्याद्यपि स्वरादिर्न तु चादिरित्यर्थः । अहो इत्यादय इति-अह+उ-अहो इति, उत+ अह+उ-उताहो इति, आह + उ-पाहो इत्यादावर्थाभेदात् चादिसमुदायस्यापि चादित्वात् 15 पूर्वेणैव सिद्धत्वादनर्थकमिदमिति परस्याशयः, नवम्-एकनिपातत्वाच्चादिषु तथैव पाठात पूर्वेण न प्राप्नोतीति पृथग्योगारम्भ इत्याह-अहो इत्यादय इति ।। ३७।। सौ नवेतौ ॥ १. २. ३८ ॥ सिनिमित्तो य प्रोदन्तः स इतौ परेऽसन्धिर्वा भवति । पटो! इति, पटविति; साधो ! इति, साधविति । साविति किम् ? अहो इति । गवित्य-20 यमाह, गौरिति वक्तव्येऽशक्त्या 'गो' इत्युक्तमनुक्रियते, स्याद्वादाश्रयणाच्चानुकार्याऽनुकरणयोरभेदविवक्षायामसत्यर्थवत्त्वे विभक्तिर्न भवति । इताविति किम् ? पटोऽत्र ॥ ३८ ।। ____ न्या० स०-सौ नवेत्यादि-आमन्न्यार्थविहितः सिरत्र ग्राह्यः, अन्येन स्वरस्य व्यवधानाद् प्रोकारस्यासम्भवाच्च प्राप्तेरभावात् प्रतिषेधोऽनर्थकः । 'वा' इत्युक्तऽपि विकल्पे 25 सिद्ध 'नवा' इत्यधिकारार्थं कृतम्, तेन सर्वत्र यत्र नवेति तत्राधिकारः, यत्र तु वेति तत्र नाधिकार इति ।।३८ ।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३९-४०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ५३ ॐ चोञ् ॥ १. २. ३६ ॥ उशब्दश्चादिरितिशब्दे परे वाऽसन्धिर्भवति, असन्धिपक्षे च उञ् 'ॐ' इत्येवंरूपो दीर्घोऽनुनासिको वा भवति, तथा च सति त्रैरूप्यं सिद्धं भवति--उ इति, ऊँ इति, विति । इतावित्येव ? उ उत्तिष्ठ । जित्करणं स्वरूपपरिग्रहार्थम्, तेन विकृतस्य न भवति---अह+उ-अहो, अहो इति; एवम्-उताहो इति । 5 अथ ऊँ इत्येव चादिषु पठ्यताम्, किमादेशेन ? नैवम्--तस्यानितावपि प्रयोगः प्रसज्येत तन्निषेधार्थमादेशवचनम् ।। ३६ ॥ न्या० स०-ॐ चोमिति । तेन विकृतस्येति-विकृतस्यात्रितो विकृतौ सत्याम्, स्वरूपहानेरित्यर्थः, अयमभिप्रायः-द्वाविमावुकारौ-एको निरनुबन्धोऽपरः सानुबन्ध इति, तत्र यो निरनुबन्धस्तस्य 'अहो' इत्यत्रौकारादेश इष्यते नापरस्य, अतोऽहो इत्यत्रात्रित एव 10 कृतादेशत्वादिदं सूत्रं न प्रवर्तत इत्यर्थः, अत एव 'जान्वस्य रुजति' इत्यत्रोत्तरसूत्रेण वत्त्वं सिद्धम्, उत्रा सह जानोरुकारस्य दीर्धीभूतत्वात्, अथवा अत्र सूत्रे उकारप्रश्लेषाद् 'उ उ ऊत्र' इत्युकारेण उत्रो विशेषणाद् उकाररूपस्य उत्रो ग्रहणाः 'अहो' इत्यादी न भवति, उत्तरत्र तु जात्याश्रयणाद् दीर्धीभूतस्यापि 'जान्वस्य रुजति' इत्यादौ वत्वं भवति ।। ३६ ।। 15 अञ्वर्गात् स्वरे वोऽसन् ॥ १. २. ४० ॥ अकारवजितेभ्यो वर्गभ्यः पर उञ् स्वरे परे वकारो वा भवति, स चासन्--अभूतवत् । क्रुङवास्तेक्रुङ् प्रास्ते; किम्वावपनम्, किमु आवपनम्, किम्वुष्णम्, किमु उष्णम् ; किम्विति, किमु इति, कि{ इति, किं विति, किवं विति; जानु उ जानू, जान्वस्य रुजति, जानू अस्य रुजति; तद् वस्य20 मतम्, तदु अस्य मतम् । वर्गादिति किम् ? स्वरु उपैति, अन्तरु उपैति । अजिति किम् ? घजु एति । स्वर इति किम् ? किमु गच्छति । असत्त्वाद् द्वित्वमनुस्वारानुनासिकाभावश्च ।। ४० ।। न्या० स०- अञ्वर्गेत्यादि नत्र तत्पुरुषगर्भकर्मधारयात् पञ्चमी। अत्र 'असन्' इत्युक्ते यदि वकाररूपादेशस्य स्वरूपेणाभावो विधीयते तदाऽऽदेश विधानमनर्थक स्यात्,25 अथ उन रूपस्य स्थानिनो निवृत्त्यर्थं तदिति चेत् ? सत्यम्-एवं सति उत्र एव निवृत्ति कुर्यात्, तस्माद् 'असन्' इति मुख्यार्थबाधायां गुणकल्पनाऽऽश्रीयत इत्याह-प्रसन्-प्रभूतवदिति-प्रसिद्धवत्, अकृतवदित्यर्थः, ततश्च स्थाम्याश्रय कार्य सिद्ध भवति, ननु 'असन्' Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ४१.] 10 इति विनाऽपि प्रथममेव द्वित्वे ऋङ ङ वास्ते इति सेत्स्यति, तत् किमनेनात्र दशितेन ? सत्यम्-पत्र परत्वा: "हस्वान्ड-गण-नो द्व' [१.३.२७. ] इत्यनेन जायमानं द्वित्वं बाधित्वा नित्यत्वादनेन वकारः, तस्य चासत्त्वाद् द्वित्वम् । कि विति; किवं त्रितीति-पत्र "इवर्णादेः०” [ १. २. २१.] इति वत्वे कृते "तो मु-मो व्यञ्जने." [ १. ३. १४. ] इत्यनुस्वारानुनासिकौ । तद् व्वस्य मतमिति-यत्र "ततोऽस्या:" [ १. ३. ३४. ] इत्यस्य 5 प्राप्तिस्तत्र "प्रदीर्घात्" [१. ३. ३२.] इति प्राप्तमपि द्वित्वं न प्रवर्तते नित्यत्वादिकारणेभ्यः । असत्त्वाद् द्वित्वमिति-"प्रदोर्घात्०" [१. ३. ३२.] इति, "ततोऽस्याः" [ १. ३. ३४. ] इति च द्वित्वादौ कर्तव्ये सन्नव, यतोऽसन्नित्यत्रापि वा योजनीयः, वकारादेशोऽपि वाऽसन् भवतीत्यर्थः, ततः पक्षेऽसत्त्व विधानान् कार्यविशेष प्रति सत्त्वमेव, तेन तद्वस्य मुखम् [मतम्], जान्व्वस्य रुजति इत्याद्यपि सिद्धम् ।। ४० ।। अ-इ-उवर्णस्यान्तेऽनुनासिकोडनीदादेः ॥ १. २. ४१ ॥ अवर्णस्येवर्णस्योवर्णस्य चान्ते-विरामे वर्तमानस्यानुनासिक आदेशो वा भवति, अनीदादेः--न चेदयम् "ईदूदेद् द्विवचनम्" [१. २. ३४.] इत्यादिसूत्रसम्बन्धी भवति । पदान्ताधिकारेऽन्तग्रहणं विरामप्रतिपत्त्यर्थम्, स च विरामो भवन् पदस्यान्ते भवति, केवलमुपसर्गस्य समासान्तर्वतिनश्च न15 भवति । साम, साम; खट्वाँ खट्वा; दधिं, दधि; कुमारी, कुमारी; मधु, मधु; वृक्षण, वृक्षण; नाम अत्र, नाम अत्र; दधिं अत्र, दधि अत्र; मधु अत्र, मधु अत्र; वृक्षण अत्र, वृक्षण अत्र; विरामत्वाच्च सन्धिर्न भवति । अ-इ-उवर्णस्येति किम् ? कर्तृ, हर्तृ । अन्त इति किम् ? दधि करोति, मधु करोति, वृक्षः । अनीदादेरिति किम् ? अग्नी, वायू, अम्, अमी, किमु । चादिसूत्रे20 चादेः स्वरस्य केवलस्याजितस्य च ग्रहणादिह भवत्येव--अँ ! इति विष्णोः सम्बोधनम्, प्लक्षच, न्यग्रोध च, पाटलिपुत्रादा ।। ४१ ।।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ।। २ ।। पूर्वभवदारगोपीहरणस्मरणादिव ज्वलितमन्युः । श्रीमूलराजपुरुषोत्तमोऽवधीद् दुर्मदाभीरान् ॥२॥ ग्रन्थाग्रम्-२१७ ॥ 25 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० १.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ५५ न्या० स०-अ-इ-उवर्णस्येत्यादि । वृक्ष इति-"कादिय॑ञ्जनम्' [ १. १. १०.] इति सूत्रे कस्यादिरिति तत्पुरुषसमासे विसर्गस्यापि व्यञ्जनत्वे "नाम सि०" [ १. १ २१. ] इति वृक्षाकारस्य पदत्वाद् 'अन्ते' इति व्यावृत्तेर्न द्वयङ्गविकलतेति ।। ४१ ।। इति द्वितीय: पादः संपूर्णः ।। प्रथ तृतीयः पादः तृतीयस्य पञ्चमे ॥ १. ३. १ ॥ 'वा' इति, ‘पदान्ते' इति, 'अनुनासिकः' इति चानुवर्तते, वर्गतृतीयस्य पदान्ते वर्तमानस्य वर्गपञ्चमे परे वाऽनुनासिको भवति, स्थान्यासन्नः । वाङ् ङवते, वाग् ङवते; वाजकारः, वागञकारः; वाङ् रणकारीयति, वाग् णकारीयति ; वाङ् नयति, वाग् नयति; वाङ्मधुरा, वाग्मधुरा; एवम्--षण 10 नयाः, षड् नयाः; तन्नयनम्, तद्नयनम् ; ककुम्मण्डलम्, ककुमण्डलम् । तृतीयस्येति किम् ? स्वर्नयति, हल्मात्रम् । पदान्त इत्येव ? विद्मः । पञ्चम इति किम् ? वागत्र, षड् गच्छन्ति । केचित् तु व्यञ्जनस्य स्थानेऽनुनासिके परे वाऽनुनासिकमिच्छन्ति, तस्य तु "ह्रस्वान्ङ-ण-नो द्व" [१. ३. २७.] इति द्वित्वं च नेच्छन्ति, तन्मते-त्वहूं इति, त्वयूँ इति; श्वलिण इति,15 श्वलिडूं इति; तनूं इति, तदूं इति; हल्मात्रम्, हल्माँत्रम् । ननु ‘षड् नयाः' इत्यादौ "प्रदीर्घाद् विरामैकव्यञ्जने" [१. ३. ३१.] इत्यनेन तृतीयस्य द्वित्वे कृतेऽन्त्यस्यानुनासिके च तृतीयस्यापि श्रुति प्राप्नोति, नैवम्-अनुनासिके कृते पश्चाद् द्वित्वस्य भावात्, तेन 'षण्ण नयाः, षड्ड् नयाः' इत्यादि सिद्धम् ।। १ ।। न्या स०–त तीयेत्यादि तृतीयस्येत्युत्तरार्थम्, अन्यथा वर्गस्येति क्रियेत, तेन प्राङ हसतीति सिद्धम्, 'वा' इतोति-"सौ नवेतौ" [१. २. ३८.] इत्यतो नवेति, "एदोतः" [१. २. २७.] इत्यतः ‘पदान्ते' इति, "अ-इ-उवर्ण०" [१. २. ४१.] इत्यतोऽनुनासिक इत्यधिकारत्रयं पादान्तरगतमप्यनुवर्तते अपेक्षातोऽधिकारः इति न्यायात् । प्रथम-द्वितीय-तृतीयादित्वं वर्गस्यैव धर्म इति वर्गस्यैव तृतीयः पञ्चमश्चेत्याह-वर्गत ती-25 20 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० २-३] यस्येति । स्थान्यासन्न इति-यद्वर्गसत्कस्तृतीयस्तद्वर्गसत्क एवानुनासिक इत्यर्थः । । तन्नयनमिति-अत्र तृतीयस्य दस्यासत्त्वे तत्स्थानस्य नस्याप्यसत्त्वाद नलोपो न भवति । ककुम्मण्डलमिति-अत्र "तौ मु-म:०" [१. ३. ४०.] इत्यनेन नानुस्वारः, “अ वर्गात्" [१. २. ४०.] इत्यतोऽसदधिकारस्य प्रयोजनवशादिष्टत्वाद् लाक्षणिकत्वात्, * प्रसिद्ध बहिरङ गम् इत्यसिद्धत्वाद् वा, इति । केचित त्विति-विश्रान्तविद्याधरादयः । मात्र- 5 मवधारणे, हल् च तत् मात्रं च, हल् मात्राऽस्येति वा-हलमात्रमिति, हल मात्रमितिअत्र लकारस्य सानुनासिको लकार इति। ननु 'षण्ण नयाः' इत्यत्र परत्वात् तृतीयस्यानुनासिकं बाधित्वा “प्रदीर्घात्०" [१. ३. ३२.] इत्यनेन द्वित्वे कृते 'षड्ण नयाः' इति प्राप्नोतोत्याह–अनुनासिके कृते पश्चाद् द्वित्वस्य भावादिति-"प्रदीर्घात्" [१. ३. ३२.] इत्यनेन पूर्वं द्वित्वं न प्रवर्तते, तत्रान्वित्यधिकारात्, कृते त्वनुनासिके प्रवर्तत10 इत्यर्थः ॥१॥ प्रत्यये च ॥ १. ३. २॥ पदान्ते वर्तमानस्य तृतीयस्य स्थाने पञ्चमादौ प्रत्यये परेऽनुनासिको भवति । नित्यार्थं वचनम् । वाङ्मयम्, गुडलिण्मान्, षण्णाम् । पदान्त इत्येव ? यज्ञः, सद्म । चकार उत्तरत्र विकल्पानुवृत्त्यर्थः ॥ २॥ 15 न्या० स०-प्रत्यये चेति । वाङमयमिति-वाचां विकारोऽवयवो वा “एकस्वरात्" [६. २. ४८.] इति मयट, वाच आगतं "नृ-हेतुभ्य:०" [६. ३. १५६.] इति मयट वा । गुडलिण्मानिति-अत्र “माऽवर्ण०" [२. १. ६४.] इति वत्वे कर्तव्ये हस्य ढत्वमसिद्ध द्रष्टव्यमिति । चकार इति-अयमर्थः-अत्र चकारः पूर्वयोगस्यैवास्य योगस्य शेषतां प्रतिपादयन् आत्मनि 'वा' इत्यस्य सम्बन्धाभावं वाऽनुवृत्तेश्चोत्तरत्राव्यवधानं च20 सूचयतीति ॥२॥ ततो हश्चतुथः ॥ १. ३. ३ ॥ पदान्ते वर्तमानात् ततस्तृतीयात् परस्य हकारस्य स्थाने प्रत्यासत्त्या पूर्वसवर्गश्चतुर्थो वा भवति । वाग्घीनः, वाग्हीनः; अज्-झलौ, अज्हलौ; षड् ढलानि, षड् हलानि; तद्धितम्, तहितम्; ककुब्भासः,25 ककुब्हासः । तत इति किम् ? प्राङ् हसति, भवान् हरति ।। ३ ।। न्या० स०–ततो ह इत्यादि। ननु हस्य कण्ठ्यत्वात् तदासन्नेन हस्य घेनैव भाव्यम्, न झ-ढ-ध-भैरित्यतः पूर्वचतुर्थ इति कर्तव्यमिति, नैवम्-चतुर्थ इति गुरुकरणात् पूर्वप्रत्यासत्तिलम्यते, अन्यथा 'ततो हो घः' इत्येव कुर्यात्, इत्याह-प्रत्यासत्या पूर्वसवर्ग Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ४-५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ५७ इति । अज्-सलाविति-अत्र संज्ञाशब्दत्वात् कत्वाभावः, यतोऽर्थप्रत्यायनाय शब्दप्रयोगः, 'अच' इति हि स्वरप्रत्यायनमिष्टम्, कत्वे तु कृते 'अक्' इत्युक्त समानप्रतीतिः स्यादिति, अत एव च “सिजद्यतन्याम्" [३. ४. ५३.] इत्यादौ विवक्षितार्थप्रतीत्यभावात् सिचश्चकारस्य कत्वं न कृतमिति, अन्यथौणादिकस्य सिक्प्रत्ययस्याद्यतन्यां सत्यां प्रतीति: स्यादिति ।। ३ ।। . प्रथमादधुटि शश्छः ॥ १. ३. ४ ॥ पदान्ते वर्तमानात् प्रथमात् परस्य शकारस्य स्थानेऽधुटि परे छकारादेशो वा भवति । वाक्छूरः, वाक्शूरः; वाक्छ्लक्ष्णः, वाक्श्लक्ष्णः; तच् छ्वेतम्, तच् श्वेतम्, उच्छ्मश्रुः, उच्श्मश्रुः, तच् छ्मीलति, तच् श्मीलति; षट्छ्यामाः, षट्श्यामाः; त्रिष्टुप्छ तम्, त्रिष्टुप्श्रुतम् । प्रथमादिति किम् ? 10 प्राङ् शूरः, भवाञ् शोभनः । अधुटीति किम् ? वाक् श्च्योतति ।। ४ ।। न्या० स०–प्रथमेत्यादि । 'वाक्छूरः' इत्यादिप्रयोगेषु सर्वेषु तृतीयस्य प्रथमे कृते तादृक्षात् प्रथमात् शकारस्यानेन छः प्रवर्तते, ततस्तृतीयाधिकारेणैव सिद्धयति, न च परत्वात् “अघोषे प्रथमोऽशिट:" [१. ३. ५०.] इति प्रागेव प्रथमो भविष्यति, ततस्तृतीयाभावात् कथं शस्य छादेशो भविष्यतीति वाच्यम्, यतस्तत्रान्वित्यधिकारात् न प्रागेव15 प्रथमत्वमिति, सत्यम्-तृतीयाद् विधीयमाने छे तृतीयस्य प्रथमत्वं पश्चाद् न प्राप्नोति विधानसामर्थ्यात् यथा “ड्नः सः त्सोऽश्चः" [१. ३. १८.] इत्यत्र सूत्रे डकारात् परे त्से कृते टत्वं न भवति षड्त्सीदन्तीत्यत्र । किञ्च, प्राङक छेते, सुगण टु छेते' इत्यादौ तृतीयाभावात् छत्वं न स्यादिति विध्यर्थमिति । शोभत इत्येवं शीलः शोभनः “इङितो व्यञ्जन०" [५. २. ४४.] इत्यनः । अधुटीति पर्युदासात् स्वरा-ऽन्तस्था-ऽनुनासिकपरस्य20 शस्य छो भवतीति, तेन 'वाश्' इत्यत्र छो न भवतीति । वाक्छूर इत्यादौ "ऊनार्थपूर्वाद्यैः" [१. ३. ६७.] इति समासः ॥ ४ ॥ रः करव-पफयोर्क -(पौ॥ १. ३. ५ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य रेफस्य क-खे प-फे च परे यथासंख्यंक-) (पौजिह्वामूलीयोपध्मानीयावादेशौ वा भवतः । ककार-पकारा-ऽकारा उच्चार-25 णार्थाः । क करोति, क खनति, क) (पचति, क) (फलति, अन्त करोति, अन्त) (फलति; पक्षे "रः पदान्ते विसर्गस्तयोः" [१. ३. ५३.] ' इत्यनेन विसर्गः-कः करोति, कः खनति, कः पचति, कः फलति, अन्तः करोति, अन्तः फलति । विसर्गापवादोऽयम्, एवमुत्तरावपि ॥ ५ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ६-७] न्या० स०-रः क-खेत्यादि । ननु *निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य इति न्यायात कः करोतीत्यादौ सानुबन्धस्य रेफस्यादेशो न प्राप्नोति, सत्यम-"अरोः सूपि०" [१. ३. ५७.] इत्यत्र रुवर्जनाद् रोरप्यादेशः, तद्धि "रः पदान्ते" [१. ३. ५३.] इति सूत्राद् निरनुबन्धे रेफेऽनुवर्तमाने स्वयमेव सिद्ध सत् ज्ञापयति- निरनुबन्धग्रहणे सामान्यग्रहणम् ३ इत्यपि न्यायोऽस्तीति ॥ ५ ॥ श-ष-शे श-ष-सं वा ॥ १. ३. ६ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य रेफस्य श-ष-सेषु परेषु यथासंख्यं 'श ष स' इत्येते आदेशा वा भवन्ति । कश्शेते, कः शेते; कष्षण्डः, कः षण्डः; कस्साधुः, कः साधुः; अन्तश्शेते, अन्तः शेते; मातष्षण्डे !, मातः षण्डे !, पयस्सु, पयःसु । कथं गीर्षु, धूर्षु ? अरो रेफस्य सुपि रेफो वक्ष्यते । 'क: श्शकार'10 इत्यादिषु त्वघोषे शिट्परे विसर्जनीयस्य विधानाद् रेफ एव नास्तीति न भवति; एवं पूर्वोत्तरयोरपि योगयोर्द्रष्टव्यम्-वासः क्षौमम्, अद्भिः प्सातम्, असेः त्सरुः । नवाधिकारे वाग्रहणमुत्तरत्र विकल्पनिवृत्त्यर्थम् ।। ६ ॥ न्या० स०-श-ष-स इत्यादि-ननु 'श-ष-से सो वा' इत्येवं सकार एव विधीयताम्, तस्य च "सस्य शषौ” [१. ३. ६१.] इति कृते 'कश्शेते, कष्षण्डः' इत्यादौ शकार-षकारौ15 सेत्स्यतः, एवमुत्तरत्रापि 'कश्चरति, कष्टीकते, भवाश्चरति, भवाँष्टीकते' इत्यादौ श-षौ सेत्स्यत इत्युत्तरार्थमिति न वक्तव्यम्, तथा 'कश्शेते' इत्यादौ "धुटस्तृतीयः'' [२. १. ७६.] इत्यस्मिन् कर्तव्ये रुत्वस्य, 'अन्तश्शेते' इत्यादौ तु प्रसिद्ध बहिरङ गम् । इति न्यायेन शत्वस्यासिद्धत्वे तृतीयत्वमपि न प्रवर्त्यति, तत् किं श-षयोः पृथग्विधानेनेति ? सत्यम् प्रसिद्ध बहिरङ गमन्तरङ्गे २ इति न्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थम्, तेन "बभूवुषा"20 इत्यादौ स्वरनिमित्तमुवादि सिद्धम् । किञ्च, श-ष-स-ग्रहणं व्यक्त्यर्थम्, तेनैतेषु कृतेष्वेतद्विलक्षण कार्यान्तरं न भवति, ततश्चान्तश्शेते मातष्षण्ड इत्यादौ "धुटस्तृतीयः" [२. १. ७६.] इति जत्व-डत्वादिकं न भवति, 'कश्शेते' इत्यादौ तु तृतीयाभावो रोः परेऽसत्त्वादपि सिध्यतीति न्यासः । कथं तर्हि 'सर्पिष्षु' इत्यादौ षत्वमिति ? सत्यम्श-ष-सविलक्षणं तृतीयत्वादिकं न भवति, श-ष-सरूपं तु भवत्येवेति दिक् ॥ ६ ॥ 25 च-ट-ते सद्वितीये ॥ १. ३. ७ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य रेफस्य च-ट-तेषु सद्वितीयेषु परेषु यथासंख्यं 'श, ष, स' इत्येते आदेशा भवन्ति । च-छयोः शः-कश्चरति, कश्छादयति, अन्तश्वरति, अन्तश्छादयति । ट-ठयोः षः-कष्टीकते, कष्ठकारेण, पुनष्टीकते, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ५६ पुनष्ठकारेण । त-थयोः सः-कस्तरति, कस्थुडति, अन्तस्तरति, अन्तस्थुडति । ॥ ७॥ ___ न्या० स०-च-ट-त इत्यादि । नन्वत्रासंदेहार्थं 'च-छ-ट-ठ-त-थे' इत्येव किं न क्रियते सद्वितीयग्रहणमपनीयेति ? सत्यम्-निमित्तबहुत्वे यथासंख्यं न स्याद्, अत पाहयथासंख्यमिति । न च सद्वितीयग्रहणे सत्यपि चकाराक्रान्तश्छकारो यत्र, एवं टकाराकान्त- 5 ष्ठकारः, तकाराक्रान्तस्थकारश्च यत्र भवेत् तत्रैव कार्यं प्राप्नोतीत्याशङ्कनीयम् "उदश्चरः साप्यात्,” [३. ३. ३१.] “चरेष्ट:" [५. १. १३८.] "ब्रीह्यादिभ्यस्तौ” [७. २. ५.] इत्यादिज्ञापकात् केवलेष्वेव भवतीति ।। ७ ॥ नोऽप्रशानोऽनुस्वारा-अनुनासिकौ च पूर्वस्यात्परे। ॥ १. ३. ८ ॥10 पदान्ते वर्तमानस्य प्रशान्वजितशब्दसम्बन्धिनो नकारस्य स्थाने च-टतेषु सद्वितीयेष्वधुट्परेषु परेषु यथासंख्यं 'श, ष, स' इत्येते आदेशा भवन्ति, अनुस्वाराऽनुनासिकौ च पूर्वस्य-अनुस्वार आगमोऽनुनासिकश्चादेशः पूर्वस्य क्रमेण भवत इत्यर्थः । भवाँश्चरति, भवांश्चरति; भवाँश्छादयति, भवांश्छादयति; भवाँष्टीकते, भवांष्टीकते; भवाँष्ठकारेण, भवांष्ठकारेण; भवाँ-15 स्तरति, भवांस्तरति; भवाँस्थुडति, भवांस्थुडति । अप्रशान इति किम् ? प्रशाञ् चरति, प्रशारण टीकते, प्रशान् तरति । अधुट्पर इति किम् ? भवान् त्सरुकः । पदान्त इत्येव ? भवन्तः । विरामे प्रतिषेधस्य वक्ष्यमाणत्वादिह न भवति-भवान् चरति, भवान् टीकते, भवान् तरति ॥ ८ ॥ न्या० स०–नोप्रेत्यादि । अधुट्पर इति-अधुट् परो यस्मादिति कार्यम्, न तु20 धट परोऽस्मादिति कृत्वा नत्रा योगः कार्यः, यतः प्रसज्यशड्या वर्णाभावेऽपि स्यात 'भवान् त्' इत्यत्रेति । ननु परग्रहणं किमर्थम् ? यावताऽधुटीत्युक्त ऽपि अधुटि परतो यच्च-ट-तं तस्मिन् नस्य शादयो विज्ञातु शक्यन्त एवेति ? नैवम्-च-ट-ते परतो योऽधुट् तस्मिन् नकारस्यते भवन्तीति कस्मान्न विज्ञायते ? ततश्च 'भवानाचरति, भवानाच्छा। दयति' इत्यादावेव स्यात्, न तु भवाँश्चरतीत्यादौ, परग्रहणे तु वर्तिपदार्थापेक्षयाऽन्त-25 रङ गमपि तत्पुरुषं बाधित्वा बहुव्रीहेराश्रयणात् पूर्वोक्तदोषाभाव इति । अनुस्वारापेक्षयाऽवयवाक्यविभावेऽनुनासिकापेक्षया स्थान्यादेशभावे पूर्वस्येति षष्ठी ॥८॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते पुमोsशिटयघोषेऽख्यानि रः ॥ १. ३. ६ ॥ पुमिति पुम्सोः कृतसंयोगान्तलोपस्यानुकरणम्, प्रधुट्परेऽघोषे शिट्ख्याग्वजिते परे पुमित्येतस्यरोऽन्तादेशो भवति, अनुस्वारा -ऽनुनासिकौ च पूर्वस्य । पुंस्कामा, पुंस्कामाः पुंस्कोकिलः, पुंस्कोकिलः; पुंस्खातम्, पुंस्खातम्; पुंश्चली, पुंश्चली; पुंश्छत्रम्, पुंश्छत्रम् पुंष्टिट्टिभ:, पुष्टिट्टिभ:; 5 पुंस्पुत्रः, पुंस्पुत्रः; पुंस्फलम्, पुंस्फलम् । प्रशिटीति किम् ? पुंशरः । प्रघोष इति किम् ? पुंदासः, पुंगवः । अधुट्परे इत्येव ? पुंक्षुरः, पुंक्षारः । प्रख्यागीति किम् ? पुंख्यातः पुंख्यातिः ।। ६ ।। [ पा० ३. सू० ६-११.] न्या० स० - पुम इत्यादि । अत्र रमपनीय स इति कृते विधानसामर्थ्याद् रुत्वाभावे पुंश्चलीत्यादि न सिध्यतीति स इति न कृतम् । पुंस्कामेति पुमांसं कामयते 10 “शीलिकामि०” [५. १.७३.] इति णः, यद्वा कमेगिङन्तात् कामना कामः “युवर्ण० " [५. ३.२८. ] इत्यल्, णिङभावे कमनं वा घञि वृद्धी काम:, पुसः कामोsस्या आणि “पु ंसः” [३.३.३.] इति सः । पुंश्चलोति - पुमांसं चलयति “कर्मणोऽण " [५. १७२. ] । शीर्यते परपक्षोऽनेन “पुनाम्नि०" [५. ३. १३०.] घे शरः । क्षुर इति - "क्षुरत् विलेखने” “नाम्न्युपान्त्य०" [५. १. ५४. [ इति कः । क्षार इति-ज्वला - 15 दित्वाणः । अत्र ख्याग एव वर्जनात् "ख्यांक् प्रकथने" इत्यस्मिन् पुस्ख्यातः, पुरख्यात इति भवत्येव । ॥ नृ नः पेषु वा १. ३. १० ॥ नृ. निति शसन्तस्य नृशब्दस्यानुकरणम्, नृ नः पकारे परे रोऽन्तादेशो वा भवति, अनुस्वारा - ऽनुनासिकौ च पूर्वस्य । नं ) ( पाहि, नँ . ) ( पाहि ; 20 नं.: पाहि नँ: पाहि नृन् पाहि; नं ) ( प्रीणीहि, नँ . ) ( प्रीणीहि ; नं प्रीणीहि, नँ: प्रीणीहि नृन् प्रीणीहि । पेष्विति किम् ? नृ न् योजयति । बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वादधुट्पर इति निवृत्तम् ।। १० ।। न्यास० स० - नून इत्यादि । व्याप्त्यर्थत्वादिति - प्रधुट्परे धुट्परे च पकारमात्रे निमित्तेऽस्य सूत्रस्य प्रवृत्तिर्व्याप्तिस्तदर्थत्वादित्यर्थः तेन नं. : प्सातीत्यादि सिद्धम् 125 ।। १० ।। दिवः कानः कानि सः ॥ १. ३. ११ ॥ कानिति किम: शसन्तस्यानुकरणम्, द्विरुक्तस्य कानः कानि परे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० १२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ६१ सकारान्तादेशो भवति, अनुस्वाराऽनुनासिकौ च पूर्वस्य । काँस्कान, कांस्कान् । द्विरिति किम् ? कान् कान् पश्यति, अत्रैक: किं प्रश्नेऽन्यस्तु क्षेपे कानीति किम् ? कांस्कान् पश्यति । रस्याधिकारेणैव सिद्धे सविधानं रुत्वबाधनार्थम् ।। ११ ॥ _____ न्या० स०-द्विः कान इत्यादि-अनुकार्याऽनुकरणयोर्भेदस्य विवभितत्वात् शसन्ता- 5 नुकरणादपि षष्ठी, तथा सप्तम्यपि। 'द्विः' इति कान्सत्कभवनक्रियापेक्षया क्रियाविशेषणमिदम् । अथात्र सकारे कृते “सो रुः" [२. १. ७२.] इति रुत्वं कथं न भवतीत्याह-रस्येत्यादि-अयमर्थः-यदि सस्य रुत्वं स्यात् तदा रेफाधिकारेणव सिद्धम्, कि सविधानेन ? प्रक्रियागौरवं च परिहृतं भवति । अथात्रानुस्वारस्य व्यञ्जनत्वात् “पदस्य" [२. १. ८६.] इति संयोगान्तलोपः कथं न भवति ? नैवम्-तत्र मुख्यव्यञ्जनसंयोगस्यै-10 वाऽऽश्रितत्वात्, अस्य तु सामर्थ्यप्रापितत्वेनामुख्यव्यञ्जनत्वात् ॥ ११ ॥ स्सटि समः ॥ १. ३. १२ ॥ समित्येतस्य स्सटि परे सकारोऽन्तादेशो भवति, अनुस्वाराऽनुनासिकौ च पूर्वस्य । सँस्स्कर्ता, संस्स्कर्ता; सँस्स्कर्तुम्, संस्स्कर्तुम् । स्सटीति किम् ? संकृतिः । संचस्कारेत्यत्र तु व्यवधानान्न भवति । सम इति किम् ? उपस्कर्ता ।15 ।। १२ ।। न्या० स०-स्सटीत्यादि । 'समः' इति प्रादिपठितस्यैव समो ग्रहणम्, न तु "षम ष्टम वैक्लव्ये” इत्यस्य विजन्तस्य "संस्कृते भक्ष्ये" [६.२.१४०.] इत्यादिज्ञापकात् । अनुस्वारस्य व्यञ्नत्वाद् "धुटो धुटि स्वे वा" [१. ३. ४८.] इति पक्षे सकारलोपे द्विसकारमेकसकारं च 'संस्कर्ता, संस्स्कर्ता' इवि रूपद्वयं द्रष्टव्यम् । संकृतिरित्यत्र गर्गादि-20 पाठात् सट् न । संचस्कारेति-न चात्र 'सम् स्कृ' इति स्थिते प्रत्ययोत्पत्तेः प्रागेवादेशप्रसङ्गः इति चाच्यम्, यतोऽत्र परत्वान्नित्यत्वाद् धातुमात्राश्रयेणाऽन्तरङ गत्वाच्च प्रथममेव प्रत्ययस्ततस्तदाश्रितं कार्य द्वित्वम्, तेन च सटो व्यवधानमिति । ननु "अघोषे शिट:" [४. १. ४५.] इति लुप्तस्य सस्य "स्थानीव०" [७. ४. १०६.] इति स्थानित्वे सति कथं न भवति, न च वाच्यमवर्णविधौ स्थानित्वमिति, स्सटीति वर्णसमुदायाश्रयणेन25 वर्णविधित्वाभावात्, न-स्सडिति सकारादिः सट् स्सट् इति कृते वर्णविधित्वात् । ननु निमित्ताभावे० इति न्यायेन द्वित्वेन समो व्यवधानात् कृगः सडभावः प्राप्नोति, नैवम्- स्वाङ गमव्यवधायकम् * इति न्यायाद् द्वित्वरूपस्य स्वाङ्गस्य कृगं प्रति व्यवधायकत्वायोगादिति ॥ १२ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० १३-१४.] लुक्॥ १. ३. १३ ॥ समित्येतस्य स्सटि परे लुगन्तादेशो भवति, पृथग्योगादनुस्वाराऽनुनासिकौ च पूर्वस्येति निवृत्तम् । सस्कर्ता, सस्कर्तुम् । केचित् त्वत्राप्यनुनासिकमिच्छन्ति-सँस्कर्ता, सँस्कर्तुम् ।। १३ ॥ न्या० स०-लुगिति । ननु पृथग्योगः किमर्थम् ?, पूर्वसूत्र एव लुगुच्यताम्, न च 5 वाच्यम्-तथा सति लुक्पक्षेऽपि अनुस्वारानुनासिकौ स्याताम्, सकारप्रतिबध्यत्वात् तयोस्तन्नि वृत्तौ न प्रवृत्तिः, नैवम् अनुस्वारानुनासिकौ हि कार्यप्रतिबद्धावेव विज्ञायेते, लुचोऽपि कार्यतया तत्प्रतिबद्धतया लुक्पक्षेऽपि स्यातामित्याह-पृथग्योगादिति ।। १४ ।। तो मु-मो व्यञ्जने स्वौ ॥ १. ३. १४ ॥ मोर्वागमस्य पदान्ते वर्तमानस्य च मकारस्य व्यञ्जने परे तस्यैव10 स्वौ तावनुस्वाराऽनुनासिकौ वौँ पर्यायेण भवतः, मग्रहणेनैव सिद्धे मुग्रहणमपदान्तार्थम्, स्वेत्यनुनासिकस्य विशेषणम्, नानुस्वारस्यासम्भवात् । चंक्रम्यते, चक्रम्यते; चंचूर्यते, चञ्चूर्यते; दंद्रम्यते, दन्द्रम्यते; बंभण्यते, बम्भण्यते; यंयम्यते, यय्यँम्यते; वंवम्यते, ववम्यते । म-वहंलिहो गौः, वहल्लिँहो गौः; त्वं करोषि, त्वङ्करोषि; त्वं चरसि, त्वञ्चरसि; त्वं टीकसे,15 त्वण्टीकसे; त्वं तरसि, त्वन्तरसि, नकारस्य लाक्षणिकत्वादत्र “नोऽप्रशान०" [१. ३. ८.] इत्यादिना सकारो न भवति; त्वं पचसि, त्वम्पचसि; संयतः, सय्यँतः; अहंयुः, अहय्युः; त्वं लोकः, त्वॅल्लोकः; संवत्सरः, सव्व॑त्सरः; कंवः कव्वः; किंतराम्, किन्तराम् । पदान्त इत्येव ? गम्यते, रम्यते । व्यञ्जन इति किम् ? किमत्र । स्वाविति किम् ? रंरम्यते, शंशम्यते, त्वं20 रमसे, त्वं शण्ढः, त्वं षण्ढः, त्वं साधुः, त्वं हससि ।। १४ ।। न्या० स०-तौ मु-म इत्यादि । ननु तौग्रहणं किमर्थम् ? स्वाविति विशेषणस्य विशेष्यसापेक्षत्वात् समानाधिकरणी अधिकारानुविधौ अनुस्वारानुनासिकावेवानुवर्यतः, सत्यम्-तौग्रहणमवधारणार्थम्, अन्यथाऽनन्तरोक्ता लुगनुवर्तेत पूर्वस्य चेति, ततश्च मुमोलुंग् भवति पूर्वस्य चानुस्वारः, 'चंक्रम्यते' इत्यादौ निमित्तभूतवर्णापेक्षया पूर्वस्याकारादे:25 स्थानेऽनुनासिकश्चेति सूत्रार्थेऽनिष्टं रूपं 'च्ङ क्रम्यते' इत्याद्यापद्येत । तौग्रहणात् तु तावेवेति नियमितावनुस्वाराऽनुनासिकावनुवर्तते । तच्छब्दस्य पूर्ववस्तुपरामशित्वेऽपि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० १५-१६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ६३ सकारलुकोः स्वत्वासम्भवाद्, अनुनासिकस्य च संभवात्, तस्यैव परामर्शः, द्विवचनोपादानात् तत्प्रतिबद्धस्यानुस्वारस्य चेत्याह–ताविति ।। १४ ।। म-न-य-व-लपरे हे ॥ १. ३. १५ ॥ म-न-य-व-लपरे हकारे परे पदान्ते वर्तमानस्य मकारस्य स्थानेऽनुस्वाराऽनुनासिकौ स्वौ पर्यायेण भवतः । किं मलयति, किम् ालयति; किं नुते, 5 किन् नुते; किं ह्यः, कियँ ह्यः; किं ह्वलयति, किवँ ह्वलयति; किं ह्लादते, किल ह्लादते । मादिपर इति किम् ? किं हसति । ह इति किम् ? किं ज्वलति ।। १५ ॥ न्या० स०--म-नेत्यादि-म-न-य-व-ला: परे यस्मादिति बहुव्रीहिर्न तु तत्पुरुषः परग्रहणात् । यद्येवं 'म-न-य-व-ले' इति कस्मान्नोक्तम् ? सप्तम्येव हि परशब्दार्थं प्रति-10 पादयिष्यति मकारादौ परे यो हकारस्तस्मिन्निति, नैवम् विपर्ययोऽपि विज्ञायेत हकारपरे मकारादाविति, ततश्च 'किं मह्यति, किं नह्यति, किं याहि किं वहसि, किं लिहते' इत्यत्रैव स्यात् । अकारादिना व्यवधानान्न भविष्यतीति चेत् ? न- येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपि स्यात् ” इति न्यायाद् एकेन वर्णेन व्यवधानमाश्रीयते; अथ प्रथमपक्षे कि ालयतीत्यादौ सूत्रं चरितार्थमिति किमिति व्यवधानमाश्रीयत इति चेत ? न-येन15 प्रतिपादकेन हकारपरे मकारादावित्येष सूत्रार्थः स्वीकृतस्तं प्रति पक्षान्तरस्यासम्भवात्; विपरीतप्रतीतिः स्यादिति तन्निरासाय परग्रहणं कर्तव्यमेवेत; तथापि न कर्तव्यम्, विपर्ययप्रतीतौ हि अस्य वैयर्थ्यं स्यात् “तौ मु-मौ०" [१. ३. १४.] इत्यनेनैव रूपद्वयस्य सिद्धत्वात्, सत्यम्-तहि नियमार्थमेतत् स्यात्, ततो मकारादौ हपरे एव स्यात् नान्यत्र; ततश्च 'स्वं मन्यसे' इत्यादौ पूर्वेणापि न स्यादिति परग्रहणम् । तथा हकारस्य स्वो20 नास्तीति व्यवहितमकाराद्यपेक्षया स्वोऽनुनासिको भवन् मकारादिरूप एव भवतीति । मस्य पदान्ते वर्तमानस्येति व्याप्त्यर्थम्, यावताऽपदान्तेऽपि म्वागमे पूर्वसूत्रोपात्तानुवृत्ते लकारस्य सानुनासिकत्वेऽङ गीक्रियमाणे 'ब्रह्मल्यते, जम्ह्मलं यते, जवँ हल्यँते' इत्याद्यपि भवति, यथा चञ्चलाँदि ।। १५ ।। 25 सम्राट् ॥ १. ३. १६ ॥ समो मकारस्य राजतौ किबन्ते परेऽनुस्वाराभावो निपात्यते । सम्राट भरतः, सम्राजौ, सम्राजः, साम्राज्यम् ।। १६ ।। न्या० स०–सम्राडिति । रेफस्य स्वत्वाभावादनुनासिकप्राप्तिरेव नास्तीत्याहअनुस्वाराभाव इति । एकवचनस्यातन्त्रत्वाद् द्विवचनादपि भवति ॥ १६ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० ३. सू० १७-१८.] इ-णोः क-टावन्तौ शिटि नवा ॥ १. ३. १७ ॥ पदान्ते वर्तमानयोर्डकार-णकारयोः शिटि परे यथासंख्यं 'कट' इत्येतावन्तौ वा भवतः । प्राक् शेते, प्राक् छेते, प्राङ् शेते; प्राक् षण्डे, प्राङ् षण्डे; प्राक् साये, प्राङ् साये; सुगण ट् शेते, सुगण टु छेते, सुगण शेते; वण्ट षण्डे, वण षण्डे; वण्ट साये, वण साये; क्रुक्षु, क्रुषु; 5 सुगण्ट्सु, सुगण्सु । ङ्-गोरिति किम् ? भवाञ् शेते, महान् षण्डे । शिटीति किम् ? प्राङ् करोषि, सुगण चरति । पदान्त इत्येव ? बभषि ।। १७ ।। न्या० स०-इ-णोरित्यादि । नन्वत्रान्तग्रहणं किमर्थम् ? 'ङ-णो: क-टाटो' इत्येवोच्यताम्, नैवम्-एवं कृते ङ्णोः षष्ठ्यन्तत्वेन क-टयोरादेशत्वं स्यात्, तन्निरासायान्तग्रहणम् ; तहि "ङ-णः क-टम्" इति समाहारं कृत्वा 'ङ-णः' इति पञ्चम्यन्तमा-10 देशत्वनिरासाय व्याख्यायताम्, न-अन्तग्रहणाभावे कस्य प्रत्ययत्वे [सन्धि-नाम-कारकसमासरूप] चतुष्कवृत्तित्वादकाक्षं सति विभक्त लुपि नकारस्य निवृत्तिः स्याद् धुड्निमित्तत्वात् तस्य, तथा च 'प्राङक शेते' इति न स्यात् । 'प्राङ्क छेते' इत्यत्र पूर्वपदभक्तत्वेन पदान्तत्वात् "प्रथमादधुटि शश्छः" [१. ३. ४.] इति शकारस्य छत्वं भवति । अन्तग्रहणे सति "प्राङ क साये' इत्यत्र ककारस्य पदान्तत्वात् “नाम्यन्तस्था०" [२. ३. १५.]15 इत्यनेन पदमध्ये विधीयमानं षत्वं न भवति, अन्यथा परादित्वेन ककारेण सकारस्य पदादित्वविघातात् षत्वं स्यादिति । तथा "सुगण सु" इत्यत्र “नाम सिदय" [१.१.२१.] इति टकारस्य पूर्वपदभक्तत्वेन पदान्तत्वे "पदान्तावर्गात०" [१.३.६२.] इति प्रतिषेधात् “सस्य श-षौ" [१. २. ६१.] इति सकारस्य षत्वं न भवति, परावयवत्वे त्वपदान्तत्वात् प्रतिषेधाभावात् स्यादेवेति । अन्यच्च, क-टयोः प्रत्ययत्वान्नामत्वे 'यावक'20 इत्यादिवत् हेत्वर्थयोगे तृतीयादयो विभक्तयः स्युः । “वण शब्दे” इत्यतो विचि वण, क्विपि तु दीर्घत्वे वाण । तथा 'सुगण' इत्यत्राकार-णिगोर्लोपस्य "अहन्पञ्चमस्य०" [४. १. १०७.] इति स्थानित्वाभावात् कथं न दीर्घ इति चेत् ?; सत्यम्-तत्र हन्वर्जनस्योपदेशावस्थायां पञ्चमान्तग्रहरणार्थत्वेन व्याख्यास्यमानत्वात् । महान् षण्डे इति-अत्र "षि तवर्गस्य" [१. ३. ६४.] इति निषेधात् “तवर्गस्य०" [१. २. ६०.] इति णत्वं न25 ॥१७॥ इनः सः त्सोऽश्चः ॥ १. ३. १८ ॥ पदान्ते वर्तमानाद् डकाराद् नकाराच्च परस्य सकारस्य स्थाने, 'त्स' इत्ययं तकारादिः सकारादेशो वा भवति, अश्वः-श्च्संयोगावयवश्चेत् शकारो न भवति । षड् त्सीदन्ति, डकारनिर्देशाट्टत्वं न भवति, केचित् तु टत्वम-30 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० १६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ६५ पीच्छन्ति - षट् त्सीदन्ति भवान् त्साधुः; पक्षे षट् सीदन्ति, भवान् साधुः । स इति किम् ? षड् भवन्ति, महान् षण्ड: । अश्व इति किम् ? षट् श्च्योतन्ति, भवान् श्च्योतति । श्च्युतेः सोपदेशत्वाच्छकारस्य सकारोपदिष्टं कार्यं विज्ञायते, तेन मधु श्च्योततीति क्विप् मधुश्च्युतमाचष्ट इति णावन्त्यस्वरादिलोपे, पुनः क्विपि णिलोपे, सौ, तल्लुकि च, यलोपे, “संयोगस्यादौ 5 स्कोर्लुक् ” [२. १८८.] इति शलोपे, चस्य कत्वे 'मधुग्' इति सिद्धम् ।। १८ ।। न्या० स० – ड्-न इत्यादि - डश्च नश्च ड्-नम्, ततोऽस्वराद् ङसिः, विग्रहस्तु उच्चारणार्थं स्वरेण क्रियते, यथा 'घृतादिकमानय' इत्युक्त द्रवद्द्रव्यत्वात् केवलस्य दुरानयनत्वाद् भाजने आनीयते । षड् त्सोदन्तीति - " पदान्ताट् टवर्गात् ०" [१. ३. ६२.]10 इति निषेधात् " तवर्गस्य ०" [१. ३. ६०.] इति न टत्वम् । 'षड्' इति प्रयोगस्थो डकार: सूत्रे अनुकृतस्तत एव "अघोषे प्रथमोऽशिट : " [१. ३. ५०.] इति टत्वं न भवतीत्याहडकारनिर्देशादिति । भवान् त्साधुरिति प्रथात्र नकारस्य "नोऽप्रशान० " [१.३.८. ] इत्यनुस्वाराऽनुनासिकपूर्वः सकारः कस्मान्न भवति ? उच्यते - 'प्रधुट्परे' इति वचनात्, अत्र हि धुट्परस्तकार इति । षट्श्च्योतन्तीति अत्र “सस्य श षी" [१. ३. ६१.] इत्यत्र 15 'अनु' इत्यधिकारे वर्तमाने श्चवर्जनाभावे दन्त्यसकारस्य त्सः स्यादिति । ननु तर्हि उपदेशावस्थायामेव तालव्य : पठनीयः, किं दन्त्यपठनेनेति, ? सत्यम् - दन्त्यं पठन्नेवं ज्ञापयति-दन्त्यापदिष्टं कार्यं तालव्यस्यापि भवति, परं दन्त्यस्थाननिष्पन्नस्य न सर्वस्य, तेन ‘भवान् शेते' इत्यादौ त्सो न भवति । ननु 'मधुग्' इत्यत्र " स्वरस्य परे० " [ ७.४. ११०. ] इति सूत्रेण णिलोपरूपस्य स्वरादेशस्य स्थानिवत्त्वात् शलोपो न20 प्राप्नोति न च वाच्यं " न सन्धि०" [ ७. ४. १११.] इत्युपतिष्ठत इति, 'अस्कलुकि ' इति वचनात् यथा सुपूर्वात् कुस्मयतेः सुकुरित्यत्र न - 'अस्कलुकि' इत्यत्र नत्र निर्देशेन नत्रा निर्दिष्टमनित्यम् इति न्यायात् स्थानित्वाभाव इति ।। १८ ।। नः शि ञ्च् ॥ १. ३. १६ ।। पदान्ते वर्तमानस्य नकारस्य स्थाने शि-शकारे परे 'ञ्च्' इत्ययमादेशो 25 वा भवति, अश्व:- श्च्संयोगावयवश्चेच्छकारो न भवति । भवाञ्च् छूरः, भवाञ्च् शूरः, पक्षे—भवाञ् शूरः; एवम् – कुर्वञ्च् छेते, कुर्वञ्च् शेते, कुर्वञ् शेते; प्रादेशबलात् कत्वं न भवति । शीति किम् ? भवान् करोति । व इत्येव ? भवाञ् श्च्योतति । 'राजा शेते' इत्यत्र तु परत्वान्नलोपः ।। १६ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० २०-२२.] न्या० स०–नःशीत्यादि । कत्वं न भवतीति-अत्रोपलक्षणव्याख्यानात् "पदस्य" [२. १. ८६.] इत्यपि न भवति ॥ १६ ॥ अतोऽति रो रुः ॥ १. ३. २० ॥ वेति निवृत्तम्, अतोऽकारात् परस्य पदान्ते वर्तमानस्य रोः स्थाने अति-प्रकारे परे उकारादेशो भवति । कोऽत्र, कोऽर्थः । अत इति किम् ? 5 अग्निरत्र, देवा अत्र, सुश्रोत३यत्र न्वसि !। अतीति किम् ? क इह, सर्वज्ञ आस्ते, पय अ३श्वदत्त !। रोरिति किम् ? पुनरत्र ।। २० ।। न्या० स०–अतोऽतीत्यादि । वेति निवृत्तमिति-'कार्टी, निमित्तम्, कार्यम्' इत्येष हि निर्देशक्रमः, अत्र तु कार्यिणः पूर्व निमित्तोपादानेन निर्देशक्रमातिक्रमं कुर्वन्नधिकारातिक्रमं सूचयति, शिनिवृत्तेर्वा । तथाऽतोऽतीति निर्देशात् सन्निपातलक्षण न्यायो10 नोपतिष्ठते, तथा "इवर्णादे०" [१. २. २१.] इति वत्वं प्राप्नोति, परम् ॐअन्तरङगबहिरङ गयो:०% इति न्यायान्न भवति वत्वम् । ननु 'तरावयनम् तर्वयनम्' इत्यत्र रुशब्दस्यैव ग्रहणं कस्मान्न विज्ञायते, किमित्युदित एवेति ? सत्यम्-“अतोऽति रो रुः" [१. ३. २०.] इत्यत एव ज्ञापकात् । किञ्च, एतत्सूत्रोपात्तस्य रोरेवोत्तरत्रानुवृत्तिस्तत्र च भो-भगोऽघोभ्यः परस्य पदान्तस्थस्य रोरन्यस्यासम्भवात् सानुबन्धस्यैव ग्रहणं भवतीति । सुश्रोतक्यत्र15 न्वसीति-'अतः' इति तपरनिर्देशेन स्वरूपग्रहणात् प्लुते सति न भवति, परत्वादन्तरङ गत्वाच्चोकारात् पूर्वमेव प्लुतः ॥ २० ।। घोषवति ॥ १. ३. २१ ॥ अतः परस्य पदान्ते वर्तमानस्य रोः स्थाने घोषवति परे उकारो भवति । को गच्छति, धर्मो जयति, अहोभ्याम् । घोषवतीति किम् ? क:20 करोति । अत इत्येव ? मुनिर्गच्छति, सुश्रोत ३ देहि । रोरित्येव ? स्वर्याति, पुनर्वक्ति । उत्तरेण लुकि प्राप्तेऽपवादोऽयम् ।। २१ ॥ अवर्ण-भो-भगो-घोलुगसन्धिः ॥ १. ३. २२ ॥ अवर्णाद भो-भगोऽघोभ्यश्च परस्य पदान्तस्थस्य रो?षवति परे लुग भवति, स चासन्धिः-सन्धेनिमित्तं न भवति । श्रमणा गच्छन्ति, धार्मिका25 जयन्ति, अकारात् तु परस्य रोः पूर्वेणापवादत्वादुत्वमेव; भो गच्छसि, भगो हससि, अघो यासि । 'भो, भगो, अघों' इत्येते आमन्त्रणार्थाः सकारान्ता Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० २३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ६७ अव्ययाः । केचित् तु भवद्-भगवद्-अघवतां संबोधने सौ परतो वशब्दस्योत्वं तकारस्य च रुत्वं कृत्वा एतानि रूपाणीच्छन्ति, तेषां द्विवचन-बहुवचनयोः स्त्रियां च न सिध्यति-भो ब्राह्मणौ !, भो ब्राह्मणाः !, भो ब्राह्मरिण !, भगो ब्राह्मणौ !, भगो ब्राह्मणाः !, भगो ब्राह्मरिण !, अघो ब्राह्मणौ !, अघो ब्राह्मणाः !, अघो ब्राह्मणि !। घोषवतीत्येव ? कुमाराः क्रीडन्ति । 5 असन्धिरित्युत्तरार्थम् ॥ २२ ॥ न्या० स०–अवर्णेत्यादि । ननु सन्धिरूपतायां सत्यामसन्धिरिति प्रतिषेधो युक्तः, लुक् तु अभावरूपत्वात् सन्धिरूप एव न भवतीति कथं निषिध्यते ?-स चासन्धिरित्यत आह-सन्धेरित्यादि-अत्र सन्धिशब्देन सन्धिनिमित्तस्योपचारादभिधानम् । केचित त्विति-इन्द्रगोमि-कालापकप्रभृतयः । भवद्-भगवद्-अघवतामिति-भज्यन्ते-सेव्यन्ते स्वेन10 रूपेण स्थाप्यन्ते पदार्था अनेनेति “गोचर-संचर०" [५. ३. १३१.] इति घे भगम्, "तदस्यास्त्य०" [७. २. १.] इति मतौ भगवदिति रूपम् ; "अघण पापकरणे" अतोऽलि मती अघवत्, अनवहितस्यान्यत्र व्यासक्तस्याभिमुखीकरणं संबोधनम्, आमन्त्रणमित्यर्थः । असन्धिरित्युत्तरार्थमिति-ननु तर्हि "स्वरे वा" [१. २. २४.] इत्यत्रैव "असन्धिः स्वरे वा" इत्येवमसन्धिग्रहणं क्रियताम् ?, नैवम्-लुक्सन्नियोगशिष्टत्वज्ञापनार्थत्वादत्रोपादा-15 नस्य, तेन यत्रानेनाधिकारेण लुक् तत्रैवासन्धिः, ततश्चात्रागच्छतीत्यादौ सन्धिप्रतिषधो न भवति । किञ्च, एवं कृते संदेहः स्यात्-स्वरे निमित्त सन्धिर्वा भवतीति, ततो दण्ड अग्रमित्यनिष्टरूपं स्यादिति । तथा असन्धिरित्यस्य संनियोगशिष्टत्वे यत्र लुग्निवृत्तिस्तत्र तत्संबद्धोऽसन्धिरित्यपि निवर्तत इति ।। २२ ॥ व्योः ॥ १. ३. २३ ॥ 20 अवर्णात् परयोः पदान्ते वर्तमानयो?र्वकार-यकारयोर्घोषवति परे लुग् भवति, स चासन्धिः । वृक्षं वृश्चति क्विप्, वृक्षवृश्चमाचष्टे इति णावन्त्यस्वरादिलोपे वृक्षवयतीति विचि सिद्धं वृक्ष, वृक्ष गच्छति, एवम्-माला हसति, अव्य गच्छति । घोषवतीत्येव ? वृक्षव् करोति, अव्यय करोति । अवर्णादित्येव ? तरुव् गच्छति । पदान्त इत्येव ? भव्यम्, जय्यम् । कश्चित्25 तु स्वरजयोरनादिस्थयोर्यकार-वकारयो?षवत्यवर्णादन्यतोऽपि लोपमिच्छतिअध्यारूढ उम्-ईशम् अध्युः, स चासाविन्दुश्च-अध्विन्दुः; साधोरी:-श्रीः साध्वी, तस्या उदयः-साध्युदय इत्यादि ।। २३ ।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] : बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते. [पा० ३. सू० २४-२५.] - न्या० स०-व्योरिति । 'वृक्षव्' इत्यत्र क्विपि सत्यूट स्यादिति विचि सिद्धमित्युक्तम् । न च "स्वरस्य०" [७. ४. ११०.] इति णिलुकः स्थानित्वम्, “न सन्धि०" [ ७. ४. १११. ] इत्युपस्थानात्; तर्हि "य्वोः" [ ४. ४. १२१. ] इति कथं वस्य लुक् न? सत्यम् तदा स्थानित्वात् । अव्यवयतीति विच् क्विप् वा, विचि तावद् यस्य न लुक् "स्वरस्य०" [७. ४. ११०.] इति णिच: स्थानित्वात्, क्विपि तु यद्यपि रिणचः 5 स्थानिवत्त्वं न भवति “न सन्धि०" [ ७. ४. १११. [ इति निषेधात्, तथापि न यस्य लुक् "इसास०" [ ४. ४. ११८. ] इत्यनेन व्यञ्जनद्वारा सिद्धे "क्वौ" [४. ४. १०६.] सूत्रं क्विपि क्वचित् व्यञ्जनकार्यमनित्यम् इति ज्ञापनार्थम्, ततो यलुग् न भवतीति, यद्वा लुगिति संज्ञा संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः इति । ननु वृक्षव् करोतीत्यत्र पदान्तत्वं नास्ति णिलोपस्य स्थानिवत्त्वात्, ततो द्वयङ्गविकलत्वं व्यावृत्तेरिति, नैवम्-"न सन्धि०"10 [७. ४. १११. ] इत्यनेन सन्धिविधौ स्थानित्वाभाव इति । कश्चित् स्विति-विश्रान्तविद्याधरः ।। २३ ॥ स्वरे वा ॥ १. ३. २४ ॥ __अवर्ण-भो-भगो-ऽघोभ्यः परयोः पदान्ते वर्तमानयोर्वकार-यकारयोः स्वरे परे लुग् वा भवति, स चासन्धिः । पट इह, पटविह, अवर्णादीत्स्पृष्टतरस्य15 विकल्पेन विधास्यमानत्वात् त्रैरूप्यम्-पटविह; वृक्ष अत्र, वृक्षवत्र, वृक्षवत्र; वृक्षा इह, वृक्षाविह, वृक्षाविह; त आहुः, तयाहुः, तयाँहुः; तस्मा इदम्, तस्मायिदम्, तस्मायिँदम्; क आस्ते, क यास्ते, कयॉस्ते; देवा आहुः, देवायाहुः, देवायाँहुः; भो अत्र, भोप्रभृतिभ्य उत्तरेणेषत्स्पृष्टतरस्य नित्यं विधानाद् द्वै रूप्यम्-भो अत्र, भोयेंत्र; भगो अत्र, भगो यँत्र; अघो अत्र, अघो यँत्र; 20 उञ्यपि द्वरूप्यमेव-पट उ, पटवू इत्यादि । पदान्त इत्येव ? लवनम्, नयनम् । अवर्णादिभ्य इत्येव ? मध्वत्र, दध्यत्र । स्वर इति किम् ? वृक्ष करोति ॥ २४ ॥ न्या० स०-स्वरे वेति । 'कयास्ते, तयाहुः' इत्यादिषु स्यादिविधौ ‘सो रुः" [ २. १. ७२. ] इति रोरसत्त्वात् असिद्धं बहिरङ्गम् ०* इति न्यायाच्च "प्रत आ:25 स्यादौ०" [ १. ४. १. ] इति न दीर्घः ॥ २४ ॥ अस्पष्टाववर्णत्वात् त्वनुशि वा ॥ १. ३. २५ ॥ अवर्ण-भो-भगो-ऽघोभ्यः परयोः पदान्ते वर्तमानयोर्वकार-यकारयोः स्थानेऽस्पष्टावीषत्स्पृष्टतरौ प्रत्यासत्तेर्वकारयकारावेवादेशौ स्वरे परे भवतः, Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० २६-२७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [६९ अवर्णात् तु परयोोरुज्वजिते स्वरे परेऽस्पष्टौ वा भवतः । पटवू, वृक्ष, असावु, कयु, देवायु, भोपॅत्र, भोयु, भगोयँत्र, भगोयु, अघोयँत्र, अघोयें; अवर्णात् त्वनुनि वा-पटविह, पटविहँ; असाविन्दुः; असाविन्दुः; तयिह, तयिह; तस्मायिदम्, तस्मायिँदम् ; कयिह, कJिह; देवायाहुः, देवायॉहुः । अनुजीति किम् ? उनि अस्पष्टावेव यथा स्याताम्, तथा चोदाहृतम् । केचित् 5 तु रुस्थानस्य यकारस्योनि परे लोपमेवेच्छन्ति-क उ आगतः, भो उ एहि, भगो उ एहि, अघो उ याहि । अपरे तु भो-भगो-ऽघोभ्यः स्वरे नित्यं लोपमेवेच्छन्ति-भो अत्र, भगो अत्र, अघो अत्र ॥ २५ ॥ न्या० स०–अस्पष्टेत्यादि-स्पशेणिजन्तात् क्त “णो दान्त०" [४. ४. ७४. ] इति निपातनात् स्पष्ट: । अपरे विति-काशिकाकारादयः ॥ २५ ॥ रोयः ॥ १. ३. २६ ॥ अवर्ण-भो-भगो-घोभ्यः परस्य पदान्ते वर्तमानस्य रोः स्थाने स्वरे परे यकार आदेशो भवति । कयास्ते देवायासते, भोयत्र, भगोयत्र, अघोयत्र । रोरिति किम् ? पुनरिह । अवर्णादिभ्य इत्येव ? मुनिरत्र । स्वर इत्येव ? कः करोति, भोः करोषि ।। २६ ।। न्या० स०-रोर्य इति-अत्रानन्तरोऽप्यवर्णादित्येव नानुवर्तते, भोप्रभृतिभ्यो यकारस्यास्पष्टयकारविधानाद्, इति व्यवहितोऽपि अवर्णादिसमुदाय एवानुवर्तते इत्याहअवर्ण-भो इत्यादि । ननु 'तरोरयनं तर्वयनम्, चार्वयनम्' इत्यत्रैव "रोर्यः" [ १. ३. २६. ] इति प्राप्नोति, उकारसद्भावात्, नैवम्-एवं कृते भोःप्रभृतिभ्यो यकारासम्भवात् “स्वरे वा" [ १. ३. २१. ] इत्यादीनि सूत्राणि निरर्थकानि स्युः ।। २६ ॥ ह्रस्वान् ङ-ण-नो दवे ॥ १. ३. २७ ॥ ह्रस्वात् परेषां पदान्ते वर्तमानानां ' ण न' इत्येषां वर्णानां स्वरे परे द्वे रूपे भवतः । क्रुङ्ङास्ते, सुगण्णिह, पचन्नास्ते । 'कुर्वन्नास्ते, कृषन्नास्ते' इत्यत्र तु बहिरङ्गस्य द्वित्वस्यासिद्धत्वाद् णत्वं न भवति । ह्रस्वादिति - किम् ? प्राङास्ते, वाणास्ते, भवानास्ते, राजइनिह । ङ-ण-न इति किम् ? 25 त्वमत्र । स्वर इत्येव ? प्रत्यङ् शेते, गच्छन् भुङ्क्ते । पदान्त इत्येव ? 15 20 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० २८.] वृत्रहरणौ, दण्डिनी । “उणादयः " [ ५. २. ε३. ] इत्यादौ स्वरूपनिर्देशात्, “अनन्तः०” [१. ४. ५६ . ] इत्यादौ त्वन्विधानबलान्न भवति ।। २७ ।। ७० 1 न्या० स० - ह्रस्वेत्यादि । कुर्वन्नास्ते इत्यादि - नन्वत्र द्वित्वे पूर्वस्य नस्यानन्त्यत्वाद् रणत्वं प्राप्नोतीत्याह – बहिरङ्गस्येति । उभयपदापेक्षत्वेनेति - वरणतीति क्विप्, “अहन्पञ्चमस्य” [ ४. १. १०७. ] इति दीर्घत्वे वाण । राज३ निहेति परत्वात् प्रथमं प्लुतः, 5 “नामन्त्र्ये” [ २. १. १२. ] इति नलोपाभावः । प्रत्यङ् शेते इति श्रत्र मा भूदनेन द्वित्वम्, "प्रदीर्घाद् विरामैक० " [ १. ३. ३२. ] इत्यनेन भविष्यति, तत् किमर्थमेतन्निवृत्तये स्वर इत्युच्यते ? उच्यते - यद्यनेन स्यात् नित्यं स्यात् तेन तु विकल्पेनेति तदर्थं स्वर इत्युच्यते । वृत्रहणाविति अत्र संज्ञायां "पूर्वपदस्थाद्०" [ २.३. ६४. ] इति श्रसंज्ञायां तु “कवर्गैकस्वरवति” [ २. ३. ७६. ] इति णत्वम् ।। २७ ।। अनाङ् माङो दीर्घाद् वा छः ।। १. ३. २८ ।। 10 प्राङ्-माङ्वजितपदसम्बन्धिनो दीर्घात् पदान्ते वर्तमानात् परस्य छकारस्य द्व े रूपे वा भवतः । कन्याच्छत्रम्, कन्याछत्रम् ; कुटीच्छाया, कुटीछाया; जम्बूच्छाया, जम्बूछाया; मुनेच्छाया, मुने छाया; रैच्छाया, रैछाया; गोच्छाया, गोछाया; नौच्छाया, नौछाया । अनाङ्माङ इति किम् ? 15 आच्छाया, आच्छिनत्ति, आ च्छायायाः, मा च्छिदत्, "स्वरेभ्यः " [१. ३. ३०. ] इति नित्यमेव । ङित्करणादेषु विकल्प एव - प्रा च्छायां मन्यसे, आ छायां मन्यसे; आ च्छाया मा भूत्, आा छाया मा भूत्; वाक्यस्मरणयोरयमाकारः; मा च्छिन्धि मा छिन्धि प्रमाच्छन्दः, प्रमाछन्दः; पुत्रो माच्छिनत्ति, पुत्रो मा छिनत्ति । प्राङ्साहचर्येणाव्ययस्य माङो ग्रहरणा - 20 दिहापि विकल्प एव - प्रमिमीते इति प्रमाः, विच् प्रमाच्छात्रः प्रमाछात्रः । दीर्घादिति किम् ? श्वेतच्छत्रम्, वाक्छत्रम् । पदान्त इत्येव ? ह्रीच्छति ॥ २८ ॥ न्या० स० - अनाङित्यादि । 'पदान्ते' इति दीर्घस्य विशेषणम्, न छस्यासम्भवात् पदान्ते हि तस्य विकारेण भाव्यम् -' शब्दप्राट्' इति । आङ - माङ वर्जनादेव 25 दीर्घादिति पदे लब्धे किमर्थं दीर्घादित्यूचे ? सत्यम् - प्राङ माङावव्ययौ तत्पर्युदासादन्यस्मादप्यव्ययाद् दीर्घादित्यपि प्रसङ्गः स्यादिति । मुने छायेति - 'मुनि छाया' इति स्थिते “स्वरेभ्यः” [ १. ३. ३०] इति द्वित्वं प्राप्नोति " आमन्त्र्ये" [ २. २. २२. ] इति सिश्च तत्रान्तरङ्गत्वाद् नित्यत्वान्च " आमन्त्र्ये” इति पूर्वं [ २. २. २२. ] 4 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० २६-३०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ७१ सिः, ततो ह्रस्वस्य गुणः" [ १. ४. ४१. ] इति सिना सह गुणे अनेन विकल्पेन छस्य द्वित्वमिति । “स्वरेभ्यः" [ १. ३. ३०.] इति नित्यं द्वित्वे प्राप्ते विकल्पार्थोऽयमारम्भ इति । आङो डित ईषदर्थादिषु चतुर्वर्थेषु वर्तमानस्य प्रति पधः, माङस्तु प्रतिधवचनस्य इति क्रमेणोदाहरति-आच्छायेति-ईषदर्थे । आच्छिनत्तीति क्रियायोगे, छदिरत्र हठाद् ग्रहणे विद्यते, स चाङा विशिष्यते । आ च्छायाया इति-अत्राङ मर्यादायाम्, छायां 5 परिहत्येत्यर्थः, अभिविधौ तु छायामभिव्याप्येत्यर्थः । वाक्य-स्मरणयोरिति-वाक्यं पूर्ववाक्यार्थविपरीतकरणरूपम् , स्मरणं विस्मृतार्थपरिज्ञानम् । प्रमाछन्द इति-प्रमीयत इति "उपसर्गादातः" [ ५. १. ११०. ] इत्यङ, प्रमा चासौ छन्दश्च प्रमाछन्दः ॥ २८ ।। प्लु ताद् वा ॥ १. ३. २६ ॥ पदान्ते वर्तमानाद् दीर्घस्थानात् प्लुतात् परस्य छकारस्य द्व रूपे वा10 भवतः । आगच्छ भो इन्द्रभूते३ च्छत्रमानय, आगच्छ भो इन्द्रभूते३ छत्रमानय । दीर्घादित्येव ? आगच्छ भो देवदत्त३ च्छत्रमानय ॥ २६ ॥ न्या० स०-प्लुतादित्यादि । दीर्घादित्यनुवृत्तावपि द्विमात्रिमात्रयोंविरोधात् सामानाधिकरण्यासम्भवेऽपि 'मञ्चाः क्रोशन्ति' इत्यादिवत् स्थानोपचारात् तद्व्यपदेशाद् विशेषण-विशेष्यभावः, दीर्घोऽस्यास्ति स्थानित्वेनेत्यभ्रादित्वाद् अति वा दीर्घशब्देन प्लुतो-15 ऽभिधीयते इत्यत पाह-दीर्घस्थानादिति । ननु किमर्थमिदम् ? यतो दीर्घत्वमाश्रित्य "अनाङ-माङो०" [ १. ३. २८. ] इत्यनेनैव द्वित्वं वा भविष्यति, सत्यम् इदमेव ज्ञापकम् दीर्घापदिष्टं न प्लुतस्य इति, ह्रस्वकार्य च न, यथा-आगच्छ भो देवदत्त३, प्लुतात् प्रथमं सेलुक् “अदेतः०" [ १. ४. ४४. ] इत्यनेन, अन्यथा प्रथमं न कुर्यात्, यदि पश्चादपि स्यात् ।। २६ ।। 20 स्वरेभ्यः ॥१.३.३० ॥ बहुवचनं व्याप्त्यर्थम्, तेन 'पदान्ते' इति निवृत्तम्, स्वरात् परस्य छकारस्य पदान्तेऽपदान्ते च द्वे रूपे भवतः । इच्छति, [ऋच्छति], गच्छति, ह्रीच्छति, म्लेच्छति, चाच्छायते, चोच्छुप्यते, वृक्षच्छाया। स्वरेभ्य इति किम् ? वाक्छत्रम् ।। ३० ।। 25 न्या० स०-स्वरेभ्य इति । पदान्त इति निवृत्तमिति-“गच्छति पथि दूते" । [६. ३. २०३.] इत्यत्र गच्छतीति निर्देशाच्च ॥ ३० ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ३१-३२.] हदिर्हस्वरस्यानु नवा ॥ १. ३. ३१ ॥ स्वरेभ्यः परौ यौ रेफ-हकारौ ताभ्यां परस्याहस्वरस्य-रेफ-हकारस्वरजितस्य वर्णस्य स्थाने द्वे रूपे वा भवतः, अनु-यदन्यत् कार्य प्राप्नोति तस्मिन् कृते पश्चादित्यर्थः । अर्कः, अर्कः; मूर्खः, मूर्खः; स्वर्गः, स्वर्गः; अग्र्घः, अर्घः; अर्चा, अर्चा; ब्रह्ममः, ब्रह्मः; जिम्मः, जिह्मः; वाह्य यम्, 5 वाह्यम् ; जिह व्वा, जिह्वा । अर्हस्वरस्येति किम् ? पद्मह्रदः, अर्हः, करः । स्वरेभ्य इत्येव ? अभ्र यते, नुते । अन्विति किम् ? प्रोण्ण नाव, अत्र द्विर्वचने कृते [द्वित्वं] यथा स्यात् ।। ३१ ।। न्या० स०-होदित्यादि । अर्च्यते इति “भीण शलि." [उणा० २१.] इति के "च-जः क-गम्" [२. १. ८६.] इति कत्वम्, अर्च्यत इति घत्रि न्यङ क्वादित्वात् कत्वे10 अनेन वा द्वित्वम्, औरणादिकेऽर्के प्रथममेव कस्य द्विरूपत्वान्नानेन द्वित्वम् । बहिर्जातम् "बहिषष्टीकरण च" [६.१.१६.] ज्यः, यदा तु बहिर्भवं तदा “गम्भीर-पञ्च०" [ ६. ३. १३५. ] इति त्र्यः [बाह्यम्] । पद्मद इति-हादते इत्यच्, पृषोदरादित्वाइ ह्रस्वः। नन्वत्र द्वित्वे कृतेऽपि "रो रे लुग्" [१. ३. ४१.] इत्यनेन रलोपे सति न किञ्चिद् विनङ क्ष्यति, सत्यम्-यद्यत्र रवर्जनं न स्यात् तदोत्तरसूत्रेऽपि वर्जनाभावेऽह15 इत्यत्रोत्तरेण द्वित्वे रो रे लुकि आर्ह इति अनिष्टं रूपं स्यादिति । ननु कर इत्यत्र द्वित्वे कृतेऽपि “लुगस्या०" [२. १. ११३.] इत्यादिनाऽस्य लुग् भविष्यति, किं स्वरवर्जनेन ? सत्य न्- 'चारु, दारु, वारि, इत्यादौ चारू दारू वारीत्याद्यनिष्टं भवेदिति स्वरवर्जनम् । प्रोण्णु नावेति-अत्रान्वित्यस्याभावे सत्यन्तरङ्गत्वाद् द्वित्वे कृते पश्चात् परोक्षानिमित्तत्वेन बहिरङ्ग द्विर्दचनं स्यात्, ततश्च प्रोणु नावेत्यनिष्टरूपापत्तिः । ननु द्वित्वं कृतमपि20 कनिमित्ताभावे०* इति निवय॑ति किमनुग्रहणेन ? सत्यम्-अनुग्रहणादेवायं न्यायोऽनित्य इति, यद्वा नायं सार्वत्रिको न्यायः कुम्भकारस्य विनाशे घटस्य दर्शनात् ॥ ३१ ॥ अदीर्घाद्विराम कव्यजने ॥ १. ३. ३२ ॥ अदीर्घात् खरात् परस्य ह-स्वरवजितस्य वर्णस्य स्थाने विरामैकव्यञ्जने-विरामेऽसंयुक्तव्यञ्जने च परेऽनु द्वे रूपे वा भवतः । त्वक्क्, त्वक्,25 त्वग्ग्, त्वग्, षट्, षट्, षड्ड, षड्, तत्त्, तत्, तद्, तद् । एकव्यञ्जनेदद्ध्यत्र, दध्यत्र, पत्थ्यदनम्, पथ्यदनम्, मद्ध्वत्र, मध्वत्र, पित्त्रर्थः, पित्रर्थः, त्वङ् मधुरा, त्वङ् मधुरा, त्वङ् करोषि, त्वङ् करोषि; सय्य॑ यतः, सम्यत; उरकः , उरकः ; उर) () (पः, उर) (पः; उरः:कः, उरःकः; Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 [पा० ३. सू० ३३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ७३ गोइत्रात !, गोइत्रात !; नौ३त्त्रात !, नौ३त्रात ! । अन्वित्यधिकारात् कत्व - गत्वादिषु कृतेषु पश्चाद् द्वित्वम् । प्रदीर्घादिति किम् ? वाक्, भवान्, सूत्रम्, पात्रम्, नेत्रम् होत्रम् । विरामैकव्यञ्जन इति किम् ? इन्द्रः, चन्द्रः, कृत्स्नम्, मृत्स्ना, उष्ट्र, दधि, मधु । संयुक्तव्यञ्जनेऽपीच्छन्त्येके प्रत्तम्, प्रत्तम् । अर्ह - स्वरस्येत्येव ? वर्या, वह्यम्, तितउ । अत एवादेशबलात् 5 संयोगान्तलोपो न भवति, प्रथमत्वादिकं तु द्वित्वस्याबाधनाद् भवत्येव ।। ३२।। न्या० स० – अदीर्घादित्यादि । दीर्घादिति पर्युदासाद् अनुवृत्तस्य स्वरस्य विशेषणमित्याह - अदीर्घात स्वरादिति । अथ संयोगान्तलोपो मा भूत्, 'त्वक्क्' इत्यत्र प्रथमककारस्य “संयोगस्यादी० " [२. १. ८८.] इति लुक् कस्मान्न भवति ? न च वाच्यम् - अयं द्वित्वादेशोऽनर्थक इति, अन्यत्र द्वित्वश्रुतेश्वरितार्थत्वादिति, सत्यम् - प्रर्ह - 10 स्वरस्येति र्होपादानाद् व्यक्तिः पदार्थः प्राश्रीयते, तत्र च ककारविषयस्य द्वित्वस्यानर्थक्यं मा भूदिति न भवति । ननु "लि लौ” [१.३. ६५. ] इति सूत्रे द्विवचनेनेदं ज्ञापितम् - यथा सानुनासिकस्यापि निरनुनासिक एवादेश: इति, तर कथं सानुनासिको यकारः सय्żयत इत्यत्रेति, सत्यम् - स एव सानुनासिको यकारो द्विरूपो भवति, न त्वयं भिन्न प्रदेश: क्रियत इति सानुनासिक एव भवतीति, एकयाऽपि चार्धकलया द्वावपि 15 यकारौ सानुनासिकौ ज्ञायेते, सानुनासिकयकारस्यैव द्वित्वापन्नत्वादिति एकैव कलोदाहरणे । गोइत्रात ! गाव एनं त्रायीरन्निति " तिक्कृतौ नाम्नि " [५. १. ७१.] इति क्तः । इच्छन्त्येके इति इन्द्र-गोमिचन्द्रप्रभृतयः । व्रियते इति वर्या, "वर्योपसर्य ० " [ ५.१.३५. ] इति य:, अत्र द्वित्वे कृते रलोपे च वार्येति स्यात् । डउविधानस्य पुंसि विसर्गान्तस्य चरितार्थत्वान्नपुंसके 'तितउ' इत्यत्र विरामस्थस्योकारस्य द्वित्वं स्यात् । प्रथमत्वादिक - 20 मिति - पत्थ्यदनमित्यादिषु ।। ३२ ।। ... अञ्वर्गस्याऽन्तस्थातः ॥ १. ३. ३३ ॥ अन्तस्थातः परस्य ञकारवर्जितस्य वर्गस्य स्थानेऽनु द्व े रूपे वा भवतः । उल्क्का, उल्का; वल्म्मीकः, वल्मीकः ; वृक्षव् क्करोति, वृक्षव् करोति । वर्गस्येति किम् ? सव्यम् । अञिति किम् ? हल्- ञकारौ । अन्तस्थात इति 25 किम् ? भवान् मधुरः ।। ३३ ।। न्या० स० – अञ्वर्गस्येत्यादि । अन्तस्थात इति प्रत्राद्यादित्वात् तस् ।। ३३ ।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते ततोsस्याः ॥ १. ३. ३४ ॥ ततोऽञ्वर्गात् परस्या अस्या अन्तस्थायाः स्थाने दध्य्यत्र, दध्यत्र; मध्व्वत्र, मध्वत्र । तत इति किम् ? किम् ? वाग् जयति ॥ ३४ ॥ [पा० ३. सू० ३४-३६.] द्व े रूपे वा भवतः । बाल्यम् । अस्या इति न्या० स० - तत इत्यादि । दध्यत्र त्यादौ प्रसिद्धं बहिरङ्गम् इति न्यायाद 5 अन्तरङ्ग द्वित्वे कर्तव्ये बहिरङ्गो याद्यादेशो ऽसिद्धः कस्मान्न भवति ?, न चास्यासिद्धत्वे सूत्रमिदमनर्थकमिति वाच्यम्, ध्यानमित्यादावनादेशरूपे यादौ तस्य सावकाशत्वादिति, उच्यते - " न सन्धि - ङी-य क्वि० [ ७. ४. १११.] इत्यत्र द्वित्वस्य सन्धिविधित्वेन स्थानिवद्भावप्रतिषेधे सिद्धे द्विग्रहणम् प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति न्यायस्य बाधनार्थमिति द्वित्वमुपपद्यते । तथात्र त्यत्र रस्य न द्वित्वम् अर्हस्वरस्येत्यधिकारात्, लस्य तु10 द्वित्वे क्लाम्यतीत्यादि द्रष्टव्यम् ।। ३४ ॥ शिट प्रथम- द्द्वितीयस्य ॥ १.३. ३५ ॥ शिटः परयोः प्रथम द्वितीययोः स्थाने द्व े रूपे वा भवतः । त्वं क्करोषि त्वं करोषि ; त्वं क्खनसि त्वं खनसि; कः क्खनति, कः खनति; कः प्पचति, कः पचति; कक्खनति, कखनति; कफलति, 15 क―फलति ; कश्च्चरति, कश्चरति कश्च्छादयति, कश्छादयति ; कष्टीकते, कष्टीकते; कष्ठुकारः, कष्ठकारः; स्त्थाली, स्थाली; स्फीता, स्फीता । शिट इति किम् ? भवान् करोति । प्रथम- द्वितीयस्येति किम् ? आस्यम् । अनुनासिकादप्यादेशरूपात् केचिदिच्छन्ति त्वञ्च्छात्रः, त्वञ्छात्र इत्यादि ।। ३५ ।। न्या० स० - शिट इत्यादि । "ष्ठल स्थाने" इत्यतः कर्तरि " वा ज्वला ०" [ ५. १. ६२. ] इति णे वृद्धौ " जाते रयान्त० " ]२. ४. ५४ ] इति ङयां स्थाली, स्थालयतीति वा "स्वरेभ्य इ:" [ उरणा० ६०६. ] स्थालिः । अस्यत इति घ्यरिण, “शिक्याऽ " केचिदिति - शाकटायनादयः । त्वञ्च्छात्र Sस्य ० [ उणा० ३६४.] इति वा आस्यम् । इति - ' त्वम् छात्र:' इति स्थिते "तौ मु-मो० " ततश्छस्य द्वित्वे "अघोषे प्रथमो० " [१. २. ५०. ] [१. ३. १४. ] इत्यनुनासिको प्रकार:, 25 इति छस्य चः ।। ३५ ।। ततः शिटः ।। १.३. ३६ ॥ ततः - प्रथम - द्वितीयाभ्यां परस्य शिट: स्थाने द्व े रूपे वा भवतः । तच् 20 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३७-३८. ] श्शेते, तच् शेते; षट् ष्षण्डे, षट् षण्डे; तत् स्साधुः तत्साधुः ; वत्स्सः, वत्सः ; क्षीरम्, क्षीरम्; अप्सराः, अप्सराः । तत इति किम् ? भवान् साधुः । शिट इति किम् ? मथ्नाति ख्याति ॥ ३६ ॥ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ७५ よ न्या० स०—तत इत्यादि । ताभ्यां ततः, तच्छब्दस्यानन्तरपूर्ववस्तुपरामशित्वेन प्रथम-द्वितीययोरनुकर्ष इति । " शिट्याद्यस्य० " [१. ३. ५६ ] इति पकारस्य फकारे 5 कृते द्वितीयादपि सस्य द्वित्वे अफसरा इत्यपि दृश्यम् ।। ३६॥ न रात् स्वरे ॥ १. ३. ३७ ।। रात् परस्य शिट: स्थाने स्वरे परे द्वे रूपे न भवतः । दर्शनम्, विमर्शः, कर्षति, वर्षति, वृस्या इदं वार्सम्, कृसराया इदं कार्सरम् । रादिति किम् ? तच् श्शेते, षट् ष्षण्डे वत्स्सः । स्वर इति किम् ? कर्श्यते, वर्ष्यते । शिट 10 इत्येव अर्कः, वर्चः। “हदिर्हस्वरस्य ०" [१. ३. ३१.] इति विकल्पे प्राप्त प्रतिषेधः ।। ३७ ।। न्या० स०-न रादित्यादि । नरा ब्रुवन्तः सीदन्ति अस्यामिति पृषोदरादित्वात् वृसी । कश्श्यत इति रिणगन्तस्य, एवम्-वर्ण्यत इत्यपि ।। ३७ ।। पुत्रस्याssदिन- पुत्रादिन्याक्रोशे ॥ १.३.३८ ॥ आदिन्शब्दे पुत्रादिन्शब्दे च परे पुत्रशब्दसम्बन्धिनस्तकारस्याक्रोशविषये द्वे रूपे न भवतः । " प्रदीर्घाद् विरामैकव्यञ्जने” [१. ३. ३२.] इति विकल्पे प्राप्ते प्रतिषेधः । पुत्रादिनी त्वमसि पापे !, पुत्रपुत्रादिनी भव । आदिन्- पुत्रादिनीति किम् ? पुत्त्रहती, पुत्रहती; पुत्त्रजग्धी पुत्रजग्धी; "अनाच्छादजात्यादेर्नवा” [२. ४. ४७.] इति वा ङीः । आक्रोश इति किम् ? 20 पुत्त्रादिनी शिशुमारी, पुत्रादिनीति वा पुत्त्रपुत्रादिनी नागी, पुत्रपुत्रादिनीति वा ।। ३८ ।। 15 न्या० स०- — पुत्रस्येत्यादि - नकारान्तताऽभिव्यक्त्यर्थमादिन्निति सूत्रांशे लक्षणप्राप्तोऽपि नलोपो न कृतः । आदिन् पुत्रादिन्नपादानेऽपि नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् इति न्यायात् स्त्रियामुदाहृतम्, तत्रैव प्रायेणाक्रोशसम्भवात्; स्त्रीवत् पुंसोऽपि 25 पुत्रादनाक्रोशे तत्रापि प्रतिषेधो भवत्येव पुत्रादी भवेति । अभीक्ष्णं पुत्रानत्सीति “व्रता Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्रवृत्ति - लघुन्याससंवलिते. [पा० ३. सू० ३९-४०.] ऽऽभीक्ष्ण्ये” [५. १. १५७.] इति णिन् । पुत्रादिनी शिशुमारीति-प्रध्यारोपेण हि निन्दा आक्रोश:, तत्त्वाख्याने तु तदसम्भव इति प्रतिषेधाभावात् "प्रदीर्घात् ० " [१. ३. ३२. ] द्वित्वं भवत्येव । नागीति - " जातेरयान्त०" [ ५. ४. ५४.] इति ङीः ॥ ३८ ॥ म्नां धुड्वर्गेऽन्त्योऽपदान्ते १. ३. ३६ ॥ ७६ ] अन्विति वर्तते, अपदान्ते वर्तमानानां मकार नकाराणां धुट् संज्ञके वर्गे 5 परे प्रत्यासत्तेर्निमित्तवर्गस्यैवान्त्योऽनु भवति । म् - गन्ता, गन्तुम् । न् - शङ्किता, शङ्कितुम्, अञ्चिता, अञ्चितुम्, कुण्ठिता, कुण्ठितुम्, नन्दिता, नन्दितुम्, कम्पिता, कम्पितुम् । म्नामिति बहुवचनं वर्णान्तरबाधनार्थम्, तेन - ' कुर्वन्ति, कृषन्ति, विस्रम्भः, संरम्भः' इत्यत्र नकारस्य णत्वं बाधित्वा अनेन वर्गान्त्य एव भवति; 'क्रान्त्वा, भ्रान्त्वा' इत्यत्रापि नकारे कृते गत्वबाधनार्थं पुन - 10 कारः । धुडिति किम् ? श्रहन्महे, प्रहन्मः । धुड्वर्ग इति किम् ? गम्यते, हन्यते । अपदान्त इति किम् ? भवान् करोति । अन्वित्यधिकाराद् व्यङ्क्ता, व्यङ्क्तमित्यत्राञ्जेर्गत्वे कत्वे च कृते पश्चात् कवर्गान्त्यः, अन्यथा चवर्गान्त्यः स्यात् ।। ३६ । न्या० स०--नां घुडित्यादि - यद्यत्र वर्गग्रहणं न स्यात् तदा 'गन्ता' इत्यत्र थकार: 15 स्यात्, तस्यापि तकारापेक्षयाऽन्त्यत्वात्, इत्यव्यवस्थानिरासाय वर्गग्रहणमिति । निमित्तवर्गस्यैवेति-मकारनकारापेक्षयाऽन्यस्य वर्णस्यान्त्यस्याभावादिति । बहुवचनमिति - प्रयमर्थः - वर्णग्रहणे जातिग्रहण इति जातिनिर्देशे प्राप्ते बहुवचनं व्यक्तिनिर्देशार्थभू, तेन यावान् मकारो नकारश्चापदान्तस्तत्र सर्वत्र व्यक्त्यपेक्षया वैयर्थ्यं मा भूदिति प्रवर्तमानोऽन्त्यः कार्यान्तरबाधायै प्रभवति, तेन 'शङ्किता' इत्यत्र " प्रदीर्घा ० ' [१.३.३२.]20 इत्यादिभिद्वित्वादिकार्यान्तराणि न स्युः । ' गम्यते, हन्यते' इत्यत्र मनोर्निमित्तयकारस्याऽन्त्यो रः स्यात् ।। ३६ ॥ शिङ्-हेऽनुस्वारः ॥ १. ३. ४० ।। अपदान्ते वर्तमानानां म्नां स्थाने शिटि हकारे च परे अनुस्वार आदेशो भवति । म्-पुंसि, गंस्यते; न्-दंशः, सुदिशि कुलानि वपूंषि, धनूंषि, 25 यशांसि पयांसि, गुडलिहि, स्वनड्वांहि कुलानि । म्नामिति बहुवचनाद् बृंहणमित्यत्र णत्वं, दंश इत्यादी अत्वं च बाधित्वाऽनेनाऽनुस्वार एव भवति ; Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० ४१-४२.] एवम् - सर्पीषि, सुदृशि । इत्येव ? भवान् साधुः, पिष्- शिषोहौं तस्य धित्वे भवति ।। ४० । श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ७७ शिड्-ह इति किम् ? गम्यते हन्यते । पदान्त श्रेयान् हेतुः । अन्वित्येव ? पिण्ढि, शिण्ठि, अत्र षस्य डत्वे च शिडभावाच्छ्ननकारस्यानुस्वारो न न्या० स० -- शिड़ ह इत्यादि । ननु 'पिण्ड्टि' इत्यादी श्नस्यालुकः स्थानिवत्त्वाद - 5 कारेण षस्य व्यवधानाद् अनुस्वारो न प्राप्नोति, किमन्वित्याश्रयणेन ? नैवम् - "न सन्धि०” [७. ४. १११.] इति सन्धिविधौ स्थानित्वनिषेधात् । ननु हस्य शिट्संज्ञां कृत्वा “शिट्यनुस्वारः” इत्येवोच्यताम्, सत्यम् - यदि हस्य शिट्संज्ञां कृत्वा इह हुग्रहणं न क्रियते तदा 'प्रोजढद्' इत्यत्र 'अघोषे शिट : ' [ ४. १.४५ ] इति हलोपेऽनिष्टं रूपं स्यादिति ॥ ४० ॥ 10 रो रे लुग् दीर्घश्चादिद्रुतः ॥ १. ३. ४१ ॥ अपदान्त इति नानुवर्तते, रेफस्य रेफे परे लुग् भवति, अकारेकारोकाराणां चानन्तराणां दीर्घो भवति । पुना रमते, प्राता रौति, अग्नी रथेन, नीरक्तम्, दूरक्तम्, पटू राजा, उच्चै रौति । अन्वित्येव ? अहोरूपम्, अत्र पूर्वमेव रोरुत्वे रेफाभावाल्लुग्-दीर्घाभावः सिद्धः ।। ४१ ।। 15 न्या० स०-रो र इत्यादि । नन्वपदान्त इत्यधिकारात् 'अजर्घाः, अपास्पा:, अचोकू :, अचाखा:, अचाकाः, अपापा:' इत्यादिष्वेव प्राप्नोति, न तु स्वाराज्यमित्यादाविति, नैवम्अदित इति इद्ग्रहणादपदान्त इति नानुवर्तते, यत इकारात् परस्य रेफस्य रेफेऽपदान्ते संभवो नास्तीति भिन्नस्थानिनिमित्तभरणनाद वा । किं पुनरिदं सानुबन्धस्य कार्यिणो रेफस्य ग्रहणं निरनुबन्धस्य वा ? तत्राद्यपक्षे - अग्नी रथेनेत्यादि सिध्यति, न तु 'पुना रमते ' 20 इत्यादि । द्वितीयपक्षे 'पुना रमते' इत्यादि सिध्यति, न त्वग्नी रथेनेत्यादि, न चोभयपरिग्रहे किञ्चिन्नियामकमस्ति उच्यते-अत्र “रो रे लुग्०” [ १. ३. ४१ ] इत्येकप्रयत्नेनैव सूत्रे उभयोच्चारणादेकत्र सानुबन्धस्यापरत्र निरनुबन्धस्य च निर्देशाद् निरनुबन्धग्रहगे सामान्यग्रहरणम् इति न्यायाच्च सामान्येन ग्रहणं भवतीत्याह -- रेफस्येति । अनन्तराणामिति - ननु सामान्यनिर्देशादनन्तराणामेवेति कुतो लभ्यते ! इति चेद्, उच्यते - 25 'रे' इत्युपश्लेषसप्तमीनिर्देशाद् लुगिव दीर्घोऽपि रेफोपश्लिष्टस्यैव भवतीति ।। ४१ ।। ढस्तड्ढे ॥ १. ३. ४२ ॥ तन्निमित्तो ढस्तड्ढः, ढकारस्य तड्ढे परेऽनु लुग् भवति, अकारेकारो Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू० ४३-४४.] काराणां च दीर्घो भवति । महतेः क्तौ माढिः, लीढम्, मीढम्, गूढम् । तड्ढ इति किम् ? मधुलिड् ढौकते, नायं लुप्यमानढकारनिमित्तो ढः, एवम्‘चकृड्ढ्वे, लुलुविड्ढ्वे' इत्यादावपि ढकारस्य द्वित्वे सति ढकारयोर्निमित्तनिमित्तिभावो नास्तीति लुग् न भवति । प्रदिदुत इत्येव ? प्रतृढम् प्रावृढम् । अन्वित्येव ? लेढा, मोढा, अत्र गुणे कृते पश्चाद् ढलोपः, अन्यथा हि पूर्वमेव 5 ढलोपे दीर्घे च लीढा, मूढेत्यनिष्टं रूपं स्यात् ।। ४२ ।। न्या० स० – ढस्तड्ड इत्यादि । अन्विति - इदं सूत्रं पदान्ते “धुटस्तृतीयः " [२. १. ७६.] इत्यस्य बाधकम्, अपदान्ते तु " तृतीयस्तृतीय- चतुर्थे” [ १. ३. ४९. ] इत्यस्य चेति, ततोऽन्वित्यधिकार एतयोः सूत्रयोविषयं मुक्त्वा ज्ञातव्यः, अत एव 'मधुलिड् ढोकते' इत्यत्र पूर्वं तृतीयत्वाभावे सति न द्व्यङ्गविकलतेति । चकृड्वे इति - अत्र 10 "र्नाम्यन्तात् ० " [ २ १ ८० ] इति धस्य ढत्वे "प्रदीर्घात् ०" [ १.३. ३२. ] इति तस्य द्वित्वे "तृतीयस्तृतीय० " [ १.३. ४६ ] इति ढस्य ड: । आतृढम् आवृढमिति"तृहौ, तृ हौत् हिंसायाम्" "वृहौत् उद्यमने" इति धातू "वेटोऽपतः " [ ४. ६. ६२. ] इतीनिषेधः । लेढा इति - नन्वत्र परत्वाद् गुणो भविष्यति, किमन्वित्यधिकारेण ? सत्यम्–ढलोपस्याल्पाश्रितत्वेनान्तरङ्गत्वात् प्रथमं ढलोपो दीर्घत्वं च प्राप्नोति । ननु 15 ढस्यासत्त्वात् सर्वमप्यसन, ततो गुरणो भविष्यति, सत्यम् - तथापि प्रसिद्धं बहिरङ्ग - मन्तरङ्ग इति ढत्वे सति दीर्घत्वं स्यात्, वार्णो विधिः [ वार्णात् प्राकृतम् ] इति न्यायेनान्तरङ्ग ं ढत्वम्, ततस्तस्मिन् विधेये गुणोऽसिद्ध:, यतो गुणोऽवार्णो विधिरिति, कार्यासत्त्वपक्षे इदमुक्तम् ; शास्त्रासत्त्वपक्षे तु गुणे कृते ढत्वं भवति ।। ४२ ।। सहि-वहेरोच्चावर्णस्य ॥ १. ३. ४३ ॥ 'सहि वहि' इत्येतयोर्ढस्य तड्ढे परेऽनु लुग् भवति, अवर्णस्य चौकारो भवति । सोढा, वोढा, उदवोढाम् । अवर्णस्येति किम् ? ऊढ: ।। ४३ ।। 20 उद' स्था-स्तम्भः सः ॥ १.३. ४४ ॥ उदः परयोः 'स्था स्तम्भ' इत्येतयोः सकारस्य लुग् भवति । उत्थाता, उत्थातुम्, उत्तम्भिता, उत्तम्भितुम् । उद इति किम् ? संस्थाता, संस्तम्भिता 125 स्था-स्तम्भ इति किम् ? उत्स्तोता, उत्स्कन्नः । स इति किम् ? उत्तिष्ठति, उदस्थात्, उदस्तभत्, उत्तिस्तम्भिषति । प्रत्यासत्तेः स्था-स्तम्भविशेषणस्यैवोदो ग्रहणादिह न भवति - ऊर्ध्वं स्थानमस्योत्स्थानः । कथमुत्स्कन्दतीति Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० ४५-४६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ७६ उत्कन्दको रोग इति ? पृषोदरादित्वाद् भविष्यति ।। ४४ ।। न्या० स० – उदः स्थेत्यादि । ननु उदस्थादित्यत्र सकारलोपः कस्मान्न भवति ? न च वाच्यम् - डागमेन व्यवधानम्, यतोऽङ्गिनोऽङ्ग व्यवधायकं न भवति, सत्यम् - आवृत्य उद इति पदं स्था-स्तम्भः सकारस्य च सम्बन्धनीयम् 'उदस्थात्, उदस्तभत्' इत्यनयोः सिद्ध्यर्थन्, उदस्थादित्यत्राडागमात् पूर्वमन्वित्यधिकाराद् न भवति, अडागमे 5 च सति " पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य " [ ७. ४. १०४. ] तच्चानन्तरस्यैव, न व्यवहितस्येति न भवति । उत्स्थान इत्यत्र स्थानस्य विशेषणम् उत्, न तु तिष्ठतेरिति ॥ ४४ ॥ तद से स्वरे पादार्था । १.३. ४५ ॥ तदः परस्य सेः स्वरे परे लुग् भवति सा चेत् पादार्था - पादपूरणी भवति । 'सैष दाशरथी रामः, सैष राजा युधिष्ठिर:' । 'सौषधीरनुरुध्यते' 110 पादार्थेति किम् ? ' स एष भरतो राजा' ।। ४५ ।। न्या० स० – तदः सेरित्यादि । तद इत्यनेन तदादेशस्य सस्य ग्रहरणम्, अन्यथा व्यञ्जनात् सिलोपः सिद्ध एव, अनुकरणत्वात् तद इत्यत्र त्यदाद्यत्वाभावः, शब्दार्थानुकरणे हि प्रकृतिवदनुकरणम् इति न्यायः प्रवर्तते, शब्दानुकरणे तु नेति ; कथमिदमिति चेत् ? " तदः से: स्वरे० " [ १.३.४५. ] इति "परिव्यवात् क्रिय:" 15 [ ३. ३. २७. ] इति सूत्रसूत्ररणात् । पादाय इयम्, पादोऽर्थो यस्यामिति वा पादार्था । ननु “सोऽहं तथापि तव० " [ भक्तामरस्तोत्रे श्लो० ५. ] इत्यस्मिन् प्रयोगे “तदः सेः स्वरे पादार्था” [ १. ३. ४५ ] इत्यनेन प्रतिष्णातेन निमित्तस्वरे परत्रावतिष्ठमाने सति सेलुक् कथं न भवति ? उच्यते - “तदः से: स्वरे० " [ १. ३. ४५. ] इति सूत्रं " रोर्यः” [ १. ३. २६. ] सामान्यस्वरनिमित्तसूत्रविषये " सो रु: " [ २. १.७२. ] इत्यस्य बाधकम्, 20 न पुनः स्वरविशेषनिमित्तस्य "अतोऽति रोरु:" [ १.३.२०. ] इत्यस्य विषये, कुतः ? सर्वत्रापि विशेषेण सामान्यं बाध्यते, न सामान्येन विशेषः इति न्यायात् ।। ४५ ।। एतदश्च व्यञ्जनेऽनग्- नञ्समासे ॥ १. ३. ४६. ।। अकि नञ्समासे च एतदस्तदश्च परस्य सेर्व्यञ्जने परे लुग् भवति, सति न भवति । एष ददाति स ददाति परमैष करोति, एतदवेति किम् ? को दाता, यो धन्यः । सेरित्येव ? ' तिष्ठतः । अनुबन्धग्रहणादिह न भवति -- एतेषु चरति तेषु याति । अनग्नञ्समास इति किम् ? एषक: करोति, सको याति तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन परमस ददाति 125 एतौ गच्छतः, तौ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० ३. सू० ४७-४८.] गृह्यते इति साकोऽपि प्राप्तिरिति प्रतिषेधः, अनेषो गच्छति, असो याति । । व्यञ्जन इति किम् ? एषोऽत्र, सोऽत्र ।। ४६ ।। न्या० स०–एतद इत्यादि । प्रकृतेः परः श्रूयमाणश्चकारः प्रकृत्यन्तरसद्वितीयता गमयन् पूर्वसूत्रश्रुतप्रकृत्यैव सद्वितीयतां गमयति, नत्रः समासो नसमासस्ततो द्वन्द्वगर्भो नञ्तत्पुरुषः, 'नत्र समासे च सति न भवति' इत्यनेन नत्रः क्रियासम्बन्धं दर्शयन् 'अनग्- 5 नज समासे' इति प्रसज्यप्रतिषेधोऽयमिति दर्शयति, पर्युदासे हि सति नियुक्त तत्सदृशेक इति न्यायेन नसमासादन्यत्रापि समास एव वर्तमानाभ्याम् एतत्-तच्छब्दाभ्यां सिलोपः स्यादिति । 'अनग्-नसमासे' इति प्रतिषेधात् परमैष करोतीत्यादौ तदन्तादपि सेलुक् । धनं लब्धा "धन-गणाल्लब्धरि" [ ७. १. ६. ] इति ये धन्यः । अनुबन्धग्रहणादितिअयमर्थः-'व्यञ्जने' इति विषयसप्तम्यामपि सेरिति इदनुबन्धग्रहणाद् अन्यानुबन्धसमुदायस्य 10 लोपाभावः-एतेषु चरतीत्यादौ। अथात्र परत्वादेत्वे षत्वे च कृते सकारस्याभावाल्लोपो न भविष्यति, सत्यम्-विशेषविहितत्वादेत्व-षत्वाभ्यां पूर्वमेव लोप: स्यादिति । किञ्च, एतत् स्कुम्नातीत्यादावपि स्यात् ।। ४६ ।। व्यञ्जनात् पञ्चमान्तस्थायाः सरूपे वा ॥१. ३. ४७ ॥ व्यञ्जनात् परस्य पञ्चमस्यान्तस्थायाश्च सरूपे वर्णे परे लुग् वा15 भवति । क्रुञ्चो ङ्ङगै क्रुङग, क्रुङौ ; अदितेरयमादित्यः, स देवता अस्य आदित्यः स्थालीपाकः, आदित्य्य इति वा। व्यञ्जनादिति किम् ? अन्नम्, भिन्नम् । सरूप इति किम् ? वर्ण्यते, पित्र्यम् । केचित् तु पञ्चमाऽन्तस्थायाः पञ्चमाऽन्तस्थामात्रे लोपमिच्छन्ति, न तु सरूप एव, तन्मते-'वभ्यते, वभ्र यते, मभ्यते, मभ्र यते' इत्यादावपि भवति । अपरे तु अभ्र-वभ्र-मभ्राणां त्रयाणां20 धातूनां धुटि रेफलोपं नित्यमिच्छन्ति-अभ्रतेः “तिक्कृतौ नाम्नि" [५. १. ७१.] इति तिकि अब्धिः, वभ्र-मभ्रोर्यङ्लुपि वावब्धि, मामब्धि, सिद्धान्ते तु अभ्रितः, वावधि त, मामभ्रि त ।। ४७ ।। न्या० स०-व्यञ्जनादित्यादि-समाहारेऽपि सौत्रत्वाद ह्रस्वाभावः। आदित्यो देवताऽस्येत्यादित्य इति-अत्राकारलोपे लुकः सन्धिविधित्वात् स्थानिवद्भावप्रतिषेधेऽनेन25 पक्षे यलुक् । केचित् त्विति-चान्द्रप्रभृतयः । अपरे स्विति-शाकटायनादयः । सिद्धान्त इति-शुद्धपक्षे, स्वमत इत्यर्थः । 'स्वे' इति कृते शाङ्ग इत्यादिष्वपि स्यात् ।। ४७ ॥ धुटो धुटि स्वे वा ॥ १. ३. ४८ ॥ व्यञ्जनात् परस्य धुटो धुटि स्वे परे लुग् वा भवति । प्रत्तम्, प्रत्तम् ; Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ४६-५०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ८१ अवत्तम्, अवत्त्तम् ; अत्र त्रयस्तकारा, मध्यमस्य वा लोपः; शिण्डि, शिण्ड्ढि ; पिण्ढि, पिण्ड्ढि; भिन्थः, भिन्त्थः । धुट इति किम् ? शाङ्गम्, भाङ्गम् । धुटीति किम् ? सक्थ्ना, सक्थ्ने । स्व इति किम् ? तप्त, दर्ता । व्यञ्जनादित्येव ? बोद्धा, योद्धा ।। ४८ ।। __न्या० स०-धुट इत्यादि। प्रत्तमिति-प्रपूर्वाद् ददातेरारम्भेऽर्थे क्त “प्राद् 5 दागस्त्त०" [ ४. ४. २. ] इति त्तादेशः; [अवत्तम्] अवदीयते स्म क्तः, "नि-वि-स्वन्ववात्" [ ४. ४. ८. ] इति तः । शिण्डि, पिण्ढीति शिष्-पिषोः पञ्चम्यां हौ "रुधां स्वरा ०" [ ३. ४. ८२. ] इति श्नप्रत्यये "श्नास्त्योलक" [ ४. २. ६०.] इति अलोपे "हु-धुट:०" [ ४. २. ८२. ] इति हेधिभावे "तृतीयस्तृतीय०" [ १. ३. ४६. ] इति तृतीयत्वे "तवर्गस्य" [ १. ३. ६०. ] इति ढत्वे "म्नां धुट०" [ ४. ३. ३६. ] इति 10 णत्वेऽनेन पक्षे डलोपे चेति । भाङ्गमिति भृगो "भृवृभ्यां नोऽन्तश्च" [ उणा० ६४. ] इति किति गे नागमे च भृङ्गः, तस्येदमित्यणि ।। ४८ ।। तृतीयस्तृतीय-चतुर्थे ॥ १. ३. ४६ ॥ धुट: स्थाने तृतीये चतुर्थे च परे स्थानिप्रत्यासन्नस्तृतीयो भवति । मज्जति, भृज्जति, दोग्धा, दोग्धुम्, पिण्ड्ढि, शिण्ड्ढि, योद्धा, योद्धम्, लब्धा,15 लब्धुम्, तृतीय-चतुर्थे इति किम् ? लिख्यते । धुट इत्येव ? वल्भते । पदान्ते "धुटस्तृतीयः” [२. १. ७६.] इति, अपदान्तार्थं वचनम् ॥ ४६ ॥ न्या० स०-तृतीय इत्यादि। "लिख्यते' इत्यत्र खस्य गः, 'वल्भते' इत्यत्र लस्य द आसन्नः प्राप्नोति ॥ ४६ ॥ अघोरे प्रथमोऽशिटः ॥ १. ३. ५० ॥ शिवजितस्य धुट: स्थानेऽघोषे परे प्रथमो भवति । वाक्पूता, देवच्छत्रम्, षट् कुर्वन्ति, दृषत्कल्पः, ककुप्सु, भेत्ता, लप्स्यते । अघोष इति किम् ? भज्यते, भिद्यते । धुट इत्येव ? भवान् खनति, कण्ठः, कन्था । अशिट इति किम् ? श्च्योतति, कष्टीकते, पयस्सु ।। ५० ॥ न्या० स०-अघोष इत्यादि । ननु 'पयस्सु' इत्यत्र “श-ष-से श-ष-सं वा"25 [ १. ३. ६. ] इति विधानादपि न प्राप्नोति, किमशिट इति वच्नेन ? सत्यम्-श्च्योततीत्याद्यर्थम्, तथाऽशिट इत्यभावे 'वृक्षः पुरुषः' इत्यादौ कस्यादिः कादिरिति व्याख्यया 20 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] बृहत्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ५१-५३.] । विसर्गस्यापि "अपञ्चमान्तस्थो०" [ १. १. ११. ] इति धुत्वे "अवर्ण-ह-विसर्ग-कवाः कण्ठ्याः " इति कत्वं स्यात्, श्च्योततीत्यादिप्रयोगत्रये यथासंख्यं च-ट-ताः स्युरिति ; 'अस्थि (स्ति) आस्ते' इत्यादिषु च सस्य तकारः स्यात् ॥ ५० ॥ विरामे वा ॥ १. ३. ५१ ॥ - विरामे वर्तमानस्याशिटो धुटः स्थाने प्रथमो वा भवति । वाक्, वाग्; 5 षट्, षड्; तत्, तद् ; ककुप्, ककुब् । विराम इति किम् ? वागत्र । धुट इत्येव ? क्रुङ्, सुगण , भवान्, त्वम् ।। ५१ ।। न्या० स०-विरामे वेति-वैषयिकमिदमधिकरणम् । क्रुङ इत्यादि-चवर्गजो त्रकारः “पद-रुज-विश-स्पृशो घञ्" [ ५. ३. १६. ] इत्यादौ दृश्यः, 'क्रुङ' इत्यादिचतुष्टये क-ट-त-पाः स्युः, घञ् इत्यत्र चः स्यादिति ।। ५१ ॥ .. 10 न सन्धिः ॥ १. ३. ५२॥ उक्तो वक्ष्यमाणश्च विरामे सन्धिर्न भवति । दधि अत्र, ते पाहुः, तत् लुनाति, भवान् लुनाति, कुर्वन् शेते, वृक्षस्य छाया, ब्राह्मणस्य छत्रम्, भवान् छादयति, नृ न पाहि, कुण्डम् हसति, वृक्ष याति, कुर्वन् प्रास्ते । विरामादन्यत्र तु संहितायां सन्धिरेव, सा च “संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः । नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते" ।। ५२ ।। न्या० स०—न सन्धिरिति । संहितायामिति-सन्धीयन्ते वर्णा अस्यामिति "शी-री-भू०" [ उरणा० २०१. ] इति किति ते संहिता-वर्णानां परस्परं संनिकर्षः । एकपद इति-विषयसा मी, ते भवन्तीत्यादौ एकपदे नित्यं संहिता। धातूपसर्गयोरिति-20 धातूपसर्गयोः प्रेलयतीत्यादौ नित्यसमुदितत्वात् समासस्यापि निरन्तरानेकपदात्मकत्वा , पद-धातूपसर्ग-समासानां नियमेनैकप्रयत्नोच्चार्यत्वाच्च विरामाभावान्नित्यं संहितेति, वाक्ये तु सर्वत्रै कप्रयत्नोच्चार्यत्वस्यानियमाद् विरामाभावेन संहितेति ।। ५२ ।। र पदान्ते विसर्गरतयोः ॥ १. ३. ५३ ।। पदान्ते वर्तमानस्य रेफस्य स्थाने विसर्ग आदेशो भवति, तयोविरामे-25 15 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ५४-५५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ८३ ऽघोषे च । वृक्षः, प्लक्षः, प्रातः, पुनः, अग्निः अत्र, पटुः इह; अघोषे-कः करोति, कः खनति, पुनः पचति, पुनः फलति, कः शेते, कः षण्डे, कः साधुः । कश्चरति, कष्टीकते, कस्तरतीत्यादिषु तु शादय एवापवादत्वाद् भवन्ति । पदान्त इति किम् ? इर्ते, अर्कः, शूर्पः, सर्पः । कथं नृपतेरपत्यं नार्पत्यः, नृकुटयां भवो नार्कुटः, तवरिः, प्रार्च्छतीत्यादि ? प्रसिद्धं बहिरङ्ग- 5 मन्तरङ्ग इति वृद्धयरारादेशाश्रयस्य रेफस्यासिद्धत्वाद् विसर्गो न भवति, एवम्-क-) (पावपि । अन्वित्यधिकाराद् 'गीः, धूः, सजूःषु, आशीःषु' इत्यादिषु दीर्घत्वे कृते पश्चाद् विसर्गः, अन्यथा हि पूर्वं विसर्गे कृते इरुरोरभवाद् दी? न स्यात् ।। ५३ ।। न्या० स०-रः पदान्त इत्यादि। विसर्गः शब्दपुरोवति बिन्दुद्वयं रूढः ।10 तयोरित्यत्रैकाऽपि सप्तम्यर्थवशाद् द्विधा भिद्यते-एका वैषयिकेऽधिकरणेऽपरा त्वौपश्लेषिक इति । असिद्धमिति-प्रत्ययाश्रितत्वेन बहुस्थान्याश्रितत्वेन च बहिरङ्गता, वर्णमात्राश्रितत्वेन त्वन्तरङ्गता, संपदादेशः पदव इति च वृद्धयादौ कृते रेफस्य पदान्तत्वमिति ।। ५३ ॥ 20 ख्यागि ।। १. ३. ५४ ॥ ____15 पदान्ते वर्तमानस्य रेफस्य ख्यागि परे विसर्ग एव भवति । कः ख्यातः, नमः ख्यात्रे। पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमिदम्, तेन जिह्वामूलीयो न भवति ।। ५४ ॥ न्या० स०-ख्यागीति । ख्याग्येव विसर्गनियमात् “ख्यांक प्रकथने” इत्यस्मिन् जिह्वामूलीयोऽपि ।। ५४ ॥ शिटयघोषात् ॥ १. ३. ५५ ॥ अघोषात् परे शिटि परतः पदान्ते वर्तमानस्य रेफस्य विसर्ग एव भवति । परुषः त्सरुकः, सर्पिः प्साति, सपिः प्सातम्, वासः क्षौमम्, अद्भिः प्सातम् । इदमपि नियमार्थम्, तेन सत्व-षत्व-क-) (पा न भवन्ति ।।५।। न्या० स०-शिटयेत्यादि । अघोषात् परस्य पदान्ते रेफस्यासम्भवाद् अघोषा-25 दिति शिटीत्यस्य विशेषणमित्याह–अघोषात परे शिटीति ॥ ५५ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ५६-५८.] व्यत्यये लुग् वा ॥ १. ३. ५६ ॥ शिटः परोऽघोष इति व्यत्ययः, तस्मिन् सति पदान्ते वर्तमानस्य रेफस्य लुग् वा भवति । चक्षु श्चोतति, पक्षे-चक्षुश्श्चोतति, चक्षुः श्वोतति ; क ष्ठीवति, कष्ष्ठीवति, कः ष्ठीवति; चेत स्खलति, चेतस्स्खलति, चेतः स्खलति; चक्षु स्पन्दते, चक्षस्स्पन्दते, चक्षुः स्पन्दते; पुन स्पन्दते, पुनस्स्पन्दते, 5 पुनः स्पन्दते ।। ५६ ॥ अरोः सुपि सः ॥ १. ३. ५७ ॥ रुवजितस्य रेफस्य स्थाने सुपि परे रेफ एव भवति, कार्यान्तरबाधनार्थः । गीर्ष, धूर्षु, वार्ष, द्वाए । विसर्ग-सकारौ न भवतः । अरोरिति किम् ? पयःसु, पयस्सु; अहःसु, अहस्सु। सुपीति किम् ? गीः, धूः । र इत्येव ? 10 महत्सु ।। ५७ ।। ___ न्या० स०-अरोरित्यादि । विसर्गेति-अन्तरङ्गत्वात् "श-ष-से०" [ १. ३. ६. ] इति षत्वं प्राप्नोति, अतः सकार इत्युक्तम् । ननु ‘पयःसु' इत्यादिषु “सो रुः" [१. ३. ५०.] इति कृते अन्तस्थाद्वारेण रेफात् परः षकारः कथं न भवति ? सत्यम्नित्यत्वाद् “रः पदान्ते०" [ १. ३. ५३. ] इत्यादयो भवन्ति । रुवर्जनाल्लाक्षणिकन्यायो15 निरनुबन्धन्यायश्चानित्यस्तेन “रः कखपफयो:०" [ १. ३. ५३. ] इत्यादौ लाक्षणिकस्यापि भवति ॥ ५७ ।। वाहर्पत्यादयः ॥ १. ३. ५८ ॥ अहर्पत्यादयः शब्दा यथायोगमकृतविसर्गाः कृतोत्वाभावाश्च वा निपात्यन्ते । अहर्पतिः, अहःपतिः, अह) (पतिः; गीपतिः, गी:पतिः, गी) (पतिः; 20 धूर्पतिः, धूःपतिः, धू) (पतिः, एषु पक्षे विसर्गाभावो निपात्यते; हे प्रचेता राजन् ! , हे प्रचेतो राजन् ! अत्र पक्षे उत्वाभावो निपात्यते । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ५८ ।। न्या० स०-वाहर्पतीत्यादि । निपातनात् पदान्ताधिकारो निवर्तते, तेनोत्तरसूत्रे न याति, तथा च रूषीरमित्यादि सिद्धम् । गोपतिरिति-अत्र क्षीरस्वामिना भ्रातुष्पुत्रा-25 दित्वात् षत्वमिष्यते । प्रचेता राजनिति संबोधने विशेषज्ञापनाय, संबोधनादन्यत्राप्युदा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ५६ - ६०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ८५ हार्यम्, तच्च समास एव, अन्यत्र तु " प्रभ्वादे० " [१. ४. ६०.] इति दीर्घत्वे विशेषाभावः, यदुत्पलः - कर्मधारयात् समासान्ते प्रचेताराजः, प्रचेतोराजः; शकटोऽप्याह-प्रचेतसो राजा प्रचेताराजः, प्रचेतोराजः प्रचेता राजा प्रस्येति प्रचेताराजा, प्रचेतोराजेति । श्राकृतिगरणार्थत्वाद् बहुवचनस्य वारि चरति "क्वचित्" [५. १. १७१.] इति वार्चो हंसः, उषसि बुध्यते "नाम्युपान्त्य ०' [ ५. १. ५४. ] इति के उषर्बुधः, अनयोः शत्वमुत्वं च न 5 भवति, व्यवस्थितवाशब्दाच्च न विकल्पः ।। ५८ ।। " शिट्याद्यस्य द्वितीयो वा ॥ १. ३. ५६ ॥ आद्यस्य प्रथमस्य स्थाने शिटि परे द्वितीयो वा भवति । ख्षीरम्, क्षीरम्; तछ् शोभनम्, तच् शोभनम्; सम्राट्सु, सम्राट्सु भवथ्सु, भवत्सु; अफ्सु, अप्सु; अफ्सराः, अप्सराः । श्राद्यस्येति किम् ? भवान् साधुः शिटीति 1 किम् ? वाक् करोति, सत्यम् ।। ५६ ।। 10 न्या० स० - शिटचाद्य ेत्यादि । अत्राद्यत्वं प्रतिवर्गपञ्चकं प्रथमाक्षरापेक्षम्, तदपेक्षं च द्वितीयत्वमिति, तेन क च ट त पानां ख-छ-ठ-थ- फाः शिटि भवन्ति । क्रमेणोदाहरणानि ॥ ५६ ॥ तवर्गस्य श्चवर्ग-ष्टवर्गाभ्यां योगे च - टवर्गों ।। १.३.६० ।।15 तवर्गस्य स्थाने शकार - चवर्गाभ्यां षकार - टवर्गाभ्यां च योगे यथासंख्यं चवर्ग-टवर्गावादेशौ भवतः, स्थान्यासन्नौ । समुदायद्वयापेक्षया यथासंख्यार्थं तृतीय द्विवचनम् । योगग्रहणं स्थानित्वाशङ्कानिरासार्थं पूर्वापरभावानियमार्थं च । शकारेण योगे- तच् शेते, तच् श्च्योतति, भवाञ् शेते, चवर्गेण योगेतच् चरति तच् छादयति, तज् जयति तज् भाषयति, तञ् ञकारेण, अत्र20 दकारस्य जकारे “तृतीयस्य पञ्चमे " [१. ३. १.] इति ञकारः, प्रशाञ् चरति, प्रशाञ् छिनत्ति, प्रशाञ् छादयति, भवाञ् जयति, भवाञ् झाषयति, भवाञ् ञकारेण, पूर्वेण चवर्गेण - याच्ञा, यज्ञः, राज्ञः । पूर्वेण शकारेण परेण च षकारेण प्रतिषेधो वक्ष्यते । पूर्वेण तु षकारेण - पेष्टा, पेष्टुम् । 'पूष्णः, वृष्णः, पूष्णा, दोष्णा' इत्यादि रणत्वेनापि सिध्यति । टवर्गेण - तट् टीकते, 25 よ तट् ठकारेण, तड् डीनम्, तड् ढौकते, तरण, रणकारेण, अद्ड - प्रड्डति, अट्टि - अट्टते, भवाण् डीनः, भवारण, ढौकते, भवाण, गकारेण ; पूर्वेण टवर्गेण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते ईट्टे । तवर्गस्य चवर्गे कृते " च ज क - गम्" [२. २. ८६. ] इति न भवति, * प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति, तत्र च प्रत्ययाधिकाराद् 'मज्जति' इत्यादावपि न भवति एयमुत्तरत्रापि शकारस्य षत्वमपि न भवति ।। ६० ।। [पा० ३. सू० ६१.] 2 न्या० स० – तवर्गस्येत्यादि । स्थानित्वाऽऽशङ्क त्यादि - श्रयमर्थः - योगग्रहणं विना सहार्थतृतीयायाम् “प्रवर्णस्येवर्णादिना ०" [१. २. ६. ] इत्यादिवत् श्ववर्गादेरपि स्थानि- 5 त्वाशङ्का, परदिग्योगपञ्चम्यां तु " पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य" [ ७. ४. १०४.] इति न्यायात् परस्यैव तवर्गस्य स्यात्, न पूर्वस्येति योगग्रहरणम् । ननु तवर्गस्य कार्यित्वात् तेन च विशिष्टवर्णसमुदायस्याभिधानात् । 'तच् शेते' इत्यादिषु एकैकस्य तवर्गशब्दादप्रतीती कथं कार्यित्वमिति ? सत्यम् - समुदायैकदेशस्यापि तदात्मकत्वाद् " ग्रामो दग्ध:' इतिवत् समुदायशब्देनाभिधानात् दस्यापि तवर्गत्वे सति दकाररूपतवर्गस्यानेन जकारः यद्वा, 10 यथा- ग्रामे वसति, गृहे वसतीत्यादौ ग्रामाद्येकदेशादेरपि ग्रामादिशब्दादभिधानम्, नहि देवदत्तादिरेवमभिधीयमानो ग्रामं गृहं वा व्याप्य वसति, किन्तु तदेकदेशे, तत्र स एवैकदेशो ग्रामो गृहं चोच्यते, तद्वदत्रापीत्यदोषः । तच् छादयतीति "छदरण, संवरणे” इत्यस्य “छदरण अपवारणे” इत्यस्य वा युजादे: स्वार्थरिणजन्तस्य रूपम् । तज् झाषयतीतिप्रयोक्तव्यापारे रिणग्, “हन्त्यर्थाश्व" इति णिजन्तस्य वा रूपम् । राज्ञ इति - शसि ङौ ङसि 15 च रूपम्, एवम्-मज्ज्ञ इत्यपि । पूर्वेण शकारेणेति - "न शात् " [१. ३. ६२.] इत्यनेन निषेधो वक्ष्यते । परेण षकारेणेति - "षि तवर्गस्य" [ १. ३. ६४ ] इत्यनेन । अन्वित्यधिकारात् 'अड्डिडिषति' इत्यत्र द्वित्वे कृते पश्चात् टवर्गः, अन्यथा प्रडिड्डिषतीत्यनिष्टं रूपं स्यात्, एवम्- 'अट्टिटिषते' इत्याद्यपि । एवमुत्तरसूत्रेऽपि "च जः क - गम्” [ २. १. ८६. ] इति न भवतीति तच् शेते, तच् चरतीत्यादौ उभयाश्रितत्वाच्चत्वं बहिरङ्ग पदमात्रा - 20 श्रितत्वात् कत्वमन्तरङ्गमिति । शकारस्य षत्वमपीति - 'वृश्वति' इत्यादी "सस्य श-षी" [ १.३.६१ ] इति कृतस्य शकारस्य " यज-सृज - मृज० " [ २. १८७ ] इत्यनेन धुडाश्रितं षत्वं प्रत्ययाभावान्न भवतीत्यर्थः ।। ६० ।। सस्य श षौ ॥ १. ३. ६१ ॥ सकारस्य स्थाने श्ववर्ग-ष्टवर्गाभ्यां योगे यथासंख्यं शकार - षकारावादेशौ25 भवतः । चवर्गेण - श्च्योतति, वृश्चति, मज्जति, लज्जते, भृज्जति, सज्जति; षकारेण - सर्पिष्षु, धनुष्षु, दोष्षु, अत्र सो रुत्वं तस्य सत्वं, सुपः षत्वं ततोऽनेन पूर्वसस्य षत्वम्; टवर्गेण - पापषि, बंभषि ।। ६१ ।। न्या० स० – सस्येत्यादि । ननु "वृश्चति" इत्यादौ भवति इति भरणनात् "नाम्यन्तस्था०" [२. ३. १५. ] दन्त्यापदिष्टं कार्यं तालव्येऽपि इति षत्वं कथं न भवतीति ?30 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० ६२-६५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः उच्यते - पाठकाले यो दन्त्यसकारस्तस्य कृतत्वाभावादिति । 'सर्पिष्षु' इत्यादिषु पदान्तत्वाद् “नाम्यन्तस्था०” [२. ३. १५.] इत्यादिना षत्वं न भवति प्रकृतेः सस्य ।। ६१ ।। न शात् ॥ १.३. ६२ ।। शकारात् परस्य तवर्गस्य स्थाने यदुक्तं तन्न भवति, किमुक्तम् ? चवर्गः | अश्नाति ; अश्नुते, विश्न:, प्रश्नः ।। ६२ ।। न्या० स० - न शादिति । तवर्गस्येति-असंभवात् सस्येति न व्याख्यातम् ।। ६२ ।। पदान्ताट्टवर्गादनाम् - नगरीनवते ॥ १. ३. ६३ ॥ [ ८७ 5 , पदस्यान्ते वर्तमानाट्टवर्गात् परस्य नाम्नगरी - नवतिसम्बन्धिवर्जितस्य तवर्गस्य सकारस्य च यदुक्तं तन्न भवति, किमुक्तम् ? टवर्ग - षकारौ । षट्तयम्, मधुलिट् तरति मधुलिट् थुडति मधुलिड् दुनोति, मधुलिड् धुनोति, 10 षण नयाः; मधुलिट् सीदति, मधुलिट् साये, मधुलिट् स्यात् मधुलिट्सु । टवर्गादिति किम् ? चतुष्टयम्, सर्पिष्ट्वम् । पदान्तादिति किम् ? ईट्टे अनाम्-नगरी-नवतेरिति किम् ? षण्णाम्, षण्णगरी, षण्णवतिः । नामित्यामादेशस्य ग्रहणादिह प्रतिषेधो भवत्येव - षड्नाम ।। ६३ ।। न्या० स० - पदान्तादित्यादि । तवर्गस्येति - उत्तरत्र तवर्गस्येति भरणनात् तवर्गस्य 15 सस्य चेति लभ्यतेऽत्र । नामित्यामादेशस्येति - अन् प्रत्ययान्तस्य घञन्तस्य च नमतेरवयव एक:, अपरश्चामादेश:, अत्र य आमादेशो नाम् तस्यैवार्थवत्त्वात् प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव इति न्यायाद्वा ग्रहणमित्याह - षड्नाम । नामशब्दो नकारान्तोऽकारान्तो वाऽव्यय इति ।। ६३ ।। षि तवर्गस्य ॥ १. ३. ६४ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य तवर्गस्य स्थाने षकारे परे यदुक्तं तन्न भवति, किमुक्तम् ? टवर्गः । तीर्थकृत् षोडशः शान्तिः, भवान् षण्डः । षीति किम् ? तट्टीकते । तवर्गस्येति किम् ? सर्पिष्षु ।। ६४ ॥ 20 लि लौ । १.३. ६५ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य तवर्गस्य स्थाने लकारे परे स्थान्यासन्नावनुनासिका-25 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते .. [पा० ४. सू० १.] ऽननुनासिको लकारौ भवतः । तल लुनाति, भवालँ लुनाति । “अासन्नः” । [७. ४. १२०.] इत्येव सिद्धे द्विवचनमन्यत्रानुनासिकस्यापि स्थानेऽननुनासिकार्थम्, तेन “वाष्टन प्राः स्यादौ" [१. ४. ५२.] इत्यादावननुनासिक एव भवति ।। ६५ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानु- 5 शासनबृहद्वृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ।। ३ ।। चक्रे श्रीमूलराजेन नवः कोऽपि यशोऽर्णवः । परकीर्तिस्रवन्तीनां न प्रवेशमदत्त यः ।। ३ ।। न्या० स०-लिलाविति । अननुनासिक एव भवतीति-विपरीतनियमस्तु निरनुनासिकस्य सानुनासिकः इति "हृदयस्य हृल्लास." [ ३. २. ४४. ] इत्यत्र हृल्लासेति 10 करणान्न भवति । प्रायिकं चैतज्ज्ञापकम्, तेन “समानानां तेन दीर्घः" [ १. २. १. ] इत्यादौ आसन्न एव भवतोति ।। ६५ ।। इति प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः ।। ३ ।। प्रथ चतुर्थः पादः अत आः स्यादौ जस्-भ्याम्-ये ॥ १. ४. १॥ स्यादौ जसि भ्यामि यकारे च परेऽतोऽकारस्याऽऽकारो भवति । वृक्षाः, प्लक्षाः, आभ्याम्, श्रमणाभ्याम्, श्रमणाय, संयताय । अत इति किम् ? मुनयः, मुनिभ्याम् । स्यादाविति किम् ? बाणान् जस्यतीति क्विप्-बाणजः, अग्नये, वृक्षयोः ।। १ ॥ 20 न्या० स०–अत आ इत्यादि । अत्र प्रत्ययाऽप्रत्यययो:०% इति सिद्धे स्यादिग्रहणं "रण-षमसत्परे०" [२. १. ६०.] इत्यादौ प्रयोजनार्थम्, तेन 'राजभ्याम्' इत्यादौ नलोपस्य स्यादिविधौ विधेयेऽसिद्धत्वादाकारो न भवतीति । न चात्र स्यादिग्रहणाभावे "त्रि-चतुर०' Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० २-३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ८६ [२. १. १.] इत्यादिविहितस्य स्यादेर्ग्रहणं भविष्यति, यतस्तत्र तस्य ग्रहणेऽपि न किमपि फलम्, अन्यच्च स्यादिग्रहणे शुचिशब्दात् ड्यां प्रत्ययत्वात् “ङित्यदिति" [१. ४. २३.] इत्येवं प्राप्त निषिध्यते । किञ्च, अत्र स्यादिग्रहणाभावे 'वन्यः' इत्यत्रापि "अवर्णवर्णस्य" [७. ४. ६८.] इत्येतद् बाधित्वाऽऽकारः स्यात् । यद्वा, इत्थं चालना-प्रत्ययाप्रत्यययो:०% इति न्यायेन सिद्धे स्यादिग्रहणं "ण-षमसत्०" [ २. १. ६०.] इति 5 सूत्रेऽसदिति कार्यार्थम्, तेन 'राजभ्याम्' इति सिद्धम् । इदं च न वक्तव्यम्, यत् वने साधुः "तत्र साधौ" [७. १. १५.] इति ये प्रत्यये आकारः प्राप्नोतीति स्यादिग्रहणम, यतो जस्-भ्याम्साहचर्यात् यकारोऽपि स्यादेरेव लप्स्यते किं स्यादिग्रहणेन ? सत्यम्-तहि अधिकारार्थम्, तेन शुची स्त्रीत्यादौ ङीप्रत्यये "ङित्यदिति" [ १. ४. २३. ] इत्येकारो न भवतीति । वृक्षा इति-अत्र जसि अपवादत्वात् समानदीर्घत्वबाधकस्य "लुगस्यादेत्यपदे"10 | २.१.११३. | इत्यस्य बाधकोऽयमाकारः। आभ्यामिति-इदम्शब्दस्य, प्रतते "क्वचित्" [ ५. १. १७१. ] इति डे अप्रकृतेर्वा सिद्धम् । श्रमणाभ्यामिति-स्यादेः पूर्वमेकपदत्वाभावात् कथम् ? "रघुवर्ण०" [२. ३. ६३.] इति णत्वं श्रमणप्रकृतेः, उच्यते* भाविनि भूतवत्' इति न्यायाद् भवति । श्रमणायेति-अकारसंनिपातेन विधीयमानो यकारस्तद्विघाताय कथं प्रभवतीति न वाच्यम्, यग्रहणवैयर्थ्यप्रसङ्गात् ।। १॥ 15 भिस ऐस् ॥ १. ४. २ ॥ अकारात् परस्य स्यादेभिसः स्थाने 'ऐस्' इत्ययमादेशो भवति । श्रमणैः, संयतः, अतिजरैः । एसादेशेनैव सिद्धे ऐस्करणं *संनिपातलक्षण* न्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थम्, तेनातिजरसरित्यपि सिद्धम् । अन्ये तु अतिजरैरित्येवेच्छन्ति । अत इत्येव ? मुनिभिः, शालाभिः, दृषद्भिः । स्यादेरित्येव ? 20 चैत्रभिस्सा, प्रोदनभिस्सटा ।। २ ।। न्या० स०-भिस ऐसिति । एसादेशेनैवेति-एसादेशे कृते “लुगस्या." [ २. १. ११३. ] इति तु न वाच्यम्, विधानसामर्थ्यात्, अन्यथा यदि देवेरित्यभीष्टं स्यात् तदा इसिति कुर्यात् । अतिजरसैरिति-एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् कृतह्रस्वोऽपि जराशब्द एवेति । भिस्सटेति-"प्सांक् भक्षणे" इत्यस्याभिपूर्वस्याभिप्सायते इति “उपसर्गादातः"25 [५. ३. ११०.] इति अङि पृषोदरादित्वादभेरकारलोपे पकारस्य सकारे आपि लक्ष्यानुरोधाद् विकल्पेन टागमे भिस्सा, भिस्सटा ॥ २ ॥ इदमदसोऽक्येव ॥ १. ४. ३ ॥ 'इदम् अदस्' इत्येतयोरक्येव सत्यकारात् परस्य भिस ऐस् भवति । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते . [पा० ४. सू० ४-६.] इमकैः, अमुकैः । अक्येवेति किम् ? एभिः, अमीभिः । पूर्वेणैव सिद्धे निय- । मार्थमिदम् । एवकारस्त्विष्टावधारणार्थः ।। ३ ।। न्या० स०-इदमदस इत्यादि। इष्टावधारणार्थ इति-तेन प्रत्ययनियमो न भवति, तदभावे च तक: विश्वकैरित्यादि सिद्धम् ।। ३ ।। एद् बहुरभोसि ॥ १. ४. ४ ॥ बह्वर्थविषये सकारादौ भकारादावोसि च स्यादौ परेऽकारस्यैकारादेशो भवति । एषु, एषाम्, अमीषाम्, सर्वेषाम्, एभिः, एभ्यः, वृक्षेभ्यः, श्रमणयोः, संयतयोः । बह्विति किम् ? वृक्षस्य, वृक्षाभ्याम् । स्भोसीति किम् ? सर्वे । अत इत्येव ? साधुषु, साधुभ्यः, खट्वासु खट्वाभ्यः, अग्न्योः , दृषदोः ।। ४ ॥ टा-सोरिन्-स्यौ ॥१. ४. ५॥ 10 अकारात् परयोष्टा-ङसोः स्याद्योः स्थाने यथासंख्यम् ‘इन स्य' इत्येतावादेशौ भवतः । वृक्षेण, अतिजरेण, वृक्षस्य, अतिजरस्य । अत इत्येव ? अतिजरसा, अतिजरसः, अत्र परत्वान्नित्यत्वाच्च प्रागेव जरसादेशे कृते अकारान्तत्वाभावः । अन्ये तु प्रागेवेनादेशम् *संनिपातलक्षण-न्यायस्यानित्यत्वाश्रयणात् पश्चाज्जरसादेशं चेच्छन्तोऽतिजरसिनेत्यपि मन्यन्ते ।। ५ ।। 15 न्या० स०-टा-ङसोरित्यादि । अन्ये विति-यदि हि 'अतिजरसिना' इत्येतत् सूत्रकारस्य साधुत्वेनाभिमतं स्यात् तदा 'टा' इत्येतस्य नकारादेशत्वमेव कुर्यात्, तत्रापि ह्य त्वे कृते वृक्षणेत्यादि सिद्धयत्येव, कथमेत्वमिति चेत् ? “एद् बहुस्भोसि" [ १. ४. ४. ] इत्यत्र टावचनप्रक्षेपात्, अत्र जयादित्यः-यथा तु भाष्यं तथा नैतल्लक्ष्यते ॥ ५ ॥ डे-स्योर्याती॥१. ४. ६ ॥ 20 प्रकारात् परयोः 'डे ङसि' इत्येतयोर्यथासंख्यं 'य पात्' इत्येतावादेशी भवतः । वृक्षाय, वृक्षात्, अतिजराय, अतिजरात् । अत इत्येव ? अतिजरसे, अतिजरसः । केचित् तु प्रागेवाऽऽदादेशे जरसादेशमिच्छन्तोऽतिजरसादित्यपि मन्यन्ते ॥ ६ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ६१ .. न्या० स०-डे-ङस्योरित्यादि । नन्वत्र 'अत्' इत्येव क्रियताम्, किं दीर्घकरणेन ? न चैवं कृते “लुगस्या०" [२. १. ११३.] इति प्राप्स्यतीति, तदा हि 'त्' इत्येवं कुर्यात्, सत्यम्-मतान्तरेऽतिजरसादित्यपि मन्यन्ते, तत्सिद्धयर्थं दीर्घकरणम्, दीर्घकरणाच्च स्वमतेऽपि सम्मतमिति बोध्यम् ।।६।। सदिः स्मै-स्मातौ ॥ १. ४. ७ ॥ सर्वादेरकारान्तस्य सम्बन्धिनोर्डे-डस्योर्यथासंख्यं 'स्मै स्मात्' इत्येतावादेशौ भवतः । सर्वस्मै, परमसर्वस्मै, सर्वस्मात्, परमसर्वस्मात्, असर्वस्मै, असर्वस्मात्, किंसर्वस्मै, किंसर्वस्मात्, एवम्-विश्वस्मै, विश्वस्मात् । उभशब्दस्य द्विवचनस्वार्थिकप्रत्ययविषयत्वात् स्मैप्रभृतयो न संभवन्ति, गणपाठस्तु हेत्वर्थप्रयोगे सर्वविभक्त्यर्थः-उभौ हेतू १, उभौ हेतू २, उभाभ्यां हेतुभ्याम् ३, उभाभ्यां10 हेतुभ्याम् ४, उभाभ्यां हेतुभ्याम् ५, उभयोर्हेत्वोः ६, उभयोर्हेत्वोः ७ इति । उभयस्मै, उभयस्मात् । अन्यस्मै, अन्यस्मात् । अन्यतरस्मै, अन्यतरस्मात्, डतरग्रहणेनैव सिद्धेऽन्यतरग्रहणं डतमप्रत्ययान्तस्यान्यशब्दस्य सर्वादित्वनिवृत्यर्थम्-अन्यतमाय, अन्यतमं वस्त्रम्, अन्यतमे; एके त्वाहुः-'नायं डतरप्रत्ययान्तोऽन्यतरशब्दः, किन्तु अव्युत्पन्नस्तरोत्तरपदस्तरबन्तो वा, तन्मते-15 डतमान्तस्याप्यन्यशब्दस्य सर्वादित्वम्-अन्यतमस्मिन् । इतरस्मै, इतरस्मात् । डतर-डतमौ प्रत्ययौ, तयोः स्वार्थिकत्वात् प्रकृतिद्वारेणैव सिद्धे पृथगुपादानमत्र प्रकरणेऽन्यस्वार्थिकप्रत्ययान्तानामग्रहणार्थमन्यादिलक्षणदार्थं च, कतरस्मै, कतमस्मै, यतरस्मै, यतमस्मै, ततरस्मै, ततमस्मै, एकतरस्मै, एकतमस्मै; इह न भवति-सर्वतमाय, सर्वतमात् । त्वशब्दोऽन्यार्थः, त्वस्मै, त्वस्मात् ।20 त्वच्छब्दः समुच्चयपर्यायः, तस्य स्मायादयो न संभवन्तीति हेत्वर्थयोगे सर्वविभक्तित्वमक्प्रत्ययश्च प्रयोजनम्-त्वतं हेतुम्, त्वता हेतुना वसति; अज्ञातात् त्वतस्त्वकतः । नेमशब्दोऽर्धार्थः, नेमस्मै, नेमस्मात् । सम-सिमौ सर्वाथी, समस्मै, समस्मात्, सिमस्मै, सिमस्मात्, सर्वार्थत्वाभावे न भवति-समाय देशाय, समाद् देशाद् धावति । स्वाभिधेयापेक्षे चावधिनियमे व्यवस्थापर-25 • पर्याये गम्यमाने पूर्व-परा-ऽवरदक्षिणोत्तरा-ऽपरा-ऽधराणि, पूर्वस्मै, पूर्वस्मात्, परस्मै, परस्मात्, अवरस्मै, अवरस्मात्, दक्षिणस्मै, दक्षिणस्मात्, उत्तरस्मै, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० ४. सू० ७.] उत्तरस्मात्, अपरस्मै, अपरस्मात्, अधरस्मै, अधरस्मात् ; व्यवस्थाया अन्यत्र न भवति-दक्षिणाय गाथकाय देहि, प्रवीणायेत्यर्थः, दक्षिणायै द्विजाः स्पृहयन्ति । अात्माऽऽत्मीय-ज्ञाति-धनार्थवृत्तिः स्वशब्दः, आत्माऽऽत्मीययोःयत् स्वस्मै रोचते तत् स्वस्मै ददाति, यदात्मने रोचते तदात्मीयाय ददातीत्यर्थः, ज्ञाति-धनयोस्तु न भवति-स्वाय दातुं स्वाय स्पृहयति, ज्ञातये दातुं 5 धनाय स्पृहयतीत्यर्थः । बहिर्भावेन बाह्य न वा योगे उपसंव्याने उपसंवीयमाने चार्थे वर्तमानोऽन्तरशब्दः, न चेद् बहियोगेऽपि पुरि वर्तते, अन्यतरस्मै गृहाय, नगरबाह्याय चाण्डालादिगृहायेत्यर्थः, चाण्डालादिगृहयुक्ताय वा नगराभ्यन्तरगृहायेत्यर्थः, अन्तरस्मै पटाय, पटचतुष्टये तृतीयाय चतुर्थाय चेत्यर्थः, प्रथमद्वितीययोर्बहियोगेणैव सिद्धत्वात्; पुरि तु न भवति-अन्तरायै पुरे क्रुध्यति10 चाण्डालादिपुर्य इत्यर्थः; बहिर्योगोपसंव्यानादेरन्यत्र तु न भवति-अयमनयोमियोरन्तरात् तापस आयातः, मध्यादित्यर्थः । त्यस्मै । तस्मै । यस्मै । अमुष्मै । अस्मै । एतस्मै । एकस्मै । द्वि-युष्मद्भवत्वस्मदां स्मायादयो न संभवन्तीति सर्वविभक्त्यादयः प्रयोजनम्-[द्वौ हेतू] २, द्वाभ्यां हेतुभ्याम् ३, द्वयोर्हेत्वोः २; अज्ञाते द्व-द्वके स्त्रियौ कुले वा, द्वको पुरुषौ । 15 युवाभ्यां हेतुभ्यां ३, युवयोर्हेत्वोः २, युवकाभ्याम्, युष्मादृशः । भवद्भयां हेतुभ्याम् ३, भवतोर्हेत्वोः २, भवकान्, भवादृशः; स च भावांश्च भवन्तौ, अत्र त्यदादित्वात् परत्वाच्च भवच्छेषः, भवान् पुत्रोऽस्येति भवत्पुत्रः, अत्रसर्वादित्वात् पूर्वनिपातः; भवतोऽपत्यं भावतायनिः, अत्र त्यदादित्वादायनिञ्; भवत्याः पुत्रो भवत्पुत्रः अत्र सर्वादित्वात् पुंवद्भावः; भवन्तमञ्चतीति क्विपि,20 भवद्रयङ्, अत्र “सर्वादि-विष्वग्-देवाड्डुद्रिः क्व्यञ्चौ” [३. २. १२२.] इति डव्यागमः, उकारो नागमार्थो ङ्यर्थो दीर्घार्थश्च, भवती, भवान् । आवाभ्यां हेतुभ्याम् ३, आवयोर्हेत्वोः २, आवकाभ्याम्, अस्मादृशः । कस्मै, कस्मात् । सर्वेऽपि चामी संज्ञायां सर्वादयो न भवन्ति, तेनेह न भवति-सर्वो नाम कश्चित्, सर्वाय, सर्वात्, उत्तराय कुरवे स्पृहयति । अत इत्येव ? भवते,25 भवतः । सर्वादेरिति षष्ठीनिर्देशेन तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियाः सर्वे यस्य तस्मै प्रियसर्वाय, सर्वानतिक्रान्तायातिसर्वाय, द्वावन्यावस्य तस्मै द्वयन्याय, त्र्यन्याय, प्रियपूर्वाय । सर्व, विश्व, उभ, उभयट्, अन्य, अन्यतर, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ६३ इतर, डतर, डतम, त्व, त्वत्, नेम, सम-सिमौ सर्वाथौं, पूर्व-परा-ऽवर-दक्षिणोत्तराऽपराधराणि व्यवस्थायाम्, स्वमज्ञाति-धनाख्यायाम्, अन्तरं बहिर्योगोपसंव्यानयोरपुरि, त्यद्, तद्, यद्, अदस्, इदम्, एतद्, एक, द्वि, युष्मद्, भवतु, अस्मद्, किम्, इत्यसंज्ञायां सर्वादिः । उभयडिति टकारो ड्यर्थः, उभयी दृष्टि : ।। ७ ॥ न्या० स०-सर्वादेरित्यादि । परमसर्वस्मायिति-स्याद्याक्षिप्तस्य नाम्नः सर्वादिविशेषणाद् विशेषणेन च तदन्तविधेर्भावात् “न सर्वादिः" [१. ४. १२.] इति द्वन्द्व निषेधाद् वा ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः इत्यस्यानुपस्थानात् तदन्तं 'परमसर्वस्मै' इत्युदाहृतम्, केवलस्य व्यपदेशिवद्भावात् तदन्तत्वं दृश्यम् । विश्वस्मै इति-सर्वशब्दसाहचर्याद् विश्वशब्दस्यापि समस्तार्थस्यैव ग्रहणम्, न तु जगदर्थस्य । स्वार्थिकप्रत्ययेति-10 इत्थं वदतोऽयमाशयः-स्वार्थिकप्रत्ययोऽपि गणपाठफलमिति । सिमोऽश्वाद्यर्थोऽपि । अधराणीति-शब्दरूपापेक्षया नपुसकनिर्देशो नार्थापेक्षया, तेन स्त्री-पु-नपुसकेषु सर्वेष्वप्यर्थेषु सर्वादित्वमिति । स्वाभिधेयेति-पूर्वादीनां शब्दानां स्वाभिधेयो दिग्-देश-काल-स्वभावोऽर्थः, तमपेक्षते यः स स्वाभिधेयापेक्षः, चोऽवधारणे, दिगादीनां ह्यर्थानां पूर्वादिशब्दाभिधेयानां यत् पूर्वादित्वं तद् नियमेन कञ्चिदवधिमपेक्ष्य संपद्यते, न त्ववधिनिरपेक्षम्, तथाहि-15 पूर्वस्य देशस्य यत् पूर्वत्वं तत् परं देशमवधिमपेक्ष्य भवति, परस्यापि यत् परत्वं तत् पूर्वदेशमपेक्ष्य भवति, तस्मात् पूर्वादिशब्दवाच्यापेक्षणेऽवश्यं केनचिदवधिना भाव्यम्, तत्र तस्यैवावधेर्यः पूर्वादिशब्दाभिधेयापेक्षोऽवधिभाव एकान्तिकः स नियमो व्यवस्थापरपर्यायः, तस्मिन् गम्यमाने पूर्वादीनां शब्दानां स्वाभिधेय एव वर्तमानानां सर्वादिकार्यम्, न तु वाच्ये, यो हि पूर्वादिशब्दाभिधेयादर्थादन्यस्यावधिभूतस्य नियमः स कथं पूर्वादिशब्दवाच्यो 20 भविष्यति ? इति, अतस्तस्मिन्नान्तरीयकतया गम्यमाने 'पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर' इत्येतानि सप्त शब्दरूपाणि सर्वादीनि भवन्ति । अवधिमति दिगादिलक्षणे वर्तमानानि पूर्वादीनि सर्वादोनि भवन्तीत्युदाहरति-पूर्वस्मै इत्यादि । दक्षिणायै इति-यज्ञकर्मकृतां वेतनदानं दक्षिणा । बहिर्भावेनेति-धर्मे बहिष्ट्वे धर्मिणि च बहिर्भवे बहिः शब्दः । अन्तं रातीति "पातो डोऽह्वा-वा०" [५. १.७६.] इति डः । पुरि वर्तते25 इति-'पुरि' इति शब्दप्रधानो निर्देशः, यदा अन्तरशब्दस्य पुर्यञ्जनान्तो वाच्यो भवति तदा सर्वादित्वस्य निषेधः, यदा अकारान्त ईकारान्तो वा पुरं पुरी द्रङ्गादयश्च वाच्या भवन्ति, तदा सर्वादित्वमस्त्येव । द्वाभ्यामिति-"सर्वादेः सर्वाः" [२. २. ११६.] इत्यत्र मतद्वयाभिप्रायेण प्रथमा-द्वितीयावर्जनात् तृतीयां प्रारभ्यात्रोदाहरणानि दर्शितानि । स्वमते 'द्वौ हेतू' इत्यादि भवत्येव । सर्वविभक्त्यादय इति-आदिशब्दाद् यथायोगमेकशेष-30 । पूर्वनिपात-पूवद्भाव डद्रि-आत्-आयनिञ्-मयट-अकः प्रयोजनानि ज्ञायन्त इति । अत्र सर्वमादीयते गृह्यतेऽभिधेयत्वेन येनेत्यन्वर्थाश्रयणात् सर्वेषां यानि नामानि तानि सर्वादीनि, संज्ञोपसर्जने च विशेषेऽवतिष्ठते, तथाहि-यदा सर्वशब्दः संज्ञात्वेन नियुज्यते तदा प्रसिद्ध Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ८-१०.] प्रवृत्तिनिमित्तपरित्यागात् स्वरूपमात्रोपकारी प्रवर्तत इति विशेष एवावतिष्ठते, उपसर्जनमपि जहत स्वार्थमजहद् वाऽतिक्रान्तार्थविशेषणतामापन्नम् 'अतिसर्वाय' इत्यादावतिक्रान्तार्थवृत्ति भवति, एवं बहुव्रीहावपि प्रियसर्वाय द्वन्यायेत्यादावन्यपदार्थसंक्रमाद् विशेषार्थवत्ति, वाक्ये त्वसंश्लिष्टार्थत्वात स्वार्थमात्र प्रतिपादयतो न विशेषेवस्थानमिति स्यात् सर्वादित्वम् । “उभत् पूरणे" अतो “नाम्युपान्त्य०" [५. १. ५४.] इति के उभ, 5 तत्पूर्वाद् याते: “प्रातो डोऽह्वा-वा-मः" [५. १. ७६.] इति डे निपातनात् टित्वे उभयट् । डतरेति-प्रत्ययानुकरणम् । स्व "त्रित्वरिष् संभ्रमे" अतः "क्वचि" [५. १. १७१.] इति डे, त्वत्-अस्यैव धातो: “संश्चद्-वेहत्-साक्षादादयः" [उणा० ८८२.] इति निपातनात् ।। ७ ॥ 10 स्मिन् ॥ १. ४. ८॥ सर्वादेरकारान्तस्य संबन्धिनः सप्तम्येकवचनस्य डे: स्थाने स्मिन्नित्ययमादेशो भवति । सर्वस्मिन्, विश्वस्मिन् । अत इत्येव ? भवति । सर्वादेरित्येव ? सर्वो नाम कश्चित्, सर्वे; समे देशे धावति । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियसर्वे, अतिविश्व ।। ८ ।। जस इः ॥ १.४. ६ ॥ ____15 सर्वादेरकारान्तस्य सम्बन्धिनो जसः स्थाने इकार आदेशो भवति, एकवर्णोऽपि "प्रत्ययस्य" [७. ४. १०८.] इति सर्वस्य भवति । सर्वे, विश्वे, उभये, ते । अत इत्येव ? भवन्तः, सर्वाः । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियसर्वाः पुमांसः । 'सर्वाणि कुलानि' इत्यत्र तु परत्वान्नपुंसके शिरेव ।। ह॥ 20 नेमा-ध-प्रथम-चरम-तया-अया-अल्पकतिपयस्य वा ॥१. ४. १०॥ नेमादीनि नामानि, तया-ऽयौ प्रत्ययौ, तेषामकारान्तानां सम्बन्धिनो जसः स्थाने इर्वा भवति, नेमस्य प्राप्ते, इतरेषामप्राप्ते विभाषा । नेमे, नेमाः; अर्धे, अर्धाः; प्रथमे, प्रथमाः; चरमे, चरमाः; द्वितये, द्वितयाः; त्रितये,25 त्रितयाः; द्वये, द्वयाः; त्रये, त्रयाः; उभयटशब्दस्य त्वयट्प्रत्ययरहितस्या Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ११.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ९५ खण्डस्य सर्वादौ पाठात् पूर्वेण नित्यमेवेत्वं भवति-उभये; अल्पे, अल्पाः; कतिपये, कतिपयाः; परमनेमे, परमनेमा इत्यादि । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियनेमाः, अतिनेमाः । स्वार्थिकप्रत्ययान्ताग्रहणादिह न भवतिअर्धकाः । सर्वादेरित्येव ? नेमा नाम केचित् । व्यवस्थितविभाषाविज्ञानाद् अर्धादीनामपि संज्ञायां न भवति-अर्धा नाम केचित् । अत इत्येव ? नेमाः 5 स्त्रियः ।। १० ।। न्या० स०-नेमार्धेत्यादि । तयेति-"तयि रक्षणे च" "अयि गतौ" इत्याभ्यामचि तया-ऽयौ शब्दावपि स्तः, परं व्याख्यानात् तयायौ प्रत्ययौ, तयोश्च केवलयोरसंभवात् तदन्तस्य कार्य दर्शयति-द्वितये इत्यादि । व्युत्पत्तिपक्षेऽपि तयट्साहचर्यात् अयस्य तद्धितस्य ग्रहणम्, न तु “गय-हृदय०" [उणा० ३७०.] इत्यौणादिकस्य । व्यवस्थित-10 विभाषेति-व्यवस्थितं मर्यादानतिक्रान्तं प्रयोगजातं विशेण भाषत इति । अर्धा नाम केचिदिति-नामेत्यदन्तमव्ययम्, नाम नाम्ना संज्ञया, नाम प्रसिद्धार्थो वा, केचिद् वर्तन्ते, किं नाम ? अर्धा नाम, तदा क्लीबः ॥ १० ॥ द्वन्द्वे वा ॥ १. ४. ११ ॥ द्वन्द्व समासे वर्तमानस्याकारान्तस्य सर्वादेः सम्बन्धिनो जसः स्थाने15 इर्वा भवति । पूर्वोत्तरे, पूर्वोत्तराः; कतरकतमे, कतर-कतमाः; दन्तकतमे, दन्त-कतमाः; परमकतर-कतमे, परमकतर-कतमाः । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियकतर-कतमाः, वस्त्रान्तर-वसनान्तराः । उत्तरेण निषेधे प्राप्ते प्रतिप्रसवार्थो योगः ॥ ११ ॥ न्या० स०-द्वन्द्व वेति । कतरे च दशनाश्च ति कृते द्वन्द्वस्योभयपदप्राधान्येऽपि20 कतर-दशना इत्यत्र "द्वन्द्व वा" [१. ४. ११.] इति न विकल्पः, सर्वादेरित्यानन्तर्यषष्ठीविज्ञानात्, यद्वा सर्वादेरित्यावृत्त्या पञ्चमी व्याख्येया, “पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य" [७. ४. १०४.] इति न्यायाच्च स्यादेर्व्यवहितत्वान्न भवति । वस्त्रान्तर-वसनान्तरा इति-वस्त्रमन्तरं येषां ते वस्त्रान्तराः, सर्वादित्वादन्तरशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते राजदन्तादित्वाद् वस्त्रस्य पूर्व निपातः, एवं वसनान्तराः, ततो वस्त्रान्तराश्च वस कृते समानार्थत्वादेकशेषः प्राप्नोति, नैवम् अत्र वसनशब्दो गृहपर्याय इति न समानार्थत्वम् ; यद्वा एकोऽन्तरशब्दो व्यवधानार्थी, अन्यस्तु विशेषार्थी । ननु चान्तरशब्दो बहुव्रीहौ वर्तते, न द्वन्द्व इति कथमदः प्रत्युदाहरणम् ? न-तदवयवको बहुव्रीहिर्द्वन्द्व इति सोऽपि द्वन्द्व इति प्रत्युदाह्रियते ॥ ११ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० १२-१३.] न सर्वादिः ॥ १. ४. १२ ॥ द्वन्द्व समासे सर्वादिः सर्वादिर्न भवति, सर्वं सर्वादिकार्यं न भवतीत्यर्थः । पूर्वा-पराय, पूर्वा-परात्, पूर्वा-ऽपरे, कतर-कतमानाम्, दक्षिणोत्तर-पूर्वाणाम्, अत्र “सर्वादयोऽस्यादौ” [३. २. ६१.] इति पुंवद्भावो भवत्येव, तत्र भूतपूर्वस्यापि सर्वादेर्ग्रहणात् । कतर-कतमकाः, अत्र सर्वादित्वनिषेधादक्प्रत्य- 5 याभावे कप्प्रत्यये सति स्वार्थिकप्रत्ययान्ताग्रहणाद् "द्वन्द्व वा" [१. ४. ११.] इति जस इन भवति ।। १२ ।। न्या० स०-न सर्वादिरिति । सर्वादिकार्यमिति-सर्वादिकार्यं कर्मतामापेदानं न प्राप्नोतीत्यर्थः, प्राप्तावपि परस्मैपदमते । कतर-कतमकाः स्वार्थिकप्रत्ययान्ताग्रहणं डतरडतमग्रहणेन ज्ञापितम, तौ च प्रकृतेरन्ते समागच्छतस्ततोऽन्योऽपि स्वाथिकः प्रत्ययो10 योऽन्ते समभ्येति तदन्तस्यैवाग्रहणम्, तेन अक्प्रत्यये सति एतत्प्रकरणविहितं कार्य भवत्येव, ततः 'सर्वके' इति सिद्धम् ।। १२ ॥ तृतीयान्तात् पूर्वा-वरं योगे ॥ १. ४. १३ ॥ 'पूर्व अवर' इत्येतौ सर्वादी तृतीयान्तात् पदात् परौ योगे-सम्बन्धे सति सर्वादी न भवतः । मासेन पूर्वाय, मासपूर्वाय; संवत्सरेणावराय, संवत्सरा-15 वराय; मासेनावराः, मासावराः । तृतीयान्तादिति किम् ? ग्रामात् पूर्वस्मै, पूर्वस्मै मासेन, अवरस्मै पक्षेण । पूर्वावरमिति किम् ? मासपरस्मै । योग इति किम् ? यास्यति चैत्रो मासेन, पूर्वस्मै दीयतां कम्बलः ।। १३ ।। न्या० स०-तृतीयान्तादित्यादि । “अश्ववडव०" [ ३. १. १३१. ] इति पूर्वशब्दस्यावरेण स्वेन समाहृतिर्भणिष्यत इति सूत्रत्वात् समाहारः, कर्मधारयो वा पूर्वावय-20 वयोगादि । योगे सम्बन्धे इति-योग एकार्थीभावो व्यपेक्षा चोभयं गृह्यते । मासपूर्वायेति"ऊनार्थ०" [ ३. १. ६७. ] इति समासः, लु या अपि तृतीयायाः “स्थानीवा०" [७. ४. १०६.] इति स्थानित्वेन तृतीयान्तत्वम्, “लुप्यय्वृल्लेनत्" [७. ४. ११२.] इति परिभाषया पूर्वस्य यत् कार्य लुपि निमित्तभूतायां तदेव निषिध्यते, अतः “स्थानीवावर्णविधौ" [७.४.१०६.] इति स्थानित्वं ततस्तुतीयान्तत्वं सिद्धम। ननू यास्यति25 चैत्रो मासेनेत्यत्र योगग्रहणं विनाऽपि “समर्थः पदविधिः' [ ७. ४. ११२. ] इति न्यायेन भविष्यति निषेधः, किं योगग्रहणेन ? उच्यते-योगग्रहणादन्यदपि सिद्धम्-अपरैः सामान्येन तृतीयान्तेन योगे प्रतिषेधः कृतः, न तृतीयान्तात्, तेषां मते पूर्वाय मासेनेत्यपि भवति, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० १४-१५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ९७ तन्मतसङ ग्रहार्थं तु पूर्वदिग्योगेऽपि पञ्चमी व्याख्येया ।। १३ ।। तीयं ङित्काय वा ॥ १. ४. १४ ॥ तीय प्रत्ययान्तं शब्दरूपं ङितां 3-ङसि-ङस्-डीनां कार्ये कर्तव्ये वा सर्वादिर्भवति । द्वितीयस्मै, द्वितीयाय; द्वितीयस्यै, द्वितीयाय; द्वितीयस्मात्, द्वितीयात्; द्वितीयस्या द्वितीयाया आगतः, द्वितीयस्या द्वितीयायाः स्वम्, 5 द्वितीयस्मिन्, द्वितीये ; द्वितीयस्याम्, द्वितीयायायाम् । एवम्-तृतीयस्मै, तृतीयाय, इत्यादि । ङित्कार्ये इति किम् ? तत्रैव सर्वादित्वं यथा स्यात्, नान्यत्र, तेनाक् न भवति, तथा च कप्प्रत्यये सति स्वार्थिकप्रत्ययान्ताग्रहणात् स्मैप्रभृतयो न भवन्ति-द्वितीयकाय, तृतीयकाय, द्वितीयकाय, तृतीयकायै इत्यादि । अर्थवतः प्रतिपदोक्तस्य च ग्रहणादिह न भवति-पटुजातीयाय,10 मुखतो भवो मुखतीयः, गहादिपाठादियः, मुखतीयाय; एवम्-पार्वतीयाय ।। १४ ।। न्या० स०–तीयं डिदित्यादि। द्वितीयिकाय इति-"स्व-ज्ञा-ऽज-भस्त्रा." [ २. ४. १०८.] इति आप इः, यत्र तु इत्वं न दृश्यते तत्र “ड्यादीदूतः के" [२. ४. १०४.] इति ह्रस्वत्वम् ।। १४ ।। 15 अवर्णस्यामः साम् ॥ १. ४. १५ ॥ अवर्णान्तस्य सर्वादेः सम्बन्धिनः षष्ठीबहुवचनस्यामः स्थाने 'साम्' इत्ययमादेशो भवति । सर्वेषाम्, विश्वषाम् संनिपातलक्षण० न्यायस्यानित्यत्वादेत्वम्, सर्वासाम्, विश्वासाम्, परमसर्वेषाम्, परमसर्वासाम् । सर्वादेरित्येव ? द्वयानाम्, द्वितयानाम् । कथं "व्यथां द्वयेषामपि मेदिनीभृताम्"20 [शिशुपालवधे सर्ग-१२, श्लो० १३,] इति ? अपपाठ एषः । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियसर्वाणाम् । अवर्णस्येति किम् ? भवताम्, भवतीनाम् ।। १५ ।। न्या० स०-अवर्णस्येत्यादि । परस्पराद्यामः सामादेशे तत्रैव सामादेश एवोच्येत, नह्यामादेशं कृत्वा साम्वचने किञ्चित् प्रयोजनमस्ति, प्रक्रियागौरवं च परिहृतं भवति,25 परोक्षादेशस्तु पाम् धातोविधीयमानः सर्वादेर्न संभवति, “कर्तु : क्विप्०" [३. ४. २५.] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० १६-१८.] इति क्विप्प्रत्ययान्ततायां संभवेऽपि स्यादेरित्यधिकारान्निरस्यत इत्याह-षष्ठीति । । "संमूर्च्छदुच्छृङ्खलशङ्खनिस्वनः स्वनः प्रयाते पटहस्य शाङ्गिणि । सत्त्वानि निन्ये नितरां महान्त्यपि व्यथां द्वयेषामपि मेदिनीभृताम्" ॥ [शिशुपालवधे, स० १२. श्लो० १३.] माघोक्तम् ।। १५ ।। नवभ्यः पूर्वेभ्य इ स्मात् स्मिन् वा ॥ १. ४. १६ ॥ 5 पूर्वादिभ्यो नवभ्यो यथास्थानं ये 'इ स्मात् स्मिन्' आदेशा उक्तास्ते वा भवन्ति । पूर्वे, पूर्वाः; पूर्वस्मात्, पूर्वात्; पूर्वस्मिन्, पूर्वे; परे, पराः, परस्मात्, परात्; परस्मिन्, परे । नवभ्य इति किम् ? त्ये, त्यस्मात्, त्यस्मिन् । पूर्वेभ्य इति किम् ? सर्वे, सर्वस्मात्, सर्वस्मिन् । 'पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व, अन्तर' इति पूर्वादयो नव ।। १६ ॥ 10 आपो डितां ये यास् यास् याम् ॥ १. ४. १७ ॥ आबन्तसम्बन्धिनां स्यादेङितां डे-ङसि-ङस्-डीनां स्थाने यथासंख्यं 'यै यास् यास् याम्' इत्येते आदेशा भवन्ति । खट्वाय, खट्वायाः, खट्वायाः, खट्वायाम्; बहुराजायै, बहुराजायाः, बहुराजायाः, बहुराजायाम् ; कारीषगन्ध्याय, कारीषगन्ध्यायाः, कारीषगन्ध्यायाः, कारीषगन्ध्यायाम् । आप15 इति पकारः किम् ? कीलालपे। तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-बहुखट्वाय पुरुषाय । इह तु भवति-बहुखट्वायै विष्टराय इत्यादि ।। १७ ।। न्या० स०–आपो ङितामित्यादि । आबन्तेति-पूर्वसूत्रेषु सर्वादेरव्यभिचारेऽपि उत्तरसूत्रे सर्वादिग्रहणाद् इह सामान्यमवगम्यते । कारीषगन्ध्याय इति-ननु अणि अणन्तत्वात् “अणये०" [२. ४. २०.] इति, इनि तु “नुर्जातेः" [२. ४. ७२.] इति ङी:20 प्राप्नोति, नैवम्-अत्र ष्यादेशः समजनि, “अणयेकण ०" [२. ४. २०.] इति सूत्रे तु स्वरूपस्याणो ग्रहणं न ष्यादेशरूपस्य, एतत् व्याख्यानतो लभ्यते, इञस्तु इकारान्तस्य डीरुक्तः ॥ १७ ॥ सदिर्डस्पूः ॥ १. ४. १८ ॥ सर्वादेराबन्तस्य सम्बन्धिनां ङितां 'य-यास-यास्-यामाः' ते डस्पूर्वा25 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० १६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ६६ भवन्ति । सर्वस्यै, सर्वस्याः, सर्वस्याः, सर्वस्याम, परमसर्वस्यै, परमसर्वस्याः, परमसर्वस्याः, परमसर्वस्याम् ; अस्यै, अस्याः, अस्याः, अस्याम्, अत्र परत्वात् पूर्वमदादेशे पश्चाड्डस् । तीयस्य विकल्पेन ङित्कार्ये सर्वादित्वाद् द्वितीयस्यै, द्वितीयायै । सर्वादेरिति किम् ? सर्वा नाम काचित्, सर्वायै । तत्सम्बन्धित्वविज्ञानादिह न भवति-प्रियसर्वाय, अतिसर्वायै; दक्षिणस्याश्च पूर्वस्याश्च 5 दिशोर्यदन्तरालं सा दक्षिणपूर्वा दिक्, तस्यै दक्षिणपूर्वाय, दक्षिणपूर्वायाः, दक्षिणपूर्वायाः, दक्षिणपूर्वायाम् ; एषु बहुव्रीह्यादेरन्यपदार्थादिप्रधानत्वात् सर्वादित्वाभावः । यद्येवं कथं दक्षिणपूर्वस्यै, दक्षिणपूर्वस्याः, दक्षिणपूर्वस्याः, दक्षिणपूर्वस्याम् इति ? दक्षिणा चासौ पूर्वा चेति कर्मधारये भविष्यति । अथ च बहुव्रीह्यादेः सर्वादित्वाभावे कथं 'त्वकत्पितृकः, मकत्पितृकः; द्वकि-10 पुत्रः, ककिंसब्रह्मचारी' इत्यादावक् प्रत्ययः ? उच्यते-अन्तरङ्गत्वात् पूर्वमेवाक् भविष्यति । अन्ये तु बहुव्रीहावन्तरङ्गस्याप्यकः प्रतिषेधमिच्छन्ति, तन्मते कप्प्रत्यय एव-त्वत्कपितृको मत्कपितृकः ।। १८ ।। न्या० स०-सर्वादेर्डस् इत्यादि। 'अस्यै' इति इदम्-शब्दस्य 'पा द्वरः" [२. १. ४१.] इत्यत्वे "लुगस्या०" [२. १. ११२.] इत्यकारलोपे "प्रात्" [२. ४. १८.] 15 इत्यापि "पापो ङिताम्" [१. ४. १७.] इति यायाद्यादेशे "अनक्" [२. १. ३१.] इत्यदादेशे अनेन डस्पूर्वत्वे "डित्यन्त्य०" [२. १. ११४.] इत्यकारलोपे। अथात्र यायाद्यादेशे कृते सर्वादित्वेन तत्पृष्ठभावित्वात् डसि कृते व्यञ्जनादित्वाभावात् कथमदादेश इत्याह-परत्वादिति । प्रियसर्वाय इति-सर्वशब्दस्य प्राग्निपाते प्राप्ते "प्रियः" [३. १. ११४.] इत्यनेन प्रियस्य प्राग् निपातः। अथ बहुव्रीह्यादेरिति-परेण बहुव्रीह्या-20 देरिति प्रागभिदधे तदेव अनूदितम्, अत आदेः फलं न निरीक्ष्यम्, त्वकं पिताऽस्य, अहक पिताऽस्य, द्वको पुत्रावस्य, कके सब्रह्मचारिणोऽस्येति । अन्ये विति-उत्पलादयः ।। १८ ।। टौस्येत् ॥ १. ४. १६ ॥ आबन्तस्य सम्बन्धिनोष्टौसोः परयोरेकारोऽन्तादेशो भवति । खट्वया, खट्वयोः, बहुराजया, बहुराजयोः, कारीषगन्ध्यया, कारीषगन्ध्ययोः । आप25 इत्येव ? कोलालपा ब्राह्मणेन । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-बहुखट्वेन पुरुषेण । इह तु भवति-ईषदपरिसमाप्तया खट्वया बहुखट्वया विष्टरेण ॥ १६ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० २०-२१.] न्या० स०–टौस्येत्यादि । एदिति तकारोऽसन्देहार्थोऽन्यथाऽन्तरेण तकारमेरित्युच्यमाने किमेकार आदेशो भवत्याहोस्वित् इकारस्य टौसो: परयोः पूर्वे आदेशा इति सन्देहः स्यात् ॥ १६ ॥ औता ॥१. ४. २० ॥ आबन्तस्य सम्बन्धिना प्रौता प्रथमाद्वितीयाद्विवचनेनौकारेण सहाबन्त- 5 स्यैवैकारोऽन्तादेशो भवति । माले तिष्ठतः, माले पश्य; एवम्-बहुराजे २ नगयौं, कारीषगन्ध्ये कन्ये । आप इत्येव ? कीलालपौ पुरुषो। तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-बहुखट्वौ पुरुषौ । इह तु भवति-ईषदपरिसमाप्ते खट्वे बहुखट्वे मञ्चकौ ।। २० ।। न्या० स०-औतेति-आबन्तस्येत्येकाऽपि षष्ठी द्विधार्थवशाद् भिद्यते-सम्बन्धि-10 तया स्थानितया चेत्याह-आबन्तस्य सम्बन्धिना औता सह आबन्तस्यैव स्थाने इति । बहखट्वौ एकदेश०* इति, “स्थानीवा०" [७. ४. १०६.] इति वा पाबन्तत्वम् ।। २० ।। इदुतोऽस्रीदूत् ॥ १. ४. २१ ॥ स्त्रिशब्दवजितस्येदन्तस्योदन्तस्य च ौता सह यथासंख्यम् 'ईत् ऊत्' इत्येतावन्तादेशौ भवतः । मुनी तिष्ठतः, मुनी पश्य; साधू तिष्ठतः, साधू15 पश्य । इदुत इति किम् ? वृक्षौ, नद्यौ, वध्वौ। अौता इत्येव ? मुनिः, साधुः । 'सख्यौ, पत्यौ' इत्यत्र तु विधानसामर्थ्यान्न भवति । अस्त्रेरिति किम् ? अतिस्त्रियौ पुरुषौ । कथं शस्त्रीमतिक्रान्तौ अतिशस्त्री पुरुषौ ? *अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य* इति प्रतिषेधाभावात्, इदमेव चास्त्रिग्रहणं ज्ञापकम्-परेणाऽपीयादेशेनेत्कार्यं न बाध्यते इति, तेनातिस्त्रयः, सहस्त्र-20 यस्तिष्ठन्ति, अतिस्त्रये, अतिस्त्रेः, अतिस्त्रीणाम्, अतिस्त्रौ निधेहीत्यादि सिद्धम् ।। २१ ॥ न्या० स०-इदुत इत्यादि । स्त्रिवर्जनात् तत्सम्बन्धीति न सम्बध्यते । “षष्ठ्यान्त्यस्य" [७. ४. १०६.] इति निर्दिश्यमान० इति वा इदुतौ स्थानिनौ । विधानेतिअन्यथा ईकारमेव विदध्यात्। सहस्त्रयः “सहात् तुल्ययोगे" [७. ३. १५८. ]25 कनिषेधः ।। २१ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० २२-२४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १०१ 10 जस्येदोत् ॥ १. ४. २२ ॥ इदन्तस्योदन्तस्य च जसि परे यथासंख्यम् ‘एत् प्रोत्' इत्येतावन्तादेशी भवतः । मुनयः, साधवः, बुद्धयः, धेनवः, अतिस्त्रयः । जसीति किम् ? मुनिः साधुः ।। २२ ।। डित्यदिति ॥ १. ४. २३ ॥ अदिति ङिति स्यादौ परे इदन्तस्योदन्तस्य च यथासंख्यमेदोतावन्तादेशौ भवतः । मुनये, साधवे, अतिस्त्रये, मुनेः, साधोः, अतिस्त्रेः आगतं स्वं वा, बुद्धये, धेनवे, बुद्धेः, धेनोः आगतं स्वं वा। ङितीति किम् ? मुनिः, साधुः । अदितीति किम् ? बुद्धय, धेन्वै, बुद्धयाः, धेन्वाः आगतं स्वं वा, बुद्धयाम्, धेन्वाम् । स्यादावित्येव ? शुची, पट्वी ।। २३ ।। ___ न्या० स०-डित्यदीति । धेनवे धीयते पयोऽस्या इति बोहुलकाद् अपादाने “धेः शित्" [उणा० ७८७.] इति नुः, कर्मणि तु क्यः स्यात् । नपुसकत्वे त्वसंभवित्वान्न दर्शितम्, तत्र हि "अनामस्वरे०" [१. ४. ६४.] इति नान्तेन भाव्यम् । बुद्धय इत्यादिनन्विकारोकारमात्रापेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वात् पूर्वमेव एदोतौ स्याताम्, न दायाद्यादेशाः, तेषां स्त्रीत्वविशिष्टेकारोकारापेक्षत्वेन बहिरङ्गत्वात्, कृतयोरप्येदोतोरिकारोकाराभावाद्15 वर्णविधित्वाच्च स्थानित्वाभावाद् दै-दासाद्यादेशाभावात् प्रतिषेधो न युक्तः, न च तदन्तादादेशविधानाद् अवर्णविधित्वात् स्थानित्वम्, अप्रधानेऽपि वर्णविधिप्रतिषेधात्, एवं तर्हि अनवकाशत्वात् पूर्वं देप्रभृतय आदेशाः प्रवर्तन्ते पश्चाददितीति प्रतिषेधः, तथापि इदुत्संनिपातेन जायमानत्वाद् दै-दासाद्यादेशेनैव एदोबाधो भविष्यतीत्यदितीति प्रतिषेधो व्यर्थः, यद्येवं यत्वमपि न प्राप्नोति, तस्माददितीति प्रतिषेधो वर्णविधावयं न्यायो नोपतिष्ठत इति20 ज्ञापनार्थः, तेन दै-दासादिषु कृतेषु एदोतौ न भवतः, यत्वं तु भवति ।। २३ ।। टःपुसि ना ॥ १. ४. २४ ॥ इदुदन्तात् परस्य पुंसि पुंविषयस्य टस्तृतीयैकवचनस्य स्थाने 'ना' इत्ययमादेशो भवति । मुनिना, साधुना, अतिस्त्रिणा, अमुना, अत्र “प्रागिनात्" [२. १. ४८.] इति वचनात् पूर्वमुत्वं पश्चान्नाभावः । पुंसि इति25 'किम् ? बुद्धया, धेन्वा। कथममुना कुलेन ? "अनामस्वरे नोऽन्तः" [१. ४. ६४.] इति भविष्यति ।। २४ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० २६-२७.] डिडौं ॥ १. ४. २५॥ इदुदन्तात् परो ङि: सप्तम्येकवचनं डौर्भवति, अभेदनिर्देशश्चतुर्युकवचनशङ्कानिरासार्थः, डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः । मुनौ, साधौ, बुद्धौ, धेनौ, अतिस्त्रौ, विंशतौ । अदिदित्येव ? बुद्ध्याम्, धेन्वाम् ॥ २५ ॥ न्या० स०-डि विति । बुद्धयामिति-ननु दाम्करणसामर्थ्यादेव डोर्न स्यात्, 5 किं व्यावृत्तावदितीति दर्शनेन ? न-"ङित्यदिति" [१. ४. २३.] इत्येत्वनिषेधकत्वेन तस्य चरितार्थत्वाद् डौः स्यादिति व्यावृत्तिः सफला, यथा “इश्व स्था-दः" [ ४. ३. ४१.] इत्यत्र सिच्लोपविधायकत्वेन ह्रस्वकरणस्य चरितार्थत्वे गुणबाधकं कित्करणम्, किञ्च, यथासंख्यार्थं "स्त्रिया डिताम्" [१. ४. २८.] इत्यत्र दाम्ग्रहणं कार्यम्, अन्यथा इदं सूत्रमन्यथा उत्तरं चान्यथा कार्य स्यात्, तथा च गरीयसी रचना स्यादिति ।। २५ ॥ 10 केवलसरिख-पतेरौ ॥ १. ४. २६ ॥ केवलसखि-पतिभ्यामिदन्ताभ्यां परो ङिरौर्भवति । सख्यौ, पत्यौ । पताविति कश्चित् । इत इत्येव ? सखायमिच्छति क्यनि दीर्घत्वे सखीयतीति क्विपि यलोपे सखीः, सख्यि, एवम्-पत्यि । केवलग्रहणं किम् ? प्रियसखौ, नरपतौ, पूजितः सखा सुसखा, तस्मिन् सुसखौ; एवमतिसखौ, ईषदूनः सखा15 बहुसखा, बहुसखौ, एवम्-बहुपतौ; एषु पूर्वेण डौरेव । अन्ये तु बहुप्रत्ययपूर्वादपि पतिशब्दादौकारमेवेच्छन्ति, तन्मते-बहुपत्यौ ।। २६ ।। न्या० स०–केवलेत्यादि । कश्चिदिति-दुर्गसिंहश्रुतपालादिः। सख्यि इति-पत्र "स्थानीवावर्णविधौ" [७. ४. १०६.] इति न्यायात् क्विप: स्थानित्वे सति “य्वोः प्वय०" [ ४. ४. १२१. ] इति यलोपः कस्मान्न भवति ? प्रसिद्धं बहिरङ्गम् इति20 न्यायात् अन्तरङ्ग विबाश्रिते कार्ये यत्वमसिद्धं द्रष्टव्यम् । अन्ये विति-शाकटायनादयः ।। २६ ॥ न ना डिदेत् ॥ १. ४. २७ ।। केवलसखि-पतेः परस्य टावचनस्य नादेशो डिति परे एकारश्च य उक्तः स न भवति । सख्या, पत्या, सख्ये, पत्ये, सख्युः पत्युः आगतं स्वं वा, सख्यौ,25 पत्यौ । डिदिति एतो विशेषणं किम् ? जस्येद्भवत्येव-पतयः । केवलादित्येव ? प्रियसखिना, सुसखिना, बहुसखिना, साधुपतिना, बहुपतिना, प्रिय Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० २८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १०३ सखये, नरपतये, प्रियसखेः, नरपतेः आगतं स्वं वा। बहुप्रत्ययपूर्वादपि पतिशब्दात् प्रतिषेधं केचिदिच्छन्ति-बहुपत्या, बहुपत्ये, बहुपत्युः प्रागतं स्वं वा। अन्ये तु सख्यन्तादपि प्रतिषेधं पूर्वेण रौत्वं चेच्छन्ति-बहवः सखायो यस्य तेन बहुसख्या, एवम्-बहुसख्ये, बहुसख्युरागतं स्वं वा, बहुसख्यौ निधेहि ॥ २७ ॥ न्या० स०-न ना ङीत्यादि । सखि-पतेर्ना-ङिदेता सह न यथासंख्यं "खि-तिखी-ती." [ १. ४. ३६. ] इति सूत्रे खिग्रहणात् “सख्युरितो०" [१. ४. ८३.] इति निर्देशाद् वा। सख्याविति-अत्रादेशे कृते "ङित्यदिति" [१. ४. २३.] इति प्राप्नोति, न तु पूर्वम्, यतस्तद्बाधकं "डिडौं" [ १. ४. २५. ] ततोऽपि "केवलसखि०" [१. ४. २६.] इति औत्वम्, ततः तदादेशकइति न्यायात् स्यादित्वे सति एत्वं प्राप्तं निषिद्धम् ।।२७।। 10 स्त्रिया डितां वा दै-दाम-दास्-दाम् ॥ १. ४. २८ ॥ स्त्रियाः स्त्रिलिङ्गादिदुदन्ताच्छन्दात् परेषां तत्सम्बन्धिनामन्यसम्बन्धिनां वा स्यादेङितां 3-ङसि-ङस्-डीनां स्थाने यथासंख्यं 'दै दास् दास् दाम्' इत्येते आदेशा वा भवन्ति, दकारो "ङित्यदिति" [१. ४. २३.] इति विशेषणार्थः । बुद्धय, बुद्धये; बुद्धयाः, बुद्धेः २ आगतं स्वं वा; बुद्धयाम्,15 बुद्धौ; धेन्वै, धेनवे; धेन्वाः, धेनोः २; धेन्वाम्, धेनौ; एवम्-मुष्टय , मुष्टये; इष्वै, इषवे; शुच्य, शुचये; पट्दै, पटवे; पत्य, पतये; जीवपत्य, जीवपतये स्त्रियै; कन्या पतिर्यस्य यस्या वा कन्यापत्य, कन्यापतये; एवम्प्रियबुद्धय, प्रियबुद्धये; प्रियधेन्वै, प्रियधेनवे; प्रियाशन्यै, प्रियाशनये; अतिशकटय, अतिशकटये स्त्रियै पुरुषाय वा; एषु समासार्थस्य पुरुषत्वेऽपि20 पत्यादिशब्दानां स्त्रीत्वमस्ति । अन्ये तु पुरुषस्य समासार्थत्वे सति नेच्छन्ति, तन्मते-प्रियबुद्धये, प्रियधेनवे पुरुषायेत्येव भवति । अन्यस्तु पुरुषस्यैव समासार्थत्वे सति इच्छति, न स्त्रियाः, तन्मते-'अतिशकट्य, प्रियधेन्वै पुरुषाय' इत्यत्रैव भवति, न तु अतिशकटय, प्रियधेनवे स्त्रिय' इत्यत्र । स्त्रिया इति किम् ? मुनये, साधवे । इदुत इत्येव ? गवे, नावे ।। २८ ।। 25 न्या० स०-स्त्रिया ङितामित्यादि । “पत्युनः" [२. ४. ४८.] इति निर्देशात् सखि-पती नानुवर्तेते, स्त्रिया इति विशेषणस्य विशेष्यसापेक्षत्वात् सखि-पतिभ्यां परेषां Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० २६.] डितां "खितिखीतीय उर्" [१. ४. ३६.] इत्येवमादिभिविशेषविधिभिराघ्रातत्वाद् । दित्करणस्य तु प्रयोजनवत्त्वात् सामान्यमिदुदन्तमधिकृतं गम्यत इत्याह-इदुदन्ताच्छन्दादिति । 'कन्यापत्यै' इत्यादौ नपुसके तु परत्वान्नागमे कन्यापतिनः कुलस्य "वाऽन्यतः०" [ १. ४. ६२. ] इति कन्यापत्याः, कन्यापतेर्वा । अन्ये त्विति-चन्द्र न्दुगोमिप्रभृतयः। अन्यस्त्विति-क्षीरस्वामी। मुनय इति-अत्र पुस्त्रीत्वेऽपि पुस्त्वमेव विव- 5 क्षितम् ।। २८ ॥ स्त्रीदूतः ॥ १. ४. २६ ॥ नित्यस्त्रीलिङ्गादीकारान्तादूकारान्ताच्च शब्दात् परेषां तत्सम्बन्धिनामन्यसम्बन्धिनां वा स्यादेङितां · स्थाने यथासंख्यं 'दै, दास्, दास्, दाम्' इत्येते आदेशा भवन्ति । नद्यै, नद्याः, नद्याः, नद्याम् ; लक्ष्म्यै, लक्ष्म्याः , लक्ष्म्याः ,10 लक्ष्म्याम् ; कुरोरपत्यं स्त्री "दुनादि०" [६. १. ११८.] इत्यादिना व्यः, तस्य “कुरोर्वा" [६. १. १२२.] इति लुपि, “उतोऽप्राणिनश्च०" [२. ४. ७३.] इत्यादिनोङि कुरू:, कुर्वै, कुर्वाः, कुर्वाः, कुर्वाम् ; वध्वै, वध्वाः, वध्वाः, वध्वाम् ; एवम्-ब्रह्मबन्ध्वै, ब्रह्मबन्ध्वाः २, ब्रह्मबन्ध्वाम्; वर्षाभ्वै, वर्षाभ्वाः २, वर्षाभ्वाम्; अतिलक्ष्म्यै अतितन्त्र्यै अतिवध्वं स्त्रियै पुरुषाय15 वा; कुमारीमिच्छतीति क्यनन्तात् कुमारीवाचरतीति क्विबन्ताद् वा कर्तरि क्विप् कुमारी, तस्मै कुमायें ब्राह्मणाय ब्राह्मण्यै वा; खरकुटीव खरकुटी, तस्मै खरकुटय ब्राह्मणाय ब्राह्मण्य वा । स्त्रिया इत्यनुवर्तमाने पुनः स्त्रीग्रहणं नित्यस्त्रीविषयार्थम्, तेनेह न भवति-ग्रामण्ये खलप्वे स्त्रियै । ईदूत इति किम् ? मात्रे, दुहित्रे, बुद्धय धेनवे । 'प्रामलक्याः फलाय आमलकाय,20 अतिकुरवे, अतिकुमारये' इत्यत्रेदूत इति वर्णविधित्वेन स्थानिवद्भावाभावादीकारोकारान्तता नास्तीति न भवति । ङितामित्येव ? नद्यः, वध्वः ।। २६ ।। न्या० स०-स्त्रीदूत इति । [ग्रामण्ये] स्त्रिय इति-ग्रामण्यादिशब्दो हि क्रियाशब्दत्वात् त्रिलिङ्गत्वात् नित्यस्त्रीविषयो न भवतीति स्त्रियामपि वर्तमानादादेशाभावः । प्रामलक्या इति-आमलकाद् उणादिप्रत्ययान्तात् ङ्याम् आमलकी वृक्षवाची ध्वनिः,25 यद्वा आमलकस्य फलस्य विकारो वृक्षः, दुसंज्ञकस्य मयटो यदा बाहुलकाल्लुप् गौरादित्वाद् डी:, तदापि आमलकीशब्दस्तरुवाची। वर्णविधित्वेनेति-ईकारोकारौ वरणों तदाश्रिता दायादयः ।। २६ ।। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ३०-३१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १०५ वेयुवोऽस्त्रियाः ॥ १. ४. ३०॥ इयुवोः सम्बन्धिनौ यौ स्त्रीदूतौ तदन्ताच्छब्दात् परेषां तत्सम्बन्धिनामन्यसम्बन्धिनां वा स्यादेङितां स्थाने यथासंख्यं 'दै, दास्, दास्, दाम्' इत्येते आदेशा वा भवन्ति, अस्त्रियाः-स्त्रीशब्दं वर्जयित्वा । श्रियै, श्रिये; श्रियाः, श्रियः; श्रियाः, श्रियः ; श्रियाम्, श्रियि; भ्र वै, भ्र वे; भ्र वाः, भ्र वः; भ्र वाः, 5 भ्र वः; भ्र वाम्, भ्र वि; धियै, धिये; धियाः, धियः; धियाः, धियः; धियाम्, धियि, भुवै, भुवे; भुवाः, भुवः; भुवाः, भुवः; भुवाम्, भुवि; श्रियमतिक्रान्ताय अतिश्रियै अतिश्रिये ब्राह्मणाय. ब्राह्मण्य वा; एवम्-अतिभ्र वै, अतिभ्र वे; पृथुः श्रीर्यस्य तस्मै पृथुश्रियै पृथुश्रिये पुरुषाय स्त्रियै वा; एवम्-पृथुभ्र वै, पृथुभ्र वे । केचित् तु समासार्थस्य स्त्रीत्व एवेच्छन्ति, न पुंस्त्वे, तन्मते-10 "अतिश्रियै अतिश्रिये स्त्रियै" इत्यत्र भवति, इह तु न भवति-अतिश्रिये अतिभ्र वे पुरुषाय, पूर्वेण नित्यमपि न भवति । कश्चित् तु पूर्वमतविपर्ययमेवेच्छति-अतिश्रियै अतिश्रिये पुरुषाय, इह न भवति-अतिश्रिये स्त्रियै । इयुव इति किम् ? आध्यौ, प्रध्यौ, वर्षाभ्वैः पुनर्वै, पूर्वेण नित्यमेव । अस्त्रिया इति किम् ? स्त्रिय, स्त्रियाः, स्त्रियाः, स्त्रियाम् ; परमस्त्रिय, परमस्त्रियाः,15 परमस्त्रियाः, परमस्त्रियाम्, अत्रापि पूर्वेण नित्यमेव । स्त्रीदूत इत्येव ? यवक्रिये कटप्रुवे स्त्रियै । अस्त्रिया इति निर्देशात् परादपि इयुव-यत्वादिकार्यात् प्रागेव स्त्रीदूदाश्रितं कार्यं भवति, तेन 'स्त्रिय, स्त्रीणाम्, भ्र णाम्, आध्यै' इत्यादि सिद्धम् ।। ३० ।। न्या० स०-वेयुव इत्यादि । नित्यमपीति-कोऽर्थः-तन्मते "स्त्रीदूतः” इत्यत्रापि20 समासार्थस्य स्त्रीत्व एव भवति । प्राध्य आध्यायति प्रध्यायति आदधाति प्रदधाति इत्येवंशोलाया बुद्धेर्वाचकौ वर्षाभूवद् नित्यस्त्रीलिङ्गौ आधी-प्रधीशब्दो, क्रियाशब्दत्वेन सर्वलिङ्गत्वाद् ग्रामण्यादिशब्दवन्नित्यस्त्रीविषयो नेति चिन्त्यमेतदित्येके ।। ३० ।। आमो नाम् वा ॥ १. ४. ३१ ॥ 1 इयुवोः सम्बन्धिनौ यौ स्त्रीदूतौ तदन्ताच्छब्दात् परस्य तत्सम्बन्धिनो-25 ऽन्यसम्बन्धिनो वा आमः षष्ठीबहुवचनस्य स्थाने 'नाम्' इत्ययमादेशो वा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ३२-३३.] भवति, अस्त्रियाः-स्त्रीशब्दं वर्जयित्वा। श्रीणाम्, श्रियाम् ; भ्रणाम्, । भ्र वाम्; अतिश्रीणाम्, अतिश्रियाम्, पृथुश्रीणाम्, पृथुश्रियाम्, अतिभ्रणाम्, अतिभ्र वाम्, पृथुभ्र णाम्, पृथुभ्र वां स्त्रीणां पुरुषाणां वा; शोभना धीरेषां सुधीनाम्, सुधियाम् । इयुव इत्येव ? प्रधीनाम्, वर्षाभूणाम् । स्त्रीदूत इत्येव ? यवक्रियाम्, कटपुवाम्, सुष्ठु ध्यायन्तोति सुधियाम् । अस्त्रिया 5 इत्येव ? स्त्रीणाम्, परमस्त्रीणाम्, उत्तरेण नित्यमेव; नपुंसकेऽपि ह्रस्वत्वेन भाव्यमित्युत्तरेण नित्यमेव-अतिश्रीणाम्, अतिभ्रूणां कुलानामिति ।। ३१ ।। न्या० स०–आमो नाम् वेति । षष्ठीबहुवचनस्येति-अत्र ङिस्थानिकस्य सानुबन्धत्वादपरस्य चासम्भवात् स्याद्यधिकाराच्च षष्ठीबहुवचनस्यैवामो ग्रहणम् ।। ३१ ॥ हस्वापश्च ॥ १. ४. ३२॥ 10 ह्रस्वादाबन्तात् स्त्रीदूदन्ताच्च शब्दात् परस्यामः स्थाने 'नाम्' इत्ययमादेशो भवति । ह्रस्व-श्रमणानाम्, संयतानाम्, वनानाम्, धनानाम्, मुनीनाम्, साधूनाम्, बुद्धीनाम्, धेनूनाम्, पितृ णाम्, मातृ णाम् ; प्राप्खट्वानाम्, बहुराजानाम् ; स्त्रीदूतः-नदीनाम्, वधूनाम्, स्त्रीणाम्, लक्ष्मीनाम् । स्त्रीशब्दवजितयोरियुवादेशसम्बन्धिनोः स्त्रीदूतोः पूर्वेण विकल्प एव-15 श्रीणाम्, श्रियाम्; भ्रूणाम्, भ्र वाम् । ह्रस्वापश्चेति किम् ? सोमपाम्, सेनान्याम् ॥ ३२ ॥ . न्या० स०-ह्रस्वेत्यादि । पूर्वेण विकल्प एवेति-इयुवस्थानित्वेन विशेषविहितत्वादिति शेषः ।। ३२ ॥ संख्यानां ष्र्णाम् ॥ १. ४. ३३ ॥ 20 रेफ-षकार-नकारान्तानां संख्यावाचिनां शब्दानां सम्बन्धिन प्रामः स्थाने 'नाम्' इत्ययमादेशो भवति । चतुर्णा [ए] म्, षण्णाम्, पञ्चानाम्, सप्तानाम्, परमचतुर्णाम्, परमषण्णाम्, परमपञ्चानाम् । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियचतुराम, प्रियषषाम, प्रियपञ्चाम् । सङ्ख्यानामिति किम् ? गिराम्, विपुषाम्, यतिनाम् । ष्र्णामिति किम् ? त्रिंशताम्,25 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० ३४-३५.] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १०७ पञ्चाशताम् । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन भूतपूर्वनान्ताया अपि - अष्टानाम्, परमाष्टानाम् ।। ३३ ।। "" न्या० स० - संख्यानामित्यादि । र् च ष् च न् च तेषां र्णाम्, "तवर्गस्य ०' [१. ३. ६०.] इति णत्वम्, “रषृवर्ण ०" [२. ३. ६३.] इति तु न एकपदत्वाभावात्, “वोत्तरपदान्त०” [२. ३. ७५. ] इत्यपि न, यतः षकारो न पूर्वपदस्थः किन्तु मध्यम - 5 पदस्थः, तर्हि रेफः पूर्वपदस्थोऽस्ति तदपेक्षया णत्वं भवतु, न - "पदेऽन्तरे० " [ २. ३. ε३. ] इति निषेधात् । ननु ष्र्णामिति शब्दनिर्देश:, संख्या चैकत्वादिरर्थः, ततः शब्दार्थयोः सामानाधिकरण्यं न संगच्छते, सत्यम् - उपचारात् सङख्यार्था: शब्दा: संख्याशब्देनाभिधीयन्ते; यद्वा संख्यायते श्रभिरिति “ उपसर्गादात:" [ ५. ३. ११०. ] इति “करणाssधारे" [ ५. ३. १२६ ] इति परमप्यनटं बाधित्वा बहुलवचनादङि प्रापि च संख्या - 10 शब्देनैकादयः शब्दा एवोच्यन्ते इति । त्रिशतामिति - ननु च त्रिशदादय: शब्दा: संख्येयेष्वपि वर्तमानाः “विंशत्याद्याः शताद् द्वन्द्व " [ लिङ्गानुशासन०-२६. ] इति वचनात् एकत्वे एव वर्तन्त इत्यत्रैकवचनान्ता एव भवितुमर्हन्ति, कथं बहुवचनम् ? सत्यम् - एकशेषात् - त्रिंशच्च त्रिंशच्च त्रिंशच्च त्रिशतः । अष्टानामिति प्रथाऽष्टन् शब्दादामि परत्वाद् " वाऽऽष्टन ०' [१. ४. ५२.] इत्याकारे नान्तत्वाभावात् कथं नाम्भावोऽत प्राह - भूतपूर्वेति ।। ३३ ।। 15 "" त्रेस्त्रयः ॥ १.४. ३४ ॥ ग्रामः सम्बन्धिनस्त्रिशब्दस्य त्रयादेशो भवति । त्रयाणाम्, परमत्रयाणाम् । ग्राम्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति - प्रतित्रीणाम्, प्रियत्रीणाम् । अतत्सम्बन्धिनोऽपि भवतीत्येके - प्रतित्रयाणाम्, प्रियत्रयाणाम् । स्त्रियां तु परत्वात् तिसृभावो भवति - तिसृणाम् ।। ३४ ॥ 20 न्या० स० – स्त्रय इति । आमः सम्बन्धिन इति - सम्बन्धस्योभयनिष्ठत्वात् ग्रामः सम्बन्धिन इत्यपि युक्तम्, आम: सम्बन्धित्वं च त्रेरर्थद्वारकम् यस्मादामः सम्बन्धी त्रेरर्थस्ततः स श्रम इत्युच्यते; श्रमः सम्बन्धीति कार्यकारणभावे षष्ठी, त्रिशब्दः कारणम्, आम् च कार्यम्, यतस्त्रिशब्दबहुत्वे आम् || ३४ ॥ एदोद्भ्यां इसि-इसो रः ॥ १. ४. ३५ ॥ एदोद्भयां परयोर्डसिङसोः स्थाने रेफो भवति, प्रकार उच्चारणार्थः । मुनेः, मुनेः; साधोः; साधोः ; गोः, गोः; द्योः द्योः; परमश्वासाविश्व " 25 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ३६-३७.] परमेः, परमेः, नयतीति विच्-नेः, नेः; एवम्-लोः, लोः। वचनभेदो यथा- : संख्यनिवृत्त्यर्थः ।। ३५ ॥ न्या० स०–एदोद्भवामित्यादि । एदोद्भयामिति-अत्र तकारः स्वरूपग्रहणार्थः, तेन लाक्षणिकयोरप्येदोतोः परिग्रहः-परमेरिति-"आतो नेन्द्रवरुणस्य" [७. ४. २६.] इति ज्ञापकात् पूर्व पूर्वोत्तरपदयोः कार्यम्, ततः सन्धिकार्यम्, अतः परमैरिति प्राप्नोति, 5 नैवम्-*ज्ञापकज्ञापिता विधयो ह्यनित्याः इति ।। ३५ ।। खि-ति-रखी-तीय उर ॥ १. ४. ३६ ॥ खि-ति-खी-तीसम्बन्धिन इवर्णस्थानाद् यकारात् परयोर्डसि-ङसोः स्थाने उर् आदेशो भवति । खि-सख्युः, सख्युः, ति-पत्युः, पत्युः, खी ती-सह खेन वर्तते सखः, सखं सखायं वेच्छतीति क्यनि क्विपि सखीः, पततीति पतः,10 पत पतिं वेच्छतीति क्यनि क्विपि पती:, सख्युः, पत्युः, तथा सुखमिच्छति, सातमिच्छति क्यनि क्विपि सुख्युः, सात्युः; लूनं पूनं चेच्छतः-लून्युः, पून्युः, "क्तादेशोऽषि" [२. १. ६१.] इति नत्वस्यासत्त्वात् तीरूपत्वम् । य इति किम् ? यत्र यत्वादेशस्तत्र यथा स्यात्, इह मा भूत्-अतिसखेः, अतिपतेः । खि ति-खी-तीति किम् ? मुख्यमपत्यं चाचष्टे णिच् विच-मुख्यः, अपत्यः15 आगतं स्वं वा । अदिति इत्येव ? सख्याः , पत्याः ।। ३६ ।। न्या० स०-खि-तीत्यादि । “षणूयी दाने" सनोति दत्ते परस्परं भोजनादिकमिति सखा, “सनेः डखिः" [उणा० ६२५.] पाति अपायादिति “पाते;" [ उणा० ६५६. ] इति डतिः। सात्युरिति-सायते स्म दीयते स्म पुण्यैरिति सातम्, “साति: सौत्रः सुखे" सातति वा । मुख्य इति-अत्र विचि कृते “य्वोः प्वय०" [४. ४. १२१. ] इति यस्य लुग20 न, यतः "स्वरस्य परे" [७.४.११०.] इति णिलोपः स्थानी, न च “न सन्धिः०" [१. ३. ५२.] इत्यस्यावकाशः, नत्रा निर्दिष्टस्यानित्यत्वात्र, भवतु वाऽवकाशस्तदेदमुत्तरम्-“य्वोः प्वय" [ ४. ४. १२१. ] इति सूत्रे लुक् इति संज्ञा, *संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः * यद्वा "क्वौ" [४. ४. ११६.] इति सूत्रकरणात्-क्विप्-विचोर्व्यञ्जनकार्यमनित्यम्, न च वाच्यं कथं विच्यपि व्यञ्जनकार्यानित्यता, यतोऽप्रयोगिनामुपलक्षण:25 क्विप् ।। ३६ ॥ तो हर ॥ १. ४. ३७ ॥ ऋकारात् परयोर्डसि-ङसोः स्थाने 'डुर्' इत्ययमादेशो भवति । पितुः, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ३८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १०६ पितुः; मातुः, मातुः । ङसि-ङस इत्येव ? पितृ न् । ऋत इति किम् ? ग्रः ।। ३७ ॥ न्या० स०-ऋतो डुरिति । * ऋकारोपदिष्टं लुकारस्यापि तेन "ऋफिडा." [ ४. ४. ११६. ] इति लत्वम्, कुल् लकारः, यदाह उपाध्यायः-'पाप्लु' इत्येतस्मात् षष्ठयामापुल् इत्येव भवति ।। ३७ ।। 5 तु-स्वसु नप्तु-नेष्ट-त्वष्ट-क्षत होते-पोतु-प्रशास्त्रो छुटयार् ॥ १. ४. ३८ ॥ तृच्-तृन्प्रत्ययान्तस्य स्वस्रादिशब्दानां च सम्बन्धिन ऋकारस्य स्थाने तत्सम्बन्धिन्यसम्बन्धिनि वा घुटि परे 'पार्' इत्ययमादेशो भवति । कर्तारम्, कर्तारौ, कर्तारौ, कर्तारः कटस्य; वदितारम्, वदितारी, वदितारौ, वदितारो10 जनापवादान् ; स्वसारम्, स्वसारौ, स्वसारौ स्वसारः; नप्तारम्, नप्तारी, नप्तारौ, नप्तारः; नेष्टारम्, नेष्टारौ, नेष्टारौ, नेष्टारः; त्वष्टारम्, त्वष्टारौ, त्वष्टारौ, त्वष्टारः; क्षत्तारम्, क्षत्तारौ, क्षत्तारौ, क्षत्तारः; होतारम्, होतारौ, होतारौ, होतारः; पोतारम्, पोतारौ, पोतारौ, पोतारः; प्रशास्तारम्, प्रशास्तारी, प्रशास्तारौ, प्रशास्तारः; अतिकर्तारम्, अतिकर्तारौ,15 अतिकर्तारौ, अतिकर्तारः । घुटीति किम् ? कर्तृ कुलं पश्य । सौ तु परत्वाद् डा-गुणौ कर्ता, हे कर्तः ! । तृशब्दस्यार्थवतो ग्रहणेन प्रत्ययग्रहणान्नप्त्रादीनामव्युत्पन्नानां संज्ञाशब्दानां तृशब्दस्य ग्रहणं न भवतीति तेषां पृथगुपादानम् ; इदमेव च ज्ञापकम्-*अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणं भवति इति, व्युत्पत्तिपक्षे तु तृग्रहणेनैव सिद्धे नत्रादिग्रहणं नियमार्थम्, तेनान्येषामौणादिकानां20 न भवति-पितरौ, भ्रातरौ, मातरौ, जामातरौ। केचित् तु प्रस्तोतृ-उन्नतृउद्गातृ प्रतिहर्तृ-प्रति-स्थातृशब्दानामौणादिकानामप्यारं मन्यन्ते प्रस्तोतारम्, प्रस्तोतारौ, प्रस्तोतारौ, प्रस्तोतारः, इत्यादि ।। ३८ ।। न्या० स०-तृ-स्वस्त्रित्यादि-सूत्रत्वाद् “अनाम्स्वरे०" [१. ४. ६४.] इति न, सूत्रे ऋकारोपादानाद् वा, कथमिति चेत् ? प्रशास्तृणाम् ऋः प्रशास्तृ.: तस्य ।25 अतिकर्तारमिति-अत्र तत्पुरुषो न बहुव्रीहिः कच्प्रसङ्गात्, तेन च व्यवधानेन प्राप्त्यभावात् । नन्वत्र सूत्रे शौ निमित्ते किं न दर्शितम् ? "स्वराच्छौ" [ १. ४. ६५. ] इति Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते . [पा० ४. सू० ३९-४०.] नागमेन व्यवधानान्न प्राप्नोतीति चेत्, न-नागमः प्रकृतेरेवांश इति, सत्यम्-अवयवेना- । वयवस्य ऋल्लक्षणस्य व्यवधानं भवतीति न दर्शितम् । सुष्ठु अस्यति-क्षिपति भ्रातुरमाङ्गल्यमिति-स्वसा “सोरसे:" [ उणा० ८५३. ], नमति पूर्वजेभ्य इति नप्ता "नमेः प् च" [ उणा० ८६२. ], नयति प्राप्नोति वेदशाखाम् इति-नेष्ठा "नियः षादिः" [ ऊरणा० ८६४. ] तृप्रत्ययः, "त्विषी दीप्तौ” त्वेषते दीप्तो भवति स्वर्गनिर्माणनैपुणेनेति- 5 त्वष्टा, "क्षद खदने" इति सौत्रः, क्षत्ता "त्वष्ट्र-क्षत्तृ-दुहित्रादयः" [ उणा० ८६५. ] इत्यनेन निपातः । जुहोति वो ह्यादिकान्, पुनाति प्रात्मानं वेदपान “हु-पू गोन्नी-प्रस्तु०" [ उणा० ८६३. ] इत्यादिना होता, पोता, प्रशास्ति दिशति शास्त्राणि इति-प्रशास्ता "शासिशंसि-नी." [उणा० ८५७. ] इत्यादिना तप्रत्ययः । जायत इति जा पत्री "क्वचित्" [५. १. १७१. ] इति डः प्रत्ययः, जां मिनोति जाया मिगस्तृप्रत्यय:10 "मिग्मीग:०" [ ४. २. ८. ] इत्याकारः, केचित् त्विति-भोजप्रभृतयः ।। ३८ ॥ अौं च ॥ १. ४. ३६ ॥ ऋकारस्य स्थाने ङौ घुटि च परे 'अर्' इत्ययमादेशो भवति । पितरि, पितरम्, पितरौ २, पितरः, मातरि, मातरम्, मातरौ २, मातरः । ङौ चेति किम् ? पित्रा, मात्रा। 'कर्तृणि कुले, कतृ 'णि कुलानि' इत्यत्र तु15 परत्वात् पूर्वं न एव, तस्मिश्च सति व्यवधानान्न भवति । ऋत इत्येव ? नि ।। ३६ ॥ न्या० स०-प्रडो चेति । ङौ घुटि चेति-अत्र निमित्तात् परः श्रूयमाणश्चकारो निमित्तान्तरसव्यपेक्षः प्रत्यासत्तेरनन्तरसूत्रोपात्तमेव निमित्तमुपस्थापयति । कर्तृणि कुले इति-पितरि, वारिणीत्यादावुभयोः सावकाशत्वेन परत्वान्नागमे ऋकारान्तत्वाभावान्न20 भवतीति ।। ३६ ॥ मातुतिः पुत्रेऽहैं सिनाSSमन्त्र्ये ॥ १. ४. ४० ॥ ___ मातृशब्दस्याऽऽमन्त्र्ये पुत्रे वर्तमानस्य सामर्थ्याद् बहुव्रीहौ समासे सिना सह मात इत्यकारान्त आदेशो भवति, अh-मातृद्वारेण पुत्रप्रशंसायां गम्यमानायाम्, कचोऽपवादः । गार्गी माता यस्य तस्यामन्त्रणं हे गार्गीमात !,25 एवम्-हे वात्सीमात !, अत्र पुत्रः संभावितोत्कर्षया श्लाघ्यया मात्रा तत्पुत्रव्यपदेशयोग्यतया प्रशस्यते । मातुरिति किम् ? हे गार्ग्यपितृक ! । पुत्र इति किम् ? हे मातः !, हे गार्गीमातृके वत्से ! । अर्ह इति किम् ? 'अरे Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ४१-४२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १११ गार्गीमातृक ! । आमन्त्र्य इति किम् ? गार्गीमातृकः । सिनेति किम् ? हे गार्गीमातृकौ ! ॥ ४० ॥ न्या० स०-मातुर्मात इत्यादि । ननु कथं मातृशब्दस्य पुत्रार्थे वृत्तिः ? नह्यसौ पुत्रार्थे वर्तमानः क्वचिद् दृष्ट इत्याह-सामर्थ्यादिति-अयमर्थः केवलो न बर्तते, बहुव्रीहौ तु स्वार्थोपसर्जनतयाऽर्थान्तरं प्रतिपादयत्येव । कचोऽपवाद इति-अनन्तरानन्तरिभावे 5 षष्ठी व्याख्येया, तेन कचा व्यवधाने न स्यात् । संभावित उत्कर्षो यस्याः सकाशात् [तया, तत्पुत्रव्यपदेशयोग्यतया] तत्पुत्र इति व्यपदेशः कथनं तस्य योगः [ योग्यतया ] । अरे गार्गीमातृकेति-अज्ञातपितृकत्वेनानेकपितृकत्वेन च निन्द्यया मात्रा विगुणः पुत्रो निन्द्यत इति ।। ४० ।। हस्वस्य गुणः ॥ १. ४. ४१ ॥ ___10 ___आमन्त्र्येऽर्थे वर्तमानस्य ह्रस्वान्तस्य सिना सह श्रुतत्वाद् ह्रस्वस्यैव गुणो भवति, "आसन्नः" [७. ४. १२०.] । हे पितः !, हे मातः !, हे कर्तः !, हे स्वसः !, हे मुने !, हे साधो !, हे बुद्धे !, हे धेनो ! । सिनेत्येव ? हे कर्तृ कुल !, हे वारि ! , हे त्रपु !, अत्र परत्वात् पूर्वं से पि सेरभावान्न भवति, "नामिनो लुग् वा" [१. ४. ६१.] इति लुकि तु15 स्थानिवद्भावाद् भवत्येव-हे कर्तः कुल ! , हे वारे !, हे त्रपो ! । आमन्त्र्य इत्येव ? पिता, मुनिः, साधुः । ह्रस्वस्येति किम् ? हे श्रीः !, हे भ्र : ! । 'हे नदि !, हे वधु !' इत्यत्र तु ह्रस्वविधानसामर्थ्यात् सेरभावाच्च न भवति ।। ४१ ।। न्या० स०-ह्रस्वस्येत्यादि । ह्रस्वस्येति अधिकृतस्य नाम्नो विशेषणाद् विशेषणे20 च तदन्तविधिसंभवादाह-ह्रस्वान्तस्येति । श्रुतत्वादिति-श्रुतो ह्रस्वो ह्रस्वान्तत्वं त्वनुमितम्, *श्रुतानुमितयोश्च श्रौतो विधिबलीयान् इति न्यायः । ह्रस्वविधानेति-उभयोः स्थाने यः इति न्यायेन यदा सिव्यपदेशस्तदा सिह स्वश्चापि, अतो विधानसामर्थ्याद्, यदा तु ह्रस्वव्यपदेशस्तदा सेरभावान्न भवति ॥ ४१ ।। एदापः॥ १. ४. ४२॥ 25 आमन्त्र्येऽर्थे वर्तमानस्याऽऽबन्तस्य सिना सह एकारान्तादेशो भवति । हे खट्वे !, हे बहुराजे !, हे बहुखट्वे विष्टर ! । आ आप इत्याकार Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० ४. सू० ४३. ] प्रश्लेषादिह न भवति - हे प्रियखट्व ! । प्राप इति किम् ? हे कीलालपाः ! । आमन्त्र्य इत्येव ? खट्वा ।। ४२ ।। न्या० स० - एदाप इति । प्राश्चासावाप् चेति आकारप्रश्लेषाद् हे प्रियखट्व ! इत्यत्र " गोश्वान्ते० " [२. ४. ४६. ] इति ह्रस्वत्वे एकदेशविकृत ० इति न्यायात् प्राप्तोऽपि एकारादेशो न भवति ।। ४२ ।। 5 नित्यदिद्-विस्वराडम्बार्थस्य ह्रस्वः ॥ १. ४. ४३ ॥ नित्यं दित् - दै- दास् - दास् - दाम्लक्षण प्रादेशो येभ्यस्तेषां द्विस्वराम्बार्थानां चाबन्तानामामन्त्र्येऽर्थे वर्तमानानां सिना सह ह्रस्वान्तादेशो भवति । नित्यदित् - हे स्त्रि ! हे गौरि !, हे शार्ङ्ग रवि !, हे अस्त्रि !, हे लक्ष्मि !, 1 !, ब्रह्मबन्धु !, हे करभोरु ! हे श्वश्रु ! हे वधु !, हे कर्कन्धु !,10 अलाबु ! हे वर्षाभु !, हे पुनर्भु !, हे अतिलक्ष्मि ! ; द्विस्वराम्बार्थ - हे अम्ब!, हे अक्क !, हे अत्त !, हे अल्ल !, हे अनम्ब !, हे परमाम्ब !, प्रिय ! | नित्यदिदिति किम् ? हे वातप्रमीः !, हे हूहूः !, ग्रामणीः !, हे खलपूर्वधूटि ! | नित्यग्रहणादिह न भवति - हे श्रीः, हे ह्रीः !, हे भ्र ूः ! । कथं हे सुभ्र ु !, हे भीरु ! स्त्रीपर्यायत्वाङि कृते 15 भविष्यति । अम्बार्थानां द्विस्वरविशेषणं किम् ? हे अम्बाडे !, हे अम्बाले !, हे अम्बिके ! | आप इत्येव ? हे मातः ! ।। ४३ ।। न्या० स० – नित्य दिदित्यादि । शृं गृणाति शृङ्गरुॠषिस्तस्यापत्यं शार्ङ्गरवी, यद्वा शृणोतीति “शिग्रु-मेरु-नमेर्वादयः " [ उ० ८११.] इति निपातनाद्रौ अन्तस्य चाङ्गदेशे शङ्खरुः, यदा तु अनेनैव शृङ्गरुरिति निपात्यते तदाऽरिण ङयां च शार्ङ्गरवी, अथवा 20 शार्ङ्गवत् रवो यस्या गौरादित्वाद् ङयां शार्ङ्गरवी । हे अम्बेति - अबुङ प्रम्बतेऽच् अम्बा । हे अक्केति - " ते - " अक कुटिलायां गतौ" इत्यस्य "निष्क - तुरुष्क ०" [ उणा ० २६. ] इत्यादि - निपातनात् कप्रत्यये । प्रतते: “पुत-पित्त०" [ उणा० २०४.] इति निपातनात् ते अत्ता । "अली भूषणादौ" अस्य "भिल्लाऽच्छ भल्ल० " [ उरणा० ४६४ ] इति निपातनाल्ले अल्ला । हे हूहूः जहातेः पृषोदरादित्वाद् ऊप्रत्यये द्विर्वचनादौ । 25 वातप्रमीः ? वातं प्रमिमीते “वातात् प्रमः कित्" [ उरणा० ७१३. ] इति ईप्रत्ययः । ग्रामणीः ? नायमीकारान्तो नित्यदित् किन्तु पुल्लिङ्गोऽपि । हे सुभ्रु ! इति - "केवयुभुरण्टव०" [ उणा० ७४६.] इति निपातनात् भ्राम्यतेभ्र, शोभनं भ्र भ्रमरणं यस्याः सुन शब्दात् भीरुध्वनेश्च जातित्वादुङ, परस्य विकल्पेन दित्त्वात् हे सुभ्रूः ! हे भीरो !, 7 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ४४-४५.] . श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ११३ प्राप्तमित्यभिप्रायः। अम्बामडतीति लिहादित्वादच् । अम्बां लातीति "प्रातो डोऽह्वावा-मः" [ ५. १. ७६. ] इति डप्रत्ययः। अम्बतेः “णक-तृचौ" [५. १. ४८.] एक आप्, “अस्याऽयत्त०" [२. ४. १११.] इति इकारः ।। ४३ ॥ अदेतः स्यमोलुक ॥ १. ४. ४४ ॥ अकारान्तादेकारान्ताच्चामन्त्र्येऽर्थे वर्तमानात् परस्य सेस्तदादेशस्यामश्च 5 लुग् भवति । हे श्रमण !, हे संयत !, अम्-हे वन !, हे धन !, हे उपकुम्भ !, हे अतिहे !, परमश्चासाविश्च हे परमे !, हे से ! । अदेत इति किम् ? हे गौः !, हे नौः !, हे परमौः ! । स्यादेशत्वेनैवामोऽपि लुचि सिद्धायां पृथग्वचनमन्यस्यादेशस्य लुगभावार्थम् !, तेन हे कतरद् ! इत्यादौ लुग् न भवति ।। ४४ ॥ 10 न्या० स०–अदेत इत्यादि । आमन्त्र्य इति वर्तते, तत्र च स्यादेश एवाम् संभवतीत्याह-स्यादेशेति । हे कतरद् इति । ननु अम्ग्रहणस्य अन्यदपि फलं कस्मान्न भवति ? यथा-कुम्भस्य समीपानि उपकुम्भमित्यत्र लुगर्थम्, नैवम्-सिसाहचर्यादेकवचनस्यामोग्रहणं न बहुवचनस्थानस्य ॥ ४४ ।। दीघड्याब-व्यञ्जनात् सेः॥१. ४. ४५ ॥ दीर्घाभ्यां ङ्याब्भ्यां व्यञ्जनाच्च परस्य सेलुंग् भवति । ङी-गौरी, कुमारी, बह्वयः श्रेयस्यो यस्य स बहुश्रेयसी चैत्रः, एवम्-बहुप्रेयसी, खरकुटीव खरकुटी ब्राह्मणः, कुमारीवाचरति क्विप् लुक् क्विप्-कुमारी ब्राह्मणः; आप्-खट्वा, बहुराजा; व्यञ्जन-राजा, तक्षा, हे राजन् ! । एभ्य इति किम् ? वृक्षः । याबग्रहणं किम् ? लक्ष्मीः, तन्त्रीः, ग्रामणीः, कीलालपाः ।20 दीर्घग्रहणं किम् ? निष्कौशाम्बिः, अतिखट्वः । नपुंसकेषु परत्वात् “अनतो लुप्" [१. ४. ५६.] इति लुबेव, तेन यत् कुलं तत् कुलमिति सिद्धम् । "पदस्य" [२. १. ८६.] इति सिद्धे व्यञ्जनग्रहणं राजेत्यादौ सिलोपार्थम्, अन्यथा सावपि पदत्वात् “पदस्य" [२. १. ८६.] इति च परेऽसत्त्वात् पूर्व 'नलोपे सेर्लुप्, 'उखास्रद्' इत्यादौ “संयोगस्यादौ स्कोः०" [२. १. ८८.] 25 इति लुकि दत्वं च न स्यात् ।। ४५ ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ४६-४८.] न्या० स०-दीर्घङचाबिति । 'कुमारी ब्राह्मणः' इत्यत्र नैषां क्विबादीनां ङीस्योर्व्यवधायकत्वे स्थानित्वम्, यतः स्थान्याश्रये वृद्धयादिके कार्ये कर्तव्ये स्थानित्वम्, न तु व्यवधायकत्वे, नहि व्यवधायकत्वं कार्य नाम, अपि तु वृद्धयादीनि कार्याणीति । एवम्-'अच्योढ्वम्' इत्यादिषु सिचो लोपस्य ढत्वे कर्तव्ये न स्थानित्वम् । दत्वं चेति-सौ परे लुकः पूर्वं दत्वं प्राप्नोतीति न वाच्यम्, परे लुकि "स्रस्-ध्वंस्०" [२. १. ६८.] इति 5 सूत्रस्यासिद्धत्वात् ॥ ४५ ॥ समानादमोऽतः ॥ १. ४. ४६ ॥ समानात् परस्यामोऽकारस्य लुग भवति । वृक्षम्, खट्वाम्, मुनिम्, साधुम्, बुद्धिम्, धेनुम्, नदीम्, वधूम् । 'पितरम्' इत्यादिषु विशेषविधानात् प्रथममेवार् । समानादिति किम् ? रायम्, नावम् । अम इति किम् ? नद्यः । 10 स्यादिरिति किम् ? अचिनवम् ॥ ४६ ॥ न्या० स०-समानादित्यादि । अचिनवमिति-न च वाच्यं परत्वान्नित्यत्वाच्च गुणेन भाव्यमिति, प्राप्तौ सत्यां हि परत्वं नित्यत्वं च चिन्त्यत इति ॥ ४६ ।। दी? नाम्यतिस-चतसृ-घः ॥ १. ४. ४७ ॥ तिसृ-चतसृ-षकार-रेफान्तजितशब्दसम्बन्धिनः पूर्वस्य समानस्यामादेशे15 नामि परे दीर्घो भवति । श्रमणानाम्, मुनीनाम्, साधूनाम्, बुद्धीनाम्, धेनूनाम्, वारीणाम्, वपूणाम्, पितृणाम्, मातृ णाम्, कतृणाम् । अतिसृचतसृ-ष इति किम् ? तिसृणाम्, चतसृणाम्, षण्णाम्, चतुर्णाम् । अष इति प्रतिषेधेन नकारेण व्यवहितेऽपि नामि दीर्घो ज्ञाप्यते-पञ्चानाम्, सप्तानाम् । नामीति किम् ? चर्मणाम् । स्यादावित्येव ? दधिनाम, चर्मनाम,20 अनर्थकत्वाद् वा ॥ ४७ ।। न्या० स०-दीर्घो नाम्येत्यादि । प्रामादेश इति स्याद्यधिकारादामादेश एव गृह्यतेऽत इदमुक्तम् । अष इति-ननु षकार-रेफाभ्यां व्यवधानादेव न भविष्यति दीर्घः, किं षवर्जनेन ? इत्याह-नकारेणेति-अन्यव्यञ्जनेन तु असम्भव इति ।। ४७ ॥ 25 नुर्वा ॥ १. ४. ४८ ॥ नृशब्दसम्बन्धिनः समानस्य नामि परे दीर्घो वा भवति । नृणाम्, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ४६-५०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ११५ नृणाम् ; अतिनृ णाम्, अतिनृणाम् ।। ४८ ।। शसोडता सश्च नःपुसि ॥ १. ४. ४६ ॥ शसः सम्बन्धिनोऽकारेण सह समानस्य प्रधानस्थान्यासन्नो दी? भवति, तत्सन्नियोगे च पुंल्लिङ्गविषये शसः सकारस्य नकारो भवति । श्रमणान्, मुनीन्, साधून्, वातप्रमीन्, हूहून्, पितृ न्; पुंल्लिङ्गाभावे तु दीर्घत्वमेव- 5 शालाः, बुद्धीः, नदीः, धेनू, वधूः, मातृ । 'चञ्चाः खरकुटीः यष्टी: पुरुषान् पश्य' इत्यत्र चञ्चादयः शब्दाः पुरुषे वर्तमाना अपि स्त्रीलिङ्गत्वं नोज्झन्तीति नकारो न भवति, यदा तु शब्दस्य पुंल्लिङ्गत्वं तदा वस्तुनः स्त्रीत्वे नपुंसकत्वे वा नकारो भवत्येव-दारान् भ्र कुंसान् स्त्रीः पश्य, षण्ढान् पण्डकान् पश्य । दीर्घसन्नियोगविज्ञानादिह नो न भवति-एतान् गाः पश्य ।10 समानस्येत्येव ? रायः नावः पश्य । 'वनानि पश्य' इत्यत्र परत्वाच्छिरेव ।। ४६ ॥ न्या० स०--शसोऽतेत्यादि। समानस्येति-अत्र यद्यपि समानस्य शसोऽकारस्य च स्थानित्वम्, तथापि प्रधानानुयायिनो व्यवहारा भवन्ति इति प्रधानस्थान्यासन्न एव दीर्घो भवति, प्रधानत्वं च षष्ठीनिर्दिष्टस्य समानस्यैवेति, प्रधानस्थान्यासन्न इति वचनाद्15 'मुनीन्' इत्यादौ शसोऽकारस्य "अवर्ण-हविसर्ग०" इति आसन्नत्वेऽप्याकारो न भवति । वातप्रमीनिति-वातं प्रमिमते “वातात् प्रमः कित्" [ उणा० ७१३. ] ईप्रत्ययः, देवनन्दिना मृगेऽपि स्त्रीलिङ्ग उक्तः ।। ४६ ।। संख्या -साय-वेरहनस्याहन हो वा ॥ १. ४. ५० ॥ संख्यावाचिभ्यः सायशब्दाद् विशब्दाच्च परस्याह्नशब्दस्य ङौ परे20 'अहन्' इत्ययमादेशो वा भवति । द्वयोरह्नोर्भव इति विगृह्य "भवे" [६. ३. १२३.] इत्यण विषये “सर्वांशसंख्या०" [७. ३. ११८.] इत्यादिनाट् अह्नादेशश्च, ततो "द्विगोरनपत्ये०" [६. १. २४.] इत्यादिनाऽणो लुपि द्वयह्नस्तस्मिन् द्वयह्नि, द्वयहनि, द्वयते; एवम्-त्र्यह्नि, त्र्यहनि, त्र्यह; यावह्नि, यावदहनि, यावदह्न; तावदह्नि, तावदहनि, तावदह्न; सायमह्नः25 सायाह्नस्तस्मिन् सायाह्नि, सायाहनि, सायाह्न । अत एव सूत्रनिर्देशात् सायंशब्दस्य मकारलोपः, सायेत्यकारान्तो वा; विगतमहो व्यहस्तस्मिन् व्यह्नि, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० ५१-५२.] व्यहनि व्यह्न े । संख्यासाय - वेरिति किम् ? मध्याह्न । अह्नस्येति किम् ? द्वयोरह्नोः समाहारो द्वयहस्तस्मिन् द्वहे । ङाविति किम् ? व्यह्नः ।। ५०।। ११६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते न्या० स० --- संख्या - सायेत्यादि । अण विषये इति द्वयोरह्नोर्भवः “संख्या समाहारे च०" [३. १. ε६.] इति तद्धितविषये द्विगुसमासेऽण विषयेऽटि प्रह्लादेश:, शाकटायनस्तु “वर्षाकालेभ्यः” [ ६. ३. ८० ] इति इकरण प्रत्ययविषयेऽट् प्रत्ययमिच्छति, स्वमते 5 तु न 'द्वयह्न' इत्यस्याकालवाचित्वात् । यावदह्नि इत्यादिषु दुसंज्ञकेषु “ दोरीयः” [६. ३. ३२.] विषयेऽटि तत ईयः; तस्य च "द्विगोरनपत्ये० " [ ६.१.२४. ] इति लुक् । द्वहे इति - " द्विगोरनह्न०” [ ७. ३. ३६ ] इत्यत्र अनुग्रहणात् ज्ञापकात् “सर्वांश०” [७. ३. ११८.] इति परमप्यट बाधित्वा "द्विगोरहन्नह्नोऽट् ” [ ७. ३. ε६. ] इत्यट् ततोऽह्नाभावः ।। ५० ।। 10 निय आम् ॥ १. ४. ५१. ।। नियः परस्य ङे: स्थाने 'आम्' इत्ययमादेशो भवति । नियाम्, ग्रामण्याम् ।। ५१ ।। न्या० स०--निय इत्यादि । ननु ग्रामण्यामित्यत्र नी साक्षान्नास्ति किन्तु रणी इत्यामो न प्राप्तिः, सत्यम् - स्यादिविधौ गत्वमसिद्धम् । अस्यामः " आमो नाम् वा " 15 [१. ४. ३१.] इति नामादेशो न भवति, तत्र नित्यस्त्रीदूतोरधिकृतत्वात् । ननु एकदेशविकृत ० इति क्लोबेऽपि प्राप्तिरस्ति, न-निय ई नी इतीकारप्रश्लेषात् 'निनि, ग्रामरिनि कुले' इत्येव भवति, भोजेन तु भूतपूर्वन्यायेन नपुंसकेऽपि नियामित्युक्तम् ।। ५१ ।। वाष्टन आः स्यादौ ।। १. ४. ५२ ।। अष्ट शब्दस्य तत्सम्बन्धिन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ परे आकारान्तादेशो 20 वा भवति । अष्टाभिः, अष्टभिः अष्टाभ्यः, अष्टभ्यः ; प्रष्टासु, अष्टसु; प्रियाष्टाः, प्रियाष्टा; प्रियाष्टौ प्रियाष्टानौ प्रियाष्टाः, प्रियाष्टानः; प्रियाष्टाम्, प्रियाष्टानाम्; प्रियाष्टौ प्रियाष्टानौ प्रियाष्टः प्रियाष्ट्नः ; प्रियाष्टाभिः प्रियाष्टभिः; हे प्रियाष्टाः; हे प्रियाष्टन् ! । अन्यसम्बन्धिनोर्जश्शसोर्नेच्छन्त्येके, तन्मते - प्रियाष्टानस्तिष्ठन्ति, प्रियाष्ट्नः पश्येत्येव भवति 1 25 स्यादाविति किम् ? अष्टक : संघः, अष्टता, अष्टत्वम्, अष्टपुष्पी । केचित् तु सकारभकारादावेव स्यादाविच्छन्ति ।। ५२ ।। T Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ५३-५४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ११७ न्या० स०-वाष्टन इत्यादि। पूर्वसूत्राद् ङरनुवृत्तिर्मा भूदिति स्यादिग्रहणम् । अथ "अष्ट प्रौर्जस्-शसोः" [१. ४. ५३.] इत्यत्र 'अष्टः' इति ज्ञापकाद् हुरनुवृत्तिर्न भविष्यति, सत्यम्-तद्धि मतान्तरसंग्रहार्थम् ।। ५२ ।। अष्ट और्जस-शसोः ॥ १. ४. ५३ ॥ अष्ट इति कृतात्वस्याष्टन्शब्दस्य निर्देशः, अष्टाशब्दसम्बन्धिनोर्जस्- 5 शसोः स्थाने औकारादेशो भवति । अष्टौ तिष्ठन्ति, अष्टौ पश्य, परमाष्टौ, अनष्टौ। कृतात्वस्य निर्देशादिह न भवति-अष्ट तिष्ठन्ति, अष्ट पश्य, परमाष्ट, अनष्ट । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियाष्टास्तिष्ठन्ति, प्रियाष्टः पश्य । अतत्सम्बन्धिनोरपीच्छन्त्येके-प्रियाष्टौ तिष्ठन्ति, प्रियाष्टौ पश्य । केचित् तु-अष्टावाचक्षत इति णिचि क्विपि 'अष्टौ तिष्ठन्ति, अष्टौ10 पश्य' इतीच्छन्ति, तदप्यष्ट इति तन्त्रेण संगृहीतम् ।। ५३ ।। डति-ष्णः संख्याया लप ॥ १. ४. ५४ ॥ डति-षकार-नकारान्तायाः संख्यायाः सम्बन्धिनोर्जस्-शसोलुप भवति । कति तिष्ठन्ति, कति पश्य; यति तिष्ठन्ति, यति पश्य; तति तिष्ठन्ति, तति पश्य; षट् तिष्ठन्ति, षट् पश्य; पञ्च तिष्ठन्ति, पञ्च पश्य; एवम्-सप्त,15 नव, दश; परमषट्, परमपञ्च । डति-ष्ण इति किम् ? त्रयः, चत्वारः, तावन्तः । शतानि सहस्राणीत्यत्र सन्निपातलक्षणत्वात् नान्तस्य न भवति । संख्याया इति किम् ? विपुषः, राजानः । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवतिप्रियकतयस्तिष्ठन्ति, प्रियकतीन् पश्य; प्रियषषः; प्रियषषः; प्रियपञ्चानः, प्रियपञ्ञः । केचित् तु डत्यन्तात् कतिशब्दादेवेच्छन्ति ।। ५४ ।। 20 न्या० स०-डतिष्ण इत्यादि । सन्निपातलक्षणत्वादिति-संनिपतति कार्यमस्मिन् संनिपातो निमित्तं शिलक्षणम्, स लक्षणं चिह्न यस्य तस्य । केचित् त्विति-वामनादयः, तन्मते इदं न सिद्धयति यति ते नाग ! शीर्षाणि, तति ते नाग ! वेदनाः । न सन्ति नाग ! शीर्षारिण, न सन्ति नाग ! वेदनाः ।। ५४ ॥ 25 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते ... [पा० ४. सू० ५५-५७.] . नपुसकस्य शिः॥१. ४. ५५॥ नपुंसकस्य सम्बन्धिनोर्जस्-शसोः स्थाने शिर्भवति । कुण्डानि तिष्ठन्ति, कुण्डानि पश्य; एवम्-दधीनि, मधूनि, कतृणि, पयांसि, यशांसि । स्याद्यधिकारादिह न भवति-कुण्डशो ददाति । नपुंसकस्येति किम् ? वृक्षाः, वृक्षान् । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियकुण्डाः, प्रियकुण्डान् । इह तु 5 भवति-परमकुण्डानि । शकारः “शौ वा" [४. २. ६५.] इत्यादौ विशेषणार्थः ॥ ५५ ॥ न्या० स०–नपुंसकस्येत्यादि-स्त्री च पुमाँश्च स्त्रीपुसौ. "स्त्रियाः पुंसो." [७. ३. ६६. ] इति समासान्तः, न स्त्रीपुसौ नखादित्वाद् नत्रोऽदभावः, पृषोदरादित्वात् स्त्रीपुंसशब्दस्य पुंसक आदेशः ।। ५५ ॥ 10 औरी ॥१. ४. ५६ ॥ नपुंसकस्य सम्बन्धी प्रौकार ईकारो भवति । कुण्डे तिष्ठतः, कुण्डे पश्य; एवम्-दधिनी, मधुनी, कर्तृणी, पयसी। तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियकुण्डौ पुरुषौ । इह तु भवति-परमकुण्डे ।। ५६ ।। न्या० स०-औरीरिति-कार्य-कायिणोरभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः, अन्यथा15 “षष्ठयान्त्यस्य" [७. ४. १०६. ] इति न्यायाद् विश्लिष्टावर्णस्यौकारस्य स्यात्, यतः अग्रो इति प्रकृतौ "ऐदौत् सन्ध्यक्षरः" [१. २. १२. ] इत्यनेन औकारो निष्पादितः ।। ५६ ॥ अतः स्यमोऽम् ॥ १. ४. ५७ ॥ अकारान्तस्य नपुंसकलिङ्गस्य सम्बन्धिनोः स्यमोरमित्ययमादेशो भवति। 20 कुण्डं तिष्ठति, कुण्डं पश्य, कीलालपम्, अतिखट्वं कुलम्; हे कुण्ड !, अत्रामादेशे अति “अदेतः स्यमोलुंक्" [१. ४. ४४.] इत्यमो लुक् । नपुंसकस्येत्येव ? वृक्षः । अत इति किम् ? दधि तिष्ठति, दधि पश्य । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियकुण्डः पुरुषः । अमोऽकारोच्चारणं जरसादेशार्थम्, तेनातिजरसं कुलं तिष्ठतीति सिद्धम् ।। ५७ ॥ 25 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० ५८-५६. ] न्या० स० - श्रतः स्येत्यादि । नन्वत्राद्ग्रहरणं किमर्थम् ? न च वाच्यम् - श्रद्ग्रहणाभावे दघीत्यत्राप्यमादेशः स्यात्, यतः “अनतो लुप्" [ १. ४. ५६ ] इति सूत्रं बाधकं विद्यत इति, ननु अनत इत्यत्र पर्युदासः प्रसज्यो वा नञ् गृह्यत इति संदेहः, न च वाच्यम् - पर्युदासे हि "नामिनो लुप्" [ १. ४ ६१ ] इति सूत्रं कुर्यात्, तस्मात् प्रसज्य एवेति कुत: ? काष्ठा परं प्रकर्षमध्यापक इत्यत्र क्रियाविशेषणत्वेन प्राकारादप्यमो लुग् दृश्यते, अतोऽनत इति कर्तव्यमेव, अतः संदेहस्तदवस्थ एव, अतोऽद्ग्रहणेन ज्ञाप्यते - प्रसज्य एव गृह्यते, तथा च पय इत्यादौ लुप् सिद्धा, न त्वमादेशः । श्रत इति नपुंसकस्य विशेषणम्, अतस्तदन्तप्रतिपत्तिर्भवतीत्याह - अकारान्तस्येति । श्रम् ग्रहणमुत्तरार्थम्, तेनान्यत् पश्येति सिद्धम् ।। ५७ ।। 5 पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः ॥ १. ४. ५८ ॥ नपुंसकानामन्यादीनां सर्वाद्यन्तर्वर्तिनां पञ्चपरिमाणानां सम्बन्धिनोः स्यमोः स्थाने द इत्ययमादेशो भवति, एकतरशब्दं वर्जयित्वा ; अकार उच्चारणार्थः। अन्यत् तिष्ठति, अन्यत् पश्य; एवम् - प्रन्यतरत्, इतरत्; कतरत् तिष्ठति, कतरत् पश्य; एवम् कतरत्, ततरत्; कतमत् तिष्ठति, कतमत् पश्य; एवम्-यतमत्, ततमत्, एकतमत्; हे अन्यत् !, हे अन्यतरत् !, 15 हे इतरत् !, हे कतरत् !, हे कतमत् ! हे एकतमत् ! । अनेकतरस्येति किम् ? एकतरं तिष्ठति, एकतरं पश्य । पञ्चत इति किम् ? नेमं तिष्ठति, नेमं पश्य । नपुंसकस्येत्येव ? अन्यः पुरुषः, अन्या स्त्री । अन्यादिसम्बन्धिनोः स्वमोर्ग्रहणादिह न भवति - प्रियान्यम्, प्रत्यन्यं कुलम् । इह तु भवतिपरमान्यत् तिष्ठति, परमान्यत् पश्य, अनन्यत् ।। ५८ ।। , श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ ११६ न्या० स० – पञ्चत इत्यादि - पञ्च संख्या परिमाणमस्य “पञ्चद् दशद् वर्गे वा" [६. ४. १७५ ] इति डत् प्रत्ययः ।। ५८ ॥ अनतो लुप् ।। १.४. ५६ ॥ 10 20 अनकारान्तस्य नपुंसकस्य सम्बन्धिनोः स्यमोर्लुप् भवति । दधि तिष्ठति, पश्य वा, एवम् - मधु, कर्तृ, पयः, उदश्वित् । अनत इति किम् ? कुण्डं 25 तिष्ठति पश्य वा । लुकमकृत्वा लुप्करणं स्यमो: स्थानिवद्भावेन यत् कार्यं तस्य प्रतिषेधार्थम्-यत्, तत्, अत्र त्यदाद्यत्वं न भवति ।। ५६ ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ६०-६२.] न्या० स०-अनत इत्यादि । ननु अनत इति किमर्थम् ? न च वाच्यम्-कुण्डमित्यत्रापि स्यात्, "अतः स्यमोऽम्" [ १. ४. ५७. ] इति बाधकात्, अत्रोच्यते-अनत इत्यस्याभावे "पञ्चतोऽन्यादे०" [१.४. ५४.] इत्यतोऽन्यादेरित्यागच्छेत्, न च वाच्यम्-अन्याद्यभीष्टौ हि एकमेव योगं कुर्यात्, पूर्वमेकतरवजितस्यान्यादर्ग्रहणम्, इह तु एकतरस्यापीति पृथग्योगस्य साफल्यात् । हे कर्तृ ! इत्यादौ परत्वात् प्रथम सेर्लोपे 5 प्रत्ययलोपलक्षण न्यायेन "ह्रस्वस्य गुणः" [ १. ४. ४१. ] इति गुणः कस्मान्न भवतीत्याह-लुकमकृत्वेति ॥ ५६ ।। जरसो वा ॥ १. ४. ६० ॥ जरसन्तस्य नपुंसकस्य सम्बन्धिनोः स्यमोलुंग् वा भवति । अतिजरः, अतिजरसं कुलं तिष्ठति पश्य वा । अन्ये तु द्वितीयैकवचनस्यैवामो योऽमा-10 देशस्तस्यैव लुब्विकल्पमिच्छन्ति, न स्यादेशस्य, तन्मते-अतिजरसं कुलं तिष्ठतीत्येव भवति । केचिज्जरसः स्यमोर्लोपं नेच्छन्ति, तन्मते-अतिजरसं तिष्ठति पश्य वेत्येव भवति ।। ६० ।। न्या० स०–जरस इत्यादि । अन्ये विति-उत्पलादयः ।। ६० ।। नामिनो लुग वा ॥ १. ४. ६१ ॥ नाम्यन्तस्य नपुंसकस्य संबन्धिनोः स्यमोलुंग वा भवति । हे वारे !, हे त्रपो !, हे कर्तः !, हे कुल !, प्रियतिसृ कुलं तिष्ठति पश्य वा; पक्षे लुबेव हे वारि !, हे त्रपु ! , हे कर्तृ !, प्रियत्रि ! कुलं तिष्ठति पश्य वा । अमो लुकं नेच्छन्त्येके, तन्मते-प्रियत्रि कुलं पश्येत्येव भवति । नामिन इति किम् ? यद्, तद्, प्रियचतुष्कुलम् । चतुर्शब्दस्यापि लुग्विकल्पमिच्छन्त्यन्ये-20 प्रियचतसृ कुलम्, प्रियचतुष्कुलम् । लुपैव सिद्धे लुग्वचनं स्थानिवद्भावार्थम् ।। ६१ ॥ न्या० स०–नामिन इत्यादि । प्रियतिस कुलमिति-"ऋदुशनस्-पुरु०" [१.४.८४.] इत्यत्र घुट: सेर्ग्रहणादत्र क्लीबत्वेन घुट्त्वाभावे से: स्थानित्वेऽपि न डाः। नेच्छन्त्येके देवनन्द्यादयः । इच्छन्त्यन्ये उत्पलादयः ।। ६१ ।। ___25 वान्यतः पुमाष्टादौ स्वरे ॥ १. ४. ६२ ॥ यो नाम्यन्तः शब्दोऽन्यतो विशेष्यवशान्नपुंसकः स टादौ स्वरे परे पुंवद् 15 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १२१ वा भवति, यथा पुंसि नागम- ह्रस्वौ न भवतस्तथाऽत्रापि न भवत इत्यर्थः । ग्रामण्या ग्रामणिना कुलेन, ग्रामण्ये ग्रामरिणने कुलाय, ग्रामण्यः ग्रामणिनः कुलात्, ग्रामण्यः ग्रामणिनः कुलस्य, ग्रामण्योः ग्रामणिनोः कुलयोः, ग्रामण्याम्, ग्रामणीनां कुलानाम्, ग्रामण्याम् ग्रामणिनि कुले; एवम् - कर्त्रा, कर्तृणा, कर्त्रे कर्तृणे, कर्तुः कर्तृणः कर्त्रीः कर्तृणोः, कतृणाम् २, कर्तरि कर्तृरिण; 5 शुचये शुचिने, शुचेः शुचिनः शुच्योः शुचिनोः शुचौ शुचिनि; मृदवे मृदुने, मृदोः मृदुनः, मृद्वोः मृदुनो:, मृदौ मृदुनि; चित्रगवे चित्रगुणे, अतिराया अतिरिणा; प्रतिनावा प्रतिनुना; अहंयवे अहंयुने; कुमारीवाचरतीति क्विप्, कुमारीवेच्छतीति क्यन् क्विप्, कुमार्यै कुमारिणे कुलाय । अन्यत इति किम् ? त्रपुणे, जतुने, पीलुने फलाय । टादाविति किम् ? ग्रामणिनी शुचिनी 10 कुले । स्वर इति किम् ? ग्रामणिभ्यां कुलाभ्याम्, ग्रामणिभिः कुलैः । नामिन इत्येव ? कीलालपेन कुलेन । नपुंसक इत्येव ? कल्याण्यै ब्राह्मण्यै ।। ६२ ।। [ पा० ४. सू० ६३. ] " न्या० स०- - वाsन्यत इत्यादि । पुंवद् वेति- परार्थे प्रयुज्यमानः शब्दो वतिमन्तरेणापि वत्यर्थं गमयति, यथाऽग्निर्माणवक इति, तथा अत्रापि परार्थो नपुंसकस्तत्र हि 15 प्रयुक्तः पुमानिति । ग्रामणिनेति - ननु पूर्वं "क्विब्वृत्तेरसुधियस्तो” [२. १. ५८.] इत्यादिना यत्वं कस्मान्न भवति ? सत्यम् - "इदुतोस्त्रेरीदूत्” [ १.४. २१.] इत्यत्र स्त्रीवर्जनेन 'परमपि इत्युव्यत्वादि इदुदाश्रितेन बाध्यते' इति भरणनात्, यद्वा प्रदेशादागम० इति न्यायाद्यत्वं बाधित्वा नोऽन्तः । ग्रामण्येति - ग्रामणीशब्दस्यानेनं पुंवत्त्वे ह्रस्वनागमाभावः । कर्तृणामिति - द्वयोरपि " ह्रस्वापश्र्च" [१. ४. ३२. ] इति नाम्, न त्वपुंस्त्व - 20 पक्षे "अनाम्स्वरे० " [१.४. ६४.] इत्यनेन नोऽन्तः, तत्रामो वजितत्वात्, द्वितीयप्रयोगो रूपनिर्णयार्थो दर्शितः । न तु तस्य किञ्चिदत्रान्यत् फलम् । चित्रगवे इति प्रत्र चित्रा गावो यस्येति "क्लीबे" [ २. ४. ६७.] ह्रस्वत्वम्, तत् पुंस्त्वे सति निवर्तते, ततश्च " गोश्वान्ते ह्रस्वः० [२. ४. ६६. ] ह्रस्वः, ततो " ङित्यदिति” [ १.४.२३. ] इत्योत्वम् । कुमार्यै इति श्रत्र यद्यपि कुमारीशब्दः पुंवत् तथापि नित्यस्त्रीविषयत्वादी- 25 कारस्य "स्त्रीदूत:" [ २. ४. २६ ] इति दैः ।। ६२ ।। दध्यस्थि- सक्थ्यक्ष्णोऽन्तस्यान् ॥ १. ४. ६३ ।। 'दधि, अस्थि, सक्थि, प्रक्षि' इत्येतेषां नपुंसकानां नाम्यन्तानामन्तस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा टादौ स्वरे परे 'अन्' इत्ययमादेशो भवति । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ६४.] दधना, दध्ने, दध्नि, दधनि; अस्थ्ना, अस्थ्ने, अस्थिन, अस्थनि; सक्थ्ना, सक्थ्ने, सक्थिन, सक्थनि; अक्षणा, अक्षणे, अक्षिण, अक्षणि; परमदना, परमास्थ्ना, परमसक्थ्ना, परमाक्ष्णा, अतिदध्ना, अत्यस्थ्ना, अतिसक्थ्ना, प्रत्यक्ष्णा, प्रियदध्ना, समासान्तविधेरनित्यत्वात् कच् न भवति; प्रियास्थ्ना शुना, दृढसक्थ्ना शकटेन, स्थूलाणा इक्षुणा, अस्वाङ्गत्वात् “सक्थ्यक्ष्णः । स्वाङ्ग" [७. ३. १२६.] इति समासान्तो न भवति । अतिदन्या स्त्रिया, प्रियास्थ्न्यै शुन्यै, अत्रानादेशे सति नान्तत्वाद् डीः । टादावित्येव ? दधिनी, दधीनि । स्वर इत्येव ? दधिभ्याम्, दधिभिः । नपुंसकस्येत्येव ? दधातीत्येवंशीलो दधिः, दधिनामा वा, दधिना, दधये । दध्ना, अतिदध्ना कुलेनेत्यादौ विशेषविधानात् परमपि नागममनादेशो बाधते ।। ६३ ।। 10 न्या० स०-दध्यस्थीत्यादि । कच् न भवतीति-"दध्युरः-सर्पिः" [७. ३. १७२.] इत्यनेन प्रा:, "अक्षणोऽप्राण्यङ्ग" [ ७. ३. ८५. ] इत्यपि अनित्यत्वान्न । अतिदन्या स्त्रियेति-यदाऽत्र "इतोऽक्त्यर्थात्" [ २. ४. ३२. ] इत्यनेन ङीस्तदा तद्वयवधानादनेनादेशाभावे 'अतिदध्या' इत्येव भवति, यदा तु दध्यतिक्रान्तं ययेति बहुव्रीहिस्तदा "दध्युर:सर्पि:०" [७. ३. १७२.] इत्यनेन कचा भाव्य , तस्माद् दध्यतिक्रान्तयेति तत्पुरुष एव15 न्याय्यः । ननु "दध्यस्थि-सक्थ्यक्ष्णोऽन्” इति क्रियताम्, किमन्तग्रहणेन ? सत्यम्-अन्तग्रहणाभावे प्रत्ययत्वात् पदान्तत्वे सति 'दध्न्या' इत्यत्र “धुटस्तृतीयः" [ २. १. ७२. ] इति धस्य दत्वं प्राप्नोति, न च वाच्यम्-व्यपदेशः स्थानी भविष्यति, [आदेशः स्थानीव भविष्यतोति] असद्विधित्वाद् नकारान्तं न स्त्रीत्वे वर्तते, किन्तु 'दधि' इति 'अतिदन्या' इत्यत्र ङीप्रत्ययोऽपि न स्याद् , इत्येवमर्थमन्तग्रहणम् ।। ६३ ।। 20 अनामस्वरे नोऽन्तः ॥ १. ४. ६४ ॥ नाम्यन्तस्य नपुंसकस्य संबन्धिन्याम्वजिते स्यादौ स्वरे परे नोऽन्तो भवति । वारिणी २, वारिणा, वारिणे, वारिण: २, वारिणोः २, वारिणि; त्रपुणी २, त्रपुणा, त्रपुणे, त्रपुरणः २, पुणोः २, त्रपुरिण; कर्तृणी, कुले २, कर्तृणा, कर्तृणे, कर्तृणः २, कर्तृणोः २, कर्तृणि; प्रियगुरुणे, प्रिय-25 तिसृणः २, अत्र परत्वात् तिस्रादेशे सति नोऽन्तः । अनामिति किम् ? वारीणाम्, त्रपूणाम्, कतृणाम्, एषु नागमाभावे नामि सति "दी? नाम्यतिसृ०" [१. ४. १४७.] इत्यादिना दीर्घः सिद्धः । स्वरे इति किम् ? Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ६५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १२३ हे वारे !, हे त्रपो ! । स्यादावित्येव ? तौम्बुरवं चूर्णम् । नामिन इत्येव ? काण्डे, कुण्डे । नपुंसकस्येत्येव ? मुनी, साधू । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रियवारये पुंसे, प्रियमधोः पुंसः ।। ६४ ।। न्या० स०-अनामित्यादि-अनाम् चासौ स्वरश्चानाम्स्वरः । अथाम् वर्जनात् स्वरे लब्धे स्वरग्रहणं टादावित्यधिकारनिवृत्त्यर्थम् । अन्तग्रहणं विना 'प्रियतिसृ णि' इत्यादौ 5 नस्य प्रत्ययत्वं स्यात्, तथा च प्रियतिसृणीत्यादौ निमित्ताभावे०* इति तिस्रादेशो निवर्तेत, तथा प्रत्ययाप्रत्ययो:०% इति न्यायेनास्य नकारस्य प्रत्ययस्यापि संभवे वनानीत्यादावेव दीर्घः स्यात्, न तु राजानमित्यादौ । प्रियतिसरण इति-यदि पूर्वं नागमः स्यात् तदानीं किं विनश्येत् ? यतः स्वाङ्गमव्यवधायकम् इति कृत्वा कृतेऽपि नागमे तिस्रादेशो भविष्यति, तत् कथं परत्वादित्युक्तम् ? अत्रोच्यते-यस्मान्नागमः समानीतस्तस्य10 यदि किमपि प्राप्नोति तदानीमयं न्याय उपतिष्ठते, अत्र तु 'प्रियत्रिन्' इत्यस्य न किमपि प्राप्नोति, अपि तहि अवयवस्य तिस्रादेशः, ततश्चावयवस्यावयवेन व्यवधानम्, न तु अवयवेनावयविनः, यथा-देवदत्तस्य श्मश्रु न दृष्टं हस्तेन व्यवहितत्वात्, नहि कोऽपीत्थं वदति-यदुत, देवदत्तो न दृष्टः, हस्तेन व्यवहितत्वात् । तौम्बुरवं चूर्णं तुम्बुरुणः विकारः "प्राण्योषधि०" [६. २. ३१.] इत्यादिना अण, तस्य लुप्, तस्य विकारः, विकारे।5 पूनरण , तुम्बुरुणो वक्षस्य विकारश्चूरर्णम, एकस्मिन्नणि वा "अस्वयम्भूवोऽव" [ ७. ४. ७०. ] इति, परत्वाद् भविष्यतीति न वाच्यम्, पु-स्त्रीलिङ्गयोरेव सावकाशो नपुसके तु विशेषविधानादिदं प्राप्नोति । नामिन इत्येवेति-क्लीबे नाम्यन्तस्य सत्त्वे स्यादौ विज्ञानात् कुलयोरित्यत्रत्वे कृते न नागमः, द्वयोरित्यत्रापि प्रादेशादागमः इति न्यायेन नागमः प्राप्नोति, न-परत्वादन्तरङ्गत्वाच्च "पा द्वरः" [२. १. ४१.] इत्यत्वम्, पश्चाद्,20 एत्वे कृते सकृद् इति न्यायः ।। ६४ ।। स्वराच्छौ ॥ १. ४. ६५ ॥ जस्-शसादेशे शौ परे स्वरान्तान्नपुंसकात् परो नोऽन्तो भवति । कुण्डानि, वनानि, प्रियवृक्षाणि कुलानि, वारीणि, त्रपूणि, कतृ णि । स्वरादिति किम ? चत्वारि, अहानि, विमलदिवि, सुगणि । अत इत्येव सिद्धे25 स्वरग्रहणमुत्तरार्थम् ।। ६५ ॥ न्या० स०-स्वराच्छाविति । अत इत्येवेति-ननु इवर्णादेः “अनामस्वरे नोऽन्तः" - [ १. ४. ६४. ] इति शौ नागमः सिद्ध एव, आकारान्तस्य तु अन्त्यस्य नपुसके ह्रस्वविधानात् स्थितिरेव नास्तीति 'अतः' इत्येव युज्यते, किं स्वरग्रहणेन ? अत आहउत्तरार्थमिति ।। ६५ ।। 30 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ६६-६६.] ध्रुटां प्राक् ॥ १.४. ६६ ॥ स्वरात् परा या धुट्जातिस्तदन्तस्य नपुंसकस्य धुड्भ्य एव प्राक् शौ पनोऽन्तो भवति । पयांसि तिष्ठन्ति पयांसि पश्य, उदश्विन्ति, सर्पीषि, धनूंषि, प्रतिजरांसि कुलानि । धुटामिति बहुवचनं जातिपरिग्रहार्थम्, तेनकाष्ठतङ्क्षि, गोरक्ष कुलानीति सिद्धम् । स्वरादित्येव ? गोमन्ति कुलानि । 5 शावित्येव ? उदश्विता ।। ६६ ।। " न्या० स० - घुटामित्यादि - प्रागित्यनेन सह सम्बन्धाभावाद् धुटामित्यत्र “प्रभृत्यन्यार्थ ०” [२. २. ७५ ] इति न पञ्चमी । गोमन्ति " ऋदुदित:" [१.४.७०. ] इत्यनेन परत्वान्नागमेऽनेन नोऽन्तो न भवति ।। ६६ ।। र्लो वा ॥ १.४. ६७ ।। रेफ-लकाराभ्यां परा या धुडजातिस्तदन्तस्य नपुंसकस्य धुटः प्राग् नोऽन्तो वा भवति, शौ परे । बहूञ्ज, बहूजि; सूञ्जि, सूर्जि; सुवङ्गि, सुवगि । र्ल इति किम् ? काष्ठतङ्क्षि, पूर्वेण नित्यमेव । धुटामित्येव ? सुफुल्लि वनानि । शावित्येव ? बहूर्जा कुलेन ।। ६७ ।। घ्रुटि ॥ १.४.६८ ॥ अधिकारोऽयम्, निमित्तविशेषोपादानमन्तरेणापादपरिसमाप्तेर्यत् कार्यं वक्ष्यते तद् घुटि वेदितव्यम् ।। ६८ ।। 10 15 न्या० स०० - घुटीति । श्रधिकारोऽयमिति - 'नपुंसकस्य घुटि परतो नोऽन्तो भवति' इति विधिरेव कस्मान्न भवति ? उच्यते - नपुंसकस्य शिमन्तरेणान्यस्य घुट्त्वाभावात्, तत्र च “स्वराच्छौ” [१.४. ६५ ] इत्यादिभिर्नागमस्य विहितत्वात् पारिशेष्यादधिकारो-20 ऽयमिति ।। ६८ । अचः ॥ १.४. ६६ ॥ अञ्चतेर्धातोर्घुडन्तस्य तत्सम्बन्धिन्यसम्बन्धिनि वा घुटि परे धुटः प्राग् नोऽन्तो भवति । प्राङ्, प्रतिप्राङ्, प्राञ्चौ प्राञ्चः प्राञ्चम्, प्राञ्चि Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ७०-७२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १२५ कुलानि । घुटीत्येव ? प्राचः पश्य ।। ६६ ॥ दुदितः ॥ १. ४. ७० ॥ ऋदित उदितश्च धुडन्तस्य तत्सम्बन्धिन्यसम्बन्धिनि वा घुटि परे धुटः प्राक् स्वरात् परो नोऽन्तो भवति । [ऋदितः-] कुर्वन्, अधीयन्, महान्, सुदन् बालः । उदितः-चक्रिवान्, विद्वान्, गोमान्, श्रेयान् । घुटीत्येव ? 5 गोमाता । पृथग्योगो भ्वादिव्युदासार्थ:-सम्राट् ।। ७० ॥ . न्या० स०-ऋदुदीत्यादि। पृथग्योगो भ्वादिव्युदासार्थ इति-अयमभिप्राय:"उदितः स्वरान्नोऽन्तः” [४. ४. ६८.] इत्यत्र धात्वधिकाराद् भ्वादेरुदितः “उदितः स्वरान्नोऽन्तः" [४. ४. ६८.] इत्यनेनैव सिद्धत्वादत्र उदितः पृथगारम्भादुदितोऽन्वादेरेव तत्साहचर्यादितोऽपि अभ्वादेरेवेति नियमात् 'सम्राट्' इत्यादौ न भवति ।। ७० ॥ 10 युज्रोसमासे ॥ १. ४. ७१ ॥ "युजं पी योगे” इत्यस्यासमासे धुडन्तस्य धुटः प्राग् घुटि परे नोऽन्तो भवति । युङ्, युजौ, युञ्जः; युञ्जम्, युञ्जि कुलानि, ईषदपरिसमाप्तो युङ-बहुयुङ, बहु युजौ, बहुयुञ्जः । असमास इति किम् ? अश्वयुक, अश्वयुजौ, अश्वयुजः । ऋदिनिर्देशः किम् ? "युजिंच समाधौ” इत्यस्य मा15 भूत्-युजमापन्ना मुनयः, समाधि प्राप्ता इत्यर्थः । घुटीत्येव ? युजः पश्य, युजी कुले ।। ७१ ।। __ न्या० स०--युज्र इत्यादि। असमास इति-स्याद्याक्षिप्तस्य नाम्नो युज्र इति विशेषणात् तत्र च तदन्तविधेर्भावात् समासेऽपि प्राप्तिरिति असमासग्रहणम्, इदमेव ज्ञापयति-पत्र प्रकरणे तदन्तविधिरस्तीति ।। ७१ ॥ ____20 अनड्डहः सौ ॥ १. ४. ७२ ॥ अनडुह शब्दस्य धुडन्तस्य तत्सम्बन्धिन्यसंबन्धिनि वा सौ परे धूटः प्राग् नोऽन्तो भवति । अनड्वान्, प्रियानड्वान्, हे अनड्वन् !, हे प्रियानड्वन् ! । साविति किम् ? अनड्वाहौ ।। ७२ ।।। न्या० स०-अनडुह इत्यादि । सत्यपि नामग्रहणे* इति न्याये 'अनडुही' इत्यत्र25 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ७३-७४.] धुडन्तत्वाभावान्न भवति । ननु 'अनड्वान्' इत्यत्र "स्रस्-ध्वंस्-क्वस्व०" [२. १.६८.] । इत्यादिना दकारः कथं न भवति ? सत्यम्-प्राप्नोति परं विधानसामर्थ्यान्न भवति ॥ ७२ ।। पुसो पुमन्स् ॥ १. ४. ७३ ॥ 'पुंसु' इत्येतस्योदितस्तत्संबन्धिन्यसंबन्धिनि वा घुटि परे 'पुमन्स्' 5 इत्ययमादेशो भवति । पुमान्, पुमांसौं, पुमांसः, पुमांसम्, ईषदूनः पुमान्बहुपुमान्, प्रियपुमान्, प्रियपुमांसि कुलानि, हे पुमन् ! । घुटीत्येव ? पुंसः पश्य, बहुपुंसी कुले। पुंसोरुदित्त्वात् 'प्रियपुंसितरा, प्रियपुंस्तरा, प्रियपुंसीतरा' इत्यादौ डीह स्व-पुंवद्विकल्पश्च भवति ।। ७३ ।। न्या० स०--पुसोरित्यादि। पुसोरुदित्त्वादिति-ननु “पातेईम्सुः" [उणा०10 १००२.] इति उदनुबन्धः कृतोऽस्ति, तेनापि प्रियपुसीतरेत्यादि रूपत्रयं सेत्स्यति, किमत्रोदनुबन्धेन ? उच्यते-यदा अव्युत्पत्त्याश्रयणं तदाऽत्र सूत्रे कृतस्योकारस्य फलम्, व्युत्पत्ती तु फलमौणादिकस्य, यथा-भवतुशब्दो “भातेर्डवतुः" [ उणा० ८८६. ] इति व्युत्पादितोऽपि सर्वादौ उदनुबन्धः पठितोऽव्युत्पत्तिपक्षार्थम् । प्रियपुमानिति-बहुत्वे वाक्यम्, एकत्वे तु "पुमनडुन्नौ०" [७. ३. १७३.] इति कच् स्यात् । ङोह्रस्व-पुंवद्विकल्पेति-15 ङीनित्यं ह्रस्व-पुवत्त्वयोश्च विकल्पः ।। ७३ ।। ओत औः ॥ १. ४. ७४ ॥ ओकारस्य श्रोत एव विहिते घुटि परे औकार आदेशो भवति । गौः, गावौ, गावः; द्यौः, द्यावौ, द्यावः; लुनातीति विच्-लौः, शोभनो गौःसुगौः, एवम्-अतिगौ; प्रियद्यावी, अतिद्यावौ, हे गौः !, हे द्यौः !, किंगौः,20 अगौः । श्रोत इति किम् ? चित्रा गौर्यस्य-चित्रगुः, चित्रगू। विहितविशेषणादिह न भवति-हे चित्रगवः ! । घुटीत्येव ? गवा, धवा ।। ७४ ।। न्या० स०-प्रोत औरिति । चित्रगुरिति-अत्र परत्वात् पूर्वं ह्रस्वत्वे कृते पश्चाद् घुटि प्रोकाराभावाद् 'प्रोतः' इति वचनादौकारौ न भवति, वर्णविधित्वाच्च स्थानिवद्भावो नास्ति । अथ 'हे चित्रगो!' इत्यत्र प्रोकारस्य विद्यमानत्वाद् उभयो: स्थानिनो:25 स्थाने०* इति न्यायेन सेर्व्यपदेशे सति प्राप्नोति कस्मान्न भवति ? उच्यते-यदा. उकारव्यपदेशस्तदा सेरभावाद् यदा तु सेर्व्यपदेशस्तदा लाक्षणिकत्वान्न भवति ।। ७४ ।। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ७५-७६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १२७ आ अम्-शसोऽता ॥ १. ४. ७५ ॥ प्रोकारस्याम्-शसोरकारेण सह आकारो भवति । गाम्, सुगाम्, गाः, सुगाः पश्य; द्याम्, अतिद्याम्, द्याः, सुद्याः पश्य । स्यादावित्येव ? अचिनवम् ।। ७५ ।। न्या० स०-आ अमित्यादि । नन्वत्र अतेति किमर्थम् ? यत एतद्विनाऽपि 'गाः' 5 इत्यादि प्रयोगजातं “समानानां०%" [१. २. १.] इति दीर्घ सिद्धयतीति, उच्यतेअतेति पदं विना पुलिङ्ग "शसोऽता०" [ १. ४. ४६. ] इति स्त्रीलिङ्ग “लुगातोऽनापः" [२. १. १०७.] इति प्रवर्तेयाताम्, ततश्च 'गान्, गः' इत्याद्यनिष्टं स्यात्, स्थिते तु "शसोऽता०" [१. ४. ४६.] इत्यनेनैव दोघस्य संनियोगे नकारोऽभाणि । अचिनवमितिअत्र प्रादौ “समानादमोऽतः" [१. ४. ४६.] इत्यमोऽकारस्यापि लुग् न भवति, तत्रापि10 स्याद्यधिकारात् ।। ७५ ॥ पथिन्-मथिनुभुक्षा सौ ॥ १. ४. ७६ ॥ 'पथिन्, मथिन् ऋभुक्षिन्' इत्येतेषां नकारान्तानामन्तस्य सौ परे आकारो भवति । पन्थाः, हे पन्थाः !; मन्थाः, हे मन्थाः !; ऋभुक्षाः, हे ऋभुक्षा: !; अमन्थाः, सुमन्थाः, बहुऋभुक्षाः । साविति किम् ? 15 पन्थानौ । कथं हे सुपथिन् ! हे सुपथि कुल !, हे सुमथिन् ! हे सुमथि कुल !? अत्र नित्यत्वान्नपुंसकलक्षणायाः सेलृपि सेरभावान्न भवति । नकारान्तनिर्देशादिह न भवति-पन्थानमिच्छति क्यनि नलोपे क्विपि च-पथीः, मथीः, ऋभुक्षीः ।। ७६ ।। न्या० स०--पथिनित्यादि-अत्र घुटीति सम्बन्धात् साविति श्लिष्ट निर्देशन सुप्20 न गह्यते । पन्था इति-पत्र सानुनासिकस्याप्यादेशो भवन "लि लौ" [ १.३.६५. । इत्यत्र द्विवचनेनैव ज्ञापितत्वाद् निरनुनासिक एव भवति । पथीरिति-पन्थानमिच्छति क्यनि नलोपः, स च “दीर्घश्च्वियङ" [ ४. ३. १०८. ] इति परे कार्येऽसन्न भवति, यतः "रात् सः" [ ३. १. ६०.] इत्यतः प्रागेव यत् सूत्रं तदेवासद् भवति, इदं तु "रात् सः" [२. १. ६०. ] इत्यत: परमिति नासत्, ततः पथीयतीति क्विपि अलोपे25 यलोपे चेदं रूपम् । नन्वनेनाऽऽत्वरूपे स्यादिविधौ विधातव्ये नलोपस्यासिद्धत्वान्नान्तत्वमस्ति, न च वाच्यम् “अतः' [ ४. ३. ८२. ] इत्यल्लुक: "स्वरस्व परे०" [७.४.११०.] इति स्थानिवद्भावेन नान्तत्वानुपपत्तिरिति, यतः प्रत्यासत्तेर्यनिमित्तो लुक् विधिरपि यदि तन्निमित्तो भवतीति व्याख्यानात्, अत्र तु अस्य लुक् क्विपि, प्रात्वं तु सौ प्रत्यये Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] , बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ७७-७८.] प्राप्नोतीति कृत्वात्र नान्तत्वमस्त्येवेति प्राप्नोत्यात्वम्, सत्यम्-नान्तेति व्यावृत्तिबलादेव : न भवति, अन्यथा यत्र कुत्रापि नलोपस्तत्र सर्वत्राप्यमीषां पथ्यादीनां ध्वनीनामनेनाऽऽत्वलक्षणे स्यादिविधौ कर्तव्ये "रण-षमसत्परे." [ २. १. ६०. ] इति न्यायेन नलोपस्यासिद्धत्वे नान्तत्वसद्भावादनेनात्वं भवेदेवेत्यत्र सूत्रे नान्तनिर्देशोऽनर्थकः स्यात्, तस्माद् यत्र साक्षान्नान्तत्वममीषां भवति तत्रेदं प्रवर्ततेऽन्यत्र तु व्यावृत्तिरिति सर्वं समीचीनम् । 5 तहि “दीर्घड्याब्०" [ १. ४. ४५. ] इति सूत्रेण सेलुक् कस्मान्न भवति ? यतोऽयमपि स्यादिविधिः, स्यादिविधौ च नलोपोऽसन् भवतीति, सत्यम्-“दीर्घड्याब्०" [१. ४. ४५.] इत्यत्र सावधारणं व्याख्येय-व्यञ्जनान्तादेव यदि सिर्भवतीति, विहितविशेषणाद् वा यत्र एभ्यः परः सिविहितो भवति तत्र लुग् भवति, अत्र त्वीकारान्ताद् विहितो न व्यञ्जनान्तादिति । तहि 'या सा' इत्येवमादिषु सेलुक न प्राप्नोति, सत्यम्-यत्रतेषां मध्यादे-10 कस्माद् विहितो भवति, कार्यान्तरेषु च कृतेषु पश्चादेतेषामेव मध्येऽन्यतमस्मात् परो भवति, तत्रापि भवति, तेनानयोः प्रयोगयोर्व्यञ्जनान्तात् परो विहितः कार्यान्तरेषु च सत्सु विद्यते पाबन्तादिति सेलुंग भवत्येव । 'यः सः' इत्यनयोस्तु व्यञ्जनान्ता: विहितोऽस्ति, परम् “या द्वरः" [२. १. ४१. ] इत्यादिकार्येषु कृतेषु सत्सु पश्चादमीषां मध्यादेकस्मादपि परो नास्तीति न सेलृक् । बहुऋभुक्षा इति-"ऋ-लति ह्रस्वो वा" [ १. २. २. ] इति 15 ह्रस्वः, स्त्रीत्वाभावादितः कच् न भवति । हे सुपथिन् ! , हे सुपथि ! इति-"क्लीबे वा" [ २. १. ६३. ] इत्यनेन वा नस्य लोपः ।। ७६ ।। एः ॥ १. ४. ७७ ॥ पथ्यादीनां नकारान्तानामिकारस्य घुटि परे आकारो भवति । पन्थाः, पन्थानौ, पन्थानः, पन्थानम्, पन्थानौ; मन्थाः, मन्थानौ, मन्थानः, मन्थानम्,20 मन्थानौ; ऋभुक्षाः, ऋभुक्षाणौ, ऋभुक्षाणः, ऋभुक्षाणम्, ऋभुक्षाणौ; सुपन्थानि वनानि "पूजास्वतेः प्राक् टात् [७. ३. ७२.] इति समासान्तप्रतिषेधः, बहुमन्थानि कुलानि; अनुभुक्षाणि बलानि, सुपन्थानौ, परममन्थानौ। नकारान्तनिर्देशादेरभावाच्चेह न भवति-पन्थानमिच्छति क्यन् क्विप्-पथ्यौ, पथ्यः, पथ्यम् । घुटीत्येव ? सुपथी वने, पथिभ्याम् ; सुमथी25 कुले, मथिभ्याम् ।। ७७ ।। न्या० स०-एरिति । पथ्यादीनामेकारस्यासम्भवाद् ‘एः' इति इकारात् षष्ठीत्याह-इकारस्येति ।। ७७ ।। थोन्थ् ॥ १. ४. ७८ ॥ 'पथिन्, मथिन्' इत्येतयोर्नकारान्तयोस्थकारस्य स्थाने घुटि परे 'न्थ्'30 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० ७६ - ८१.] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १२६ इत्ययमादेशो भवति । तथैवोदाहृतम् । घुटीत्येव ? सुपथी, बहुपथी कुले, पथः पश्य ।। ७८ ।। न्या० स०--थो न्थिति - अनेकवर्णत्वात् सर्वस्य प्राप्तौ 'थ:' इति स्थानिविशेषार्थमृभुक्षिन्निवृत्त्यर्थं च ।। ७८ ।। इन् डी-स्वरे लुक् ॥ १. ४. ७६ ।। पथ्यादीनां नकारान्तानां ङीप्रत्यये अघुट्स्वरादौ परे 'इन्' अवयवो लुक् भवति । सुपथी स्त्री कुले वा, पथः पथा, पथे, पथ: २, पथोः २, पथाम्, पथि; एवम्-सुमथी स्त्री कुले वा, मथः, मथा; अनुभुक्षी सेना कुले वा ऋभुक्षः, ऋभुक्षा । प्रभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः ।। ७६ ।। 5 न्या० स०--इन् ङीत्यादि । घुट्स्वरादाविति ङीसाहचर्याद् प्रधुटीति विशेष 10 ज्ञेयम्, तर्हि स्यादिमन्तरेणापि प्राप्नोतीति न वाच्यम्, स्याद्यधिकाराश्रयणात् ङीग्रहणस्य वैयथ्यं प्रसङ्गाच्च, निमित्तविशेषानुपादाने घुटीत्यधिकारस्य निर्णीतत्वात् ' स्वरे' इति निमित्तविशेषोपादानाद् घुटि च पथ्यादीनामिनो विशेषविधिविषयत्वादघुट्स्वरे इत्यवसीयते । सुपथी स्त्री कुले वेति - व्युत्पत्तिपक्षे सुभ्रवादित्वात्, उरणादीनामव्युत्पन्नानि नामानीति पक्षाश्रयणाद् इन्नन्तत्वाभावादिनः कच् न भवति, समासान्तविधेरनित्यत्वाद् 15 “ऋक्पू: O [ ७. ३. ७६. ] इत्यपि न, नान्तत्वात् “स्त्रियां नृतो० " [ २.४. १. ] इति ङीः ।। ७६ ।। "" वोशनसो नश्चामन्त्र्ये सौ ॥ १.४. ८० ॥ आमन्त्र्येऽर्थे वर्तमानस्योशनस् - शब्दस्य सौ परे नकारो लुक् चान्तादेशौ वा भवतः । हे उशनन् !, हे उशन !, पक्षे हे उशनः ! | आमन्त्र्य इति 20 किम् ? उशना । साविति किम् ? हे उशनसौ ! ।। ८० ।। न्या० स० -- वोशनस इत्यादि । यदा सर्वविधिभ्यो लोपः इति न्याय प्रश्रीयते तदा से: स्थानिवद्भावेन कार्यम् ॥ ८० ॥ उतोsनडुच्चतुरो वः ।। १. ४. ८१ ।। 'अनडुह,, चतुर्' इत्येतयोरामन्त्र्येऽर्थे वर्तमानयोरुकारस्य सौ परे 'व' 25 इति सस्वरवकारादेशो भवति । हे अनड्वन् !, हे प्रियानड्वन् !, हे अति Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ८२-८३.] चत्वः !, हे प्रियचत्वः ! । आमन्त्र्य इत्येव ? अनड्वान्, प्रियचत्वाः । सावित्येव ? हे अनड्वाही ! , हे प्रियचत्वारः ।। ८१ ।। न्या० स०--उतोऽनडुच्चेत्यादि-उत्तरत्र शेष ग्रहणादामन्त्र्यसिरेवानुवर्तते, न तु विशेषनिमित्तानुपादानाद् धुटीति । सत्यपि नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्य०% इति 'हे अनडुह !' इत्यत्र गौरादिनिपातनाद् वत्वाभावः, एवमुत्तरत्रापि। चतुःशब्दस्यार्थ- 5 प्राधान्येन एकामन्त्रणासम्भवे समासे उपसर्जनीभूत एवोदाह्रियते ।। ८१ ।। वा शेषे ॥ १. ४. ८२॥ आमन्त्र्यार्थविहितात् सेरन्यो घुट इह शेषः, तस्मिन् परे 'अनडुह , चतुर्' इत्येतयोरुकारस्य 'वा' इत्याकारान्तो वकार आदेशो भवति । अनड्वान्, अनड्वाहौ, अनड्वाहः, अनड्वाहम्, अनड्वाहौ, प्रियानड्वांहि10 कुलानि; प्रियचत्वाः, प्रियचत्वारौ, प्रियचत्वारः, प्रियचत्वारम्, प्रियचत्वारौ, चत्वारि, चत्वारः । शेष इति किम् ? हे प्रियानड्वन् ! , हे प्रियचत्वः ! । घुटोत्येव ? अनडुहः पश्य, चतुरः पश्य, प्रियानडुही कुले, प्रियचतुरी कुले । इह शेषे घुटि वादेशविधानात् पूर्वत्रामन्त्र्ये साविति संबध्यते ।। ८२ ।। न्या० स०--वाः शेष इति । इह शेष इति-अत्र सूत्रे शेषस्य घुट आघ्रातत्वाद् 15 एतत्सूत्रमुक्तः प्राक्तनसूत्रविषय इति भावः ।। ८२ ।। । सख्युरितोऽशावत् ॥ १. ४. ८३ ॥ सखिशब्दस्येकारान्तस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा शिवजिते शेषे घुटि परे ऐकारोऽन्तादेशो भवति । सखायौ, सखायः, सखायम्, सखायौ, हे सखायौ !, हे सखायः !, सुसखायौ, प्रियसखायः । अशाविति किम् ? 20 अतिसखीनि, प्रियसखीनि कुलानि तिष्ठन्ति, पश्य वा। इत इति किम् ? इमे सख्यौ, सखीयतीति क्यनि क्विपि-सख्यौ, सख्यः । घुटीत्येव ? सखीन्, सख्या। शेष इत्येव ? हे सखे ! । इदमेवेद्ग्रहणं ज्ञापयति-नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् *एकदेश विकृतमनन्यवद् ' इति च ।। ८३ ।। न्या० स०–सख्युरित्यादि। ननु प्रक्रियालाघवार्थ “सख्युरितोऽशावाय्” इति25 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ८४-८५.] . श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १३१ क्रियताम्. किमेत्करणेन ? न-"अनेकवर्ण०" [ ७. ४. १०७. ] इति सकलस्यापि स्यात् । न च निदिश्यमानानां० इति इत एवायमिति वाच्यम्, यतो विभक्तिसामान्येन सखिशब्दस्य विशेष्यत्वेन इकारस्य विशेषणत्वेन च निर्दिश्यमानत्वाभावात् । अशाविति-अथ शौ सति प्रादेशादागमः इति न्यायाद् ऐत्वात् प्रथममेव नागमेन भाव्यम्, ततस्तेन व्यवधानादैकारो न भविष्यतीति, न च द्वयोरप्यन्यत्र सावकाशत्वादैकारः स्यादिति 5 वाच्यम्, कृतेऽप्यकारे “क्लीबे" [ २. ४. ६७. ] इति ह्रस्वत्वे ततो नागमे दीर्घत्वे च न कश्चिद् दोषः, नैव-प्रसिद्ध बहिरङ्गम् * इति धुनिमित्तस्यैकारस्य बहिरङ्गत्वाद् ह्रस्वत्वे कर्तव्येऽसिद्धत्वात् । ननु भवत्येवं तथापि कृताकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यत्वात् पूर्व नागम इति धुव्यवधायंको भविष्यति, नैवम् कृतेऽपि नागमे प्रकृतिभक्तत्वेनाव्यवधाय वाद् ऐकारोऽपि नित्य इति द्वयोनित्ययोः परत्वादेकार एव स्यादिति शिप्रतिषेधः ।10 अतिसखीनि पूजितः सखा येषु कुलेषु, यद्वा सखिशब्दो नपुंसकोऽपि लक्ष्येषु दृश्यते ।।८३।। दुशनस्-पुरुदंशोsनेहसश्च सेडी ॥ १. ४. ८४ ॥ ऋकारान्ताद् ‘उशनस्, पुरुदंशस्, अनेहस्' इत्येतेभ्यः सख्युरितश्च परस्य शेषस्य सेः स्थाने 'डा' इत्ययमादेशो भवति । पिता, अतिपिता, कर्ता, उशना, पुरुदंशा, अनेहा, सखा, अत्युशना, प्रियपुरुदंशा, अत्यनेहा, किंसखा,15 सुसखा, प्रियसखा । सख्युरित इत्येव ? इयं सखी, सखीयते: क्विप्-सखीः । सेरिति किम् ? उशनसौ, सखायौ । शेषस्येत्येव ? हे कर्तः !, हे उशनन् !, हे उशन ! , हे उशनः ? हे पुरुदंशः ! , हे अनेहः ! , हे सखे ! ।। ८४ ।। न्या० स०-ऋदुशनसित्यादि-ऋकारान्तस्य "अङौं च" [ १. ४. ३६. ] इत्यरि त्रयाणां “दीर्घङयाब्०" [ १. ४. ४५. ] इति सिलोपे "अभ्वादे." [ १. ४. ६०. ]20 इति दीर्घत्वे “सो रुः” [ २. १. ७२. ] इति रुत्वे च, सखिशब्दस्य तु ऐत्वे प्राप्ते डाऽऽरम्भः । हे अनेहः ! इत्यत्र “न सन्धिः " [ १. ३. ५२. ] इति सन्धिनिषेधः ।। ८४ ।। नि दीर्घः ॥ १. ४. ८५ ॥ शेषे घुटि परे यो नकारस्तस्मिन् परे पूर्वस्य स्वरस्य दीर्घो भवति । राजा, राजानौ, राजानः, राजानम्, राजानौ; सीमा, सीमानौ, सीमानः,25 सीमानम्, सीमानौ; सामानि, दामानि, लोमानि, वनानि, धनानि, दधीनि, मधूनि, कतृ णि, हत, णि । नीति किम् ? दृषद्, दृषदौ, दृषदः । *स्वरस्य ह्रस्व-दीर्घ-प्लुताः इति स्र ग्घ्नयतेः क्विप्–'स्र क्, स्र ग्, स्रग्घ्नौ, स्र ग्घ्नः' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ८६.] इत्यत्र घकारस्य दी? न भवति । घुटीत्येव ? चर्मणा, वारिणी, मधुनी। शेष इत्येव ? हे राजन् ! हे सीमन् ! ।। ८५ ।। न्या० स०–नि दीर्घ इति । राजेति-स्यादिविधौ कर्तव्ये नलोपस्यासत्त्वात् प्रथम लुक् न । सुग्घ्नयतेः क्विबिति-स्र चो हन्ति “अचित्ते टक्" [ ५. १. ८३. ] अधिकरणे तु “स्थादिभ्यः कः" [ ५. ३. ८२. ] “गम-हन०" [ ४. २. ४४. ] इत्यलुक्, “हनो 5 ह्रो घ्नः" [ २. १. ११२. ] दीर्घविधित्व द् णेः स्थानिवद्भावो न भवति, सौ “नाम्नो नोऽनह्नः" [२. १. ६१. ] इति नलोपः, ततः “पदस्य" [ २. १. ८६. ] इति घलोपः ॥८५॥ न्स्-महतोः ॥ १. ४. ८६ ॥ सन्तस्य महच्छब्दस्य च संबन्धिनः स्वरस्य शेषे घुटि परे दी?10 भवति । श्रेयान्, श्रेयांसौ, श्रेयांसः, श्रेयांसम्, श्रेयांसौ, परमश्रेयान्, अतिश्रेयान्, प्रियश्रेयान, श्रेयांसि, यशांसि, सीषि, धनंषि, प्रियपुमांसि कुलानि; महान्, महान्तौ, महान्तः, महान्तम्, महान्तौ, परममहान्, अतिमहान्, प्रियमहान्, महान्ति । महत्साहचर्याच्छुद्धधातोः क्विबन्तस्य न भवति-सुहिंसौ, सुहिंसः, सुकंसौ, सुकंसः । नामधातोस्तु भवत्येव-श्रेयस्यति महत्यतीति15 क्विपि-श्रेयान्, महान् । घुटीत्येव ? श्रेयसः, महतः पश्य; श्रेयसी महती कुले । शेष इत्येव ? हे श्रेयन् ! , हे महन् ! ।। ८६ ।। न्या० स०--न्स्-महतोरिति-अत्र औणादिको “द्रुहिवृहि०" [ उणा० ८८४. ] इत्यनेन कतृप्रत्ययान्तो व्युत्पन्नोऽव्युत्पन्नो वा महच्छब्दो ग्राह्यः, यस्तु शत्रन्तस्तस्य महन्नित्येव, न त्वनेन दोर्घः, लक्षण-प्रतिपदोक्तयो:०* इति न्यायात्, यतः शतृप्रत्य-20 यान्तं महदिति रूपं लाक्षणिक कतृप्रत्ययान्तं तु प्रतिपदोक्तम्, एतच्च वत्स-ऋषभावूचतुः । सौषोति-अत्र “न्स्-महतोः" [ १. ४. ८६. ] इत्यनेन दीर्घलक्षणे स्यादिविधौ विधातव्ये "ण-षमसत् परे०" [ २. १. ६०.] इत्यनेन षत्वमसत् । महत्साहचर्यादिति-'मह' इति शुद्धो धातुः क्विबन्तो न सम्भवति, तत्साहचर्यादन्यस्यापि शुद्धधातो: क्विबन्तस्य न भवति, नामधातुस्तु महदपि क्विबन्तः संभवति, अतोऽन्यस्यापि नामधातो: क्विबन्तस्य25 भवति, महच्छब्दस्तावन्नामत्वं न व्यभिचरति, तत्संनियोगनिर्दिष्टस्य न्सन्तस्यापि नामत्वाव्यभिचारिण एव ग्रहणम् । महती कुले इति-श्रेयसः पश्य, श्रेयसी कुले इति तु न दर्श्यते, न्सन्तत्वाभावेन द्वयङ्गविकलत्वात् ।। ८६ ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ८७-८६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १३३ इन-हन्-पूषा-यम्णः शि-स्योः ॥ १. ४. ८७ ॥ इनन्तस्य हनादीनां च सम्बन्धिनः स्वरस्य शौ शेषे सौ च परे दी? भवति । दण्डीनि, स्रग्वीणि, वाग्ग्मीनि कुलानि, दण्डी, स्रग्वी, वाग्मी; भ्र णहानि, बहुवृत्रहाणि, भ्रूणहा, वृत्रहा; बहुपूषाणि, पूषा; स्वर्यमाणि, अर्यमा । “नि दीर्घः' [१. ४. ८.] इति सिद्धे नियमार्थं वचनम्-एषां 5 शि-स्योरेव यथा स्यात्, नान्यत्र-दण्डिनौ, दण्डिनः, दण्डिनम्; वृत्रहणौ, वृत्रहणः, वृत्रहणम् ; पूषणौ, पूषणः, पूषणम् ; अर्यमणौ, अर्यमणः, अर्यमणम् । शेष इत्येव ? हे दण्डिन् !, हे वृत्रहन् ! हे पूषन् ! हे अर्यमन् ! । *अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य इति 'प्लीहानौ, प्लीहानः, प्लीहानम्' इत्यत्र नियमो न भवति, 'वाग्ग्मिनौ वाग्ग्मिनः' इत्यादौ तु अनिनस्मन्ग्रहणा-10 न्यर्थवता चानर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति इति न्यायाद् भवति ।।८७।। न्या० स०-इन्-हनित्यादि । भ्रूणहानीति-हन्निति हन्तेः क्विबन्तस्येदं ग्रहणम्, न च हन्ते: केवलस्य क्विप् दृश्यते इति तदन्तमुदाहरति । बहुपूषाणीति-पूषार्यम्णः स्वप्रधानायां वृत्तौ शेरसंभवात् तौ समासे उपसर्जनभूतावुदाहरति-एषां शि-स्योरेवेतिएषामेव शि-स्योरिति विपरीतनियमस्तु न भवति “वश्य-ज्याय०" [ ६. १. ३. ] इत्यत्र15 युवेति “पराणि काना०" [३. ३. २०.] इत्यत्र तु पराणीति निर्देशात् । वृत्रहणावितिसंज्ञायां "पूर्वपदस्था०" [२. ३. ६४.] इत्यनेन, असंज्ञायां तु "कवर्गकस्वरवति" [ २. ३. ७६. ] इति णत्वम् । तदन्तविधिमिति-ननु अनिनस्मन् ०६ इत्यत्रातोरनिर्देशात् अनर्थकेन तदन्तविधेरप्रयोगात् अर्थवद्ग्रहण न्यायात् 'क्रियान्' इत्यत्रैव दीर्घः प्राप्नोति, न गोमानित्यादौ, सत्यम्-अतुरनर्थकोऽपि तदन्तविधि प्रयोजयति, मत्वा-20 दीनामुकारानुबन्धकरणात्, अन्यथा तेषामपि शतृवद् ऋकारमेवानुबन्धं कुर्यात् ।। ८७ ।। अपः ॥ १. ४. ८८ ॥ अपः स्वरस्य शेषे घुटि परे दीर्घो भवति । आपः, शोभना आपो यत्रस्वाप्, स्वापम्, स्वापौ, स्वापः । 'बह्वपाः' इत्यत्र तु समासान्तेन व्यवधानान्न भवति । घुटीत्येव ? अपः पश्य । शेष इत्येव ? हे स्वप् ! ।। ८८ ।। 25 नि वा ॥ १. ४. ८६ ॥ अपः स्वरस्य नागमे सति घुटि परे वा दीर्घो भवति । स्वाम्पि, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] स्वम्प; अत्याम्पि, बह्वपि ।। ८६ ।। बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ६०-६१.] समासान्तविधेरनित्यत्वात् बह्वाम्पि प्रत्यम्पि; अभ्वादेरत्वसः सौ ॥ १. ४. ६० ॥ अत्वन्तस्यासन्तस्य च भ्वादिवजितस्य संबन्धिनः स्वरस्य शेषे सौ परे दीर्घो भवति । तु भवान् कृतवान्, गोमान् यवमान्, एतावान्; अस् - 5 अप्सराः, अङ्गिराः, चन्द्रमाः, स्थूलशिराः सुमनाः । प्रभ्वादेरिति किम् ? पिण्डं ग्रसते - पिण्डग्रः, चर्म वस्ते - चर्मवः । प्रर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य इत्येव सिद्धे अभ्वादेरिति वचनम् प्रनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवता चानर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति इति न्यायज्ञापनार्थम्, तेनात्रापि भवति - खरणाः, खुरणाः । अधातोरित्यकृत्वाऽभ्वादेरिति करणं भ्वादीनामेव वर्जनार्थम्, तेनेह 10 भवति - गोमन्तमिच्छति क्यन् क्विप् गोमान् एवम् - स्थूलशिराः । शेष इत्येव ? हे भवन् !, हे सुमनः ! । 'ऋतु' इति उदितकरणादृदितो न भवति - पचन्, जरन् ।। ६० ।। न्या० स० - श्रभ्वादेरित्यादि । भवानिति - नोऽन्ते सत्यपि श्रागमोऽनुपघातेन इति न्यायाद्भवत्येव दीर्घः ।। ६० ।। कुशस्तुनस्तृच् पुंसि ॥। १. ४. ६१ ॥ क्रुशः परो यस्तुन् तस्य शेषे घुटि परे तृजादेशो भवति, पुंसि - पुंलिङ्गविषये । क्रोष्टा, क्रोष्टारौ, क्रोष्टारः, क्रोष्टारम्, क्रोष्टारौ, अतिक्रोष्टा, प्रियक्रोष्टा । बहुव्रीहौ *प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति ऋदिल्लक्षणः कच् न भवति । पुंसीत्येव ? कृशक्रोष्टूनि वनानि । घुटीत्येव ? क्रोष्टून् । शेष 20 इत्येव ? हे क्रोष्टो ! । " क्रोष्टोः क्रोष्टु" इत्यकृत्वा तृज्वचनं तृस्वस्त्रादिसूत्रेणाऽऽरर्थम् ।। ६१ ।। न्या० स० - कुशस्तुन इत्यादि - तृजादेश इति - प्रदेश इत्युक्त सकलस्यापि तुनस्तृजादेशो भवति तथा चोक्तम् 15 “एकस्यावयवस्य यो भवति स प्रोक्तो विकारो बुधैरादेशस्त्वसभूरिव प्रकटितः सर्वोपमर्दात्मकः " ॥ 25 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ६२-६३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रथमोऽध्यायः [ १३५ पुल्लिङ्गविषये इति समासेऽपि यदि पुल्लिङ्गविषय एव, तेन प्रियः क्रोष्टा यस्याः, यस्य वा कुलस्येत्यत्र न भवत्येव आदेशः, अत एव व्यावृत्तिः क्लीबविषये दर्शिता । कोष्टोरिति-"क्रोष्टो: क्रोष्ट पुसि” इति दृश्यम् ।। ६१ ।। टादौ स्वरे वा ॥ १. ४. ६२ ॥ टादौ स्वरादौ परे क्रुश: परस्य तुनस्तृजादेशो वा भवति, पुंसि । 5 क्रोष्ट्रा, क्रोष्टुना; क्रोष्ट्र, क्रोष्टवे; क्रोष्टुः, क्रोष्टोः; क्रोष्ट्रोः, क्रोष्ट्वोः, क्रोष्टरि, क्रोष्टौ। 'क्रोष्टूनाम्' इत्यत्र तु नित्यत्वात् पूर्वं नामादेशे स्वराभावान्न भवति । टादाविति किम् ? क्रोष्ट्रन् । क्रोष्ट नित्यपीति कश्चित् । स्वर इति किम् ? क्रोष्टभ्याम्, क्रोष्टुभिः । पुंसीत्येव ? कृशक्रोष्टुने वनाय । यद्यपि तृप्रत्ययान्तो मृगवाची स्यात्, तथापि प्रयोगनियमो दुर्विज्ञान इत्यादेश-10 वचनम् ।। ६२ ।। न्या० स०-टादावित्यादि। नित्यत्वादिति- *कृताकृतप्रसङ्गि न्यायेनेति । 'क्रोष्ट्र न्' इत्यपि कश्चिः । तन्मतसङ ग्रहार्थं टाया आदिष्टादिरिति व्याख्यानं कर्तव्यम् । मृगवाचीति-मृगशब्दस्यारण्यपशुवाचित्वेऽपि शृगाल एवार्थेऽत्र वृत्तिई श्या। दुर्विज्ञान इति-ननु यदा ऋदन्तेन प्रयोजनं तदा तृचि, यदा तु उदन्तेन तदा तुनि साध्यसिद्धिर्भ-15 विष्यति, किं तृजादेशविधानेन ? सत्यम् 'शेषे घुटि पुसि च नित्यम्, 'टादौ स्वरे वा' इत्येतस्माद् विषयादन्यत्रापि तृप्रत्ययः स्य त्, स्थिते तु यत्र तुनस्तृजादेशस्तत्रैव मृगवाचित्वम्, तृचि प्रत्यये तु क्रियाशब्दत्वमिति नियमसिद्धिः । तथापि प्रयोगनियम इतिअथ परो ब्रते-'क्रोष्ट्रा, क्रोष्ट्र, क्रोष्टु:, क्रोष्टुः, क्रोष्ट्रोः, क्रोष्ट्रोः' इत्याद्यर्थ तृच पानेष्यते, न च वक्तव्यम् तृचप्रत्ययान्तस्य संज्ञित्वं न प्रतीयते, भीरु-रमणीत्यादिवत् प्रतीयते एव, 'क्रोष्टुना, क्रोष्टवे' इत्यर्थं तुन् विधायिष्यते एव, अतो निरर्थक सूत्रमिदम्, न-यद्यपि20 तृप्रत्ययान्तस्यापि मृगवाचित्वमुन्मज्जति तथापि प्रयोगनियमो दुर्घटः, सूत्रं विना न ज्ञायते-कस्मिन् विषये तुन्, कस्मिन् विषये तृच्, यदा व्यञ्जनादावपि तृच् स्यात् तथा चानिष्टानि रूपाणि स्युः-'क्रोष्टभ्याम्, क्रोष्ट्रभिः; क्रोष्टषु' इति, इष्टानि तु तुन्नन्तान्येव व्यञ्जनादौ, कृते सूत्रे मृगे वाच्ये टादौ स्वर एव तृः, पूर्वेण घुटयेव तृः, अन्यत्र तुन्ने व, क्रियाशब्दस्य तु सर्वत्रास्त्येव तृच् । तथापीति-तुन्नन्तो मृगवाच्येव तृच्प्रत्ययान्तस्तु कस्मिन्25 विषये मृगवाचीति न ज्ञायते, तुनः स्थानप्रवृत्तेन तु तृचा ज्ञाप्यते यत्र घुटि टादौ स्वरादौ च तृच् तत्रैव मृगवाचित्वम्, तेन मृगे वाच्ये क्रोष्टभ्यामित्यादि न भवतीति नियमसिद्धिः ।। ६२ ।। स्त्रियाम् ॥ १. ४. ६३ ॥ घुटीति न संबध्यते "क्रुशस्तुनस्तृच् पुंसि स्त्रियां च" इत्येकयोगा-30 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते करणात्, स्त्रियां वर्तमानस्य कुशः परस्य तुनस्तृजादेशो भवति, निर्निमित्त एव । क्रोष्ट्री, अत्र प्रागेव तृजादेशे ऋदन्तत्वाद् ङीः; क्रोष्ट्रयौ, क्रोष्ट्रय:, क्रोष्ट्रीम्, क्रोष्ट्रया, क्रोष्ट्रीभ्याम्, हे क्रोष्ट्रि ! । पञ्चभिः क्रोष्ट्रीभिः क्रीतरिति विगृह्य " मूल्यै: क्रीते" [६. ४. १५० ] इतीकरण, तस्य " अनाम्न्यद्विः प्लुप्” [६. ४. १४१.] इति लुपि “ङयादेगौणस्या०' [२. ४. ६५.] 5 इत्यादिना ङीनिवृत्तौ पञ्च क्रोष्टुभी रथैः अत्र निर्निमित्तत्वादादेशस्य ङीनिवृत्तावपि निवृत्तिर्न भवति, अत एव च “क्यङ्भानिपित्तद्धिते” [ ३. २. ५०. ] इति पुंवद्भावो न भवति, पुंवद्भावेनापि हि प्रदेश एव निवर्तनीयः, स च निमित्तत्वाश्रयणेन ङीनिवृत्तावपि निवर्तते एव ।। ६३ ।। १३६ ] [पा० ४. सू० १३.] इत्याचार्य हेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः ।। ४ ।। ग्रन्थाग्र० ५७३ ।। सोत्कण्ठमङ्गलगनैः कचकर्षणैश्च, वक्त्राब्जचुम्बननखक्षतकर्मभिश्च । संख्येऽपि खेऽपि च शिवाश्च सुरस्त्रियश्च ॥ १ ॥ श्रीमूलराजहत भूपतिभिर्विलेसुः, प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ॥ 10 15 समाप्तोऽयं बृहद्वृत्तौ प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।। न्या० स० -- स्त्रियामिति - "स्त्रियां च" इत्येकयोगेऽपि "स्त्रियां च" इत्यसमस्तनिर्देशस्येदं फलम् - यत् 'स्त्रियाम्' इत्युत्तरसूत्रे याति, अन्यथा “पु स्त्रियोः" इत्येव कुर्यात् । निर्निमित्त एवेति - ननु निमित्तत्वाश्रयणे ऋकारान्तत्वाभावात् क्रोष्टुशब्दस्य कथं ङी: स्यात् ? सत्यम् - गौरादौ पाठात् ङीः स्यादेवेति ङीसिद्धिः परं निमित्त - 20 व्याख्यायां “स्त्रियां ङयाम्" इति सूत्रं कुर्यात् ।। ६३ ।। इति प्रथमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः ।। ४ ।। इति प्रथमाध्यायः समाप्तः ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यायः अथ प्रथमः पादः त्रि- चतुरस्तिसृ- चतसृ स्यादौ ॥ २.१.१ ॥ स्त्रियामित्यनुवर्तते, 'त्रि चतुर्' इत्येतयोः स्त्रीलिङ्ग े वर्तमानयोस्तत्संबन्धिन्यन्यसंबन्धिनि वा स्यादौ विभक्तौ 'तिसृ चतसृ' इत्येतावादेशौ यथासंख्यं 5 भवतः । तिस्रस्तिष्ठन्ति, तिस्रः पश्य चतस्रस्तिष्ठन्ति, चतस्रः पश्य ; तिसृभिः, चतसृभिः; तिसृभ्यः, चतसृभ्यः; तिसृणाम्, चतसृणाम्; तिसृषु, चतसृषु । प्रियास्तिस्रोऽस्येति प्रियतिसा पुरुषः, प्रियतिस्रौ, प्रियतिस्रः ; एवम् - प्रियचतसा, प्रियचतस्रौ, प्रियचतस्रः; प्रियास्तिस्रोऽस्य कुलस्य प्रियतिसृ कुलम्, प्रियतिसृणी, प्रियतिसृणि; एवम् - प्रियचतसृणी, प्रियचतसृ. णि; 10 एषु विभक्त्याश्रयत्वेन बहिरङ्गलक्षणस्य तिसृ- चतस्रादेशस्यासिद्धत्वात् समासान्तः कज् न भवति, परत्वाच्च तिस्रादेशे कृते पश्चान्नागमः । स्यादाविति किम् ? प्रियत्रिकः, प्रियचतुष्कः, तिसृणां प्रियस्त्रिप्रियः, चतुष्प्रियः प्रियत्रि कुलम्, प्रियचतुष्कुलम् । कथं तर्हि प्रियतिसृ कुलम् ? "नामिनो लुग् वा” [१. ४. ६१.] इति लुकि सति स्थानिवद्भावाद् भविष्यति, यथा - हे त्रपो ! 115 स्त्रियामित्येव-त्रयः, चत्वारः; त्रीणि, चत्वारि ; प्रियास्त्रयः त्रीणि वा यस्याः सा प्रियत्रिः, प्रियत्री, प्रियत्रयः; एवम् - प्रियचत्वाः, प्रियचत्वारौ, प्रियचत्वारः; अत्र त्रिचतुरावस्त्रियाम् समास एव तु स्त्रियामित्यादेशौ न भवतः । कथं तिसृका नाम ग्रामः ? संज्ञाशब्दोऽयम् ।। १ ।। न्या० स०--- -- त्रि- चतुर इति । स्त्रियामित्यनुवर्तत इति - पूर्वसूत्रादिति शेषः, तच्च 20 श्रुतत्वात् 'त्रि- चतुरः' इत्यस्यैव विशेषणम् । 'तिस्रः' इत्यादौ विधानसामर्थ्यान्न षत्वम् । परत्वादिति - ननु कृताकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यत्वात् प्रादेशादागमः इति च न्यायात् पूर्वं नागम एव प्राप्नोति नैवम् - शब्दान्तरप्राप्त्या नागमोऽप्यनित्य:, यद्वा परत्वादिति Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २.] कोऽर्थः ? प्रकृष्टत्वादित्यर्थः, प्रकृष्टत्वं च *मागमात् सर्वादेश: इति न्यायात्; । किञ्च, "ऋतो र: स्वरेऽनि" [२. १. २.] इत्यत्रानीति वचनमनर्थकं स्यात, स्वरादौ पूर्वं नकारे तिस्राद्यादेशाभावाद् रत्वप्रसङ्ग एव नास्तीति अनीति वचनात पूर्व नागमादेस्तिस्राद्यादेश इति प्रियतिस कुलमिति । "नामिनो लुग् वा” [ १. ४. ६१. ] इत्यत्र चतुर्शब्दस्यापि लुगविकल्पमिच्छन्त्येके, तन्मते-प्रियचतसृ कुलम्, प्रियचतुर्वा 5 कुलमिति। प्रियत्रिरित्यादि-स्त्रीलिङ्गविवक्षायामपि समासाद् ङीप्रत्यये प्रियव्येव, "शेषाद् वा" [ ८. ३. १७५. ] इति कचि प्रियत्रिकैव, आदेशो न भवति, प्रथमं ङीप्रत्यये पश्चाद् बहुव्रीहिसमासे "ऋन्नित्यदितः" [७. ३. १७१. ] इति कचेव, यदा तु केवलात् त्रिशब्दाद् ङीस्तदा तू एकदेशविकृतत्वेनादेशो भवति । कथं तिसका नामेति-त्रिशब्दात् संज्ञायां के प्रापि बहुवचने च स्यादेर्व्यवधानात् कथं तिसृभाव इति प्रष्टुः संशयः ।10 समाधत्ते-स्त्रीलिङ्गो बहुवचनविषयः संज्ञाशब्दोऽयमिति-तस्यन्ति परबलान्यासु "निष्कतुरुष्क०" [ उणा० २६. ] इति निपात्यते ॥ १ ॥ तो : स्वरेशनि ॥ २. १. २॥ तिसृ-चतसृसम्बन्धिन ऋकारस्य स्थाने तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा स्वरादौ स्यादौ परतो रादेशो भवति, अनि-नकारविषयादन्यत्र; समान-15 दीर्घत्वा-ऽर्द्धरामपवादः । तिस्रः, चतस्रस्तिष्ठन्ति पश्य वा; प्रियतिस्रो, प्रियचतस्रौ; प्रियतिस्रम्, प्रियचतस्रम्; प्रियतिस्रः प्रियचतस्र आगतं स्वं वा; प्रियतिसि प्रियचतस्रि निधेहि । स्वर इति किम् ? तिसृभिः, चतसृभिः । अनीति किम् ? प्रियतिसृणी, प्रियचतसृणी; प्रियतिसृ.णि, प्रियचतसृ.णि; तिसृणाम्, चतसृणाम् । ऋत इति तिसृ-चतस्रोः प्रतिपत्त्यर्थम्, इतरथा हि20 तदपवादस्त्रिचतुरोरेवायमादेशो विज्ञायेत । अन्ये तूपसर्जनयोस्तिसृ-चतसृशब्दयोडौं घुटि चानि स्वरादौ रत्वविकल्पमिच्छन्ति, तन्मते-प्रियति त्रि प्रियतिसरि; प्रियचतस्रि, प्रियचतसरि; प्रियतिस्रौ, प्रियतिसरौ; प्रियचतस्रौ, प्रियचतसरौ; प्रियतिस्रः, प्रियतिसरः; प्रियचतस्रः, प्रियचतसरः; प्रियतिस्रम्, प्रियतिसरम्; प्रियचतस्रम्, प्रियचतसरम्; प्रधानस्य तु नित्यमेव 25 रत्वम्-तिस्रः, परमतिस्रः; चतस्रः, परमचतस्रः । अपरे त्वनि स्वरे सर्वत्र विकल्पं जश्-शसोस्तु नित्यं मन्यन्ते, तन्मते-प्रियतिस्रो, प्रियतिसरौ; प्रियचतस्रौ, प्रियचतसरौ; प्रियतिस्रः, प्रियतिसुः, प्रियचतस्रः, प्रियचतसुः आगतं स्वं वा, इत्यादि । जस्-शसोस्तु-तिस्रः, चतस्रः, परमतिस्रः, परमचतस्रः, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १ सू० ३. ] प्रियतिस्रः, प्रियचतस्रस्तिष्ठन्ति पश्य वेति नित्यमेव रत्वम् ।। २ ॥ न्या० स० - - ऋतो र इत्यादि । अनीति नकारः प्रत्ययरूप आगमरूपो वा । समानदीर्घत्वेति- "शसोडता ० " [ १. ४. ४६ ] इति ङौं च" [ १.४. ३६ ] इति " ऋतो डुर्” [ १. ४. ३७. ] इति प्राप्तानाम् । तदपवाद इति व्यञ्जनादौ स्यादौ पूर्वयोगः सावकाश:, स्वरादौ तु प्रयमेव स्यात् । अन्ये तु इति शाकटायनादयः । अपरे तु इति - 5 विश्रान्तविद्याधरादयः ।। २ ।। श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १३६ जराया जरस् वा ।। २. १. ३ ।। जराशब्दस्य स्वसम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा स्वरादौ स्यादौ परतो 'जरस्' इत्ययमादेशो वा भवति । जरसौ, जरसः, जरसम्, जरसौ, जरसः, जरसा, जरसे, जरसः, जरसः, जरसोः, जरसाम्, जरसि, जरसोः; पक्षे - 10 जरे, जराः, जराम्, जरे, जरा:; जरया, जरायै, जरायाः २, जरयोः २, जराणाम्, जरायाम्; एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् अतिजरसौ, अतिजरौ २; अतिजरसः, अतिजराः; अतिजरसम्, अतिजरम् ; अतिजरसः, अतिजरान्; अतिजरसा, अतिजरेण; अतिजरसैः, अतिजरैः; अतिजरसे, अतिजराय; अतिजरसः, अतिजरात्; अतिजरसः, अतिजरस्य; अतिजरसोः,15 प्रतिजरयोः २ प्रतिजरसाम्, प्रतिजराणाम्; अतिजरसि, अतिजरे; नपुंसके स्यमोरम्भावे- अतिजरसम्, अतिजरम्, “जरसो वा " [१. ४. ६०.] इति लुपि - प्रतिजर: ; अतिजरसी, प्रतिजरे तिष्ठतः पश्य वा; शौ परत्वाज्जरसादेशस्ततो नाऽऽगमः - अतिजरांसि, अतिजराणि तिष्ठन्ति पश्य वा । स्त्रियां तु विभक्त रापा व्यवधानान्न भवति । स्वर इत्येव - जरा, जराभ्याम्,20 जराभिः । स्यादावित्येव - जराग्रम्, जार:, जारेयः ।। ३ ।। न्या० स० -- जराया इत्यादि । 'जरसा, कुण्डानि' इत्यत्र द्वयोः सावकाशत्वात् परत्वाज्जरसादेश एवेत्याह- शौ परत्वादिति । ननु पूर्वमपि नागमे कृते सनागमस्यादेशे पुनधु' डन्तलक्षणनागमे च रूपस्य सिद्धत्वात् किं परत्वचिन्तयेति ? उच्यते यदि पूर्वं नागमः स्यात् स च पूर्वभक्तः प्रकृतिमेवानन्यवद्विदध्यात्, अवयवस्य तु जरशब्दस्य विभक्तौ 25 जरसादेशो विधीयमानो न प्राप्नोति; श्रथवा पूर्वं नागमस्ततः प्रागमोऽनुपघाती इत्यनेन न्यायेन जरसादेशे कृते सकारात् परस्य नागमस्य श्रवणं स्यात्, यथा- 'प्रतिजरस्न्' इति तस्मात् परत्वाज्जरसादेश इति । स्त्रियां त्विति - 'अतिजरया' इत्यत्र हि Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४-५.] अतिजरशब्दात् प्रवृत्तेनाप्प्रत्ययेन जराशब्दो व्यवधीयते । जारः, जारेयः, जराया अयम् "तस्येदम्" [ ६. ३. १०४. ] इत्यण , जराया अपत्यम् “द्विस्वरादनद्या०" [ ६. १.७१.] इति एयण ।। ३॥ अपोऽद्भे ॥ २. १. ४ ॥ 'अप्' इत्येतस्य स्वसम्बधिन्यन्यसम्बन्धिनि वा भकारादौ स्यादौ परतः 5 'अद्' इत्ययमादेशो भवति । अद्भिः, अद्भयः, स्वद्भयाम्, अत्यद्भयाम् । भ इति किम् ? आपस्तिष्ठन्ति, अपः पश्य, अपाम्, अप्सु । स्यादावित्येवअब्भक्षः ॥ ४ ॥ न्या० स०-अपोऽद् मे इति । स्वद्भ्याम्-शोभना अतिशयिता वा आपो ययोरिति विग्रहे 'प्रजास्वतः प्राकटात" [७.३.७२. ] इति समासान्तप्रतिषेधे भ्यामि10 सत्यपि तदन्तग्रहणे निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति इत्यप एवादेशः । अब्भक्ष इति"शीलि-कामि०" [ ६. १. ७३. ] इति णः ।। ४ ।। आ रायो व्य ञ्जने ॥ २. १. ५ ॥ स्वसम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा व्यञ्जनादौ स्यादौ परे रैशब्दस्याऽऽकारोऽन्तादेशो भवति । राः, हे राः !, अतिराः, राभ्याम् ३, राभिः,15 राभ्यः ३, रासु; एकदेशविकृतस्यानन्यत्वाद् अतिराभ्यां कुलाभ्याम्, अतिरासु कुलेषु । व्यञ्जन इति किम् ? रायौ, रायः । स्यादावित्येवरैसूत्रम्, रैभयम् । स्भीत्येव सिद्धे व्यञ्जनग्रहणमुत्तरार्थम् ।। ५ ।। न्या० स०--आ रायो इत्यादि। आकारस्यैकवर्णत्वात् “षष्ठ्या अन्त्यस्य" [ ७. ४. १०६. ] इति रैशब्दान्तस्यैव भवति । स्भीत्येव सिद्ध इति-आमि तु रायमति-20 क्रान्तानि यानि तेषां "क्लीबे" [ २. ४. ६७. ] इत्यनेन ह्रस्वत्वे सति * सन्निपातलक्षण०% इत्यादिन्यायाद् इकाररूपं ह्रस्वमाश्रित्य समुत्पन्नो नाम् तद्विघाताय नोत्सहते, तहि "दी? नामि०" [ १. ४. ४७. ] इत्यादिना दीर्घोऽपि न प्राप्नोति, सत्यम्-तदा अनित्यत्वादस्य न्यायस्य भवत्येव दीर्घः, यतो न्याया हि स्थविरयष्टिन्यायेन प्रवर्तन्ते । उत्तरार्थमिति-यद्येवं तत्रैव क्रियताम्, किमत्रानेन सन्देहास्पदेन ? नैवम्-केचित् 25 सन्निपात०% न्यायमनित्यमाश्रित्य 'अतिराणाम्' इत्याकारमपीच्छन्ति, तन्मतसंग्रहार्थं व्यवनग्रहणमिहार्थमपि, तेन स्वमतेऽपि सम्मतम् ।। ५ ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ६-७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १४१ युष्मदस्मदोः ॥ २. १.६ ॥ 'युष्मद् अस्मद्' इत्येतयोः शब्दयोः स्वसम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा व्यञ्जनादौ स्यादौ परे आकारोऽन्तादेशो भवति । त्वाम् माम्; अतित्वाम्, प्रतिमाम्; युवाम्, आवाम् अतियुवाम्, अत्यावाम्; युष्मान् अस्मान्; प्रतियुष्मान्, प्रत्यस्मान्; युवाभ्याम्, प्रावाभ्याम् ; अतियुवाभ्याम्, अत्या - 5 वाभ्याम्; युष्माभिः अस्माभिः ; अतियुष्माभिः प्रत्यस्माभिः युष्मासु, अस्मासु प्रतियुष्मासु, प्रत्यस्मासु । युष्मयतेरस्मयतेश्च क्विप् - युष्म्, अस्म्; अनयोरमौभ्यांसु परत्वात् त्व-माद्यादेशे कृते पश्चादात्वम्-त्वाम्, माम्; युवाम्, आवाम्; युवाभ्याम् आवाभ्याम् । व्यञ्जन इत्येव - युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम् ।। ६ ॥ 10 न्या० स०- - युष्मदस्मदोरिति प्रत्राविवक्षितार्थयोर्युष्मदस्मदोरेतावनुकरणे इति त्यदादिकार्यमेकशेषः “टाड्योसि ० " [ २. १.७ ] इत्यनेन युष्मदस्मदादिकार्यं च यत्वादि न प्रवर्तते । अतित्वामिति नामाधिकारात् तदन्तप्रतिपत्तौ तदन्तमुदाहरति । युष्मयतेरित्यादि - युवां युष्मान् वेति विधेयम्, न तु त्वां मामिति रिणचि सति त्व-मौ स्याताम् । अमौभ्यांस्विति श्रयमर्थः - द्वयोरन्यत्र सावकाशत्वात् शब्दान्तरप्राप्त्या चानित्यत्वात् पर- 15 त्वात् पूर्वं त्वमाद्यादेश इति प्रथममात्वे तु सति मन्तत्वाभावात् त्व-मादयो न स्युः, रिणज्वाक्यावस्थायां यद् बहुवचनं तत् क्विब्वृत्तौ गौणं बभूवेति त्वमौ भवतः । व्यञ्जन इत्येवेति - ननु व्यञ्जनग्रहणं विनापि 'युष्मभ्यम्' इत्यादयः प्रयोगा प्रनेनात्वे कृते "लुगातोनापः " २. १. १०७. ] इत्याकारलोपे सिध्यन्ति, किं व्यञ्जनाधिकारेण ? सत्यम् - सूत्रस्य व्यक्त्या प्रवर्तनाद् प्रत्वे कृते लुबादिकं न प्रवर्तत इति व्यञ्जनग्रहरणम्, तथा 20 व्यञ्जनाभावे 'युष्माकम्, युषाकम्, इत्यादावनेन सूत्रेण प्रकार एव स्यात्, न तु "मोर्वा " [ २. १. ६ ] इति मकारलोपः । युष्मभ्यमिति - ननु " लुगस्य ० " [ २. १. ११३. ] इत्यल्लोपे “मोर्वा" [ २.१.६. ] कथं न ? उच्यते - स्वरस्य स्थानिवत्त्वात्, तर्हि युस्म्शब्दाद् भ्यसोऽभ्यमादेशे लुग् न प्राप्नोति ? नैवम् प्रत्त्यासत्त्या यस्मिन् प्रत्यये लुग् भवति तस्मिन्नव प्रत्यये पूर्वस्य यदि कार्यं भवति तदा स्थानिवत्त्वम् अत्र तु प्रत्ययान्तरे लुक्,25 अतः स्थानिवत्त्वाभावः, “मोर्वा " [ २. १. ६ ] इति सूत्रस्थानवकाशत्वाद् वा स्थानि वत्त्वाभावः ।। ६ ॥ टाड्योसि यः ॥ २.१.७ ॥ 'युष्मद् अस्मद्' इत्येतयोः स्वसम्बन्धिष्वन्यसम्बन्धिषु वा 'टा डि प्रोस्' Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ८. ] ; इत्येतेषु स्यादिषु परेषु यकारोऽन्तादेशो भवति । (टा - ) त्वया, मया; अतित्वया, अतिमया; प्रतियुवया, प्रत्यावया; प्रतियुष्मया, प्रत्यस्मया (ङि - ) त्वयि मयि ; अतित्वयि अतिमयि प्रिययुवयि, प्रियावयि प्रिययुष्मयि, प्रियास्मयि; ( प्रोस् - ) युवयोः, प्रावयोः प्रतियुवयोः प्रत्यावयोः; अतित्वयोः, प्रतिमयोः ; प्रतियुष्मयोः प्रत्यस्मयोः । टाङयोसीति किम् ? 5 त्वत्, मत् । लुगपवादौ योगौ ।। ७ ।। १४२ ] न्या० स० - टाङचो० इत्यादि - प्रोव प्रोव - प्रोसौ “स्यादावसंख्येयः " [ ३. १. ११. ] इत्येकशेषः, ततः टाश्च ङिश्व प्रोसौ च इति कार्य्यम्, तेन षष्ठी - सप्तम्योरपि ग्रहः, अन्यथा ङिना साहचर्यात् सप्तम्या एव प्रोसो ग्रहणं स्यात् । नन्वत्र प्रस्ग्रहणाभावेऽपि "शेषे लुक्” [ २. १.८ ] इति दलोपे “एद बहुस्भोसि" [ १.४.४ ] इत्यनेन 10 एत्वे "एदैतोऽयाय् " [ १. २. २३. ] इत्ययादेशे च 'अतियुवयोः' इत्यादि सिध्यति, सत्यम् — रिणच्यन्त्यस्वरादिलोपे युवा ऽवादेशे " शेषे लुक् " [ २. १. ८. ] इत्यकारलोपे अकारस्याभावाद् ‘युव्योः" इत्यादौ यत्वं न सिध्यतीति श्रस्ग्रहणम् ।। ७ ॥ शेषे लुक् ॥ २.१.८ ॥ , यस्मिन् प्रत्यये प्रात्व-यकारौ विहितौ ततोऽन्यः शेषः तस्मिन् स्यादी 15 परे युष्मदस्मदोरन्तस्य लुग् भवति । युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम्; प्रतियुष्मभ्यम्, अत्यस्मभ्यम्; त्वद्, मद्; अतित्वद्, अतिमद्; युष्मद्, अस्मद् ; प्रतियुष्मद्, अत्यस्मद्; युष्माकम्, अस्माकम् ; अतियुष्माकम् प्रत्यस्माकम् । “अलिङ्ग युष्मदस्मदी " इति अन्तलोपे स्त्रियामाप् न भवति । शेष इति किम् ? त्वयि, मयि ॥ ८ ॥ 20 न्या० स०-- - शेषे इत्यादि-शेषग्रहरणाभावे टाङयोसीत्यधिकार आगच्छेत् न च वाच्यम् - टाङोसीत्यधिकारो यद्यभिप्रेतः स्यात् तदा "टाङयोसि य-लुकौ" इत्येकमेव कुर्यात् यतो 'लुग्' इति उत्तरार्थं पृथक्करणं कर्त्तव्यमेव, अन्यथा “टाङ योसि य-लुकौ" इत्यधिकारोऽग्रे तनेऽपि सूत्रे गच्छेदित्याशङ्कायां शेषग्रहणम् । स्त्रियामाप् न भविष्यतीतिकेवलयोर्यु'ष्मदस्मदोः "नन्ता सङ्ख्या ० ' [ लि० परलि० ४ ] इति लक्षणेनालिङ्गत्व - 25 भरणनात् । अथ बहुव्रीहौ तत्पुरुषे च अन्यपदार्थादिप्रधानत्वेन युष्मदस्मदन्तस्य स्त्रीत्वे आप् कथं न भवति ? उच्यते - सन्निपात० लक्षरणन्यायाद् दलोपोऽभ्यमः सन्निधानव्यवधानेन निमित्तम्, तर्हि 'युष्मभ्यम्' इत्यादिषु केवलेष्वपि अत एव न्यायाद् आप् न " Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १४३ भविष्यति, किं लिङ्गानुशासने तयोर्वर्जनेन ? सत्यम्-न्यायानां स्थविरयष्टि०* न्यायेन प्रवृत्तेविश्वासः कर्तुमशक्यः ।।८।। मोर्वा ॥२. १. ६॥ 'युष्मद् अस्मद्' इत्येतयोर्मकारान्तयोः स्वसम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा शेषे स्यादौ परे मकारस्य लुग् वा भवति । युवां युष्मान् वा आवामस्मान् 5 वाऽऽचष्टे-णिचि क्विपि तल्लुकि च-'युष्म्, अस्म्' इति मान्तत्वम् । युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम्; युषभ्यम्, असभ्यम्; युष्मद्, युषद्; अस्मद्, असद्; युष्माकम्, युषाकम्; अस्माकम्, असाकम् । शेष इत्येव-युषान्, असान्; युषाभिः, असाभिः; युषासु, असासु; एषु पूर्वेण मकारस्याऽऽत्वम् । टाङयोसि नित्यत्वात् त्व-मादिकार्येभ्यः प्रथममेव पूर्वेण मकारस्य यत्वे-युष्या, अस्या; 10 युष्यि, अस्यि; युष्योः, अस्योः । अथ शब्दान्तरप्राप्त्या यत्वमप्यनित्यमित्याश्रीयते तदा परत्वात् पूर्वं त्व-माद्यादेशे अकारस्य यत्वे-व्या, म्या; व्यि, म्यि; युव्योः, आव्योः । अथ सकृद्गते स्पर्द्ध यद्बाधितं तद्बाधितमेव इत्याश्रीयते तदा यत्वाभावे-त्वेन, मेन; युवयोः, आवयोः; त्वे, मे; अत्रासर्वादिसम्बन्धित्वाद् : स्मिन्नादेशो न भवति; अथ क्विबर्थं प्रकृतिरेवाह*15 इति सर्वादिसम्बन्धित्वं तदा भवत्येव स्मिन्नादेशः; सि-जस्-डे-डस्प्रत्ययेषु तु परत्वात् त्वमहमादय एव आदेशा भवन्ति-त्वम्, अहम् ; यूयम्, वयम् ; तुभ्यम्, मह्यम्; तव, मम । एके तु मन्तयोर्युष्मदस्मदोरादेशान् नेच्छन्ति ।। ४ ।। न्या० स०--मोर्वेति । ननु 'युवामाचष्टे' इति वाक्ये णिचि क्विपि स्यादौ20 युवादेशः कथं न भवति ? सत्यम्-यदा युष्मदस्मदी द्वित्वे तदा स्यादिर्न, यदा तु स्यादिस्तदा न द्वित्वे इति न युवादेशः । शब्दान्तरेति-प्राग् मकारस्य पश्चाद् अकारस्य यप्राप्तिः, अथवा पूर्वं युष्मिति प्रकृतेः पश्चात् त्वेति प्रकृतेः । अत्रासर्वादिसम्बन्धित्वादिति-युष्मदस्मदी त्वमहंवाचके सर्वादिगणमध्ये दृश्येते, अत्र तु त्वां मां वक्ति यस्तद्वाचके इति न सर्वादिनी। अथ क्विबर्थमिति-क्विबन्तयोयुष्मदस्मदोर्योऽर्थस्तमर्थं क्विप्सहिता युष्म-25 दस्मद्रूपा प्रकृतिरेवाह, नहि प्रकृति विना क्विप् भवति । स्मिन्नादेश इति-तेन त्वस्मिन्, मस्मिन्, सन्निपात०* न्यायस्याऽनित्यत्वे-स्वास्मिन्, मास्मिन्, इत्यपि। सि-जसितिएतेन प्रक्रियागौरवं निरस्तं भवति, अन्यथा अनेन मकारलोपेऽपि सिप्रत्ययादिना सह त्वमहमाद्यादेशे सर्वेऽपि प्रयोगाः सिध्यन्ति ।। ६ ।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १०.] मन्तस्य युवा-ssवी द्वयोः॥२. १. १० ॥ द्वित्वविशिष्टेऽर्थे वर्तमानयोर्युष्मदस्मदोर्मन्तस्य मकारावसानस्यावयवस्य तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिनि वा स्यादौ परे यथासंख्यं 'युव प्राव' इत्येताबादेशौ भवतः । युवाम्, आवाम् २; युवाभ्याम्, आवाभ्याम् ३; युवयोः, आवयोः २; अतिक्रान्तौ युवाम् आवां वा-अतियुवाम्, अत्यावाम्; अतिक्रान्तं युवाम् 5 आवां वा-अतियुवाम् अत्यावां पश्य; अतिक्रान्तौ युवामावां वा-अतियुवाम्, अत्यावां पश्य; एवम्-अतियुवान्, अत्यावान्; अतियुवया, अत्यावया; अतियुवाभ्याम्, अत्यावाभ्याम् ; अतियुवाभिः, अत्यावाभिः; अतियुवाभ्याम्, अत्यावाभ्याम् ; अतियुवत्, अत्यावत्; अतियुवाभ्याम्. अत्यावाभ्यामागतम् ; देहि अतियुवत्, अत्यावत्; अतियुवयोः. अत्यावयोः स्वम् ; अतियुवाकम्,10 अत्यावाकम् ; अतियुवयि, अत्यावयि; अतियुवयोः, अत्यावयोः; अतियुवासु, अत्यावासु; 'सि जस् ङे ङस्' इत्येतेषु पुनः परत्वात् त्वमहमादयः । मन्तस्येति किम् ? मकारावधेर्यथा स्यात्, न तु सर्वस्य, तेन 'युवकाभ्याम्, आवकाभ्याम्' इत्यत्राश्रुतिः, 'युवयोः, आवयोः' इत्यत्र तु दकारस्य यत्वं सिद्धम्, अन्यथा 'युव्योः, आव्योः' इत्यनिष्टं स्यात् । द्वयोरिति किम् ? 15 युष्मान्, अस्मान्; युष्माभिः, अस्माभिः; युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम्; युष्मत्, अस्मत्; युष्माकम्, अस्माकम् ; युष्मासु, अस्मासु । द्वयोरिति युष्मदस्मद्विशेषणं किम् ? युष्मानस्मानतिक्रान्तौ-अतियुष्माम्, अत्यस्माम् २; अतियुष्माभ्याम्, अत्यस्माभ्याम् ३; अतियुष्मयोः, अत्यस्मयोः २; अत्र समास एव द्वित्वविशिष्टेऽर्थे वर्तते न युष्मदस्मदी इति युवावादेशौ न भवतः । स्यादावित्येव-20 युवयोः पुत्रः-युष्मत्पुत्रः, आवयोः पुत्रः-अस्मत्पुत्रः; युवयोरिदं-युष्मदीयम्, आवयोरिदम्-अस्मदीयम् ।। १० ॥ न्या० स०-मन्तस्येत्यादि। द्वित्वेति वृत्त्यंश:-द्वयोरित्यनेन द्रव्यप्रधानत्वात् सामान्यवाचिनापि युष्मदस्मदर्थ एव द्वित्वविशिष्टो निर्दिश्यतेऽर्थाऽन्तरे तयोर्वृत्त्यभावात् । स्यादिविशेषणत्वे तु गुणाभिधायित्वात् स्यादेर्गुणप्रधानतया द्वित्वे इति भावप्रत्ययान्तेन25 निर्दिश्येत, यथा "द्वित्वे वाम्नौ" [२. १. २२.] इति । युवा-ऽऽवादेशयोः सस्वरत्वे रिणगि क्विपि तल्लोपे च 'युव्योः, आव्योः' इत्यादिषु फलं दृश्यम् । एवम्-उत्तरसूत्रे त्व्यि, म्यि । परत्वात् त्वमहमादय इति-यदि परत्वेन त्वमहमादयः करिष्यन्ते तहि परादन्तरङ्ग Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ११.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १४५ बलोयः इति न्यायात् युवा ऽऽवादय एवादेशाः प्राप्स्यन्ति न त्वमहमादयः, सत्यम्— परत्वाद - विशेषविहितत्वेन प्रकृष्टत्वादित्यर्थः ।। १० ।। त्व-मौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन् ॥ २. १. ११ ॥ एकत्वविशिष्टेऽर्थे वर्तमानयोर्युष्मदस्मदोर्मकारान्तस्यावयवस्य स्वसम्बन्धिन्यन्य सम्बन्धिनि वा स्यादौ परे प्रत्ययोत्तरपदयोश्च परयोर्यथासंख्यं 'त्व 5 म' इत्येतावादेशौ भवतः । त्वाम् माम् ; त्वया मया त्वद् मद्; त्वयि, मयि प्रतिक्रान्तौ त्वाम् - प्रतित्वाम् प्रतिमां तिष्ठतः ; प्रतिक्रान्तं त्वां मां वा - प्रतित्वाम्, प्रतिमां पश्य; प्रतित्वान्, प्रतिमान् प्रतित्वया, प्रतिमया; अतित्वाभ्याम्, प्रतिमाभ्याम् ; अतित्वाभिः प्रतिमाभिः ; अतित्वाभ्याम्, प्रतिमाभ्यां देहि ; अतित्वभ्यम्, प्रतिमभ्यम्; प्रतित्वत्, प्रतिमत्; प्रति 10 त्वाभ्याम्, अतिमाभ्यामागतम् ; अतित्वद्, अतिमद्; अतित्वयोः, प्रतिमयोः स्वम्; अतित्वाकम्, प्रतिमाकम् ; अतित्वयि प्रतिमयि ; अतित्वयोः, अतिमयोः ; अतित्वासु प्रतिमासु । सि जस् - ङ ङस्सु पुनः परत्वात् त्वमहमादयो भवन्ति । प्रत्ययोत्तरपदयोः खल्वपि - तवायं - त्वदीयः, मदीयः; त्वन्मयम्, मन्मयम् ; त्वामिच्छति - [ मामिच्छति वा - ] त्वद्यति, मद्यति ; त्वमिवाचरति - 15 त्वद्यते, मद्यते; त्वया कृतं मया कृतं - त्वत्कृतम्, मत्कृतम् ; त्वत्पुत्रः, मत्पुत्रः; त्वद्धितम् मद्धितम् ; त्वत्प्रधानः, मत्प्रधानः । 'त्वामाचष्टे - [मामाचष्टे वा [ - ] त्वदयति, मदयति' इत्यत्र नित्यत्वादन्त्यस्वरादिलोपात् प्रागेव त्वमादेशौ । कश्चित् तु 'पूर्वमन्त्यस्वरादिलोपे त्व-मादेशे प्रकारस्य वृद्धौ प्वागमे' - त्वापयति, मापयति ; क्विपि तु - ' त्वाप्, माप्' इत्याह । एकस्मिन्निति 20 किम् ? युष्माकम्, अस्माकम् । एकत्वेन युष्मदस्मदोविशेणादिह न भवतिप्रतिक्रान्तं युष्मान् - [ अस्मान् वा - ] प्रतियुष्माम्, प्रत्यस्माम्; प्रतियुष्मया, अत्यस्मया; प्रतियुष्मद्, प्रत्यस्मद्; प्रतियुष्मयि प्रत्यस्मयि । प्रत्ययोत्तरपदे चेति किम् ? त्वय्यधि, अधियुष्मद्, प्रध्यस्मद् । अन्तरङ्गत्वात् स्यादिद्वारेणैव त्व-मादेशे सिद्धे प्रत्ययोत्तरपदग्रहणं बहिरङ्गाऽपि लुप् अन्तरङ्गान् विधीन् 25 बाधते इति न्यायज्ञापनार्थम्, तेन - 'यद्, तद्' इत्यादावन्तरङ्गमपि त्यदाद्यत्वादि न भवति । एके तु निमित्तनिरपेक्षमेकत्वविशिष्टेऽर्थे वर्तमानयोस्त्व Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १२.] मादेशाविच्छन्ति, तन्मते-अधित्वत्, अधिमत् । मन्तस्येत्येव-त्वकं पिताऽस्य त्वकत्पितृकः, अत्राक्सहितस्य मा भूत् । प्रत्ययग्रहणेनैव सिद्धे स्यादावित्युत्तरार्थमनुवर्तते ।। ११ ।। ___ न्या० स०-त्व-मौ० इत्यादि । त्वदयतीति–अत्र नित्यत्वादन्त्यस्वरादिलोपात् प्रागेव त्व-मादेशौ, पश्चादपि अन्त्यस्वरादिलोपो न * लोपात् स्वरादेशः इति न्यायात् 5 "लुगस्ये." [२. १. ११३.] इत्येव प्रवर्त्तते, तस्मिन्नपि कृते न भवति "नकस्वरस्य" [७. ४. ४४.] इति निषेधात्; "णिति" [४. ३. ५०.] इत्यादिना वृद्धिरपि न अधातुत्वात् । कश्चित् त्विति-उत्पलः । शब्दान्तरप्रवृत्त्या द्वयोरप्यनित्यत्वादन्यत्र सावकाशत्वा परत्वादन्त्यस्वरादिलोप इत्यर्थः । अकारस्य वृद्धाविति-अतो "णिति" [४. ३. ५०.] इत्यनेन सूत्रेण। ननु प्रत्ययोत्तरपदग्रहणं किमर्थम् ? स्यादावित्येव 10 सिद्धत्वात्, न च परत्वात् “ऐकायें" [३. २. ८.] इति स्यादेलु पि प्रत्ययलोप०* इति न्यायस्य “लुप्यम्वृल्लेनत्" [७. ४. ११२. ] इति निषेधात् रयादेरभाव इति वाच्यम्, यत “ऐकायें" [ ३. २. ८. ] इति लुबुच्यते, ऐकायं च प्रकृतिप्रत्ययौ पूर्वोत्तरपदे चाश्रित्य भवतीति तस्य बहिरङ्गत्वात तदाश्रया लुबपि बहिरङ्गा, विभक्तिमात्रमाश्रित्य विधानात् त्व-मादेशयोरन्तरङ्गत्वम्, ततः प्रसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति 15 न्यायान्नित्यादपि अन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात् त्वमादेशयोः कर्तव्ययोः लुपोऽसिद्धत्वात् ताभ्यामेव पूर्व प्रवत्तितव्यं ततो लुबिति न किञ्चिदनिष्टमित्याह-अन्तरङ्गत्वादिति । ननु यदा स्यादिग्रहणमेव क्रियते न प्रत्ययोत्तरपदग्रहणं तदा त्वदीयः, त्वत्पुत्रः' इत्यादौ प्रागेव परत्वात् ङसा सह तव-ममादेशौ प्राप्नुतः, तत्कथमन्तरङ्गत्वात् स्यादिद्वारेणैव सिध्यतोति ? सत्यम्-यौ त्व-मौ भवतस्तावल्पाश्रितो, यतः प्रकृतिमेवाश्रयत:, यौ तु20 तव-ममौ तौ प्रकृतेः प्रत्ययस्य च स्थाने भवत इति बह्वाश्रितावित्यन्तरङ्गत्वात् त्व-मौ प्राप्नुत इति स्यादिद्वारेणव सिध्यतोति; तव-ममादेशे तु कर्तव्ये एकस्थानित्वेनान्तरङ्गत्वात् परत्वाच्च डसो लुबेवेति । एके त्विति चन्द्रादयः ।। ११ ।। त्वमहं सिना पाक चाकः ॥ २. १. १२ ॥ युष्मदस्मदोः स्वसम्बन्धिनाऽन्यसम्बन्धिना वा सिना सह यथासंख्यं25 'त्वम् अहम्' इत्येतावादेशौ भवतः, तौ चाक्प्रत्ययप्रसङ्गेऽकः प्रागेव भवतः । त्वम्, अहम्; अतिक्रान्तस्त्वाम्-अतित्वम्. अत्यहम् ; अतिक्रान्तो युवाम्अतित्वम्, अत्यहम् ; अतिक्रान्तो युष्मान्-अतित्वम्, अत्यहम् ; प्रियस्त्वं प्रियौ युवां प्रिया यूयं वा यस्य स प्रियत्वम्, प्रियाहम्; एषु परत्वात् त्व-मौ युवा-ऽऽवौ च बाधित्वा त्वमहमावेव भवतः । सिनेति किम् ? युष्माभिः,30 अस्माभिः; सिलुपि च "लुप्यय्वृल्लेनत्" [७. २. ११२.] इति निषेधान्न Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १३.] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १४७ भवति-त्वं पुत्रोऽस्य त्वत्पुत्रः, मत्पुत्रः; एवमुत्तरेष्वपि । प्राक् चाक इति किम् ? 'त्वकम्' 'अहकम्' इत्यत्राकः श्रुतिर्यथा स्यात्, अन्यथा पूर्वमकि सति तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते इति न्यायात् साकोरप्यादेशः स्यात् । केचित् तु त्वां मां चाऽऽचष्टे' इति णौ त्व-मादेशे वृद्धौ क्विपि मन्तयोरेव त्वा-हादेशविधानात् सौ-त्वाम्, माम्, इति, धातोरेव वृद्धिरिति मते-त्वम्, 5 मम्, इत्येव च भवतीति मन्यन्ते, ते हि प्रकृतिमात्रस्याऽऽदेशान् डे-जस्-सीनाममादेशं ङसस्त्वकारं चेच्छन्ति ।। १२ ॥ __ न्या० स०--त्वमहनित्यादि । सिनेति किम् ? ननु साविति कृते “दीर्घड्याब" [१. ४. ४५.] इत्यादिना सेलु कि च सर्वे प्रयोगा निष्पद्यन्त इति, न-"युष्मदस्मदो:" [ २. १. ६. ] इत्यात्वं स्यात्; आदेशविधानसामर्थ्यान्न भविष्यतीति चेत् ? सत्यम्-10 तदा प्रात्वाभावेऽस्यापि सेः शेषत्वं स्यात्, तथा च “मोर्वा" [ २. १. ६.] इति वालोपः स्यात्, पक्षे च चरितार्थता सूत्रस्य स्यादिति। त्वकम् अहकमिति-"युष्मदस्मदोऽसोभादि०" [७. ३. ३०.] इति अक् । पूर्वमकीति-"निरपेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वात् । केचित् त्विति-पाणिनीयादयः । त्वमादेशे वृद्धाविति-त्वादयतीति वाक्ये कृते क्विप् । त्वाहादेशविधानादिति-त्वा-ऽहादेशौ न भवत इति शेषः। धातोरेव वृद्धिरिति मते तु-त्वदयतीति15 वाक्यम् । ननु तन्मते-त्वम्, अहं, यूयम्, वयमित्यादयः कथं सिध्यन्तीत्याह-ते हि । प्रकृतिमात्रस्येति-विभक्तिरहितस्येत्यर्थः । आदेशानिति-"तुभ्यमह्यौ ङयि०" [पा० ७. २. ६५. ] "यूय-वयौ जसि०" [ पा० .७. २. ६३. ] "त्वा-हौ सौ०" [पा० ७. २. ९४.] इति तुभ्यादीन् आदेशान्, ङ-जस्-सीनां "प्रथमयोरम्" [पा० ७. १. २८.] इत्यमादेशम्, ङसस्तु "युष्मदस्मद्भयां डसोऽश् [पा० ७. १. २७. ] इत्यकारं चेच्छन्तीत्यर्थः ।20 स्वमते तु-त्वमहमित्येव भवति ।। १२ ।। यूयं वयं जसा ॥ २. १. १३ ॥ युष्मदस्मदोः स्वसम्बन्धिनाऽन्यसम्बन्धिना वा जसा सह यथासंख्यं 'यूयं वयम्' इत्येतावादेशौ भवतः, प्राक् चाकः । यूयम्, वयम् ; परमयूयम्, परमवयम्; प्रियस्त्वं प्रियौ युवां प्रिया यूयं च येषां ते-प्रिययूयम्, प्रियवयम् ; 25 अतिक्रान्तास्त्वां युवां युष्मान् वा- अतियूयम्, अतिवयम् । जसेति किम् ? यूयं पुत्रा अस्य-युष्मत्पुत्रः, अस्मत्पुत्रः। प्राक् चाक इत्येव ? यूयकम्, वयकम् ।। १३ ।। न्या० स०-यूयं वयमित्यादि। प्रियस्त्वं प्रियौ युवामिति वाक्ये एकत्व Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १४-१६.] । द्वित्वयोर्युष्मदोवर्तमानत्वात् “त्व-मौ प्रत्ययोत्तरपदे." [ २. १. ११. ] इति “मन्तस्य युवा-ऽऽवौ०" [ २. १. १. ] इति च त्व-माद्यादेशानन्यत्र सावकाशान् बाधित्वा यूयं वयमित्यत्र सावकाशौ यूयं वयमादेशौ परत्वादुभयप्राप्तौ सत्यां तावेव भवतः । यूयकमित्यादौ कुत्सिताद्यर्थे । “युष्मदस्मदोऽसोभादि" [ ७. ३. ३०. ] इत्यक्, एवम्उत्तरत्रापि ॥ १३ ॥ तुभ्यं मह्य त्या ॥२. १. १४ ॥ युष्मदस्मदोः स्वसम्बन्धिनाऽन्यसम्बन्धिना वा डेप्रत्ययेन सह यथासंख्यं 'तुभ्यं मह्यम्' इत्येतावादेशौ भवतः, प्राक् चाकः । तुभ्यम्, मह्यम् ; परमतुभ्यम्, परममह्यम्, प्रियस्त्वम् प्रियौ युवां प्रिया यूयं वा यस्य तस्मैप्रियतुभ्यम्, प्रियमह्यम्; अतिक्रान्तस्त्वां युवां युष्मान् वा तस्मै अतितुभ्यम्,10 अतिमह्यम् । ड्येति किम् ? तुभ्यं हितं त्वद्धितम्, मद्धितम् । प्राक् चाक इत्येव ? तुभ्यकम् मह्यकम् ।। १४ ।। तव मम सा ॥ २. १. १५ ॥ __ युष्मदस्मदोः स्वसम्बन्धिनाऽन्यसम्बन्धिना वा ङस्प्रत्ययेन सह यथासंख्यं 'तव मम' इत्येतावादेशौ भवतः, प्राक् चाकः । तव, मम; प्रियस्त्वं प्रियौ15 युवां प्रिया यूयं वा यस्य तस्य-प्रियतव, प्रियमम; अतिक्रान्तस्त्वां युवां युष्मान् वा तस्य-अतितव, अतिमम। डसेति किम् ? तव प्रियस्त्वत्प्रियः, मत्प्रियः । प्राक् चाक इत्येव ? तवक, ममक ।। १५ ॥ न्या० स०-तव ममेत्यादि। कथं तवता, ममता; तवायितम्, ममायितम् ? सत्यम् –स्याद्यन्तप्रतिरूपकाण्यव्ययान्येतानि, ततः शब्दान्तरत्वात् सिद्धम् ।। १५ ।। 20 अमौ मः ॥ २. १. १६ ॥ युष्मदस्मद्भ्यां परयोस्तत्सम्बन्धिनोरन्यसम्बन्धिनोर्वा 'अम् औ' इत्येतयोर्म इत्ययमादेशो भवति, अकार उच्चारणार्थः । त्वाम्, माम् ; अतित्वाम्, अतिमाम् ; युवाम्, आवाम् ; अतियुवाम्, अत्यावां तिष्ठतः पश्य वा ।। १६ ।। 25 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १ सू० १७-१८.] श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १४६ न्या० स० - अमौ म इति प्रश्च प्रश्च श्रवौ “स्यादावसंख्येयः" इत्येकशेषः, ततोऽम् च प्रवौ च श्रमौ तस्य 'अमौ' लुप्तषष्ठ्येकवचनान्तं पदम्, एकशेषाभावे तु प्रमा साहचर्याद् द्वितीयासत्कस्यैव ग्रहणं स्यात् । ननु अम्ग्रहणं किमर्थम् ? यावता त्वामिति निष्पाद्यम्, तच्च युष्मदोऽमि निमित्ते त्वादेशे " शेषे लुक्” [ २.१.८. ] इति दस्य लुकि "समानादमोऽतः " [ १. ४. ४६. ] इत्यमोऽस्य लुकि " युष्मदस्मदो: " [२. १. ६. ] 5 इत्यन्तस्यात्वे च सिद्धम्, नैवम् - अन्तरङ्ग ेऽन्तस्यात्वे कार्ये बहिरङ्गोऽकारस्य लुगसिद्ध इति ।। १६ ।। शसो नः ॥ २. १. १७ ॥ युष्मदस्मद्भयां परस्य तत्सम्बन्धिनोऽन्यसम्बन्धिनो वा शसः स्थाने 'न' इत्ययमादेशो भवति, अकार उच्चारणार्थः । युष्मान् अस्मान् ; प्रिययुष्मान्, 10 प्रियास्मान्; प्रियस्त्वं येषां तान् प्रियत्वान्, प्रियमान्; प्रियौ युवां येषां तान् प्रिययुवान्, प्रियावान् ।। १७ ।। "1 ८. न्या० स० -- शसो न इति । ननु युष्मानित्यादौ द्वयं प्राप्नोति- " शेषे० ' [ २.१. ] इत्यनेनान्तलोपोऽनेन नकारश्च तत्र कृताकृतप्रसङ्गित्वेन ० नकारस्य नित्यत्वाल्लोपस्य च कृते नकारे शेषत्वाभावादप्रसङ्गित्वेनानित्यत्वात् पूर्वं नकार एव 15 भवतीति यद्येवं किमनेन ? " शसोता ० " [१. ४. ४६ ] इत्यनेनैव सिद्धत्वात् नैवम्लिङ्ग युष्मदस्मदी इति पुंस्त्वाभावान्नकारो न सिध्यतीति वचनम् बहुव्रीह्यादावभ्युपगमे वा लिङ्गस्य स्त्री- नपुंसकार्थम् - प्रिययुष्मान् ब्राह्मणीः, प्रिययुष्मान् कुलानीत्यादि ।। १७ ।। अभ्यं भ्यसः ।। २.१.१८ ॥ युष्मदस्मद्भ्यां परस्य स्वसम्बन्धिनोऽन्यसम्बन्धिनो वा भ्यसश्चतुर्थीबहुवचनस्य स्थानेऽभ्यमादेशो भवति । युष्मभ्यम्, अस्मभ्यं दीयते; प्रिययुष्मभ्यम् प्रियास्मभ्यम् ; त्वामतिक्रान्तेभ्यः - प्रतित्वभ्यम्, प्रतिमभ्यम् ; युवामतिक्रान्तेभ्यः - प्रतियुवभ्यम्, अत्यावभ्यम् । अकारादिकरणमात्वबाधनार्थम् ।। १८ । 20 25 न्या० स० -- श्रभ्यमित्यादि । कार्यिणः प्रथमं निर्देशे प्राप्ते कार्यस्य प्रथममुपादानं प्रत्यासत्तिसूचनार्थम्, पाठापेक्षया च चतुर्थ्येव प्रत्यासन्न ेति तस्या एवादेशः, यद्वा “ङसेश्वाद्” [ २. १. १ε. ] इत्यत्र चकारो भ्यसोऽनुकर्षणार्थ:, स च ङसिसाहचर्यात् पञ्चमी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० १ सू० १६ - २० . ] सम्बन्ध्येव गृह्यत इति पारिशेष्यादिह चतुर्थीभ्यसो ग्रहणमित्याह – चतुर्थीबहुवचनस्येति ।। १८ । १५० ] इसेश्चाद् ॥ २. १. १६ ॥ ● 7 युष्मदस्मद्भ्यां परस्य स्वसम्बन्धिनोऽन्य सम्बन्धिनो वा ङसेवकारात् तत्सहचरितस्य भ्यसः स्थाने 'अद्' इत्ययमादेशो भवति । त्वद् मद्; त्वां 5 युवां युष्मान् वाऽतिक्रान्तात् प्रतित्वद्, प्रतिमद्; प्रतियुवद्, प्रत्यावद् ; प्रतियुष्मद्, प्रत्यस्मद् । भ्यस् - युष्मद्, अस्मद् ; त्वां युवां युष्मान् वाऽतिक्रान्तेभ्यः - अतित्वद्, अतिमद्; अतियुवद्, अत्यावद्; प्रतियुष्मद्, प्रत्यस्मद् । पञ्चमीभ्यसो ग्रहणाच्चतुर्थीभ्यसो न भवति - युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम् ।। १६ ।। न्या० स०--ङसेरित्यादि - चकारेण भ्यसोऽनुकर्षणेऽपि भ्यसो ङसेश्चैकवचनानन्त - 10 निर्देशेन द्विवचनानन्तनिर्दिष्टाभ्यां युष्मदस्मद्भ्यां सह वैषम्याद् यथासंख्याभाव इति ॥ १६ ॥ आम आकम् ॥ २.१.२० ॥ 'युष्मद् श्रस्मद्' इत्येताभ्यां परस्य स्वसम्बन्धिनोऽन्यसम्बन्धिनो वाऽऽमः स्थाने 'प्रकम्' इत्यादेशो भवति । युष्माकम् अस्माकम् ; प्रिययुष्माकम्, 15 प्रियास्माकम् ; त्वां युवां युष्मान् वाऽतिक्रान्तानाम् - अतित्वाकम्, प्रतिमाकम् ; अतियुवाकम्, अत्यावाकम्; प्रतियुष्माकम् प्रत्यस्माकम् ; आकमित्याकारो ण्यन्तार्थम्–युष्मानाचक्षाणानां गौ क्विपि - युष्माकम् अस्माकम् ; । केचित् तु तत्सम्बन्धिन एवाऽऽमः आकमादेशमिच्छन्ति, तथाऽऽम्प्रत्यये दकारस्य यत्वमपीच्छन्ति, तन्मते - प्रिया यूयं येषां तेषां प्रिययुष्मयाम्, प्रियास्मयाम् ; 20 एवम् - प्रतियुष्मयाम्, अत्यस्मयाम् ।। २० ।। " न्या० स०-- श्राम इत्यादि । श्रामः कमिति कृते " युष्मदस्मदो ” [२. १. ६.] इत्यात्वे कृते युष्माकमित्यादि सिध्यति, किमाकारकरणे नेत्याह - आकमित्यादि । केचित् त्विति - पाणिनिसूत्रानुसारिणः, ते हि "साम आकम्" [ पा० ७. १. ३३. ] इति पठन्तः कृतसामादेशस्याम प्राकमिच्छन्ति, स च " अवर्णस्याम:" [ १.४. १५. ] इति तत्सम्बन्धिन 25 एवेति ।। २० ।। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १५१ पदाद् युग्विभक्त्यैकवाक्ये वस्-नसौ बहुत्वे ॥२.१.२१॥ द्वितीया चतुर्थी षष्ठी च युग्विभक्तिः, तया बहुत्वविषयया सह पदात् परयोर्युष्मदस्मदोर्यथासंख्यं 'वस्नस्' इत्येतावादेशौ वा भवतः, तच्चेत् पदं युष्मदस्मदी चैकवाक्ये भवतः, अन्वादेशे नित्यं विधास्यमानत्वादिह विकल्पो लभ्यते, एवमुत्तरसूत्रत्रयेऽपि । धर्मो वो रक्षतु, धर्मो नो रक्षतु; धर्मो युष्मान् । रक्षतु, धर्मोऽस्मान् रक्षतु; तपो वो दीयते, तपो नो दीयते; तपो युष्मभ्यं दीयते, तपोऽस्मभ्यं दीयते; शीलं वः स्वम्, शीलं नः स्वम् ; शीलं युष्माकं स्वम्, शीलमस्माकं स्वम् । पदादिति किम् ? युष्मान् धर्मो रक्षतु, अस्मान् धर्मो रक्षतु । युग्विभक्त्येति किम् ? ज्ञाने यूयं तिष्ठत, शीले वयं स्थास्यामः; ज्ञाने युष्माभिः स्थितम्, शीलेऽस्माभिः स्थितम् ; ज्ञानं युष्मदागतम्, शील-10 मस्मदागतम् ; ज्ञानं युष्मासु तिष्ठति, शीलमस्मास्वायतते; ग्रामे युष्मत्पुत्रः, नगरेऽस्मत्पुत्रः; इति युष्मदुपाध्यायो ब्रूते, इत्यस्मदाचार्योऽनुशास्ति । एकवाक्य इति किम् ? एकस्मिन् पदे निमित्त-निमित्तिनो वे मा भूत-प्रतियुष्मान् पश्यति, अत्यस्मान् पश्यति; वाक्यान्तरे च मा भूत्-प्रोदनं पचत, युष्माकं भविष्यति; पटं वयत, अस्माकं भविष्यति । ननु च वाक्यान्तरस्थात्15 पदात् परयोर्युष्मदस्मदोः सामर्थ्याभावादेव वस्-नसादयो न भविष्यन्ति, किमेकवाक्यग्रहणेन ? नैवं शङ्कयम्-युक्तयुक्तादपि पदादसमर्थत्वात् न प्राप्नुवन्ति-इति स्म नः पिता कथयति, इति वः श्रेयसी ब्रवीमि, इति मे माताऽवोचत्, शालीनां ते प्रोदनं दास्यामि; अत्र हि युष्मदस्मदी पित्रादिभिर्युक्त न पित्रादियुक्त रिति-स्मादिभिरिति वस्नसादयो न स्युः, अतः पारम्पर्येणापि20 युक्तादेकवाक्यस्थात् पदात् परयोर्युष्मस्मदोर्वस्नसादयो भवन्त्वित्येकवाक्यग्रहणमर्थवत् । बहुत्व इति किम् ? धर्मो युवां रक्षतु, धर्मस्त्वां रक्षतु । स्याद्यधिकारे विभक्तिग्रहणं युकस्यादिवचननिवृत्त्यर्थम्, तेन ज्ञाने युवां तिष्ठतः, शीले आवां तिष्ठाव इत्यत्रोत्तरेण वाम्-नावादेशौ न भवतः ।। २१ ॥ न्या० स०-पदादित्यादि-पद्यते गम्यते कर्तृकर्मविशिष्टोऽर्थोऽनेनेति पदम् ।25 विभक्तया सह समानाधिकरणा) युनक्तीति युङ कर्तरि क्विप्, यद्वा योजनं युङ ० सममविषम संख्यास्थानं युग्ममिति यत् संख्यायते, तेन परिच्छिन्न वस्त्रमपि युगित्युच्यते, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २२-२३.] ततः समसंख्या द्वितीया-चतुर्थी-षष्ठीरूपा विभक्तयो युगशब्देनोच्यन्त इति । धर्मो वो रक्षत्विति-अत्र पदादेशः पदवदिति 'वस्' इत्यस्य पदत्वे “सो रुः" [ २. १. ७२. ] इति रुत्वं बभूव । तथा "शसो नः" [ २. १. १०. ] "शेषे लुक्” [ २. १. ८. ] इत्यादीनि बाधित्वा नित्यत्वाद् निरवकाशत्वाच्च वस्नसावेव भवत इति । एकवाक्य इति–एकं च तद् वाक्यं चेति “पूर्वकालैक०" [ ३. १. ६०. ] इत्यनेन समासे एकस्य पूर्वनिपातः, ततो 5 विशेषणस्य व्यवच्छेदकत्वात् * सर्वं वाक्यं सावधारणं भवति * इति न्यायाच्च एकस्मिन् वाक्य एव भवतीति न तु पदे, अतियुष्मान् पश्यतीत्यादौ तु यथैकस्मिन् वाक्ये तथा एक विभक्तयपेक्षया एकस्मिन् पदेऽपि यूष्मदस्मदी स्त इति, तथा एकस्मिन्न व वाक्य इत्यवधारणाद् यदि पदं युष्मदस्मदी चैकस्मिन्न व वाक्ये भवतो न तु वाक्यान्तरे तदा वस्नसौ भवतः । सामर्थ्याभावादेवेति-परस्परव्यपेक्षालक्षणसम्बन्धाभावादेवेत्यर्थः । किमेकवाक्य-10 ग्रहरणेनेति-किं सविशेषणेन वाक्यग्रहणेन ? वाक्यग्रहणमेव पदव्यवच्छेदाय कत्तुं युक्त किमेकग्रहणेनेत्यर्थः । युक्तयुक्तादिति-युक्त न युष्मदस्मत्संबद्धेन पित्रादिना यत् युक्तमितिस्मेत्यादि तस्मादित्यर्थः । इति-स्मेत्यादि-अत्रेतिस्मेत्यादि पदं साक्षात् युष्मदादिकं नापेक्षते, किं तहि पित्रादिकमिति एकवाक्यग्रहणात् सामर्थ्याभावेऽपि एकवाक्ये पदात् परस्य युष्मदादेरादेशः सिद्धः । तथा 'युग्बहुत्वे' इत्यप्युक्त द्वितीया-चतुर्थी-षष्ठी बहुवचनानि 15 लब्धानि, विभक्तिग्रहणं तूत्तरार्थमिह च क्लिष्टतापरिहारार्थमिति ।। २१ ।। द्वित्वे वाम्नौ ॥ २. १. २२ ॥ पदात् परयोयुष्मदस्मदोद्वित्वविषयया युग्विभक्त्या सह यथासंख्यं वाम्नावित्येतावादेशौ वा भवतः, तच्चेत् पदं युष्मदस्मदी चैकवाक्ये भवतः । धर्मो वां रक्षतु, धर्मो नौ रक्षतु; धर्मो युवां रक्षतु, धर्म आवां रक्षतु; शीलं 20. वां दीयते, शीलं नौ दीयते; शीलं युवाभ्यां दीयते, शीलमावाभ्यां दीयते; ज्ञानं वां स्वम्, ज्ञानं नौ स्वम् ; ज्ञानं युवयोः स्वम्, ज्ञानमावयोः स्वम् । युविभक्त्येत्येव-ग्रामे युष्मत्पुत्रः, नगरेऽस्मत्पुत्रः । पदादित्येव-युवां धर्मो रक्षतु, आवां धर्मो रक्षतु । एकवाक्य इत्येव-प्रोदनं पचत, युवयोर्भविष्यति, आवयोर्भविष्यति ।। २२ ।। न्या० स०-द्वित्वे इत्यादि। द्वित्व इति भावप्रत्ययान्तेन संख्या निर्दिश्यते, संख्यायां च विभक्तिर्वर्त्तते न युष्मदस्मदी द्रव्यवृत्तित्वात् तयोरिति द्वित्व इति विभक्त रेव विशेषणमित्याह-द्वित्वविषययेति ।। २२ ।। डे-सा ते-मे ॥ २. १. २३ ॥ 'ते-मे' इति लुप्तद्विवचनान्तं पदम्, पदात् परयोर्युष्मदस्मदो 'ऊँ ङस्'30 25 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २४-२५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १५३ इत्येताभ्यां सह 'ते मे' इत्येतावादेशौ यथासंख्यं वा भवत एकवाक्ये, उडसेत्येकवचनं स्थानिभ्यामादेशाभ्यां च यथासंख्यनिवृत्त्यर्थम् । धर्मस्ते दीयते, धर्मस्तुभ्यं दीयते; धर्मो मे दीयते, धर्मो मह्य दीयते; शीलं ते स्वम्, शीलं तव स्वम् ; शीलं मे स्वम्, शीलं मम स्वम्; धर्मस्ते स्वम्, धर्मो मे स्वम् ; धर्मस्तव स्वम्, धर्मो मम स्वम् । पदादित्येव-तुभ्यं धर्मो दीयते, मह्य धर्मो 5 दीयते; तव शीलं स्वम्, मम शीलं स्वम् । एकवाक्य इत्येव-प्रोदनं पच, तव भविष्यति, मम भविष्यति; त्वां युवां युष्मान् वाऽतिक्रान्ताय-अतितुभ्यम् । 3-ङसेति किम् ? पटस्त्वया क्रियते । धर्मो मया क्रियते । कथं 'न मे श्रुता नापि च दृष्टपूर्वा' न मे-न मयेति ह्यत्रार्थः; असाधुरेवायम्; स्यादिप्रतिरूपकमव्ययं वा ।। २३ ।। न्या० स०-डे-ङसेत्यादि । दृष्टपूर्वेति-पूर्व दृष्टा “नाम नाम्ना०" [३. १. १८.] इति सः, स्त्री चेत् ।। २३ ।। 10 अमा त्वा-मा। २. १. २४ ॥ पदात् परयोर्युष्मदस्मदोरमा-द्वितीयैकवचनेन सह 'त्वा मा' इत्येतावादेशौ यथासंख्यं वा भवत एकवाक्ये । धर्मस्त्वा रक्षतु, धर्मो मा रक्षतु; 15 धर्मस्त्वां रक्षतु, धर्मो मां रक्षतु । पदादित्येव-त्वामीक्षते, मामीक्षते । एकवाक्य इत्येव-अतित्वां पश्यतु, अतिमां पश्यतु ।। २४ ।। न्या० स०--अमा त्वा-मा इति। अम् यद्यप्यनेकप्रकारोऽस्ति, तथाहि-एक: "अतः स्यमोऽम्" [ १. ४. ५७. ] इति, द्वितीयो “अव्ययीभावस्या०" [ ३. २. २. ] इति, तृतीय आख्यातविभक्त : 'अम्व् अम्' इति, तथापि युष्मदस्मद्भयामन्यस्यासंभवाद्20 द्वितीयैकवचनमेव गृह्यते इत्याह-प्रमा-द्वितीयकवचनेनेति ।। २४ ।। असदिवा मन्त्र्य पूर्वम् ॥ २. १. २५ ॥ आमन्त्र्यते यत् तदामन्त्र्यम्, तद्वाचि पदं युष्मदस्मद्भयां पूर्वमसदिअविद्यमानमिव भवति, सति तस्मिन् यत् कार्यं तन्न भवति, असति यत् तद् भवतीत्यर्थः । श्रमणा ! युष्मान् रक्षतु धर्मः, श्रमणा ! अस्मान् रक्षतु25 धर्मः; श्रमणा ! युष्मभ्यं दीयते, श्रमणा ! अस्मभ्यं दीयते; श्रमणा ! Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २६.] युष्माकं शीलम्, श्रमणा ! अस्माकं शीलम् ; श्रमणौ युवां रक्षतु धर्मः, ' श्रमणौ ! आवां रक्षतु धर्मः; श्रमणौ ! युवाभ्यां दीयते, आवाभ्यां दीयते; श्रमणौ ! युवयोः स्वम्, आवयोः स्वम् ; श्रमण ! त्वां रक्षतु तपः, मां रक्षतु तपः; श्रमण ! तुभ्यं दीयते, मह्य दीयते; श्रमण ! तव शीलम्, मम शीलम्; एष्वामन्त्र्यस्यासत्त्वाद् वस्नसादयो न भवन्ति । 'ग्रामश्चैत्र ! 5 ते स्वमथो' इत्यादौ चैत्रपदस्यामन्त्र्यस्यासत्त्वाद् ग्रामपदापेक्षयाऽन्वादेशे नित्यं ते-मयादिविधिः, न तु “सपूर्वात् प्रथमान्ताद् वा" [२. १. ३२.] इति विकल्पः । इवकरणं किम् ? श्रवणं यथा स्यात् । अामन्त्र्यमिति किम् ? धर्मो वो रक्षतु, धर्मो नो रक्षतु । पूर्वमिति किम् ? "मयैतत् सर्वमाख्यातं, युष्माकं मुनिपुङ्गवाः !" परस्य ह्यसद्वत्त्वे पादादिलक्षणः प्रतिषेधो न10 स्यात् । व्यवहितेऽपि पूर्वशब्दो वर्तते, तेन-'चैत्र ! धर्मो वोऽथो रक्षत, चैत्र ! . धर्मो नोऽथो रक्षतु' अत्र “सपूर्वात् प्रथमान्ताद् वा" [२. १. ३२.] इति विकल्पो न भवति ।। २५ ।। न्या० स०--असदिवेत्यादि-योऽर्थः स्वेन धर्मेण प्रसिद्धो धर्मान्तरसम्बन्धं प्रत्यभिमुखीक्रियते स आमन्त्र्यः, यथा देवदत्तो देवदत्तत्वेन प्रसिद्धो धर्मान्तरेऽभिमुखीक्रियते,15 यथा पच पठेत्यादि, तत्रार्थे कार्यासंभवादुपचारादामन्त्र्याभिधायि पदमामन्त्र्यं विज्ञायत इति । अथोत्तरत्र नित्यग्रहणादस्मिन् सूत्रे कथं विकल्पो न लभ्यते इति, उच्यते-नित्यं विधास्यमानत्वादिति भणनाद् यत्रैव वस्नसादयो विधीयन्ते तत्रैव विकल्प उपतिष्ठते न वस्नसादीनां निषधे इति । अथवा यद्यत्रापि सूत्रे विकल्पः स्यात् तदा किमेतत्सूत्रकरणेन ? यत: "असदिवामन्त्र्यं पूर्वत्" [ २. १. २५. ] इति कृतेऽपि वस्नसादयो विकल्पन्ते, ते च20 "पदाद् युग्विभक्तया०" [ २. १. २१. ] इत्यनेनैव विकल्पेन भविष्यन्ति। श्रवणं यथा स्यादिति-अन्यथा लोप: स्यात् “ते लुग् वा" [३. २. १०८.] इत्यनेनैव । पादादिलक्षण इति-मुनिपुङ्गवा इत्यस्य पदस्याऽसत्त्वे पदस्याभावादित्यर्थः । मुनिपुङ्गवा इति सिंहादित्वात् समासः कर्मधारयो वा। व्यवहितेऽपीति-यथा मथुरायाः पूर्वं पाटलिपुत्रमिति । पूर्वशब्दो वर्तते इति-अयमर्थः-यद्यव्यवहितस्यैव पूर्वस्यानेनाऽसद्भावो विधीयेत25 न व्यवहितस्य तदा पूर्वग्रहणमपनीय "असदिवामन्त्र्याद्" इत्येव क्रियेत, यतः पूर्वस्याविद्यमानवद्भावे वस्नसाद्यभावः प्रयोजनम्, तच्चेत्थमपि कृते सिध्यति; तथोत्तरसूत्रेऽप्येतदानुगुण्येन “जस्विशेष्याद्" [२. १. २६. ] इत्येवं विधीयेतेति ।। २५ ।। जस्विशेष्य वामन्ये ॥ २. १. २६ ॥ तदतद्विषयं विशेष्यम्, तस्य व्यवच्छेदकं विशेषणम् ; युष्मदस्मद्भ्यां30 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः , [ १५५ पूर्वं जसन्तमामन्त्र्यं पदं विशेष्यमामन्त्र्ये पदे सामर्थ्यात् तद्विशेषणभूते परेऽसदिव वा भवति पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्प: । जिना: ! शरण्या ! युष्मान् शरणं प्रपद्ये । जिना: ! शरण्या ! वः शरणं प्रपद्ये । जिनाः ! शरण्या ! अस्मान् रक्षत । जिना: ! शरण्या ! नो रक्षत । सिद्धाः ! शरण्या ! युष्मानथो शरणं प्रपद्ये । सिद्धाः शरण्या ! वोऽथो शरणं प्रपद्ये । 5 सिद्धाः ! शरण्या अस्मानथो रक्षत । सिद्धाः ! शरण्या ! नोऽथो रक्षत । जसिति किम् ? साधो ! सुविहित ! वोऽथो शरणं प्रपद्ये, साधो ! सुविहित ! नोऽथो रक्ष । विशेष्यमिति किम् ? शरण्या : साधवो ! युष्मान् शरणं प्रपद्ये, शरण्याः ! साधवोऽस्मान् रक्षत । आमन्त्र्य इति किम् ? आचार्या ! युष्मान् शरण्याः ! शरणं प्रपद्ये, अत्रामन्त्र्यं विशेषणं व्यवहितत्वाद् न परमिति न10 भवति । सामर्थ्यात् तद्विशेषणभूत इति किम् ? आचार्या ! उपाध्याया ! युष्मान् शरणं प्रपद्ये ।। २६ ।। न्या० स०--- जस्वि ० इत्यादि । तदतद्विषयमिति - शब्दप्रधानत्वात् स्याद्वादाश्रयणेन शब्दार्थयोरैक्या वाऽर्थाभावे त्यदादित्वाभावात् तच्छब्दावयवयोगात् समुदायोऽपि तद् इत्यादि कृत्वा कर्मधारयकरणात् बाहुलकाद् वा नैकशेषः, तच्च प्रतच्च तदतदी, 15 द्वन्द्व े “आ द्व ेरः” [२. १. ४१.] इति न "न सर्वादि:" [ १. ४. १२. ] इति निषेधात् । सामर्थ्यात् तद्विशेषरणभूत इति । विशेष्यस्य विशेषरणाकाङ क्षिरण एकवाक्योपात्तत्वेन सामर्थ्यात् सन्निहितत्वाद् विशेष्यत्वनिमित्तमामन्त्र्य इत्येतदेव विशेषणं विज्ञायत इति । जिना: ! शरण्या इत्यत्र शरणमिति सामान्यकर्म, युष्मानिति विशेषकर्म । सिद्धाः ! शरण्या ! युष्मानथो शरणं प्रपद्य े इत्यादौ " सपूर्वात् ०" [२. १. ३२.] इत्यादिना वा20 वस्नसौ प्राप्तावपि "असदिवा ०" [ २.१.२५ ] इत्यनेन निषिद्धौ पुनरऽनेन विकल्प्येते । जसिति किम् ? साधो ! सुविहितेति - अत्र द्वयोरपि पदयोः "असदिवा ०" [२.१.२५ . ] इत्यसत्त्वे प्राप्ते “नान्यत् ” [ २. १. २७. ] इत्यनेन साधो ! इत्यस्यासत्त्वाभावः, “नित्यमन्वादेशे” [ २. १. ३१ ] इत्यनेन च वस्नसौ । शरण्या ! साधवो ! युष्मानिति-प्रत्र द्वयोरपि "सदिवा ०" [ २.१.२५ ] इत्यसद्वद्भावः । प्राचार्या ! युष्मान् शरण्या ! 25 इति-अत्रामन्त्रयस्य विशेष्यस्य व्यवहितत्वेन परत्रोपश्लेषाभावान्न भवति । आचार्या ! उपाध्याया ! इति - अत्र भिन्नाधिकरणयोः पदयोर्न पूर्वं विशेष्यं न परं विशेषणमिति "सामर्थ्यात् तद्विशेषरणभूते" इति भरगनान्न भवति ।। २६ ।। नान्यत् ॥ २. १.२७ ।। युष्मदस्मद्भ्यां पूर्वं जसन्तादन्यदामन्त्र्यं पदं विशेष्यमामन्त्रये पदे तद्वि- 30 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २८.] शेषणभूते परेऽसदिव न भवति । साधो ! सुविहित ! त्वा शरणं प्रपद्ये। । साधू ! सुविहितौ ! वां शरणं प्रपद्ये । साधो ! सुविहित ! मा रक्ष । साधू ! सुविहितौ नौ रक्षतम् । साधो ! सुविहित ! ते ज्ञानं दीयते । मे ज्ञानं दीयताम् । साधू ! सुविहितौ ! वां ज्ञानं दीयते । नौ ज्ञानं दीयताम् । साधो ! सुविहित ! ते शीलं स्वम् । मे शीलं स्वम् । साधू ! सुविहितौ ! वा शीलं स्वम् । नौ शीलं स्वम्; अत्र परस्य "असदिवामन्त्र्यं पूर्वम्" [२. १. २५.] इत्यसत्त्वेऽपि पूर्वविशेष्यपदाश्रया युष्मदस्मदादेशा भवन्ति । विशेष्यमित्येव-सुविहित ! तव शीलं, मम शीलम् ।। २७ ।। न्या० स०-नान्यदिति । “जस् विशेष्यम्" [ २. १. २६. ] इत्यस्य प्रधानतयाऽन्यदिति सम्बध्यते-इत्याह-जसन्तादिति ।। २७ ।। 10 पादायोः ॥ २. १. २८ ॥ नियतपरिमाणमात्राक्षरपिण्ड: पादः, पदात् परयोर्युष्मदस्मदोर्यदुक्त वस्नसादि तत् पादस्यादिभूतयोर्न भवति । "वीरो विश्वेश्वरो देवो, युष्माकं कुलदेवता। स एव नाथो भगवानस्माकं पापनाशनः" ।। १॥ 15 पादाद्योरिति द्विवचनं युष्मदस्मदोरभिसम्बन्धार्थम्, पादादाविति ह्य च्यमाने आमन्त्रमभिसम्बध्येत । पादाद्योरिति किम् ? "पान्तु वो देशनाकाले, जैनेन्द्रा दशनांशवः । भवकूपपतज्जन्तुजातोद्धरणरज्जवः" ।। २ ।। २८ ।। न्या० स०-पादा० इत्यादि । मात्राश्च अक्षराणि च मात्राक्षराणि, नियतपरि-20 माणानि च तानि मात्राक्षराणि च तेषां पिण्डः, यद्वा मात्राक्षराणां पिण्ड: २, नियतपरिमाणश्चासौ मात्राक्षरपिण्डश्च २ । पादादाविति ह्य च्यमाने इति-पादादावित्यस्यान्त्र्याभिसम्बन्धे किं स्यात् ? "जिनेश ! त्वां नमस्कृत्य, यन्नरो मुक्तिमिच्छति । अतो नरसुराधीशस्तुत्यस्तोत्रं त्वमर्हसि" ।। १ ।। 25 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २६-३०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १५७ इत्यत्रामन्त्र्यस्य पदस्यादिभूतस्य सत्त्वात् त्वादेश: प्रसज्यतेऽतो द्विवचनमदात् सूरिः । देशनाकाल इति-देशनं देशस्तं करोति "णिज् बहुलम् ०" [३. ४. ४२.] देश्यते इति 'णिवेत्त्यास०' [ ५. ३. १११. ] इत्यनः ।। २८ ।। चाहहवैवयोगे ॥ २. १. २६ ॥ 'च अह ह वा एव' इत्येतैर्योगे-सम्बन्धे पदात् परयोर्युष्मदस्मदोर्यदुक्तं 5 वस्नसादि तन्न भवति । ज्ञानं युष्मांश्च रक्षतु, अस्मांश्च रक्षतु; ज्ञानं युष्मानह रक्षतु, अस्मानह रक्षतु; ज्ञानं युष्मान् ह रक्षतु, अस्मान् ह रक्षतु; ज्ञानं युष्मान् वा रक्षतु, अस्मान् वा रक्षतु; ज्ञानं युष्मानेव रक्षतु, अस्मानेव रक्षतु; ज्ञानं युष्मभ्यं च दीयते, अस्मभ्यं च दीयते; ज्ञानं युष्माकं च स्वम्, अस्माकं च स्वम् ; ज्ञानं युवां च रक्षतु, ज्ञानमावां च रक्षतु; ज्ञानं युवाभ्यां च10 दीयते, आवाभ्यां च दीयते; ज्ञानं युवयोश्च स्वम् ; आवयोश्च स्वम् ; ज्ञानं त्वां च रक्षतु, मां च रक्षतु; ज्ञानं तुभ्यं च दीयते, मह्य च दीयते; ज्ञानं तव च स्वम्, मम च स्वम् । योगग्रहणं किम् ? ज्ञानं च शीलं च वो रक्षतु, नो रक्षतु; ज्ञानं च शीलं च वां दीयते, नौ दीयते; ज्ञानं च शीलं च ते स्वम्, मे स्वम् ; ज्ञानं च शीलं च त्वा रक्षतु, मा रक्षतु; ज्ञानं च ते स्वम्, ज्ञानं च मे स्वम् ; 15 नैतेषु चशब्देन युष्मदस्मदोर्योगोऽपि तु ज्ञान-शीलयोः । “चाहवैवैः' इत्येव सिद्धे योगग्रहणं साक्षाद्योगप्रतिपत्त्यर्थम् ।। २६ ।। न्या० स०--चाहहेत्यादि । योग इति-चादिद्योत्यसमुच्चयाद्यर्थस्य साक्षाद् युष्मदस्मदर्थसम्बन्ध इत्यर्थः, ज्ञानं च शीलं चेत्यत्र चशब्देन ज्ञानशीलयोः सद्वितीयता द्योत्यते न तु युष्मदस्मदर्थयोरिति । योगग्रहणमिति-अयमर्थ:-योगग्रहणं विना अर्थात् प्रकरणा20 वा चादिषु गम्यमानेष्वपि स्यादिति ।। २६ ।। . दृश्यर्थै श्चिन्तायाम् ॥ २. १. ३० ॥ दृशिना समानार्था दृश्यर्थाः, तैर्धातुभिश्चिन्तायां वर्तमानोगे युष्मदस्मदोर्यदुक्त वस्नसादि तन्न भवति । जनो युष्मान् संदृश्यागतः, जनोऽस्मान् संदृश्यागतः; जनो युवां समीक्ष्यागतः, जन आवां समीक्ष्यागतः; जनस्त्वा-25 मपेक्षते, जनो मामपेक्षते; ज्ञानं युष्मभ्यं दीयमानमुत्पश्यति, ज्ञानमस्मभ्यं दीयमानमुत्पश्यति; ज्ञानं युवाभ्यां दीयमानं निरूपयति, ज्ञानमावाभ्यां दीयमानं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ३१.] निरूपयति; ज्ञानं तुभ्यं दीयमानं निध्यायति, ज्ञानं मह्य दीयमानं निध्यायति; ' जनो युष्माकं चित्तमुपलक्षयति, जनोऽस्माकं चित्तमुपलक्षयति; जनो युवयोः । कार्य संपश्यति, जन आवयोः कार्य संपश्यति ; गुरुस्तव कार्यमालोचयति, गुरुर्मम कार्यमालोचयति ; सर्वत्र मनसा चिन्तनं दृश्यर्थानामर्थः । दृश्यर्थं रिति किम् ? जनो वो मन्यते, जनो नो मन्यते । चिन्तायामिति किम् ? जनो वः पश्यति, 5 जनो नः पश्यति; जनो वामीक्षते, जनो नावीक्षते; जनस्त्वा लोकयति, जनो मा लोकयति; सर्वत्र चक्षुषा पश्यतीत्यर्थः ।। ३० ।। न्या० स०-दश्यर्थं रित्यादि । दश्यर्थः अत्रार्थे स्वरूपे वा किः, तत्र यदार्थे तदा दृशिरर्थो येषाम्, स्वरूपे तु दृशेरों दर्शनमालोचनं येषां धातूनाम् । जनो वो मन्यते इति-नाऽयं दृश्यर्थः, दृश्यर्थो नाम यश्चक्षुःसाधने विज्ञाने वर्तते, अतो न निषेध10 इति ।। ३० ॥ नित्यमन्वादेशे ॥ २. १. ३१ ॥ कथितानुकथनमन्वादेशः, कस्यचिद् वस्तुनः किञ्चित् क्रियादिकं विधातुं कथितस्य तेनान्येन वा शब्देन पुनरन्यद् विधातुं कथनमित्यर्थः, तस्मिन् विषये पदात् परयोर्युष्मदस्मदोर्यदुक्त वस्नसादि तन्नित्यं भवति । यूयं विनीतास्तद्15 वो गुरवो मानयन्ति, वयं विनीतास्तन्नो गुरवो मानयन्ति; युवां शीलवन्तौ तद् वां गुरवो मानयन्ति, आवां शीलवन्तौ तन्नौ गुरवो मानयन्ति; त्वं विद्वानथो ते क्षमाश्रमणैर्ज्ञानं दीयते, अहं विद्वानथो मे क्षमाश्रमणैर्ज्ञानं दीयते; धनवांस्त्वमथो त्वा लोको मानयति, धनवानहमथो मा लोको मानयति ।। ३१ ॥ ___ न्या० स०-नित्यमित्यादि । नन्वत्र निषेधाधिकारे कथमिदं विधायकमभूत् ? सत्यम्-नित्यनिषेधाधिकारे यन्नित्यग्रहणं तदेवं बोधयति-विधानसूत्रमिदमिति । न चेदं वाच्यम्-अत्र नित्यग्रहणाभावे "पदाद्" [२. १. २१.] इति सूत्रे कथं विकल्प इति, तदा हि तत्रैव नवेति कुर्यादिति । कस्यचिद् द्रव्यस्य काञ्चित् क्रियां जाति गुणं द्रव्यं वा प्रतिपादयितु कथितस्य तेन तदितरेण वा शब्देन पौनरुक्त्यं मा भूदिति विशेषान्तरं25 प्रतिपादयितु पुनः कथनमन्वादेश इति यावत्, तेनान्येन वेति-युष्मदस्मच्छब्दाभ्यां कृत्वा विनीतत्वादिकं विधाय पुनयुष्मदस्मद्भयां गुरुमाननादिकं विधीयते, अत्र सूत्रे तेनैव शब्देन कथनमस्ति, अन्येन तु कथनमुत्तरत्रैव ज्ञेयम् । पुनरन्यद विधातमिति-पूनःशब्दोपादानात 20 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १५६ [ पा० १ सू० ३२. ] तस्यैव कथनं यदि भवति तदैवान्वादेशः, नह्यन्यस्य कथने पुनः शब्दार्थो घटते, तेन यत्रान्यस्य कथनं तत्र नान्वादेशः, ततश्व जिनदत्तमध्यापय, एतं च गुरुदत्तमित्यत्र तस्यैव जिनदत्तस्य पुनः कथनाभावादन्वादेशाभावात् "त्यदामेनद्०" [२.१.३३.] इत्यनेन एनदादेशो न भवति । यूयं विनीता इति - अन्वादेशदर्शनार्थं वाक्यान्तरमिदमुपदशितम्, न तूत्तरपदसम्बद्धं बोधव्यम्, तेन तदित्यस्य पदस्य सपूर्वत्वाभावादुत्तरेण न विकल्प:, तदित्यव्ययं तस्मादित्यर्थे, 5 विनीततामात्रमत्रानूद्यते नापूर्वं किञ्चिद् विधीयते, यूयं विनीता इति प्रथमादेश उत्तरस्यान्वादेशख्यापनार्थम्, विनीता इति विनीतत्वं प्रतिपादयितुं यूयमित्युक्तम् । तद् वो गुरवो मानयन्तीति प्रयमन्वादेशः, यूयमिति यत् प्रथममुक्त तस्यैव च गुरवो मानयन्तीति प्रतिपादयितुं द्वितीयं कथनम्, तत्र वसादेशः, एवं सर्वत्र ।। ३१ ।। सपूर्वात् प्रथमान्ताद् वा ।। २. १. ३२ ॥ विद्यमानपूर्वपदात् प्रथमान्तात् पदात् परयोर्युष्मदस्मदोरन्वादेशे वस्नसादय आदेशा वा भवन्ति । यूयं विनीतास्तद् गुरवो वो मानयन्ति तद् गुरवो युष्मान् मानयन्ति वयं विनीतास्तद् गुरवो नो मानयन्ति, तद् गुरवोऽस्मान् मानयन्ति ; युवां सुशीलौ तज्ज्ञानं वा दीयते, तज्ज्ञानं युवाभ्यां दीयते; आवां सुशीलौ तज्ज्ञानं नौ दीयते, तज्ज्ञानमावाभ्यां दीयते; सुशील - 15 स्त्वमथो क्षमाश्रमणास्ते ज्ञानं प्रयच्छन्ति, अथो क्षमाश्रमणास्तुभ्यं ज्ञानं प्रयच्छन्ति; सुशीलोऽहमथो क्षमाश्रमणा मे ज्ञानं प्रयच्छन्ति, प्रथो क्षमाश्रमणा मह्यं ज्ञानं प्रयच्छन्ति ; धनवानसि अथो ग्रामे कम्बलस्ते स्वम्, अथो ग्रामे कम्बलस्तव स्वम्; धनवानहमथो ग्रामे कम्बलो मे स्वम्, अथोग्रामे कम्बलो मम स्वम्; धनवांस्त्वं तल्लोकस्त्वा पूजयति, तल्लोकस्त्वां पूजयति ; 20 धनवानहं तल्लोको मा पूजयति, तल्लोको मां पूजयति । गम्येऽप्यन्वादेशे भवति - ग्रामे कम्बलो वः स्वमथो, ग्रामे कम्बलो युष्माकं स्वमथो इत्यादि । सपूर्वादिति किम् ? पटो युष्माकं स्वम्, अथो वः कम्बलः स्वम् । प्रथमान्तादिति किम् ? पटो नगरे युष्माकं स्वम्, अथो कम्बलो ग्रामे वः स्वम् । ' माणवक ! जटिलक ! ते स्वमथो इत्यादौ तु विशेषणपदस्य "असदिवा- 25 मन्त्र्यं पूर्वम्” [२. १२५ ] इत्यसद्वद्भावात् नास्ति सपूर्वप्रथमान्तमिति न भवत्येव विकल्पः । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पार्थं वचनम् ।। ३२ ।। न्या० स०-—सपूर्वादित्यादि । सहशब्दो विद्यमानवचनः, पूर्वशब्दो व्यवस्थार्थः, 10 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] बृह वृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ३३.] सह-विद्यमानं पूर्वपदं यस्मात् “एकार्थं च०" [३. १. २२.] इति समासः । प्रथमान्ताद् वेति-प्रथमायाः प्रत्ययत्वात् “प्रत्ययः प्रकृत्यादेः" [७. ४. ११५.] इत्यादिनाऽन्तस्य लब्धत्वादन्तग्रहणं न्यायानुवादार्थमिति । धनवानसीत्यादि-अत्र अन्येन कथनमन्वादेशः, यतो धनवानसीत्यस्मिन्नन्वादेशदर्शके वाक्यान्तरे प्रथममसीत्युक्तम्, अथो ग्रामे कम्बलस्ते स्वमित्यत्र तु ते इत्युक्तम् । गम्येऽप्यन्वादेशे भवतीति-यूयं धनवन्त इत्यादिपदोपादाने 5 हि साक्षादन्वादेशो भवति, 'अथो' इत्यादेस्तु द्योतकमात्रस्योपादाने गम्य एव । 'माणवक ! जटिलक ! ते स्वमथों' इत्यादौ तु विशेषणपदस्य जटिलक ! इत्यस्य "असदिवा०" [२. १. २५.] इत्यसत्त्वम्, माणवक ! इत्यस्य तु विशेष्यपदस्य "असदिवामन्त्र्यम् ०" [२. १. २५.] इति नाऽसद्वत्त्वम्, “नान्यद् [२. १. २८.] इति प्रतिषेधात् ॥ ३२ ।। त्यदामेनदेतदो द्वितीया-टौस्यवृत्यन्ते ॥ २. १. ३३ ॥ 10 त्यदादीनां सम्बन्धिन एतदित्यस्य द्वितीयायां टायामोसि च परेऽन्वादेशे 'एनद्' इत्ययमादेशो भवति, अवृत्त्यन्ते-न चेदयमेतच्छब्दो वृत्तेरन्ते भवति । द्वितीया-उद्दिष्टमेतदध्ययनमथो एनदनुजानीत; एतकं साधुमावश्यकमध्यापयाथो एनमेव सूत्राणि, अत्र साकोऽप्यादेशः; सुशीलावेतौ तदेनौ गुरवो मानयन्ति, सुस्थिता एते तदेनान् देवा अपि नमस्यन्ति; टा-एतेन रात्रिरधीता15 अथो एनेनाहरप्यधीतम् ; अोस्-एतयोः शोभनं शीलमथो एनयोर्महती कीत्तिः, सर्वाणि शास्त्राणि ज्ञातवन्तावेतौ अथो एनयोस्तिष्ठतोर्नान्यः पूजार्हः । त्यदामिति किम् ? एतदं संगृहाण अथो एतदमध्यापय, संज्ञायामसर्वादित्वादत्यदादिः । अवृत्त्यन्त इति किम् ? अथो परमैतं पश्य । अन्तग्रहणं किम् ? एनच्छितकः, अत्रार्थात् प्रकरणाद् वाऽपेक्ष्ये निर्माते सति समासोऽन्वादेशश्च । 20 द्वितीया-टौसीति किम् ? एते मेधाविनो विनीता अथो एते शास्रस्य पात्रम्, एताभ्यां रात्रिरधीता अथो एताभ्यामहरप्यधीतम्, एतस्मै सूत्रं देहि, अथो एतस्मै अनुयोगमपि देहि; अभ्युदय-निःश्रेयसपदमेतच्छासनमथो एतस्मै नमो भगवते । अन्वादेश इत्येव-जिनदत्तमध्यापय एतं च गुरुदत्तम्, न पश्चात् कथनमात्रमन्वादेशः । यत्रापि वस्तुमात्रनिर्देशं कृत्वा विधानं क्रियते तत्रापि न25 भवति [ईषदर्थे क्रियायोगे, मर्यादाभिविधौ च यः । . एतमातं डितं विद्याद्, [वाक्य-स्मरणयोरङित् ॥ ३३ ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३४.] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १६१ न्या० स०--त्यदामेनदेतदो द्वितीयेत्यादि । त्यच्च त्यदश्च त्यदः, “त्यदादिः" [३. १. १२०.] इत्येकशेषः, “प्रा द्वरः" [२. १. ४१.] इति तु न भवति सूत्रत्वात्, शब्दार्थयोर्भेदविवक्षायां निरर्थकत्वेन त्यदादित्वाभावाद् वा। एताभ्यां रात्रिरधीतेति अत्राविवक्षितकर्मण इङ धातोर्योगे रात्रिलक्षणस्याधारस्य “काला-ऽध्व-भाव-देशं वा." [ २. २. २३. ] इति कालस्य कर्मत्वे ततश्चाधीतेत्यत्र कर्मणि क्ते सति कर्मण उक्तत्वाद् 5 रात्रिशब्दात् प्रथमा, यदिवा रात्रिसहचरितमध्ययनमपि उपचाराद् रात्रिशब्देनोच्यते ततः साऽधीतेति । अर्थात् प्रकरणाद् वेति-प्रथमादेशसापेक्षत्वादन्वादेशस्य । ननु तत्रासामर्थ्यात् 'ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः' इत्यादिवत् समासाभावः, सामर्थ्यात् समासश्चत् पूर्वकथ पेक्षस्यान्वादेशस्याभाव इति परस्परविरोधाभयाभावादत्रादेशाभाव इत्याह-अर्थादित्यादि-अर्थो वा तादृशो भवतिप्रकरणं वा येन ताभ्यामेवापेक्ष्यस्य प्रथमादेशस्य निश्चितत्वाद् 10 वृत्तावेवान्तर्भावान्निरपेक्षत्वात् समासो भवति, यथा देवदत्तस्य गुरुकुलम् । वस्तुमात्रनिर्देशं कृत्वेति-अनुवादमात्रं कृत्वेत्यर्थः, तत्रापि न भवति, यथा एतमातं ङितमित्यत्र ।। ३३ ।। इदमः ॥ २. १. ३४ ॥ त्यदादीनां सम्बन्धिन इदमित्यस्य द्वितीयायां टायामोसि च परेऽन्वादेशे 'एनद्' इत्यममादेशो भवति, अवृत्त्यन्ते । उद्दिष्टमिदमध्ययनमथो एनद-15 नुजानीत, इमकं साधुमावश्यकमध्यापय अथो एनमेव सूत्राणि, अत्र साकोऽप्यादेशः, सुशीलाविमौ तदेनौ गुरवो मानयन्ति, सुस्थिता इमे तदेनान् देवा अपि नमस्यन्ति; अनेन रात्रिरधीता अथो एनेनाहरप्यधीतम् ; अनयोः शोभनं शीलमथो एनयोर्महती कीत्तिः, सर्वाणि शास्त्राणि ज्ञातवन्ताविमौ अथो एनयोस्तिष्ठतो न्यः पूजाहः। द्वितीया-टौसीत्येव-मत्पुत्रको शीलवन्ताविमकौ20 तिष्ठतः । अवृत्त्यन्त इत्येव-अथो परमेमं पश्य, वृत्त्यादौ तु भवत्येव-एनमेनां वा श्रित एनच्छितकः । अन्वादेश इत्येव-चैत्रमध्यापय इमं च मैत्रम् । यत्रापि वस्तुमात्रनिर्देशं कृत्वा किञ्चिद् विधीयते तत्रापि न भवति-अयं दण्डो हरानेन फलानि । केचित् तु-इदम आदेशम् ‘एनम्' इति मकरान्तं द्वितीयकवचने आहुः, तन्मते-इदं कुण्डमानयाथो एनं परिवत येत्येव भवति । 25 योगविभाग उत्तरार्थः ।। ३४ ।। न्या० स०--इदम इति । "टौस्यनः" [२. १. ३७. ] इति “दो म:०" [२. १. ३६.] इति च प्राप्तेऽयमपवादः। मत्पुत्रकाविति-कृत्रिमौ मत्पुत्री "तनु-पुत्राणु०" [७. ३. २३. ] इति कः, अनुकम्पो वा मत्पुत्रौ "अनुकम्पा०" [ ७. ३. ३४. ] इति कः । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ३५.] शीलवन्ताविमको तिष्ठत इति-अत्रापि पूर्ववद् गम्यमानोऽन्वादेशः, अथो इत्यादि तु द्योतकत्वात् क्वापि प्रयुज्यते क्वापि न । अयं दण्डो हरानेनेति-अत्र ह्यनुवादमात्रमेव न तु निभाल्यतामित्यादि विधीयते । केचित् विति-पाणिनिप्रभृतयः । अथो एनं परिवर्तयेत्येव भवति न तु कुण्डशब्दस्य नपुसकस्य विशेषणत्व एनदिति ॥ ३४ ।। अद् व्य ञ्जने ॥२. १. ३५ ॥ इदम इति षष्ठ्यन्तमपि सर्वादेशार्थं प्रथमान्ततयेह विपरिणम्यते, त्यदादिसम्बन्धीदम्शब्दो व्यञ्जनादौ स्यादौ परेऽन्वादेशे गम्यमानेऽद् भवति, अवृत्त्यन्ते, तकार उच्चारणार्थः । इमकाभ्यां शैक्षकाभ्यां रात्रिरधीता अथो आभ्यामहरप्यधीतम्, इमकैः शैक्षकैः रात्रिरधीता अथो एभिरहरप्यधीतम्, एवम्-इमकस्मै अथो अस्मै, इमिकस्यै अथो अस्यै, इमकस्मादथो अस्मात्,10 इमकस्याथो अस्य, इमकेषामथो एषाम्, इमिकस्मिन्नथो अस्मिन्, इमकस्यामथो अस्याम्, इमकेषु अथो एषु, इमिकासु अथो आसु । सौ तु परत्वादयमाद्यादेशः अथो अयं शीलवान् । केचिदेतदोऽपीच्छन्तिएताभ्यां छात्राभ्यां रात्रिरधीता अथो प्राभ्यामहरप्यधीतम्, एवम्-एतैः, एभिः, एतस्मै, अस्मै; इत्यादि । अन्वादेश इत्येव-इमकस्मै देहि । अवृत्त्यन्त इत्येव-अथो परमेमकाभ्यां रात्रि-15 रधीता। व्यञ्जन इति किम् ? अथो इमके तिष्ठन्ति । उत्तरत्र “अनक्" [२. १. ३६.] इति वचनादिह साक एव विधिः ॥ ३५ ॥ न्या० स०--अद् व्यञ्जने इति-तकार उच्चारणार्थः, अन्यथा सौ “सो रुः" [ २. १. ७२. ] इत्यादौ कृते 'ओ' इत्यनिष्टं रूपं स्यात् । प्रथमान्ततयेह विपरिणम्यत इति-अत एव कार्यो निमित्तं कार्यमिति निर्देशक्रमे प्राप्ते निमित्तात् पूर्व कार्यनिर्देशः,20 उत्तरत्र "अनक" [ २. १. ३६. ] इति प्रथमान्तविशेषणोपादानाद् वा । शैक्षकाभ्यामितिशिक्षेते इति शिक्षको, ततः स्वार्थे प्रज्ञाद्यण ; शिक्षणं शिक्षा "क्त टो गुरो०" [ ५. ३. १०६.] इत्यप्रत्ययः, ततः शिक्षां वित्तोऽधीयाते वा “पदक्रम-शिक्षा." [६. २. १२६.] इत्यकः, तत: शिक्षकावेव प्रज्ञाद्यण ; अथवा शिक्षायां भवौ “शिक्षादेश्चारण" [ ६. ३. १४८. ] इत्यरिण ततो यावादित्वात् कः । अथ सावपि व्यञ्जनादित्वात्25 कथं नायमादेश इत्याह-सौ तु परत्वादिति । केचिदिति-चान्द्र-भोज-क्षीरस्वामिप्रभृतयः । साक एव विधिरिति-विश्रान्तादौ-अन्वादेशे साको निरकश्चादादेशविधानादिहैवमपि व्याख्या-साको यद्यादेशस्तदाऽन्वादेश एवेति निरकोऽन्वादेशेऽनन्वादेशे चोत्तरेणादादेशः सिद्धः ।। २. १. ३५ ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १ सू० ३६-३७.] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्याय: [ १६३ अनक ॥। २.१.३६ ॥ अन्वादेश इति निवृत्तं पृथग् योगात्, उत्तरार्थः । त्यदादिसम्बन्धिनि व्ञ्जञ्जनादौ स्यादौ परेऽग्वजित इदम् 'अद्' भवति । आभ्याम् एभि:, श्रभिः; अस्मै, अस्यै; अस्मात् अस्याः ; अस्य अस्याः ; एषाम्, आसाम् ; अस्मिन् अस्याम् ; एषु, आसु । अनिगिति किम् ? इमकाभ्याम्, इमकेभ्यः, 5 इमस्मै, इमिकस्यै, इमकेषाम् । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति - प्रतीभ्याम्, अतीदंसु, प्रियेदंभ्याम्, प्रियेदंसु; इह तु भवति - परमाभ्याम्, परमैभिः, परमैभ्यः, परमास्मै, परमास्यै; परमास्मात् परमास्याः; अत्र पूर्वोत्तरयोः पदयोः पूर्वं कार्ये कृते पश्चात् संधिकार्यम्, एतच्च "आतो नेन्द्रवरुणस्य" [७. ४. २६.] इत्यत्र ज्ञापयिष्यते । प्रभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः ।। ३६ ।। 10 न्या० स० -- अनगिति । पृथग् योगादिति - पृथग् योगारम्भादिति भावः अन्यथा साकोऽनकोऽप्यन्वादेशे पूर्वसूत्रेणैव सामान्यविधानेन सिद्धत्वात् सूत्रारम्भवैयर्थ्यमिति । अन्वादेश निवृत्तौ तत्सम्बद्धमवृत्त्यन्त इति च निवृत्तम् । ननु परमाभ्यामित्यादौ परादप्यदादेशात् समासे सति स्याद्युत्पत्तिसापेक्षत्वेन बहिरङ्गादन्तरङ्ग “प्रवर्णस्य०” [ १. २. ६. ] इत्येत्वे कृते इदम् रूपाभावाददादेशाभावः प्राप्नोतीत्याह-प्रत्रेति किञ्च, 15 परमै भिरित्यादिषु परमशब्दसम्बन्धिनाऽकारेण सह यदि एत्वलक्षणः संधिः प्रथममेव क्रियते तदा उभयस्थाने यः समुत्पद्यते स लभतेऽन्यतरव्यपदेशम् इति न्यायाद् यदा एकारस्य इदम् शब्दसम्बन्धिता तदा एकारेण सह इदमोऽत्वं स्यात्, ततः पूर्वस्य व्यञ्जनान्ततायामनिष्टरूपापत्तिः, यदा तु एत्वस्य इदम्सम्बन्धिता न भवति तदा एकारस्य स्थिति: स्यात्, इत्युभयथाप्यनिष्टापत्तिः । एतच्चेति कथमाग्नेन्द्रमित्यत्र प्रयोगे आकाराद् इन्द्र - 20 वरुणस्थस्य स्वरस्य वृद्धिर्न भवतीत्युक्तम्, ततश्च यदि पूर्वमेव सन्धिकार्यं स्यात् तदा निषेधोऽनेन व्यर्थ एवेत्यर्थः ।। २. १. ३६ ।। टौस्यनः ॥ २.१. ३७ ॥ त्यदादिसम्बन्धिनि टायामोसि च परेऽग्वजितस्येदमः स्थाने 'अन' इत्ययमादेशो भवति । अनेन, अनया; अनयोः स्वम्, अनयोनिधेहि; परमानेन, 25 परमानयोः । त्यदादिसम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति - प्रतीदमा, प्रतीदमोः, प्रियेदमा, प्रियेदमोः । अनक इत्येव - इमकेन, इमिकया; इमकयोः इमिकयोः ।। ३७ ।। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते अयमियं पुं-स्त्रियोः सौ ॥ २. १.३८ ॥ त्यदां सम्बन्धिनि सौ परे पुंल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्गयोरिदमः स्थाने यथासंख्यम् ‘अयम्, इयम्' इत्येतावादेशौ भवतः । अयं पुमान् इयं स्त्री; परमायम्, अनयम्; परमेयम्, अनियम् । साविति किम् ? इमौ इमे । त्यदादिसम्बन्धिविज्ञादिह न भवति - प्रतीदं पुमान् स्त्री वा एवं - प्रियेदम् । पुं- स्त्रियोरिति 5 किम् ? पुंसि 'इयम्' स्त्रियाम् 'अयम्' मा भूत् । नपुंसके तु नित्यत्वात् प्रथममेव सेर्लुपि इदं कुलमित्यत्र प्रसङ्ग एव नास्ति । साकोऽप्ययमियमादेशौ भवतः - प्रयम्, इयम्; अन्ये त्वादेशे कृते पश्चादकमिच्छन्ति-प्रयकम्, इयकम् ।। ३८ । [ पा० १. सू० ३८ - ४०.] न्या० स०—–श्रयमियमित्यादि - पूर्ववदलौकिको निर्देशः, लुप्तप्रथमाद्विवचनान्तं 10 पदम् । पुं- स्त्रियोरिति किम् ? पुंसि इयं स्त्रियामयं मा भूदिति - ननु कथमिदमुक्तम् ? यावता नपुंसके प्रयमियमादेशनिवृत्त्यर्थं पु-स्त्रियोरिति वचनं स्यात्, तत्राह - नपुंसके तु नित्यत्वादित्यादि । *प्रपेक्षातोऽधिकार इति " अनक्" [ २. १. ३६. ] इत्यत्र न सम्बध्यते, तेन मतान्तरे साकोऽप्यादेशः । केषाञ्चिन्मते - अकारान्त आदेशः, से: 15 स्थाने म् ।। २.१.३८ ।। दो मः स्यादौ ॥ २. १. ३६ ॥ त्यदां सम्बन्धिनि स्यादौ परत इदमो दकारस्य मकारादेशो भवति । इमौ, परमेमौ, इमे, इमम्, इमौ इमान्, इमकौ, इमकेन, इमकाभ्याम् । त्यदादिसम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति - प्रतीदमौ प्रियेदमौ ।। ३६ । न्या० स० -- दो मः स्यादाविति । स्याद्यधिकारे स्यादावित्युपादानात् स्यादि-20 रेवानुवर्त्तते न किञ्चित् तद्विशेषणमित्याह - स्यादाविति ।। २. १. ३६ ।। किमः कस्तसादौ च ।। २.१. ४० ॥ त्यदादिसम्बन्धिनि स्यादौ तसादौ च प्रत्यये परे किम्शब्दस्य स्थाने 'क' इत्यकारान्त आदेशो भवति । कः, कौ, के, कम्, कौ, कान्; केन, काभ्याम्, कैः; स्त्रियाम् - का, के, काः; काम्, के, काः; नपुंसके- के, कानि; परमक: 25 परमकौ; अकः, अकौ; साकोऽपि कः, कौ; तसादौ - कदा, कहि । तसादौ चेति Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ४१-४२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १६५ किम् ? किं तिष्ठति, किं पश्य, किंतराम् । त्यदादिसम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-प्रतिकिम्, प्रतिकिमौ, अतिकिमः; प्रियकिम्, प्रियकिमौ, प्रियकिमः । आदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वात् तसादयस्थमवसाना ग्राह्याः ।। ४० ।। ___ न्या० स०--किमः क इति । न च वाच्यमिदं सूत्रं किमर्थम् ? यतः "श्रा द्वरस्तसादौ च" अग्रे "इमः" इति क्रियमाणे साकस्यानिष्टं रूपं स्यात्-ककः, ककौ। नन्वत्र 5 तसादाविति किमर्थम् ? तसि तावत् "इतोऽतः कुतः" [७. २. ६०.] इति निपातनं वक्ष्यते, सत्यम्-उत्तरार्थमिदम्, अथवा थमन्तार्थ तसादिग्रहणम्, अन्यथाऽनवधिकं ज्ञायेत । अत्र पूर्वसूत्रात् स्यादावित्यनुवर्तमानेन सह तसादावित्यस्य समुच्चयार्थश्चकारः, यथा “विशेष्यं विशेषेण०" [ ३. १. ६६. ] इत्यत्र, अत एव "पा द्वरः" [२. १. ४१ ] इत्यत्र स्यादावित्यस्यानुवृत्तिः, अन्यथा चानुकृष्टत्वान्नानुवर्तेत । थमवसाना इति-तेन किंतरामित्यादौ10 तदुत्तरेषु न भवति ।। २. १. ४० ।। आ वेरः ।। २. १. ४१ ॥ द्विशब्दमभिव्याप्य त्यदादीनामन्तस्य तत्सम्बन्धिनि स्यादौ तसादौ च प्रत्यये परेऽकार आदेशो भवति । स्यः, त्यौ, त्ये ; सः, तौ, ते; यः, यौ, ये; अमू, अमी; इमो, इमे; एषः, एतौ, एते; एकः, एवम्-द्वौ, त्यकौ, परमत्यौ; 15 स्त्रियाम्-स्या, त्ये, त्याः, द्व; नपुंसके-त्ये, त्यानि, द्वे; तसादौ-ततः, तत्र, तदा, तथा, तर्हि, यतः, यत्र, यदा, यथा । त्यदादिसम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति-अतितद्, अतितदौ, अतितदः; प्रियतद्, प्रियतदौ, प्रियतदः । श्रा द्व रिति किम् ? भवान् ।। ४१ ।। न्या० स०--आ द्वर इति । द्वाविच्छति क्यनि क्विपि तयोर्लोपे सौ अनेनेका-20 रस्यात्वं न, त्यदादिसम्बन्धिस्याद्यभावाद् द्वीरित्येव भवति । एक इति-रूपनिर्णयार्थमिदं दर्शितं न तु किञ्चित् फलम् ।। २. १. ४१ ।। तः सौ सः ॥ २. १. ४२ ॥ पा द्वस्त्यदादीनां सम्बन्धिनि सौ परे तकारस्य सकारादेशो भवति । स्यः, स्या, स्यकः, परमस्यः; सः, सा, सकः, परमसः; एषः, एषा, एषकः,25 परमेषः; हे स ! , हे परमस ! , हे परमैष ! । त इति किम् ? यः । साविति Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० १. सू० ४३ - ४४.] किम् ? त्यद्, तद्, त्यौ, तौ । त्यदादिसम्बन्धिविज्ञानादिह न भवति - प्रियत्यद्, प्रियैतत् पुमान् । द्व े रित्येव भवती ।। ४२ ।। न्या० स०--तः सौ स इति । भवतीति- नामग्रहणे० इति न्यायादत्रापि सत्वे भवसीति स्यात्, नपुंसके सेरभावात् पुंल्लिङ्ग तु से: स्थानित्वेन सत्वे कृतेऽपि “पदस्य” [ २. १. ८६. ] इति सलोपे विशेषाभावात् स्त्रियामुदाहृतम् ।। २. १. ४२ ।। 5 अदसो दः सेस्तु डौ ।। २.१.४३ ।। 1 " त्यदादिसंबन्धिनि सौ परेऽदसो दकारस्य सकारादेशो भवति, सेस्तु डौ । असो, असकौ; हे असौ !, हे सकौ विद्वन् ! ; असो, असकौ स्त्री; हे असौ !, हे असकौ स्त्रि ! | सावित्येव - प्रदः, अमू । त्यदादिसंबन्धिविज्ञानादिह न भवति - प्रत्यदाः । डित्कररणमन्त्यस्वरादिलोपार्थम्, तेन “प्रता” 10 [१. ४. २०. ], "एदापः " [१. ४. ४२. ], “दीर्घङयाब्व्यञ्जनात् से: " [१. ४. ४५. ], " अस्यायत्तत्क्षिपकादीनाम्" [२. ४. ११०.] इति कार्याणि न भवन्ति, अन्यथा सेस्त्वौरित्येव क्रियेत ।। ४३ ।। " न्या० स०-- श्रदसो ० । असाविति - सेरनेन डौ " डित्यन्त्यस्वरादेः ” [ २. १. ११४.] इत्येव कार्यं, न तु "आ द्व ेर:" [ २.१.४१ ] इति प्रक्रियालाघवार्थं डित्करणस्य सर्व - 15 कार्यबाधकत्वेन व्याख्यास्यमानत्वाच्च । हे श्रसौ ! हे असकौ विद्वन्निति - अत्र औरित्यपि कृते तदादेशा० इति से: स्थानित्वेऽपि " प्रदेत: स्यमो : ० " [ १. ४. ४४. ] इत्यस्य न प्रसङ्गः, सिद्वारेणाऽमोऽपि लुपि सिद्धायां यत् अम्ग्रहणं तदन्यस्य स्यादेशस्य निवृत्त्यर्थमिति तत्र व्याख्यानात् । कार्याणि न भवन्तीति - एतानि च स्त्रियां प्राप्नुवन्ति, तथाहिअदशब्दात् सौ अनेन प्रकारे "आ द्वेर:" [ २.१.४१ ] इत्यत्वे आणि श्रव्यपदेशे 20 “श्रौता” [ १. ४. २०. ] इत्यस्य, सिव्यपदेशे तु श्रामन्त्रये “ एदापः" [ १. ४. ४२. ] इत्यस्य, अनामन्त्र्ये तु “दीर्घङयाब्०” [ १. ४. ४५. ] इत्यस्य, अकि तु "अस्यायत्तत् ०' [ २.४ १११. ] इत्यस्य प्राप्तिः । श्रय "श्रता" [ १.४.२० ] इत्यत्र प्रथमाद्वितीयाद्विवचनेनेति व्याख्यानात् कथं सिस्थानौकारस्य प्राप्तिः, सत्यम् - अत्रैवं स्थिते तत्रैवं व्याख्यातमिति " प्रता" १.४.२० ] प्राप्नोत्येव ।। २ १ ४३ ।। " [ 25 असुको वाकि ॥। २. १. ४४ ।। त्यदादिसंबन्धिनि सौ परेऽदसोऽकि सति 'असुक' इति दस्य सः सकारात् परस्याकारस्योकारः सेश्च डौत्वाभावो वा निपात्यते । असुकः, T Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ४५-४६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १६७ असकौ; हे असुक !, हे असकौ !; असुका, असकौ स्त्री। केचित् तु . 'असुकस्' इति सान्तं सिना सह निपातयन्ति ।। ४४ ॥ न्या० स०--असुको०। असुक इति-पत्र परत्वान्नित्यत्वाच्च "अन्वादे:०" [१. ४. ६०.] इति बाधित्वा सस्य "पा द्वेरः" [ २. १. ४१. ] "लुगस्या." [२. १. ११३. ] इत्यलोपः, सो रुः। केचित् त्वसुकसिति-तन्मते संबोधने स्त्रियां च 'असुक:' 5 इति विसर्गान्त एव, स्वमते तु स्त्रियाऽसुका इति, स्त्रीसंबोधने तु हे असुके ! इति ।। २. १. ४४ ॥ मोवर्णस्य ॥ २. १. ४५ ॥ अवर्णान्तस्य त्यदादिसंबन्धिनोऽदसो दकारस्य मकार आदेशो भवति । अमू नरौ, स्त्रियौ, कुले वा; अमी नराः, अमूः स्त्रियः, अमूनि कुलानि; 10 अमु नरम्, अमू स्त्रियम्, अमः स्त्रीः, अमून् नरान्, अमूनि कुलानि; अमुकौ नरौ, अमुके स्त्रियौ कुले वा; परमामुम्; अमूदृक्, अमूदृशः, अमूदृक्षः, अत्र "अन्य-त्यदादेराः" [३. २. १५२.] इत्यात्वे सत्यवर्णान्तत्वम् । अवर्णस्येति किम् ? अदः कुलम्, अदस्यति ।। ४५ ॥ न्या० स०--मोऽवर्णस्य । ननु अदः कुलमिच्छतीत्यस्मिन् वाक्ये अदस्शब्दान-15 पुसकादमो लुपि “सो रुः" [ २. १. ७२. ] इति रुत्वे “रोर्यः" [ १. ३. २६. ] इति यत्वे “स्वरे वा" [ १. ३. २४. ] इति यलोपेऽवर्णान्तत्वान्मत्वप्रसङ्ग इति, सत्यम्पदान्तरापेक्षत्वेन यलोपस्य बहिरङ्गत्वात् तदनपेक्षत्वेन मत्वविधरन्तरङ्गत्वाद् प्रसिद्धं बहिरङ्गम् इति लोपस्यासिद्धत्वेऽनवर्णान्तत्वाद् मकाराभावः ।। २. १. ४५ ।। वाद्री ॥ २. १. ४६ ॥ 20 अदसोऽद्रावन्ते सति दकारस्य मकारो वा भवति । द्वावत्र दकारौ तत्र विकल्पे सति चातूरूप्यं भवति-अदमुयङ्, अमुद्यङ्, अमुमुयङ्, अदाङ्; तदाह-- "परतः केचिदिच्छन्ति, केचिदिच्छन्ति पूर्वतः । उभयोः केचिदिच्छन्ति, केचिदिच्छन्ति नोभयोः ।। ४६ ।।" 25 न्या० स०--वाद्रौ। अदसोऽवयवस्याऽद्यागमस्य तद्ग्रहणेन ग्रहणात् तस्मिन् Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४७.] सत्यदस इकारान्तत्वेन अवर्णान्तत्वाभावादप्राप्तेऽयं योगः । अमुमुयङिति-'समुदाये प्रवृत्ता अपि शब्दा अवयवेऽपि वर्तन्ते' इति मात्राशब्दोऽर्धमात्रायामपि, तेन अमुमुयङित्यत्र अर्द्धमात्रिकस्यापि र: स्थाने एकमात्रिक उकारादेशो भवति । अत्र वा व्यवस्थितविभाषार्थो न विकल्पार्थः तेन क्वापि कथञ्चिद् विकल्पः प्रवर्तते, यदि तु विकल्पार्थः स्यात् तदा प्रथममेव प्रयोगद्वयं स्यात्, तत्त्वनेनैव विकल्पस्य चरितार्थत्वात् । अदसो 5 दकारस्येति-अद्ररागमत्वाददस्ग्रहणेन ग्रहणाददसो दकारस्येत्युक्त ऽपि अदसोऽद्रेश्च दस्य मः सिद्धः । दकारस्येत्यत्र एकवचनान्तत्वादेकस्यैव दस्य म इति तु न वाच्यम्, दजात्याश्रयणात् । चातूरूप्यमिति-चत्वारि रूपाण्येव, स्वार्थे भेषजादित्वात् ट्यण , चतुर्णां रूपाणां भाव: "पतिराजान्त०" [ ७. १. ६०.] इत्यनेन वा ।। २. १. ४६ ।। मादुवर्णोतु ॥ २. १. ४७ ॥ अदसः संबन्धिनो मकारांत् परस्य वर्णमात्रस्योवर्ण आदेशो भवति, अनु-पश्चात् कार्यान्तरेभ्यः; आसन्नत्वाद् मात्रिकस्य स्थाने मात्रिकः, द्विमात्रस्य द्विमात्रः, त्रिमात्रस्य त्रिमात्रः । अमुम्, अमू, अमू ३ इति ; “प्रश्ने च प्रतिपदम्" [७. ४. ६८.] इति प्लुतः । अमुमुयङ्, अमुमुईचः, अदमुईचः, अदमुईचा; "प्रदोमु-मी" [१. २. ३५.] इति संधिप्रतिषेधः । अन्विति किमर्थम् ? 15 'अमुष्मै, अमुष्मात्, अमुष्य, अमुष्मिन्, अमूषाम् ; अमुया, अमुयोः,' इत्यादिषु स्मैप्रभृतिकार्येषु कृतेषूवर्णो यथा स्यादित्येवमर्थम् ।। ४७ ।। न्या० स०--मादुव० । ननु पञ्चम्या निर्देशाद् उवर्णः प्रत्ययः कथं न भवति ?, सत्यम्-"अदो मु-मी” [ १. २. ३५. ] इति सूत्रनिर्देशाद् वर्णमात्रस्य स्थानित्वं लब्धमिति अनु-पश्चादिति-अत्रानुना पूर्व संबन्धः, तस्य च पश्चादर्थत्वात् "प्रभृत्यन्यार्थ०"20 [ २. २. ७५. ] इति दिग्योगलक्षणा पञ्चमी, यदि तु पूर्व पश्चादित्यनेन योगो विवक्ष्यते तदा “रिरिष्टात्" [२. २. ८२.] इत्यनेन 'कार्यान्तरेभ्यः' इत्यत्र षष्ठी स्यात्, पश्चादिति अखण्डमव्ययं वा । अथात्रानुग्रहणं किमर्थं ? यतो यदि कार्यान्तरात् प्रागुवर्णो भवति तदा इनादेवेत्युत्तरसूत्रे नियमार्थे व्याख्यायमानेऽन्वर्थस्य लब्धत्वात्, सत्यम्-एवमपि नियमोशङ्का स्यात्, इनादेशस्तावत् प्रत्ययादेशस्ततोऽन्यस्मादपि प्रत्ययादेशादेव पश्चावरणः प्रकृत्या-25 देशात् परत्वात् पूर्वमपि भवेत्, तथा चामुया अमुयोरित्यादयो न सिध्येयुः । अमुष्मै इतिनन्वत्र "डित्यदिति" [ १. ४. २३. ] इति प्रोत्वं स्मैयादेशे कृते कथं न भवति ? उच्यतेअदितीत्यत्र नत्रः पर्यु दासाश्रयणात्, स हि सदृशग्राही, ततो यत्र साक्षात् स्वरोऽग्रे भवति तत्रैव पूर्वस्योकारस्य प्रोकारस्तत्रादिति साक्षात् स्वरवर्जनात्, इति कक्कलस्य व्याख्या । तथाऽदितीति विषयसप्तम्यां प्रकृतेरपि विशेषणाद् दकारात् एति-उत्पद्यते यस्तद्विषय-30 वर्जनान्मकारस्य तदादेशत्वेन दकारत्वात्, अत एव 'दैदास्' इत्यत्र ऐदिति न कृतमिति Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ४८-५०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १६६ न्यासकारव्याख्या ।। २. १. ४७ ।। प्रागिनात् ॥ २. १. ४८ ॥ अदसो मात् परस्य वर्णमात्रस्येनादेशात् प्रागुवर्णो भवति, अन्वित्यस्यापवादोऽयम् । अमुना पुसा कुलेन वा। इनादिति किम् ? अमुया स्त्रिया ।। ४८ ॥ बहुष्वेरी ॥ २. १. ४६ ॥ बहुष्वर्थेषु वर्तमानस्यादसो मकारात् परस्यैकारस्य स्थाने ईकार आदेशो भवति । अमी, अमीभिः, अमीभ्यः २, अमीषाम्, अमीषु। बहुष्विति किम् ? अमू कन्ये, अमू कुले । एरिति किम् ? अमूः कन्याः, अमून् नरान् । मादित्येव-अमुके, अमुकेभ्यः ॥ ४६ ।। 10 न्या० स०-बहुष्वेरी। अमुकेभ्यः अत्राक: तन्मध्यपतितस्य तद्ग्रहणेन ग्रहणेऽपि उकारेण व्यवधानाद् अनेन ईत्वाभावः ।। २. १. ४६ ॥ धातोरिवर्णोवर्णस्येयुव स्वरे प्रत्यये ॥ २. १. ५० ॥ धातुसंबन्धिन इवर्णस्योवर्णस्य च स्थाने स्वरादौ प्रत्यये परे यथासंख्यम् ‘इय् उव्' इत्येतावादेशौ भवतः । नियौ, नियः; लुवौ, लुवः; 15 अधीयाते, अधोयते; लुलुवतुः, लुलुवुः; नुनुवतुः, नुनुवुः; स्वमिच्छति कयन् क्विप्-स्वीः, स्वियौ, स्वियः; एवं-स्त्रियौ, स्त्रियः; अधीयन् । धातोरिति किम् ? लक्ष्म्याः । इवर्णोवर्णस्येति किम् ? म्लायति, वाचः । स्वर इति किम् ? नीः, लूः । प्रत्यय इति किम् ? न्यर्थः, ल्वर्थः । इयुवभ्यां गुण-वृद्धी परत्वाद् भवतः-नयनम्, लवनम् ; नायकः, लावकः ।। ५० ।।। न्या० स०--धातेरिवर्णो०। युवर्णस्येति कर्तव्ये यदि वर्णोवर्णस्येति कृतं तद् विचित्रा सूत्रकृतिरिति दर्शनार्थम् । प्रत्यये इति-प्रत्ययाऽप्रत्यययो:०% इति न्यायेन प्रत्यय एव भविष्यति, किं तद्ग्रहणेन ? सत्यम्-न्यायानां स्थविरयष्टि* न्यायेन प्रवृत्तेः । नियो, नियः, इति-ननु गौरणमुख्ययो:०% इति मुख्यस्यैवेयुवौ प्राप्नुतः, नैवम्"स्यादौ वः" [२. १. ५७.] इति सूत्रस्यैतदपवादत्वाद् गौणस्यापि भवति । स्त्रियाविति-25 20 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ५१-५३.] ननु "स्त्रियाः” [ २. १. ५४. ] इत्यनेनापि इय् सिद्धः किमत्रोदाहरणेन ? सत्यम्-तेन नाम्न इय् भवति, अनेन तु धातोः, अत एव यत्र क्लिबन्तः स्त्रीशब्दो भवति तत्रानेन "वाऽम्-शसि" [२. १. ५५.] इति विकल्पो बाध्यते ।। २. १. ५० ।। इणः ॥ २. १. ५१ ॥ इणो धातोः स्वरादौ प्रत्यये परे 'इय्' इत्ययमादेशो भवति, यत्वाप-5 वादः । ईयतुः, ईयुः । कथं यन्ति, यन्तु ? परत्वेन “हि वणोरप्विति व्यौ” [४. ३. १५.] इति यत्वस्यैव भावात् । 'अयनम् अायकः' इत्यत्रापि परत्वाद् गुण-वृद्धी एव ।। ५१ ।। न्या० स०-हरणः। अत्र व्यभिचाराभावेऽपि धातोरित्यत्तरार्थमनवर्तनीयम । यत्वापवाद इति-"योऽनेकस्वरस्य" [ २. १. ५६. ] इति प्राप्तस्य । परत्वेनेति-शितीति 10 विशेषविहितत्वात् प्रकृष्टत्वेनेत्यर्थः, परत्वं तु स्पर्द्धाभावान्न घटते । परत्वादिति पूर्वेऽपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् ४ इति "योऽनेकस्वरस्य" [२. १. ५६.] इति प्राप्तं यत्वं बाधते, न तु गुण-वृद्धी। ईयतुरित्यत्र द्वित्वे कृते वार्णात् प्राकृतं बलीयः इति न्यायात प्रथममियादेशस्ततो दीर्घः ।। २.१.५१ ।। 15 संयोगात् ॥ २. १. ५२ ॥ धातुसंबन्धिन इवर्णस्योवर्णस्य च धातुसम्बन्धिन एव संयोगात् परस्य स्वरादौ प्रत्यये परे इयुवावादेशौ य्वोरपवादौ भवतः । यवक्रियौ, यवक्रियः; कटप्रुवौ, कटप्रुवः; शिश्रियतुः, शिश्रियुः । धातुना संयोगस्य विशेषणादिह न भवति-उन्न्यौ, उन्न्यः,; सकृल्ल्वौ, सकृल्ल्वः ।। ५२ ।। न्या० स०--संयोगात् । वोरपवादाविति-"क्विब्वृत्तेः०" [२. १. ५८. ]20 "योऽनेकस्वरस्य" [ २. १. ५६. ] इति विहितयोः ।। २. १. ५२ ॥ भू-श्नोः ॥ २. १. ५३ ॥ 'भ्र श्नु' इत्येतयोरुवर्णस्य संयोगात् परस्य स्वरादौ प्रत्यये परे उवादेशो भवति । भ्र वौ, भ्र वः, क्यन्क्विबन्तस्य "धातोरिवर्णोवर्णस्य.” [२. १. ५०.] इत्यादिनैवोवादेशः । प्राप्नुवन्ति, राध्नुवन्ति, तक्ष्ण वन्ति ।25 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ५४-५५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १७१ संयोगादित्येव-सुन्वन्ति, चिन्वन्ति। स्वर इत्येव-भ्र:, प्राप्नुतः । प्रत्यय इत्येव-भ्र वग्रम् ।। ५३ ।। ___ न्या० स०--भ्रश्नोः । संयोगात् परस्येति विशेषणं श्नोर्न तु 5 शब्दस्याव्यभिचारात् ।। २. १. ५३ ।। स्त्रियाः ॥ २. १. ५४ ॥ स्त्रीशब्दसंबन्धिन इवर्णस्य स्वरादौ प्रत्यये परे इयादेशो भवति । स्त्रियौ, स्त्रियः, स्त्रियाम् ; परमस्त्रियौ, अतिस्त्रियौ नरौ। शस्त्रीशब्दसंबन्धिनस्त्वनर्थकत्वाद् न भवति । स्वर इत्येव-स्त्रीभिः । प्रत्यय इत्येवस्त्र्यर्थः । कथम् 'अतिस्त्रयः, अतिस्त्रिणा, अतिस्त्रये, अतिस्त्रेः २, अतिस्त्रौ' ? "इदुतोऽस्त्रेरीदूत्" [१. ४. २१.] इत्यत्र स्त्रीशब्दवर्जनात् परोऽपीयादेशो10 बाध्यते । स्त्रीणामित्यत्र तु प्रागेव नाम्, एतच्च "वेयुवोऽस्त्रियाः" [१. ४. ३०.] इत्यत्रोक्तम् । पृथग्योग उत्तरार्थः ।। ५४ ।।। न्या० स०-स्त्रियाः। स्त्रियामित्यत्र निरनुबन्धग्रहणे०* इति न्यायाद् "ह्रस्वापश्च" [१. ४. ३२.] इत्यनेन नाम् न । परमस्त्रियाविति- ॐग्रहणवता०% इति नोपतिष्ठते "वेयुवः०" [ १. ४. ३०. ] इत्यत्र 'अस्त्रियाः' इति निर्देशात्, यद्वा स्वरादि-15 प्रत्ययेन प्रकृतेराक्षेपात् स्त्रिया इति तस्या विशेषणत्वेन तदन्तसंप्रत्ययात् तदन्तस्याप्युदाहरणम् । तहि शस्त्रीशब्दस्यापि स्त्र्यन्तत्वादियादेशः प्राप्नोतीत्याह- अनर्थकत्वादिति । एतच्चेति- 'अस्त्रियाः' इति निर्देशात् परादपि इयुव्यत्वादिकार्यात् 'प्रथममेव स्त्रीदूदाश्रितं कार्यं भवति' इत्याधुक्त तत्रेत्यर्थः ।। २. १. ५४ ।। 20 वाम्-शसि ॥२. १. ५५ ॥ · स्त्रीशब्दसंबन्धिन इवर्णस्यामि शसि च परे इयादेशो वा भवति । स्त्रियम्, स्त्रीम् ; स्त्रियः, स्त्रीः; परमस्त्रियम्, परमस्त्रीम् ; परमस्त्रियः; परमस्त्रीः; अतिस्त्रियम्, अतिस्त्रिम् नरम्; अतिस्त्रियः, अतिस्त्रीन् नरान् । क्यन्नाद्यन्तस्य तु धातुत्वात् “धातोरिवर्ण०" [२. १. ५०.] इत्यादिना नित्यमियादेशः-स्त्रीमिच्छति स्त्रीवाचरति वा-स्त्री ब्राह्मणः, तं स्त्रियम्, तान्25 स्त्रियः ।। ५५ ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ५६-५८.] न्या० स०-वाऽम्-शसि । अत्र षष्ठीबहुवचनस्य नाम् विषयत्वेन स्वरादित्वा- । भावात् शस्साहचर्याच्च तुल्यायामपि संहितायां द्वितीयैकवचनस्यैव ग्रहणम्, स्त्रीशब्दस्य संख्यकार्थत्वाभावाद् तद्धितशसोऽनुत्पत्तेः सङ ख्यैकार्थत्वयोगादुत्पत्तौ वा स्वरादित्वाभावाद् द्वितीयाबहुवचनस्यैव शसो ग्रहणात्, अतस्तस्याऽव्यभिचारात् तेन साहचर्यम् । कयन्नाद्यन्तस्येति-अथ धातुरूपस्यैव स्त्रीशब्दस्य विकल्पार्थमिदं कस्मान्न भवति ? कथमूक्त-5 "धातोरिवर्णोवर्ण०" [ २. १. ५०. ] इत्यादिना नित्यमियादेश इति, उच्यते- "स्त्रियाः" [ २. १. ५४. ] इति प्रागारम्भादधातोरेव स्त्रीशब्दस्य ग्रहणम्, स एव चाऽनुवर्तते, न चानुवर्तमानस्यान्यथात्वं भवति, यदाह श्रीशेषराज:-'नहि गोधा सर्पन्ती सर्पणादहिर्भवति' इति, तस्माद्युक्तमुक्त- "धातोरिवर्णोवर्ण०" [२. १. ५०.] इत्यादिना इयादेश इति ।। २. १. ५५ ।। 10 योऽनेकस्वरस्य ॥२. १. ५६ ॥ धातोरित्यनुवर्तते, अनेकस्वरस्य धातोः संबन्धिनः प्रत्यासत्तेरिवर्णस्य स्थाने स्वरादौ प्रत्यये परे यकारादेशो भवति । चिच्यतुः, चिच्युः; निन्यतुः, निन्युः । सखायमिच्छति क्यन् क्विप्-सखीः, सख्युः; एवं-पत्युः, सख्यि, पत्यि । अनेकस्वरस्येति किम् ? नियौ, नियः, परमनियौ, परमनियः । “रिं15 पित् गतौ” रियति, पियति । इवर्णस्येत्येव ? लुलुवतुः, लुलुवुः ।। ५६ ।। न्या० स०--योऽनेक० । धातोरित्यनुवर्तत इति- विशेषातिदिष्टः प्रकृतं न बाधते इति न्यायाद् इय्बाधकमिदम् । परमनियाविति-पत्र समासस्यानेकस्वरत्वं न धातोः ।। २. १. ५६ ॥ 20 स्यादौ वः ॥ २. १. ५७ ॥ अनेकस्वरस्य धातोः संबन्धिनः प्रत्यासत्तेरुवर्णस्य स्थाने स्वरादौ स्यादौ प्रत्यये परे वकारादेशो भवति । वसुमिच्छति क्यन् क्विप्-वसूः, वस्वौ, वस्वः । स्यादाविति किम् ? लुलुवुः ।। ५७ ।। न्या० स०-स्यादौ वः । उव्बाधनार्थमिदम् । वसुमिच्छतीति-देवमग्नि राजानं वेत्यर्थः, द्रव्यवृत्तिस्तु नपुंसकः ।। २. १. ५७ ।। क्विन्वृत्तेरसुधियस्तौ ॥ २. १. ५८ ॥ क्विबन्तेनैव या वृत्तिः-समासः, तस्या असुधियः-सुधीशब्दवजितायाः 25 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [पा० १. सू० ५६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १७३ संबन्धिनो धातोरिवर्णोवर्णस्य स्थाने स्वरादौ स्यादौ प्रत्यये परे तौ-यकारवकारादेशौ भवतः । उन्न्यौ, उन्न्यः; सुल्वौ, सुल्वः; तिरोन्यौ, तिरोन्यः; तिरोल्वौ, तिरोल्वः; ग्रामण्यौ, ग्रामण्यः; खलप्वौ, खलप्वः; एषु स्याद्युत्पत्तेः प्रागेव क्विबन्तेन समासः । एवं नयनशीलो-नी:, सेनां नेता-सेनानीः, सेनान्यौ, सेनान्यः; यद्वा नयतीति-नीः, पश्चात् साधनेन योगः; परमस्य नेता-परमनी:, 5 परमन्यौ, परमन्यः; क्विबग्रहणादिह न भवति-परमश्चासौ नीश्च-परमनी:, परमनियौ, परमनियः; स्याद्यन्तेनात्र विशेषणसमासो न तु क्विबन्तेन । वृत्तिग्रहणादिह न भवति-ब्राह्मणस्य नियौ । असुधिय इति किम् ? सुष्ठु ध्यायति दधाति वा-सुधी: “दिद्युद्" [५. २. ८३.] इत्यादिना क्विप् धीभावश्च, सुधियौ, सुधियः । सुपूर्वस्यैव वर्जनादिह भवत्येव-प्रध्यौ, प्राध्यौ,10 उद्धयौ ।। ५८ । __न्या० स०--विब्वत्ते । क्विबन्तेनैवेति-नन्वत्रावधारणं कस्माल्लब्धम् ? उच्यते वृत्तिस्थस्य धातोः स्यादौ कार्यविधानात् तस्य च केवलस्य वृत्त्यसंभवाद् वृत्तिगृहणादेव क्विपि लब्धे क्विन्ग्रहणमवधारणार्थम्, अत एवावधारणस्य शब्दाश्रयत्वादसामर्थ्यमपि नास्ति । सेनानीरिति-सेना नेतेत्यर्थकथनम्, यांवता सेनाशब्दस्य षष्ठयन्तस्य15 संगतिकारक० इति न्यायेन नीशब्देन क्विबन्तेन “कृति" [३. १. ७७.] इति समासः, न च वाच्यं “न नाम्यैक०" [ ३. २. ६. ] इति नियमेन द्वितीयैव प्राप्नोति, न षष्ठी, तत् कथं ? "कृति" [३.१. ७७. ] इति समासः, उच्यते- “ङस्यक्त कृता" [ ३.१.४६.] इत्यस्यैव विषयेऽयं नियमो न “कृति" [ ३. १. ७७. ] इत्यस्य । यदापि नयतीति-नी:, पश्चात् तु परमशब्देन कर्मषष्ठयन्तेन कारकत्वात् स्याद्युत्पत्तेः पूर्व क्विबन्तेन समासस्तदापि20 यत्वं भवतीत्याह-यदत्यादि-उभयत्राप्यर्थभेदाभावात् प्रक्रियाभेदमात्रमेतदुपदशितमिति, परमार्थस्तु सोपपदादेव क्विप् । ननु बहवः सेनान्यो यस्येति कृते यत्वं भवति वा न वा ? भवत्येव, यतः सेनानीशब्दस्य क्विबन्तेन वृत्तिरस्ति। परमनीरिति-परमशब्दस्याकारकत्वात् क्विबन्तेन समासाभावात् क्विब्ग्रहणादिह यत्वं न भवति ॥ २. १. ५८ ।। हन्-पुन-वर्षा-कारभुवः ॥ २. १. ५६ ॥ 25 'दृन् पुनर् वर्षा कार' इत्यतैः सह या क्विब्वृत्तिस्तत्संबन्धिनो भुवो धातोरुवर्णस्य स्वरादौ स्यादौ प्रत्यये परे वकारादेशो भवति । दृन्-हिंसन् भवतीति-दृन्भूः-सविषः कीटविशेषः, दृन्भ्वौ; दृन्भ्वः । पुन :-पुनरूढा Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू०.६०.] स्त्री, पुनभ्वौं, पुनर्वः । वर्षाभूः-पोषधीविशेषो दर्दुरश्च, वर्षाभ्वौ, वर्षाभ्वः । कारे कारेण वा भवतीति-कारभूः, कारभ्वौ, कारभ्वः । करशब्देनापीच्छन्त्येके-करभ्वौ, करभ्वः । काराशब्देनाप्यन्ये-काराभ्वौ. काराभ्वः । दृनादिभिरिति किम् ? स्वयंभुवौ, प्रतिभुवौ, मित्रभुवौ, विभुवौ, आत्मभुवौ । पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमिदम्-एतैरेव भुवो नान्यैरिति ।। ५६ ।। ___ न्या० स०-दन्-पुन० । दन-हिंसन्निति-"दृह दृहु" इति धातुः, दृहतीति क्विपि तल्लोपे सिलोपे च "पदस्य" [ २. १. ८६.] इति हलोपे-दृन् इति रूपम् । वर्षाभूरिति-"भेक्यां पुनर्नवायां स्त्री, वर्षाभूर्दुर्दुरे नषस्त्रीण पुमान् । इति वैजयन्तीकारः । कारेति-क्रियत इति-कारः, राजलभ्यो भागः । करभ्वाविति-उभयं शाकटायनः, स हि करशब्दं पठित्वा कर-कारशब्दयोरेकार्थत्वादळे एकदेशविकृतं तदेव इति कारशब्दे-10 नापीच्छति, काराशब्दं तु देवनन्दी । स्वयंभुवाविति-अत्रापि “दिद्युद्दत्०" [५. २. ८३.] इत्यादिना क्विप्, न तु "शंसंस्वयम्" [ ५. २. ८४.] इत्यादिना डुः, तदा हि धातुत्वं न स्यात् । एतैरेवेति प्रकृतिनियमोऽयम्, एतैर्योगे भुव एव नान्यस्य धातोरिति तूपपदनियमो न भवति, "अस्वयंभुवोऽव्" [७. ४. ७०.] इति सूत्रनिर्देशात्, एवंविधे हि नियमे क्रियमाणे एतैर्भुव एव नान्यस्येत्यन्ये धातवो नियन्त्रिताः स्युः, भुवस्तु एतैरन्यैश्च योगे वत्वं15 स्यात्, तथा च 'अस्वयंभुवः' इति न स्यात् ।। २. १. ५६ ।। ण-षमसत् परे स्यादिविधौ च ॥ २. १. ६० ॥ . इतः सूत्रादारभ्य यत् परं कार्यं विधास्यते तस्मिन् पूर्वस्मिश्च स्याद्यधिकारविहिते विधौ कर्तव्ये णत्वं षत्वं च असद्-असिद्धं द्रष्टव्यम्, एतत्सूत्रनिर्दिष्टयोश्च णत्वषत्वयोः परे षत्वे णत्वमसद् द्रष्टव्यम्, रण-षशास्त्रं वा परे20 स्यादिविधौ च शास्त्रे प्रवर्त्तमानेऽसद् द्रष्टव्यम् । पूष्णः, तक्ष्णः, अत्र णत्वस्यासत्त्वादनोऽकारलोपो भवति । पिपठीः, अत्र षत्वस्यासत्त्वात् सकारस्य रुर्भवति । स्यादिविधौ च-अर्वाणो, सीषि; अत्र गत्व-षत्वयोरसिद्धत्वादुपान्त्यदीर्घत्वं सिद्धम् । असत् पर इत्यधिकारो "रात् सः" [२. १. ६०.] इति यावत्, स्यादिविधौ चेति तु "नोर्यादिभ्यः" [२. १. ६६.] इति25 यावत् ।। ६० ।। न्या० स०-ण-षम० । णो विधेयत्वेन एष्वस्तीत्यभ्राद्यकारे णशब्देन, णत्वविधायकानि सूत्राण्युच्यन्ते, एवं षशब्देनापि षत्वविधायकानि । एतत्सूत्रनिद्दिष्टयोरिति Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १७५ यदि तु सप्तमपादोक्तक्रमेण 'ष-ण' इति क्रियते तदा णत्वमसद् द्रष्टव्यम्, पूर्वं कृतस्य रणत्वस्यासत्त्वात् प्रनष्ट इति सिद्धम् , न च 'श' इति व्यावृत्त्या पूर्वमेव न भविष्यति, धातोः पश्चादुपसर्गसंबन्ध इति मते व्यावृत्तेश्चरितार्थत्वाद् 'अभिषुणोति' इत्यादि न सिद्धयति, "उपसर्गात् सुग्" [२. ३. ३६.] इत्यनेन विहितस्य षत्वस्य णत्वे परेऽसत्त्वात्, तदाभिषुणोतीत्यादि न सिध्यति, "उपसर्गात् सुग्०" [२. ३. ३६.] इत्यनेन विहितस्य षत्वस्य 5 णत्वे परेऽसत्त्वात् “रषवर्णात्०" [२. ३. ६३.] इत्यनेन षकारात् विधीयमानं णत्वं न स्यात् । -षशास्त्रं वेति-अयमभिप्राय:-शास्त्रस्यैवासिद्धत्वं युक्तम्, कार्यासिद्धत्वाश्रयणे हि यथा देवदत्तस्य हन्तरि हतेऽपि न पुनर्देवदत्तस्य प्रादुर्भावो भवति तथा कार्ये - सिद्धत्वमापादितेऽपि न प्रकृतेः पुनः प्रत्यापत्तिर्भवति, ततः पूष्ण इत्यत्र णत्वस्यासिद्धत्वेऽपि नकारप्रत्यापत्तेरभावान्नानन्ता प्रकृतिरिति तन्निबन्धनोऽनोऽकारलोपो न स्यात्, शास्त्रा-10 सिद्धत्वे त्वकारलोपशास्त्रमेव तावत प्रवर्तते, न णत्वशास्त्रमिति । अधिकार इति-अधिउपरि, क्रियते-अनुवर्त्यत इत्यधिकारो घत्रि ।। २. १. ६० ।। क्ता देशोषि ॥२. १. ६१ ॥ ककारेण उपलक्षितस्य तकारस्य स्थाने य आदेशः स षकारादन्यस्मिन् परे कार्य स्यादिविधौ च कर्त्तव्येऽसन् द्रष्टव्यः । क्षामिमान्, अत्र "क्ष-शुषि-15 पचो म-क-वम्" [ ४. २. ७८. ] इति क्तादेशस्य मकारस्यासत्त्वात् "मावर्णान्त०" [२. १. ६४.] इत्यादिना मतोर्मो वो न भवति ; शुष्किका, अत्र ककारस्यासत्त्वात् “स्वज्ञाज.” [२. ४. १०८.] इत्यादिनेत्वविकल्पो न भवति, "अस्यायत्तत्क्षिपकादीनाम्" [२. ४. ११०.] इति तु नित्यमेव इत्वं भवति; पक्वम्, अत्र वत्वस्यासत्त्वाद् धुटि कत्वं भवति ; बुद्ध्वा, दग्ध्वा, अत्र20 क्तादेशस्य धकारस्यासत्त्वात् “ग-ड-द-बादे:०" [२. १. ७७.] इत्यादिना आदेश्चतुर्थो न भवति । स्यादिविधौ च-लून्युः, पून्युः, अत्र क्तादेशस्य नत्वस्यासत्त्वात् त्याश्रित उर् भवति । अषीति किम् ? वृक्णः, वृक्णवान्, अत्र क्तादेशस्य नत्वस्य सत्त्वात् “यजसृज०" [२. १. ८७.] इत्यादिना धुनिमित्तः षो न भवति, कत्वे त्वसत्त्वात् तद् भवत्येव । परे स्यादिविधौ चेत्येव-लग्नः,25 मग्नः, अत्र स्यादिविधौ पूर्वसूत्रकार्ये “अघोषे प्रथमोऽशिट:" [१. ३. ४०.] इति प्रथमत्वे नत्वस्यासत्त्वाभावादघोषनिमित्तः प्रथमो न भवत्येव; एवं क्षामेण, शुष्केणेत्यादौ पूर्वं णत्वं प्रति मत्व-कत्वयोः सत्त्वात् तकारेण व्यवधानं नास्तीति णत्वं भवति ।। ६१ ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ६२.] न्या० स०--क्तादेशोऽषि । ककारेण उपलक्षितस्तः क्त इति व्युत्पत्तिकरणात् क्त-क्तवतु-क्ति-क्त्वानां ग्रहणं सिद्धं, ककारोपलक्षितस्य तकारस्य सर्वेष्वेषु विद्यमानत्वात् । परे कार्ये इति-परत्वमेतत्सूत्रापेक्षं विज्ञायते, न क्तादेशविधायकसूत्रापेक्षम्, अषीति प्रतिषेधात्, एतत्सूत्रापेक्षे हि परत्वे “यज-सृज०" [२. १. ८७.] इति षत्वमपि परम्, तस्मिन्नप्यसत्त्वे प्राप्त ऽषोति प्रतिषेधो युज्यते । क्षामिमानिति-क्षामस्यापत्यम् "अत इञ्" 5 [ ६. १. ३१. ] ततो मतुः, यद्वा क्षामोऽस्यास्ति इन्, ततः क्षाम्यत्राऽस्ति मतुः । लन्युः, पून्युरिति-लूनं पूनं चेच्छति क्यन् "क्यनि" [४. ३. ११२.] इति ईकारः, ततो ङस् ; यदापि लवनं-लूनिः, तामिच्छति या स्त्री क्यन् लूनीयतीत्यादिप्रक्रिया क्रियते, तदापि ग्रामणीशब्दवद् विशेषेण नित्यस्त्रीत्वाभावाद् “योऽनेकस्वरस्य" [२. १. ५६.] इति यत्वे लून्युः, पून्युरित्येव भवति; यदा तु लूनिमिच्छति यः पुमान् इत्यादि क्रियते, तदा यो10 लूनिशब्द: स्त्रीलिङ्गः स ईदन्तो न भवति, यस्तु क्यन्नन्तः स ईदन्तः स न स्त्रीलिङ्ग इति "स्त्रोदूतः" [१. ४. २६.] इत्यस्य प्राप्तिरेव नास्तीति यत्वे-लून्युः, पून्युरित्येव; यदा तु क्त्यन्तादेव ङस् तदा स्त्रिया ङितां वा [१. ४. २८.] इति दासि तत्पक्षे तु “ङित्यदिति" [१. ४. २३.] इत्येत्वे लून्या लूनेरिति रूपद्वयम् । ननु अषीति किमर्थं ? यतः षत्वरूपे परे कार्ये कर्तव्ये क्तादेशस्याऽसत्त्वं प्राप्तमनेन निषिध्यते, तच्च 'परे कार्ये' इति भणनान्न15 प्राप्नोति, णत्व-षत्वयोः पूर्वसूत्रे ग्रहणादिति, सत्यम्-अत एव प्रतिषेधात् पूर्वत्र णत्वसहचरितं सप्तमपादनिर्दिष्टं षत्वं गृह्यते, तेन अद्राक्षीदित्यादि सिद्धम्, अन्यथा यदि पूर्वसूत्रे सामान्येन षत्वमङ्गीक्रियते तदाऽत्र “ष-ढोः कस्सि" [२. १. ६२.] इति परे कार्ये कर्तव्ये षत्वस्याऽसत्त्वात् कत्वं न स्यादिति । मग्न इति-"मस्जेः सः" [४. ४. ११०.] इति सस्य नः, “नो व्यञ्जन०” [ ४. २. ४५. ] इति लुप् ।। २. १. ६१ ।। 20 ष-ढो कः सि ॥२. १. ६२ ॥ षकार-ढकारयोः स्थाने सकारे परे ककार आदेशो भवति । पिष्पेक्ष्यति, पिपिक्षति; दृश्-अद्राक्षीत् ; सृज्-अस्राक्षीत् ; यज्-अयाक्षीत् । ढ-लिह-लेक्ष्यति, लिलिक्षति; वह -वक्ष्यति; गुहौ-निघोक्ष्यति । सीति किम् ? पिनष्टि । 'असत् परे' इत्यधिकाराद् निघोक्ष्यतीत्यत्र ढस्थानस्य25 ककारस्यासत्त्वाच्चतुर्थान्तलक्षण आदेश्चतुर्थो भवति ।। ६२ ।। न्या० स०-ष-ढोः कस्सि। निघोक्ष्यति स्यतिप्रत्यये गुणे "हो धुट्-पदान्ते" [ २. १. ८२.] इति ढत्वे नित्यस्यापि कादेशस्य परेऽसत्त्वात् “ग-ड-द-बादे:०" [२. १. ७७.] इत्यादेश्चतुर्थत्वे ततोऽनेन कत्वं सिद्धम् । कश्चिच्छासेरपि सौ विकल्पेन ककारमिच्छति, तन्मते-शाक्षि, शास्सि ।। २. १. ६२।।। 30 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ६३-६४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १७७ भ्वादेर्ना मिनो दीर्घो वयञ्जने ॥ २. १. ६३ ॥ भ्वादेर्घातोरवयवभूतौ यौ रेफ-वकारौ तयोः परयोस्तस्यैव भ्वादेर्नामिनो दीर्घो भवति, व्यञ्जने - ताभ्यां चेत् परं व्यञ्जनं भवति । हूर्च्छा, हूच्छिता, मूर्च्छा, मूच्छिता, प्रास्तीर्णम्, प्रस्तीर्णम्, पूर्त्तम्, प्रवगूर्णम्, कूर्दते, ऊर्दिदिषते, चिकीर्षति, वुवूषति, बुभूषति, दीव्यति, सीव्यति, दीव्यात्, सीव्यात् । असद्विधौ 5 स्वरादेशस्य लोपस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् - प्रतिदीना, प्रतिदीव्ने । भ्वादेरिति किम् ? चतुभिः, चतुर्थः, कुर्कुरमिच्छति - कुर्कुरीयति, एवं - चतुर्यति, दिव्यति । नामिन इति किम् ? स्मर्यते, भव्यम् । वरिति किम् ? बुध्यते । व्यञ्जन इति किम् ? विकिरति । ववदिसंबन्धिविशेषणं किम् ? दीव्यतेः क्वनिपि वकारलोपे - दिवन् दिव्ना, दिव्ने । नामिनो भ्वादिसंबन्धिविशेषणं 10 किम् ? दधिव्रज्या । प्रत्यासत्त्या तस्यैवेति विशेषणं किम् ? ग्रामणि व्रज्या ।। ६३ । न्या० स० -- स्वादेर्नामिनो० । “रदादमूर्छ० " [४. २. ६६.] इति सूत्रे 'मूर्छ' इति निर्देशात् प्रत्ययाप्रत्यययोः इति नाश्रीयते । वादेरिति प्रवृत्त्यानामिन इत्यनेन वरित्यनेन च सम्बध्यते । हूर्च्छति-प्रत्राच् । मूर्च्छति अत्र भिदाद्यङ । ववर्षति 15 “इवृध०” [ ४. ४. ४७ ] इति वेट् । दीव्यात् प्रत्राशीः क्यात् सप्तम्यां तु - दीव्येत् । सीव्येत् । असद्विधाविति प्रथात्र दीर्घद्वारेणैव स्थानिवद्भावप्रतिषेधो भविष्यति, किमनेन सूत्रेणाऽसदधिकारविहितेन ? नैवम्- 'ओर्मा, मोर्मा' इत्यत्र सार्थकत्वात्, तथाहि ऊर्वती मूर्च्छतीति मनि "राल्लुग्" [ ४. १. ११०. ] इति वकार - छकारयोर्लोपे एतत्सूत्रविहितदीर्घस्यासद्विधित्वेनासत्त्वे "लघोरुपान्त्यस्य " [४. ३. ४. ] इति गुणो भवति, अन्यथा लघ्व -20 भावात् स न स्यात् । दिव्ना, दिग्ने, इति - य-ल-वानां सानुनासिक - निरनुनासिकत्वेऽप्यत्र निरनुनासिकत्वं विवक्षितमिति “अनुनासिके च०" [४.१.१०८.] इत्यूट् न भवति । “मन् वन् क्वनिब्०” [ ५. १. १४७. ] इति क्वनिविधाय के सूत्रे क्वचिद्ग्रहणस्य सर्वोपाधिव्यभिचारार्थत्वात् क्वचिदयं स्वरूपेण न भवति, क्वचित् पानुबन्धो न भवतीति तागमाभावः । प्रत्यासत्येति त्रैकेन प्रयत्नेन द्वयोरुपादानं प्रत्यासत्तिः, शब्दान्तरं प्रतीत्य 25 शब्दान्तरस्यासत्तिरिति व्युत्पत्तेः, इयमेव हि शब्दस्य शब्दान्तरेण प्रत्यासत्तिः - यदेकप्रयत्नेनोच्चारणं नाम, एकवाक्योपात्तलक्षणप्रत्यासत्तिर्नेहोपयुज्यते ।। २. १. ६३ ।। पदान्ते ॥ २. १. ६४ ॥ पदान्ते वर्तमानयोर्ध्वादिसंबन्धिनो रेफ-वकारयोः परयोस्तस्यैव Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ६५.] भ्वादेर्नामिनो दीर्घो भवति । गीः, गीाम्, गीर्षु, गीस्तरा, गीरर्थः; धू:, । धूर्मान् ; आशीः, आशीभिः; सजूः, सजूःषु; पिपठीः, पिपठीWः । पदान्त इति किम् ? गिरी, गिरः; लुवौ, लुवः । नामिन इत्येव-अजागः । ऊरित्येवमधुलिट् । भ्वादेरित्येव- अग्निः, वायुः, चतुभिः ।। ६४ ।। न्या० स०--पदान्ते । पिपठीरिति-ननु 'भ्वादेः संबन्धिनो नामिनो दीर्घः' 5 इत्युक्तम्, तत् कथमत्र 'पिपठिष्' इत्यस्याऽभ्वादिरूपस्य संबन्धिनो नामिनो दीर्घ इति ? सत्यम्-म्वाद्यवयवेन 'पठ्' इत्यनेन योगात् समुदायोऽपि “पिपठिष्' इत्येवंरूपो भ्वादिः; यद्येवं पूर्वसूत्रोदाहृतेषु 'चतुभिः, चतुर्थः' इत्यादिष्वप्यनेन प्रकारेण म्वादिसंबन्धित्वमस्त्येव तद् कथं न दीर्घः ? सत्यम्-धातुत्वे सति म्वाद्यभ्वादिचिन्ता क्रियते, अत्र तु धातुत्वस्याप्यभावः, तर्हि 'कुकुरीयति, चतुर्यति, दिव्यति' इत्यादिषु धातुत्वमस्ति ततोऽनेन10 प्रकारेण भ्वादित्वमप्यस्ति ततो दीर्घः स्यात्, सत्यम्-यद्यप्येषां प्रत्ययान्तानां धातुत्वमस्ति तथापि पिपठीरित्यादिवदेतेषु न म्वाद्यवयवात् प्रत्ययो विधीयते, किं तर्हि ? नाम्न एव, ततो म्वाद्यवयवयोगाभावात् 'कुर्करीय' इत्यादेः समुदायस्य न भ्वादित्वम् । आशीरिति प्रत्र नित्यमपि विसर्ग बाधित्वा नित्यादन्तरङ्गम् इति न्यायात प्रथममनेन दीर्घः, ततो विसर्गः ।। २. १. ६४ ।। 15 न यि तदिद्यते ॥ २. १. ६५ ॥ यकारादौ तद्धिते परे यो वौं तयोः परयो मिनो दीर्घो न भवति । धुरं वहति-धुर्यः, गिरि साधुः-गिर्यः; वकारान्तो धातु म्युपान्त्यस्तद्धिते न संभवति । यीति किम् ? गीर्वत्, धूर्वत् । तद्धित इति किम् ? गिरमिच्छतिगीर्यति, धूर्यति; गीरिवाचरति-गीर्यते, एवं-धूर्यते; क्ये-कीर्यते, गीर्यते ; 20 दीव्यति, सीव्यति; कीर्यात्, गीर्यात्, दीव्यात्, सीव्यात् । केचित् तु क्यन्क्यङोरपि प्रतिषेधमिच्छन्ति, तन्मते-गिर्यति, गिर्यते ; धुर्यति, धुर्यते,' इत्येव भवति । इह कस्मान्न भवति ?- पुर्याम्, गिर्यो:, किर्योः, बहिरङ्गलक्षणस्य यत्वस्यासिद्धत्वेन व्यञ्जनस्याभावात् ।। ६५ ।। न्या० स०-न यि त०। नाम्युपान्त्य इति-अयमर्थः-यदा 'दिव्' इत्यादेः क्विप्25 तदा ऊटा भाव्यमिति न वकारान्तत्वम्, यदा तु विच् तदा गुणे कृते एकारस्य दीर्घरूपस्य दीर्घकरणं व्यर्थम् ; ननु दिव्यमित्यत्र संभवति वान्तो नाम्युपान्त्यश्च धातुः, सत्यम्-अत्रापि डिवप्रत्ययान्तस्य औणादिकत्वाद् दिवो न धातुत्वमिति न वान्तो नाम्युपान्त्यश्च धातुः संभवति । पुर्यामिति-पुरशब्दाज्जातित्वाद् ङ्यां "पृश् पालन-पूरणयोः" इत्यस्मात् Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १७६ "नाम्युपान्त्य-कृ-गृ.-श -पृ.-पूङभ्यः कित्" [उणा० ६०६.] इति किति इप्रत्यये वा; एवं गिर्योः, किर्योरिति । बहिरङ्ग-लक्षणस्येति-प्रत्ययाश्रितत्वेन यत्वं बहिरङ्गदीर्घत्वं तु प्रकृतिमात्राश्रितत्वेनान्तरङ्गम् ।। २. १. ६५ ।। कुरु-च्छुरः ॥ २. १. ६६ ॥ कुरु-च्छुरोः संबन्धिनो नामिनो रेफे परे दी? न भवति । कुर्यात्, 5 कुर्वः, कुर्मः; छुर्यात्, छुर्यते । कुवित्युकारः किम् ? “कुरत् शब्दे"-कुर्यात्, कूर्यते; केचिदस्यापि प्रतिषेधमिच्छन्ति । अथ द्विर्वचने पूर्वस्य कस्माद् दी? न भवति ?-री: रिर्वा--रिर्यतुः, रियुः; वी:-विव्यतुः, विव्युः; बहिरङ्गलक्षणस्य यत्वस्यासिद्धत्वेन व्यञ्जनस्याभावात् 'संविव्याय, विव्याध' इत्यादौ तु नामिनोऽसिद्धत्वात् ।। ६६ ।। 10 न्या० स०--कुरु० । कुवित्युकारः किमिति-अन्यथा प्रतिपदोक्तत्वात् "कुरत् शब्दे' इत्यस्यैव ग्रहणं स्यात्; तहि “कृ-छुरः” इति निर्विवादं क्रियताम्, न च वाच्यं "कृ-छुरः” इति कृते “कृगट हिंसायाम्" इत्यस्यापि ग्रहणं स्यात्, कृरणोतीत्यादौ रेफाभावात् करिष्यतीत्यादौ तु नाम्यभावेन दीर्घत्वप्राप्तेरभावाच्चेति, उच्यते-एवंविधे सूत्रे कृते चिकीर्षतीत्यादौ दीर्घनिषेधः स्यात् । संविव्याय, विव्याधेति-"व्यंग् व्यधंच्” प्राभ्यां15 गवि "व्यस्थव-णवि' [ ४. २. ३. ] इत्यात्वप्रतिषेधे द्वित्वे अनादिव्यञ्जनलोपे "ह्रस्वः" [ ४. १. ३६.] इत्यनेन ह्रस्वत्वे तस्य च कार्यान्तरबाधनार्थं "ज्या-व्ये-व्यधि०" [४.१.७१.] इति इकारस्यापीत्वे प्रथमे प्रयोगे "नामिनोऽकलि-हलेः" इति एत ऐत्वे आयि च सिद्धम् । नामिनोऽसिद्धत्वादिति-द्वित्वे कृते प्रत्ययाश्रितत्वेन बहिरङ्गस्य प्रकृत्याश्रितत्वेनान्तरङ्ग दीर्घत्वे कर्तव्ये "ह्रस्वः" [ ४. १. ३६. ] इत्यनेन कृतस्य इकारस्य20 इत्यर्थः, न तु य्वृद्धाधनार्थं "ज्या-व्ये-व्यधि०" [ ४. १. ७१. ] इति कृतस्य इकारस्यापि मध्ये इकारस्यासिद्धत्वं, यतस्तस्यासिद्धत्वे "ह्रस्वः" [ ४. १. ३६. ] इत्यनेन कृत इकारः सिद्धः स्या, तस्य च नामित्वात् ततो 'नामिनोऽसिद्धत्वाद्' इति यदुक्त तद् व्याहतं स्यात् । ननु 'नामिनोऽसिद्धत्वाइ' इति किमित्युक्त ? यावता यद्यप्यत्रानेन दी? भविष्यति तथापि "ह्रस्वः" [ ४. १. ३६. ] इत्यनेन ह्रस्वे कृते संविव्यायेत्यादि सेत्स्यति,25 सत्यम्-ह्रस्वरूपे परस्मिन् कार्ये विधेये दीर्घत्वं दीर्घत्वशास्त्रं वाऽसिद्धं भवतीति; यदापि नित्यत्वाद् विशेषविधानाद् वा "ह्रस्वः" [ ४. १. ३६. ] इति बाधित्वा ज्या-व्ये-व्यधि०" [ ४. १. ७१. ] इति प्रवर्तते तदापि प्रत्ययाश्रितत्वेन बहिरङ्गत्वेनासिद्धत्वान्नामिनोऽभावाद् दीर्घाऽभावः । कुर्दते, कुर्दनेत्यादिषु 'ट्वोस्, र्जा' इति ज्ञापकाद् दीर्घत्वं न भवति, कथं ? यदि रेफोपान्त्यानां दीर्घः स्या। तदा "ट्वोस् र्जा वज्रनिर्घोष' इत्यस्यापि दीर्घः30 सिद्ध इति दीर्घोच्चारणं न कर्त्तव्यम्, तस्मादत्र दीर्घ कुर्वन् ज्ञापयति-म्वादेरित्ययं विधिरनित्यः ।। २. १. ६६ ।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ६७-६८.] मो नो म्-वोश्च ॥ २. १. ६७ ॥ मकारान्तस्य भ्वादेरन्तस्य पदान्ते वर्तमानस्य मकार-वकारयोश्च परयोनकारादेशो भवति, स चासन् परे । प्रशान्, प्रतान्, प्रदान्, परिक्लान्; प्रशान्भ्याम्, प्रतान्भ्याम्, प्रदान्भ्याम्, परिक्लान्भ्याम् ; नत्वस्यासत्त्वान्नलोपाभावः । म्-वोः खल्वपि-जङ्गन्मि, जङ्गन्वः, जङ्गन्मः, जगन्वान्; नन्नन्मि, 5 नन्नन्वः, नन्नन्मः । म्वोश्चेति किम् ? प्रशामौ, प्रतामौ । म इति किम् ? छित्, भित् । भ्वादेरित्येव-इदम्, किम् ।। ६७ ।। न्या० स०--मो नो०। पदान्त इत्यनुवर्तमानेन समुच्चयार्थश्चकारो न तु पदान्त इत्यस्याऽनुकर्षणार्थः । विधानसामर्थ्याल्लोपाभावो नाशङ्कनीयो म्वोविधानस्य चरितार्थत्वादित्याह-नत्वस्यासत्त्वादिति । खल्वपीति-अप्यर्थेऽखण्डमव्ययम् ।। २. १. ६७ ।। 10 सन्स-हवन्स्-क्वस्सनहहोदः ॥ २. १. ६८ ॥ स्रन्स्-ध्वन्सोः क्वस्प्रत्ययान्तस्य सकारान्तस्यानडुह शब्दस्य च योऽन्त्यस्तस्य पदान्ते वर्तमानस्य दकारो भवति । उखास्रत्, उखास्रद्; पर्णध्वत्, पर्णध्वद्; विद्वद्, विद्वत् कुलम् ; उपसे दिवद्, उपसेदिवत् कुलम् ; स्वनडुद्, स्वनडुत् कुलम् ; उखास्रद्भ्याम्, पर्णध्वद्भिः, विद्वत्सु, विद्वत्ता, उपसेदिवत्तमः,15 अनडुद्भयाम् । क्वस्सिति द्विसकारपाठः किम् ? सान्तस्यैव यथा स्यात्, इह मा भूत्-विद्वान्, हे विद्वन् !, उपसेदिवान्, हे उपसेदिवन् ! ; सकारस्य "पदस्य" [२. १. ८६.] इति लोपेन निवर्तितत्वात् । एवं तर्हि 'अनड्वान्, हे अनड्वन्' इत्यत्र नकारस्यापि प्राप्नोति, तत्र विशेषणाभावात्, नैवम्नकारविधानसामर्थ्यान्न भविष्यति । एतच्च दत्वं येन नाप्राप्ते०* इति20 न्यायाद् रुत्व-ढत्वयोरेव बाधकम्, संयोगान्तलोपे पुनः प्राप्ते चाप्राप्ते चारभ्यत इति तस्य बाधकं न भवति । पदान्त इत्येव-उखास्रसौ, पर्णध्वसौ, विद्वांसौ, अनड्वाहौ ।। ६८ ।। न्या० स०--संस्-ध्वंस्-क्वस्स० । उखास्रदिति-उखयापुतेन स्थाल्या वा स्रसते । ननु दकारकरणं किमर्थं ? तकार एव क्रियताम्, यतस्तकारेऽपि कृते “धुटस्तृतीयः"25 [२. १. ७६.] इत्यनेन दकारो भविष्यति, नैवम्-तकारे विधीयमाने परेऽसदिति वचनाद् Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६६. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १८१ "धुटस्तृतीयः " [२. १. ७६.] इति दत्वाभावाद् दकारस्य श्रवणं न स्यात् । स्वनडुदितिअत्र बहुत्वे वाक्यं कार्यन्, एकत्वे तु " पुमनडुन्नौ ०" [ ७. ३. १७३. ] इति कच् स्यात् । क्वस्सितीति-क्वसोः ककारो “वसं निवासे” “वसिक् प्राच्छादने" अनयोर्व्या दासार्थ:, तेन वसे: क्विपि यजादित्वाद् वृति दीर्घत्वे-ऊः, क्षौमं वस्ते क्विपि - क्षौमवः । अथ वसतिवस्त्योः सकारन्तत्वाव्यभिचाराद् व्यभिचारे च विशेषणस्यार्थवत्त्वाद् व्यभिचारिणः क्वस 5 एव ग्रहणं भविष्यति, कुतः ? वस्सिति सकारोपादानात्, नवम् - अन्यथापि प्रतीतिः स्यात्, यङलुबन्तयोरेतयोरेव ह्यस्तनीसिवन्तयोविशेषविहितत्वेन “सेः स्--धां च० [४. ३. ७६ ] इति सिव्लोपाभावे वस्सिति द्विः सकाररूपं ग्रहणं स्यात्, इतीह मा भूदिति ककारकरणम् । रुत्व-ढत्वयोरेव बाधकमिति-अनडुह शब्दे "हो धुट् - पदान्ते” [२. १.८२. ] इत्यनेन ढत्वस्य शेषेषु रुत्वस्य प्राप्तिः । प्राप्ते चाप्राप्ते चेति-क्लीबे विद्वत् कुलमित्या - 10 दिप्राप्ते, पुंस्त्वे तु विद्वानित्यादौ प्राप्ते इति तस्य न बाधकम् ।। २. १. ६८ ।। ऋत्विज्-दिश्-दृश्-स्पृश्-सज्-दधृषुणि हो ग ।। २. १. ६६ । एषां पदान्ते वर्तमानानां गोऽन्तादेशो भवति । ऋतुम् ऋतौ ऋतवे ऋतुप्रयोजनो वा यजते - ऋत्विक्, ऋत्विग्; दिश्यते इति - दिक्, दिग्; पश्यति 15 दर्शनं वा दृक्, दृग्; अन्य इव दृश्यते - अन्यादृग्, अन्यादृक् ; एवं यादृग्, यादृक्; तादृग्, तादृक् ; घृतं स्पृशति - घृतस्पृग्, घृतस्पृक्; मन्त्रेण स्पृशति - मन्त्रस्पृग्, मन्त्रस्पृक्; सृज्यत इति कुत्-संपदादित्वात् क्विप्, अत एव निर्देशाद् ऋतो रत्वं च, “सृ गतौ” इत्यस्य वा कज् - स्रग्, स्रक्; धृष्णोतीति - दधृष्, अत एव निर्देशाद् द्वित्वम् - दधृग्, दधृक्; ऊर्ध्वं स्निह्यति नह्यति वा, अत एव 20 निर्देशाद् उदो दकारस्य लोपे सस्य षत्वं, नहेर्नकारस्य च ष्णिरादेशः - उष्णिग्, उष्णिक्; ऋत्विग्भ्याम्, दिग्भ्याम्, घृतस्पृग्भ्याम्, स्रग्भ्याम्, दधृग्भ्याम्, उष्णिग्भ्याम् । पदान्त इत्येव - ऋत्विजौ, दिशौ, दृशौ, घृतस्पृशौ, स्रजौ, दधृषौ, उष्णौ ।। ६६ ।। "25 न्या० स० -- ऋत्विज्० । ऋत्विगिति - प्रयोजनं प्रवर्त्तको यस्येति वाक्ये " मयूर ० ' [ ३. १. ११६. ] इति प्रयोजनशब्दलोप:, अत एव निपातनाद् वा ऋतुप्रयोजन इति अर्थकथनं वा, तत्र पक्षे ऋतुना हेतुभूतेन यजत इत्यर्थः । ननु 'ऋत्विग् - दिग् ग्' इति गान्ता निपाताः क्रियन्तां, किं गविधानेन ? सत्यम् - गनिपातने गत्वसंनियोगशिष्टतैव ज्ञायेत, ततो व्यावृत्तौ दषौ, उष्णिहाविति न स्याताम्, गत्वे तु विहिते निपातनं सर्वत्र भवति, गत्वं तु पदान्त एव भवतीति । स्रगिति - सरति मस्तकादिकमिति "ऋधि पृथि० " [ उणा० ८७४.]30 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ७०-७३.] इत्यनेन बहुवचनात् किदज् ।। २. १. ६६ ॥ नशो वा ॥ २. १. ७० ॥ नशेः पदान्ते गोऽन्तादेशो वा भवति । जीवस्य 'नशनम-जीवनग जीवनक्; पक्षे-जीवनड्, जीवनट; जीवनग्भ्याम्, जीवनड्भ्याम् । पदान्त इत्येव-जीवनशौ ॥ ७० ॥ न्या० स०-नशो वा। जीवतीति अच, जीवस्य कोऽर्थः ? जीवस्य जीवतो वा नशनं "भ्यादिभ्यो वा [५. ३. ११५.] इति क्विप् ॥ २. १. ७० ।। युजञ्च-क्रुञ्चो नो छः ॥ २. १. ७१ ॥ युज्-अञ्च्-क्रुञ्चां नकारस्य पदान्ते वर्तमानस्य डकार आदेशो भवति । युनक्त: क्विपि, घुटि नागमे, संयोगान्तलोपे-युङ; अञ्चतेरनर्चायां नलोपे,10 घुटि नागमे, अर्चायां तु नलोपाभावे-प्राङ्, प्राङ्भ्याम्, प्राङ्घ, प्राक्षु;. क्रुञ्चेरत एव निर्देशाद् “नो व्यञ्जनस्यानुदितः [४. २. ४५.] इति नलोपाभावे-क्रुङ, क्रुभ्याम्, क्रुषु; क्रुक्षु । पदान्त इत्येव-युजौ, युजः; प्राञ्चौ, प्राञ्चः; क्रुञ्चों, क्रुञ्चः ।। ७१ ।।। न्या० स०-युजञ्च० । ननु न इति किमर्थं ? “षष्ठयान्त्यस्य" [७. ४. १०६.]15 इति सर्वेषामन्तस्यैव नस्य भविष्यति, सत्यम्-"युजिच समाधी" इत्यस्यापि पदान्ते 'युङ' इत्यनिष्ट म्, अपदान्ते "क्रुञ्च गतौ" इत्यस्य 'क्रुचौ कुच' इत्यपि अनिष्टे स्याताम्, अधुना तु नकारे कृते सूत्रसामर्थ्यान्न तस्य लुग, इत्यपि फलम् ।। २. १. ७१ ।। सो रुः ॥ २. १. ७२ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य सकारस्य रुरादेशो भवति । मित्रशी:, आशी:,20 अग्निरत्र, वायुरत्र, अग्निर्गच्छति, पयः, पयोभ्याम्, पयोवत् । उकारः “अरोः सुपि रः' [१. ३. ५७.] इत्यत्र विशेषणार्थः ।। ७२ ।। सजुषः ॥ २. १. ७३ ॥ 'सजुष्' इत्येतस्य पदान्ते वर्तमानस्य रुरन्तादेशो भवति । सर्देवैः, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १ सू०७४-७५.] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १८३ सजू षिभिः; सहपूर्वस्य जुषेः क्विपि सहस्य सभावे रूपमेतत् । सजूर्भ्याम्, सजूर्वत् । पदान्त इत्येव ? सजुषौ ।। ७३ ।। न्या० स० -- सजुषः । डत्वापवादः । सजूरिति - प्रथमे सर्वज्ञवचनः, द्वितीये मुनिवचनः । सभावे इति श्रस्मादेव निर्देशात् ।। २. १. ७३ ।। अह्नः ।। २. १.७४ ।। अहन् शब्दस्य पदान्ते रुरित्ययमादेशो भवति, स चासन् परे स्यादिविधौ च । दीर्घाण्यहान्यस्मिन् हे दीर्घाहो निदाघ !, दीर्घाहा निदाघः, अत्र रुत्वस्यासत्त्वाद् नान्तलक्षणो दीर्घो भवति । कश्चित् तु दीर्घत्वं नेच्छति, तन्मते-दीर्घाहो निदाघः । अहोभ्याम् अहस्सु । ग्रहन् शत्रुमित्यत्राह शब्दस्य त्याद्यन्तस्य लाक्षणिकत्वान्न भवति ।। ७४ ।। 5 10 न्या० स० —— श्रह्नः । कश्चित् त्विति - दुर्गसिंहः । लाक्षणिकत्वादिति प्रयमभिप्रायः - उरणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानि इत्यस्मिन् पक्षे नाम्नः प्रतिपदोक्तस्य संभवाल्लाक्षणिकस्य न ग्रहणमिति, व्युत्पत्तिपक्षस्तु इह नाश्रितः ।। २. १. ७४ ॥ रो लुप्यरि ।। २.१.७५ ।। अन् शब्दस्य लुपि सत्यामरेफे परे पदान्ते रोऽन्तादेशो भवति, रोरप-15 वादः । प्रहरधीते, प्रहरेति, प्रहर्ददाति, अहर्भुङ्क्ते, दीर्घाहाश्चासौ मासश्च दीर्घाहर्मासः, ग्रहः–काम्यति, अहर्वान् । लुपीति किम् ? हे दीर्घाहोऽत्र । अरीति किम् ? अहोरूपम्, अहोरात्रः, गतमहो रात्रिरागता, कृत्स्नमहो रथन्तरं गायति, सर्वमहो रमयस्व, यातं शनैः सर्वमहो रथेन । अन्ये तु रात्रिरूप-रथन्तरेष्वेव रेफादिषु परेषु रेफप्रतिषेधमिच्छन्ति ।। ७५ ।। 20, न्या० स०- - रो लुप्यरि । अहरधीते इति - "कालाऽध्वनो : ० " [ २.२.४२. ] द्वितीया । अहः काम्यतीति - "रोः काम्ये” [२. ३. ७.] इति नियमात् "प्रत्यये” [२. ३. ६. ] इत्यनेन न सकारः । हे दीर्घाहोऽत्रेति प्रत्र वाक्ये विभक्त लु बस्ति तत् कथं रो न भवति ? सत्यम् - लुपीति प्रत्यासत्त्या व्याख्येयम् - यदपेक्षया लुप्, पदत्वमपि यदि तदपेक्षया भवति, अत्र तु वाक्यविभक्त्यपेक्षया लुप्, साक्षाद्विभक्त्यपेक्षया तु पदत्वम् ; 25 वाक्यविभक्त्यपेक्षयैव पदत्वमपीति न च वाच्यम्, “वृत्त्यन्तोऽसषे” [ १. १. २५.] इति Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ७६-७७.] निषेधात् । रथन्तरमिति - रथं रथस्थं तरति - प्रतिक्रामति "भृ-वृजि०" [५. १. ११२.] इति खः, सामविशेषः । यातमिति कर्मणि क्तः ।। २.१.७५ ।। १८४ ] छुटस्तृतीयः ।। २.१.७६ ।। धुट पदान्ते वर्तमानानां तृतीयो भवति । वाग्, वाग्भिः; अज् अभिः षड् षड्भिः विद्युद् विद्युद्भिः ; ककुब्, ककुब्भि:; विड्, 5 विभिः । केचित् तु विसर्ग - जिह्वामूलीययोरप्यलाक्षरिणकयोस्तृतीयत्वं गत्वमिच्छन्तीति तन्मते - सुपूर्वाद् दुःखयतेर्दु - खयतेर्वा क्विपि संयोगान्तलोपे'सुदुग्, सुदुग्भ्याम्' इति सिद्धम् । पदान्त इत्येव -वाचौ । कश्चरति, कष्टीकते, कस्तरतीत्यादिष्वादेशविधानसामर्थ्यात् षष्ठ इत्यत्र तु " षष्ठी० " [२. २. १०८.] इति निर्देशान्न भवति ।। ७६ ।। 10 T " " न्या० स०-- धुट: ० । अज्भिरिति श्रत्र संज्ञाशब्दत्वात् " च जः क- गम्” [ २.१. ८६. ] इति न भवति । श्रलाक्षणिकयोरिति - "रः क खप - फ०' [१. ३. ५. ] इत्यादिलक्षणेनाकृतयोरित्यर्थः । दुःखयतेर्दु खयतेर्वेति - "सुख दुःखण इत्यत्र दुःखधातुविसर्गान्वितो मतान्तरेण जिह्वामूलीयान्वितश्च पठ्यते । संयोगान्तलोपे इति ननु व्यञ्जननेरन्तर्यं संयोगः, न च विसर्जनीय - जिह्वामूलीययोर्व्यञ्जनसंज्ञास्ति, तत् कथं ? 15 “पदस्य” [२. १. ८६.] इत्यन्तलोपः, सत्यम् - कस्यादिः - कादिरिति व्युत्पत्त्या 'अं - प्र' इत्येतयोर्व्यञ्जनत्वे ततश्च "अं अः - क० " [ १. १. १६. ] इति सूत्रे 'अं अ:' इति साहचर्यात् 'क' इत्यस्यापि व्यञ्जनत्वे संयोगान्तलोपो भवति, कण्ठ्यत्वाच्च स्थान्यासन्नो गकारः, न तु ' ) ( प' इत्यनेन साहचर्याद् वर्णमात्रत्वनिबन्धनो व्यञ्जनत्वाभावः, कुत: ? 'अं अः - ) ( प - क' इत्यकरणात् । कश्चरतीति - यद्यप्यत्र कत्वस्य परेऽसत्त्वात् 20 तृतीयस्याप्राप्तिस्तथापि मातश्चरतीत्यादिषु प्राप्नोतीत्याह - विधानसामर्थ्यादिति ।। २. १. ७६ ।। ग-ड-द-बादेश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्यादेश्चतुर्थः स्ध्वोश्च प्रत्यये ।। २. १. ७७ ।। ग-ड-द-बादेश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्य धातुरूपावयवस्यादेश्चतुर्थ प्रसन्नो25 भवति, पदान्ते सकारादौ ध्वशब्दादौ च प्रत्यये परे । पर्णघुट्, पर्णघुड्भ्याम्, पर्णघुट्त्वम्; तुण्डिभमाचष्टे गौ क्विपि - तुण्ढिप्, तुण्ढिब्भ्याम्, तुण्ठिपुत्वम् ; गोधुक्, गोधुग्भ्याम्, गोधुक्त्वम्; गर्दभमाचष्टे गौ क्विप्-गर्धप्, गर्धब्भ्याम्, Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ७७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १८५ गर्धप्त्वम्; धर्मभुत्, धर्मभुद्भयाम्, धर्मभुत्त्वम् । स्ध्वोः-गुहौ-निघोक्ष्यते, न्यघूढ्वम् ; दुह -धोक्ष्यते, अधुरध्वम् ; बुध्-भोत्स्यते, बुभुत्सते, अभुद्ध्वम् । ग-ड-द-बादेरिति किम् ? क्रुत्, क्रोत्स्यति; जम्भेर्यङ्लुपि-अजंझप् अजंजप् । चतुर्थान्तस्येति किम् ? सुगण , दास्यति । एकस्वरस्येति किम् ? दाम लेढि क्विप्, दामलिहमिच्छति क्यन्, दामलिह्यति क्विप्-दामलिट् । स्ध्वोश्चेति । किम् ? धर्मबुधौ, बोद्धा । वर्णविधित्वेन स्थानिवद्भावो नास्तीति 'अबुद्ध, अबुद्धाः' इत्यत्र सिज्लुकि न भवति । धकारस्य वकारोपश्लिष्टस्य ग्रहणं किम् ? “दधि धारणे' इत्यस्य यङ्लुपि हौ धिभावे-दादद्धि । प्रत्यय इति किम् ? धाग् वस् द्वित्वम्, "श्नश्चाऽऽतः" [४. २. ६६.] इत्याकारलोपे "प्रदीर्घाद् विरामैकव्यञ्जने" [१. ३. ३२.] इति धकारस्य द्विर्भावे-दद्ध्वः,10 दद्धवहे ।। ७७ ।। न्या० स०-ग-ड-द-बादे० । धातुरूपावयवस्येति-अत्र धातुरूपावयवस्येति विशेष्यम् अस्य च समासद्वयं-'पर्णधुड्' इत्यादौ सिसाधयिषिते धातुरूपश्चाऽसौ अवयवश्व 'गुह' इत्यादिः, अवयवश्चावयव्यपेक्षयाभिधीयत इति 'पर्णगुह' इत्यादिसमुदायोऽवयवी; 'तुण्ढिब्' इत्यादौ तु साधयितुमिष्टे धातुरूपस्यावयव इति षष्ठीसमासः, धातुरूपं 'तुण्डि'15 इत्यादि, तस्याऽवयवो 'डिम्' इत्यादिः; समासद्वयेऽपि च कुण्डमुम्भति-'कुण्डोब्' इति निरस्तन्, नहि 'कुण्डोब्' इत्यस्य समुदायस्य मध्ये 'डोब्' इति धातुरूपोऽवयवो नापि धातुरूपस्य अवयव इति आदिचतुर्थत्वाभावः; यद्वा धातुरूपस्यावयव इत्येवं षष्ठीसमास एव क्रियते, एवं च क्रियमाणे 'तुण्ढिब्' इत्यादीनि याद्यन्तवदेकस्मिन् इति न्यायनिरपेक्षाणि सिध्यन्ति, पर्णधुडित्यादीनि तु पाद्यन्तवदेकस्मिन् इति न्यायेन ; 20 अन्यच्च-स्ध्वौ प्रत्ययौ धातोरव्यभिचारिणाविति चानुकृष्टत्वेनानयोः साहचर्यात् पदान्त इत्यपि धातोरेवेति धातुरूपावयवस्येति, तस्यैव यक्तत्वादिति, रूपशब्दस्त भ्वाद्यभ्वादिधातुमात्रपरिग्रहार्थः । सकारादौ चेति-ध्वस्त्यादिप्रत्ययस्तदेकविभक्तिनिदिष्टत्वेन सकारोऽपि त्यादिरेवेति । तुण्डिभेति-"तुडुङ तोडने” अस्य "उदितः स्वरान्नोऽन्तः" [ ४. ४. ६८. ] इति नागमे “किलि-पिलि." [ उणा०६०८. ] इति इप्रत्यये-तुण्डिः ,25 सोऽस्याऽस्तीति “वलि-वटि-तुण्डेर्भः" [ ७. २. १६. ] इति भः । न्यघूवमिति-अद्यतन्या ध्वमि सकि "दुह-दिह०" [ ४. ३. ७४. ] इति तस्य लुकि अटि ढत्वे घत्वे “तवर्गस्य." [ १. ३. ६०. ] इति धस्य ढत्वे "ढस्तड्ढे" [ १. ३. ४२. ] इति ढलोपे रूपमिदम् । वर्णविधित्वेनेति-वर्णे सकाररूपे परतो विधिः । सिजुलुकि न भवतीति-ननु सिज्लोपात् पूर्वमेव किमिति नादिचतुर्थत्वम् ? नैव-परस्मिन् सिच्लोपरूपे कार्ये विधेये आदि-30 चतुर्थत्वस्याऽसदधिकारविहितत्वेनाऽसत्त्वात् । प्रत्यय इति किमिति-ननु प्रत्ययाऽप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव० * इति न्यायेन प्रत्यये एव भविष्यति, किं प्रत्ययग्रहणेन ? सत्यन् Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ७८-७६.] 'द दध्वः, दद्ध्वहे' इत्यत्र यदा उभयो: स्थाने०* इति न्यायेन 'ध्व' इत्यस्य प्रकृतिप्रत्ययस्थाननिष्पन्नस्य प्रत्ययव्यपदेश: स्यात् तदा आदिचतुर्थत्वं भवेत्, सति तु प्रत्ययग्रहणे न्यायनिरपेक्षो यः प्रत्ययस्तस्मिन्न व भवति नेतरस्मिन् प्रत्ययग्रहणसामर्थ्यात् ।। २. १. ७७ ॥ धागस्त-थोश्च ॥ २. १. ७८ ॥ दधातेश्चतुर्थान्तस्य दकारादेरादेर्दकारस्य त-थयोः स्ध्वोश्च प्रत्यययोः परयोश्चतुर्थो भवति। धत्तः, धत्ते, धत्थः, धत्थ, धत्से, धत्स्व, धद्ध्वे धद्ध्वम् ; अत्रासद्विधित्वाद् वचनसामर्थ्याद् वाऽऽतो लोपस्य स्वरादेशत्वेऽपि स्थानिवद्भावो न भवति । गकारः किम् ? धयतेर्मा भूत्, ट्धेर्यङ्लुपि-दात्तः, दात्थः, दधातेरपि यङ्लुबन्तस्य मा भूत्, *"तिवा शवाऽनुबन्धेन निर्दिष्टं यद्गणेन च । एकस्वरनिमित्तं च पञ्चैतानि न यङ्लुपि ॥"* इति न्यायात्-दात्तः, दात्थः । केचित् तु यङ्लुबन्तस्यापीच्छन्ति-धात्तः, धात्थः, धात्थ । तथोश्चेति किम् ? दध्वः, दध्मः । चतुर्थान्तस्येत्येव-दधाति, दधासि ।। ७८ ।। 10 न्या० स०-धागः । नन्वत्र चकारकरणं किमर्थं ? स्ध्वोः पूर्वेणैव सिद्धत्वात्, सत्यम्-यङ लुपि “क्रियाव्यतिहार०" [ ३. ३. २३. ] इति आत्मनेपदे से 'व्यतिधात्से' इति स्यात्, कृते चकारे 'व्यतिदात्से' इत्येव, न त्वादेश्चतुर्थः कृतिवा शवा०* इति न्यायात् ।। २.१.७८ ।। अधश्चतुर्थात् त-थोधः ॥ २. १. ७६ ॥ - 20 चतुर्थात् परयोस्तकार-थकारयोर्धारूपवजिताद् धातोविहितयोः स्थाने धकार आदेशो भवति । दोग्धा, दोग्धुम्, अदुग्ध, अदुग्धाः; लेढा, लेढुम्, अलीढ, अलीढाः; बोद्धा, बोद्धम्, अबुद्ध, अबुद्धाः; लब्धा, लब्धम्, अलब्ध, अलब्धाः । अध इति किम् ? दधातेर्यङ्लुबन्तधयतेश्च मा भूत्-धत्तः, धत्थः, दात्तः, दात्थः । केचित् तु यङ्लुबन्तधयतेरपीच्छन्ति-दाद्धः, दाद्ध । विहित-25 विशेषणं किम ? ज्ञानभुत्त्वम्, अत्र नामविहिते त्वे मा भूत् ।। ७६ ।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ८०-८१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १८७ न्या० स०--अधश्चतुर्था । पूर्वसूत्रे निमित्तत्वेनोपादानाद् इह त-थोरित्यस्य पुनरुपादानं कायित्वार्थम् । चतुर्थादिति-ननु “ग-ड-द-बादे:०" [२. १. ७७. ] इत्यतश्चतुर्थान्तस्येत्यधिकारोऽनुवर्त्यः, अर्थवशाद्०% इति पञ्चम्यन्तं कृत्वा रूपाणि साधयिष्यन्ते, किं चतुर्थादित्यनेन ? सत्यम्-क्लिष्टा प्रतिपत्तिरियमिति सुखार्थम् । यङ्लुबन्तधयतेश्चेति-केवलस्य तु शवा व्यवधानाच्चतुर्थान्तत्वाभावः । नामविहिते इति- 5 क्विबन्ता धातुत्वं न त्यजन्ति इति न्यायादपि न भवति, 'अधः' इति वर्जनेन पर्यु दासाश्रयणाच्छुद्धधातोरेव परिग्रहात् ।। २. १. ७६ ।। र्नाम्यन्तात् परोक्षा-अद्यतन्याशिषो धो ढः ॥ २. १. ८० ॥ रेफान्तान्नाम्यन्ताच्च धातोः परासां परोक्षाद्यतन्याशिषां विभक्तीनां यो धकारस्तस्य ढकार प्रादेशो भवति । अतीवम्, तीर्षीढ्वम्, तुष्टुढ्वे, चकृढ्वे,10 अदिढ्वम्, अधिढ्वम्, अचेढ्वम्, अच्योढ़वम्, अकृढ़वम् चेषीढ़वम्, कृषोढ्वम् । र्नाम्यन्तादिति किम् ? अपग्ध्वम्, पक्षीध्वम् । नाम्यन्तादिति धातोविशेषणं किम् ? ववसिध्वे, आसिध्वम्, आसिषीध्वम् । परोक्षाद्यतन्याशिष इति किम् ? स्तुध्वे, स्तुध्वम्, अस्तुध्वम् ।। ८० ।। न्या० स०--नम्यिन्तात् । धातोर्नामीति विशेषणाद् विशेषणेन च तदन्त-15 विधेर्भावात् तदन्तत्वे लब्धे अन्तग्रहणं सुखार्थम् ।' रान्तादनिट: परोक्षा न संभवति, सेटस्तु 'तत्वरिध्वे' इत्यादिषूत्तरेण विकल्प एव, तथाऽत्र रग्रहणाभावेऽपि नाम्यन्तादित्यत्र विहितव्याख्याने क्रियमाणे परत्वात् "ऋतां क्ङितीर्" [ ४. ४. ११६.] इत्यनेन इरादेशे सत्यपि 'अतीढ्वन्' इत्यादीनि सिध्यन्ति, किन्तु 'अदिढ्वम्' अधिवम्' इत्यादीनि न सिध्यन्तीति रग्रहणमिति । अतीव मित्यत्र "ऋवर्णात्" [ ४. ३. ३६. ] इति सिच:20 कित्त्वम्, 'अदिढ्वम्' इत्यादौ "इश्च स्था-दः” [ ४. ३. ४१. ] इत्यनेन इत्वं सिचः कित्त्वं च; इत्वविधानादेव गुणो न भविष्यति, किं कित्त्वेनेति न वाच्यम्, विधानस्य 'अदित' इत्यादौ हृस्वद्वारेण सिचो लुपि चरितार्थत्वादिति । अकृढवं, कृषीढ्वमित्यनयोः "ऋवर्णात्" [ ४. ३. ३६. ] इत्यनेन सिच-सीध्वमोः कित्त्वाद् गुणाभावः । अपग्ध्वमिति-"सो धि वा” [४. ३. ७२.] इति विकल्पेन सिचो लुप्प्रवृत्तेः पक्षे25 'अपग्ड्ढ्व म्' इत्यत्राऽद्यतनीध्वमि सिचि धातुचकारस्य “च-जः क-गम्" [ २. १. ८६. ] इति कत्वे "नाम्यन्तस्था०" [ २. ३. १५. ] इत्यनेन सिचः षत्वे "तृतीयस्तृतीय०" [ १. ३. ४८. ] इति षस्य डत्वे "तवर्गस्य०" [ १. ३. ६०. ] इति ध्वमो धस्य ढत्वे च सिद्धिः ।। २.१.८० ॥ हान्तस्थानीड्भ्यां वा ॥ २. १. ८१ ॥ . 30 हकारादन्तस्थायाश्च पराञ्जरिटश्च परासां परोक्षाद्यतन्याशिषां संब Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ८२.] न्धिनो धकारस्य ढकारो वा भवति । वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः । अग्राहिढवम्, अग्राहिध्वम् ; ग्राहिषीढ्वम्, ग्राहिषीध्वम् ; अनायिढ्वम्, अनायिध्वम् ; नायिषीढ्वम्, नायिषीध्वम् ; अकारिढ्वम्, अकारिध्वम् ; कारिषीढ्वम्, कारिषीध्वम्; अलाविढ्वम्, अलाविध्वम् ; लाविषीढ्वम्, लाविषीध्वम् ; परोक्षायां जिन संभवतीति नोदाहृतः । इट:-जगृहिढ्वे, जगृहिध्वे ; अग्रही- 5 ढ्वम् ; अग्रहीध्वम् ; ग्रहीषीढ्वम्, ग्रहीषीध्वम् ; उपदिदीयिट्वे, उपदिदीयिध्वे; आयिढ्वम्, प्रायिध्वम्; अयिषोढ्वम्, अयिषीध्वम् ; तत्वरिढ्वे, तत्वरिध्वे; अत्वरिढ्वम्, अत्वरिध्वम् ; त्वरिषीढ्वम्, त्वरिषीध्वम् ; ववलिवे, ववलिध्वे; अवलिढ्वम्, अवलिध्वम्; संवलिषीढ्वम्, संवलिषीध्वम्; लुलुविढ्वे, लुलुविध्वे; अलविवम्, अलविध्वम् ; लविषीढ्वम् लविषीध्वम् ।10 हान्तस्थादिति किम् ? धानिषीध्वम्, प्रासिषीध्वम् ।। ८१ ॥ न्या० स०--हान्त० । ब्रिटः स्वतन्त्रत्वात्, इटस्तु प्रत्ययावयवत्वेन प्रत्ययत्वाद् धातो म्यन्तत्वाभावे पूर्वेण न प्राप्नोतीत्यप्राप्त विभाषेयम् ।। २. १. ८१ ।। होशुद-पदान्ते ॥ २. १. ८२ ॥ हकारस्य धुटि प्रत्यये परे पदान्ते च ढकारादेशो भवति । लेढा,15 लेक्ष्यति; वोढा, वक्ष्यति । पदान्ते-मधुलिट्, मधुलिड्भ्याम्, मधुलिड्भिः, मधुलिट्त्वम्, मधुलिड्वत्, मधुलिट्कल्पः। धुट-पदान्त इति किम् ? मधुलिहौ। असत् पर इत्येव-गुडलिण्मान् अत्र ढत्व-तृतीयत्वयोरसत्त्वात् "मावर्णा०" [२. १. ६४.] इत्यादिना मतोर्मो वत्वं न भवति । ऊढमाख्यत् औजढत्, अत्र ढत्वधत्वयोरसत्त्वादन्त्यस्वरादिलोपस्य च द्वित्वे स्थानिवद्-20 भावादकारेण सह ह त' इति द्विवचनम् । केचित् त्वन्त्यस्वरादिलोपस्य स्थानित्वमनिच्छन्तो 'हति' इति द्वित्वे ऊढमूढिं वाख्यत्-औजिढदिति मन्यन्ते ।। ८२ ।। न्या० स०--हो धु० । मधुलिहाविति-यदा *गतिकारक०% इति न्यायाद् मधुशब्दस्य 'लिह' इत्यनेनाऽविभक्त्यन्तेन समासस्तदाऽन्तर्वतिविभक्त्यभावात् पदत्वप्राप्तिरेव25 नास्तीति यदापि 'लोढः' इति कृत्वा मधुनो लिहाविति विभक्त्यन्तेन समासस्तदापि "वृत्त्यन्तोऽसषे' [ १. १. २५. ] इति पदत्वाभाव इत्युभयथाप्यपदत्वं 'लिह' इत्यस्येति । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ८३-८४] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १८६ द्वित्वे स्थानिवत्त्वादिति-ननु कथमत्र स्थानित्वम् ? प्रकारेण सह क्त ति द्विर्वचने कर्तव्ये पूर्वविधित्वाभावात्, सत्यम्-निमित्तापेक्षयापीह प्राविधिरिष्यते; यद्वा हत्' इत्यनयोः प्राग्विधित्वमस्त्येव, अवयवयोश्च समुदायोपचारात् 'ह त' इत्यस्यापि स्वरादेशस्थान्यन्तस्य प्राविधित्वमिति: यदि निमित्तापेक्षया प्राविधिरिष्यते, तहि नयनमित्यत्र स्वरादेशस्य गुणस्य स्थानित्वेऽयादेशो न प्राप्नोति, सत्यम्-निमित्तापेक्षया प्राग्विधित्वं प्रायिकमिति । 5 केचित् त्विति-चन्द्रगोमि-देवनन्द्यादयः ।। २. १. ८२ ।। भ्वादेददिघः ॥ २. १. ८३॥ भ्वादेर्धातोर्यो दकारादिरवयवस्तदवयवस्य हकारस्य धुटि प्रत्यये परे पदान्ते च घकारादेशो भवति, ढस्यापवादः । दग्धा, दग्धुम्, धक्ष्यति; दोग्धा, दोग्धुम्, धोक्ष्यति; एषु व्यपदेशिवद्भावाद् धातोरवयवस्य दादित्वम्, अधा-10 क्षीत् । पदान्ते-अधोग्, गोधुक्, काष्ठधक्, गोधुग्भ्याम्, काष्ठधग्भ्याम्, गोधुक्षु, काष्ठधक्षु । भ्वादेरिति किम् ? दामलिहमिच्छति क्यन् क्विप्-दामलिट्, एवं दृषघुट । दादेरिति किम् ? सोढा, मधुलिट् । ह इत्येव-अदात् । धुट्पदान्त इत्येव-गोदुहो, गोदुहः ।। ८३ ।। न्या० स०-भ्वादे०। यदि भ्वादेरित्यस्य दादेरिति समानाधिकरणं विशेषणं 15 भवेत् तदाऽदुग्धेत्यादयोऽडागमे कृते दादित्वाभावान्न सिध्येयुरिति भ्वादेरित्यस्य दादेरिति व्यधिकरणं विशेषणं व्याख्यातम् । नन्वत्र सर्वेष्वपि प्रयोगेषु घस्य गः क्रियते, ततो ग एव क्रियताम्, किं घकरणेनेति, सत्यम्-गकारे क्रियमाणे चतुर्थान्तत्वाभावादधोगित्यादी "ग-ड-द-ब०" [ २. १. ७७. ] इत्यादिना चतुर्थत्वं न स्यात् ।। २. १. ८३ ।। । मुह-दुह-स्नुह-स्निहो वा ॥ २. १. ८४ ॥ 20 एषां संबन्धिनो हकारस्य धुटि प्रत्यये पदान्ते च घकारादेशो वा भवति, द्रुहः प्राप्तेऽन्येषामप्राप्ते विकल्पः । मुह,-मोग्धा, मोढा; उन्मुक्, उन्मुट्; उन्मुग्भ्याम्, उन्मुड्भ्याम् ; द्रुह -द्रोग्धा, द्रोढा; मित्रध्र क्, मित्रघ्र ट; मित्रध्र ग्भ्याम्, मित्रध्र ड्भ्याम् ; स्नुह,-स्नोग्धा, स्नोढा; उत्स्नुक्, उत्स्नुट्; उत्स्नुग्भ्याम्, उत्स्नुड्भ्याम् ; स्निह -स्नेग्धा, स्नेढा; चेलस्निक्, चेलस्निट ; 25 चेलस्निग्भ्याम्, चेलस्निड्भ्याम् । धुट्-पदान्त इत्येव-उन्मुहौ, उन्मुहः । मुहा'देरिति गणनिर्देशमकृत्वा धातुपरिगणनं यङ्लुप्यपि विध्यर्थम्-मोमोग्धि, मोमोढि वा, दोद्रोग्धि, दोद्रोढि ।। ८४ ।। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ६२. ] न्या० स० "1 - मुह० । चेलस्निक् चेलं स्निह्यति - सिञ्चतीत्यर्थः, सेचनार्थत्वं त्वस्य " स्वस्नेहन ० ' [ ५. ४. ६५. ] इति सूत्रे स्निह्यतेऽनेनेति स्नेहनमुदकादीति दर्शनाद् विज्ञायत इति । ननु किं मुहादयः स्वरूपेणोपादीयन्ते ? मुहादेरित्येवोच्यताम्, न चैवं कृतेऽधिकानां प्रसङ्गस्तदनन्तरं वृत्करणात् तद्धि पुष्पादिवद् मुहादिपरिसमाप्त्यर्थमपि भविष्यतीत्याह-मुहादेरिति ।। २. ९ ८४ ।। १६० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते 5 नहा-99होर्ध-तौ ॥ २. १. ८५ ॥ नहेर्ब्रग्स्थानस्याहश्च धातोः संबन्धिनो हकारस्य धुटि प्रत्यये पदान्ते च यथासंख्यं धकार - तकारावादेशौ भवतः । नद्धा, नत्स्यति, उपानत्, परीणत्, उपानद्भ्याम्, उपानत्कल्पः; ग्रह - आत्थ, ग्रहेनियतविषयत्वात् पदान्तता नास्ति । धुट् - पदान्त इत्येव - उपनह्यति, उपानहौ, उपानहः; ग्राह, 10 श्राहतुः, आहुः । आहेरादेशान्तरकरणम् “प्रधश्चतुर्थात् त-थोर्धः” [२. १. ७६. ] इति थकारस्य धत्वनिवृत्त्यर्थम् ।। ८५ ।। "1 न्या० स० - - नहाऽऽहो० । ब्रस्थानस्येति - अन्यस्यासंभवात् । आत्थेतिनन्वाहेरपि धकारे "प्रघोषे प्रथम ० ' [ १. ३.५०. ] इति तकारे कृते 'प्रत्थ' इति सिध्यतीत्युभयोरपि धकार एव क्रियतां, किं तकारकरणे नेत्याह- आहेरादेशान्तरेत्यादि न च 15 सिवस्थ विधानादेव घत्वं न भविष्यति, अन्यथा सिवो धत्वमेव विदध्यादिति वाच्यम्, यतो लाघवार्थं तद्भवे, अन्यथा “ब्रूगः पञ्चानाम् ०" [४.२.११८.] इत्यत्र “सिवो धः" इति सूत्रान्तरे कृते गौरवं स्यात्, तस्मात् सूक्तं धत्वनिवृत्यर्थमिति ।। २. १. ८५ ।। 2 च - जः क- गम् ॥। २. १. ८६ ।। चकार-जकारयोर्धुटि प्रत्यये परे पदान्ते च ककार - गकारावादेशौ 20 भवतः । वक्ता, वक्तुम्, वक्ष्यति, ग्रोदनपक्, त्वक्, वाक्, वाग्भिः, वाक्त्वम्; जः–त्यक्ता, त्यक्तम्, त्यक्ष्यति, अर्धभाग्, स्वप्नग्, तृष्णक् । धुट्-पदान्त इत्येव - वच्मि, वाचौ, वाचः । प्रत्यय इत्येव - इच्छति, मज्जति । कथं तच्चुञ्चुः, तच्चरण:, तच्चरति ?, उच्यते - प्रत्र दस्य परत्वात् तृतीयत्वे पश्चाच्चवर्गत्वे प्रथमत्वम्, ततस्तृतीयस्य " च जः क - गम्" [ २. १. ८६. ] इति परेऽसत्त्वेन 25 च-जयोरभावात् कत्व-गत्वे न भवतः ; अज्झलावित्यत्र तु संज्ञाशब्दत्वान्न भवति ।। ८६ ।। L Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ८७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १९१ न्या० स०-च-जः०। 'धुट-पदान्त' इत्यस्य च-जाभ्यां क-गाभ्यां प्रत्येकमभिसंबन्धाद् यथासंख्याभावः, प्रत्येकमभिसंबन्धश्च "प्रागिनात्" [२. १. ४८.] "स्त्यादिविभक्तिः” [ १. १. १६. ] इति सूत्रनिद्दिष्टकत्व-गत्वरूपज्ञापकात्, किञ्च यदि 'धुट्-पदान्त' इत्यनेन सह यथासंख्यमभिप्रेतं स्यात् तदा “ऋत्विग्" [ २. १. ६६. ] इत्यधिकारे जग्रहणं कृत्वा गत्वं विदध्यादिति । अथात्र सूत्रे किमर्थमादेशद्वयविधानम् ? यावता 5 कविधानं गविधानं वा क्रियताम्, यथालक्षणं कस्य गत्वे गस्य कत्वे च सर्वसाध्यसिद्धेः, सत्यम्-गाऽभावे लग्नादयः, काऽभावे पक्वादयो न सिध्येयुरिति क-गग्रहणम् ।।२.१.८६।। यज-सुज-मृज-राज-भ्राज-भ्रस्ज व्रश्चरवाजा शः षः ॥२. १. ८७॥ यजादीनां धातूनां च-जः शकारस्य च धुटि प्रत्यये परे पदान्ते च10 षकार आदेशो भवति । यज्-यष्टा, यष्टुम्, देवेट, उपयट्, उपयड्भ्याम् ; सृज्-स्रष्टा, स्रष्टुम्, तीर्थसृट, तीर्थसृड्भ्याम् ; मृज्-माष्र्टा, माष्टुंम्, कंसपरिमृट, कंसपरिमृड्भ्याम् ; राज्-सम्राट्, सम्राड्भ्याम् ; भ्राज्-विभ्राट्, विभ्राड्भ्याम् ; राज-भ्राजोः क्तिरेव धुट्, अन्यस्तु इटाव्यवधीयते, राष्टिः, भ्राष्टिः, केचित् तु क्ति नेच्छन्ति; भ्रस्ज्-भष्टा, भ्रष्टुम्, भा, भष्टुंम्, धानाभृड्, धाना-15 भृड्भ्याम् ; वश्च-व्रष्टा, व्रष्टुम्, मूलवृट, मूलवृड्भ्याम् ; परिव्राज्-परिव्राङ्, परिव्राड्भ्याम्, “दिद्युद्ददृद्” [५. २. ८३.] इत्यादिना क्विबन्तस्यैव निपातनाद् धुव्यसंभवान्नोदाहृतम् । शकारान्त-लिश्-लेष्टा, लेष्टुम्, लिट्, लिड्भ्याम् ; छादेशोऽपि शकारो गृह्यते-प्रष्टा, प्रष्टुम्, शब्दप्राड्, शब्दप्राड्भ्याम् । राजिसहचरितस्य भ्राजेर्ग्रहणात् “एजुङ् भेजुङ् भ्राजि दीप्तौ"20 इत्यस्य गत्वमेव-विभ्राक्, विभ्राग्भ्याम्; अत एव भ्राजेरात्मनेपदिनोऽपि "राजृग् टुभ्राजि दीप्तौ' इत्युभयपदिषु पुनः पाठः साहचर्यार्थम् । धुट्-पदान्त इत्येव-देवेजौ, देवेजः, रज्जुसृजौ, कंसपरिमृजौ, सम्राजौ, विभ्राजौ, धानाभज्जौ, मूलवृश्चौ, परिव्राजौ, शब्दप्राशौ, उच्छत्-समुशौ। यजादिधातुसाहचर्यात् शकारस्यापि धातोः संबन्धिन एव ग्रहणादिह न भवति-निशाशब्द-25 स्यान्तलोपे “धुटस्तृतीयः" [२. १. ७६.] इति जकारे-निज्भ्याम्, सुपि तु - जकारस्य प्रथमत्वे “सस्य श-षौ" [१. ३. ६१.] इति सुपः सकारस्य शत्वे "प्रथमादधुटि शश्छः" [१. ३. ४.] इति छत्वे-निच्छु, जकारस्य तु परे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ८८.] गत्वेऽसत्त्वात् "च-जः क-गम्" [२. १. ८६.] इति गत्वं न भवति । च-ज इत्येव-वृक्षवृश्चमाचष्टे रणौ विचि-वृक्षव्, अत्र वकारस्य मा भूत् । कथमसृग्, असृग्भ्याम्, रज्जुसृग्, रज्जुसृग्भ्याम् ?, असृज्रज्जुसृज्शब्दयोरोणादिकयोर्भविष्यति । कश्चित् तु “अनुनासिके च च्छ्वः शूट" [४. १. १०८.] इति शत्वविधरनित्यत्वज्ञापनार्थं छकारस्यापि षत्वमिच्छति, तन्मते-पथिप्राच्छौ, 5 पथिप्राच्छः, शब्दप्राच्छौ शब्दप्राच्छः । “उच्छत् विवासे' समुच्छौ, समुच्छः ।। ८७ ।। न्या० स०--यज-सृजः । क्तिरेव धुडिति-"तेहादिभ्यः" [ ४. ४. ३३. ] इति नियमात् क्तौ इडभाव इत्यर्थः, ननु यङ लुबन्तयोरनयोरन्योऽपि तिवादिधुट् संभवति, तत् कथं क्तिरेव धुडिति, सत्यम्-यङ लुबन्तयोरनयोर्धातुपारायणिकानामेव मते प्रयोग इष्यते,10 न वैयाकरणानामिति क्तिरेवेत्युक्तम् । साहचर्यार्थमिति-न चात्मनेपदानित्यत्वज्ञापनार्थ पुनः पाठ इति वाच्यम्, तदा ह्यात्मनेपदिष्वेव पुनः पठ्येत, नाप्येकस्य ट्वनुबन्धत्वादथुर्भवत्यन्यस्य नेति वाच्यम्. यतः ट्वनुबन्धादपि "असरूप०" [ ५. १. १६. ] इति सूत्राद् उत्सर्गः प्रतिष्यते, तस्मादेकेनापि धातुनाऽर्थाभेदेन प्रयोगद्वयं सिध्यति, परं साहचर्याय द्विः पाठ इति । कथमसृगिति-नपूर्वस्य सृजेः क्विबन्तस्य षत्वेन भाव्यम्, तत् कथं15 गत्वमित्याह-औरणादिकयोरिति-अस्यत इति न सृज्यत इति वा "रुधिपृथि०" [उणा० ८७४.] इति किदजि बाहुलकादेकत्रास्य ऋत्वेऽन्यत्र जकारा-कारयोर्लोपे चाऽसृजशब्दसिद्धिः। पथिप्राच्छाविति-पन्थानं पृच्छतः "दिद्यत०" [ ५.२. ८३.] इति क्विप । धुटि पदान्ते च पूर्वाण्येवोदाहरणानि, व्यावृत्तौ तु विशेषः । स्वमते तु पथिप्राशावित्याद्येव भवति ।। २.१.८७ ।। 20 संयोगस्यादौ स्कोलक ॥ २. १. ८८ ॥ धुटि प्रत्यये पदान्ते च यः संयोगस्तस्यादौ वर्तमानयोः सकारककारयोलुंग् भवति । अोलस्जैति-लग्नः, लग्नवान्, साधुलक्, साधुलग्भ्याम् ; मस्ज्-साधुमक्, साधुमग्भ्याम् ; अोवश्चौत्-वृक्णः, वृक्णवान्, मूलवृट्, मूलवृड्भ्याम् ; भ्रस्ज्-भृष्टः, भृष्टवान्, यवभृट्, यवभृड्भ्याम् ; क्-तक्षौ-तष्टः,25 तष्टवान्, काष्ठतट, काष्ठतड्भ्याम्, अक्षौ अष्टः, अष्टवान्, तृणाट, तृणाड्भ्याम्' तृणाटकल्पः; चक्षि-पाचष्टे । ननु स्कोर्लुकः परस्मिन्नसत्त्वात् "पदस्य" [२. १. ८६.] इति संयोगान्तस्य लोपः स्यात्, नैवम्-स्कोः पदान्ते लुको विधानादसत्त्वाभावः, अन्यथा हि समुदायस्यैव लोपं विदध्यात् । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ८६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १६३ संयोगान्तस्येति किम् ? साता, कृतम् । आदाविति किम् ? शङ्कर्वकैश्च यङ्लुपि-शाशक्ति, वावङ्क्ति। स्कोरिति किम् ? नर्नति । “अद्ड अभियोगे", "अट्टि हिंसाऽतिक्रमयोः" अनयोः क्विपि उत्तरसूत्रेण डकारटकारयोर्लुकि दकारस्य च प्रथमत्वे-क्षेत्रप्रात्, गृहप्रात् । अन्ये त्वटि तोपान्त्यं पठन्ति, तन्मते-क्विपि अत्, अद् । अन्यस्त्वद्डतेः संयोगादेर्दकारस्यापि 5 लोपमिच्छति, तन्मते-अट, अड्भ्याम्, तथा "अट्ट अतिक्रम-हिंसयोः" इति पठन् संयोगादेष्टकारस्यापि लोपमिच्छति-अट, अड्भ्याम् । धुट-पदान्त इत्येव-साधुमज्जौ, काष्टतक्षौ। प्रत्यय इत्येव-पृथक्स्थाता। वास्यर्थं काक्यर्थमित्यत्र तु यत्वस्य बहिरङ्गत्वेनासिद्धत्वात् संयोगादित्वेऽसत्यनेनादेरुत्तरेण चान्तस्य लुग न भवति । कथं मांसं पिपक्षति क्विप्-मांसपिपक्,10 वचो विवक्षते-वचोविवक् ?, कत्वस्य परस्मिल्लोपेऽसत्त्वान्न भवति ।। ८८ ।। ___ न्या० स०--संयोग०। संयुज्यन्ते वर्णा अत्रेति “व्यञ्जनाद्" [५. ३. १३२.] इति धनि संयोगः, स च वैयाकरणसंप्रदायाद् "व्य खननैरन्तर्यमुच्यते, दन्त्यापदिष्टम् इति न्यायात् तालव्यशस्य लुग् दशितः, दन्त्यस्य तु सस्य 'अवावग्' इत्यत्र "ककुङ श्वकुङ०" इति पठितस्य वस्केहूय इति । समुदायस्यैव लोपं विदध्यादिति-15 कया युक्तया ? संयोगेति प्रथम, पदस्येति द्वितीयम्, अन्ते चेति तृतीयं सूत्रं कुर्यात्, तत्राद्यस्यार्थः-धुटि प्रत्यये संयोगादिस्थयोः सकार-ककारयोलग भवति, द्वितीयस्यार्थ:पदान्ते वर्तमानस्य सकारककारादिसंयोगस्य सकलस्यापि लुक्, तृतीयस्यार्थ:- “पदस्य" इत्यतः पदान्त इत्यनुवर्तते, ततः पदान्ते संयोगसम्बन्धिनोऽन्तस्य लुग् भवतीत्यकरणाल्लुक: स्थानित्वं न भवति । अन्ये तु अटिमिति-तन्मत-स्वमतयो: “न बदनम् ०" [४. १. ५.]20 इत्यत्र विशेषः, तन्मते-अतिट्टिषते, स्वमते तु-अट्टिटिषत इति ! पृथक्स्थातेति । पृथक्शब्द: कान्तोऽव्ययम्, न तु “रुधि-पृधि०" [उणा० ८७४.] इत्यनेनाजन्तः, तदा "च-ज:०" [२. १. ८६.] इति गत्वस्य परेऽसत्त्वात् तदादेशस्य कत्वस्याप्यसत्त्वे द्वयङ्गविकलता स्यात् । मांसपिपगिति-नन्वत्र “स्वरस्य०" [७. ४. ११०.] इति स्थानिवद्भावेन पदोन्ते संयोगस्याभावात ककारलोपो न प्राप्नोति, न चासद्विधौ स्थानित्वनिषेध इति 25 वाच्यम्, अस्क्लुकीति भणनात्, सत्यम्-ननिर्दिष्टस्यानित्यत्वेन स्थानित्वाभावात् प्राप्तिविद्यते, यथा मधुगित्यत्र ।। २. १. ८८ ।। पदस्य ॥ २. १. ८६ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य संयोगस्य लुगन्तादेशो भवति, स च परे स्यादिविधौ च पूर्वस्मिन्नसन् द्रष्टव्यः । पुमान्, पुम्भ्याम्, पुम्भिः, पुम्भ्यः, पुंसु, पुंवत्,30 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] बृहद्वृत्ति-लधुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ६०.] पुंरूप्यः, पुंमयः, पुंजातीयः; एवं- 'गोमान्, अनड्वान्, महान्, भूयान्, कुर्वन्, । श्रेयान्' इत्यादौ संयोगान्तलोपस्य परकार्येऽसत्त्वादुत्तरसूत्रेण नलोपो न भवति, स्यादिविधौ चासत्त्वादत्वादिलक्षणो दीर्घो भवति । पदस्येति किम् ? स्कन्त्वा, स्यन्त्वा; 'भवाञ्च् शेते' इत्यादौ तु ञ्चादेशविधानसामर्थ्यान्न भवति ।। ८६ ॥ न्या० स०-पदस्य। पदान्ते वर्तमानस्येति-पदस्य विशेष्यस्य "विशेषणमन्तः" [७. ४. ११३.] इति परिभाषया संयोगान्तस्येति स्थिते पदान्ते वर्तमानस्येति व्याख्यातम्, अत्र पदान्ते संयोगस्य लुग् भवतीत्युच्यमानेऽपि संयोगान्तस्य पदस्यैव लोप इत्यर्थस्य सिद्धत्वात् पदस्येति वचनं पदान्तसम्बद्धधुनिवृत्त्यर्थन्, तेन स्कन्त्वेत्यादौ धुडादौ लुक् न भवति । भूयानिति अपदसंज्ञकेऽपि तद्धिते “अस्वयं वोऽव्" [७. ४. ७०.] न, “भूलुक्10 च०" [७. ४. ४१.] इत्यत्र ऊकारप्रश्लेषात्, न च भूविधानादेव न भविष्यतीति वाच्यम्, विधानं भमेत्यत्र पदसंज्ञके चरितार्थन । सामर्थ्यान्न भवतीति-अन्यथा प्रक्रियालाघवार्थं अकारमेव विदध्यादित्यर्थः ।। २. १. ८६ ॥ रात् सः ॥ २. १.६० ॥ पदान्ते वर्तमानस्य संयोगस्य सम्बन्धिनो रेफात् परस्य सकारस्यैव15 लुग् भवति । चिकीः, चिकीाम्, चिकीर्षु; अत्र चिकीर्षतीति क्विपि “अतः" [४. ३. ८२.] इत्यकारलोपे षत्वस्य परेऽसत्त्वात् सकारस्यैव लोपः; एवंजिहीः, जिहीाम्, जिहीर्ष; कटचिकीः, पटजिहीः । पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थं वचनम्, तेन रात् परस्य संयोगान्तस्य सस्यैव लोपो नान्यस्य-ऊ, ऊग्ाम्, न्यमा गृधेः स्पर्धेश्च यङ्लुपि द्वित्वे "रिरौ च लुपि” [४. १. ५६.] इति20 पूर्वस्य रागमे “पागुणावन्यादेः" [४. १. ४८.] इति दीर्घत्वे च ह्यस्तन्याः सिवि आदेश्चतुर्थत्वे "लघोरुपान्त्यस्य" [४. ३. ४.] इति गुणे "सेः रद्धां च रुर्वा" [ ४. ३. ७६. ] इति सिव्लुकि धकारस्य च रुत्वे “रो रे लुग् दीर्घश्चादिदुतः” [१. ३. ४१.] इति रलोपे पूर्वस्य दीर्घत्वे अडागमे च सिद्धम्अजर्घाः, अपास्पाः । रादेव सस्येति तु विपरीतनियमो न भवति-"पुंवत्25 कर्मधारये” [ ३. २. ५७.] इत्यत्र पुंवदिति निर्देशात् ।। ६० ।। न्या० स०--रात्सः। रात् परस्य सस्यैवेति-यद्येवम् 'अबिभः, अजागः' इत्यादी बिभर्तेर्जागर्तेश्च हस्तन्या दिवि "हवः०" [४. १. १२.] इति द्वित्वे अत्वे "पृ.भ०" Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० १.] श्री सिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १६५ [ ४. १. ५८. ] इतीत्वे “द्वितीय०" [४. १४२. ] इति बत्वे गुणे च नियमाल्लोपो न प्राप्नोतीति, नैवम् - प्रकरणात् पूर्वसूत्रविहितस्यै - वायं नियमो न " व्यञ्जनाद्दे: ० [ ४.३.७८.] इत्युत्तरसूत्रविहितस्य यद्वा सूत्रे द्वितकारनिर्देशो ज्ञातव्यः, द्वितकारनिर्देशेऽपि न कोऽप्युच्चारणकृतो भेदोऽस्ति, ततश्च रात् परस्य तकार - सकारस्यैव लुग् नान्यस्येति सूत्रार्थः समजनि; यद्येवं तर्हि कीर्तयतेः क्विपि कोरिति प्राप्नोति, अत्र भाष्यं लोके प्रयुक्तानामिद - 5 मन्वाख्यानं, लोके च 'कीत्' इत्येव दृश्यते, न कीरिति । अजर्घा इति नन्वत्र "से: स्वाम् ० [ ४. ३. ७६. ] इति सेलुं कि रुत्वे च कर्तव्ये "ग-ड-द- बा०" [ २. १. ७७. ] इति घत्वस्यासत्त्वात् कृते रुत्वे चतुर्थान्तत्वाभावात् कथं थकारः ? सत्यम् प्रसिद्धं बहिरङ्गम् ० इति भविष्यति, अन्वित्यधिकाराच्च "रो रे लुग्०" [१. ३. ४१.] इति न पूर्वं लुगिति प्राप्तिः ।। २. १. ६० ।। " 10 नाम्नो नोsनह्न ॥। २. १. ६१ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य नाम्नो नकरस्य लुग् भवति, अनह्नः- स चेदहन्शब्दसम्बन्धी न भवति स चासन् स्यादिविधौ पर इति निवृत्तम् । राजा, वृत्रहा, दण्डी, वाग्मी, राजपुरुषः, राजकाम्यति, राजकल्पः । स्यादिविधावसत्त्वाद् 'राजभ्याम्, राजभिः, राजसु' इत्यादौ दीर्घत्वैस्त्वैत्वान्य- 15 कारान्तत्वाभावान्न भवन्ति । अन इति किम् ? प्रहरेति, प्रहरधीते, होरूपम् दीर्घाहा निदाघः ; अत्र परविधौ रेफ - रुत्वयोरसत्त्वान्नलोपः स्यात्, सावकाशं च तदुभयं संबोधने - हे ग्रहः ! हे दीर्घाहः ! | पदस्येत्येव - राजानौ । स्यादिविधावित्येव-राजायते, चर्मायते, अत्र क्यविधौ सत्त्वात् “दीर्घश्चियङ्ग्यक्येषु च " [ ४. ३. १०८. ] इति क्येऽन्त्याकारदीर्घः सिद्धः । नाम्न इति 20 किम् ? अहन्नहितम्, कुर्वीरन्, सर्वस्मिन्; वृक्षान् । वृत्रहभ्याम्, वृत्रहभिरित्यत्र तु प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति नलोपस्यासिद्धत्वात् “ह्रस्वस्य तः पित्कृति” [४. ४. ११४.] इति तोऽन्तो न भवति ।। ६१ ।। न्या० स० -- नाम्नो० । नन्वत्र विशेषविधानात् "रो लुप्यरि" [ २. १. ७५. ] इति "अह्नः” [ २. १. ७४. ] इति च रेफ-रुत्वे एव भविष्यतः, किमहन्प्रतिषेधेन ? 25 इत्याह-असत्त्वादिति । न चैवं तयोरनवकाशतेत्याह - सावकाशमिति तदुभयमिति रेफरुत्वलक्षणम् । सम्बोधन इति - " मामन्त्र्ये" [ २.१.२. ] इति नलोपप्रतिषेधात् । • अहन्नहितमिति - लक्षण - प्रतिपदोक्तयोः 1:08 इति प्रतिपदोक्तस्यैवानुशब्दस्य निषेध इत्यत्र प्राप्तिः; परं नाम्न इति व्यावृत्त्या निषिध्यते । वृत्रहभ्यामिति - धातुमात्राश्रितत्वेन तोऽन्तोऽन्तरङ्गो बाह्यस्याद्यपेक्षणान्नलोपो बहिरङ्गः ॥ ६१ ॥ 30 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] बृहद्वृत्तिलधुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ६२-६४.] नामन्ये ॥२. १. ६२॥ आमन्त्र्येऽर्थे वर्तमानस्य नाम्न: सम्बन्धिनो नकारस्य लुग् न भवति । हे राजन् ! , हे तक्षन् ! , हे सीमन् ! , हे बहुराजन् ! ; एतदेव प्रतिषेधवचनं ज्ञापकम्--सिलुकः स्थानिवद्भावेन “अधातुविभक्ति०" [१. १. २७.] इति नामसंज्ञाप्रतिषेधो न भवतीति । 'हे राजवृन्दारक !' इत्यत्र समुदायार्थ 5 आमन्त्र्यो नावयवार्थ इति नलोपप्रतिषेधो न भवति, अवयवार्थस्य त्वामन्त्र्यत्वेऽसामर्थ्यात् समास एव न स्यात् ।। ६२ ।। न्या० स०-नामन्ये। 'आमन्त्र्ये' इत्येकवचनात् 'पञ्च, सप्त' इत्यादीनां नलोपनिषेधो न भवतीति चन्द्रगोमीयमतम् । अन्ये त्वेतेषामामन्त्रणमपि नेच्छन्ति, अमुमेवार्थं न्यासकारः स्पष्टयति-अत्रामन्त्र्य इति सामान्याभिधानेऽपि औ-जसो कारस्य पदान्तत्वा-10 भावाद् द्रव्यस्यैव सम्बोधनार्हत्वात् संख्यायाश्चाऽसत्त्वरूपत्वात् परिशिष्ट: सिरेव लभ्यते, संख्येयेऽपि वर्तमानायाः संख्याया आमन्त्रणादर्शनात्, दर्शने तु 'आमन्त्र्ये' इत्येकत्वस्य विवक्षित्वाद् द्विवचन-बहुवचनयोन लोपाभावः; 'अामन्त्र्ये' इत्येकवचनाद् यत्रक एवामन्त्र्यस्तत्रैवानेन लोपनिषधो यत्र बहवस्तत्र न, यथा 'हे पञ्च पुरुषाः' इत्यादौ । ननु हे राजन्नित्यादौ सिलुक: स्थानिवद्भावेन “अधातुविभक्ति०" [ १. १. २७. ] इत्यनेन 15 नामत्वाभावे पूर्वेण प्राप्तिरेव न, किं प्रतिषेधेन ? इत्याह-एतदेवेति । न च वाच्यं सिलुक: स्थानिवत्त्वेन "नाम सिद्०" [१. १. २१.] इति पदत्वं प्राप्नोति, तस्मिश्च सति नलुक भविष्यतीति, यतः “स्थानीवाऽवर्णविधौ” [ ७. ४. १०६. ], अत्र तु व्यानलक्षणो वर्णविधिरिति स्थानित्वं न प्रवर्तत इति ।। २. १. ६२ ॥ 20 क्लीबे वा ॥ २. १. ६३ ॥ आमन्त्र्यविषयस्य नाम्नः क्लीबे-नपुंसकलिङ्ग वर्तमानस्य नस्य लुग् वा भवति । हे चर्म ! , हे चर्मन् ! ; हे दाम ! , हे दामन् ! ।। ६३ ।। मा-वर्णान्तोपान्ता-पञ्चमवर्गान्मतोर्मो वः ॥२.१.६४॥ मश्चावर्णश्च मावणौं, तो प्रत्येकमन्तोपान्तौ यस्य तस्मात्-मकारान्तान्मकारोपान्ताच्चावर्णान्तादवर्णोपान्ताच्च, पञ्चमरहितवर्गान्ताच्च नाम्न:25 परस्य मतोर्मकारस्य वकार आदेशो भवति । मकारान्तात्-किंवान्, इदंवान्, शंवान्-मकारोपान्तात्-शमीवान्, लक्ष्मीवान्, दाडिमीवान्; अवर्णा; न्तात् Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १९७ वृक्षवान्, प्लक्षवान्, खट्वावान्, मालावान्; अवर्णोपान्तात्-अहर्वान् सुगण्वान्, पयस्वान्, दृषद्वान्, वार्वान्, भास्वान् ; अपञ्चमवर्गात्-मरुत्वान्, विद्युत्वान्, उदश्वित्वान्, तडित्वान्, समिद्वान् । मा-ऽवन्तिोपान्ता-ऽपञ्चमवर्गादिति किम् ? अग्निमान्, वायुमान्, पितृमान्, नृमान् । नृमतोरपत्यं नार्मत इत्यत्र तु वृद्धे बहिरङ्गलक्षणत्वान्न भवति ।। ६४ ।।। न्या० स०--मावर्णा० । अत्र मकारा-ऽवर्णयोरन्तोपान्ताभ्यां सह यथासंख्यं न "नोादिभ्यः' [ २. १. ६६. ] इति निषेधस्य व्यर्थत्वात्, यत ऊर्मिमानित्यत्र मान्तत्वस्य यवमानित्यत्रावर्णोपान्तत्वस्याभावात्. "भोगवद् गौरिमतो:०" [३. २. ६५. ] इति निर्देशाद् वा। बहिरङ्गलक्षणत्वादिति-तद्धितापेक्षत्वेन वृद्धिर्बहिरङ्गा, तदनपेक्षं तु वत्वमन्तरङ्गमिति ।। २. १. ६४ ।। 10 नाम्नि ॥ २. १. ६५ ॥ नाम्नि-संज्ञायां विषये मतोर्मकारस्य वकारादेशो भवति । अहीवती, कपीवती, मणीवती, मुनीवती, ऋषीवती; एवंनामानो नद्यः; "नद्यां मतुः" [७. २. ७२.] इति चातुरथिको मतुः । आसन्दीवान् नाम ग्रामः ।। ६५ ।। ___ न्या० स०--नाम्नि। नाम द्विविधं, देवदत्तादि निरूढलक्षणाकं लौकिकं यत्15 संज्ञेति प्रसिद्धम्, "अधातविभक्ति०" [ १.१.२७. ] इति शास्त्रीयं च, तत्र प्रत्यासन्नत्वाच्छास्त्रीयस्यैव ग्रहणे प्राप्ते नामाधिकारेणैव तदर्थस्य लाभान्नाम्नीत्यतिरिच्यमानमधिकार्थपरिग्रहाय भवल्लौकिकमेव ज्ञापयतीत्याह-संज्ञायामिति । प्रासन्दीवानिति-पासते जना अस्मिन्नित्यासनं, तद् विद्यते यस्मिन् ग्रामे इत्यासनशब्दस्य पृषोदरादित्वादासन्दीभावेऽनेन मतोर्वत्वे आसन्दीवान् ग्रामः, आसन्दोवद् अहिस्थल; संज्ञाया अन्यत्र-20 आसनवानित्येव भवति, यथा च संज्ञाया अभावाद् वत्वा-ऽऽआसन्दीभावयोरभावस्तथा "अनजिरादिबहुस्वरादि०" [३. २.७८.] दीर्घत्वस्यापि । अपरे त्वासन्दीशब्दोऽस्तीति मन्यन्ते, आसम्-आसिक्रियां नन्दति-अणि पृषोदरादित्वात्, आसेर्धातोः "कुमुद०" [६.२.६६. ] इति वा-पासन्दी-वेत्रासनं, साऽत्रास्ति मध्वादिः [ "मध्वादे: ६. २. ७३ । इति मतुः ]; वेदे यथा-आसन्दीमारुह्य ऊद्गातेति, लोके यथा-औदुम्बरी राजासन्दी25 भवति, उदुम्बरस्य विकार:-औदुम्बरी, राज्ञ आसन्दी-राजासन्दी, सोमासनमित्यर्थः ।। २. १. ६५ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] बृहद्वृत्तिलवुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ६६-६८.] 10 चर्मण्वत्य-9bठीवच्-चक्रीवत्-कक्षीवद्-रुमण्वत् । ॥२. १. ६६ ॥ एते शब्दा मत्वन्ता नाम्नि विषये निपात्यन्ते । चर्मन्शब्दस्य नलोपाभावो गत्वं च निपात्यते--चर्मण्वती नाम नदी, अस्थिशब्दस्याष्ठीभावः-- अष्ठीवान जङ्गोरुसंधिः, चक्रशब्दस्य चक्रीभाव:--चक्रीवान् नाम गर्दभः, 5 चक्रीवान् नाम राजा, कक्ष्याशब्दस्य कक्षीभावः--कक्षीवान् नाम ऋषिः, लवणशब्दस्य रुमण्भाव:--रुमण्वान् नाम पर्वतः । अन्ये त्वाहुः--रुमन्निति प्रकृत्यन्तरमस्ति, तस्यैतन्निपातनं नकारलोपाभावार्थं णत्वार्थं च, वत्वं तु यथायोगमस्त्येव । नाम्नीत्येव--चर्मवती, अस्थिमान्, चक्रवान्, कक्ष्यावान्, लवणवान् ।। ६६ ॥ न्या० स०-चर्मण्वत्यष्ठीव०। कक्ष्याशब्दस्येति-कक्षे भवा कक्षाय हिता वा कक्षे साधुर्वा “दिगादिदेहांशाद्य:०" [६. ३. १२४.] इत्यादिभिर्ये-कक्ष्या ब्रह्मणः सादृश्यमुद्योगश्चेत्यर्थः। लवणस्येति-लुनाति वैरस्यं नन्द्याद्यनः, अतएव गणपाठाण्णत्वम् ।। २. १. ६६ ।। उदन्वानन्धौ च ॥ २. १. ९७॥ आपो धीयन्तेऽस्मिन्नित्यब्धिः, अब्धौ नाम्नि चोदन्वानिति उदकशब्दस्य मतावुदभावो निपात्यते । उदन्वान् घटः, उदन्वान् मेघः, यस्मिन्नुदकं धीयते स एवमुच्यते; नाम्नि-उदन्वान् समुद्रः, उदन्वान् नाम ऋषिः, यस्यौदन्वतः पुत्रः; उदन्वान् नाम आश्रमः । अब्धौ चेति किम् ? उदकवान् घटः, अत्र घटस्योदकसम्बन्धमानं विविक्षितं, न दधातीत्यर्थः ।। ६७ ॥ 20 15 न्या० स०-उदन्वान०। उदन्भावसामर्थ्यान्नलोपो न, अन्यथा उदभावो निपात्येत ।। २.१.६७ ।। राजन्वान् सुराज्ञि ॥२. १. ९८॥ शोभनो राजा यस्य तस्मिन्नभिधेये राजन्वानिति मतौ नलोपाभावो निपात्यते । राजन्वान् देशः, राजन्वती पृथ्वी; राजन्वत्यः प्रजाः । सुराज्ञीति25 किम् ? राजवान् देशः ।। ६८ ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ε६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ १६६ न्या० स०-- राजन्वान्० । सुराज्ञीति - शोभननृपतौ वाच्ये । यदा तु राजन्शब्देन चन्द्रोऽभिधीयते तदा राजवान् देश इत्येव, निपातनस्येष्टविषयत्वात् ।। २.१.६८ ।। नोम्र्म्या दिभ्यः ॥ २. १. ६६ ।। ऊर्मि इत्येवमादिभ्यो नामभ्यः परस्य मतोर्मकारस्य वकारादेशो न भवति । ऊर्मिमान्, दल्मिमान्, भूमिमान्, तिमिमान्, क्रिमिमान्, एभ्यो 5 मोपान्त्यत्वात् प्राप्ते; यवमान्, क्रुञ्चामान्, द्राक्षामान्, घ्राङ्क्षामान्, वासामान्, एभ्योऽवर्णान्तत्वात् प्राप्ते; हरित्मान्, गरुत्मान्, ध्वजित्मान्, ककुद्मान्, एभ्योऽपञ्चमवर्गादिति प्राप्ते; ज्योतिष्मती, महिष्मान्, गोमती, कान्तिमती, शिम्बीमती, हरिमती, चारुमती, इक्षुमती, बन्धुमती, मधुमती, बिन्दुमती, इन्दुमती, द्रमती, वसुमती, अंशुमती, श्रमती, हनूमती, सानुमती, भानुमती; 10 एभ्यः " नाम्नि " [ २. १ ६५ ] इति प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् । ऊर्मि, दल्मि, भूमि, तिमि, कृमि, यव, क्रुञ्चा, द्राक्षा, धाङ्क्षा, वासा, हरित्, गरुत्, ध्वजित्, ककुद् ज्योतिस् महिष, गो, कान्ति, शिम्बी, हरि, चारु, इक्षु, बन्धु, मधु, बिन्दु, इन्दु, द्र, वसु, अंशु, श्रु, हनु, सानु, भानु, इत्यूर्म्यादिः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् तेन यस्य सति निमित्ते मतोर्वत्वं न दृश्यते स 15 ऊर्म्यादिषु द्रष्टव्यः ।। ६६ ।। न्या० स० - नोर्म्यादिभ्यः । दल्मिमानिति - दल्मिरिन्द्रः प्रहरणविशेषो वा, सोऽस्यास्ति । तिमिमान्, क्रिमिमानिति - " क्रमि तमि० " [ उणा ० ६१३.] इति द्वयोरपि निपातनम्, क्रिमि:- क्षुद्रजन्तुः, तिमिर्महामत्स्यः । गरु - पिच्छं, तदस्यास्ति । ध्वजमानिति - अध्वानं जयति क्विप् पृषोदरादिः । ककुद्मानिति - ककतेर्बाहुलकादुत् - 20 प्रत्यये गणे द्विदकारपाठान्मतौ नानुनासिकः । महिष्मानिति--"नडकुमुद०" [ ६.२. ७४.] इति डिति मतौ प्रसिद्धं बहिरङ्गम् इत्यकारलोपस्यासिद्धत्वान्न. "धुटस्तृतीयः " [ २. १. ७६. ] न च वाच्यं "स्वरस्य परे० " [ ७. ४. ११०.] इति स्थानित्वं, तस्यासद्विधौ "न सन्धि० " [ ७. ४. १११.] इति निषेधात् । कान्तिमतीप्रभृति बन्धुमती यावत् सर्वेषु " नद्यां मतुः " [ ६.२. ७२.] शिम्बीमती "डी-नी-बन्धि-शृधि०" [ उणा० ३२५. ]25 ' इति डिदिम्बः, गौरादिङोः । मधुमतो "मध्वादेः " [६. २. ७३.] इति मतुः । शृणोतोति क्विप् प्रागमशासनमनित्यम् इति तागमाभावे - श्रुशब्दः । हनूमानिति - अनजिरादि" [ ३. २. ७८.] इति दीर्घः ।। २. १. ६६ ।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] बृह वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १००-१०१.] मास-निशा-99सनस्य शसादौ लग वा ॥ २. १. १०० ॥ एषां शसादौ स्यादौ परे लुगन्तादेशो वा भवति । मासः, मासान् ; मासि, मासे; निशः, निशाः; निशि, निशायाम् ; निज्भ्याम्, निशाभ्याम् ; निच्छु, निशासु; आसनि, आसने । शसादाविति किम् ? मासौ, मासाः, मासरूप्यः ।। १०० ।। न्या० स०--मास-निशा०। स्यादाविति-स्यादेरन्यः शसादिर्न सम्भवतीति स्यादावुदाहारि, अथ “संख्यैकार्थात्०" [७. २. १५१.] इति शस्संभवस्तदादिशब्दस्याकलादोनामसंभवेनानर्थक्यम्, यद्वा मण्डूकप्लुत०* न्यायेन स्यादिरनुवर्तनीय इति, आदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वाद् वा स्यादिरेव लभ्यते । मासशब्दस्य भ्याम्यनेनान्तलोपे *असिद्धं बहिरङ्गम् ०* इति अकारस्थानित्वेन “सो रुः" [२. १. ७२.] इति रुत्वाभावे10 "धुटस्तृतीयः" [२. १. ७६.] इति दत्वे तु न्यायानित्यत्वात्-माद्भयामिति मन्यते भाष्यकृत, दुर्गस्तु-मास्भ्यामिति, स्वमते तु द्वयमपि भवति । निजभ्यामिति-अत्र निश्शब्दे सत्यपि निशाग्रहणं निज्म्यामित्यस्य सिध्यर्थं, निश्शब्दस्य हि भ्यामि निडभ्यामित्येव भवति, क्विबन्तत्वाद् धातुत्वे “यजसृज०" [ २. १. ८७. ] इत्यादिना षत्वप्राप्तेः ।। २. १. १०० ।। 15 दन्त-पाद-नासिका हृदया-सुग-यूषोदक-दोर्यकृच्छकृतो दत्-पन्नम-हदसन्-यूषन्नुदन-दोषन् यक-शकन् वा ॥२. १. १०१ ॥ दन्तादीनां यथासंख्यं शसादौ स्यादौ परे दत् इत्येवमादय आदेशा वा भवन्ति । दन्त-दतः, दन्तान् पश्य; दता, दन्तेन ; दद्भ्याम् ३, दन्ताभ्याम् ३; 20 दद्भिः , दन्तैः; दत्सु, दन्तेषु; पाद-पदः, पादान्; पदा, पादेन; नासिकानसः, नासिकाः; नसा, नासिकया; हृदय--हृदि, हृदये; असृज्--अस्ना, असृजा; यूष--यूष्णा, यूषेण; उदक-उना, उदकेन; दोस्-दोष्णा, दोषा; यकृत्-यक्ना, यकृता; शकृत्--शक्ना, शकृता; शक्नि, शकनि, शकृति । शसादावित्येव--दन्तौ, दन्तकल्पः ।। १०१ ।। न्या० स०-दन्तपाद० । ननु पूर्वैश्छन्दोविषयत्वमेषामुक्तमिति "मास-निशा." [२. १. १००.] इत्यादि सूत्रं निरर्थकम्, सत्यम्-भाषायामपि क्वचित् पदादयः प्रयुज्यन्त इति ज्ञापनार्थत्वात् , अत एव प्रविरलप्रयोगविषयत्वात् सर्वासु विभक्तिषु नोदाह्रियते । 25 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १०२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २०१ अत एव चान्द्र-भोजौ मन्येते-पाद-पद्शब्दाभ्यामपि पदा, पादेनेत्यादि सिद्धं, परं पद्शब्दश्चरणवाच्येव, पादशब्दस्य त्वनेकार्थस्यापि ‘पदा, पादेन' इत्यादि सिद्धयर्थं पादशब्दोपादानन् । हृदय-हृद्भयां सिद्धे हृदयोपादानमृषौ विशेषार्थम्-हृदः हृदयान् ऋषीन् । हृद्शब्दस्तु ऋषिवचनो नास्ति ।। २. १. १०१ ।। य स्वरे पादः पदणि-क्य-त्रुटि ॥ २. १. १०२॥ 5 पादिति पादशब्दस्य लुप्ताकारस्य पादयतेर्वा कृतणिलोपस्य निर्देशः, पादन्तस्य नाम्नो णि-क्य-घुड्वजिते यकारादौ स्वरादौ च प्रत्यये परे पदित्यमादेशो भवति; स च निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति इति पाच्छब्दस्यैव भवति न तदन्तस्य सर्वस्य । व्याघ्रस्येव पादावस्य--व्याघ्रपात्, तस्यापत्यम्-- वैयाघ्रपद्यः; द्वौ पादावस्य द्विपात-द्विपदः पश्य, द्विपदा, द्विपदे, त्रिपदी गाथा; 10 व्याघ्रपदी स्त्री कुले वा; द्वौ द्वौ पादौ ददाति--द्विपदिकां ददाति, द्विपदे हितम्-- द्विपदीयम्; पादमाचष्टे पद्यमानं प्रयुक्त वेति पादयतेः क्विपि पाद्-पदः पश्य, पदा, पदे, पदी कुले; अत्र व्यपदेशिवद्भावेन पादन्तत्वम् । य-स्वर इति किम् ? द्विपाट्याम्, द्विपाद्भिः, द्विपात्काम्यति । अणि-क्य-घुटीति किम् ? पादमाचष्टे--पादयति ; क्येति क्यन्-क्यङोरविशेषेण ग्रहणम्, व्याघ्रपादमिच्छति15 स इवाचरतीति च--व्याघ्रपाद्यति, व्याघ्रपाद्यते, द्विपादौ, द्विपादः, द्विपान्दि कुलानि । नाम्न इत्येव--उपपद्यत इत्येवंशील उपपादुकः । पादयतेः क्विबन्तस्य प्रयोगो नास्तीति कश्चित् ।। १०२ ।। न्या० स०--य-स्वर०। पादन्तस्य नाम्न इति-पूर्वसूत्रेषु नाम्न इत्यधिचक्राणोऽपि नाऽध्याहारि, धातोस्तत्रासम्भवात्, अत्र धातुसम्भवे नाम्न इति विशेषणं20 चक्रे। अनेकवर्णत्वात् सर्वस्य पादन्तस्य प्राप्नोतीत्याह-निर्दिश्यमानस्येति । द्विपदिकामिति-"संख्या समाहारे च०" [३. १. ६६.] इति सुप्रख्यादेरित्यकल् (?) ["सुसंख्या द्" ७. ३. १५०. इति पाद्, “संख्यादे." ७. २. १५२. इत्यकल् ] अलोपश्च, ननु "अवर्णेवर्णस्य" [७. ४. ६८.] इति सिद्धेऽकल्सन्नियोगे किमल्लोपेन, सत्यम्-स्थानित्वाभावार्थम्, अन्यथा “स्वरस्य०" [७. ४. ११०.] इति स्थानित्वे पादशब्दाभावान्न स्यात्25 पदादेशः। पादमाचष्टे पादयतीति-अत्र व्यञ्जनान्तः पाच्छब्दो लिख्यते, सस्वरे तु णिज्यल्लोपे "स्वरस्य०" [७. ४. ११०.] इति स्थानित्वे पाच्छब्दाभावाद् द्वयङ्गविकलत्वं स्यात्, तहि पादमाचष्ट इति वाक्ये पदः पश्येति यद् दर्शितं तत् कथम् ?, उच्यतेप्रत्यासत्तिन्यायाद्, यस्मिन् प्रत्ययेऽकारलोपस्तस्मिन् यद्यादेशोऽपि प्राप्नोति, अत्र तु Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते . [पा० १. सू० १०३-१०४.] णावकारलोपः शसि त्वादेशः, यदा व्यञ्जनान्ताणिज् तदा "नैकस्वरस्य" [ ७. ४. ४४.] । इत्यन्त्यस्वरादिलोपाभावः । कश्चिदिति-देवनन्दी ॥२. १. १०२ ।। उदच उदीच् ॥ २. १. १०३ ॥ उदचिति उत्पूर्वस्याञ्चतेः कृतनलोपस्य निर्देशः, उदचो नाम्नोऽणिक्य-घुटि यकारादौ स्वरादौ च प्रत्यये परे 'उदीच्' इत्ययमादेशो भवति । 5 उदीच्यः; उदीचः पश्य, उदीची स्त्री कुले वा, उदीचा, उदीचे । य-स्वर इत्येव-उदग्भ्याम्, उदक्काम्यति। अरिण-क्य-घुटीत्येव--उदञ्चमाचष्टेउदयति; उदञ्चमिच्छति-उदच्यति, उदगिवाचरति--उदच्यते; उदञ्चौ, उदञ्चः, उदञ्चि कुलानि । अच इति लुप्तनकारस्याञ्चेनिर्देशाद्--उदञ्चा, उदञ्चे, क्विप्यर्चायां निषेधान्नलोपाभावः ।। १०३ ।। 10 न्या० स०-उदच०। उदयतीति-ननु रिणवर्जनं किमर्थम् ?, न च वाच्यंरिणवर्जनाभावे उदीचादेश: स्यात्, यतो भवतु-उदीचादेशः, तथापि "त्र्यन्त्यतस्वरादे:" [७. ४. ४३. ] इति लोपे उदयतीति भविष्यति, अत्रोच्यते-विशेषविहितत्वाल्लुकं बाधित्वा प्रथममेवादेश: स्यात्, तथा च सकृद्गते स्पर्धे० इति न्यायान् पश्चादपि न स्यात् ।। २.१.१०३ ।। 15 अच्च प्राग दीर्घश्च ।। २. १. १०४ ।। अचिति--अनकारस्याञ्चेनिर्देशः, अचिति नाम णि-क्य-घुड्वजिते यकारादौ स्वरादौ च प्रत्यये परे चकारमात्रं भवति, प्राक्--पूर्वोऽनन्तरस्वरश्च दीर्घो भवति । प्राच्यः, प्रतीच्यः; प्राचः, प्राचा; दधीचः, दधीचा; मधूचः, मधूचा; पितृ चः, पितृ चा; प्राची, प्रतीची स्त्री कुले वा । अन्वाचयशिष्टत्वाद्20 दीर्घत्वस्य तदभावेऽपि चादेशो भवति-दृषच्चा, दृषच्चे; अत्र *स्वरस्य ह्रस्वदीर्घ-प्लुताः इति न्यायाद् दृषदो दीर्घो न भवति । य-स्वर इत्येवप्रत्यग्भ्याम्, मध्वग्भ्याम् । अणि-क्य-घुटीत्येव-दध्यञ्चमाचष्टे-दध्ययति; दध्यच्यति, दध्यच्यते; दध्यञ्चौ, दध्यञ्चः, दध्यञ्चि कुलानि । अच इति लुप्तनकारस्याञ्चेर्ग्रहणादिह न भवति-साध्वञ्चः पश्य, साध्वञ्चा,25 साध्वञ्चे ।। १०४ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १०५-१०६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २०३ 10 न्या० स०--अच्च् प्राग० । अथ दृषदमञ्चतीति क्विपि टादावनन्तरपूर्वस्वराभावे दीर्घत्वाभावादेकयोगनिर्दिष्टत्वादादेशस्याप्यभावात् कथं दृषच्चेत्यादि सिध्यतीत्याहअन्वाचयशिष्टत्वादिति-अथ व्यवहितस्यापि कथं न भवति ? सत्यम्-प्राक्शब्दस्यानन्तरार्थत्वात्, अत एव पूर्वशब्दमपास्य प्राक्शब्दोपादानमनन्तरार्थम्, अनु-पश्चाद्, प्राचयनंमीलनम्-अन्वाचयः, तेन शिष्टोऽन्वाचयशिष्टः। दीर्घो न भवतीति-स्थान्यासन्नत्वाद 5 ल कारः। दध्ययतीति-परत्वात् “समानानां०" [१. २. १.] इति दीर्घ बाधित्वा गुणः, तथाऽत्र मतान्तराभिप्रायेण "न वृद्धिश्चाविति०" [४. ३. ११.] इति दधीकारवृद्धिनिषेधः, किङिल्लोपे सत्यविति प्रत्यये परे गुण-वृद्धी न भवत इति मतान्तरे व्याख्या । अथवा स्वर-व्यानयोरभेदन्यायेन "स्वरस्य०" [ ७. ४. ११०. ] इति अच्स्थानित्वमतो वृद्धेरभावः ॥ १०४ ॥ क्वसुष मतौ च ॥ २. १. १०५॥ णि-क्य-घुडजिते ‘यकारादौ स्वरादौ मतौ च प्रत्यये परे क्वस् उष् भवति । विदुषि साधुः--विदुष्यः, पेचुषि साधु:--पेचुष्यः; विदुषः; विदुषा, विदुषे, विदुषी स्त्री कुले वा, विदुष इदं-वैदुषम्, पेचुषः, पेचुषा, पेचुषे, पेचुषी स्त्री कुले वा, पेचुष इदं--पैचुषम् ; विदुष्मान्, पेचुष्मान् । मतौ चेति किम् ? 15 विद्वद्भिः, पेचिवद्भिः, विद्वत्काम्यति । अरिण-क्य-घुटीत्येव--विद्वांसमाचष्टेविद्वयति; विद्वस्यति, विद्वस्यते; विद्वांसौ, विद्वांसः, विद्वांसि कुलानि ।। १०५ ॥ न्या० स०--क्वसुष्म०। पेचुष्य इति । आगमा यद्गुणीभूता०% इतीट्सहितस्य क्वस उष् । उषिति षकारस्य “नाम्यन्तस्था०" [२. ३. १५.] इति सिद्धे प्रक्रिया-20 लाघवार्थ षकारकरणम् ।। २. १. १०५ ।। श्वन्-युवन्-मघोनो डी-स्याद्यवरे व उ. ॥२. १. १०६ ॥ श्वन् युवन् मघवन्नित्येतेषां सस्वरो वकारो ङी-स्याद्यघुट्स्वरे परे उर्भवति । शुनी स्त्री, प्रियशुनी कुले, शुनः, शुना, शुने; अतियूनी स्त्री,25 प्रिययूनी कुले, यूनः, यूना, यूने; मघोनी, अतिमघोनी स्त्री, प्रियमघोनी कुले, मघोनः, मघोने । डीस्याद्यघुट्स्वर इति किम् ? शौवनम्, यौवनम्, माघवनम् । अघुटिति किम् ? श्वानौ, युवानौ, मघवानौ, अतिश्वानि, अतियुवानि, अति Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १०७.] मघवानि कुलानि । स्वर इति किम् ? श्वभ्याम्। नकारान्तनिर्देशादिह न ' भवति--गोष्ठश्वेन, युवतीः पश्य, युवत्या, मघवतः पश्य, मघवता । अर्थवद्ग्रहणादिह न भवति--तत्त्वदृश्वना, मातरिश्वना ।। १०६ ॥ न्या० स०-श्वन्-युवन् । ङीग्रहणात् स्यादावघुट्स्वरे लब्धे स्यादिग्रहणमधुट्स्वरस्याप्रत्ययत्वशङ्कानिरासार्थन्, शङ्का हि कथम् ?, डीप्रत्ययोऽपुट्स्वरोऽपि प्रत्यय 5 एवेति नाशङ्कनीय न्, डीग्रहणात्, अप्रत्ययाऽघुट्सम्भवश्च श्वौदन इत्यादिषु, अथाऽवुडित्यत्र पर्युदासात् स्यादिर्लक्ष्यते, तन्न-प्रसृज्यवृत्तिनिराकरणे हेतोरभावात् । प्रियशुनी इति स्त्रियां तु बहुव्रीही "नोपान्त्यवतः" [ २. ४. १३. ] इति त्रयाणामपि ङीप्रतिषेधः, उपान्त्यवत्ता च श्वनशब्दस्य “न व-मन्त०" [२. १. १११.] इति प्रतिषेधात्, इतरयोस्त्वनेनोत्वविधानात्, यत् तु प्रियशुनीति दृश्यते तत्-प्रथममेव ङ्यां कर्मधारये । शौवनम्-10 शुन इदमिति कार्य, विकारे तु “एकस्वरात्" [ ६. २. ४८. ] इति मयट् स्यात् । अतिश्वानीति-अतिक्रान्तः श्वा यैरिति वाक्यम्, तत्पुरुषे तु “गौष्ठाऽतेः शुनः" [७. ३. ११.] इति समासान्तः स्यात् । गोष्ठश्वेनेति-गोष्ठे श्वेव “सप्तमी शौण्डायैः" [ ३. १. ८८.] [इति] सः, “गोष्ठाऽते:०" [७. ३. ११.] इत्यट। नन्वत्र समासान्तः समासस्यावयवो भवति, ततश्चानेनाधुट्स्वरादिप्रत्ययस्य व्यवधानात् प्राप्तिरेव नास्तीति किमुक्त-नका-15 रान्तनिर्देशादिति, अत्रोच्यते-भाष्यकारवचनाद् यथा समासान्तः समासावयवो भवति, एवमुत्तरपदावयवोऽपीष्यते, ततश्च श्वन्ग्रहणेन तदवयवत्वादस्यापि ग्रहणमित्यघुट्स्वरादिप्रत्ययस्य न व्यवधानमतो यदक्त नकारान्तनिर्देशादिति तत साध्वेव। मघवत इति-मघो ज्ञानं सुखं वाऽस्याऽस्तोति, मघा वा पाराधकाः सन्त्यस्य "ड्यापो बहुलम्०" [२. ४. ६६. ] इति ह्रस्वः । मातरिश्वनेति-मां तरति विच, मातरि-अन्तरिक्षे श्वयति20 "श्वन्-मातरिश्वन्" [ उणा० ६०२. ] इति साधुः, अत एव निर्देशात् स.म्यलुप् । २. १. १०६ ।। लगातोऽनापः ॥ २. १. १०७ ॥ प्राप्वजितस्याऽऽकारस्य डीस्याद्यघुट्स्वरे परे लुग् भवति । कीलालपः, कीलालपा, कीलालपे, शुभंयः, शुभंया, शुभंये, क्त्वः, श्ने; हाहे देहि । आत25 इति किम् ? नदीः । अनाप इति किम् ? खट्वाः, शालाः, मालाः पश्य । ङी-स्याद्यघुट्स्वर इत्येव--कीलालपास्तिष्ठन्ति, कीलालपां पश्य, कीलालपाभ्याम् ।। १०७ ।। न्या० स०--लुगा०। क्त्वा-टाशब्दयोः केचिदस्त्रीत्वं केचित् स्त्रीत्वं चेच्छन्ति, तत्र, स्त्रीत्त्वेऽनाप इति वचनादनेन लुगभावे-क्त्वायाः टायाः, इत्येव भवति, अस्त्रीत्वे30 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १०८-१११.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २०५ त्वनेन लुकि - क्त्वः, टः, इत्याद्येव । हाहे देहीति - "ओहांङ क् गतौ” हाशब्दं जिहीतेगीतकाले कर्तव्यतया प्राप्नोतीति विच् ।। २. १. १०७ ।। अनोsस्य ॥ २. १. १०८ ॥ अनोऽकारस्य ङी- स्याद्यघुट्स्वरे परे लुग् भवति । राज्ञी, राज्ञः, राज्ञा, राज्ञे; तक्ष्णः, तक्ष्रणा, तक्ष्णे । ङी - स्याद्यघुट्स्वर इत्येव -- राजानौ, राजानः, 5 सुराजानि कुलानि ; राजभ्याम् ।। १०८ । ई-डौ वा ॥ २.१. १०६ ॥ अनोऽकारस्येकारे ङौ च परे लुग् वा भवति । साम्नी, सामनी; दाम्नी, दामनी; सुराज्ञी, सुराजनी कुले; राज्ञि, राजनि; दध्नि, दधनि ।। १०६ ।। न्या० स०-- ई ङौ वेति । ङिविभक्तिस्तत्साहचर्यादीकारोऽपि विभक्तिरूप एव 10 ग्राह्य:, तेनौकारस्थानिनीकारेऽनेन विकल्पः ; ङीप्रत्यये तु राज्ञीत्यादिषु पूर्वेण नित्यमेव, निरनुबन्धग्रहण० न्यायाद् वा ।। २. १. १०६ ।। षादि- हन्- धृतराज्ञोsणि ॥ २. १. ११० ॥ षकारादेरनो हन् धृतराजन्नित्येतयोश्चाकारस्याणि प्रत्यये परे लुग् भवति । प्रौक्ष्णः, ताक्ष्णः, भ्रौणघ्नः, वार्त्रघ्नः, धार्तराज्ञः । षादीनामिति 15 किम् ? सामनः, वैमनः । अणीति किम् ? ताक्षण्यः ।। ११० ॥ न्या० स० -- षादिहन् ० । ताक्ष्ण इति - " सेनान्त० " [ ६. १. १०२. ] इत्यनेन कारुद्वारा प्राप्तस्य त्र्यस्य बाधक : "शिवादेरण" [ ६.१.६०. ] इत्यण् सामन इतिद्वयोरपि देवतार्थे, वेत्त्यधीते वेत्यर्थे, इदमर्थे वाऽण, "अणि" [ ७.४.५२. ] इत्यनो लोपाभावः । ताक्षण्य इति अत्र " कुर्वादेः” [ ६. १. १००. ] ।। २. १. ११० ।। 20 न वमन्तसंयोगात् ॥ २. १११ ॥ वकारान्तान्मकारान्ताच्च संयोगात् परस्यानोऽकारस्य लुग् न भवति । पर्वणा, पर्वणे; तत्त्वदृश्वना, तत्त्वदृश्वने; कर्मणा, कर्मणे; भस्मना, भस्मने; अश्मना, अश्मने; पर्वणी, कर्मणी, पर्वरिण, कर्मणि । संयोगादिति किम् ? प्रतिदीना, साम्ना । वमन्तेति किम् ? तक्ष्णा, मूर्ध्ना ।। १११ ॥ 25 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ११२-११४.] न्या० स०--न व-मन्त । अत्र वकार मकारयोः संयोगविशेषणत्वेन "विशेषणमन्तः" [७. ४. ११३. ] इति तदन्तत्वे लब्धेऽन्तग्रहणं स्पष्टार्थन्, अन्यथा व-मसंयोगादिति समस्तनिर्देशेऽनयोरेव संयोगादित्याशङ्का स्यात्, वमः संयोगादिति व्यस्तनिर्देशेऽपि वकार-मकाराभ्यां परो यः संयोगस्तस्मादित्यपि प्रतीयेतेति न्यासकारः। प्रतिदीन्नेतिप्रतिदिवा-अहः, अपराण्हश्च ।। २. १. १११ ।। हनो हनो घनः ॥ २. १. ११२ ॥ हन्तेः'ह्न' इत्येवंरूपस्य घ्न इत्ययमादेशो भवति । भ्र णघ्नी स्त्री, भ्रूणघ्ना, भ्र णघ्ने, भ्रूणघ्नी कुले, भ्र गघ्नि, घ्नन्, घ्नन्ति, अघ्नन् । हन इति किम् ? प्लीह नः, अह्नः, अह नी; अहि न । ह्र इति किम् ? वृत्रहणौ, वृत्रहयति ।। ११२ ।। 10 न्या० स०-हनो०। भ्र रणनीति-"नवा शोणादेः" [ २. ४. ३१. ] इति ङी: प्रत्ययः । प्लीह न इत्यादिषु हन् इति हन्तेरनुकरणात्, अर्थवद्ग्रहण०* इति न्यायाद् वाऽन्यस्य न भवति ।। २. १. ११२ ।। लगस्यादेत्यपदे ॥२. १. ११३ ॥ अपदेऽपदादावकारे एकारे च परेऽकारस्य लुग् भवति । सः, तौ, ते; 15 युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम्, पचन्ति, पठन्ति, विवक्षन्, पचे, यजे । अस्येति किम् ? अदन्ति, आसे । अदेतीति किम् ? श्रमणे, संयते । अपद इति किम् ? दण्डाग्रम्, तवैषा ॥ २. १. ११३ ॥ न्या० स०-लुगस्या०। अपद इति अदेतोविशेषणम् । दण्डाग्रमिति-नन्वत्र "वृत्त्यन्तोऽसषे" [१. १. २५.] इति प्रतिषेधादन इत्यस्य पदत्वाभावात् कथं नाकारलोपः,20 सत्यम्-सावधारणव्याख्यानात्-अपद एवेति, अत्र वृत्तेः पूर्व पदत्वमासीदिति; तहि प्रायणमित्यत्र गतिकारक०% इति न्यायादविभक्त्यन्तेनाऽयनेत्यनेन समासे प्राप्नोति, सत्यम्-अपद इत्युत्तरपदमपि.गृह्यते, "ते लुग् वा" [३. २. १०८.] इत्युत्तरशब्दलोपादिति, यथा "वेदूतोऽनव्यय०" [२. ४. ६८.] इत्यत्र ।। २. १. ११३ ।। डित्यन्त्यस्वरादेः ॥ २. १. ११४ ॥ 25 स्वराणां सन्निविष्टानां योऽन्त्यः स्वरस्तदादेः शब्दरूपस्य डिति परे Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ११५-११६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २०७ लुग् भवति । मुनौ, साधौ; पितुः, मातुः; पिता, माता; एषु व्यपदेशिवद्भावादन्त्यस्वरादित्वम् । महत्याः करः-महाकरः, महाघासः, उपसरजः, मन्दुरजः, त्रिंशता क्रीतम्-त्रिंशकम्, आसन्नाश्चत्वारो येषामासन्नचताः, अदूरचताः । डितीति किम् ? दृषदौ, दृषदः ११४ ।। ___ न्या० स०--डित्यन्त्य० । सति यस्मिन् यस्मात् पूर्वमस्ति परं नारित सोऽन्तस्तत्र 5 भवोऽन्त्यः । मुनौ अत्र सर्वत्र “इवर्णादेरस्व०" [ १. २. २१. ] इति प्राप्ते परत्वादनवकाशत्वाच्च ङित्त्वस्य लुगेव । उपसरज इति-उपसरे देशे जातः । मन्दुरज इति-मन्दुरे मन्दुरायां वा जातः “ड्यापो बहुलं नाम्नि" [२. ४. ६६.] इति ह्रस्वः ।। २. १. ११४ ।। अवर्णादश्नोन्तो वातरी-ज्योः ॥ २. १. ११५ ॥ श्नावजितादवर्णात् परस्यातुः स्थानेऽन्त इत्यादेशो वा भवति, ई-डयो:-10 ईप्रत्यये ङीप्रत्यये च परे । तुदन्ती तुदती कुले; तुदन्ती तुदती स्त्री; करिष्यन्ती करिष्यती कुले; करिष्यन्ती करिष्यती स्त्री; भान्ती भाती कुले; भान्ती भाती स्त्रो; प्सान्ती प्साती कुले; प्सान्ती प्साती स्त्री । अवर्णादिति किम् ? अदती सुन्वती रुन्धती तन्वती स्त्री कुले वा, एषु शतृः; अधीयती स्त्री कुले वा, अत्रातृश्; जरती स्त्री कुले वा, अत्रातः । अश्न इति किम् ? क्रीणती15 लुनती स्त्री कुले वा। ई-योरिति किम् ? तुदता कुलेन । अवर्णादिति विशेषणादश्न इति प्रतिषेधाच्च लोप-दीर्घाभ्यां पूर्वमेवानेनान्तः, भूतपूर्वतया वा पश्चात् । 'ददती स्त्री, ददती कुले' इत्यत्र तु कृतेऽप्यन्तादेशे "अन्तो नो लुक्" [४. २. ६४.] इति नलोपः ।। ११५ ।। न्या० स०--अवर्णादश्नो०। ननु तुदन्ती भान्तीत्यादावीङयोरनपेक्षत्वेन वर्ण-20 मात्राश्रयत्वेन चान्तरङ्गत्वात् “लुगस्यादेत्यपदे" [२. १. ११३.] इति “समानानाम् ०" [ १. २. १.] इति च अकारलोप-दीर्घत्वयोः कृतयोरवर्णात् परत्वं शतृप्रत्ययस्य नास्ति तत् कथमकाराऽवर्णशतृप्रत्ययङीभावापेक्षत्वेन बहिरङ्गोऽन्त इत्यादेश इत्याह-अवर्णादित्यादि । भूतपूर्वतयेति-वार्णात् प्राकृतं बलीयः इति तु नेहोपतिष्ठते, भिन्नकालत्वात्, तथाहि-ई-ड्यो: सद्भावेऽन्तादेशः प्राप्नोति, लोप दीघों तु ततः प्रागेव, यत्र हि वार्ण-25 प्राकृतयोयुगपत् प्राप्ति: 'कारकः' इत्यादौ तत्रेदमुपतिष्ठत इति ।। २. १. ११५ ।। श्य-शवः ॥ २. १. ११६ ॥ श्याच्छवश्च परस्यातुरी-योः परतोऽन्त इत्यादेशो भवति । दीव्यन्ती Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ११७ - ११८.] सीव्यन्ती स्त्री कुले वा; भवन्ती, चोरयन्ती स्त्री कुले वा; धारयन्ती शास्त्रं स्त्री कुले वा । श्य-शव इति किम् ? चरती स्त्री कुले वा । ई -ङयोरित्येवदीव्यता, भवता ॥। ११६ ।। २०८ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते दिव और सौ ॥ २. १. ११७ ॥ दिवोऽन्तस्य सौ परे प्रर्भवति । द्यौः, प्रियद्यौः, हे द्यौः !, प्रतिद्यौः ! | 5 *निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य इति धातोर्न भवति - प्रक्षैर्दीव्यति क्विप् ऊट् - अक्षद्यूः । साविति किम् ? दिवं पश्य । द्यामिति तु द्योशब्दस्य "आ अम् - शसोऽता” [१. ४. ७५. ] इत्याकारे रूपम् ।। ११७ ।। न्या० स० - दिव प्रौः सौ । द्यौरिति प्रत्र “उ: पदान्ते० " [२. १. ११८. ] इति प्राप्तेऽप्यचरितार्थत्वात् साविति विशेषविधानाद् वा श्ररेवानेन प्रवर्तते न तूकार: 110 दिव प्रौकारेण सम्बन्धात् सेः परत्वमात्रविज्ञानात् तत्सम्बन्धिन्यन्यसम्बन्धिन्यप्युदाहरतिप्रियद्यौरित्यादि । प्रक्षद्य रिति एकदेशविकृतम् ० इति प्राप्ति: ।। २.१. ११७ ।। उपदान्तेऽभूत् ॥ २. १. ११८ ॥ पदान्ते वर्तमानस्य दिवोऽन्तस्योकारादेशो भवति स चानूत्-तस्य तूकारस्य दीर्घत्वं न भवतीत्यर्थः । द्युभ्याम्, द्युभिः, द्युभ्यः, द्युषु प्रतिद्युभ्याम्, 15 परमद्युभ्याम्, द्युगतः, द्युकामः, द्युत्वम्, द्युकल्पः, विमलद्यु दिनम् । पदान्त इति किम् ? दिव्यति, दिव्यम्, दिवौ, दिवम्, दिवि । अनूदिति किम् ? अद्यौद्यौर्भवति - द्युभवतीत्यत्र " दीर्घश्चियङ्यक्येषु च " [४. ३. १०८. ] इत्यनेन च्वौ दीर्घत्वं न भवति । ऊकारस्य प्रतिषेधाद् वृद्धिर्भवत्येव - द्युकामस्यापत्यं द्यौकामिः । दिवाश्रयः, दिवौकस इति तु पृषोदरादित्वादकारागमे भविष्यति, 20 वृत्तिविषये वाऽकारान्तो दिवशब्दोऽस्ति ।। ११८ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ।। प्राड् जातेति हे भूपाः, मा स्म त्यजत काननम् । हरिः शेतेऽत्र न त्वेषो, मूलराजमहीपतिः । 25 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २०६ न्या० स०--उः पदान्ते । दिवमिति-कलापकेऽस्य दिवशब्दस्यामि सति अन्त्यस्यात्वं विकल्पेन भवति, ततो द्यामित्यपि भवति, शस्यपि विकल्पेनाकारमिच्छन्ति केचित् । अन्तर्वत्तिनीं विभक्तिमाश्रित्य पदत्वेऽनेनोत्वे कथं दिवाश्रय इत्यादीत्यत पाहअकारागमे भविष्यतीति-अकारागमे चाकारागमकरणसामर्थ्यादेव उर्न विभक्त : पूर्व वाऽकारागमे पदान्तत्वाभावादेव वा। वृत्तिविषय इति-समासविषये प्रयुज्यते, केवलस्तु । न प्रयुज्यत इत्यर्थः ।। २. १. ११८ ।। ।। इति द्वितीयाध्यायस्यस्य प्रथमः पादः ।। ६ प्रथ द्वितीयः पाद: 0 क्रियाहेतुः कारकम् ॥ २. २. १॥ क्रियायाः हेतु:-कारणं कादि कारकसंज्ञं भवति, तच्च द्रव्याणां10 स्व-पराश्रयसमवेतक्रियानिवर्तकं सामर्थ्य शक्तिरित्याचक्षते; शक्तिश्च सहभूर्यावद्रव्यभाविनी च क्रियाकाल एवाभिव्यज्यते । करोतीति कारकमित्यन्वर्थसंज्ञासमाश्रयणाच्चानाश्रितव्यापारस्य निमित्तत्वमात्रेण हेत्वादेः कारकसंज्ञा न भवति । कारकप्रदेशा:-"कारकं कृता" [३. १. ६८.] इत्येवमादयः ।। १ ।। न्या० स०-क्रियाहेतुः० । क्रियत इति क्रिया "कृगः श च वा" [५. ३. १००.]15 "क्यः शिति" [३. ४. ७०.] "रिः श-क्या-ऽऽशीर्ये' [४. ३. ११०.] भाव-कर्मणोरिति व्युत्पत्तिः; यदा त्वपादानादौ शप्रत्ययस्तदा क्यो नास्ति, तदेयादेशः । क्रियायाः कारकमित्युक्त क्रियायां कर्तु मुख्यत्वात् तस्यैव कारकत्वं स्यात् गौणमुख्ययो:०% इति न्यायात् । हेतु: कारकमित्युक्त तु द्रव्यस्य मुख्यत्वात् तद्धेतोरेव कटं करोतीत्यादौ कारकत्वं स्यात्, न तु चैत्रो यातीत्यादौ । कारकशब्द: कर्तृ मात्रपर्यायः, कादीत्यत्र20 कर्तृ शब्दस्तु कर्तृ विशेषवचनः । यथाह पाणिनिः स्वव्यापारे तु कर्तृत्वं, सर्वत्रैवास्ति कारके । व्यापारभेदापेक्षायां, करणत्वादिसंभवः ।। १ ।। फलार्थी य: स्वतन्त्रः सन्, फलायारभते क्रियाम् । नियोक्ता परतन्त्राणां, स कर्ता नाम कारकम् ।। २ ।। 25 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० २.] । प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च, कारकाणां य ईश्वरः। अप्रयुक्तः प्रयुक्तो वा, स कर्ता फलसाधकः ।। ३ ॥ तेन कादि कारकसंज्ञमिति विशेषण-विशेष्यभाव उपपद्यत इति, अन्यथा वृक्षो वृक्षसंज्ञ इतिवदनुपपन्नः स्यादिति । तच्च द्रव्याणामिति-द्रव्याणां सामर्थ्य कारकमिति सम्बन्धः, द्रव्यस्य तु कारकत्वे प्रतिबन्धकमन्त्रादिसन्निधाना-ऽसन्निधानाभ्यां दहनादेर्दाहादि-5 क्रियोत्पत्त्यनुत्पत्ती न स्याताम्, तत्स्वरूपस्य सर्वदा विद्यमानत्वादुत्पत्तिरेव स्यात्, तस्माच्छक्तिरेव कारकमिति श्रेयः, चैत्रादेस्तु कारकत्वं शक्ति-शक्तिमतोरभेदनयेन । स्वपराश्रयेति-अयमर्थः-त्रयी क्रिया, सा च चैत्र प्रास्त इति स्वाश्रिता, कटं करोतीति पराश्रिता, अन्योऽन्यमाश्लिष्यत इत्युभयाश्रिता। शक्तिरिह द्रव्यस्य धर्मः, तस्य चतुष्टयी गतिः-कश्चित् सहभूर्यावद्रव्यभावी च, यथा स्फटिकर सूवर्णस्य पीतत्वम् १,10 कश्चित् सहभूरयावद्दव्यभावी, यथा-अपक्वघटे श्यामिका २, कश्चिदसहभूर्यावद्रव्यभावी, यथा-तस्यैव घटस्य पाकजा रूपादयः, यथा-लाक्षारक्तस्य कम्बलस्य रागः ३, कश्चिदसहभूरयाव द्रव्यभावी, यथा-मेषयोः सयोगः, यथा-पटे हरिद्रारागः ४ । क्रियाकाल इतिक्रियायाः शक्ति प्रति ज्ञापकः कालः, तत्र क्रियाकाले समवहितसकलोपकरणे शक्तिरभिव्यज्यते-प्रकटीक्रियते-अवगता भवति । अभिव्यज्यत इति कर्मणि कर्तृकर्मरिण वा,15 तथाहि-क्रियया का शक्तिः प्रकाश्यते-प्रकटीक्रियते, अभिव्यनक्ति-प्रकटीकरोति क्रिया क/ शक्ति, सैवं विवक्ष्यते,-नाहमभिव्यनज्मि स्वयमेवाभिव्यज्यते शक्तिः। अन्वर्थसंज्ञासमाश्रयणाच्चेति-चकार एवार्थे । हेत्वादेरित्यादिशब्दात सम्बन्धस्य सहार्थस्य चाकारकत्वं, तेन विद्ययोषित इत्यादौ “कारकं कृता" [ ३. १. ६८. ] इति न समासः, बहूनामिदं वस्त्रमित्यादौ “बह्वल्पार्थ०" [७. २. १५०.] इति शस् नाभूत् ।। २. २. १ ।। 20 स्वतन्त्रः कर्ता ॥ २. २. २ ॥ क्रियाहेतुभूतो यः क्रियासिद्धावपरायत्ततया प्राधान्येन विवक्ष्यते स कारकविशेषः कर्तृ संज्ञो भवति । देवदत्तः पचति, जिनदत्तेन कृतम्, स्थाली पचति, चौरस्य रुजति रोगः, प्रेषितः करोति; अस्य च कर्तु रधिश्रयणादयः पचिक्रियायामवान्तरव्यापारा भवन्ति, एतान् कुर्वन् देवदत्तः पचतीत्युच्यते ।25 प्रयोजकोऽपि कर्तव-पचन्तं देवदत्तं प्रयुक्त-देवदत्तेन पाचयति चैत्रः । अत्र स्वशब्द अात्मवचनः, तन्त्रशब्दः प्रधानार्थः, स्वं तन्त्रमस्य स्वतन्त्र प्रात्मप्रधानः । किं पुनः कारकान्तरेभ्यः कर्तुः प्राधान्यम् ?, यत् करणादीनि प्रयुक्त, न तैः प्रयुज्यते; तानि न्यत्करोति, न तैय॑त्क्रियते; तानि निर्वर्तयति, न तैनिर्वय॑ते; तानि प्रतिनिधत्ते, न तैः प्रतिनिधीयते; तेभ्यः स प्रथममात्मलाभं लभते, न30 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २११ तानि तस्मात् ; स तैविनाऽपि दृश्यते, न तानि तेनेति । कर्तृप्रदेशा:-" इङितः कर्तरि" [३. ३. २२.] इत्यादयः ।। २ ।। न्या० स०--स्वतन्त्रः । अत्र कारकत्वादेव स्वातन्त्र्ये लब्धे पुनः स्वातन्त्र्यश्रतिनियमार्था. तेन स्वातन्त्र्यमेव यस्य तस्य कर्त संज्ञा, न त पारतन्त्र्यसहितस्व तन्त्र्ययुक्तस्य । अपरायत्ततयेति-प्राधान्यं च कया हेतुभूतया ? अपरायत्ततया, यद्वा 5 सामानाधिकरण्यं प्राधान्येन किरूपेण? अपरायत्ततया । प्रेषितः करोतीति-प्रयोज्यावस्थायामपि स्वातन्त्र्यस्याऽहाने: कर्तृत्वम्, यदुक्त -- "यः क्रियां कर्म-कर्तृस्थां, कुरुते मुख्यभावतः । अप्रयुक्तः प्रयुक्तो वा, स कर्ता नाम कारकम् ।।" प्रयोजकोऽपि कतैवेति-स्वतन्त्रत्वादिति शेषः। तन्त्रशब्दः प्रधानार्थ इति-न वितततन्तु-10 वचनः, वितता हि तन्तवस्तन्त्रम् ; यस्याऽगुणभावेन धातुना व्यापार उच्यते सर्वोऽसौ स्वतन्त्र इति रूढ़िशब्दोऽयम्, स्वशब्द अात्मवचन इत्याद्यवयवार्थकथनं तु पदघटनामात्रार्थमिति, तेन यत्रैव करणादीन्यप्रधानानि सन्ति-'देवदत्तः स्थाल्यां काष्ठरोदनं पचति' इत्यादौ तत्रैव कर्तृ संज्ञेत्येवं न, किन्तु तदभावेऽपि, तेन 'पास्ते, शेते' इत्यादावपि । स्थाली पचतीति-अधिकरणरूपायाः स्थाल्याः स्वातन्त्र्यस्य विवक्षितत्वात् कर्तृत्वम् । रुजतीति-15 अत्र रोगलक्षणस्य भावस्य कर्तृत्वात् "रुजार्थस्याज्वरिसंता०" [२. २. १३.] इति कर्मणो विकल्पितत्वाच्चौरात षष्ठी। तानि प्रतिनिधत्त इति-प्रतिबिम्बीकरोति कर्ता हि कर्मादीनि कर्तृत्वेन, यथा-प्रोदनः पच्यते स्वयमेव, असिश्छिनत्ति, ब्राह्मणो ददाति, कुशूलः पचति, स्थाली पचतीत्यादि; न तु कर्मादिभिः कर्ता कर्मादित्वेन प्रतिबिम्ब्यते ।। २. २. २ ।।। 20 कतु याप्यं कर्म ॥२. २. ३ ॥ क; क्रियया यद् विशेषेणाप्तुमिष्यते तद् व्याप्यं, तत् कारक कर्मसंज्ञ भवति, प्रसिद्धस्यानुवादेनाप्रसिद्धस्य विधानं लक्षणार्थः; तेन तत् कर्म-यत् का क्रियते तद् व्याप्यसंज्ञं भवतोत्यपि सूत्रार्थः । तत् त्रेधा-निर्वय॑म् १, विकार्यम् २, प्राप्यं ३ च। तत्र यदसज्जायते जन्मना वा प्रकाश्यते25 तन्निवर्त्यम्-कटं करोति, पुत्रं प्रसूते; प्रकृत्युच्छेदेन गुणान्तराधानेन वा यद् विकृतिमापाद्यते तद् विकार्यम्-काष्ठं दहति, काण्डं लुनाति; यत्र तु क्रियाकृतो विशेषो नास्ति तत् प्राप्यम्-प्रादित्यं पश्यति, ग्रामं गच्छति । अस्य तु Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ३.] त्रिविधस्यापि यथाक्रममवान्तरव्यापाराः-निवर्तते, विकुरुते, प्राभासमुपगच्छतीत्यादयः । त्रिविधमप्येतत् पुनस्त्रिविधम्-इष्टम् १, अनिष्टम् २, अनुभयं ३ च; यदवाप्त क्रियाऽऽरभ्यते तदिष्टम्-कटादि; यद् द्विष्टं प्राप्यते तदनिष्टम्अहिं लङ्घयति, विषं भक्षयति, कण्टकान् मृद्नाति, चौरान् पश्यति; यत्र नेच्छा 5 न च दुषस्तदनुभयम्-ग्रामं गच्छन् वृक्षमूलान्युपसर्पति, वृक्षच्छायां लङ्घयति । पुनस्तत् कर्म द्विविधं प्रधानेतरप्रभेदात्, तच्च द्विकर्मकेषु धातुषु दुहि-भिक्षिरुधि-प्रच्छि-चिग्-अंग्-शास्वर्थेषु याचि-जयति-प्रभृतिषु च भवति-दुह्यर्थ-गां दोग्धि पयः, गां स्रावयति पयः, गां क्षारयति पयः; भिक्ष्यर्थपौरवं गां भिक्षते, पौरवं गां याचते, चैत्रं शतं मृगयते, चैत्रं शतं प्रार्थयते; एवं-10 गामवरुणद्धि व्रजम् ; छात्रं पन्थानं पृच्छति, छात्रं वाक्यं चोदयति ; वृक्षमवचिनोति फलानि; शिष्यं धर्मं ब्रूते, शिष्यं धर्ममनुशास्ति; क्रुद्धं याचते शमावस्थाम्, अविनीतं याचते विनयम्, याचिरिहानुनयार्थः, तेन भिक्ष्यर्थाद् भेदः; गर्गान् शतं जयति, गर्गान् शतं दण्डयति, ग्रामं शाखां कर्षति, काशान् कटं करोति, अमृतमम्बुनिधिं मथ्नाति, अजां ग्रामं नयति, ग्रामं भारं हरति,15 उपसरजमव मुष्णाति; ग्रामं भारं वहति, शतानीकं शतं गृह्णाति, तण्डुलानोदनं पचति, अत्र यदर्थं क्रियाऽऽरभ्यते तत् पयःप्रभृति प्रधानं कर्म, तत्-सिद्धये तु यदन्यत् क्रियया व्याप्यते गवादि तदप्रधानम् ; यदा तु पयोऽर्था प्रवृत्तिरविवक्षिता तदा प्रधानस्यासन्निधानाद् गवादेरेव प्राधान्यम्, यथाआश्चर्यो गवां दोह इति । ___ तत्र दुहादीनामप्रधाने कर्मणि कर्मजः प्रत्ययो भवति-गौर्दु ह्यते दुग्धा दोह्या वा पयो मैत्रेण, याच्यते पौरवः कम्बलम्, अवरुध्यते गां व्रजः, पृच्छयते धर्ममाचार्यः, भिक्ष्यते गां चैत्रः, अवचीयते वृक्षः फलानि, उन्यते शिष्यो धर्मम्, शिष्यते शिष्यो धर्मम्, जीयते शतं चैत्रः, गर्गाः शतं दण्डयन्ताम्, "देवासुरैरमृतमम्बुनिधिर्ममन्थे” इत्यादि । नी-वहि-हरति-प्रभृतीनां तु प्रधाने कर्मणि-25 नीयते नीता नेतव्या वा ग्राममजा, उह्यते भारो ग्रामम्, ह्रियते कुम्भो ग्रामम्, कृष्यते ग्रामं शाखेति । 20 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २१३ गत्यर्थानामकर्मणां च रिणगन्तानां प्रधान एव कर्मणि-गमयति मैत्रं ग्रामम्, गम्यते गमितो गम्यो वा मैत्रो ग्रामं चैत्रेण, प्रासयति मासं मैत्रम्, प्रास्यते मासं मैत्रश्च त्रेण । अन्यस्त्वप्रधानेऽपीच्छति-गम्यते मैत्रं ग्रामश्च त्रेण, प्रास्यते मासो मैत्रं चैत्रेण । बोधा-ऽऽहारार्थ-शब्दकर्मकाणां तु णिगन्तानामुभयत्र-बोधयति शिष्यं धर्मम्, बोध्यते शिष्यो धर्मम्, बोध्यते शिष्यं धर्म इति , वा, भोजयत्यतिथिमोदनम्, भोज्यतेऽतिथिरोदनम्, भोज्यतेऽतिथिमोदन इति वा, पाठयति शिष्यं ग्रन्थम्, पाठ्यते शिष्यो ग्रन्थम्, पाठ्यते शिष्यं ग्रन्थ इति वा; सर्वत्र चोक्त कर्मणि द्वितीया न भवतीति वक्ष्यते । कर्तुरिति किम् ? माषेष्वश्व बध्नाति, अश्वन कर्मणा भक्षणक्रियया स्पर्शनक्रियया वा माषाणां व्याप्यानां कर्मणां कर्मसंज्ञा मा भूत् । वीति किम् ? पयसा प्रोदनं भुङ्क्त,10 अत्र करणस्य मा भूत् । कर्म-व्याप्यप्रदेशा:-“कर्मणोऽण" [ ५. १. ७२. ] "व्याप्याच्चेवात्" [५. ४. ७१.] इत्यादयः ।। ३ ।। न्या० स०--का० । कर्तु रित्यत्र प्रथमव्याख्याने व्याप्येत्यस्य कृत्प्रत्ययान्तस्य योगे "कृत्यस्य वा" [ २. २. ८८. ] इति कर्तरि षष्ठी। ननु यदा द्वतीयीकं व्याख्यानंकतु : कर्म व्याप्यमिति क्रियते तदा कर्मणा योगे कर्तृ शब्दात् केन सूत्रेण षष्ठी वर्तिष्ठ ?,15 उच्यते-कृच्छेषा उणादय इति कृत्वा कर्मशब्द औरणादिकप्रत्ययान्तोऽपि कृदन्तः, ततस्तद्योगे “कर्तरि" [ २. २. ८६. ] इति षष्ठी। विकार्यमिति-विकार्यते स्वभावोच्छेदेनान्यथात्वं लभ्यत इति । निवर्तत इति “निर्वृत्त्यादिषु यत् पूर्वमनुभूय स्वतन्त्रताम् । कञन्तराणां व्यापारे, कर्म संपद्यते ततः" ।। विकुरुत इति-अन्यथा विकृतिमनुपगच्छतो वज्रस्येव विकार्यत्वायोग: स्यात् । प्राभासमुपगच्छतीति-तथाऽऽभासाऽयोग्यस्य परमनिकृष्टपरमाण्वादेरिवाभास्यत्व विरहः स्यादिति व्याप्यस्याभासगमनमवान्तरव्यापार इति । विषं भक्षयतीति-यदाज्ञातं सः भक्ष्यते तदैवानिष्टम्, यदा तु राजभीतेन व्याध्यतिक्रान्तेन वा भक्ष्यते तदा इष्टमेव । गां दोग्धि पय इति-अन्तर्भूतण्यर्थत्वेनामीषां द्विकर्मकत्वम्, अन्तर्भूतण्यर्थाः सकर्मका:25 सर्वे, तेनामयर्थः-गौः की पयः कर्म मुञ्चति, तां गां मोचयतीति। गां स्रावयति पय इति-"गतिबोधा०" [२. २. ५.] इत्यत्र बहुवचनादन्येषामपि अणिक्कतु: कर्मत्वम्, तेन गवादीनोमपि कर्मत्वं युक्त, नात्र नियमः प्रवर्तते, एतेऽपि ईशा अपि द्विकर्मका उच्यन्ते इति । यद्वा “बहुलमेतन्निदर्शनम्" [ धातुपारायणम् ] इति णिजन्तता सर्वत्र । पौरवं गां भिक्षते-अस्ति राजा पुरुर्नाम, तदपत्यं-"पुरु-मगध०" [६. १. ११६.] इत्यणि30 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ३. ] 1 पौरवः, अयं च याच्यमानो हृष्टो म्लानो वा भवतीति विकार्यं कर्म, भिक्षते कोऽर्थः ? याचनापूर्वकं गां दापयति वियोजयतीति वेत्यर्थः । गामवरुद्धीति - व्रजं सेवमानं सेवयतीत्यर्थः । पृच्छति कथापयति । चोदयतीति वादयतीत्यर्थः । वृक्षमवचिनोतीतिवृक्ष: फलानि वियुक्तं तं वियोजयतीत्यर्थः । ब्रते कथयन्तं कथापयति । अनुशास्ति ज्ञापयति । याचते कारयते । अनुनयार्थ इति - तेन भिक्ष्यर्थमध्ये याचिद्वाराऽनुनयार्थानां 5 नग्रहः, भिक्षिर्याच्त्रायामेव, याचिस्तूभयार्थ इति । जयति मोचयति । कर्षति कर्षयति । करोति योजयति । मथ्नाति - वियोजयति । नयति प्रापयति । हरति वियोजयति प्रापयति वा । मुष्णाति त्याजयति, उपसरः- - पुरुषविशेषो देशो वा तत्र जातः, कोऽर्थः ? परस्वामिकं सन्तमात्मस्वामिकं करोति । वहति प्रापयति । गृह्णाति त्याजयति । तण्डुलानोदनं पचति तण्डुलान् विक्लेदयन् विकुर्वन् प्रोदनं करोतीत्यर्थो धातूनामनेकार्थ- 10 त्वादिति । दुहादीनामिति - २१४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते "दुहागरणकं कर्म, नीवहादेः प्रधानकम् । रिगन्ते कर्तृकर्मैवमन्यद् वा वक्ति कर्मजः " ।। 4 “येनापविद्धसलिलस्फुटनागसद्मा देवासुरैरमृतमम्बुनिधिमन्थे । व्यावर्तनैरहिपतेरयमाहिताङ्कः, खं व्यालिखन्निव विभाति स मन्दराद्रिः ।। " 15 नेतव्या वा ग्राममजेति - प्रजादेः प्राधान्यान्नकेतुश्च पूर्वं तत्रैव क्रियाप्रवर्तनादन्तरङ्गत्वाच्च तत्रैव प्रधाने कर्मज इति । केचिदाहुः न प्रमी नयत्यादयो द्विकर्मका अन्यकर्मत्वात्, तथाहि प्रजां नयति ग्रामम् अजां गृहीत्वा ग्रामं यातीति ह्यत्रार्थः, नयतिस्तु प्रातिमात्र वाची, गम्यमानक्रियापेक्षयापि कर्मत्वं दृश्यते, यथा- ' प्रविश, पिण्डी, द्वारत्' इति, भक्षणक्रियापेक्षया पिधानक्रियापेक्षया चेति, नैवम् - एवं सति 'अजा नीयते ग्राम न्' 20 इत्यत्र कर्मण्युत्पद्यमानेनात्मनेपदेनाजा कर्मणोऽभिधानं न प्राप्नोति, यतो गृह्णातेरजा कर्म, न नयतेरिति, तस्मादन्यकर्मत्वमजाया नैष्टव्यमिति । श्रकर्मणामिति - नित्याकर्मकारणामविवक्षितकर्मकाणां चेत्यर्थः । प्रधान एव कर्मणीति - कर्तृकर्मणि कर्मजः प्रत्ययो भवतीति सम्बन्धः, प्राधान्यं च तस्य " गतिबोधाहारार्थ ० " [२. २. ५. ] इति कर्मसंज्ञाया विधीयमानत्वेन कृत्रिमत्वात् कर्तु : प्रथमप्रवृत्तिविषयत्वाद् वा । प्रधान एवेति - अन्यस्त्वप्रधानेऽ-25 पीच्छति तन्मतक्षेपणायात्रैवकारः । श्रासयति मासं मैत्रमिति - श्रास्ते मासं मैत्र:, तमासीनं परः प्रयुङ्क्त े, मासस्य "काला - ऽध्व भाव० " [२. २. २३. ] इति कर्मसंज्ञा, कालाSea - देश - भावैश्व सर्वेऽपि धातवः सकर्मका इत्यन्यकर्मापेक्षया अकर्मका इह ग्राह्याः । बोधयति शिष्यं धर्ममित्यत्र वाक्यस्य धर्मप्रतिपादनपरत्वे धर्मस्य प्राधान्यं शिष्यादेर्गुणभाव:, शिष्यादिसंस्कारपरयां तु प्रवृत्तौ शिष्यादेः प्राधान्यं धर्मस्य गुणभाव इत्युभयत्र 30 कर्मजः प्रत्यय इति । पाठयति शिष्यं ग्रन्थमिति - अर्थस्य शब्देन प्रतिपाद्यत्वाच्छब्दस्य प्राधान्यं शब्दस्यार्थपरत्वादर्थस्यैव प्राधान्यमिति समर्थयन्ते गरीयांसो विद्वांसः । पयसा ओदनमिति - अत्र पय इति न व्याप्यमोदनापेक्षयाऽन्याङ्गत्वात् यच्चाऽनन्याङ्गः तदेव व्याप्यमिति ।। २. २.३ ।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ४-५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २१५ वाअकर्मणामणिक्कर्ता णौ ॥ २. २. ४ ॥ अविवक्षितकर्माणोऽकर्माण उत्तरत्र नित्यग्रहणात्, तेषामणिगवस्थायां यः कर्ता स णौ-णिगि सति कर्मसंज्ञो वा भवति । पचति चैत्रः, पाचयति चैत्रं चैत्रेण वा; लिखति मैत्रः, लेखयति मैत्रं मैत्रेण वा। गत्यर्थादीनां तु परत्वान्नित्य एव विधिः-गच्छति चैत्रः, गमयति चैत्रमित्यादि । किं करोतीति5 व्यापारमात्रविवक्षायां चाविवक्षितकर्माणो भवन्ति ।। ४ ।। न्या० स०--वाऽकर्म। अविवक्षितेति-नन्वेवं तहिं गत्यर्थादीनामप्यविवक्षितकर्मकत्वेन विकल्पः प्राप्नोतोत्याह-गत्यर्थादीनामिति ।। २. २. ४ ।। गति बोधाहारार्थ-शब्दकर्म-नित्याकर्मणाम-नी खाद्यदि-वा-शब्दाय क्रन्दाम् ॥ २. २. ५ ॥10 गतिः-देशान्तरप्राप्तिः, बोधः-ज्ञानमात्रं तद्विशेषश्च, शब्दः कर्म-क्रिया व्याप्यं च येषां ते शब्दकर्माणः, नित्याऽकर्माण:-सर्वथाऽविद्यमानव्याप्याः; गत्यर्थ-बोधार्था-ऽऽहारार्थानां शब्दकर्मणां नित्याऽकर्मणां च धातूनां नीखाद्यदिह्वयति-शब्दायति-क्रन्दजितानामणिगवस्थायां यः कर्ता स णौ सति कर्मसंज्ञो भवति । गत्यर्थ:-गच्छति मैत्रो ग्रामम्, गमयति मैत्रं ग्रामम् ; याति15 मैत्रो ग्रामम्, यापयति मैत्रं ग्रामम् ; देशान्तरप्राप्तेरन्यत्र न भवति-स्त्रियं गमयति मैत्रेण चैत्रः, भजनार्थोऽत्र गमिः । सामान्यबोधार्थः-बुध्यते शिष्यो धर्मम्, बोधयति गुरुः शिष्यं धर्मम् ; जानाति शिष्यो धर्मम्, ज्ञापयति गुरुः शिष्यं धर्मम् ; एवमुपलम्भयति, अवगमयतीत्यादि । विशेषबोधार्थ:-पश्यति रूपतर्कः कार्षापणम्, दर्शयति रूपतर्कं कार्षापणं वणिक; एवं घ्रापयति मैत्र-20 मुत्पलम्, स्पर्शयति मैत्रं वस्त्रम्, श्रावयति शिष्यं धर्मम्, स्मारयति शिष्यं धर्मम्, अध्यापयति शिष्यं शास्त्रम् । अन्ये तु बोधविशेषार्थस्य दृशेरेवेच्छन्ति नान्येषाम्, तन्मते-'जिघ्रत्युत्पलं चैत्रः, घ्रापयत्युत्पलं चैत्रेण मैत्रः, एवं स्पर्शयति चैत्रेण वस्त्रम्, श्रावयति धर्म शिष्येण' इत्यादौ प्रयोज्यकर्तरि तृतीयैव भवति । 25 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ५.] आहारार्थः-भुङ्क्त े बटुरोदनम्, भोजयति बटुमोदनम्; अश्नाति बटुर्भक्तम्, प्राशयति बटुं भक्तम् । शब्दक्रियः - जल्पति मैत्रो द्रव्यम्, जल्पयति मैत्रं द्रव्यम्; एवमालापयति मित्र मैत्रम्, संभाषयति मैत्रं भार्याम्, शब्दव्याप्यः - शृणोति शब्दं मैत्रः श्रावयति शब्द मैत्रम्, प्रधीते बटुर्वेदम्; प्रध्यापयति बटुं वेदम् एवं जल्पयति मित्रं वाक्यम्, विज्ञापयति गुरुं 5 वाक्यम्, उपलम्भयति शिष्यं विद्याम् । नित्याकर्मकः - प्रास्ते मैत्रः, प्रासयति मैत्रं चैत्रः; शेते मैत्रः, शाययति मैत्रं चैत्रः । नित्यग्रहणं पूर्वत्राविवक्षितकर्मकपरिग्रहार्थम्, अन्यथा विभागो न ज्ञायेत । काला - ऽध्व-भाव - देशैश्च सर्वेऽपि धातवः सकर्मका एवेत्यन्यकर्मापेक्षया नित्याकर्मका वेदितव्याः । गत्यर्थादीना - मिति किम् ? पचत्योदनं चैत्रः, पाचयत्योदनं चैत्रेण मैत्रः । 10 अणिक्कर्तेत्येव - गमयति चैत्रो मैत्रम्, तमपरः प्रयुङ्क्त - गमयति चैत्रेण मैत्रं जिनदत्तः । नयत्यादिवर्जनं किम् ? नयतेः प्रापणोपसर्जन प्राप्त्यर्थत्वेन गत्यर्थत्वात् खाद्यद्योराहारार्थत्वात् ह्वाशब्दाय क्रन्दां च शब्दकर्मकत्वात् कर्मत्वे प्राप्ते प्रतिषेधार्थम् - नयति भारं चैत्रः, नाययति भारं चैत्रेण; खादयत्यपूपं मैत्रेण, प्रादयत्योदनं मैत्रेण, हवाययति चैत्रं मैत्रेरण, शब्दाययति चैत्रं मैत्रेण, 15 क्रन्दयति मित्र मैत्रेण; कर्मसंज्ञाप्रतिषेधात् स्वव्यापाराऽऽश्रयं कर्तृत्वमेव । प्रेषणा - Sध्येषणादिना प्रयोजकव्यापारेण रिगगन्तवाच्येनाणिक्कर्तुर्व्याप्यत्वात् कर्मसंज्ञा सिद्धैव, नियमार्थं तु वचनम् - प्रयोजकव्यापारेण व्याप्यमानस्य गत्यर्थादिसम्बन्धिन एव प्रयोज्यस्य कर्तुः कर्मसंज्ञा भवति तेनाऽन्यधातुसम्बन्धिनः कर्तृ त्वमेव भवति ।। ५ ।। 20 न्या० स० -- गतिबोधा० । न विद्यते कर्म येषां तेऽकर्माणः, नित्यमकर्मारण इति विस्पष्टपटुवत् समासः, ततो द्वन्द्वात् षष्ठीबहुवचनम् । प्राहारस्य सुप्रसिद्धत्वाद् गतिबोधयोः स्वरूपमाह - गतिः - देशान्तरप्राप्तिरिति । बुध्यते शिष्यो धर्मम् अत्र हि बुध्यादयश्चक्षुरादीन्द्रियसाधनज्ञानविशेषस्याप्रतिपादनात् सामान्यबोध एव वर्तन्त इत्यर्थः । दर्शयति रूपतर्कमिति - रूपं तर्कयतीति "कर्मणोऽण्” [ ५. ३. १४. ] इत्यरिण रूपतर्क:, 25 कर्षेणाप्यत इति "भुज - पत्यादिभ्यः ०" [ ५. ३. १२८. ] इति कर्मण्यनटि " पूर्वपदस्थ ० ' [ २. ३. ६४. ] इति णत्वे प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽरिग कार्षापरणः, अत्र दृश्यादीनां चक्षुरादिसाधनजनितज्ञान विशेषवृत्तीनां विशेषबोधार्थतेत्यर्थः । अन्ये त्विति - ते हि गत्यादिसूत्रे " Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 [ पा० २. सू० ६-७ . ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २१७ दृशिमुपादाय बोधार्थत्वेनैव सिद्धे दृशिग्रहणा दृशेरेव विशेषबोधार्थस्य परिग्रहो नान्येषामित्याचक्षते । खादयत्यपूपमिति - अत्र “चल्याहारार्थेङ ०' [ ३. ३. १०८. ] इति परस्मैपदत् । आदयत्योदनमिति - पत्र फलवत्त्वाभावात् "परिमुह०" [३. ३. ९४.] इति नात्मनेपदन्, मतान्तरेण वा प्रयोगोऽयम्, ते हि "परिमुह०" [ ३. ३. ९४. ] इत्यत्राद्धातुमपठन्त आत्मनेपदं नेच्छन्ति ।। २.२.५ ।। 5 भक्षैहिंसायाम् ॥ २. २. ६ ॥ भक्षेः स्वार्थिकण्यन्तस्य हिंसार्थस्याणिक्कर्ता गौ कर्मसंज्ञो भवति । भक्षयन्ति सस्यं बलीवर्दाः, तान् प्रयुङ्क्ते - भक्षयति सस्यं बलीवर्दान् मैत्रः ; उक्त च कर्मरिण-भक्ष्यन्ते यवं बलीवर्दाः, भक्ष्यते यवो बलीवर्दान् मैत्रेणेति वा | वनस्पतीनां प्रसव - प्ररोह - वृद्धयादिमत्त्वेन चेतनत्वात् तद्विशेषस्य सस्यस्य 10 प्राणवियोगस्तद्भक्षणात् स्वाम्युपघातो वाऽत्र हिंसेति भक्षूहिंसार्थता । हिंसायामिति किम् ? भक्षयति पिण्डी शिशुः तं प्रयुङ्क्त े - भक्षयति पिण्डी शिशुना; भक्षयति राजद्रव्यं नियुक्तेन भक्षयति पुत्रान् गार्ग्या, भक्षयतिरत्राक्रोशे । आहारार्थत्वात् प्राप्ते नियमार्थं वचनम् ।। ६ ।। न्या० स०-- - भर्क्षहसा । भक्ष्यन्ते यवं बलीवर्दा इति - यवानदतां यवानां विना - 15 श्यत्वेन हिंसा । ननु हिंसा हि प्रारणव्यपरोपणलक्षणा, सा च प्रारिणन्येव सचेतने सम्भवति, कथमचेतने सस्ये ? नहि तत्रायुरिन्द्रियबलोच्छ्वासलक्षणा रसमलधातूनां परिणतिहेतवः प्राणाः सन्तीत्यत आह- वनस्पतीनामिति । वृद्धघादिमत्वेनेति - वनस्पतयः सचेतना वृद्ध्यादिमत्त्वात्, यो यो वृद्धिमान् स स सचेतनः, यथा पुरुषः, वृद्ध्यादिमन्तचं ते, तस्मात् सचेतना इति पञ्चावयवमनुमानमिति । भक्षयति पुत्रानिति - ननु पुत्रभक्षणस्य हिंसात्म- 20 कत्वाद् भक्षयति पुत्रान् गार्ग्यति कथं कर्मत्वाभावः ? इत्याह-भक्षयतिरत्रेति नात्र गार्गी स्वयं पुत्रान् भक्षयति, न च तामन्यस्तत्र प्रयुङ्क्त े, अपि त्वेवमाक्रोशति-भक्षय पुत्रानिति भक्षिर्न हिंसाविषयः ।। २.२.६ ।। वहेः प्रवेयः ॥ २. २. ७ ॥ प्रवीयते प्राजतिक्रियया व्याप्यते यः स प्रवेयः, वहेरणिक्कर्ता प्रवेयो25 णौ कर्मसंज्ञो भवति । वहन्ति बलीवर्दा भारम् तान् प्रयुङ्क्ते नियोक्तावाहयति भारं बलीवर्दान्; वाहयिता बलीवर्दानां भारम्; वाह्यन्ते भारं बलीवर्दाः । प्रवेय इति किम् ? वाहयति भारं मैत्रेण, नात्र मैत्रो बलीवर्दा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] बृहइवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ८.] दिवत् प्रवेयः । प्राप्त्यर्थस्य प्रापणार्थस्य च वहेर्गत्यर्थत्वाद्, अकर्मकस्य च । नित्याऽकर्मकत्वात् पूर्वेण सिद्धे नियमार्थम्, अविवक्षितकर्मकस्य तु पक्षे विध्यर्थं चेदम् ।। ७ ।। न्या० स०--वहेः प्र०। सूत्रतात्पर्यमाचष्टे-प्राप्त्यर्थस्येति-तत्र वहतिः प्राप्त्यर्थो यथा-वहन्ति बलीवर्दा:-देशान्तरं प्राप्नुवन्तीति, अत्रानेकार्थत्वात् प्राप्त्यर्थः, यद्वाऽरिण- 5 गन्तस्यानटि प्रापणमिति रूपे प्राप्त्यर्थत्वम् ; प्रापणार्थो यथा-ग्रामं भारं वहति बलीवर्द:ग्रामं प्रापयतीति, अत्रापि प्रापणोपसर्जने [नं] प्राप्तिरस्त्येव तेन गत्यर्थत्वम् ; अकर्मको यथा-वहति नदी-स्यन्दत इत्यर्थः, अनेकार्थत्वात् स्यन्द्यर्थः । वाहयिता भारं बलीवानामिति-पत्र बलीवर्दशब्दान् “वैकत्र द्वयोः" [ २. २. ८५. ] इति प्राःषष्ठीविकल्पाद् द्वितीया, तद्विमुक्तपक्षे भारस्येत्यत्र “कर्मणि कृतः" [२: २. ८३.] इत्यनेन षष्ठो, द्वितीय-10 प्रयोगे त्वेतद्विपर्ययः; “वैकत्र द्वयोः" [२. २. ८५.] इति षष्ठीप्रवृत्त्युदाहरणं तु-वाहयिता भारस्य बलीवर्दानामिति गम्यमपि ज्ञेयम्, अत्र तु निष्प्रयोजनत्वान्न दर्शितम् ।। २. २. ७ ।। हु-क्रोर्नवा ॥२. २. ८ ॥ हरतेः करोतेश्चाणिक्कर्ता णौ कर्मसंज्ञो वा भवति, प्राप्ते चाप्राप्ते चायं विकल्पः । प्राप्ते-विहरति देशमाचार्यः, विहारयति देशमाचार्यमाचार्येण वा; 15 एवम्-आहारयत्योदनं बालकं बालकेन वा; विकुर्वते सैन्धवाः, विकारयति सैन्धवान् सैन्धवैरिति वा; विकुरुते स्वरं क्रोष्टा, विकारयति स्वरं क्रोष्टारं क्रोष्टुना वा; अत्र गत्यर्था-ऽहारार्थ-नित्याकर्मक-शब्दकर्मकत्वेन यथासंख्यं प्राप्तिः । अप्राप्ते-हरति द्रव्यं मैत्रः, हारयति द्रव्यं मैत्रं मैत्रेण वा; करोति कटं चैत्रः, कारयति कटं चैत्रं चैत्रेण वा; अत्र हरतिश्चौर्यार्थो न प्रापणार्थ 20 इत्यप्राप्तिः। प्रापणार्थत्वे तु प्राप्ते विभाषा। कारयिता कटस्य देवदत्तं देवदत्तेन वा, कारयिता कटं देवदत्तस्य देवदत्तेन वा ।। ८ ।। न्या० स०-ह-क्रो०। हसाहचर्यान् कृधातोरपि भ्वादेरेव ग्रहः, तेन “कृ त् विक्षेपे" "कृगट हिंसायाम्" इत्यनयोर्व्यवच्छेदः। प्राप्ते चेति-यदा हरतिर्गतौ वर्ततेऽभ्यवहारे वा, करोतिश्च वल्गनादावकर्मक: शब्दकर्मकश्च, तदा पूर्वेण प्राप्ते, यदा हरति:25 स्तेयादौ वर्तते, करोतिश्च सकर्मको भवति, तदाऽप्राप्ते विशेषानुपादानादुभयत्र विकल्पोऽयमिति । कारयिता कटस्य देवदत्तं देवदत्तेन वेति-प्रथमप्रयोगे देवदत्तशब्दाद् द्वितीयप्रयोगे तु कटशब्दात् “वैकत्र द्वयोः" [२. २. ८५.] इत्यनेन प्राप्तषष्ठीविकल्पाद् द्वितीया, तद्विमुक्तकर्मणि "कर्मणि कृतः" [२. २. ८३.] इत्यनेन षष्ठी, यद्यत्र "वैकत्र द्वयोः" Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २१६ [२. २. ८५.] इत्यनेन षष्ठीप्रवृत्तिः स्यान्न विकल्पस्तदा द्वितीये कर्मणि "कर्मणि कृतः" [२. २. ८३.] इत्यनेन नित्यं षष्ठी स्यात, कतप्रधानदेवदत्तशब्दात तू "द्विहेतोरस्त्र्यणकस्य वा" [२. २. ८७.] इत्यनेन प्राप्तकर्तृ षष्ठीविकल्पात् तृतीया; "वैकत्र द्वयोः" [२. २. ८५.] इत्यस्य “द्विहेतोरस्त्र्यणकस्य वा' [२. २. ८८.] इत्यस्य च प्रवृत्त्यूदाहरणंकारयिता कटस्य देवदत्तस्य, कटं देवदत्तस्य वेति गम्यमपि ज्ञेयम्, अत्र तु निष्प्रयोजन्नत्वान्न 5 दर्शितम् ॥ २. २. ८ ॥ दृश्यभिवदोरात्मने । २. २. ६ ॥ दशेरभिपूर्वस्य वदतेऽश्चाऽत्मनेपदविषयेऽणिक्कर्ता पौ कर्मसंज्ञो वा भवति। पश्यन्ति भृत्या राजानम्, तान् राजैवानुकूलाचरणेन प्रयुक्त-दर्शयते राजा भृत्यान् भृत्यैर्वा ; अभिवदति गुरु शिष्यः, अभिवादयते गुरुः शिष्यं शिष्येण10 वा; अथवा-अभिवदति गुरु शिष्यः, तं मैत्रः प्रयुक्त -अभिवादयते गुरु शिष्यं शिष्येण वा मैत्रः; एवं-दर्शयमानो राजा भृत्यान् मृत्यैर्वा, अभिवादयमानो गुरुः शिष्यं शिष्येण वा; अथवा-अभिवादयमानो गुरु शिष्यं शिष्येण वा मैत्रः । अात्मन इति किम् ? पश्यति रूपतर्कः कार्षापणम्, दर्शयति रूपतक कार्षापणम् ; अभिवदति गुरु शिष्यः, अभिवादयति गुरु शिष्येण ।15 दृशेर्बोधार्थत्वेन नित्यं कर्मत्वे प्राप्ते, अभिवदेस्तु नित्यमप्राप्ते विकल्पः; यदा तु अभिवदिर्न प्रणामार्थः, किन्तु शब्दक्रियस्तदा-अभिवादयति गुरु शिष्यं मैत्र इति नित्यं प्राप्त विभाषेति । णिजन्तस्यापि वणिगीच्छन्त्येके-अभिवादयति गुरुर्देवदत्तम्, तस्मिन्नाशिषं प्रयुक्त इत्यर्थः, अभिवादयते गुरु देवदत्तो गुरुणेति वा; आत्मन्याशिष प्रयोजयतीत्यर्थः । णिगन्तस्यापीति कश्चित्-अभिवदति20 गुरुः स्वयमाशिषम्, तं शिष्यः प्रयुक्त-अभिवादयति गुरुमाशिषं शिष्यः, तं मैत्रः प्रयुक्त-अभिवादयते गुरुमाशिषं शिष्यं शिष्येण वा मैत्रः । नामधातोरभिवादयतेरपीच्छत्यन्यः ।। ६ ।। न्या० स०--दृश्यभि० । दर्शयते राजेति-अत्र “अणिक्कर्म०" [३. ३. ८८.] इत्यात्मनेपदम् । अभिवादयते गुरु शिष्यं शिष्येण वा मैत्र इति-फलवत्त्वविवक्षाया-25 मात्मनेपदम् । अभिवादयति गुरुर्देवदत्तमित्यत्र "युजादेर्नवा" [३. ४. १८.] विकल्पेन णिचि णिजभावपक्षे आत्मनेपदं चरितार्थं, वाक्यावस्थायां परस्मैपदमत्र । कश्चिदिति दुर्गसिंहमतम् । अन्य इति रत्नमतिः, तथा च स आह-सुब्धातुर्नामधातुरित्यर्थः ॥ २.२.४ ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] बृहद्वृत्तिलधुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १०-११.] नाथा ॥ २. २. १० ॥ अणिक्कर्ता णाविति निवृत्तं पृथग्योगात्, आत्मनेपदविषयस्य नाथतेर्व्याप्यं कर्म वा भवति, आत्मनेपदविषयत्वं चास्याशिष्येवेति तत्रैवायं विधिः । सर्पिषो नाथते, सपिथिते, सपिर्मे भूयादित्याशास्त इत्यर्थः; सर्पिषो नाथमानः, सपि थमानः सर्पिषो नाथिष्यमाणः, सर्पि थिष्यमाणः; सर्पिषो नाथ्यते, 5 सर्पि थ्यते । आत्मन इत्येव-पुत्रमुपनाथति पाठाय, उपयाचत इत्यर्थः ।। १०॥ . न्या० स०--नाथः । कर्म वा भवतीति-“कर्तुप्प्य म् ०" [२. २. ३.] इत्यनेन नित्यं प्राप्ते पक्षे निषेधः साध्यः । आत्मनेपदविषयत्वं चेति-कर्बपेक्षयेदमुक्त, भावकर्मणोस्तु सर्वधातूनामप्यात्मनेपदमस्त्येव । सर्पिषो नाथत इत्यादिषु सर्वेषु कर्माभावपक्षे10 "शेषे' [ २. २. ८१. ] इत्यनेन षष्ठी ।। २. २. १० ।। स्मृत्यर्थदयेशः ॥ २. २. ११ ॥ स्मरणार्थानां दयतेरीशश्च व्याप्यं कर्म वा भवति । मातुः स्मरति, मातरं स्मरति; मातुः स्मर्यते, माता स्मर्यते; मातुः स्मर्तव्यम्, माता स्मर्तव्या; मातुः स्मृतम्, माता स्मृता; मातुः सुस्मरम्, माता सुस्मरा; मातुः स्मृतः15 पुत्रः, माता स्मृता पुत्रेण ; एवं-मातुरध्येति, मातरमध्येति; मातुायति, मातरं ध्यायति; मातुरुत्कण्ठते, मातरमुत्कण्ठत इत्यादि। सर्पिषो दयते, सर्पिर्दयते; लोकानामीष्टे, लोकानीष्टे । ननु कर्माविवक्षायां पक्षे माषाणामश्नीयादित्यादिवत् शेषे षष्ठी सिद्धव, तत् किमनेन ? सत्यम्-किन्तु “षष्ठ्ययत्नाच्छेषे” [३. १. ७६.] इत्ययत्नजे शेषे षष्ठयाः समासो वक्ष्यते,20 ततो मातुः स्मृतमित्यादौ समासो मा भूदित्यनेन प्रकारेण यत्नाच्छेषो विधीयते, नियमार्थं च, तेनैषां धातूनां कर्मैव शेषत्वेन विवक्ष्यते, न कारकान्तरं, तेन 'मात्रा स्मृतम्, मनसा स्मृतम्' इत्यादौ कर्तृ-करणयोः शेषविवक्षाभावात् षष्ठी न भवति । व्याप्यमित्येव-कथासु स्मरति, गुणैः स्मरति ।। ११ ।। न्या० स०--स्मृत्यर्थः । सामान्येन चिन्तनार्थ उक्तोऽपि स्मृधातुरनुभूतस्यार्थस्य25 विशिष्टे चिन्तने वर्तमानो गृह्यते, एवंविधाश्चाध्येत्यादयोऽपि गृह्यन्ते, तेन मनसा परि Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १२-१३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २२१ कल्पितचिन्तनार्थानां समीक्षादीनां व्युदासः । लोकानामीष्टे इति-व्यापारेषु नियुक्त स्वायत्तीकरोतीत्यर्थः ।। २. २. ११ ।। कृगः प्रतियत्ने ॥ २. २. १२ ॥ पुनर्यत्न:-प्रतियत्नः, सतो गुणाऽऽधानायाऽपायपरिहाराय वा समीहा; तस्मिन् वर्तमानस्य करोतेाप्यं वा कर्म भवति । एधोदकस्योपस्कुरुते, 5 एधोदकमुपस्कुरुते, शस्त्रपत्रस्योपस्कुरुते, शस्त्रपत्रमुपस्कुरुते । प्रतियत्न इति किम् कटं करोति । किम् ? व्याप्यमित्येव-एधोदकस्योपस्कुरुते बुद्धया, करणस्य मा भूत् ।। १२ ।। न्या० स०--कृगः प्र०। प्रतिशब्द: पुनरर्थेऽव्ययम्, “अव्ययं प्रवृद्धादिभिः" [ ३. १. ४८. ] [ इति ] सः । सतो गुणाधानायेति-ननु यत्नद्वये सति पुनर्यत्न इत्युप-10 युज्यते, तत् कथमत्र प्रतियत्नः ? उच्यते-प्रथमं तावदर्थस्यात्मलाभाय यत्नो भवति, लब्धात्मनो यो यत्नोऽधिकान् गुणानुत्पादयितु परिपूर्णगुणस्य वा तादवस्थ्यं रक्षितुस: प्रतियत्नः । कटं करोतीति-अभूतः सन् निर्वर्त्यः कटोऽत्र, यत्र तु वणिकया रक्त कटं करोति, तत्रापि विकार्यमेव कर्म न प्रतियत्नः, उपपूर्वस्यैव करोते: प्रतियत्नविषयत्वात्, "गन्धना०" [ ३. ३. ७६. ] इत्यात्मनेपदं चोपपूर्वस्यैव, अत एव मूलोदाहणेष्वपि-15 उपपूर्व एव दशितः । एधोदकस्येति-एधाश्चोदकानि च "अप्राणिपश्वादे:" [३. १. १३६.] इत्येकत्वम् ।। २. २. १२ ।। रुजार्थस्याज्वरि-संतापेर्भाव कर्तरि ॥ २. २. १३ ॥ रुजा-पीडा, तदर्थस्य धातोर्वरि-संतापिवजितस्य व्याप्यं वा कर्मसंज्ञ भवति, भावे कर्तरि-भावश्चेद्र जार्थस्य कर्ता भवति । चौरस्य रुजति, चौरं20 रुजति रोगः; अपथ्याशिनां रुज्यते रोगेण, अपथ्याशिनो रुज्यन्ते रोगेण; चौरस्य रुग्णम्, चौरो रुग्ण इत्यादि । चौरस्यामयति, चौरमामयति रोगः; चौरस्य व्यथयति, चौरं व्यथयति रोगः; चौरस्य पीडयति, चौरं पीडयति रोगः । रुजार्थस्येति किम् ? "एति जीवन्तमानन्दः” [ विष्ण पुराणे ] । ज्वरि-संतापिवर्जनं किम् ? अानं ज्वरयति, अत्याशिनं संतापयति । कर्तरीति 25 किम् ? चैत्रं रुजत्यत्यशने वातः । भाव इति किम् ? मैत्रं रुजति श्लेष्मा, अत्र श्लेष्मा द्रव्यं, न भावः; रोगो व्याधिरामयः शिरोऽतिरित्यादयो भावरूपाः कत्र इति ।। १३ ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२२ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १४.] न्या० स०--रुजार्थस्य०। “रुजोंत् भङ्ग" इत्यस्माद् भिदाद्यङि-रुजा। भाव- । श्चेदिति-साध्यरूपस्य भावस्य कर्तृत्वानुपपत्तेः सामान्यशब्दोऽपि भावशब्द: सिद्धरूपे भावे वर्तत इति तात्पर्यार्थः । "एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि । कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे ॥" [विष्णुपुराणे ।] 5 चैत्रं रुजत्यत्यशने वात इति-अत्र योऽत्यशनरूपो भावो न स कर्ता, यस्तु वातरूपः कर्ता स द्रव्यं, न भावः । अत्र सूत्रे व्यथितप्योर्गत्यादिसूत्रेणाणिक्कतु : कर्मत्वम् ।। २. २. १३ ॥ जास-नाट-क्राथ-पिषो हिंसायाम् ॥ २. २. १४ ॥ एषां हिंसायां वर्तमानानां व्याप्यं वा कर्म भवति । "ब्रूस पिस जस10 बर्हण हिंसायाम्" "जसण ताडने” इति चुरादी गृह्यते, न “जसूच मोक्षणे" इति देवादिकः, तस्याहिंसार्थत्वात्, चौरस्योज्जासयति, चौरमुज्जासयति; चौरस्योज्जास्यते, चौर उज्जास्यते चैत्रेण; तथा "नटण अवस्यन्दने” इति, अयमपि चुरादिर्न तु "रण्ट नृत्तौ” इति भ्वादिः, चौरस्योन्नाटयति, चौरमुन्नाटयति ; एवं-क्राथिर्घटादिः-चौरस्योत्क्राथयति, चौरमुत्कथयति; चौरस्य15 पिनष्टि, चौरं पिनष्टि । जास-नाट-काथानामाकारोपान्त्यनिर्देशो यत्राकारश्रुतिस्तत्र यथा स्यादित्येवमर्थः, तेनेह न भवति-दस्युमुदजीजसत्, चौरमनीनटत् ; दस्युमुदचिक्रथत् ; अत एव च काथेः कर्मसंज्ञाप्रतिषेधपक्षे ह्रस्वत्वाभावः, कर्मणि तु ह्रस्वत्वमेव । हिंसायामिति किम् ? चौरं बन्धनाज्जासयति-मोचयतीत्यर्थः, नटं नाटयति-नर्तयतीत्यर्थः । अभाव-20 कर्तृ कार्थं वचनम् ।। १४ ।। न्या० स०--जास-नाट०। "नटण अवस्यन्दने" इति-अवस्यन्दनं हिंसाभेदः । न तु "रण्ट नत्तौ" इति-अत्राप्यहिंसार्थत्वादित्येव हेतुः। आकारोपान्त्यनिर्देश इति-ननु जासनाट-काथेत्याकारः किमर्थः ? यतो जस-नट-क्रथेति धातवः पठ्यन्ते, तेषां निर्देशे तथैव निर्देष्टव्यम् ; अथ ण्यन्तनिर्देशस्तहि जासि-नाटि-क्राथीति भवितव्यमित्याह-25 यत्राकारश्रतिस्तत्रेति । एवं-काथिर्घटादिरिति-एवम्-अमुना प्रकारेणापरमपि निर्णीयते, किं तत? क्राथिर्घटादिर्ग ह्यते, न त "ऋथ अदिण हिंसायाम्" इति यौजादिकः, इति वैयाकरणानां मतम् ; धातुपारायणकारैस्तु उपलक्षणत्वाद् यौजादिकोऽपि । ननु यथा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २२३ " “घटादेर्ह स्वः [ ४. २. २४ ] पक्षे निषिध्यते, तथा दस्युमुदजीजसदित्यादौ " उपान्त्य - स्य०" [ ४. २. ३५. ] इत्यस्यापि किं न निषेधः ? सत्यम् - * यस्मिन् प्राप्त एव० इति न्यायात् " घटादेः ०" [ ४ २ २४ ] इत्यस्यैव निधः । ननु हिंसाया रुजारूपत्वात् " रुजार्थस्य ०" [ २. २. १३. ] इत्यनेनैव कर्मविकल्पो भविष्यति, किमनेनेति ? अथ जास-नाट-क्राथेत्याकारश्रवणार्थमिदं सूत्रं विधीयते, तदा पिष्ग्रहणमनर्थकं स्यात्, तस्मात् 5 पूर्वेणैव सिद्धमित्याह - प्रभावकर्तृ कार्थमिति ।। २. २. १४ ।। [ पा० २. सू० १५-१६.] नि-प्रेभ्यो नः ।। २. २. १५ ।। नि-प्राभ्यां परस्य हिंसायां वर्तमानस्य हन्तेर्व्याप्यं वा कर्म भवति, बहुवचनं समस्त-व्यस्त - विपर्यस्तसंग्रहार्थम् । चौरस्य निप्रहन्ति, चौरं निप्रहन्ति चौरस्य चौरं वा निहन्ति; चौरस्य चौरं वा प्रहन्ति चौरस्य 10 चौरं वा प्रणिहन्ति ; चौराणां निप्रहण्यते, चौरा निप्रहण्यन्ते राज्ञा । नि-प्रेभ्य इति किम् ? चौरं हन्ति, चौरमाहन्ति । हिंसायामित्येव - रागादीन् निहन्ति ।। १५ ।। न्या० स० -- निप्रेभ्यो० । निना सहितः प्रो निप्रः प्रेरण सहितो निः प्रनिः, निप्रश्च निश्च प्रश्व प्रनिश्व यदा तु प्र- निभ्यां पूर्वमुपसर्गान्तरं प्रयुज्यते तदा न भवति, 15 बहुवचनेन ज्ञापितत्वात्, अन्यथा “वाभ्यवाभ्याम् " [ ४. १: ६६.] इतिवद् द्विवचनेनापि समस्तादिग्रहणमात्रं भवेत् । संग्रहार्थमिति यद्येतदर्थं तहि न प्रदेयं यत्रापि व्यस्तविपर्यस्तो नि-प्रौ भविष्यतः, तत्रापि नेः प्राग् वा परो हन्नस्तीति, उच्यते तर्हि - अन्योपसर्गपूर्वस्य हन्तेर्वा कर्मसंज्ञानिवृत्त्यर्थम् तेन चौरं विप्रहन्ति विनिहन्ति वेत्यादौ पूर्वेण नित्यं कर्मसंज्ञा । प्रहन्तीति - अत्र " नां०" [१. ३. ३६. ] इति बहुवचनात् "हनः” [२. ३. ८२]20 इत्यनेन रणत्वाभावः । रागादीन् निहन्तीत्यत्र रागादीनामचेतनतया प्रारणव्यपरोपणलक्षणाया हिंसाया प्रभावान्न भवतीत्यर्थः ।। २. २. १५ ।। विनिमेय द्यूतपणं पण-व्यवहः ॥ २. २. १६॥ विनिमेयः–क्रेय-विक्रेयोऽर्थः, द्यूतपणो - द्यूतजेयम्; पणतेर्व्यवपूर्वस्य च हरतेoर्व्याप्य विनिमेयद्यूतपणौ वा कर्मसंज्ञौ भवतः । शतस्य परणायति, शतं 25 ' पणायति ; सहस्रस्य सहस्रं वा पणायति, क्रय-विक्रये द्यूतपरणत्वे वा तद् विनियुङ्क्त इत्यर्थः ; एवं दशानां व्यवहरति, दश व्यवहरति पञ्चानां पञ्च वा व्यवहरति । विनिमेय द्यूतपरणमिति किम् ? साधून् पणायति - स्तौती 1 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू०. १७-१८.] त्यर्थः, शलाकां व्यवहरति-विगणयन् गोपायतीत्यर्थः । वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः ।। १६ ।। न्या० स०--विनिमेय०। शतं पणायतीति- प्रकृति-ग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तानां ग्रहणम् इति सूत्रे पणेत्युक्तेऽपि पणायतेरिह ग्रहः आत्मनेपदं तु प्रति अयं न्यायोऽनित्यः, इदं च कुतोलभ्यते ? “कमेणिङ” [३. ४. २.] इत्यत्र णिङिति ङकारो-3 पादानात् । गोपायतीत्यर्थ इति-अनेकार्थत्वाद् धातूनाम् ।। २. २. १६ ।। उपसर्गाद् दिवः॥२. २. १७ ॥ उपसर्गात् परस्य दिवो व्याप्यो विनिमेय-द्यूतपणौ वा कर्मसंज्ञौ भवतः । शतस्य प्रदीव्यति, शतं प्रदीव्यति; शतस्य प्रदीव्यते, शतं प्रदीव्यते; शतस्य प्रद्यूतम्, शतं प्रद्यूतम् ; शतस्य प्रदेवितव्यम्, शतं प्रदेवितव्यम् ; शतस्य10 सुप्रदेवम्, शतं सुप्रदेवम् । विनिमेय-द्यूतपणमित्येव-शलाका प्रतिदीव्यतिविगणयन्नपहरतीत्यर्थः । उपसर्गादिति किम् ? शतस्य दीव्यति ।। १७ ।। न ॥२. २. १८ ॥ विनिमेय-धू तपणौ दिवो व्याप्यौ कर्मसंज्ञौ न भवतः, उपसर्गपूर्वस्य विकल्पविधानादनुपसर्गस्यायं निषेधः । शतस्य दीव्यति, सहस्रस्य दीव्यति,15 निषिद्धे च कर्मणि षष्ठय व भवति; 'शतस्य दीव्यते, शतस्य द्यूतम्, शतस्य देवितव्यम्, शतस्य सुदेवम्', इत्यादौ भावे-आत्मनेपद-क्त-कृत्य-खलः सिद्धाः; 'शतस्य द्यूतो मैत्रः' इत्यत्र च कर्तरि क्तः । विनिमेय-द्यूतपणमित्येव-जिनं दीव्यति-स्तौतीत्यर्थः, भूमि दीव्यति-संधिना विजिगीषत इत्यर्थः, सन्धिपणोऽत्र न द्यूतपणः; द्यूतं दीव्यति, अक्षान् दीव्यति, अत्र क्रिया तत्साधनं च व्याप्यं 20 न तु पणः ॥ १८ ॥ न्या० स०-न। सन्धिना विजिगीषत इति-समर्थेन सन्धि कृत्वाऽन्येषां भूमि विजिगीषत इत्यर्थः, तथा च नीति: "समर्थन समं राज्ञा, सन्धि कृत्वा विचक्षणः । स्वल्पोऽपि धनसंयुक्तान्, राजन्यानवमानयेत् ॥१॥" 25 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० १६. ] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २२५ अत्रक्रियेत्यादि - क्रिया द्यूतरूपा, तत्साधनं चाक्षा इत्यर्थः । शतस्य सुवेवमिति - अत्र 'सु' इति निपातान्तरं नोपसर्ग:, अत एव सुस्थितं दुःस्थितमित्यादौ "स्था सेनि० " [२. ३. ४०. ] इत्यनेन षत्वं न भवति ।। २. २. १८ ।। करणं च ॥ २. २. १६ ।। दीव्यतेः करणं कर्मसंज्ञं चकारात् करणसंज्ञं च भवति, कर्म-करणसंज्ञे 5 युगपद् भजतीत्यर्थः । अक्षान् दीव्यति, अक्षारणां देवनम् अक्षा दीव्यन्ते, अक्षा देवितव्याः, अक्षाः सुदेवा:, अक्षदेवः, प्रक्षा द्यूताश्व त्रेण; एषु कर्मत्वे द्वितीयाषष्ठ्यात्मनेपद-तव्य-खलरण - क्तप्रत्ययास्तन्निमित्ताः सिद्धाः । अक्षैर्दीव्यति, अक्षैर्देवनम्, अक्षैर्दीव्यते, अक्षैर्देवितव्यम्, अक्षैः सुदेवं मैत्रेण, अक्षैद्यूतं चैत्रेण, अक्षा देवना:; एषु करणत्वे तृतीयाऽनटौ, भावे - प्रात्मनेपदादयश्च सिद्धा: 110 ग्रात्मनेपदादिभिश्वोक्तयोः कर्म-करणयोः द्वितीया - षष्ठी - तृतीया यथायोगं न भवन्ति । करणं वेत्येव सिद्धे चकारः संज्ञाद्वयसमावेशार्थ:, तेनाक्षैर्देवयते मैत्रव त्रेणेत्यत्र करणत्वात् तृतीया भवति, कर्मत्वाच्च गत्यादिसूत्रेण नित्याकर्मकलक्षणमणिक्कर्तुः कर्मत्वम्, देवयतेश्व "प्रणिगि प्रारिण० " [ ३.३.१०७.] इत्यादिनाऽकर्मकलक्षरणं परस्मैपदं न भवति । प्रथाक्षान् दीव्यतीत्यत्र सत्यपि 15 संज्ञाद्वयसमावेशे परत्वात् करणत्वनिमित्तया तृतीययैव भवितव्यम्, नैवम्स्पर्धे हि परः, समानविषययोश्च स्पर्धः, न च द्वितीया तृतीययोः प्रतिनियतकर्मकरणशक्त्यभिधायिन्योः समानविषयत्वमस्तीति द्वितीयाऽपि भवत्येव, * प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते इति वा दर्शनेऽनवकाशत्वात् संज्ञाद्वयस्य विभक्त्योः पर्यायेण प्रवृत्तिरविरुद्धा । दिव इत्येव - दात्रेण लुनाति । करणमिति किम् ? 20 गृहे दीव्यति ॥ १९ ॥ न्या० स०-- कर० । चकारस्यान्यत् समुच्चेतव्यं नास्तीति करणमेव प्रतीयते, करणस्य कर्मसंज्ञायामप्राप्तायां विधीयमानायां निर्वत्र्त्यादयो धर्मा न चिन्त्या असम्भवात् । युगपद् भजतीति- फलं भवतु मावा, संज्ञाद्वयं तु सर्वप्रयोगेषु वेदितव्यम्; न च संज्ञाद्वयं युगपन्निरवकाशमिति वाच्यम्, अक्षैर्देवयत इत्यत्र चरितार्थत्वात्, अत्राक्षान् देवयत इत्यपि 25 प्रयोगो भवति । करणं वेत्येवेति न च विकल्पेऽपि युगपत् संज्ञाद्वयं भविष्यतीति वाच्यं विकल्पस्य पाक्षिकप्रवृत्ति-निवृत्तिफलत्वात् । प्रतिकार्यमिति - एकस्यापि कर्मणः करणस्य वा कार्यं कार्यं प्रति संज्ञाऽभिधायकानि सूत्राणि भिद्यन्त इत्यर्थः । इति वा दर्शन इति - Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० २०-२२.] शाकटादीनां पाणिनेश्च, तेषां परमुभयप्राप्ताविति सूत्राभावः, विष्णुवातिक एव सूत्र- ' सद्भावः ।। २. २. १६ ॥ अधेः शीङ्ग-स्था-99स आधारः ॥ २. २. २० ॥ अधेः सम्बद्धानां 'शीङ् स्था प्रास्' इत्येतेषां य आधारस्तत् कारक कर्मसंज्ञं भवति । ग्राममधिशेते, ग्रामस्याधिशयनम्, ग्रामोऽधिशय्यते, 5 ग्रामोऽधिशयितः; ग्राममधितिष्ठति; ग्राममध्यास्ते । अधेरिति किम् ? शयने शेते, गृहे तिष्ठति, कटे प्रास्ते । अाधार इति किम् ? ग्रामोऽधिशयितो मैत्रेण, पौरुषेणाधितिष्ठति; कर्तृ-करणे न भवतः । अकर्मका अपि हि धातवः सोपसर्गाः सकर्मका भवन्तीति सिद्धं सकर्मकत्वम्, आधारबाधनार्थं तु वचनम् ।। २० ।। 10 उपान्वध्यावसः ॥ २. २. २१ ॥ उप-अनु-अधि-प्राभिविशिष्टस्य वसतेर्य आधारः स कर्मसंज्ञो भवति । ग्राममुपवसति, ग्राममुपोषितः, ग्रामस्योपवसनम्, ग्राम उपोष्यते, पर्वतमनुवसति; पुरमधिवसति; आवसथमावसति । अन्वादिसाहचर्यादुपस्य स्थानार्थकस्यैव ग्रहणं नाशननिवृत्त्यर्थस्य; तेन ग्रामे उपवसति-भोजननिवृत्ति15 करोतीत्यत्र न भवति । अदाद्यनदाद्योरनदादेरेव ग्रहणम् इति वस्तेन भवति ।। २१ ॥ न्या० स०--उपान्वध्या०। उपादिभिर्द्वन्द्वकृत्वा ततस्ते पूर्वे यस्मात् स चासौ वसश्च ति बहुव्रीहिगर्भो विशेषणसमासो मयूरव्यंसकादित्वात् पूर्वस्य लोपश्च, एभ्यः परो वसिति वा समासः । शब्दशक्तिप्रामाण्यादन्वादिपूर्वो वसतिः स्थानार्थमाचष्टे, तत्साह-20 चर्यादुपपूर्वस्यापि स्थानार्थस्य परिग्रहो न तु भोजननिवृत्तिवचनस्येत्यत आह-अन्वादिसाहचर्यादिति । स्थानार्थद्योतकत्वादुपशब्दोऽपि स्थानार्थ इत्युक्त-स्थानार्थस्येति ।। २.२.२१ ॥ वाभि-निविशः ॥ २. २. २२ ॥ अभि-निनोपसर्गसमुदायेन विशिष्टस्य विशेराधारः कर्मसंज्ञो वा भवति ।25 ग्राममभिनिविशते, पर्वतमभिनिविशते, ग्रामोऽभिनिविश्यते ; ग्रामोऽभिनिविष्टः । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० २३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २२७ व्यवस्थितविभाषेयं, तेन क्वचित् कर्मसंज्ञैव क्वचिदाधारसंज्ञैव भवतिकल्याणेऽभिनिविशते, या या संज्ञा यस्मिन् यस्मिन् संज्ञिन्यभिनिविशते, एतेषां शब्दानामेतेष्वर्थेष्वभिनिविष्टानाम्, अर्थेऽभिनिविष्टः ।। २२ ।। न्या० स०--वाऽभिनि० । अभिः पूर्वो यस्मान्न: सोऽभिपूर्वश्चासौ निश्च-अभिनिः, ततः परो विट, तस्य, "मयूरव्यंसक०" [३. १. ११६.] इति पूर्व-परयोर्लोपः; अभेनिस्तेन 5 युक्तो विट्, इति वा; न तु द्वन्द्वः, अभिश्च निश्चेत्येवंरूपे द्वन्द्वे ह्यभि-निशब्दयोः प्रत्येकमभिसम्बन्धः स्यात्, यथा-"उपान्वध्याङ वसः” [ २. २. २१. ] इत्यत्र । व्यवस्थितविभाषेयमिति-नात्र वाशब्दो विकल्पार्थो येन समकक्षतया द्वितीयासप्तम्यौ, कि तहि ? प्रयोगव्यवस्थयेति ।। २. २. २२ ।। 10 काला-8व भाव-देशं वाsकर्म चाकर्मणाम् ॥२. २. २३ ॥ कालो-मुहूर्तादिः, अध्वा-गन्तव्यं क्षेत्रं क्रोशादि, भावः-क्रिया गोदोहादिः, देशो-जनपद-ग्रामनदी-पर्वतादिः; अकर्मकाणां धातूनां प्रयोगे कालादिराधारः कर्मसंज्ञो वा भवति, अकर्म च-यत्रापि पक्षे कर्मसंज्ञा तत्राकर्मसंज्ञाऽपि वा भवतीत्यर्थः । काल:--मासमास्ते, मास प्रास्यते; संवत्सरं15 स्वपिति, संवत्सरः सुप्यते; दिवसं शेते, दिवसः शय्यते; अध्वा-क्रोशं स्वपिति, क्रोशः सुप्यते; योजनमास्ते, योजनमास्यते; भावः-गोदोहमास्ते, गोदोह प्रास्यते; पोदनपाकं शेते, प्रोदनपाकः शय्यते ; देश:-कुरून् प्रास्ते, कुरव प्रास्यन्ते ; ग्रामं वसति, ग्राम उष्यते । अविवक्षितकर्माण: सकर्मका अप्यकर्मका:-मासं पचति, मासः पच्यते; क्रोशमधीते, क्रोशोऽधीयते ; 20 प्रोदनपाकं पठति, प्रोदनपाकः पठ्यते; कुरून् पठति, कुरवः पठ्यन्ते; पक्षेरात्रौ सुप्यते, रात्रौ नृत्तं च द्रक्ष्यसि, क्रोशे सुप्यते, गोदोहे आस्ते, प्रोदनपाके स्वपिति, पञ्चालेषु वसति, ग्रामे वसति, ग्रामे वासः, ग्रामे वासी, तथारात्रावधीतम्, दिवसे भुक्तम् । काला-ऽध्व-भाव-देशमिति किम् ? प्रासादे आस्ते, शय्यायां शेते। अकर्म चेति किम् ? मासमास्यते, क्रोशं सुप्यते,25 गोदोहमासितः, इदं गोदोहमासितम्, गोदोहमास्यते, कुरून् सुप्यते; एषु "तत् साप्यानाप्या०” [३. ३. २१. ] इति, “गत्यर्था-ऽकर्मक-पिब-भुजेः" Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० २३.] [५. १. ११.] “अद्यर्थाच्चाऽऽधारे" [५. १. १२.] इति भावे कर्तर्याधारे । च यथायथमात्मनेपद-क्तौ सिद्धौ । अकर्मणामिति किम् ? रात्रावुद्दे शोऽधीतः, अहन्यध्ययनमधीतम् । कथं पचत्योदनं मासम्, भक्षयति धानाः क्रोशम्, पिबति पयो गोदोहम्, भजति सुखं कुरून् ? द्विकर्मकत्वात् “कर्तुर्व्याप्यं कर्म" [२. २. ३.] इत्येव भविष्यति । अन्ये तु सकर्मकारणामकर्मकाणां च प्रयोगे 5 काला-ऽध्व-भावानामत्यन्तसंयोगे सति नित्यं कर्मत्वमिच्छन्ति-मासमास्ते, दिवसं पचत्योदनम्, क्रोशं स्वपिति, क्रोशं पठति वेदम्, गोदोहमास्ते, गोदोहं पचत्योदनम् । अनेन कर्मसंज्ञायां कर्मणि त्याद्यादयोऽपि-प्रास्यते मासः, सुप्यते क्रोशः, आसितो मासः, शयितः क्रोश इत्यादि । “काला-ऽध्वनोाप्तौ” [२. २. ४२.] इति च गुणद्रव्ययोगे एवेच्छन्ति न तु क्रियायोगे; अत्यन्तसंयो-10 गादन्यत्र तु-रात्रौ शेते, अध्वनि स्थित इत्यादावाधारत्वमेव ।। २३ ।। न्या० स०-काला-ऽध्व०। मास प्रास्यत इत्यत्र व्याप्ति विवक्षायामपि गौणाधिकारात् “काला-ऽध्वनो०" [२. २. ४२.] इत्यनेनापि द्वितीया न भवति । अध्वागन्तव्यमिति गमनाह, तेनाध्वशब्दाभिधेयस्याध्वनः कर्मसंज्ञा न भवति, नसावध्वविशेषक्रोश-योजनादिवद् गमनमर्हति, यद्वाऽर्थप्रधानोऽयं निर्देशः, तेन कालाऽध्व-भाव-15 देशानां साक्षात्प्रयोगे न भवति, अपि तु तदर्थप्रतिपादकशब्दप्रयोगे । भावः-नियेति-क्रिया घत्रादिवाच्या सिद्धताख्या न तु साध्यमानेत्यर्थः । पर्वतादिरिति-आदिशब्दात् खेटकर्बट-मडम्बादिर्गृह्यते। गोदोहमास्ते अत्र सामीप्यक आधारः, यदा तु गोदोहविशिष्ट: कालो विवक्ष्यते तदा नैमित्तिकोऽपि । एवम्-ओदनपाक इत्यत्रापि । मासं पचतोतिअकर्मणामित्यत्र नित्याकर्मणाम विवक्षितकर्मणां च सामान्येन ग्रहणम्, इत्यविवक्षित-20 कर्मकानुदाहरति । "उलूखलराभरणः, पिशाचीवदभाषत। एतत् तु ते दिवानृत्तं, रात्रौ नृत्तं च द्रक्ष्यसि" ॥ १।। इदं गोदोहमासितमिति-अत्र बाहुलकात् षष्ठीप्राधि प्रति न कर्मता, तेन "कर्मणि कृतः" [ २. २. ८३. ] इत्यनेन न षष्ठी, इदं सक्तूनां पीतमितिवदत्राधारे क्तः प्रत्ययः ।25 कथमिति-पचादोनां सकर्मकत्वान्न प्राप्नोतीत्याशङ्कार्थः। पचत्योदनं मासमित्यादि-एषां धातूनां स्वभावेन द्विकर्मकत्वम्, अथवा सर्वेऽप्यमी धातवः प्राप्त्युपसर्जने स्वार्थे वर्तन्ते, ततो मासादि प्राप्येत्यादिरों भवति द्विकर्मकता च । अन्येत्विति-विश्रान्तविद्याधरादयः। ननूत्तरेण “काला-ध्वनोाप्तौ" [२. २. ४२.] इत्यनेन सामान्येन सकर्मणामकर्मणां च प्रयोगे द्वितीया भविष्यति किमनेन कर्मसंज्ञाविधानसूत्रेणेत्याह-अनेन कर्म-30 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० २४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २२६ " संज्ञायामित्यादि - कालाऽध्वापेक्षयेदमुक्त भावापेक्षया तु द्वितीयार्थमपि । यद्यत्यन्तसंयोगे "काला -ऽध्व-भाव ० [ २. २.२३. ] इति प्रवर्तते तर्हि "काला -ऽध्वनोर्व्याप्तौ " [ २.२.४२. ] इति क्व प्रवर्त्स्यतीत्याह - कालेति । "काला -ऽध्वनोः ०" [ २. २. ४२. ] इति गुणद्रव्ययोगे, क्रियायोगे तु " काला - ऽध्व भाव० " [ २. २. २३ ] इति प्रवर्त्तत इत्यनयोस्तन्मते विभाग: ।। २. २. २३ ।। 5 साधकतमं करणम् ।। २. २. २४ । क्रियासिद्धौ यत् प्रकृष्टोपकारकत्वेनाव्यवधानेन विवक्षितं तत् साधकतमं कारकं करणसंज्ञं भवति । काष्ठैः स्थाल्यां पचति दात्रेण लुनाति, दानेन भोगानाप्नोति ; अस्य पाकादिक्रियासु ज्वलनादयोऽवान्तरव्यापारा:, विवक्षया च प्रकृष्टोपकारकत्वात् साधकतमत्वम् । तमग्रहरणमपादानादिसंज्ञाविधौ 10 तरतमयोगो नास्तीति ज्ञापनार्थम्, तेन - कुसूलात् पचति, गङ्गायां घोषः प्रतिवसतीति व्यवहितोपचरितयोरपि प्रपादानत्वमधिकरणत्वं च भवति । अस्य च कारकान्तराऽपेक्षया प्रकर्षो न स्वकक्षायाम्, तेनैकस्यां क्रियायामनेकमपि करणं भवति - नावा नदीस्रोतसा व्रजति, रथेन पथा दीपिकया याति, सूपेन सर्पिषा लवणेन पाणिनौनं भुङ्क्त े । करणप्रदेशाः - " करणं च " 15 [२. २. १६. ] इत्यादयः ।। २४ ।। न्या० स० -- साधकतमं० । सिध्यतेरिंणगि “सिध्यतेरज्ञाने ” [ ४. २. ११. ] इत्यात्वे के तमपि च सिद्धम् । प्रकृष्टोपकारकत्वेनेति - प्रकर्षरणं प्रकृष्टं, तेनोपकारकम्, यद्वा प्रकृष्यते स्म प्रकृष्टः, ततः प्रकृष्टं च तदुपकारकं चेति कर्मधारयः । प्रकृष्टोपकारकत्वस्य को हेतुः ? अव्यवधानम्, यद्वा प्रकृष्टोपकारकत्वमपि किस्वरूपम् श्रव्यवधान - 20 मिति; अन्येषु मिलितेष्वपि लवनादिक्रिया दात्रादि विना न शक्यत इति कर्त्रा श्रव्यवहितं दात्रादि करणमपेक्ष्यत इति तस्य प्रकृष्टत्वम्, यत् प्रकृष्टोपकारकत्वेन स्थाल्यादिकमपि कर्त्राऽव्यवहितमपेक्ष्यते तदपि कररणमेव ननु प्रकृष्टोपकारकत्वं कर्तुरप्यस्ति तस्यापि करणत्वं प्राप्नोति नैवम् - तस्य स्वातन्त्र्यं लक्षणमस्ति । साधकतममिति - ननु सामग्रीतः क्रियासिद्धिस्तत्र कथं किञ्चित् साधकतमं किञ्चित् तद्विपरीतम् ? अन्वयव्यतिरेकाभ्यां 25 हि तत्र सर्वेषां सामान्यं साधारण्यमेवावगम्यते, तस्मात् क्रियासिद्धौ साधकतमस्य संभवो नास्तीति संभवं कल्पनया दर्शर्यात- विवक्षयेति - परमार्थवृत्त्या साधकतमत्वस्य सम्भवो 1 नास्ति, यद्वयापारानन्तर्येण तु क्रियासिद्धिविवक्ष्यते तस्य कल्पनया साधकतमस्येयं संज्ञा । अस्येति - ज्वलनरूप उत्पातनिपातरूपः पुण्यरूपश्च यथाक्रमं प्रयोगत्रयेऽप्यवान्तरव्यापारः । *गोरण-मुख्ययो० इति न्यायात् साधकतमस्यैव भविष्यति किं तमग्रहणेनेत्याह - तम - 30 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] बृह वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० २५.] ग्रहणमिति । अपादानादीति-अन्यैरपादादानं प्रथममुक्तमिति तन्मतापेक्षयेत्युक्तम्, यद्वा । स्वमतापेक्षयाऽपि “कादिर्व्यञ्जनम्" [ १. १. १०.] इतिवत् । तरतमयोग इति-साहचर्यात् तरतमगतः प्रकर्षो लक्ष्यते । स्वकक्षायामिति-स्वकक्षा स्ववर्ग इति यावत्। ननु यदि स्ववर्गेऽपि प्रकर्षोऽपेक्ष्यते तदाऽन्येषां करणानां किं स्यात् ? उच्यते-तदा करणान्तराणां सम्बन्धे षष्ठी स्यात् ।। २. २. २४ ॥ कर्माऽभिप्रेयः संप्रदानम् ॥ २. २. २५ ॥ कर्मणा-व्याप्येन क्रियया वा करणभूतेन, यमभिप्रेयते-श्रद्धानुग्रहादिकाम्यया यमभिसंबध्नाति, स कर्माभिप्रेयः कारकं संप्रदानसंज्ञं भवति । देवाय बलिं ददाति, द्विजाय गामुत्सृजति, याचकायार्थं प्रयच्छति, शिष्याय धर्ममुपदिशति, राज्ञे कार्यमावेदयति; अस्यावान्तरव्यापाराः-अनिराकरणम्,10 प्रेरणम्, अनुमतिश्च ; तान् कुर्वंस्त्यागादौ कारकत्वं लभते । क्रियाऽभिप्रेयः खल्वपि-पत्ये शेते, श्राद्धाय निगल्हते, युद्धाय सन्नह्यते, देवेभ्यो नमति, प्रणम्य शितिकण्ठाय, निवेद्यतां महाराजाय सुग्रीवाय । अभिग्रहणादिह न भवतिघ्नतः पृष्ठं ददाति, रजकस्य वस्त्रं ददाति, राज्ञो दण्डं ददाति; इह च भवति-वाताय चक्षुर्ददाति, छात्राय चपेटां प्रयच्छति । सम्प्रदानप्रदेशाः-15 "दामः संप्रदानेऽधर्म्य पात्मने च" [२. २. ५२.] इत्यादयः ।। २५ ।। न्या० स०--कर्मा० । ईङ च् “य एच्चातः" [५. १. २८.] ये गुणे "उपसर्गस्या०" [१. २. १६.] इत्यलोपे-अभिप्रेयः, कर्मणाऽभिप्रेयः “कारकं कृता" [३. १. ६८.] सः, वृत्तौ तु यमभिप्रेयत इत्यर्थकथनमेव, संप्रदीयते तस्मै बाहुलकादनट, श्रद्धा-ऽनुग्रहादिकाम्ययेति-तथेतिप्रत्ययः श्रद्धा, अनुग्रह उपकारः, अादिशब्दात् कीर्त्यपायाभावादिग्रहः ।20 श्राद्धाय निगल्हते स्वयं श्राद्धं कर्तुं यजमानेनाकारितं द्विजान्तरं निन्दतीत्यर्थः । "प्रणम्य शितिकण्ठाय, विबुधास्तदनन्तरम् । चरणौ रञ्जयन्त्वस्याश्चूडामणिमरीचिभिः ॥ १॥" अग्रेतनं रामायणगद्यम् । अभिग्रहणादिति-अभिरभिमतार्थः, प्र प्रारम्भार्थः, केवलस्य हि ईयतेर्गमनं वाच्यं, नाभिसम्बन्धः, ततोऽभिग्रहणं विशिष्टसम्बन्धप्रतिपत्त्यर्थं25 विशिष्टश्च सम्बन्धः कर्तु: श्रद्धा-ऽनुग्रहा-ऽपायापगमकामनाजनितः, स चात्र नास्तीति; प्रय इति सूत्र क्रियमाणे कर्मणा क्रियया यः सम्बध्यमानो भवति स सम्प्रदानसंज्ञ इत्युक्त घ्नतः पृष्ठं ददातीत्यत्रापि स्यात् । निवेद्यतामिति-"विदिण चेतनाख्याने"। रजकस्य वस्त्रं ददातीति-परिपूर्ण मूल्यमलभमानस्य रजकस्य पराङ मुखत्वम् । छात्राय चपेटां प्रयच्छतीति-चपेटया आहतः सन् छात्रोऽभिमुखो विनयपरो भवति । 30 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [ पा० २. सू० २६-२७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः "अनुमन्त्रनिराकर्तृ प्रेरकं त्यागकारणम् । व्याप्येनाप्तं ददातेस्तु सम्प्रदानं प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥ ।। २. २. २५ ।। संप्रदानं तदेव स्यात्, पूजानुग्रहकाम्यया । दीयमानेन संयोगात्, स्वामित्वं लभते यदि ॥ २ ॥ " [ २३१ 5 स्पृहेर्व्याप्यं वा ॥ २. २. २६ ।। स्पृहयतेर्धातोर्व्याप्यं वा सम्प्रदानसंज्ञं भवति । पुष्पेभ्यः पुष्पाणि वा स्पृहयति । व्याप्यमिति किम् ? पुष्पेभ्यः स्पृहयति वने, आधारस्य मा भूत् । संप्रदानसंज्ञापक्षे धातोरकर्मकत्वम् तेन पुष्पेभ्यः स्पृह्यते मैत्रेण, पुष्पेभ्यः स्पृहयितव्यम्, पुष्पेभ्यः सुस्पृहम्, पुष्पेभ्यः स्पृहितो मैत्रः ; एषु भावे - श्रात्मने - 10 पद-तव्य - खलः कर्तरि च क्तः सिद्धः ।। २६ ॥ , क्रुद्-दुहेय-सूयार्थैर्य प्रति कोपः ॥ २. २. २७ ।। अमर्षः - क्रोधः, अपचिकीर्षा - द्रोहः, ईर्ष्या - परसम्पत्तौ चेतसो व्यारोषः, गुणेषु दोषाविष्करणमसूया; एतदर्थैर्धातुभिर्योगे यं प्रति कोपस्तत् कारकं संप्रदानसंज्ञं भवति । मैत्राय क्रुध्यति, मैत्राय कुप्यति, मैत्राय रुष्यति ; मैत्राय 15 द्र ुह्यति, मैत्रायापचिकीर्षति, मैत्रायापकरोति; मैत्रायेर्ष्यति, मैत्रायेर्क्ष्यति, मैत्राय सूर्क्ष्यति ; चैत्रायासूयति । यं प्रति इति किम् ? मनसा क्रुध्यति, मनसा ह्यति, मनसेर्ष्यति, मनसाऽसूयति; करणस्य मा भूत् । प्रतिग्रहरणं किम् ? यस्मिन्नित्युच्यमाने कर्तुरपि स्यात् - मैत्रेण क्रुध्यते । कोप इति किम् ? शिष्यस्य कुप्यति विनयार्थम्, धनिनो द्रुह्यति धनार्थी भार्यामीर्ष्यति - 20 मैनामन्योऽद्राक्षीदिति, चैत्रमसूयति लिप्सया । संप्रदानसंज्ञया कर्मसंज्ञाया बाधितत्वाद् भावे श्रात्मनेपदादयः कर्तरि च क्तः सिद्धः - मैत्रायेर्ष्यते, मैत्रायासूय्यते, मैत्रायेष्यितव्यम्, मैत्रायासूयितव्यम्, मैत्राय दुरर्ण्यम्, मैत्राय दुरसूयम्, मैत्रायेष्यितचं'त्रः, मैत्रायासूयितः । कथं चौरस्य द्विषन् ? योऽस्मिन् द्व ेष्टि, यं च वयं द्विष्मः ? इति द्विषेरप्रीत्यर्थत्वान्न भविष्यति ।। २७ ।। 25 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० २८-२९.] न्या० स०--कद-द्रहा। शब्दशक्तिस्वाभाव्यात ऋघिद्रही अकर्मकावेव, सम्बन्धषष्ठयां प्राप्तायां संप्रदानम् । मनसा क्रुध्यतीति-नात्र मनस उपरि कोपः किन्तु तेन कृत्वाऽन्यस्य पुरुषादेः । कर्तुरपीति-न केवलं विषयसप्तम्यां यं प्रति कोपस्तस्य संप्रदानत्वम्, आधारमात्रत्वेन कर्तु रपि स्यादित्यर्थः। शिष्यस्य कुप्यतीति-शिष्यसम्बन्धिनोऽविनयस्योपरि कोपो न तु शिष्यस्य । धनिनो द्रुह्यतीति-अत्र धनस्योपरि द्रोहो 5 न तु प्राणानाम् । भार्या मोर्च्यतीति-अन्येनावलोक्यमानां न सहते, वृत्तौ मैनामितितात्पर्यार्थोऽकथि। द्विषेरप्रीत्यर्थत्वादिति-अप्रीतिमात्रमेव विवक्षितं न तु क्रुधादय इत्यर्थः । अत्रेदं विचार्यते-कोपाद् द्रोहादयो भिन्नस्वभावा व्याख्याताः, तत् कथं तदर्थानां यं प्रति कोप इति सामान्येनैतद् विशेषणमुपपद्यते, तेषां हि यं प्रति द्रोहो यं प्रतीा यं प्रत्यसूयेत्येव घटते, नैष दोष:-क्रोधस्तावत् कोप एव, द्रोहादयस्तु द्विप्रकारा:-केचित्10 कोपहेतुकाः केचिद् वस्त्वन्तरहेतुकाः, तोह पूर्वेषां ग्रहणं यथा स्यादुत्तरेषां मा भूदित्येवमर्थं 'यं प्रति कोपः' इति सामान्येन विशेषणमुपात्तम्, अन्यथाऽव्यभिचारादिदमनुपादेयं स्यात् ।। २. २. २७ ॥ नोपसर्गात् क्रुद्-दुहा ॥ २. २. २८ ॥ उपसर्गात् पराभ्यां क्रुधि- हिभ्यां योगे यं प्रति कोपस्तत् कारकं15 संप्रदानसंज्ञं न भवति। मैत्रमभिक्रुध्यति, मैत्रमभिद्र ह्यति; क्रुधि-द्रु ही सोपसगौं सकर्मकाविति द्वितीया। उपसर्गादिति किम् ? मैत्राय क्रुध्यति, मैत्राय द्र ह्यति ।। २८ ।। ___ न्या० स०-नोपसर्गात् कुद्-गृहा। मैत्रमभिक्रुध्यतीत्यत्र अभिव्याप्य कोपवान् । अपचिकीर्षावान्, अभिव्याप्त्युपसर्जने वृत्तिः कोपादौ ।। २. २. २८ ॥ 20 अपायेऽवधिरपादानम् ॥ २. २. २६ ॥ सावधिकं गमनमपायः, तत्र यदवधिभूतमपायेनानधिष्ठितं तत् कारकमपादानसंज्ञं भवति । ग्रामादागच्छति, पर्वतादवरोहति, सार्थाद्धीनः, वृक्षात् पर्ण पतति, धावतोऽश्वात् पतितः, पततो देवदत्ताद् धावत्यश्वः, मेषान्मेषोऽपसर्पति । तदेतत् त्रिविधम्-निर्दिष्टविषयम्, उपात्तविषयम्, अपेक्षितक्रियं च; यत्र25 धातुनाऽपायलक्षणो विषयो निर्दिष्टस्तनिर्दिष्टविषयम्, यथा-ग्रामादागच्छति; यत्र तु धातुर्धात्वन्तरार्थाङ्ग स्वार्थमाह तदुपात्तविषयम्, यथा-बलाहकाद् विद्योतते विद्युत्, अत्र हि निःसरणाङ्ग विद्योतने विद्युतिवर्तते; यथा वा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० २६. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २३३ कुशूलात् पचति, अत्राप्यादाना पाके पचिर्वर्तत इति ; यत्र तु क्रियावाचि पदं न श्रूयते केवलं क्रिया प्रतीयते तदपेक्षितक्रियम्, यथा- सांकाश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रका अभिरूपतराः । श्रपायच कायसंसर्गपूर्वको बुद्धिसंसर्गपूर्वको वा विभाग उच्यते, तेन "बुद्धया समीहितैकत्वान्, पञ्चालान् कुरुभिर्यदा । बुद्धया विभजते वक्ता, तदाऽपायः प्रतीयते ॥ इति, 5 अत्रापादानत्वं भवति; एवम् - अधर्माज्जुगुप्सते, अधर्माद् विरमति, धर्मात् प्रमाद्यति, अत्र यः प्रेक्षापूर्वकारी भवति स दुःखहेतुमधर्मं, बुद्धया प्राप्य नानेन कृत्यमस्तीति ततो निवर्तते, नास्तिकस्तु बुद्धया धर्मं प्राप्य नैनं करिष्यामीति ततो निवर्तत इति निवृत्त्यङ्गषु जुगुप्सा-विराम-प्रमादेष्वेते 10 धातवो वर्तन्त इति बुद्धिसंसर्गपूर्वकोऽपायः । तथा चौरेभ्यो बिभेति, चौरेभ्य उद्विजते, चौरेभ्यस्त्रायते, चौरेभ्यो रक्षति, अत्र बुद्धिमान् वधबन्धपरिक्लेशकारिणश्चौरान् बुद्धया प्राप्य तेभ्यो निवर्तते, चौरेभ्यस्त्रायत इत्यत्रापि कश्चित् सुहृद् यदीमं चौराः पश्येयुर्नूनमस्य धनमपहरेयुरिति बुद्धया तं चौरैः, संयोज्य तेभ्यो निवर्तयतीत्यपाय एव । अध्ययनात् पराजयते, भोजनात् 15 पराजयते, अत्राध्ययनं भोजनं वाऽसहमानस्ततो निवर्तत इत्यपाय एव । यवेभ्यो गां रक्षति, यवेभ्यो गां निषेधयति, कूपादन्धं वारयति, इहापि गवादेर्यवादिसम्पर्कं बुद्धया समीक्ष्यान्यतरस्य विनाशं पश्यन् गवादीन् यवादिभ्यो निवर्तयतीत्यपाय एव । उपाध्यायादन्तर्धत्ते, उपाध्यायान्निलीयते, मा मामुपाध्यायोऽद्राक्षीदिति तिरोभवतीत्यत्राप्यपायः । शृङ्गाच्छरो जायते, 20 गोमयाद् वृश्चिको जायते, गोलोमा ऽविलोमभ्यो दूर्वा जायते, बीजादङ्कुरो जायते, अत्र शृङ्गादिभ्यः शरादयो निष्क्रामन्तीति स्फुट एवापायः ; यदि निष्क्रामन्ति किं ? नाऽत्यन्ताय निष्क्रामन्ति सन्ततत्वादन्याऽन्यप्रादुर्भावाद् वा । हिमवतो गङ्गा प्रभवति, महाहिमवतो. रोहिता प्रभवति, अत्राप्यापः संक्रामन्तीत्यपायोऽस्ति; यद्यपक्रामन्ति किं ? नात्यन्तमपक्रामन्ति सन्ततत्वा-25 दन्यान्यप्रादुर्भावाद् वा । वलभ्याः शत्रुञ्जयः षड् योजनानि षट्सु वा योजनेषु भवति, अत्र वलभ्या निःसृत्य गतानि योजनानि, गतेषु वा तेषु, Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० २६. ] . भवतीत्यर्थः ; कार्तिक्या श्राग्रहायणी मासे, ततः प्रभृति मासे गते भवतीत्यर्थः ; उभयत्रापायः प्रतीयते । चैत्रान्मैत्रः पटुः प्रयमस्मादधिकः, प्रयमस्मादूनः, माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्य श्राढ्यतराः, अत्र मैत्रादयः पुंस्त्वादिना संसृष्टाः पटुत्वादिधर्मेण ततो विभक्ताः प्रतीयन्ते इति सर्वत्राप्यपायविवक्षा । विवक्षान्तरे त्वपादानत्वाभावे यथायोगं विभक्तयो भवन्ति - बलाह के विद्योतते बलाहकं 5 विद्योतते, धर्मं जुगुप्सते, अधर्मेण जुगुप्सते, मौर्येण प्रमाद्यति, चौरैर्भयम्, चौरैबिभेति, चौरेषु बिभेति, चौराणां बिभेति, भोजनेन पराजयते, शत्रून् पराजयते, यवेषु गां वारयति; शृङ्ग शरो जायत इति ।। २६ ।। २३४ ] न्या० स० -- अपायेऽवधि० । “इण्क्” अपायनं “युवर्ण ०" [ ५.३.२८. ] इत्यलि, "अयि वयि०" धातुना भावाकर्घञि वा । अवधीयते - मर्यादीक्रियते बुद्धया 10 "उपसर्गाद्द: कि : " [ ५. ३. ८७ ] । गमनमिति - अपायहेतुत्वाद् गमनमप्यपायः, उपलक्षणं चेदं तेन - परमार्थतो विभागोऽपाय इति सिद्धम् । ग्रामादागच्छतीति-ग्रामादेरौदासीन्यमेवान्तरव्यापारः । सार्थाद्धीनः कर्मकर्तरि कर्मरिण वाऽत्र क्तप्रत्ययः । उपात्तविषयमिति - उप-समीपे धातुना धात्वन्तरस्यात्तः स्वीकृतो विषयोऽर्थो यत्र तत् । धात्वन्तरार्थाङ्गमिति - धात्वन्तरार्थोऽङ्ग - विशेषणं यस्य धात्वन्तरार्थस्य वाऽङ्गम् । निःसरणाङ्ग 15 इति-निःसरणं चापायरूपमिति भावः । यदा तु बलाहकान्निःसृत्य कुशूलादादायेति च निःसृत्या -ऽऽदायशब्दवन्तौ प्रयोगौ क्रियेते तदा विद्युति- पचिधातू केवले स्वार्थे विद्योतने विक्लेदने च वर्तेते, 'निःसरति, प्रददाति' क्रियापेक्षया तु बलाहक - कुशूलयोनिर्दिष्टविषयमपादानत्वम् । सांकाश्यकेभ्य इति - संकाशेन निर्वृत्तं "सुपन्थ्यादेर्भ्यः” [ ६.२. ८४. ], तत्र भवा:-“प्रस्थपुर०" [ ६. ३. ४३ . ] इत्यकञ्, अत्र निर्द्धार्यन्त इति क्रिया 20 प्रतीयते । अपायश्चेति - ननु कायसंसर्गपूर्वको विभागो मुख्यो बुद्धिपरिकल्पितस्तु गौरणः, ततश्च गौर - मुख्ययोर्मुख्यस्यैव परिग्रहात् सांकाश्यकेभ्य इत्यादौ कारकशेषत्वात् षष्ठी प्राप्नोति, नैवम् - " साधकतमं करणम्" [ २. २. २४. ] इत्यत्र तमग्रहणेन गौरणग्रहणस्यापि ज्ञापितत्वादुभयरूपस्यापि अपायस्य परिग्रह इति । अत्र माहेश्वरव्याकरणश्लोक:-“बुद्ध्येत्यादि । तथा चौरेभ्यो बिभेतीति प्रत्र बुद्धिकृतापायस्य विद्यमान - 25 त्वाद् “भीत्राणार्थानां धातूनां भयहेतुकमपादानम्" इति यदन्यैरुक्तं तदत्र न वक्तव्यम्, भयम्-आकुलीभावः, त्राणम् - अनर्थप्रतीघात इति । तेभ्यो निवर्त्तत इति -- निवृत्त्यङ्ग भये बिभेत्यादयो वर्त्तन्त इत्युपात्तविषयमेतदपादानत् । अध्ययनात् पराजयते, भोजनात् पराजयत इति - अत्र पराजिरसहने वर्तते, 'दुःखमध्ययनं दुर्वचं, गुरवश्च दुरुपचाराः, भोजनमपि व्याधितस्यातृप्तर्भुक्तवतो वा विरसत्वादिना दुःखम्' इति ततो निवर्त्तत इति 30 “पराजेरसोढेऽर्थे” इति न वक्तव्यम्, तत्रासोढग्रहरणात् पराजयतिरसहनार्थो गृह्यते न तु 'शत्रून् पराजयते' इतिवदभिभववृत्तिः । यवेभ्यो गां रक्षतीति प्रत्र "वारणार्थाना - Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २३५ मीप्सितम्" इति न वक्तव्यम् । स्फुट एवेति-कायसंसर्गपूर्वक इत्यर्थः । शृङ्गाच्छरो जायत इति-उक्त च गोपुराणे "गोलोमाज्जायते दूर्वा, गोमयाद् वृश्चिकः स्मृतः । गोदोहाद् गोरसं प्राहुर्गोशृङ्गादुच्यते शरः ॥ १।।" यदि निष्कामन्तीति-अयमर्थः-यत् किल यतोऽपक्रामति तत् पुनस्तत्र न दृश्यत । इति प्रसिद्धम्, इह तु तत्र तस्यास्ति दर्शनमित्याह-प्रत्यन्तायेति-अत्यन्तमित्यर्थेऽव्ययं, क्रियाविशेषणत्वादम्। सन्ततत्वादिति-निष्क्रमणस्येति गम्यते, अयमर्थः-एकेऽवयवा निष्क्रान्तो अन्ये निष्क्रामन्तः सन्तोति, यथा बिलाइ दीर्घभोगो भोगी निष्क्रामन्नपि सन्ततत्वात् तत्रोपलभ्यते तथा शरादयोऽपीत्यर्थः । अन्यान्यप्रादुर्भावाद् वेति-अन्यावयवयोगात् समुदायोऽप्यन्यः, ततोऽन्यश्चासावन्यश्चेति कार्यम्, समाहारे तु “त्यदादिः"10 [३. १. १२०.] इत्यनेनैकशेषः स्यात् । गङ्गा प्रभवतीति-ततः प्रथममुपलभ्यत इत्यर्थः, अत्रापि “भुवः कर्तु : प्रभवोऽपादानम्" इत्यपि न वक्तव्यम् । अत्यन्तमिति अन्तमतिक्रान्तम् । षड् योजनानीति-अत्र षड्योजनरूपस्याध्वन: शत्रुञ्जय इत्यनेनाध्वनोऽन्तेन सह "गते गम्ये" [२.२.१०७.1 इति सत्रेण सामानाधिकरण्यं. तस्माच्च शत्रञ्जय इत्यस्मा या प्रथमा विभक्तिः सा योजनानीत्यत्रापीति । गतानीति-चैत्रेण का षड् योजनानि15 गतानि-अतिक्रान्तानीति योजनानां कर्मत्वम्, उपचाराद् योजनस्थनरगतापेक्षया योजनान्यपि गतशब्देनोच्यन्त इति तेषां कर्तृत्वं वा। गतेष्विति-अतिक्रान्तेष्वित्यर्थः । प्राग्रहायणीति-अग्रं हायनस्य "पूर्वपदस्थात्" [२. ३. ६४.] इति णत्वम्, अग्रहायणेनमृगशिरसा चन्द्रयुक्त न युक्ता पौर्णमासी “चन्द्रयुक्ता." [६.२.६.] इत्यण । बलाहकमितितं प्राप्यान्तर्भूतण्यर्थो वा ।। २. २. २६ ॥ क्रियाश्रयास्याsधारोऽधिकरणम् ॥ २. २. ३० ॥ क्रियाऽऽश्रयस्य कर्तुः कर्मणो वा य आधारस्तत् कारकमधिकरणसंज्ञं भवति, अत्रापि प्रसिद्धाऽनुवादेनाप्रसिद्धस्य विधानमिति यत् क्रियाऽश्रयस्याधिकरणं तदाधारसंज्ञं भवतीत्यपि सूत्रार्थः । कटे प्रास्ते, स्थाल्यां पचति ; चैत्रसमवायिन्यामासिक्रियायां तदाश्रयं चैत्रं धारयन् कटादिर्हेतुतां प्रतिपद्यते,25 तण्डूलसमवायिन्यां च विचटनकियायां तदाश्रयांस्तण्डुलान् धारयन्ती स्थाली हेतुत्वं प्रतिपद्यत इत्युभयत्र कारकत्वम् । तत् षोढा-वैषयिकम्, प्रौपश्लेषिकम्, अभिव्यापकं, सामीप्यकम्, नैमित्तिकम् ; औपचारिकं च । तत्र अनन्यत्र भावो विषयः, तस्मै प्रभवति-वैषयिकम्-दिवि देवाः, नभसि तारकाः, भुवि मनुष्याः, पाताले पन्नगाः । एकदेशमात्रसंयोग उपश्लेषः, तत्र भवम्-प्रौपश्लेषिकम्-30 कटे प्रास्ते, पर्यत शेते, शाखायां लम्बते, गृहे तिष्ठति । यस्याधयेन 20 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ३०.] समस्तावयवसंयोगस्तद्-अभिव्यापकम्, तद्धि प्राधेयेनाभिव्याप्यते, प्राधेयं वाऽभिव्याप्नोतीति कृद् "बहुलम्" [५. १. २.] इति कर्मण्यपि णकः; तिलेषु तैलम्, दध्नि सपिः, गवि गोत्वम्, तन्तुषु पटः । यद् प्राधेयसनिधिमात्रेण क्रियाहेतुस्तत्-सामीप्यकम्-गङ्गायां घोषः, कूपेषु गर्गकुलम्, बन्धुष्वास्ते, गुरौ वसति । निमित्तमेव-नैमित्तिकम्-युद्धे सन्नह्यते, शरदि पुष्प्यन्ति सप्तच्छदाः, 5 आतपे क्लाम्यति, छायायामाश्वसिति । उपचारे भवम्-औपचारिकम्अमुल्यग्रे करिशतमास्ते, स मे मुष्टिमध्ये तिष्ठति, यो यस्य द्वष्यः स तस्याऽक्षणोः प्रतिवसति, यो यस्य प्रियः स तस्य हृदये वसति । अधिकरणा-ऽऽधारप्रदेशाः-“सप्तम्यधिकरणे' [२. २. ६५.], "अद्यर्थाच्चाधारे" [५. १. १२.] इत्यादयः ।। ३० ।। 10 न्या० स०--क्रियाऽऽश्रयस्य०। आश्रीयत इत्याश्रयः “भूश्यद०" [५. ३. २३.] इत्यलि, क्रियाया पाश्रय क्रियाश्रयः, क्रियासम्पादक इत्यर्थः । आध्रियेते अवतिष्ठेते क्रियाश्रयो कर्तृ-कर्मणी अस्मिन्निति “न्यायावाय." [५. ३. १३४.] इत्यादिना घत्रि-- आधारः। विचटनक्रियायामिति--विचटनमवयवानामुच्छ्नता । हेतुत्वं प्रतिपद्यत इतियदुक्त 15 "कर्तृ कर्मव्यवहितामसाक्षाद्धारयत् क्रियाम् । उपकुर्वत् क्रियासिद्धौ शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम्" ।। १ ।। विषयाय प्रभवति “तस्मै योगादेः शक्त" [ ६. ४. ६४. ] इतीकरिण-वैषयिकम् । औपश्लेषिकमिति-"अध्यात्मादिभ्य इकण" [ ६. ३. ७८.] । गवि गोत्वमितिअनवयवस्यापि गोत्वादेर्व्यक्त्याद्यवयवान् व्याप्याऽवतिष्ठमानस्य व्यक्त्यादिरभिव्यापक20 एवाधारः। सामीप्यकमिति-भेषजादिटयणन्ता स्वार्थे कः। नन्वाश्रय आधारो भवति, प्राश्रयश्च संयोग-समवायाभ्यां भवति, न चावस्थितिक्रियाश्रयेण घोषादिना गङ्गादेः संयोग-समवायौ स्तः, नैष दोषः-यदायत्ता हि यस्य स्थितिः स विनाऽपि संयोगसमवायौ तस्याश्रयो भवति, यथा-राजपुरुष इत्यत्र न राज्ञा सह संयोगसमवायौ स्तः, अथ च तदधोनस्थितित्वाद् राजाश्रय पुरुष इति लोके व्यपदिश्यते । नैमित्तिकमिति-अत्र25 "विनयादिभ्यः" [७. २. १६६.] इतीकण । युद्धे सन्नात इति-सन्नहनादयोऽन्यत्रापि केनचिनिमित्तेन सम्भवन्तीति न युद्धा दिवैषयिकः । औपचारिकमिति-अत्र “अध्यात्मादिभ्य इकण" [ ६. ३. ७८. ], अन्य पावस्थितस्यान्यत्राध्यारोप उपचारः। अगुल्यग्रे करिशतमिति-अत्र हि करिशतादीनामन्यत्रावस्थितानां केनापि प्रयोजनादिनाङ गुल्यग्रादावध्यारोप्यमाणानामङ गुल्यग्रादिरौपश्लेषिकाद् भिन्न औपचारिक आधार उच्यते, यदा30 त्वङ गुल्यग्रादिशब्देनोपचारादाधेयाधिष्ठितो देश एवोच्यते तदा प्रौपश्लेषिक एवाधारः; अत एवाह Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः "आधारस्त्रिविधो ज्ञेयः कटा -ऽऽकाश - तिलादिषु । पश्लेषिको वैषयिकोऽभिव्यापक एव च ।। १ ।।” अस्थिं तृणादि अक्ष्णोः प्रतिवसतीति - यथा योऽपीत्यर्थः ।। २. २. ३० ।। [ २३७ दुःखकारि तथा नाम्नः प्रथमैक-वि-बहौ ।। २. २. ३१ ।। एकत्व-द्वित्व- बहुत्वविशिष्टेऽर्थे वर्तमानान्नाम्नः परा यथासंख्यं 'सि-ओजस्' लक्षणा प्रथमा विभक्तिर्भवति । कर्मादिशक्तिषु द्वितीयादिविभक्तीनां विधास्यमानत्वादिह विशेषानभिधानाच्च परिशिष्टेऽर्थमात्रे प्रथमेति विज्ञायते । तत्र द्वितीयादिविनिर्मुक्तः स्वार्थ- द्रव्य - लिङ्ग-संख्या - शक्तिलक्षणोऽसमग्रः समग्रो वा पञ्चको नामार्थोऽर्थमात्रम्, तेषु शब्दस्यार्थे प्रवृत्तिनिमित्तं स्वरूप-जाति- 10 गुण-क्रिया-द्रव्य-सम्बन्धादिरूपं त्व- तलादिप्रत्ययाभिधेयं स्वार्थः, स च भावो विशेषणं गुण इति चाख्यायते - डित्थः, डवित्थः, गौः, अश्वः, शुक्लः, कृष्णः; कारकः, पाचकः, दण्डी, विषाणी, राजपुरुषः, औपगवः, गर्गाः, पञ्चालाः ; यत् पुनरिदं तदित्यादिना वस्तूपलक्षणेन सर्वनाम्ना व्यपदिश्यते, स्वार्थस्य व्यवच्छेद्यं लिङ्ग-सङ्ख्या-शक्त्याद्याश्रयः सत्त्वभूतं तद् द्रव्यं विशेष्यमिति चाख्यायते - इयं 15 जातिः, अयं गुणः, इदं कर्मेति यदर्थे सदसद् वा शब्दत एवावसीयते तत् ङयाबादिसंस्कार हेतुः स्त्री पुमान् नपुंसकमिति लिङ्गम् - स्त्री, पुमान्, नपुंसकम्, पट्वी, खट्वा, युवतिः; यस्यामेकवचन द्विवचन बहुवचनानि भवन्ति सा भेदप्रतिपत्तिहेतुरेकत्वादिका सङ्ख्या - एकः द्वौ बहवः; वृक्षः, वृक्षौ, वृक्षाः, " निमित्तमेक इत्यत्र विभक्त्या नाभिधीयते । तद्वतस्तु यदेकत्वं विभक्तिस्तत्र वर्तते " ।। १ ।। 5 20 यस्यां त्यादिभिरनभिहितायां द्वितीयाद्या व्यतिरेकविभक्तयः षष्ठी च भवति, सा स्वपराऽऽश्रयाऽऽश्रितक्रियोत्पत्तिहेतुः कारकरूपा तत्पूर्वकसम्बन्धरूपा च शक्तिः, सा चाभिहिताऽर्थमात्रम् - क्रियते कटः कृतः कटः, पचति चैत्र, स्नानीयं चूर्णम्, दानीयो ब्राह्मणः, गोघ्नोऽतिथिः, प्रस्रवणो गिरिः, भयानको 25 स्थानीयं नगरम्, गोदोहनी पारी, गोमान् मैत्रः, चित्रगुत्रः । व्याघ्रः, Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० २. सू० ३१.] अर्थमात्रं चोपचरितमपि, यथा साहचर्यात्-कुन्ताः प्रविशन्ति, छत्रिणो गच्छन्ति; स्थानात्-मञ्चाः क्रोशन्ति ; गिरिदह्यते; तादात्-इन्द्रः स्थूणा, प्रदीपो मल्लिका; वृत्तात्-यमोऽयं राजा, कुबेरोऽयं राजा; मानात्-प्रस्थो व्रीहिः, खारी मुद्गाः, धरणात्-तुला चन्दनम् ; सामीप्यात्-गङ्गातटं गङ्गा; योगात्-रक्तः कम्बलः; साधनात्-अन्न प्राणाः, आयुर्घ तम्; आधिपत्यात्- 5. ग्रामाधिपतिमिः । अलिङ्गमपि त्वम्, अहम्, पञ्च, षट्, कति ; अलिङ्गसङ्खयमपि-उच्चैः, नीचैः, स्वः, प्रातः; शक्तिप्रधानमपि-यतः, यत्र, यथा, यदा; द्योत्यमपि-प्रपचति, प्रतिष्ठते, प्रतीक्षते, प्रतिपालयति; स्वरूपमात्रमपिअध्यागच्छति, पर्यागच्छति, प्रलम्बते, निषिञ्चति । तदयं वस्तुसंक्षेपःत्याद्यन्तपदसामानाधिकरण्ये प्रथमेति, यत्रापि त्याद्यन्तं पदं न श्रूयते-वृक्षः,10 प्लक्ष इति, तत्रापि गम्यते, यदाह-'यत्रान्यत् क्रियापदं न श्रूयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रयुज्यते' इति। नाम्न इति किम् ? निरर्थकाद् वर्णाद् धातुवाक्याभ्यां च मा भूत् । एक-द्वि-बहाविति च सङ्करनिवृत्त्यर्थम् । ननु चाव्ययेभ्य एकत्वाद्यभावादनेन प्रथमा न प्राप्नोति, सत्यम्-लुम्विधानात् तु विभक्तीनां विधिविज्ञायते तदन्तर्गतत्वाच्च प्रथमाया अपि, तस्य च फलम्-15 अथो स्वस्ते गृहम्, अथो स्वस्तव गृहमित्यादिषु “सपूर्वात् प्रथमान्ताद् वा" [२. १. ३२.] इति विभाषया 'ते-मे' आदेशौ, पदसंज्ञा च "अव्ययस्य" [ ३. २. ७. ] इत्यत्र वक्ष्यते । एक-द्वि-बहावित्यादिविभक्तिविधानादिति ।। ३१ ।। न्या० स०--नाम्नः प्रथ० । तत्रेति-एवं स्थिते सतीत्यर्थः । तेष्विति पञ्चकस्य 20 नामार्थस्य क्रमेण लक्षणमाह-जातिरिति-नित्यत्वैकत्वे सत्यनेकत्र समवेता जातिः, अत्र जातिलक्षणे नित्यपदाभावे पटेन व्यभिचारः, एकत्वाभावे विशेषेषु व्यभिचारः, अनेकत्राभावे परमारणौ विशेषेण व्यभिचारः। सम्बन्धादीति-आदिशब्दानित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा अतीन्द्रियदृष्टिगम्या योगिसंवेदनीयाः, तेऽपि स्वार्थः । स्वार्थ इति-स्वस्यैवार्थः स्वार्थो विशेषणमसाधारणोऽर्थः प्रवृत्तिनिमित्तमिति । गौरिति-जातिरनुवृत्तप्रत्ययहेतु:,25 अत्र तद्विशिष्टस्य द्रव्यस्य प्रतोतेर्जातिः स्वार्थः । शुक्ल इति-गुणः शुक्लत्वादिः, शुक्लः पट इत्यादौ तद्विशिष्टस्य द्रव्यस्य प्रतीतेर्गुणः स्वार्थः। गर्गा इति-गर्गस्यापत्यानि ''गर्गादेर्य" [६. १. ४२.], “यात्रौ." [६. १. १२६.] इत्यनेन लोपः। पञ्चाला इति-पञ्चालानां राष्ट्रस्य राजानः, पञ्चालस्य राज्ञोऽपत्यानि वा “राष्ट्र-क्षत्रियात्." Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २३६ [ ६. १. ११४. ] अञ्। स्वार्थस्य व्यवच्छेद्यमिति-अत्र कर्तरि षष्ठी, स्वार्थेन व्यवच्छिद्यते। शक्त्याद्याश्रय इति-आदिशब्दात् स्वरूपादिस्वार्थपरिग्रहः । इयं जातिरितिजातिव्यमेकत्वं नित्यत्वं व्यापकत्वं च स्वार्थः । अयं गुरण इति-तेन कर्मादिभ्यो व्यवच्छिद्यते, रूप-स्पर्श-गन्धादयो द्रव्यं गुणत्वं स्वार्थः । इद कमंति-तेन गुरणादिभ्यो व्यवच्छिद्यते, कर्मत्वं प्रवृत्तिनिमित्तम् । यदर्थे सदसद्वेति-शब्दधर्मो लिङ्गमिति मता- 5 पेक्षया । भेदप्रतिपत्तिहेतुरिति-भेदो विशेषज्ञानोत्पत्तिरूपः, तया हि पदार्थानां भेदः प्रतीयते, भेदः परिगणनं संख्येति लक्षणत्वात् तस्याः । ननु नामार्थव्यतिरेकेणान्येषामेकत्वादीनां विशेषणभूतानामभावादेक इत्यादौ प्रथमाया अभावः प्राप्नोतीत्याह-निमित्तमिति-निमित्तमेकत्वसंख्यालक्षणम्, तद्वतस्त्वेकत्वसङ्ख्यावतो यदेकत्वं तत्र विभक्तिप्रवृत्तिः, यथा वृक्ष इत्यत्र वृक्षत्ववतो द्रव्यस्यैकत्वं प्रतिपाद्यते, तथाऽत्राप्येकेन सामान्यमेकत्वं 10 सिना त्वेकत्वसङ्ख्यावत एकत्वं प्रतिपाद्यते, यथा-सामान्यं दण्डमानय दण्डिनो दण्डमानयेति । त्यादिभिरिति-तिशब्देन तिवादय आख्यातप्रत्यया आदिशब्देन च कृततद्धित-समासा उच्यन्ते । व्यतिरेकेति-व्यतिरिच्यत इति व्यतिरेकस्तस्मिन् व्यतिरेकेनामार्थादतिरेके आधिक्ये द्वितीयाद्या विभक्तयो व्यतिरेकविभक्तयः, विशेषविभक्तय इत्यर्थः । तत्पूर्वकसम्बन्धरूपा' चेति-ते क्रियाकारके पूर्वे यस्य स चासो सम्बन्धश्च स15 एव रूपं यस्याः शक्त: सा तथा। स्नानीयं चूर्णमित्यादिषु सर्वेषु बाहुलकात् करणादिष्वनीयादयः । उपचरितमपीति-अध्यारोपितमित्यर्थः, सहचरण-स्थान-तादर्थ्यवृत्तमान-धरण-सामीप्य-योग-साधना-ऽऽधिपत्येभ्यो ब्राह्मण-मञ्च-कट-राज-सक्त-चन्दन-गङ्गाशाटका-ऽन्न-पुरुषेष्वतद्भावेऽपि तद्वदुपचारः। छत्रिणो गच्छन्ति-छत्रिसहचरिताः पुरुषा यान्तीत्यर्थः । शक्तिप्रधानमपीति-यत इत्यादिभ्योऽपादानादिशक्तीनां प्रतीयमानत्वं न20 शक्तिमतोऽतोऽर्थमात्र शक्तिप्रधानम्। द्योत्यमपीति-प्राद्युपसर्गाणां क्रियार्थद्योतकत्वाद् अन्यथोपसर्गत्वाभावात् तदर्थमात्रं द्योत्यमेवेति । स्वरूपमात्रमपीति-सोपसर्गा-ऽनुपसर्गधात्वर्थस्याध्यादिभिर्वैशिष्टयाप्रतीतेः; आगच्छतीत्यादिक्रियापदार्थ एव तदर्थ इत्यर्थः । नाम्न इति किमिति-ननु वर्णस्य निरर्थकत्वाद् धातु-वाक्यार्थयोश्चासत्त्वरूपत्वात् संख्यायाः सत्त्वधर्मरूपत्वेन प्रवृत्त्यभावात् सत्त्ववाचिनो नाम्न एव प्रथमा भविष्यति, किं नाम्न 25 इत्यनेन ? उच्यते-यथा धातोरसत्त्ववाचित्वेऽपि साधनाश्रयामेकत्वादिसङ्ख्यामाश्रित्य १. अयमर्थ:-राज्ञः पुरुष इत्यत्र योऽयं राज-पुरुषयोः सम्बन्धो नायं कारणान्तरनैरपेक्ष्येणाकस्मादपजायते, अपि तु, अन्तर्भूतक्रियाकारकसम्बन्धनिबन्धनः, यतः पुरुषो योगक्षेमकामो राजानमुपसर्पति, राजापि तमभिलषितधनदानादिना बिति; क्रियान्तरं वा प्रकल्पनीयं, ततो राज्ञाऽसौ सम्बन्धीभूत इति राज्ञः पुरुष इति । उपगोरपत्यमित्यत्रापि30 जनिक्रियाजनितः सम्बन्धः-उपगुरपत्यं जनयति, तदपि ततो जायत इत्युपगोरपत्यमिति । पशोः पाद इत्यत्रापि-अवस्थितिक्रियालम्भितः सम्बन्धः, यतः पशु पादेऽवस्थितोऽतः पशो: पाद इति । एवं वृक्षस्य शाखेत्यादावप्यवयवक्रियाजनितत्वं सम्बन्धस्येति ।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ३२-३३.] तिवादीनामेकवचनादीनि प्रवर्तन्ते तथा स्यादीनामपि प्रवर्त्तेरन्, एवं वाक्यादप्यवयवगतां वर्णाच्च निरर्थकादपि स्वरूपगतां सङ्ख्यामाश्रित्य प्रथमा स्यादित्याह - निरर्थकाद् वर्णाद् धातु- वाक्याम्यां चेति-उपलक्षणत्वात् पदादपि । नन्वर्थमात्रे प्रथमेत्युक्तत्वान्मात्रग्रहणस्य चाधिकार्थव्यवच्छेदकत्वाद् वीरपुरुष इत्यादौ सामानाधिकरण्येनार्थमात्राद् विशेषणविशेष्यभावस्याधिकस्य प्रतीतेः प्रथमा न प्राप्नोति, समासविधानमपि प्रथमो - 5 त्पत्ते लिङ्ग न भवति, वीरपुरुषमानयेति द्वितीयाद्यन्तानामपि समाससम्भवादिति प्रथमा न विधेया, नैष दोषः - प्राधिक्यस्य वाक्यार्थत्वाद् वीरनाम्नोऽनपेक्षितशब्दान्तरार्थसंसर्गोपविशेषणभावात् स्वार्थमात्रनिष्ठात् प्रथमा विधीयते, एवं पुरुषशब्दादपि ।। २. २. ३१ ।। आमन्त्र्ये ॥ २. २. ३२ ।। प्रसिद्धतत्सम्बन्धस्य किमप्याख्यातुमभिमुखीकरणमामन्त्ररणम्, तद्विषय 10 आमन्त्र्यः ; तस्मिन्नर्थे वर्तमानान्नाम्न एक-द्वि- बहौ यथासंख्यं प्रथमा विभक्तिर्भवति । हे देवदत्त !, हे देवदत्तौ !, हे देवदत्ताः ! ; हे पचन् !, हे पचमान ! | आमन्त्र्य इति किम् ? राजा भव, अत्र राजा नाऽऽमन्त्र्यः, किन्तु स एव विधीयत इति पूर्वेणैव प्रथमा । षष्ठीप्राप्तौ वचनम् ।। ३२ ।। २४० ] न्या० स० -- आमन्त्र्ये । प्रसिद्ध तत्सम्बन्धस्येति - तेन - पाण्डित्य - देवदत्तत्वादिना 15 प्रवृत्तिनिमित्तेन सम्बन्धः, यद्वा तेन - आमन्त्र्यवाचिना देवदत्तादिशब्देन सम्बन्धो वाच्य - वाचकभावलक्षणः, प्रसिद्धस्तत्सम्बन्धो यस्य देवदत्तादेस्तस्य कर्मतापन्नस्य, येन शब्देन आत्मा निरवधानः सावधानः क्रियते तदामन्त्ररणमिति स्पष्टार्थः । तद्विषय श्रामन्त्रय इति श्रामन्त्रयपदं हि क्रियाया विशेषणं भवति; हे देवदत्त ! व्रजाम्यहमित्यत्राभिमुखीकृत देवदत्तविशिष्टा व्रज्या प्रतीयते, यदाह हरि: " ग्रामन्त्रित पदं यच्च तत् क्रियाया विशेषकम् । व्रजामि देवदत्तेति निघातोऽत्र प्रतीयते" ।। १ ।। ततश्व देवदत्तादेः क्रियाविशेषणात् कर्माद्यतिरिक्तामन्त्ररणसम्बन्धे शेषरूपे वर्तमानाद् गौरणात् प्रथमापवादः षष्ठी प्राप्नोति तद्बाधनार्थमिदमुच्यते, सम्बन्धश्वामन्त्र्यामन्त्ररणभावो विषयविषयिभावो वा ।। २. २.३२ ।। गौणात् समया-निकषा-हा-धिगन्तरान्तरेणा-इतियेन-तेनैद्द्वितीया ॥ २. २. ३३ ॥ श्राख्यातपदेनासमानाधिकरणं गौरणम् गौणान्नाम्नः समयादिभिर्निपा 20 25 T Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३३. ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २४१ तैर्युक्तादेक-द्वि-बहौ यथासङ्ख्यम् अमौशस्रूपा द्वितीया विभक्तिर्भवति; षष्ठयपवादः । समया पर्वतं नदी, निकषा पर्वतं वनम् हा देवदत्तं वर्ध व्याधिः, धिग् जाल्मम्, अन्तरा निषधं नीलं च विदेहाः, अन्तरेण गन्धमादनं माल्यवन्तं चोत्तराः कुरवः, अन्तरेण धर्मं सुखं न भवति, अति वृद्धं कुरून् महद् बलम्, कुर्वतिक्रमेण वृद्धमित्यर्थः ; येन पश्चिमां गतः तेन पश्चिमां नीतः । 5 अन्तराऽन्तरेणशब्दौ साहचर्यान्निपातौ गृह्यते, तथाऽन्तराशब्दो मध्यमाधेयप्रधानमाचष्टे, अन्तरेणशब्दस्तच्च विनार्थं च; तेनेह न भवति - राजधान्या अन्तरायां पुरि वसति, किं ते केशवाऽर्जुनयोरन्तरेण गतेनेति । ' हा तात !, धिग् जाल्म !, हा सुभ्रु ! इत्यादावामन्त्र्यतया विवक्षा, न हादियुक्तत्वेनेति न भवति । हा कृतं चैत्रस्य, धिक् कृतं मैत्रस्येत्यत्र च हा धिक्शब्दाभ्यां कृतशब्दे 10 न्यग्भूतत्वान्न चैत्रादेः साक्षाद् योगः, किं तर्हि ? तद्विशिष्टेन कृतशब्देन । बहुवचनादन्येनापि युक्ताद् भवति न देवदत्तं प्रति भाति किञ्चित्, बुभुक्षितं प्रतिभाति किञ्चित्, "वृणीष्व भद्र े ! प्रति भाति यस्त्वाम्,” “योऽक्षपादमृषिं न्यायः, प्रत्यभाद् वदतां वरम्”, धातुसम्बद्धोऽत्र प्रतिस्तेन " भागिनि च प्रतिपर्यनुभिः” [ २. २. ३७ ] इति न सिध्यति । गौणादिति किम् ? अन्तरा 15 गार्हपत्यमाहवनीयं च वेदि:, अत्र प्रधानाद् वेदिशब्दान्न भवति ।। ३३ ॥ न्या० स० - गौरणात् स० । गौरणादिति - "तत श्रागते" [६. ३. १४६.] प्रज्ञाद्यfण वा अत्र सूत्रे येन तेनौ मुक्त्वाऽन्ये वाचकाः । समया पर्वतं नदी निकटे निकटा वा । निकर्षाति दूरभावं “समिरण - निकषिभ्यामाः " [ उरणा० ५६८.], जहाति सौख्यं विच्, धयति निन्दाभावं " द्रागादयः ' [ उण० ८७० . ] इति निकषा - हा धिक्शब्दानां 20 व्युत्पत्तिः । हा देवदत्तमिति-हा-कष्टं देवदत्तस्य यतो वर्द्धते व्याधिः । अन्तरा निषधमिति - अन्तं राति "डित्" [ उणा० ६०५. ] इत्या: । अन्तरेण गन्धमादनमिति - अन्तरे - मध्ये नयति " क्वचित्" [५. १. १७१.] इति डे " तत्पुरुषे कृति" [ ३.२.२०. ] इत्युलुपि “पूर्वपदस्थ०” [ ३. ३. ६४ ] इति णत्वे च यद्वा - अन्तरेति " इणुर्विशावेणि ० ' [ उणा० १८२. ] इति राप्रत्ययः । अति वृद्धमिति - कुरूणामतिक्रमेण पाण्डवानां महद् - 25 बृहद् बलं वर्त्तत इत्यर्थः । येन पश्चिमामिति श्रत्र येन तेनौ लक्ष्यलक्षणभावं द्योतयतः, पश्चिमां प्रति लक्ष्यीकृत्य गत इत्यर्थः, अयं गतः, कां प्रति ? पश्चिमां, पश्चिमया लक्षणेन देवदत्तस्याप्रसिद्धं गमनं लक्ष्यते । अन्तराऽन्तरेणेति प्रथाऽऽन्तराशब्दः स्त्रियामाबन्तोऽप्यस्ति, अव्ययं च अन्तरेणेत्यपि अन्तराशब्दात् तृतीयायां भवति, अव्ययं च तत्र विशेषानुपादानात् सामान्येनोभयस्यापि ग्रहरणं कुतो न भवतीत्याह - साहचर्यादिति समया - 30 " ܙܕ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ३४-३६.] दिभिर्निपातैः सहैकवाक्योपात्तत्वादेतावपि निपातावित्यर्थः । अन्येनापीति- द्विधा व्याख्येयन् - समयादिव्यतिरिक्त ेन यावच्छब्दादिना नाम्ना नामव्यतिरिक्त ेन धात्वादिनापि योगे गौरणान्नाम्नो द्वितीया भवतीति । अक्षं - तृतीयनेत्रं पादे यस्य स तथा ।। २. २. ३३ ।। द्विवत्वेऽधो-अध्युपरिभिः ।। २. २. ३४ ।। अधस् - अधि- उपरिभिर्युक्ताद् गौरणान्नाम्न एषामेव द्वित्वे सति द्वितीया 5 भवति, षष्ठ्यपवादः ; बहुवचनमेक-द्वि-बहाविति यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थम् । अधोऽधो ग्रामं ग्रामाः, अध्यधि ग्रामं क्षेत्राणि; उपर्युपरि ग्रामं ग्रामाः । द्वित्व इति किम् ? अधः प्रासादस्य, हर्म्यस्योपरि प्रासादः ; असामीप्याच्च द्वित्वं न भवति ।। ३४ । न्या० स०--- द्वित्वेऽधो० । “सामीप्येऽधोऽध्युपरि " [ ७. ४. ७६ ] इति द्वित्वम् 110 असामीप्याच्चेति-अत्रौत्तराधर्यमात्रं विवक्षितं न सामीप्यमिति द्वित्वाभावः ।। २. २. ३४।। सर्वोभया-भि-परिणा तसा ॥ २. २.३५ ।। सर्वादिभिस्तसन्तैर्युक्ताद् गौणान्नाम्नो द्वितीया भवति, षष्ठ्यपवादः । सर्वतो ग्रामं वनानि, उभयतो ग्रामं वनानि, अभितो ग्रामं क्षेत्रारिण, परितो ग्रामं क्षेत्राणि ।। ३५ ।। न्या० स० - सर्वोभ० । सर्वादिविशेषणत्वात् “ विशेषरणमन्तः” [ ७. ४. ११३.] इति न्यायात् सर्वादिभिस्तसन्तैरिति ।। २. २. ३५ ।। 15 लक्षण-वीपस्येत्थंभूतेष्वभिना । २. २.३६ ॥ लक्ष्यते दर्श्यते येन तल्लक्षणं - चिह्नम्, अवयवशः समुदायस्य क्रियादिना साकल्येन प्राप्तीच्छा - वीप्सा, तत्कर्म वीप्स्यम्; केनचिद् विवक्षितेन विशेषेण 20 भाव इत्थंभाव:, तद्विषय इत्थंभूतः एष्वर्थेषु वर्तमानादभिना युक्ताद् गौरणान्नाम्नो द्वितीया भवति । वृक्षमभि विद्योतते विद्युत्, अत्र वृक्षो लक्षणम्, विद्योतमाना विद्युल्लक्ष्यम्, अनयोश्च लक्ष्यलक्षणभावः सम्बन्धोऽभिना द्योत्यते ; वृक्षं वृक्षमभि सेक:, एकैकस्य वृक्षस्य सेक इत्यर्थः; साधुर्देवदत्तो मातरमभि, मातृविषये साधुत्वप्रकारं प्राप्त इत्यर्थः । लक्षणादिष्विति किम् ? यदत्र 25 T Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ३७-३८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २४३ ममाऽभि स्यात् तद् दीयताम्, अत्राऽभिना भागसम्बन्धो द्योत्यते, योऽत्र मम भागः स्यादित्यर्थः । अत्रापि बहुवचनं यथासङ्ख्याऽभावार्थम्, एवमुत्तरत्र ।। ३६ ।। साकल्येनेति-सहार्थे न्या० स०-- लक्षरण० । समुदायस्येति-वनादेरित्यर्थः । तृतीया । इत्थंभूत इति - प्रनेन साधुत्वादिना प्रकारेण [ प्रकार:- सामान्यस्य भेदको 5 धर्मो विशेष इत्यर्थः ] इत्थं भवनं " क्लीबे" [ ५.३.१२३. ] क्तः, इत्थंभूतमत्रास्ति "भ्रादिभ्यः " [ ७. २. ४६. ]; यद्वा - इत्थं देवदत्तो भवत्यस्मिन् मात्रादी " अद्यर्थात् ० " [ ५. १. १२. ] इति क्त े - इत्थंभूतो मात्रादिः, “श्रव्ययं प्र० " [ ३. १.४८. ] इति सः । वृक्षं वृक्षमभिसेक इति श्रत्र वृक्षस्य वृक्षस्य सेक इति सेकेन वृक्षाणां वीप्स्यमानानां सेकं प्रति यस्तेषां साध्यसाधनभावलक्षणः सम्बन्धः सोऽभिना द्योत्यते; वीप्सा तु द्विर्वचन - 10 द्ययैवेति । अन्ये त्वन्यथा वर्णयन्ति - वीप्सा - विप्स्यमानयोः सम्बन्धो द्विर्वचनेनैव द्योत्यते, नवभिना, इति सम्बन्धमद्योतयतापि तेन योगे वचनाद् द्वितीयेति ।। २. २. ३६ । भागिनि च प्रति- पर्यनुभिः ॥ २. २.३७ ॥ स्वीक्रियमाणोंऽशो भागः, तत्स्वामी भागी, तत्र लक्षणादिषु चार्थेषु वर्तमानात् प्रति- पर्यनुभिर्युक्ताद् गौणान्नाम्नो द्वितीया भवति । भागिनि - 15 यदत्र मां प्रति मां परि मामनु स्यात्, योऽत्र मम भाग प्रभवति स दीयता - मित्यर्थः ; लक्षणे - वृक्षं प्रति वृक्षं परि वृक्षमनु विद्योतते विद्युत् ; वीप्स्ये - वृक्षं वृक्षं प्रति वृक्षं वृक्षं परि वृक्षं वृक्षमनु सेचनम् ; इत्थंभूते - साधुर्देवदत्तो मातरं प्रति मातरं परि मातरमनु । एतेष्विति किम् ? अनु वदनस्याशनिर्गता, समीप इत्यर्थः ।। ३७ ।। 20 न्या० स० -- भागिनि च । श्राभवतीति श्राङपूर्वको भूधातुर्भागागमे वर्त्तत इति हि धातुपारायणविदः । स्वीक्रियमाण इति - यस्त्वस्वीक्रियमाणेऽप्यंशे भागशब्दः प्रयुज्यते - "नगरस्य भागः, प्रियङ्गोर्भाग:' इति स स्वीक्रियमाणभागसादृश्यादिति ।। २.२३७ ।। हेतु- सहार्थेऽनुना ॥ २. २.३८ ॥ हेतुर्जनकः, सहार्थस्तुल्ययोगो विद्यमानता च तद्विषयोऽपि सहार्थ उपचारात्; तयोर्वर्तमानादनुना युक्ताद् गौरणान्नाम्नो द्वितीया भवति । 25 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ३६-४०.] जिनजन्मोत्सवमन्वागच्छन् सुराः, देवेन्द्रोपपाताऽध्ययनमन्वागच्छद् देवेन्द्रः, तेन । हेतुनेत्यर्थः; पर्वतमन्ववसिता सेना, नदीमन्ववसिता पुरी; पर्वतनदीभ्यां सह सम्बद्धेत्यर्थः अन्ये तु तृतीयार्थमात्र इच्छन्ति-पर्वतमन्ववसिता सेना, पर्वतेन क; करणेन वा कृतान्तेत्यर्थः । तृतीयाऽपवादो योगः ।। ३८ ।। न्या० स०--हेतुस। हेतु द्विविधः- जनको ज्ञापकश्च, तत्र ज्ञापकस्य लक्षणत्वा: 5 "भागिनि च०" [ २. २. ३७. ] इति सूत्रेण द्वितीया सिद्धति जनक एवेह गृह्यत इत्याहहेतुर्जनक इति । तुल्ययोग इति-ननु तुल्ययोगाद्यर्थे सहादय एव शब्दा वर्तन्ते न पर्वतादिशब्दा इति कथं ततो द्वितीयेत्य'ह-तद्विषयोऽपोति । देवेन्द्रमुपपातयति कर्मणोऽणिदेवेन्द्रोपपातम् । अवसितेति-अवसिनोति स्म, कर्मकर्तरि वाऽवसीयते स्म “गत्यर्थ." [५. १. ११.] इति क्तः । तुल्ययोगोऽभिन्न : सह विद्यमानता तु भिन्न रित्यनयोर्भेदः,10 विद्यमानतायाम्-अनु कर्माणि संसारीत्युद हरणं ज्ञातव्यम् ।। ३८ ।। उत्कृष्टेअनूपेन ॥ २. २. ३६ ॥ उत्कृष्टेऽर्थे वर्तमानादनूपाभ्यां युक्ताद् गौणान्नाम्नो द्वितीया भवति । अनु सिद्धसेनं कवयः, अनु मल्लवादिनं तार्किकाः, उपोमास्वाति सङ्ग्रहीतारः, उप जिनभद्रक्षमाश्रमणं व्याख्यातारः, तस्मादन्ये हीना इत्यर्थः ।। ३६ ।। 15 न्या० स०--उत्कृ०। स्वयमेव उत्कृष्यते स्म कर्मकर्तरि क्तः, उत्कृष्टशब्दो होनापेक्षः, तेन होनोत्कृष्टसम्बन्धेऽनुना द्योत्ये द्वितीयाऽनेन विधीयते । उमां-कीति सुष्टु अततोति “पादाच्चात्यजिभ्याम्" [उणा० ६२०.] इति इ: णित्; यद्वा-उमा-कीतिः स्वातिरिवोज्ज्वला यस्य; यद्वा-उमा-माता, स्वाति:-पिता, तयोर्जातत्वात् पुत्रोऽप्युमास्वातिः ।। २. २. ३६ ।। .२.४०॥ गौणानाम्नः कर्मणि कारके द्वितीया भवति । कटं करोति, प्रोदनं पचति, आदित्यं पश्यति, अहिं लङ्घयति, ग्रामं गच्छन् वृक्षमूलान्युपसर्पति, अजां नयति ग्रामम्, गां दोग्धि पयः । अथेह कस्मान्न भवति ?-क्रियते कटः, कृतः कटः, शतेन क्रीत:-शत्यः पटः; आरूढो वानरो यं स आरूढवानरो वृक्ष25 इति; त्यादि-कृत्-तद्धित-समासैरभिहितत्वाल्लोक-शास्त्रयोश्चाभिहितेऽर्थे शब्दप्रयोगायोगात् । यद्यवं कटं करोति भीष्ममुदारं दर्शनीयमिति भीष्मादि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ४०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २४५ विशेषणविशिष्टस्य कटस्य करोतिक्रियया व्याप्यत्वात् कर्मत्वम्, तच्च कटशब्दादेवोत्पन्नया द्वितीययाऽभिहितमिति भीष्मादिभ्यो द्वितीया न प्राप्नोति, यथा-कृतः कटो भीष्म उदारो दर्शनीय इति करोतेः क्त-प्रत्ययेनेति, नैवम्भीष्मत्वादियुक्तस्य कटस्य सम्बन्धिकर्मत्वं प्रतिपाद्यम्, न च जातिशब्दाः सम्भविनोऽपि गुणान् प्रतिपादयितुं समर्था इति तत्प्रतिपादनाय यथा भीष्मा- 5 दिशब्दप्रयोगो भवति तथा द्वितीयाऽपि तेभ्यो भविष्यति, नहि सामान्यवाचिनः कटशब्दादुत्पद्यमाना द्वितीया भीष्मादीनामनियताधाराणां गुणानां कर्मत्वभिधातुं शक्नोति; यदि वा कटोऽपि कर्म भोष्मादयोऽपि, यथैव ह्ययं कटं करोत्येवं तद्गतान् भीष्मादोनपि, तत्र यद् यत् करोतिना व्याप्तुमिष्टं तत् सर्वं द्रव्यं गुणश्च कर्मेति सर्वेषां पृथक् कर्मत्वे प्रत्येकं द्वितीया, पश्चात् त्वेकवाक्यतया10 विशेषणविशेष्यभाव इति; यदिवा द्रव्यस्य क्रियासु साक्षादुपयोगादस्तु कटस्यैव कर्मत्वम्, भीष्मादीनां तु न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या इति नियमाद् अविभक्तिकानामप्रयोगार्हत्वादेकविभक्तिमन्तरेण च सामानाधिकरण्यविशेषणत्वायोगाद्, यथा-ईश्वरसुहृदां स्वयं निर्धनत्वेऽपि तदेकयोगक्षेमत्वात् तद्धनेनैव फलभाक्त्वं भवत्येवमकर्मणामपि कटकर्मत्वेनैव द्वितीया भविष्यति ; 15 कृतः कटो भीष्म उदारो दर्शनीय इत्यादौ तु करोतेरुत्पद्यमानः क्तो यस्य यस्य तया क्रियया सम्बन्धस्तस्य तस्य साकल्येन कर्मत्वमभिदधातीति क्वचिदपि द्वितीया न भवति; कथं तहि 'कृतं पश्य, आहृतमाहर, क; क्रियते, दात्रेण लुनाति, दानीयाय ददाति, भीमाद् बिभेति, प्रासादे प्रसीदति, शयने शेते,' इत्यादिषु क्तादिभिरभिहितेषु कर्मादिषु द्वितीयादयो भवन्ति ?, उच्यते-20 कर्मादिसामान्यं कृद्भिरभिहितं, तत्राप्यभिहितः सोऽर्थोऽन्तर्भूतो नामार्थः सम्पन्न इति कर्मादिशक्तियुक्त द्रव्यमेव तदन्तैः शब्दरभिधीयते, यथेदं कर्म, इदं करणमिति, तत्र याऽसौ स्वरूप-कालभिन्नायां क्रियायां सव्यापारतया कर्मादिरूपता तदभिधानाय यथायथं द्वितीयादयो भवन्ति, यत्र पुनरेकद्रव्याधारा प्रधानाऽप्रधानक्रियाविषयाऽनेका शक्तिर्भवति तत्र प्रधानक्रियाविषयायां शक्तौ25 प्रत्ययैरभिहितायामप्रधानक्रियाविषया शक्तिः प्रधानशक्त्यनुरोधादभिहितवत् प्रकाशमाना विभक्त्युत्पत्तौ निमित्तं न भवति, यथौदनः पक्त्वा भुज्यते देवदत्तेनेति भावाऽभिधायिना क्त्वाप्रत्ययेनौदनाधिकरणाप्रधानपचिक्रियाविषया Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ४१.] कर्मशक्तिरनभिहिताऽपि प्रधान जिक्रियाविषयाऽऽत्मनेपदेनाभिहितेति तद्वत् प्रकाशमाना द्वितीयोत्पत्तौ निमित्तं न भवति, यथा च ग्रामो गन्तुमिष्यते देवदत्तेनेति ग्रामस्य प्रधानेषिक्रियाविषयां कर्मशक्तिमात्मनेपदेनाभिदधताऽप्रधानमभिक्रियाविषयाऽपि कर्मशक्तिरुपभक्त ति तदभिधानाय द्वितीयाचतुथ्यौं न भवत इति । इह च गौणत्वं क्रियाऽपेक्षं, तेनाऽजां नयति ग्राममित्यादौ 5 ग्रामाद्यपेक्षयाऽजादेः प्रधानत्वेऽपि गौणत्वं न विहन्यत इति । इह तु-कृतपूर्वी कट, भुक्तपूर्वी प्रोदनम्, व्याकरणं सूत्रयतीत्यादौ यः कृतादिभिः कटादेरभिसम्बन्धः स प्रत्ययेऽर्थान्तराऽभिधायिन्युत्पन्ने कृतादीनामुपसर्जनत्वानिवर्तते, क्रियया तु सह सम्बन्धोऽस्तीति व्याप्यत्वाद् द्वितीया भवति ।। ४० ।। न्या० स०--कर्मणि । शब्दप्रयोगायोगादिति-अर्थप्रत्यायनाय हि लोके शब्द:10 प्रयुज्यते, स चार्थो यदा शब्दान्तरेण प्रतिपादितः स्यात् तदा प्रयोजनाभावाच्छब्दान्तरप्रयोगो न कर्तव्यः । अनियताधाराणामिति-नहि भीष्मत्वादीनां कट एवाधारः किं त्वन्येऽपि। न केवला प्रकृतिरिति-नापदं प्रयुञ्जोतेति न्यायात् । तदेकयोग-क्षेमत्वादितिअलब्धलाभो योगः, लब्धार्थपरिरक्षणं क्षेमः, तस्य देवदत्तादेर्यावेको योग-क्षेमौ तयोर्भावः । कर्मादिसामान्यमिति-करणादिक्रियामात्रयोग्यमित्यर्थः । तत्रापीति-सामान्यकर्माभि-15 धानेऽपि। अन्तर्भूत इति-तत्राभिहितोऽपि कश्चिन्नान्तर्भवति, यथा-राज्ञः पुरुष इत्यत्र वाक्ये षष्ठया सम्बन्धोऽभिधीयते, न तु क्वचिदन्तर्भावमुपयातीति द्वयोरुपादानम् । तत्रेति-कर्मादिशक्तियुक्त द्रव्य इत्यर्थः। स्वरूपकालभिन्नायामिति-कृताहृतेत्यादिक्रियापेक्षया स्वरूपेण कालेन च पश्याहरेत्यादिका क्रिया भिन्ना। सव्यापारतयेतिकारकत्वेनेत्यर्थः। यथायथमिति-या यस्य स्वा इत्यर्थः। प्रधानाप्रधान क्रियेति-20 एकस्मिन् वाक्ये युगपदनेकप्रधानक्रियाणामसम्भवात् प्रधानाप्रधानक्रियाविषयैवानेका शक्तिरिति तत्क्रियापेक्षया शक्त रपि गुणप्रधानभावो भवतीत्यत आह-प्रधानशक्त्यनुरोधादित्यादि । अत्रैवोदाहरणान्तरं दर्शयति-यथा च ग्रामो गन्तुमिष्यत इति । ननु गौणान्नाम्नः कर्मणि द्वितीयेत्युक्तम्, अजां नयति ग्राममित्यादौ तु ग्रामाद्यपेक्षया अजादेः प्रधानत्वान्न ततो द्वितीया प्राप्नोतीत्याह-इह चेति । क्रियापेक्षमिति-आख्यातपंदेना-25 समानाधिकरणं गौणमिति गौणत्वस्य द्वयोरपि कर्मणोर्भावात् क्रियापेक्षं गौणत्वमाश्रितम् । न विहन्यत इति-तेन गौणत्वाजाशब्दादपि द्वितीया सिद्धा ।। २. २. ४० ।। क्रियाविशेषणात् ॥ २. २. ४१ ॥ क्रियाया यद् विशेषणं तद्वाचिनो गौणान्नाम्नो द्वितीया भवति । मृदु पचति, स्तोकं पचति, मन्दं गच्छति, सुखं शेते, दुःखं जीवति, सयुक्तिकं भाषते,30 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ४१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २४७ अथो पचति शोभनं ते भार्या, अत्र “सपूर्वात् प्रथमान्ताद्वा" [२. १. ३२.] इति विकल्पो न भवति । द्वितीयार्थं च वचनं न कर्मसंज्ञार्थं, तेन कृद्योगे कर्मनिमित्ता षष्ठी न भवति; अोदनस्य शोभनं पक्ता, सुखं स्थाता, कष्टं स्थाता, चिरमासिता, तथा मन्दं गन्ता ग्रामायेत्यादौ चतुर्थी न भवति ।। ४१ ॥ 5 न्या० स०-क्रियावि० । प्रत्यासत्तेः क्रियाविशेषणं यत् समानाधिकरणं तस्मादेव द्वितीया। नन्विदं सूत्रं प्रथमाधिकारे क्रियतां, प्रथमयाऽपि सर्वाण्यपि रूपाणि सेत्स्यन्ति, उच्यते-पुण्यवांस्त्वमथो पचति शोभनं ते भार्येत्यादौ विकल्पः प्राप्नोति । ननु रूपाधुपाधिवत् क्रिया द्रव्यस्यैवोपाधिन चोपाधेरुपाध्यन्तरसम्भवः, निर्गुणा गुणाः क्रिया चेति वचनात्, तत् कथं क्रियाया विशेषणसम्भवः ? सत्यमेतत्-किन्तु सजातीयस्य 10 द्रव्योपाधेरपेक्षयोत्कर्षो दृश्यते, यथा-शुक्लः, शुक्लतरः, शुक्लतम इति, रूप-रसादीनां कला इति प्रविभागप्रचयापचयाभ्यामुत्कर्षापकर्षवृत्तित्वं भवति, तत् तूपाध्यन्तरयोगात्, तदाहुस्तद्विदः "भवेद द्विगुगणमाधुर्यमनन्तगुणकालकन् । द्रव्यं चतुर्गुणोद्भूतगन्धमाम्रफलादिकम् ।। १ ।।" यथा च रूपादीनां तथा क्रियाणामपि परस्परापेक्षया विशेषसम्भवाच्छोभनं पचतीत्येवं विशेषणयोग: स्यात, कथमन्यथा पापच्यते पतितरामित्यादौ तासामेकरूपत्वाद् यङादिप्रत्ययविधिः स्यात् । ननु चासत्त्वभूता क्रिया, तदुपाधिस्तु सुतरामसत्त्वभूतः, तत् कथं सत्त्वाभिधायिना नाम्ना प्रतिपाद्यत इति, उच्यते-धातुप्रकृतिवाच्याऽसत्त्वभूतैव क्रिया यथा क्रियाशब्देन नामरूपेण सत्त्वरूपापन्ना प्रतिपाद्यते तथोपाधिरपि20 सत्त्वरूपान्नः शोभनादिशब्देनेत्यदोषः। मन्दं गन्तेति-मन्दशब्दस्य हि कर्मत्वे 15 25 १. कथं पुनरसत्त्वभूतोऽर्थः सत्त्वरूपेण प्रकाश्यत इति चेत् ? स्ववाचकप्रकाशबलादिति ब्रमः, स्वशक्तिरियं-वाचकानां यदसत्त्वं सत्त्वरूपतया प्रकाशयन्ति; पदार्थस्य वा स्वरूपमिदमीदृशं यद् विशिष्टेन वाचकेनाभिधीयमानोऽसत्त्वरूपतया प्रकाशते, तदुक्तम् "व्यपदेशे पदार्थानामन्या सत्तौपचारिकी । सर्वावस्थासु सर्वेषामात्मरूपनिशिनी ।।१॥ स्फटिकादि यथा द्रव्यं, भिन्नरूपैरुपाश्रयैः ।। स्वशक्तियोगात् सम्बद्धं, ताद्रूप्येणैव गम्यते ।। २ ।। इति ।। ४१ ॥ 30 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ४२-४३.] “गतेर्नवानाप्ते" [ २. २. ६३. ] इत्यनेन ततश्चतुर्थी स्यात्; यदा गन्तेत्यत्र तृच् तदा । मतान्तरेण ग्रामशब्दाच्चतुर्थी, स्वमते तु “कर्मणि कृतः" [२. २. ८३.] इत्यनेन परत्वात् षष्ठ्ये व भवति, यदा तु तृन् तदा "तृन्नुदन्त." [२. २. ६०.] इति षष्ठीनिषधात् स्वमतेऽपि चतुर्थी । २. २. ४१ ।।। काला-हवनोाप्ती॥ २. २. ४२ ॥ स्वेन संबन्धिना द्रव्य-गुण-क्रियारूपेण कार्येन संबन्धो व्याप्तिः, अत्यन्तसंयोग इति यावत्, तस्यां द्योत्यायां कालेऽध्वनि च वर्तमानाद् गौणान्नाम्नो द्वितीया भवति । मासं गुडधानाः, मासं कल्याणी, मासमधीते; क्रोशं पर्वतः, क्रोशं कुटिला नदी, क्रोशमधीते । काला-ऽध्वनोरिति किम् ?, स्थाल्यां पचति । व्याप्ताविति किम् ? मासस्य मासे वा द्वयहं10 गुडधानाः, मासस्य मासे वा एकरात्रं कल्याणी, मासस्य मासे वा द्विरधीते; क्रोशस्य क्रोशे वा एकदेशे पर्वतः, क्रोशस्य क्रोशे वा एकदेशे कुटिला नदी, क्रोशस्य क्रोशे वा एकदेशेऽधीते । षष्ठ्या सप्तम्या वा अयमपवादः, तेन मासमधीते, क्रोशमधीते इत्यकर्मकत्वे इदमुदाहरणम्, कर्मत्वे "कर्मणि" [२. २. ४०.] इत्येव द्वितीया सिद्धा। भावादपीच्छन्त्यन्ये-गोदोहं वक्रः,15 गोदोहं बुद्बुदाः ।। ४२ ।। न्या० स०-काला-ऽध्वनो। स्वेन संबन्धिनेत्यत्र "द्विहेतो." [२. २. ८७.] इत्यनेन विकल्पेन षष्ठीविधानात कर्तरि ततीया। कात्स्य॑नेति सहार्थ ततीया। संबन्ध इति-पत्र काला-ऽध्वनो: कर्मतापन्नयोरिति गम्यम् । मासस्य मासे या द्वयहं गुडधाना इति-अत्र द्वयहशब्दादनेन द्वितीया, मासशब्दात् तु व्याप्त रभावान्न, एवमुत्तरेष्वपि ।20 क्रोशस्य क्रोशे वा एकदेश इति-अत्रैकदेशशब्दाद् व्याप्त: संभवेऽपि अध्वनोऽभावादनेन द्वितीया न । अकर्मकत्व इदमिति-अयमर्थः-यदा शास्त्रादिकर्मणा इङ धातुः सकर्मको विवक्ष्यते तदा "कालाऽध्व-भाव-देशं वा०" [ २. २. २३. ] इत्यस्य प्राप्तिरेव नास्ति, तत्राऽकर्मणामिति भणनात्, यदा त्वविवक्षितकर्मत्वेनाकर्मको धातुर्विवक्ष्यते तदा "काला-ध्व-भाव-देशं वा०" [ २. २. २३. ] इत्यस्य प्राप्तावप्यकर्मसंज्ञापक्ष प्राश्रीयते,25 कर्मत्वपक्षे हि "कर्मणि" [२. २. ४०.] इत्येव सिद्धेः ।। २. २. ४२ ।। सिद्धौ तुतीया ॥२. २. ४३ ॥ सिद्धौ-क्रियाफलनिष्पत्तौ, द्योत्यायां कालाऽध्ववाचिनो गौणानाम्न: Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ४४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २४६ 'टा-भ्याम्-भिस्' लक्षणा यथासंख्यमेक-द्वि-बहौ तृतीया विभक्तिर्भवति, व्याप्तौ गम्यायाम् । मासेन मासाभ्यां मासैर्वाऽऽवश्यकमधीतम्, क्रोशेन क्रोशाभ्यां, क्रोशैर्वा प्राभृतमधीतम् । सिद्धाविति किम् ? मासमधीत आचारो नानेन गृहीतः, अत्र व्याप्तिमात्रं गम्यते न सिद्धिः । भावादपीच्छन्त्यन्ये-गोदोहेन कृतः कट: । द्वितीयाऽपवादो योगः ॥ ४३ ।। न्या० स०--सिद्धौ तृ०। सिद्धाविति-यद्यपि त्रिप्रकारा व्याप्तिः प्रस्तुता तथापि सामर्थ्यात् क्रियाव्याप्त रेव सिद्धाविति विशेषणम्, यस्य ह्यारम्भस्तस्य सिद्धिः, द्रव्यगुणयोश्च सिद्धरूपयोः शब्देनाप्रतिपादनान्न तावारभ्येते, नापि निष्पद्यते इति न ताभ्यां व्याप्त: सिद्धया संबन्धः । ननु यदि क्रिया सिद्धि व्यभिचरेत् तदा युज्येत एतद्विशेषणं क्रियाव्याप्त:, न च काचित् क्रियाऽपरिसमाप्ताऽस्ति, सत्यमेतत्-किन्तु काचित् फलं संपाद्य10 समाप्यते, काचिदन्यथा, तत्र विशेषणोपादानसामर्थ्यादधिगतफला या समाप्यते तद्व्याप्तौ द्वितोयाबाधिका तृतीयेत्याह-कियाफलेत्यादि। मासेनावश्यकमिति-अत्र आवश्यकं नामअध्ययनविशेषः, अधीतमिति सिद्धं गृहीतं शिक्षितमिति यदर्थमध्ययनं तत्फलनिष्पत्तिर्गम्यते। द्वितीयापवाद इति-काला-ऽध्वनोाप्त विद्यमानत्वात् पूर्वेण द्वितीयायां प्राप्तायां तबाधनार्थों योगः, तेन यदुच्यते कश्चिद्-'मासेनाऽनुवाकोऽधीतः, क्रोशेनानुवाकोऽधीत इति करण एव15 तृतीया इतीद नारम्भणीयम्' इति तदसम्यगिति ।। २. २. ४३ ।। हेतु-कत करणेत्थम्भूतलक्षणे ॥ २. २. ४४ ॥ फलसाधनयोग्यः पदार्थों हेतुः, इम-कञ्चित् प्रकारं भूतः-पापन्नःइत्थम्भूतः, स लक्ष्यते येन स इत्थम्भूतलक्षणः; हेत्वादिष्वर्थेषु वर्तमानाद् गौणान्नाम्नस्तृतीया भवति । हेतौ-धनेन कुलम्, अन्नन वसति, विद्यया यशः,20 कन्यया शोकः, तीक्ष्णेन परशुना छिनत्ति; कर्तरि-चैत्रेण कृतम्, मैत्रेण भुज्यते; करणे-दात्रेण लुनाति, मनसा मेरु गच्छति, समेन धावति-समेन पथा ग्रामं धावतीत्यर्थः, एवं-विषमेण धावति, आकाशेन याति; आधारविवक्षायां तु सप्तम्यपि-समे धावति, विषमे धावति, आकाशे याति; इत्थम्भूतलक्षणे-अपि भवान् कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत्, चूलया परिव्राजक-25 मद्राक्षीत्; छात्रत्वादिकं प्रकारमापन्नस्य मनुष्यस्य कमण्डल्वादि लक्षणम् । इत्थम्भूतग्रहणं किम् ? वृक्षं प्रति विद्योतनम् । अपि भवान् कमण्डलुपाणि छात्रमद्राक्षीदित्यत्र तु लक्ष्यप्रधानो निर्देशो न लक्षणप्रधान इति न भवति । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्तिल घुन्याससवलिते [पा० २. सू० ४४.] "सहार्थे" [२. २. ४५. ] इत्येव तृतीया सिध्यति, लक्ष्यलक्षणभावे तु षष्ठी मा भूदितीत्थंभूतलक्षणग्रहणम् । तथा 'धान्येनार्थः, धान्येनाऽर्थी, मासेन पूर्वः, मासेनाऽवरः, असिना कलहः, वाचा निपुणः, गुडेन मिश्रः, आचारेण श्लक्ष्णः, माषेणोनः, माषेण न्यून, मासेन विकलः पुंसाऽनुजः, शङ्कुलया खण्ड: ; गिरिणा कारण:' इत्यादौ हेतौ कृत- भवत्यादिगम्यमानक्रियापेक्षया कर्तरि 5 करणे वा तृतीयेति ।। ४४ ।। २५० ] न्या० स० - - हेतु क० । फलसाधनयोग्य' इति - फलं - कार्यं तस्य साधनं - निष्पादनं करणमिति यावत्, तत्र योग्य : - सामान्यतो दृष्टसामर्थ्यः, योग्यग्रहरणमन्तरेण फलसाधन इत्युच्यमाने यः फलं साधयति क्रियाविष्टस्तत्र प्रतिपत्तिः स्यात्, योग्यग्रहणेन तु योग्यतामात्रप्रतिपत्तावकुर्वन्नपि तत्फलं हेतुरिति, योग्योऽत्र निर्व्यापारो गृह्यते सव्यापारत्वे तु 10 कर्तृत्वमेव धनादीनि कुलादिकमकुर्वन्त्यपि योग्यतामात्रेण तृतीयामुत्पादयन्ति, अन्नन वसतीत्यादावपि क्रियायामन्नादेर्योग्यतामात्रविवक्षैवेति तावेव तृतीया । इममिति - प्रत्यक्षम्, कञ्चिदिति-विवक्षितम्, प्रकारमिति थ प्रत्ययार्थः, श्रापन्न इति भूतार्थः, भूङ: प्राप्त्यर्थस्य प्रयोगात् । स लक्ष्यते येनेति - लक्षयतेः करणेऽनट् इत्थम्भूतस्य लक्षणमिति कर्मषष्ठ्या समासः, वृत्तौ स लक्ष्यते येनेति त्वर्थकथनमात्रम् । 15 " इत्थम्भूतग्रहणं किमिति - ननु इत्थम्भूतग्रहणं किमर्थम् ? यतो 'लक्षणे' इत्युक्त ेऽपि 'अपि भवान् कमण्डलुना छात्रमद्राक्षोद्' इत्याद्युदाहरणानि भविष्यन्ति, प्रथेत्थं भरणष्यन्ति भवन्तः - वृक्षं प्रति विद्योतनमित्यत्रापि तृतीया स्यात्, तन्न - यतो “भागिनि ० [२. २. ३७.] इति सूत्रेण प्रतिना योगे द्वितीया भविष्यति, एवं सति प्रतेरयोगेऽपि द्योतकत्वाद् वृक्षं विद्योतनं स्यात्, न तु वृक्षंणेति, सत्यम् - इत्थंभूतग्रहणमेवं ज्ञापयति-यत्र 20 साक्षात् प्रतिना योगो भवति तत्र “भागिनि च प्रतिपर्यनुभिः " [ २. २.३७. ] इति सूत्रेण द्वितीया भवति, अत्र तु वृक्षस्य विद्योतनमित्येव भवति । अपि भवान् कमण्डलुपारिणमिति - "विशेषरण सर्वादि०" [ ३. १. १५०. ] इति सूत्रेण विशेषणद्वारेण पाणे: पूर्वनिपाते प्राप्त "न सप्तमीन्द्वादिभ्यश्व" [ ३. १. १५५. ] इति निषेधात् कमण्डलोः प्राग्निपातः । ननु वाक्यावस्थायां कमण्डलुशब्दात् किमिति न तृतीया ? उच्यते - वाक्ये 25 श्राख्यातपदेन सामानाधिकरण्यमिति प्रधानत्वेन गौणत्वाभावात्; तहि समासे सति कथं न ? उच्यते - तदा लक्ष्य प्रधानत्वान्न; ननु समासे सति विभक्त्यन्तवर्जनान्नामत्वाभावे १. कर्त्तृ प्रयोजकस्यापि शास्त्रकृतां हेतुत्वेन व्यवहारादुभयगतत्वेऽपि लौकिक एव हेतुरिह गृह्यते, कर्तुः प्रयोजके हि कर्तृत्वात् कर्तृ द्वारेणैव तृतीयासिद्धेरित्याह - फलसाधनयोग्य इति । 30 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २५१ विहितायास्तृतीयायाः कथमत्र प्राप्ति: ?, नैवम् - "नामन्त्र्ये" [२. १. १२. ] इति प्रतिषेधसूत्रकरणात्, तद्धि हे राजन्नित्यादिषु नलोपाभावार्थम्, तन्न युक्तम् - प्राप्तिपूर्वको हि प्रतिषेधः, अत्र तु " नाम्नो नोऽनह्नः " [ २. १. १. ] इत्यनेन हे राजन्नित्यादिषु विभक्तिद्वारा नामत्वाभावे नलोपप्राप्तिरेव नास्ति, तस्माद् “नामन्त्र्ये" [ २.१.२. ] इति प्रतिषेधसूत्रकरणान्नामकार्यं प्रतिपन्नम्, ततः समासमध्येऽपि प्राप्तिः; तर्हि धर्मश्रित 5 इत्यादावपि समासे द्वितीयादिप्रसङ्गः स्यात्, तन्न - कर्मादिशक्त : संबन्धस्य च समासेनैवाभिहितत्वात् तर्हि नामार्थमात्रे प्रथमा भवतु, तदपि न - प्राख्यातपदसामानाधिकरण्ये प्रथमा; तर्हि नीलोत्पलमित्यादिषु नीलेन सहाख्यातपदसामानाधिकरण्ये कथं प्रथमा ?, उच्यते - तत्रापि सामानाधिकरण्यं नास्ति, अन्यथा सापेक्षत्वे समासोऽपि न स्यादिति ; तर्हि कमण्डलुपाणिशब्दात् उपसर्जनीभूत लक्षरणात् तृतीया प्राप्नोति, न - लक्षणस्य प्राधान्ये 10 तृतीया न लक्ष्यस्य इति न भवतीति शाकटायनः ।। २. २. ४४ ।। [पा० २. सू० ४५.] सहार्थे ॥ २. २. ४५॥ सहार्थस्तुल्ययोगो विद्यमानता च तस्मिन् शब्दादर्थाद् वा गम्यमाने गौणान्नाम्नस्तृतीया भवति । पुत्रेण सहाऽऽगतः, पुत्रेण सह स्थूलः पुत्रेण सह गोमान् शिष्येण सह ब्राह्मणः, तिलैः सह माषान् वपति, "सहैव दशभि: 15 पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी ।" अर्थग्रहणात् - पुत्रेण साकम्, पुत्रेण समम्, पुत्रेण सार्धं, पुत्रेणामा, पुत्रेण युगपद् ; अर्थाद् गम्यमाने - पुत्रेणाऽऽगत, वृद्धो यूना, न्यक्षेण करोति; एवं - कात्स्न्र्त्स्न्येन, साकल्येन, अनवयवेनेत्यादावपि सहार्थो - ऽस्ति । 'सुखेनास्ते, दुःखेन जीवति, कष्टेन क्रामति, अनायासेन करोति' इत्यादावास्यादिक्रियाभिः सह सुखादेः सहार्थोऽस्ति, क्रियाविशेषणत्वविवक्षायां 20 द्वितीयैव सुखमास्ते, दुःखं जीवति, कष्टं क्रामति, अनायासं करोतीत्यादि । गौणादित्येव-सहोभौ चरतो धर्मम्, चैत्रमैत्राभ्यां सह कृतमिति तु कर्तर्येव तृतीया ।। ४५ ।। न्या० स० -- सहार्थे । तुल्यः- साधारणोऽप्रधानस्य प्रधानेन क्रियादिना यः संबन्ध: स- तुल्ययोगः । विद्यमानता चेति ननु च विद्यमानतायामपि तुल्ययोगोऽस्त्येव, सत्तया 25 सहोभयोः सम्बन्धात्, तथाहि - "सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी ।" इति सहैव दशभिः पुत्रैः सतीति शक्यं प्रतिपत्तुम्, तत्र विद्यमानता चेति तुल्ययोगात् किं पृथग् १. आदि शब्दात् स्थौल्यादिगुणो गवादिद्रव्यं ब्राह्मण्यादि जातिग्रहः । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते निर्दिश्यते, उच्यते - विवक्षितयोगाभावात्, सहैव दशभिरित्यत्र वहनमात्रं विवक्षितं तद् गर्दभ्या एव न तत्पुत्राणां यथा पुत्रेण सहागत इत्यागमनमुभयोरपीति तुल्ययोगाद् विद्यमानता भिन्ना । न्यक्षेण सामस्त्येनेत्यर्थः ।। २. २. ४५ ।। [ पा० २. सू०४६. ] यभेदैस्तद्वदाख्या ॥ २. २.४६ ॥ यस्य-भेदिनः प्रकारवतोऽर्थस्य, भेदैः प्रकारैविशेषैः, तद्वतः - तत्प्रकार- 5 वदर्थयुक्तस्य, प्राख्या - निर्देशो भवति, तद्वाचिनो गौणान्नाम्नस्तृतीया भवति । अक्ष्णा काणः, पादेन खञ्ज:, हस्तेन कुरिणः, शिरसा खल्वाट:, प्रकृत्या दर्शनीयः, प्रायेण वैयाकरणः, गोत्रेण काश्यपः, जात्या ब्राह्मणः, जात्या सुशीलः, स्वभावेनोदारः, निसर्गेण प्राज्ञः, वर्णेन गौरः, स्पर्शेन शीतः, वचनेन मृदु:, रसेन स्वादुः, मुखेन सुरूपः, उरसा विशालः, बाहुभ्यां दृढः – सर्वत्र 10 पुरुषस्तद्वान् संबध्यते । यद्ग्रहणं प्रकृतिनिर्देशार्थम्, तत इत्याक्षेपात् । भेदग्रहणं किम् ? यष्टीः प्रवेशय, कुन्तान् प्रवेशय । तद्वद्ग्रहणं किम् ? अक्षि काणं पश्य । आख्याग्र हरणं प्रसिद्धिपरिग्रहार्थम्, तेनाऽक्ष्णां दीर्घ इति न भवति । कृत-भवत्यादिक्रियाऽध्याहारेण कर्तृ - कररणयोस्तृतीया सिद्धैव, संबन्धषष्ठीनिवृत्त्यर्थं तु वचनम् ।। ४६ ।। 15 यस्य न्या० स०-- यद्भदैः । श्रवयवावयविलक्षणसंबन्धे षष्ठीप्राप्तौ वचनम् । भेदिनश्चक्षुरादेः, भेदैः-कारणत्वादिभिः, तद्वतः चनुरादिमतः पुरुषादेस्तत्प्रकारवदर्थयुक्तस्य, कोऽर्थः ? सः प्रकारवान् प्रक्ष्यादिरर्थः तेन युक्तस्य चैत्रादेः, प्राख्या -निर्देशो भवति तद्वाचिन प्रक्ष्यादिवाचिन:, तृतीया भवतीत्यर्थः । अक्षरणा कारण : अक्षि कारणं चाकारणं च भवतीति कारणत्वभेदेन तद्वांश्चैत्रादिनिदिश्यते । शिरसा खल्वाटः खलन्ति - अपगच्छन्ति 20 केशा अस्मादिति "कपाट० " [ उणा० १४८. ] इत्यादिशब्दात् साधुः । प्रकृत्या दर्शनीयः प्रकृतिः - स्वभावः, तद्भ ेदः - दर्शनोयत्वम्, स्वभावो हि दर्शनीयत्वमदर्शनीयत्वं च भवति, तद्भ ेदेन दर्शनीय इति प्रकृतिमानाख्यायते । प्रतीति " तन्व्यधि० " [ ५. १. ६४.] इति - प्रायः, तद्भ ेदो वैयाकरणत्वं तार्किकत्वं चेति तद्भदेन वैयाकरण इति तद्वान् निर्दिश्यते । ननु च 'प्रकृत्या दर्शनीयः, प्रायेण वैयाकरण:' इति युक्तः प्रयोगः, दर्शनी - 29 यत्वं हि प्राकृतं वैकृतं चास्ति, वैयाकरणत्वं च प्रायिकमन्यच्च तत्रेतरव्युदासार्थं प्रकृत्या प्रायेणेति चार्थवं कारण इत्यादिप्रयोगे त्वक्ष्णेत्यादिरव्यभिचारेण प्रतीतेरयुक्तः प्रयोगोऽर्थस्य गतत्वात्, उच्यते - लोकोऽत्र पर्यनुयोक्तव्यः योऽर्थवतोऽनर्थकतामनपेक्ष्य प्रतीतेऽपि शब्दान् प्रयुङ्क्त े, लोके च न सर्व एवं सूक्ष्मेक्षिकया शब्दान् प्रयुङ्क्त े यद्वा सूक्ष्मेक्षिकया प्रयोगेऽपि उपचरितार्थनिवृत्तिरक्ष्णेत्यादिप्रयोगे प्रयोजनं - सत्यमयं कारणो न तूपचारेणेति 130 , Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ४७-४८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २५३ 10 गोत्रेण काश्यपः काश्यपो माठर इति च गोत्रभेदः, तेन गोत्रमानाख्यायते-काश्यप इति । भेदग्रहणं किमिति-यदि भेदग्रहणं न क्रियते तदा 'येन तद्वदाख्या' इत्युच्यमाने यष्टी: प्रवेशयेत्यत्रैव स्यात्, अत्र हि यष्ट्यादिना तद्वानुपचारेणाख्यायते, अक्षणा काण इत्यादौ च न स्यात्, नह्यत्राक्ष्यादिशब्देन तद्वान्निदिश्यते । अक्षि कारणं पश्येति-काणशब्देन हि अक्षिभेदेनाक्ष्याख्यायते, न तद्वान् चैत्रादिः । षष्ठीनिवृत्त्यर्थं तु वचनमिति-तथापि न 5 विधेयमेतत् सूत्रं, मा भूत् कर्बादौ तृतीया, इत्थंभूतलक्षणत्वादक्ष्यादेर्भविष्यति, यदाह "इत्थंभूतस्य काणस्य, लक्षणं ह्यक्षि बुध्यते । ततस्तृतीया तेनैव, तत्र सूत्रेण सिध्यति ।। १ ।। अत्रोच्यते-अध्यादेरित्थंभूतस्य काणादिलक्ष्यस्य भेदाभावाल्लक्षणत्वानुपपत्तिः, यदाह उद्द्योतकर: "लक्ष्यलक्षणभावो हि, भेदे सत्युपपद्यते । यथा छात्र-कमण्डल्वोश्छात्रोपाध्याययोर्यथा ।। १ ।। लक्षणादातपत्रादेस्तत्र लक्ष्यं तु भिद्यते । इह त्वेवमसंभाव्यमभेदादक्षि-काणयोः ।। २ ॥ यत् तत् कारणं तदेवाक्षि, लक्ष्यते तत्र तेन किम् ?। तत् काणः पुरुष इत्येतत् कथं तूपचारतः ।। ३ ।।" २. २. ४६ ।।। कृताः ॥ २. २. ४७ ॥ कृत इत्येवंप्रकारैनिषेधार्थैर्युक्ताद् गौणान्नाम्नस्तृतीया भवति । कृतं तेन, भवतु तेन, अलमतिप्रसङ्गेन, किं गतेन । कृत, कृतम्, भवतु, अलम् किम् ; एवंप्रकाराः कृतादयः ।। ४७ ।।। 20 काले भानवाsधारे ॥२. २. ४८ ॥ काले वर्तमानान्नक्षत्रवाचिनो गौणान्नाम्न प्राधारे तृतीया वा भवति । पुष्येण पायसमश्नीयात्, पुष्ये पायसमश्नीयात् ; मघाभिः पललौदनम्, मघासु पललौदनम् । काल इति किम् ?, पुष्येऽर्कः, मघासु ग्रहः, अध्वनि मा भूत् । चित्रासु जाता चित्रा माणविका, तस्यां-चित्रायामास्ते, अत्र माणविकायां मा25 भूत् । भादिति किम् ? "तिलपुष्पेषु यत् क्षीरं, तिलच्छेदेषु यद् दधि ।” अत्र तिलषुष्प-तिलच्छेदशब्दौ स्वाऽवच्छिन्ने काले वर्तेते इति प्राप्नोति । आधार 15 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] बृहद्वत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ४६.] इति किम् ? अद्य पुष्यं विद्धि । 'स्थाल्या पच्यते' इत्यादिवत् प्राधारस्य । करणविवक्षायां तृतीया सिध्यति संबन्धविवक्षायां तु षष्ठी मा भूदिति वचनम् ॥ ४८ ॥ न्या० स०--काले भा०। स्वार्थिकप्रत्यया नातिवर्तन्ते प्रकृतिलिङ्गवचनानीति कालेऽपि नक्षत्रशब्दो नक्षत्रलिङ्गसंख्य एव । पुष्येण पायसमश्नीयात् पुष्येण चन्द्रयुक्त - 5 नेत्यादिप्रक्रियायां पुष्यशब्दः काले वर्तते, पयसि संस्कृतं भक्ष्यं “संस्कृते भक्ष्ये" [ ६. २. १४०. ] अण, पयसा संस्कृतमिति तु कृते तृतीयाधिकारनिवेशितेन "संस्कृते" [ ६. ४. ३.] इति सूत्रेण इकणेव भवति । अध्वनि मा भूदिति-अत्र विशिष्टतारकावछिन्न क्षेत्रे पुष्य-मघाशब्दौ वर्तेते, न काले इति। चित्रा माणविका इति-यद्यपि चित्राशब्दो माणविकायां वर्तमानः कालमप्युपाधित्वेनोपादत्ते, यतश्चित्रासु जाता या सा चित्रा10 इति विशेषणत्वेन प्रतीयमानत्वात् कालेऽपि वृत्तिः संभाव्यते, तथापि तत्र कालस्य गौणत्वात् गौण-मुख्ययोश्च मुख्य कार्यसंप्रत्ययात् न भवति। स्वावच्छिन्ने काले पुष्पविशिष्ट: कालः, कोऽर्थः ?-यत्र काले तिलाः पुष्यन्ति तिलानां छेदश्च भवतीत्यर्थः । "तिलपुष्पेषु यत् क्षीरं, तिलच्छेदेषु यद् दधि । 15 तिलवापेषु यत् तोयं, तेन वृद्धो न जीवति" ॥ १ ॥ इति सुश्रुतमतम्, सारोद्धारमते पूर्वाद्धं तदेव, उत्तरार्द्ध तु "माघमासे च यद् भुक्त, तेन वृद्धो विनश्यति ।" कोऽर्थः ? पुनर्नवो भवति ।। २. २. ४८. ।। प्रसितोत्सुका-अवबधैः ॥ २. २. ४६ ॥ एतैर्युक्तादाधारे वर्तमानाद् गौणानाम्नस्तृतीया वा भवति । केशैः प्रसितः, केशेषु प्रसितः; प्रकर्षण सितो बद्धः प्रसितः, नित्यप्रसक्त इत्यर्थः; गृहेणोत्सुकः, गृहे उत्सुकः; केशैरवबद्धः, केशेष्ववबद्धः । आधार इत्येव-मनसा प्रसितः, मनसोत्सुकः, मनसाऽवबद्धः । करणतृतीयाया विकल्पो मा भूत् । । अवबद्धोत्सुकशब्दसाहचर्यात् तदर्थ एव प्रसितशब्दोऽत्र गृह्यते । पूर्ववत् षष्ठी-25 बाधनार्थं वचनम् । बहुवचनमेक-द्वि-बहाविति यथासंख्यनिवृत्त्यर्थम् ॥ ४६ ।। न्या० स०--प्रसितो०। प्रसितशब्दोऽयं गुणवचनोऽप्यस्ति-प्रकृष्टःसितः शुक्ल इति, क्रियावचनोऽप्यस्ति-यः स्यतेः सिनोतेर्वा भवतीति, तत्रोत्सुकाऽवबद्धशब्दसाहचर्यात् 20 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ५०-५१ . ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २५५ तदर्थः सिनोतिरेव क्तान्तो गृह्यत इत्याह- प्रकर्षणेत्यादि । ननु प्रसितशब्दस्य शुक्लगुणवचनस्य क्रियार्थस्य च संभवादुभयार्थस्यापि ग्रहणप्रसङ्ग इत्याह-अवबद्धोत्सुकसाहचर्यादिति ।। २. २.४६ ।। व्याप्ये दिवद्रोणादिभ्यो वीप्सायाम् ॥ २. २. ५० ।। व्याप्ये वर्तमानेभ्यो द्विद्रोणादिभ्यो गौणनामभ्यो वीप्सायां तृतीया वा 5 भवति । द्रोणेन धान्यं क्रीणाति, द्विद्रोणं द्विद्रोणं क्रीणाति, तृतीया वीप्सायां विहितेति तृतीयान्तस्य पदस्य द्विर्वचनं न भवति, द्वितीया तु कर्मणि विहिता न विप्सायामतस्तदन्तस्य द्विर्वचनं भवति । एवं पञ्चकेन पशून् क्रीणाति, पञ्चकं पञ्चकं क्रिणाति; सहस्र ेणाऽश्वान् क्रीणाति, सहस्रं सहस्र क्रीणाति, द्विद्रोणादयः प्रयोगगम्याः ।। ५० ।। ,, 10 न्या० स० - व्याप्ये द्वि० । द्विद्रोणेन धान्यं क्रोरणाति, द्वौ द्रोणौ मानमस्य धान्यस्य "मानम् " [ ६. ४. १६६. ] इतीकरण, तस्य " अनाग्न्य” [६. ४ १४१.] इति लुप्, यद्वा द्वौ द्रोणौ मेयावस्य धान्यस्य, कोऽर्थ : ? अनेन धान्येन द्वौ द्रोणौ मीयेते, तदा इकरण नागच्छति मेयवाचित्वाद् द्रोणस्य, यद्वा द्वयोर्द्रोणयो: समाहारो द्विद्रोणम्, पात्रादित्वात् स्त्रीत्वाभाव:, अत्र द्रोणो व्रीहिराढको व्रीहिरितिवत् द्रोणशब्दो मेयवृत्ति:, 15 तेन धान्यस्य समानाधिकरणो द्विद्रोणशब्दः । एवं पञ्चकेन पशून् क्रीणातीति-पश्ञ्च ेति संख्या मानमस्य "सख्यायाः संघसूत्र ० " [ ६. ४. १७१.] इति यथाविहितः “संख्याडते: ० ' [ ६. ४. १३०. ] इति कः, पञ्चकं पञ्चकं संघ पशून् क्रीणातीत्यर्थः, पञ्चकं पञ्चकमित्यत्र पशुसामानाधिकरण्येऽपि पञ्चकशब्दाद् ब्राह्मणाः संघ इतिवद् एकवचनम् । द्विद्रोणादय इति - प्रदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वाद् येभ्यो वीप्सायां प्रयोगे तृतीया दृश्यते ते द्विद्रोणादय:, 20 न तु गर्गादिवत् सन्निविष्टा इति ।। २. २. ५० ।। " समो ज्ञोऽस्मृतौ वा ।। २. २. ५१ ।। अस्मृतौ वर्तमानस्य संपूर्वस्य जानातेर्यद् व्याप्यं तत्र वर्तमानाद् गौणान्नाम्नस्तृतीया वा भवति । मात्रा संजानीते, मातरं संजानीते । सम इति किम् ? मातरं जानाति । ज्ञ इति किम् ? मातरं संवेत्ति । अस्मृताविति 25 किम् ? मातरं संजानाति, मातुः संजानाति ; स्मरतीत्यर्थः । व्याप्य इत्येव - मातरं स्वरेण संजानीते, करणे विकल्पो न भवति । मातुः संज्ञाति कृतिपरत्वात् षष्ठी । नवाऽधिकारे वाग्रहणमुत्तरत्र तन्निवृत्त्यर्थम् ।। ५१ ।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ५२-५३.] न्या० स०-समो ज्ञो० । संजानीते इति-“सम्प्रतेरस्मृतौ" [३. ३. ६६.] इत्या- । त्मनेपदम् ।। २. २. ५१ ॥ दामः संप्रदामेऽधयं आत्मने च ॥ २. २. ५२ ॥ संपूर्वस्य दामः संप्रदानेऽधर्म्यरूपे वर्तमानान्नाम्नस्तृतीया भवति, तत्संनियोगे च दाम आत्मनेपदं भवति । दास्या संप्रयच्छते, वृषल्या संप्रयच्छते, 5 कामुकः सन् द्रव्यं दास्यै ददातीत्यर्थः । दाम इति किम् ? दास्य संददाति । संप्रदान इति किम् ? द्रव्यं वृषल्या संप्रयच्छते, कर्मणि मा भूत् । अधर्म्य इति किम् ? पत्न्यै संप्रयच्छति । सम इत्येव-दास्यै प्रयच्छति । इह संपूर्वस्य दामः प्रशब्दव्यवधानमन्तरेण प्रयोगाऽभावात् तद्वयवधानेऽपि भवति ।। ५२ ।। 10 न्या० स०--दामः सम्प्र० । नन्वनेन ब्राह्मणेन दानं प्रवृत्तमित्यादिवत् सम्प्रदानस्य करणत्वविवक्षायां 'दास्या संप्रयच्छते इत्यादौ तृतीयोत्पत्तेः किमर्थमिदमारभ्यते, यद्वा सहार्थे इयं तृतीया, तथाहि-दास्यै स्वयं धनं ददाति, साप्यात्मानं तस्मै ददातीति, दानपूर्वके सम्भोगे दाम् वर्तते, दत्त्वा दास्या सह सम्भुङक्त इति, एवं चात्र क्रियाव्यतिहारोपपत्तेस्तद्वारेणैवात्मनेपदम्, अत्रोच्यते-एवं हि धात्वन्तरेऽपि विनापि समुपसर्गेणा-15 धर्म्यत्वाभावेऽपि स्यात्, द्रव्यं वृषल्या सम्प्रयच्छत इत्यत्रापि सम्प्रदानविवक्षायां चतुर्थी स्यात्, अत इह चतुर्थीप्रत्युदाहरणेषु च तृतीया मा भूदित्येवमर्थमिदं वक्तव्यम्, विवक्षयापि न सिध्यति, विवक्षानियमो हि विना वचनेन दुरधिगम इतीदमारभ्यत इति । ननु सम इति परदिग्योगलक्षणा पञ्चमी, ततश्च “पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य" [७. ४. १०४. ] तच्चानन्तरस्येति प्रशब्दस्य व्यवधाने न प्राप्नोतीत्याह-इह सम्पूर्वस्येति । यद्वा सम इति पूर्वत्र 20 पञ्चम्यन्तमपीह लक्ष्यवशात् षष्ठ्यन्तं विज्ञायते, तत्र व्यवधानेऽपि समा द्योतमानार्थत्वाद् दामः सम्बन्धोपपत्तेर्भवत्येव विधिः ।। २. २. ५२ ।। चतुर्थी ॥२. २. ५३ ॥ संप्रदाने वर्तमानाद् गौणानाम्नो डे-भ्यां-भ्यस्-लक्षणक-द्वि-बहौ। यथासंख्यं चतुर्थी विभक्तिर्भवति । द्विजाय गां ददाति, शिष्याभ्यां धर्ममुप-25 दिशति, मुनिभ्यो भिक्षां ददाति, पत्ये शेते, राज्ञे विज्ञपयति, राज्ञे दण्डं ददाति । संप्रदान इत्येव-अजां नयति ग्रामम् ।। ५३ ।। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ५४-५५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः २५७ तादर्थ्ये ॥ २. २. ५४ ॥ किञ्चिद् वस्तु संपादयितुं यत् प्रवृत्तं तत् तदर्थम्, तस्य भावे तादर्थ्ये— संबन्धविशेषे द्योत्ये गौरणान्नाम्नः षष्ठ्यपवादश्चतुर्थी भवति । यूपाय दारु, कुण्डलाय हिरण्यम्, रन्धनाय स्थाली, अवहननायोलूखलम् ।। ५४ ।। न्या० स० -- तादर्थ्ये । यूपाय दारु प्रत्र यूपादिहेतुभूतस्य दार्वादेर्हेतुतृतीया न, 5 अगौरणत्वात् ।। २. २. ५४ ।। रुचिकृप्यर्थधारिभिः प्रेयविकारोत्तमर्णेषु ॥ २. २. ५५ ।। रुच्यर्थेः कृप्यर्थैर्धारिणा च धातुना योगे यथाक्रमं प्रेये विकारे उत्तमर्णे च वर्तमानाद् गौणान्नाम्नश्वतुर्थी भवति, वचनसाम्यं यथासंख्यार्थम् ; बहुवचनं तु एक-द्वि-बहाविति यथासंख्याऽभावार्थम् । रुच्यर्थेः प्रेये - प्रीयमाणे - जिनदत्ताय 10 रोचते धर्मः, गुरुदत्ताय स्वदते दधि; तस्याभिलाषमुत्पादयतीत्यर्थः । प्रेय इति किम् ? चैत्राय रोचते मोदको माधुर्येण, माधुर्यशब्दात् न भवति । प्रेयसंबन्धादभिलाषकरणार्थस्य रुचेर्ग्रहणम्, तेनेह न भवति - सर्वेषामेतद् रोचते, कथं वा तवेति, प्रतिभातीत्यर्थः । कथं रोचते मम घृतं सह मुद्गैः शालयो दधिशरं कुकुराश्च ?, घृतमेव ममापि रोचते शृतशीतं च सशर्करं पयः ?, 15 संबन्धमात्रविवक्षायां षष्ठयव भविष्यति । कृप्यर्थैर्विकारे - मूत्राय कल्पते यवागूः, उच्चाराय संपद्यते यवान्नम्, श्लेष्मरणे जायते दधि, तद्विकाररूपमापद्यत इत्यर्थः । विकार इति किम् ? चैत्रस्य कल्पन्ते धनानि संपद्यन्ते शालयः । गौणादित्येव - मूत्रमिदं संपद्यते यवागूः, उच्चारोऽयं संपद्यते यवान्नम्, शृङ्गाच्छरो जायते, गोमयाद् वृश्चिकः प्रभवति, मूत्रं संपद्यते यवाग्वाः ; 20 यवाग्वा इति च पञ्चमी अपायविवक्षायाम् । धारिणोत्तमर्णे - चैत्राय शतं धारयति । उत्तमर्ण इति किम् ? शतशब्दान्न भवति । उत्तमर्णो धनिकः ।। ५५ । न्या० स० -- रुचि - क्लृप्यर्थ० । सम्बन्धमात्रेति श्रत्र सत्यपि प्रेयत्वे पेयता न विवक्षिता, अपि तु तत्क्रियासंबन्धमात्रमिति न चतुर्थी । मूत्राय कल्पते यवागूः यवागू: 25 कर्त्री संपद्यते, किं संपद्यते ? मूत्र मूत्ररूपमित्यर्थः । ननु मूत्र - यवागूशब्दयोर्द्वयोरपि Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते २५८ ] [पा० २. सू० ५६-५७.] संपद्यते इति क्रियया सह सम्बन्धाद् गौणत्वाभावात् कथं मूत्रशब्दाच्चतुर्थी ?, उच्यते - एतत्सूत्रसामर्थ्यादेवात्र गौणमुख्यभावेन क्रियासंबन्धात् मूत्रस्य गौणत्वम्, तथाहि प्रथमं यवाग्वा सह क्रियायाः संबन्ध: पश्चान्मूत्रस्येति । गौणादिति व्यावृत्त्युदाहरणे तु मूत्रादेविशेष्यार्थं मूत्रादिकं प्रथमं क्रियया संबन्धनीयम्, यद्वा मूत्रायेति कोऽर्थः ? मूत्ररूपविकारसंबन्धित्वेन यवागूः संपद्यत इत्यर्थः । तद्विकाररूपमिति श्रत्र तस्य यवाग्वादेर्विकारस्तस्य 5 रूपं कर्मतापन्नमापद्यते-प्राप्नोति, मूत्रं कर्तृ, अकर्मकोऽपि पदिस्तदा तद्विकाररूपं मूत्रं कर्तृ आपद्यते सम्पद्यते इत्यर्थः, अत्र प्रथमायाः प्राप्तौ चतुर्थी । चैत्रस्य कल्पन्ते इत्यत्र चैत्रो धनादीनां स्वामी न विकार इति न भवति । मूत्रं संपद्यते यवाग्वा इति यवाग्वा अपगच्छदिदं मूत्रं संपद्यत इत्यपायः । चैत्राय शतं धारयतीति - "घृङ त् अवस्थाने” ध्रियतेतिष्ठति स्वरूपान्न प्रच्यवते शतं कर्तृ, तत् ध्रियमाणं प्रयुङ्क्त इति णिग्, अपरपठि-10 तश्चुरादौ वा । उत्तमरण धनिक इति-यो हि धनं प्रयुङ्क्त स लोके उत्तमत्वेन प्रसिद्धः, यस्तु गृह्णाति सोऽधमत्वेन, उत्तमाधमाभ्यां संबद्धमृणमपि तथैव व्यपदेष्टव्यमित्युत्तममृणं यस्येति कार्यन् ।। २. २. ५५ ।। प्रत्याङः श्रु वाऽर्थिनि ॥। २. २. ५६ ॥ 15 प्रत्याङ्भ्यां परेण शृणोतिना युक्तादर्थनिग्रभिलाषुके वर्तमानाद् । गौणान्नाम्नश्र्चतुर्थी भवति । द्विजाय गां प्रतिशृणोति, द्विजाय गामाशृणोति ; याचितोऽयाचितो वा प्रतिजानीते इत्यर्थः । प्रत्याङ इति किम् ? चैत्रस्य शृणोति । प्रथिनीति किम् ? द्विजाय गां प्रतिशृणोतीत्यत्र गवि मा भूत् ।। ५६ ।। न्या० स०-- प्रत्याङः । श्रथनीति - श्रर्थयते इत्यर्थी - अभिलाषुकः, "अर्थरि 20 उपयाचने" इति पाठात् । याचितोऽयाचितो वेति - प्रधमत्वाद् याचमाने महत्त्वादयाचमानेऽपि केनाप्याकारादिना स्वाभिलाषं समर्पयति द्विजादौ प्रमिति तस्य प्रतिजानीतेप्रतिपद्यते, अभ्युपगच्छतीत्यर्थः ।। २. २. ५६ ।। प्रत्यनोर्गुणाssख्यातरि ॥ २. २. ५७ ।। प्रत्यनुभ्यां परेण गृणातिना योगे प्राख्यातरि वर्तमानाद् गौणान्नाम्न-25 चतुर्थी भवति । आचार्याय प्रतिगृणाति, आचार्यायानुगृणाति ; प्राचार्योक्तमनुवदति, प्रशंसन्तं वा प्रोत्साहयतीत्यर्थः । प्रत्यनोरिति किम् ? प्राचार्यं गृणाति । प्रख्यातरीति किम् ? प्राचार्याय मनसा प्रतिगृणातीत्यत्र मनसि मा भूत् ।। ५७ ।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ५८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २५६ ___ न्या० स०--प्रत्यनो० । प्राचार्य गणातीति-प्राचष्टे इत्यर्थः, अत्राचार्यमाचक्षाणमिति प्रतिपत्तव्यम्, अन्यथा द्वयङ्गविकलत्वं स्यात् ।। २. २. ५७ ।। यद्वीक्ष्ये राधीक्षी ॥ २. २. ५८ ॥ वीक्ष्यं-विमतिपूर्वकं निरूपणीयम्, विप्रश्नविषय इति यावत्, तद्विषया क्रियापि वीक्ष्यम्, यत्संबन्धिनि वीक्ष्ये राध्यतिरीक्षतिश्च वर्तते तस्मिन् वर्तमानाद् 5 गौणान्नाम्नः सामर्थ्याद् राधीक्षिभ्यामेव युक्ताच्चतुर्थी भवति । मैत्राय राध्यति, मैत्रायेक्षते; तस्य दैवं पर्यालोचयतीत्यर्थः । स्त्रीभ्य ईक्षते-स्त्रीणामभिप्रायः कीदृश इति विमतिपूर्वकं निरूपयतीत्यर्थः । "ईक्षितव्यं परस्त्रीभ्यः स्वधर्मो रक्षसामयम्" परस्त्रीणामभिप्राये यत् संदेहादीक्षितव्यं-निरूपयितव्यं-किमेवं करोषि नवेति, तद् रक्षसां कुलधर्मो न दोषः । दैवे एवेक्ष्ये इच्छन्त्येके ।10 राधीक्ष्यर्थधातुयोगेऽपीच्छन्त्येके, मैत्राय राधयति, साधयति, पश्यति, जानीत इति चोदाहरन्ति । यद्ग्रहणं किम् ? मैत्रस्य शुभाशुभमीक्षते, शुभाऽशुभात् मा भूत्, मैत्रात् तु राधीक्षिभ्यां योगाभावादेव न भवति । वीक्ष्यग्रहणं किम् ? मैत्रमीक्षते । राधीक्ष्यर्थविषयाद् विप्रष्टव्यादिच्छत्यन्यः-लाभाय राध्यति, लाभाय राधयति, लाभाय साधयति, लाभायेक्षते, लाभाय पश्यति ।। ५८ ।। 15 न्या० स०--यद्वीक्ष्ये। विविधा-विशेषानुपलम्भादेकस्मिन् वस्तुनि सादृश्यादिनिमित्तादनेकपक्षालम्बनानवधारणात्मिका मति:-विमतिः, संदेहज्ञानमिति यावत्, तत्पूर्वक निरूपरणीयम् अदृष्टमिष्टानिष्टफलं पुण्यपापरूपम्, अप्रत्यक्ष पराभिप्रायादिकं वा, तस्यैव निरूपणाहत्वात् । पुनः स्पष्टयति-विप्रश्नविषय इति-विचारविषयो देवादिलाभालाभादिर्वा । क्रियाऽपीति-पर्यालोचनादिका। तस्य दैवमिति-शुभाशुभमित्यर्थः। 20 "ईक्षितव्यं परस्त्रीभ्यः, स्वधर्मो रक्षसामयम् । संक्रुध्यसि मृषा किं त्वं, दिक्षु मां मृगेक्षणे ! ।।१।।" दैवे एवेक्ष्ये इति-न त्वभिप्रायादावित्यर्थः । एके इति-शाकटायनाः । एके इतिचान्द्राः । राधिरपरपठितश्रादिणिगन्तो वा । साधिणिगन्त एव । राधीक्षिभ्यां योगाभावादिति-एवं तहि मैत्राय राध्यतीत्यादावपि संबन्धाभावान्न स्यात्, न-तत्र मैत्रेणेव25 सह राधीक्ष्योः संबन्धो विवक्षितोऽन्यस्याश्रुतत्वात् । अन्य इति-रत्नमतिबौद्धः ।। २.२.५८ ।। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ५६-६०.] उत्पातेन ज्ञाप्ये ॥ २. २. ५६ ॥ उत्पातः-आकस्मिकं निमित्तम्, तेन ज्ञाप्ये-ज्ञाप्यमानेऽर्थे वर्तमानाद् गौरणान्नाम्नश्चतुर्थी भवति । "वाताय कपिला विद्य दातपायाऽतिलोहिनी । पीता वर्षाय विज्ञेया, दुभिक्षाय सिता भवेत् ॥ १ ॥" वातादयः स्वकारणेभ्य एवोत्पद्यन्ते, विद्यु ता तु ज्ञाप्यन्त इति तादर्थ्य नास्ति । उत्पातेनेति किम् ? राज्ञ इदं छत्रमायातं विद्धि राजानम् । षष्ठयपवादो योगः ।। ५६ ।। न्या० स०--उत्पातेन । उत्क्रम्य प्रसिद्धं निमित्तं पततीति बाहुलकात् सोपसर्गादपि "वा ज्वलादि" [५. १. ६२.] इति णः । निमित्तं द्विधा-जनकं ज्ञापकं च,10 यत्र तादर्थ्यं तत्र जनक एव हेतुः, यथा-रन्धनाय स्थाली, अत्र तु तादर्थ्याभावात् ज्ञापक एव हेतुः । षष्ठयपवाद इति-ज्ञाप्यज्ञापकसंबन्धविवक्षायामित्यर्थः ।। २. २. ५६ ।। श्लाघ-हनु-स्था-शपा प्रयोज्ये ॥ २. २. ६० ॥ ज्ञाप्य इत्यनुवर्तते, श्लाघादिभिर्धातुभिर्युक्ताद् ज्ञाप्ये प्रयोज्येऽर्थे वर्तमानाद् गौणान्नाम्नश्चतुर्थी भवति । मैत्राय श्लाघते, मैत्राय ह नुते, मैत्राय15 तिष्ठते, मैत्राय शपते, श्लाघा-ह्नव-स्थान-शपथान् कुर्वाण प्रात्मानं परं वा ज्ञाप्यं जानन्तं मैत्रं प्रयोजयतीत्यर्थः । प्रयोज्य इति किम् ? मैत्रायाऽऽत्मानं श्लाघते, मैत्राय शतं ह नुते; आत्मादौ मा भूत् । केचित् त्वप्रयोज्यो यो ज्ञाप्यो य आख्यायते तत्रैवेच्छन्ति ।। ६० ॥ न्या० स०---इलाघह नु०। “युजण संपर्चने' प्रयोज्यत इति “य एच्चातः"20[५. १. २८.] इति ये, प्रयोक्तु शक्य इति वा "शक्ताहे." [५. ४. ३५.] इति घ्यरिण "निप्राद् युजः शक्ये" [४. १. ११६.] इति गत्वाभावे-प्रयोज्यः। द्वितीयाप्राप्तौ वचनम् । मैत्राय तिष्ठते अत्र “ज्ञीप्सास्थेये" [ ३. ३. ६४. ] आत्मनेपदम्, स्थानेनात्मानं ज्ञापयतीत्यर्थः मैत्राय शपते "शप उपलम्भने" [३. ३. ३५.] आत्मनेपदम्, वाचा मात्रादिशरीरस्पर्शनेन नाहं जाने न मया कृतमिति मैत्रं ज्ञापयतीत्यर्थः । केचित् त्विति-भोज-25. शाकटायनाः। यस्तु मैत्रादिर्जानन् ज्ञाप्यते तत्र न भवतीति, तथा च अन्येषां ग्रन्थे Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६१-६२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६१ द्विकर्मकोऽयं ज्ञापिः, तत्र केचिद् यस्मै आख्यायते तत् ज्ञाप्यं संप्रदानत्वेन प्रतिपन्नाः, केचिद् य आख्यायते तमिति, तन्मते-मैत्रमात्मने श्लाघते इत्युदाहरणम् । २. २. ६० ॥ तुमोऽर्थे भाववचनात् ॥ २. २. ६१ ॥ क्रियायां क्रियायामुपपदे तुम् वक्ष्यते, तस्याऽर्थे ये भाववाचिनो घञादयः प्रत्यया विधास्यन्ते तदन्ताद् गौणानाम्नः स्वार्थे चतुर्थी भवति । 5 पाकाय व्रजति, पक्तये व्रजति, पचनाय व्रजति, इज्यायै व्रजति; पक्त यष्टुं वा व्रजतीत्यर्थः । तादर्थ्यस्य प्रत्ययेनैवोक्तत्वात् चतुर्थी न प्राप्नोतीति शेषषष्ठी हेतुहेतुमद्भावविवक्षायां वा हेतुतृतीया स्यादिति चतुर्थ्यर्थं वचनम् । तुमोऽर्थे इति किम् ? पाकस्य, त्यागस्य, पाकेन वर्तते, त्यागेन वर्तते, अध्ययनेन वसति; नाऽत्र क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे प्रत्ययो विहितः, किं तहि ? भावमात्रे,10 पश्चात् तु क्रिययाऽभिसंबन्ध इति हेतौ तृतीयैव भवति । भाववचनादिति किम् ? पक्ष्यतीति गां दास्यतीति च पाचकस्य व्रज्या, गोदायस्य परिसर्या । तुम इति व्यस्तनिर्देश उत्तरार्थः ।। ६१ ।।। न्या० स०--तुमोऽर्थे। भवनं भावः “भावाकोंः " [ ५. ३. १८. ] घन्, वक्तीति ब्रवीतीति वा “रम्यादिभ्यः" [ ५. ३. १२६. ] कर्तर्यनट् , भावस्य वचनो15 भाववचनस्तस्मात् । पाकायेति-पक्तु पक्ष्यते इति वा वाक्ये "भाववचनाः" [५. ३. १५.] इति घञादयः ।। २.२.६१ ॥ गम्यस्याये ॥२. २. ६२ ॥ यस्यार्थो गम्यते न च शब्दः प्रयुज्यते स गम्यः, तस्य तुमो यदाप्यं-व्याप्यं तत्र वर्तमानाद् गौणानाम्नश्चतुर्थी भवति । द्वितीयाऽपवादः । एधेभ्यो व्रजति,20 फलेभ्यो व्रजति; एधान् फलानि चाऽऽहर्तुं व्रजतीत्यर्थः । गम्यस्येति किम् ? एधानाहर्तुं व्रजति । प्राप्य इति किम् ? एधेभ्यो व्रजति शकटेन, करणात् मा भूत् । तुम इत्येव-प्रविश पिण्डी द्वारम्, अत्र भक्षयेति पिधेहीति च गम्यम् ॥ ६२ ॥ न्या० स०--गम्यस्या०। शब्दोऽर्थवानप्यप्रयुज्यमानः प्रयुज्यमानश्च भवति,25 अप्रयुज्यमानश्वार्थ-प्रकरण-शब्दान्तरसन्निधानः प्रतीयमानार्थः, स च गम्य इत्युच्यते । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ६३-६४.] एधेभ्यो व्रजति ननु एघार्थं व्रजतीति तादर्थ्य एव चतुर्थी भविष्यति, किमनेन ? । उच्यते-व्रज्याया एधाहरणार्थतायां विश्रामोऽस्ति, न त्वेधार्थतायामिति न सिध्यति ।। २. २. ६२ ।। गतेनवानाप्ते ॥ २. २. ६३ ॥ गतिः-पादविहरणं, तस्या गतेराप्येऽनाप्ते-असंप्राप्ते वर्तमानाद् 5 गौणान्नाम्नश्चतुर्थी वा भवति । ग्रामं गच्छति, ग्रामाय गच्छति; नगरं व्रजति, नगराय व्रजति; विप्रनष्टः पन्थानं गच्छति, पथे गच्छति, उत्पथेन पन्थानं पथे वा गच्छति । गतेरिति किम् ? आदित्यं पश्यति, मेरु शृणोति, स्त्रियं गच्छति; मनसा मेरु गच्छतीत्यत्र ज्ञानार्थो गमिः । आप्य इत्येवग्रामादागच्छति । अनाप्त इति किम् ? पन्थानं गच्छति । कृद्योगे तु परत्वात्10 षष्ठ्य व भवति-ग्रामस्य गन्ता । द्वितीयैवेत्यन्ये-ग्रामं गन्ता । चतुर्थी चेत्यन्ये ग्रामं गन्ताग्रामाय गन्तेति ।। ६३ ।। न्या० स०--गतेनवा०। गतिशब्दस्य ज्ञानाद्यर्थत्वेऽप्यनाप्त इति वचनात् पादविहरणरूपैव गतिगृह्यते, ज्ञानादिव्याप्यस्याऽनाप्तत्वाऽसंभवादित्याह-गतिः पादविहरणमिति । स्त्रियं गच्छतीति-भजनार्थोऽत्र गमिर्न गत्यर्थ इति न चतुर्थी । पन्थानं15 गच्छतीति-अनाप्त-असंप्राप्त कर्मणि चतुर्थी, पन्थास्तु संप्राप्त इति चतुर्थ्यभावः । द्वितीयवेत्यन्य इति-सारसंग्रहकारादयः, ते हि-“गत्यर्थकर्मणि द्वितीया-चतुथ्यौं' इति सूत्रेण कर्मणि द्वितीयायां प्राप्तायां तदपवादो वैकल्पिकी चतुर्थ्यारभ्यते इति पक्षे द्वितीया सिद्धैवेति द्वितीयाग्रहणात् ग्रोमं गन्तेत्यत्र कृतः कर्मणि अपवादभूतामपि षष्ठीं बाधित्वा द्वितोयैव भवति, चतुर्थी तु षष्ठया परत्वाद् बाध्यत एवेति मन्यन्ते। चतुर्थी चेत्यन्य 20 इति-उत्पल इत्यर्थः, स ह्यवं मन्यते-द्वितीयाविषय इयं वैकल्पिकी चतारभ्यते, द्वित याश्चात्रापवादात् कुतोऽपि विषय उपनत इति तद्विषये पक्षे चतुर्थी प्रवर्तत एव-ग्रामं गन्ता, ग्रामाय गन्तेति । एतेषु चायमस्मदभिमतः षष्ठीपक्षः श्रीशेषभट्टारकस्यापि संमतः, कथं हि शब्दानां साधुत्वं युक्तिबलेन शक्यं व्यवस्थापयितु, यत्र तुल्यपदार्थे उष्णं च तदुदकं च उष्णोदकमिति साधुः, उष्णं च तत् पानीयं च उष्णपानोयमिति कालदृष्टोऽपशब्दः,25 तापसश्चायं कुमारश्च तापसकुमार इति साधुः, तापसी चेयं कुमारी च तापसकुमारीति अचिकित्स्योऽपशब्दः, पानीयोष्णं कुमारतापसी चेति साधुरेव ।। २. २. ६३ ।। मन्यस्यानावादिभ्योऽतिकृत्सने ॥ २. २. ६४ ॥ अतीव कुत्स्यतेऽनेनेत्यतिकुत्सनम्, तस्मिन् मन्यतेराप्ये वर्तमानात् Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६४.] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६३ नावादिगणवजिताद् गौणान्नाम्नश्चतुर्थी वा भवति । न त्वा तृणाय मन्ये, न त्वा तृणं मन्ये ; न त्वा बुसाय मन्ये, न त्वा बुसं मन्ये ; न त्वा लोष्ठाय मन्ये, न त्वा लोष्ठं मन्ये ; न त्वा शुने मन्ये, न त्वा श्वानं मन्ये ; तृणाद्यपि न मन्येतृणादेरपि निकृष्टं मन्य इति कुत्सयते । मन्यस्येति किम् ? न त्वा तृणं चिन्तयामि । श्यनिर्देशः किम् ? न त्वा तृणं मन्ये । अनावादिभ्य इति किम् ? 5 न त्वा नावं मन्ये, न त्वा अन्न मन्ये, न त्वा शुकं मन्ये, न त्वा शृगालं मन्ये, न त्वा काकं मन्ये ; नावन्नयोरपि परप्रणेयताऽनायासोच्छेद्यतादिभिरतिकुत्सनत्वं भवति । कुत्सन इति किम् ? न त्वा रत्नं मन्ये, न ते मुखं चन्द्र मन्ये, न ते मुखं पद्म मन्ये ; रत्नादिभ्योऽपि त्वदादीन् अधिकान् मन्य इति प्रशंसा । कुत्स्यतेऽनेनेति करणाश्रयणं किम् ? न त्वा तृणाय मन्य इति युष्मदो न10 भवति । अतिग्रहणं किम् ? त्वां तृणं मन्ये, सुवर्णं तृणं मन्ये ; अत्र नप्रयोगाभावे साम्यमानं प्रतीयते न त्वतिकुत्सा। कुत्सामात्रेऽपीच्छन्त्येकेतृणाय त्वां मन्ये, तृणाय मन्यमानः सर्वान्, हरिमपि अमंसत तृणायेति । न त्वा तृणस्य मन्तेति कृद्योगे परत्वात् षष्ठी। चतुर्थ्यपीति कश्चित्-न तव बुसाय मन्ता, न तव बुसस्य मन्ता, न चैत्रस्य शुने मन्ता, न चैत्रस्य शुनो15 मन्तेति । उक्तकर्मणि तु-न त्वं बुसो मन्यसे मया, न चैत्रः श्वा मन्यते मया, नाऽहं बुसो मन्ये वृषलेनेत्यतिकुत्सनात् प्रथमेति । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ६४ ।। न्या० स०--मन्यस्या० । न त्वा बुसाय मन्ये "बुसच् उत्सर्गे" बुस्यति-त्यजति उपादेयभावमिति "नाम्युपान्त्य०" [ ५. १. ५४. ] इति के-बुसम् । न त्वा नावं मन्ये20 नावादयो लक्ष्यदर्शनेनानुसतव्याः। अथ नावन्नयोरत्यन्तोपकारकत्वात् कथमतिकुत्सनत्वं गम्यत इत्याह-नावन्नयोरपीति-परेण स्वेच्छया अभिमतं स्थानं प्रकर्षण नीयते परप्रणेयः, पराधीनप्रवृत्तिरित्यर्थः, तस्य भावः परप्रणे यता। अनायासोच्छेद्यतादिभिरिति-आदिशब्दादचेतनत्वविनश्वरत्वादिग्रहः । न त्वा शुकमिति-शुकः पाठितो भरणति त्वं तदपि न। न त्वा रत्नमिति-यतो रत्नं पाषाणः । न ते मुखं चन्द्रमिति-चन्द्रे कलङ्कः,25 त्वन्मुखं निष्कलङ्कम् । न ते मुखं पद्ममिति-पद्मस्य रात्रौ संकोचः, त्वदास्यस्य न कदापि। युष्मदोऽपि मन्यव्याप्यत्वात् पक्षे चतुर्थी प्राप्नोतीत्याह-कुत्स्यतेऽनेनेति । "हरिमप्यमंसत तृणाय, कुरुपतिमजीगणनवा । मानतुलितभुवनत्रितयाः, सरितः सुतादबिभयुर्न भूभृतः" ।। १ ।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ६५-६६.] परत्वात् षष्ठीति-"कर्मणि कृतः" [ २. २. ८३. ] इत्यनेन तृणशब्दाद् नित्यं । पष्ठी, युष्मच्छब्दात् तु "वैकत्र द्वयोः" [ २. २. ८५. ] इति षष्ठीविकल्पाद् द्वितीया, यदा तु युष्मदग्रत: "कर्मणि कृतः" [ २. २. ८३. ] इत्यनेन नित्यं षष्ठी तदा तृणशब्दाद् "वैकत्र द्वयोः" [ २. २. ८५. ] इत्यनेन विकल्पेन षष्ठी, तद्विकल्पपक्षे चतुर्थ्यपि-न तव तृणाय मन्ता, तृणस्य मन्ता, तृणं मन्तेति वा। चतुर्थ्यपीति कश्चिदिति-अजितयशोवादी 5 दुर्गसिंहश्च, "कर्मणि कृतः" [२. २. ८३.] इत्यनेन षष्ठीप्राप्तौ, "वैकत्र द्वयोः" [ २. २. ८५.] इत्यस्य तु पक्षे सिद्धैवेति । न त्वं बुसो मन्यसे इति-अत्र विशेषणविशेष्यभावेन उभयमपि कर्म उक्तम्, यथा-कटः क्रियन्ते वीरणानि ।। २. २. ६४ ॥ हितसुखाभ्याम् ॥ २. २. ६५ ॥ हित-सुखाभ्यां युक्ताद् गौणान्नाम्नश्चतुर्थी वा भवति । आतुराय10 आतुरस्य वा हितम्, आमयाविने आमयाविनो वा हितम्, चैत्राय चैत्रस्य वा सुखम् ।। ६५ ।। तद्भद्रा-युष्य-क्षेमा-र्थाऽर्थेनाशिषि ॥२. २. ६६ ॥ तदिति हित-सूखयोः परामर्शः, अर्थशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते; हिताद्यर्थैर्युक्ताद् गौणानाम्न आशिषि गम्यमानायां चतुर्थी वा भवति ।15 हितार्थे-हितं जीवेभ्यो भूयात्, हितं जीवानां भूयात् ; पथ्यं मैत्राय भूयात्, पथ्यं मैत्रस्य भूयात् ; सुखार्थे-सुखं प्रजाभ्यो भूयात्- सुखं प्रजानां भूयात्; शं प्रजाभ्यो भूयात्, शं प्रजानां भूयात्; शर्म भवताद् भव्येभ्यः, शर्म भवताद् भव्यानाम् ; भद्रार्थे-भद्रमस्तु जिनशासनाय, भद्रमस्तु जिनशासनस्य; मद्रमस्तु जिनशासनाय, मद्रमस्तु जिनशासनस्य ; कल्याणमस्तु जिनशासनाय, कल्याण-20 मस्तु जिनशासनस्य; आयुष्यार्थे-पायुष्यमस्तु चैत्राय, आयुष्यमस्तु चैत्रस्य; दीर्घमायुरस्तु मैत्राय, दीर्घमायुरस्तु मैत्रस्य ; चिरं जीवितमस्तु मैत्राय, चिरं जीवितमस्तु मैत्रस्य; क्षेमार्थे-क्षेमं भूयात् संघाय, क्षेमं भूयात् संघस्य; कुशलं भूयात् संघाय, कुशलं भूयात् संघस्य ; निरामयं भूयात् साधुभ्यः, निरामयं भूयात् साधूनाम् ; अर्थार्थे-अर्थो भूयात् मैत्राय, अर्थो भूयात् मैत्रस्य; प्रयोजनं25 भूयात् मैत्राय, प्रयोजनं भूयात् मैत्रस्य ; कार्यं भूयात् मैत्राय, कार्यं भूयात् मैत्रस्य। आशिषीति किम् ? आयुष्यं प्राणिनां घृतम्, तत्त्वाख्याने न Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६५ भवति । हित-सुखशब्दाभ्यां पूर्वेण विकल्पः सिद्ध एव, तदर्थार्थं तु तद्ग्रहणम् ।। ६६ ।। न्या० स०-- तद्भद्रा०। भद्र-क्षेमार्थयोरन्यत्रैकार्थत्वेऽपि क्षेमम्-आपदोऽभावः, भद्रं-संपदुत्कर्ष इत्यर्थभेदाद् द्वितीयोपादानम् । आयुष्यमस्तु चैत्रायेति-आयुः प्रयोजनमस्य घृतादेरायुष्यं-घृतादि; ततश्च दीर्घमायुरस्तु मैत्रायेत्यादौ चतुर्थी न प्राप्नोति, यत आयुः 5 शब्देन जीवितमेवाभिधीयते, न तु जीवितकारणं घृतादिकम्, उच्यते-कार्ये कारणोपचारात्, यथा-इन्द्रः स्थूणा, यदा त्वायुरेव भेषजादित्वात्] स्वार्थे टयणि आयुष्यशब्दो निष्पाद्यते तदा निर्विवादं सिद्धमेव । आमयस्याभावः-निरामयम् "विभक्तिसमीप०" [ ३. १. ३६.] इति समासः। आयुष्यं प्राणिनामिति-अत्र आयुषि साधु "तत्र साधौ” [ ७. १. १५. ] यः। तद्ग्रहणमिति-तहि प्रागप्यर्थग्रहणमस्तु, सत्यम् तदर्था-10 नामाशिषि नियमार्थमिदम् ।। २. २. ६६ ।। परिक्रयणे ॥ २. २. ६७ ॥ परिक्रीयते-नियतकालं स्वीक्रियते येन तत् परिक्रयणं वेतनादि, तस्मिन् वर्तमानाद् गौरणान्नाम्नश्चतुर्थी वा भवति । शताय परिक्रीतः, शतेन परिक्रीतः; "संभोगाय परिक्रीतः कर्ताऽस्मि तव नाप्रियम् ।” संभोगेन वा; शतादिना15 नियतकालं स्वीकृत इत्यर्थः । परीति किम् ? शतेन क्रीणाति, क्रयस्यात्र करणं न परिक्रयस्य । करणाश्रयणं किम् ? शताय परिक्रीतो मासम्, मासात् मा भूत् ।। ६७ ।। न्या० स०-परिक्र०। स्वीकारो ह्यात्मसात्करणं परिक्रय उच्यते, परिशब्दोऽत्र प्रत्यासत्ति द्योतयति, यथा-परिसहस्रा गाव इति सहस्रप्रत्यासन्नाः संभाव्य परिसहस्रा गाव20 उच्यन्ते, एवमत्रापि क्रयप्रत्यासन्नोऽल्पकालो वेतनादिना स्वीकारः परिक्रय उच्यते, तत्र यत् करणं परिक्रयक्रियायां साधकतमं वेतनादि तत् करणव्युत्पत्त्या परिक्रयणमुच्यते । वेतनादीति-आदिपदाद् भाटकादिपरिग्रहः । करणाश्रयणं किमिति-करणाश्रयणं विना परिक्रीयतेऽस्मिन्नित्यनया व्युत्पत्त्या मासादपि स्याच्चतुर्थी । शताय परिक्रीतो मासमितिक्रीत इति रूपं कर्मणि कर्तरि वा, तथाहि-परिक्रीयते स्म परिक्रीतः, क: कर्मतापन्नः ? 25 चैत्रः, कं ? मासम्, कोऽर्थः ? मासे; यद्वा परिक्रीणीते स्म कर्तरि क्तः कर्मणोऽविवक्षितत्वात्; अथात्र मासमिति कर्म विद्यते तत् कथं कर्तरि क्तः, उच्यते-मासमित्यत्र "कालाध्वभाव०" [ २. २. ४२. ] इत्यनेनाधारस्य युगपत् कर्मसंज्ञाऽकर्मसंज्ञा च, तत्र कर्मसंज्ञायां कर्मणि द्वितीया, अकर्मसंज्ञायां तु कर्तरि क्तः ।। २. २. ६७ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ६८.] शक्तार्थ-वषड्-नमः स्वस्ति-स्वाहा-स्वधाभिः ॥२. २. ६८ ॥ शक्तार्थैर्वषडादिभिश्च शब्दैर्युक्तात् गौणान्नाम्नश्चतुर्थी भवति, पृथग्योगाद् वेति निवृत्तम् । शक्तो मैत्रश्च त्राय, शक्नोति मैत्रश्च त्राय, प्रभवति मैत्रश्च त्राय, अलं मल्लो मल्लाय, समर्थो मल्लो मल्लाय, प्रभुमल्लो मल्लाय; 5 वषट्-वषडग्नये, वषडिन्द्राय; नमस्-नमोऽर्हद्भ्यः, नमः सिद्धेभ्यः; स्वस्तिस्वस्ति प्रजाभ्यः, स्वस्ति संघाय; स्वाहा-इन्द्राय स्वाहा, अग्नये स्वाहा; स्वधा-पितृभ्यः स्वधा । स्वस्तिशब्दः क्षेमार्थः, तद्योगे आशिष्यपि परत्वाद् नित्यमेव-स्वस्ति संघाय भूयात्, स्वस्ति प्रजाभ्यो भूयात् । तृतीयया योगाऽभिधानादिह न भवति-नमो जिनाऽऽयतनेभ्यः, नात्र जिनानां नमसा 10 योगः; नमस्यति जिनानित्यत्रापि नमस्यधातुना योगो न नमसा । यद्यवं कथं स्वयंभुवे नमस्कृत्येति ? नानेनात्र चतुर्थी, किन्तु नमस्कृतिलक्षणया क्रिययाऽभिप्रेयमाणत्वात् संप्रदानत्वे "चतुर्थी" [२. २. ५३.] इत्यनेनैव ; स्वयंभुवं नमस्कृत्येत्यत्र तु क्रियाऽभिप्रेयत्वाविवक्षायां द्वितीयैव ।। ६८ ॥ न्या० स०-शक्तार्थ । पृथग्योगाद् वेति निवृत्तमिति-तत्र कश्चित् सामस्त्येन15 पृथग्योगः, कश्चिदेकदेशेन संभवति, अत्र तावदेकदेशेन, तथाहि-"हितसुखाभ्याम्" [२. २. ६५. ] इत्यनेन स्वस्तिशब्दस्यैकयोगाकरणात्, एकयोगे च कृतेऽनाशंसायां "हितसुखस्वस्तिभिः" इत्यनेन, आशंसायां तु "तद्भद्र०" [ २. २. ६६. ] इत्यनेन तदिति पूर्ववस्तुपरामर्शन क्षेमद्वारेण वा विकल्पः सिद्ध एव, तदकरणाद् 'वा' इति निवृत्तमित्यर्थः । ननु कथमत्रैकदेशेन पृथग्योगो न सामस्त्येन ? उच्यते-"तद्भद्र" [२. २. ६६. ] इत्यत्र 20 व्यभिचारात्, तथाहि-"तद्भद्र०" [२. २. ६६. ] इत्यत्रार्थपरो निर्देशः, अयं तु शब्दपरः एवेति; "परिक्रयणे" [२. २. ६७. ] इत्यनेन तु एकयोगत्वं न व्याख्येयमर्थस्याऽसंगतेः, तत्र हि परिक्रयणे वर्तमानानाम्न इत्युक्तम्, अनेन त्वेकयोगे वषडादिवत् परिक्रयणशब्दस्वरूपपरिग्रहः स्यादिति । परत्वान्नित्यमेवेति-ननु "स्पर्द्ध" [ ७. ४. ११६. ] परः, समानविषययोश्च स्पधं इति, समानविषयत्व "तद्भद्र० | २. २.६६.] इत्यस्य दर्शयति,25 तथाहि-स्वस्ति जाल्मायेत्यत्र जाल्मत्वेनाशीरभावात् तत्त्वाख्यानमिदमिति स्वस्तिचतुर्थ्या अवकाशः, क्षेमं भूयात् संघायेत्यत्र तु क्षेमचतुर्थ्या अवकाशः, स्वस्ति प्रजाभ्य इत्यत्रोभयप्राप्तौ परत्वादाशिष्यपि नित्यं स्वस्तिचतुर्थी भवतीत्यर्थः । नमसेति-यद्वाऽस्तु नमसा योग:, तथापि नम:शब्दस्यार्थवतो ग्रहणादनर्थकयोगे न भवति, अत्र हि नमस्यधातुरर्थवान्न तु तदेकदेशो नमःशब्द इति; अथवा पदान्तरसंबन्धानपेक्षणादन्तरङ्गया द्वितीयया कारक-30 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ६९-७१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६७ विभक्त्या उपपदविभक्तिस्तदपेक्षणाद् बहिरङ्गा चतुर्थी बाध्यते उपपदविभक्त ेः कारकविभक्तिर्बलीयसी इति न्यायात्, ननु कारकविभक्तिरपि क्रियापदापेक्षिणीति कथमन्तरङ्गा ? नैष दोषः - कारकस्य क्रियामात्र संबन्धाव्यभिचारात् स्वरूपान्तर्गतैव सापेक्षा । यद्यवमिति - कारकविभक्त्या द्वितीयया बाध्यमाना कथमत्र चतुर्थीति प्रश्नार्थः । नमस्कृत्य, ब्रह्मणेऽमिततेजसे । "स्वयंभुवे मुनिप्रणीतान् विविधान्, मन्त्रान् व्याख्यामि शाश्वतान् ।। १ ।। ” ।। २.२. ६८ ॥ पञ्चम्यपादाने ॥। २. २. ६६ ॥ अपादाने कारके गौरणान्नाम्नो यथासंख्यमेक - द्वि-बहौ ' ङसि - भ्यां भ्यस्' लक्षणा पञ्चमी विभक्तिर्भवति । ग्रामादागच्छति, पर्वतादव रोहति, 10 गोदाभ्यामागच्छति, यवेभ्यो गां वारयति, कुसूलात् पचति, बलाहकाद् विद्योतते विद्युत्, चौराद् बिभेति ।। ६६ ।। 5 आङावधौ ॥ २. २. ७० ॥ अवधिर्मर्यादा, अभिविधिरपि तद्विशेष एवेति तस्यापि ग्रहणम् ; अवधौ वर्तमानात् प्राङा युक्ताद् गौणान्नाम्नः पञ्चमी भवति । प्र पाटलिपुत्राद् 15 वृष्टो मेघः, पाटलिपुत्रमवधीकृत्य तद्वयाप्याऽव्याप्य वा वृष्ट इत्यर्थः ; आ कुमारेभ्यो यशो गतं गौतमस्य ।। ७० ।। न्या० स०-- आङाव० । प्रवृत्तस्य यत्र निरोधः स मर्यादा, मर्यादाभूतमेव यदा व्याप्यते तदाऽभिविधिः । पाटलिपुत्रमवधीकृत्येति - एतावानर्थ आङा 20 क्रियया द्योत्यते ।। २.२. ७० ।। पर्याभ्यां वर्ज्ये ॥ २. २. ७१ ॥ वर्ज्ये-वर्जनीयेऽर्थे वर्तमानात् पर्यपाभ्यां युक्ताद् गौरणान्नाम्नः पञ्चमी भवति । परि पाटलिपुत्राद् वृष्टो मेघः, परि परि पाटलिपुत्राद् वृष्टो देवः ; अप पाटलिपुत्राद् वृष्टो देवः, पाटलिपुत्रं वर्जयित्वेत्यर्थः । वर्ज्य इति किम् ? अपशब्दो मैत्रस्य ।। ७१ ।। 25 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ७२-७३.] न्या० स०-पर्यपा० । वयं-वय॑कसंबन्धः पर्यपाभ्यां द्योत्यत इति । "वाक्यस्य परिवर्जने" [ ७. ४. ८८. ] इत्यनेन परि परीत्यत्र वा द्वित्वम् । अपशब्दो मैत्रस्य अपगतः शब्दात्, तत्पुरुषस्य पूर्वपदप्रधानत्वात् पूर्वपदेन 'अप' इत्यनेन सह मैत्रशब्दस्य योगोऽस्तीति न वर्ण्य इति व्यावृत्तेद्वर्यङ्गविकलता, अत्र मैत्रशब्दान्मा भूत् ।। २. २. ७१ ।। यतः प्रतिनिधि-प्रतिदाने प्रतिना ॥ २. २. ७२ ॥ 5 प्रतिनिधीयत इति प्रतिनिधिमुख्यस्य सदृशोऽर्थः, प्रतिदानं-गृहीतस्य प्रत्यर्पणं विशोधनमिति यावत् ; प्रतिना योगे यतः प्रतिनिधिर्यतश्च प्रतिदानं तद्वाचिनो गौरणान्नाम्नः पञ्चमी भवति । प्रद्युम्नो वासुदेवात् प्रति, अभयकुमारः श्रेणिकतः प्रति, सदृश इत्यर्थः; तिलेभ्यः प्रति माषानस्मै प्रयच्छति, तिलान् गृहीत्वा माषान् ददातीत्यर्थः; एवं-सपिषोऽस्मै तैलं प्रति सिञ्चति,10 सर्पिषोऽस्मै तैलं प्रति सिक्त्वा व्रजति । यत इति किम् ? 'तिलेभ्यः प्रति माषान् प्रयच्छति' इत्यत्र माषशब्दान्मा भूत् । प्रतिनिधि-प्रतिदान इति किम् ? वृक्षं प्रति विद्योतते विद्य त् ।। ७२ ।। न्या० स०--यतः प्रति०। यस्मात् "किमद्वयादि०" [७. २. ८६.] इत्यपादाने तस् "पा द्वरः" [२. १. ४१.] यदा यस्य यतः, तदा "माद्यादिभ्यः" [७. २. ८४.]15 "पृषोदर." [३. २. १५५.] इति दलोपः । प्रतिनिधिप्रतिदानशब्दात् प्रथमा औ दीयते । प्रतिनिधीयत इति-प्रतीतः सन् मुख्यस्थाने निधीयते-आरोप्यते, सदृशः क्रियते इति तात्पर्यार्थः । प्रतिदानमिति-तुल्यजातीयेनाऽतुल्यजातीयेन वा विशोधनमिति शेषः । प्रद्युम्नो वासुदेवात् प्रति द्युभिर्मीयते "धुसुनिभ्यो माङो डित्" [उणा० २६६.] नः, प्रकृष्टं द्युम्नंपराक्रमो यस्य प्रद्युम्नः, सदृशः क्रियते, केन सह ? वासुदेवेनेति, "तुल्यार्थः०20 [२. २. ११६.] इति तृतीया-षष्ठयोः प्राप्तिः। श्रेणी: कायति प्रसन्नचक्षुषेति-श्रेणिकः, तस्मात् “प्रतिना पञ्चम्याः" [७. २. ८७.] इति तसुः । तिलेभ्यः प्रतीति-प्रयच्छतिप्रददाति, कान् ? माषान्, कथं भूतान् ? प्रति-प्रतिदानभूतान्, केषां ? तिलानामिति, प्रतिशब्दात् द्वितीयैकवचनम् । प्रति सिञ्चति नात्र सिचः प्रतिना योगोऽपि तु सर्पिष इति "स्थासेनि०" [२. ३. ४०.] इत्यनेनोपसर्गत्वाभावान्न षत्वम् ।। २. २. ७२ ।।। 25 आरण्यातयुपियोगे ॥ २. २. ७३ ॥ आख्याता-प्रतिपादयिता, तत्र वर्तमानाद् गौणानाम्नः पञ्चमी भवति; उपयोगे-नियमपूर्वकविद्याग्रहणविषये। उपाध्यायादधीते, प्राचार्यादागमयति, Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ७४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६६ श्रावकात् शृणोति; प्रत्येकबुद्धादधिगच्छति। आख्यातरीति किम् ? उपाध्यायात् शास्त्रमागमयति, अत्र शास्त्रान्मा भूत् । उपयोग इति किम् ? नटस्य शृणोति, उपयोगविवक्षायां त्वत्राऽपि भवति-नटाद् भारतं शृणोति । अपादानत्वेनैव सिद्धे उपयोग एव यथा स्यादित्येवमर्थं वचनम् ।। ७३ ।। न्या० स०-पाख्यातर्यु । नियमपूर्वकेति-नियमो विद्याग्रहणार्थं गुरुशुश्रूषादिकं 5 शिष्यवृत्तमाख्यायते, न तूपयोगमात्रं, यत उपयोगमानं नटादपि भवत्यतस्तस्मादपि स्यात् पञ्चमी । श्रावकादिति-श्रावयतीति रणकः । प्रत्येकेति-प्रत्येकम्-इन्द्रध्वजादिकं निमित्तमाश्रित्य, बुद्धः-प्रत्येकबुद्धः ।। २. २. ७३ ।। गम्ययपः कर्मा-धारे ॥२. २. ७४ ॥ गम्यस्य-अप्रयुज्यमानस्य, यपो-यबन्तस्य, यत् कर्म आधारश्च तत्र10 वर्तमानाद् गौणान्नाम्नः पञ्चमी भवति; द्वितीया-सप्तम्योरपवादः । प्रासादात् प्रेक्षते, आसनात् प्रेक्षते; प्रासादमारुह्यऽऽसने चोपविश्य प्रेक्षते इत्यर्थः । गम्यग्रहणं किम् ? प्रासादमारुह्य शेते, प्रासने उपविश्य भुङ्क्त; नह्यत्र यबन्तस्याऽप्रयोगे तदर्थः प्रतीयते । यग्रहणं किम् ? प्रविश पिण्डीम् प्रविश तर्पणम्, वृक्षे शाखा, ग्रामे चैत्रः; अत्र हि भक्षय-कुरु-अस्ति-वसतीनां15 गम्यता न तु यपः । ननु यथा कुशूलादादाय पचति-कुशूलात् पचतीत्यत्रादानाऽङ्ग पाके पचेर्वर्तनादुपात्तविषयमेतदपादानमिति पञ्चमी भवति, एवमिहाऽपि अपक्रमणाऽङ्गे दर्शने दृशेर्वर्तनाद् भविष्यति; तथाहि-तत् ततोऽपक्रामति, अनपक्रामद्धि न विषयं गृह्णीयात्, सत्यम्-किन्तु आरुह्य उपविश्येति यबन्तार्थोऽपि गम्यते, ततो यथा यबन्ते प्रयुज्यमाने कर्मा-ऽधिकरणयोद्वितीया-20 सप्तम्यौ भवतस्तद्वदप्रयुज्यमानेऽपि तदर्थप्रतीतेस्ते प्रसज्येयातामिति सूत्रमारभ्यते ।। ७४ ।। न्या० स०-गम्ययपः। एवमिहापीति-अयमर्थः-प्रासादान्निःसृत्यापक्रम्य चक्षु रश्मिद्वारा प्रेक्षते. प्रासादान्निस्सरता चाषा कृत्वा देवदत्तः प्रेक्षते वा। तत तत्तोऽपकामतीति, अयमर्थः-तत:-प्रासादादेः, तत्-चक्षुरादि, अपैति-निस्सरतीति तस्यापाये-25 ऽवधिभूतत्वादपादाने पञ्चमी सिद्धैव । अनपनामद्धीति-एतन्न यायिकमताभिप्रायेणोक्त, ते हि प्राप्यकारीणीन्द्रियाणि मन्यन्ते । दशेर्वर्तनादिति-दृशेरिति कोऽर्थः ? दृशिसमानार्थस्य ईक्षेरित्यर्थः ।। २. २.७४ ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहदवृत्ति - लवन्याससंवलिते [पा० २. सू० ७५.] प्रभृत्यन्यार्थ - दिक्शब्द - बहिरारादितरै ॥ २. २. ७५ ।। प्रभृत्यर्थेः अन्यार्थेः दिक्शब्दैः 'बहिस् प्रारात् इतर' इत्येतैश्च शब्दैर्युक्ताद् गौणान्नाम्नः पञ्चमी भवति । प्रभृत्यर्थः - ततः प्रभृति, कार्त्तिक्याः प्रभृति, आरभ्य ग्रीष्मात्, ग्रीष्मादारभ्य । अन्यार्थः - अन्यो मैत्रात्, भिन्नश्चैत्रात्, अर्थान्तरं घटात्, व्यतिरिक्तः पटात्, विलक्षणोऽश्वात् पृथग् गजात्, 5 हिरुग् गार्ग्यात् । दिक्शब्दः - ग्रामात् पूर्वस्यां दिशि वसति, ग्रामादुत्तरस्यां दिशि वसति ; दिशि दृष्टा: शब्दा दिक्शब्दा इति देश - कालादिवृत्तिनापि भवति - पूर्व उज्जयिन्या गोनर्दः, उत्तरो विन्ध्यात् पारियात्रः, पूर्वो ग्रीष्माद् वसन्तः, पश्चिमो रामाद् युधिष्ठिरः, एतदर्थमेव च शब्दशब्दोपादानम्; गम्यमानेनाऽपि च दिक्शब्देन भवति - क्रोशाल्लक्ष्यं विध्यति, परेणेति गम्यते, 10 “कमेरिङ्” [३. ४. २. ] परो भवतीति गम्यते ; प्राग् ग्रामात् प्रत्यग् ग्रामात्, उदग् ग्रामात्, प्राचीनं ग्रामादाम्राः, दक्षिणाहि ग्रामात्, उत्तराहि ग्रामात्, दक्षिणा ग्रामात्, उत्तरा ग्रामात् न्यग् मैत्रस्याऽवस्थित इत्युपसर्जनत्वान्न दिक्शब्दता । बहिस् - बहिर्ग्रामात्, बहिष्पुरात्, प्रारादित्यव्ययं दूरसमीपयोर्वाचकम्, तेन तद्योगे वक्ष्यमाणस्य " प्रारादर्थेः " [ २. २.७८ ] इति 15 विकल्पस्यापवादोऽयम्-प्राराद् ग्रामात् क्षेत्रम्, प्रारात् मैत्रात् पीठम् ; इतरशब्दो द्वयोरुपलक्षितयोरन्यतरवचन:, तेनान्यार्थाद् भिद्यते - इतरश्चैत्रात्, तस्य द्वितीयो मैत्रादिरित्यर्थः । अथ 'जिनदत्तादन्योऽयं मैत्रस्य, जिनदत्तादितरोऽयं चैत्रस्य, छात्राणां पूर्वमामन्त्रयस्व, कायस्य पूर्वम्' इत्यादौ मैत्र- चैत्र - च्छात्रकायशब्देभ्यः कथं न भवति ? उच्यते - प्रत्यासत्तेर्यस्यैवान्यत्वादिधर्मनिमित्तो- 20 ऽन्यशब्दादिना योगस्तत एव जिनदत्तादेः पञ्चमी भवति, न मैत्रा - देरिति ।। ७५ । २७० ] न्या० स०-- प्रभृत्य ० । दिश: शब्दा:, दिशि दृष्टा: शब्दा वा तदा "मयूरव्यंसक ०" [ ३. १. ११६. ] इति दृष्टलोपः, दिशि ये वाचकत्वेन दृष्टास्ते इह दिक्शब्दाः इति विज्ञायन्ते, न तु दिशि वर्तमाना एव तेन दिशो वाचकत्वेन दृष्टस्य शब्दस्य देशे 25 काले, आदिशब्दात् भावे द्रव्ये च वृत्तावपि तद्योगे पञ्चमी । ग्रीष्मादारभ्येति - प्रारभ्येति क्त्वान्तम्, अक्त्वान्तमव्ययं वा । श्रर्थान्तरमिति - अर्थमन्तरयति, अथवा एकस्मादर्थादिति वा । पृथगिति - पृथि: सूत्रधातुः " रुधि- पृथि ०" [ उणा ० ८७४.] इति किदक् । हिरुक् Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ७६-७७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २७१ इति-ह्रियते इति "द्रागादयः" [ उणा० ८७०.] । पारियात्र इति-पारियातुरयं "तस्येदम्" [६. ३. १६०. ] अरण , अथवा परियाता देवता अस्य "देवता" [ ६. २. १०१. ] अण, यद्वा परिगता यात्रा यस्यासौ परियात्रः, परियात्र एव पारियात्र:-पर्वतः, पर्वतसमीपदेशोऽपि । प्रागेव "अदिस्त्रियाम्०" [ ७. १. १०७. ] इति स्वार्थे ईनः, नपुसकत्वं तु सामान्यभावेन, तथा च वर्तते, किं तत् ? कर्तृ प्राचीनं, किं तत् ? आम्रा 5 इति, यथा प्राक्शब्द: केवलोऽपि दिग्वाची तथा स्वाथिकेनप्रत्ययान्तोऽपि, ततस्तदन्तयोगेऽपि पञ्चमीति । अञ्चत्यन्तयोगे यथा प्राग् ग्रामादित्यादौ पञ्चमी तथाऽत्रापीति कञ्चिन्मुह्य त् तं प्रत्याह-न्यग् मैत्रस्येति-न्यक्-उपसर्जनं यथा भवति एवमवस्थित इत्यर्थः । अन्यार्थाद् भिद्यते इति-अयमर्थ:-अन्य इति प्रकृतिविलक्षणोऽर्थ उच्यते, इतर इति च दृश्यमानप्रतियोगीत्यर्थः, छात्रारणामिति-छात्रारणामवयवश्छात्रस्तस्मात् पूर्वं छात्रमामन्त्र-10 यस्वेति पूर्वत्वं छात्रान्तरापेक्षं, न छात्राणामिति समदायापेक्ष:, समदायस्य हि एकदेश: सः, न तस्य समुदायापेक्षया पूर्वत्व , तत्र पूर्वत्वेन योगश्छात्रान्तरस्य, समुदायस्य त्वेकदेशत्वेनेति । कायस्य पूर्वमिति-कायस्यावयविनो यद्भागान्तरं, कि विशिष्टं ? पूर्व, कस्याः सकाशात् ? नाभे: कायस्य संबन्धि यदवयवान्तरं पूर्वं तस्य नाभिरूपेणाऽवयवान्तरेण सह संबन्धः, कायस्य त्ववयवत्वेन ।। २. २.७५ ।। ऋणाद्धेतोः ॥ २. २. ७६ ॥ फलसाधनयोग्यः पदार्थो हेतुः, हेतुभूतं यद् ऋणं तद्वाचिनो गौणान्नाम्नः पञ्चमी भवति; तृतीयाऽपवादः । शताद् बद्धः, सहस्राद् बद्धः । हेतोरिति किम् ? शतेन बद्ध:, शतेन बन्धितः, शतेन चैत्रेण बन्धितः; कर्तरि प्रयोज्ये प्रयोजके च कर्तृ लक्षणा तृतीया भवति, हेतुहि फलसाधनयोग्यः पदार्थः20 कादिभ्योऽन्य उच्यते इति कथं कर्तुर्हेतुत्वम् ? ।। ७६ ।। . 15 गुणादस्त्रियां नवा ॥२. २. ७७ ॥ अस्त्रियां वर्तमानाद् हेतुभूतगुणवाचिनो गौणान्नाम्नः पञ्चमी वा भवति । जाड्याद् बद्धः, जाड्य न बद्धः; पारिख्यात्याद् मुक्तः, पारिख्यात्येन मुक्तः; मोहाद् बद्धः, मोहेन बद्धः; ज्ञानाद् मुक्तः, ज्ञानेन मुक्तः । गुणादिति25 किम् ? धनेन कुलम् । हेतोरित्येव-जाड्यस्यैतद् रूपम् । अस्त्रियामिति किम् ? बुद्धया मुक्तः, प्रज्ञया मुक्तः, विद्यया यशः । अस्त्यत्राग्नि—मात्, नास्तीह घटोऽनुपलब्धेः, सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वाऽन्यथानुपपत्तेरित्यादौ नाऽग्न्यादे—मादिर्हेतुः, कस्य तर्हि ? तज्ज्ञानस्य, कथं तर्हि पञ्चमी ? Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ७८-७९.] “गम्ययपः कर्माऽऽधारे” [२. २. ७४.] इति भविष्यति, धूमादिकमुपलभ्याऽग्न्यादिः प्रतिपत्तव्य इति ह्यत्राऽर्थः ज्ञानहेतुत्वविवक्षायां तु हेतुत्वलक्षणा तृतीया भवति - धूमेनाग्निः, अनुपलब्ध्या घटाभावः सत्त्वान्यथानुपपत्त्या सर्वमनेकान्तात्मकं प्रतिपत्तव्यमिति ।। ७७ ।। न्या० स०-- - गुरगाद० । जडस्य भावः - दृढादित्वात् ट्यण् । परिख्यातस्य भाव: 5 “पतिराजान्त०” [७. १. ६०. ] इति ट्यण् । अस्त्यत्राग्निर्धूमादित्युदाहरणत्रयं यथाक्रमं शैव- बौद्ध-जैनमतेन । सत्त्वान्यथेति-सत्त्वम्-उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तत्वम्, सत्त्वस्य, अन्यथा-अनेकान्तात्मकत्वमन्तरेण, अनुपपत्तेः - प्रघटनात् ।। २. २. ७७ ।। तस्य आरादर्थैः ।। २. २. ७८ ॥ आराद् दूरा-ऽन्तिकयोः, तन्त्रेणोभयग्रहणम् ; दूरार्थैरन्तिकार्थैश्च शब्दे - 10 र्युक्ताद् गौणान्नाम्नः पञ्चमी वा भवति । दूरं ग्रामात् दूरं ग्रामस्य; विप्रकृष्टं ग्रामात् विप्रकृष्टं ग्रामस्य; अन्तिकं ग्रामात् ग्रन्तिकं ग्रामस्य; अभ्याशं ग्रामात्, अभ्याशं ग्रामस्य; संनिकृष्टं ग्रामात्, संनिकृष्टं ग्रामस्य । आरात्शब्दयोगे तु प्रभृत्यादिसूत्रेण नित्यमेव पञ्चमी । अथ दूरं हितं ग्रामात्, दूरं हितं ग्रामस्य भूयादित्यादौ हितादियोगे पञ्चम्यभावपक्षे "हित- 15 सुखाभ्याम्" [२. २. ६५. ] इति चतुर्थी कस्मान्न भवति ?, उच्यते-हितसुखादियोगे सा चतुर्थी, इह तु दूरान्तिकादिनैव योगो न तद्विशेषणेन हितादिनेति न भवति यदा तु हितादिना विशेष्यतया योगस्तदा चतुर्थी भवत्येव । अन्ये त्वसत्त्ववचनैरेवाऽऽरादर्थैरिच्छन्ति ।। ७८ ।। न्या० स०--आरादर्थैः । दूरान्तिकादिनैव योग इति - कथं ? कर्तृ ? दूरं कस्य ? ग्रामस्य किं भूतं दूरं ? हितमिति दूरशब्देनैव विवक्षितो न तु हितशब्देन । श्रसत्त्ववचनैरिति धर्ममात्रवृत्तिभिः । षष्ठीप्राप्तौ वचनम् ।। २.२.७८ ।। स्तोका-sल्प-कृच्छ्र-कतिपयादसत्त्वे करणे ॥ वर्त्तते, किं तत् 20 ग्रामस्य संबन्धो कारकशेषत्वात् २. २. ७६ ॥ यतो द्रव्ये शब्दप्रवृत्तिः स पर्यायो गुणोऽसत्त्वम् तेनैव वा रूपेणाऽभि - 25 धीयमानं द्रव्यादि; तस्मिन् करणे वर्तमानेभ्यः स्तोकादिभ्यः पञ्चमी वा 1 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ८०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २७३ भवति । स्तोकाद् मुक्तः, स्तोकेन मुक्तः; अल्पाद् मुक्तः, अल्पेन मुक्तः; कृच्छाद् मुक्तः, कृच्छण मुक्तः; कतिपयाद् मुक्तः, कतिपयेन मुक्तः । असत्त्व इति किम् ? स्तोकेन विषेण हतः, अल्पेन मधुना मत्तः, कृच्छे रण भोजनेन निविण्णः; विषादिद्रव्यसामानाधिकरण्यादत्र सत्त्ववृत्तिता। करण इति किम् ? क्रियाविशेषणे मा भूत्-स्तोकं चलति । इह च स्तोकादीनामसत्त्व- 5 वाचित्वाद् द्वित्व-बहुत्वाऽसंभवे एकवचनमेव ।। "स्तोकस्य चाऽभिनिर्वत्तेरनिर्वत्तेश्च तस्य वा । प्रसिद्धि करणत्वस्य, स्तोकादीनां प्रचक्षते ।। १ ।।" ७६ ।। न्या० स०--स्तोकाल्प०। यतः स्तोकत्वादेनिमित्ताद् द्रव्ये विशेष्ये स्तोकादिशब्दप्रवृत्तिः स गुग्गोऽसत्त्वं, शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमित्यर्थः। तेनैव वेति-असत्त्वरूपेण,10 अयमर्थ:-तिरोहितधनादि विशेष्यं स्तोकादिरूपेणैव सामान्यात्मनाऽभिधीयमानं धनादिरूपव्यावृत्तं स्तोकादिरूपापन्न द्रव्यं गुणः क्रिया वा यदा प्रतीयते तदा द्रव्याद्यसत्त्वमिति । असत्त्ववाचित्वादिति-द्रव्यस्यैव विशेषसंख्यायोगित्वादिति शेषः । दित्वबहुत्वासंभवे इति-एकत्वनिबन्धनकवचनस्यापि असंभवे औत्सर्गिकमेकवचनम् । स्तोकाल्पादिशब्दानां स्तोकत्वाद्यर्थाभिधायकत्वेनासत्त्ववाचित्वात् क्रियां प्रति साधकतम-15 त्वाभावात् करणत्वाभावे कथमनेन पञ्चमीत्याशङ्कायाममीषां पूर्वाचार्यप्रसिद्धया करणत्वमाह । यद्वा स्तोकेन राहुणा मुक्तः शशीत्यादौ मोचनामोचनलक्षणं क्रियाद्वयं विद्यते, यतः स्तोकेन मुक्त इति, कोऽर्थः ? किञ्चिन्मुक्तः किञ्चिदमुक्त इत्यर्थः, ततश्च कस्याः क्रियाया अपेक्षया अत्र करणसंज्ञेत्याह-स्तोकस्येत्यादि-स्तोकस्याऽभिनिर्वृत्ति निष्पत्ति, स्तोकस्य चाऽनिर्वृत्तिमनिष्पत्तिमाश्रित्य स्तोकादीनां, करणत्वप्रसिद्धिमाचक्षते 20 पूर्वाचार्याः ।। २. २. ७६.।। अज्ञाने ज्ञः षष्ठी ॥२. २. ८० ॥ अज्ञानेऽर्थे वर्तमानस्य जानातेः संबन्धिनि करणे वर्तमानाद् गौणान्नाम्न एक-द्वि-बहौ यथासंख्यं 'ङसोसाम्' लक्षणा षष्ठी विभक्तिर्भवति । वेति निवृत्तम् । सर्पिषो जानीते-सर्पिषा करणभूतेन प्रवर्तत इत्यर्थः, प्रवृत्तिरत्र जानातेरर्थः; 25 एवं सर्पिषोर्जानीते, सर्पिषां जानीते; अथवा-सपिषि रक्तो विरक्तो वा चित्तभ्रान्त्या सर्वमेवोदकादि सीरूपेण प्रतिपद्यत इति मिथ्याज्ञानवचनोऽत्र जानातिः, मिथ्याज्ञानं चाज्ञानमेव भवति । अज्ञान इति किम् ? स्वरेण पुत्रं Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ८१.] जानाति । करण इत्येव–तैलं सर्पिषो जानाति तैलं सर्पीरूपेण प्रतिपद्यत इत्यर्थः, अत्र तैलात् कर्मणो मा भूत्, सर्पिषस्तु करणत्वाद् भवत्येव । तृतीयाsपवादो योगः ।। ८० ।। न्या० स० -- श्रज्ञाने० । वेति निवृत्तमिति - भिन्नविभक्तिविधानादिति शेषः । सर्पिषो जानीते अत्र "ज्ञः " [३. ३. ८२. ] इत्यात्मनेपदम् । अत्र करणस्य संबन्धिरूप - 5 विवक्षया सर्पिष इदं ज्ञानं नान्यस्येति षष्ठी सिध्यतीति किमर्थोऽयं योग इत्याहतृतीयापवादो योग इति प्रयमर्थः - सिध्यति षष्ठी, किन्तु कररणविवक्षायां तृतीया मा भूदित्ययं योगः । सर्पिषामिति - आज - गव्य माहिषाणां घृतानामित्यर्थः ।। २.२.८० ।। शेषे ।। २.२. ८१ ॥ कर्मादिभ्योऽन्यः क्रियाकारकपूर्वकः कर्माद्यविवक्षालक्षरणोऽश्रूयमारणक्रियः 10 श्रूयमाणक्रियो वाऽस्येदंभावरूपः स्वस्वामिभावादिः संबन्धविशेषः - शेषः, तत्र गौरणान्नाम्नः षष्ठी भवति । राज्ञः पुरुषः, उपगोरपत्यम्, पशोः पादः, वृक्षस्य शाखा, क्षीरस्य विकारः, गवां समूहः, कुम्भस्य समीपम्, पृथिव्याः स्वामीति, न माषाणामश्नीयात्, सुभाषितस्य शिक्षते, न ते सुखस्य जानते, न तस्य सायमश्नीयात्, अन्नस्य नो देहि, अक्षारणां दीव्यति, घ्नतः पृष्ठं ददाति, नटस्य 15 शृणोति, वृक्षस्य पर्णं पतति, महतां विभाषते । कथं पुनः कर्मादीनां सतामप्यविवक्षा ? यथा - अनुदरा कन्या, अलोमिका एडकेति । गौरणादित्येवराज्ञः पुरुषः, अत्र संबन्धस्य द्विष्ठत्वेऽपि प्रधानात् पुरुषान्न भवति, प्राधान्यं चास्याऽऽख्यातपदसामानाधिकरण्यम्, तेन ततः प्रथमैव भवति, यदा तु पुरुषो राजानं प्रति गुणत्वं प्रतिपद्यते तदा पुरुषस्य राजेति भवत्येव । कथं राज्ञ: 20 पुरुषस्य कम्बल इति ? राजाऽपेक्षया पुरुषस्य प्राधान्येऽपि कम्बलाऽपेक्षया गौणत्वाद् भवति । प्रथमापवादो योगः ।। ८१ ।। न्या० स० - - शेषे० । सरस्वतीकण्ठाभरणे कर्मादिकारकारिण, इन्द्र- चान्द्राभ्यां करणप्राधान्यं श्रुतपालेन कलापके चाऽपादानस्य प्राधान्यं शकटाभिप्रायेण स्वमते च कर्तु : प्राधान्यत् । क्रियाकारकपूर्वक इति - क्रिया च कारकं च क्रियाकारके, ते पूर्वे यस्य 25 स तथा, यथा- राजपुरुषः, राजा कर्ता पुरुषं बिर्भात तो राजपुरुष इत्युच्यते । कर्माद्यविवक्षालक्षरण इति - कर्मादिभ्योऽन्य इति तु विशेषेभ्योऽन्यत्वं विवक्षितुं न तु सामान्यादनाश्रितविशेषात् कारकादपि । अश्रूयमारणक्रियः यथा - राज्ञः पुरुष इत्यादि । T Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ८२-८३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २७५ श्रूयमाणक्रियः, यथा-न माषाणामश्नीयादिति । अस्येदंभावरूप इति-अस्येदंशब्दस्य यो भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं सः। संबन्धविशेष इति-पत्र कारकसंबन्धाद् भिद्यमानः सम्बन्धः संबन्धविशेष उच्यते, यावता संबन्ध इत्युक्तऽपि सिद्धयेत्, विशेषस्थापनायोक्तम् । राज्ञः पुरुष इत्यादिषु यथाक्रमं संबन्धः कथ्यते-स्वस्वामिभावसंबन्धः, जन्य-जनकसं०, अवयवा-ऽवयविस०, प्राधार-ऽऽयस०, प्रकृतिविकारभावसबन्धः, समूह-समूहिभावस०, 5 समीप-समीपिभावसं०, पाल्य-पालकभावसं०, आश्याशनभावसं०, शिक्षणीयशिक्षणभावसं०, ज्ञान-ज्ञेयभावसं०, प्रास्यासनभावसं०, भक्ष्य-भक्षणभावसं०, देवनद्यूतभावसं०, दान-दानिविषयसं०, श्रवण-श्रवणावधिभावसं०, पतन-पतनावधिभावसं०, विभाष्य-विभाषणभावसंबन्धः, इत्यादिः। प्रथमापवाद इति-एक-द्वि-बहाविति संख्यामात्रमुपादाय नाम्नः प्रधानादप्रधानाच्च सामान्येन प्रथमा विधीयते. तत्राऽयं षष्ठीविधि-10 गौंणादिति विशेषमुपादाय प्रवर्त्तमानस्तदपवादो भवति ।। २. २. ८१ ।। रि-रिष्टात्-स्तादस्तादसतसाता ॥ २. २. ८२ ॥ 'रि - रिष्टात् - स्तात् - अस्तात् - अस्-अतस्-आत्' प्रत्ययान्तैर्युक्ताद् गौणान्नाम्नः षष्ठी विभक्तिर्भवति । रि-उपरि ग्रामस्य, रिष्टात्-उपरिष्टाद् ग्रामस्य, स्तात्-परस्ताद् ग्रामस्य, अवरस्ताद् ग्रामस्य; अस्तात्-पुरस्ताद्15 ग्रामस्य, अवस्ताद् ग्रामस्य, अधस्ताद् ग्रामस्य; अस्-पुरो ग्रामस्य, अवो ग्रामस्य, अधो ग्रामस्य ; अतस्-दक्षिणतो ग्रामस्य, उत्तरतो ग्रामस्य, परतो ग्रामस्य, अवरतो ग्रामस्य ; प्रात्-अधराद् ग्रामस्य, दक्षिणाद् ग्रामस्य, उत्तराद् ग्रामस्य, पश्चाद् ग्रामस्य; दक्षिणपश्चाद् ग्रामस्य । पञ्चम्यपवादो योगः ।। ८२ ।। 20 ___ न्या० स०--रिरिष्टा०। परस्तादिति-परः परा वा प्रकृति: “परावरात् स्तात्" [७. २. ११६.] "सर्वादयोऽस्यादौ” [३. २. १६.] इति पुभावः । दक्षिणपश्चादिति-दक्षिणा च साऽपरा च दक्षिणापरा तस्यां वसति । रिप्रभृतयः प्रत्ययाः स्वाथिका दिकशब्देभ्यो विधीयन्ते, अतस्तदन्ता अपि दिकशब्दा एव इति "शेषे" [ २. २. ८१. ] इत्यस्यापवाद: "प्रभृत्यन्यार्थ०" [२. २. ७५.] इति पञ्चमी विधीयते ।25 अत एव दक्षिणा ग्रामाद् रमणीयम्, दक्षिणाहि ग्रामाद् रमणीयमिति "पाही दूरे" [७. २. १२०.] इति प्रत्ययद्वययोगे षष्ठी न लभ्यत इत्याह-पञ्चम्यपवाद इति ।। २. २. ८२ ।।। कर्मणि कृतः ॥ २. २. ८३ ॥ कृतः-कृदन्तस्य संबन्धिनि कर्मणि गौरणानाम्नः षष्ठी भवति, द्वितीया-30 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ८४.] ऽपवादः । अपां स्रष्टा, पुरां भेत्ता, वर्षशतस्य पूरकः, पुत्रपौत्राणां दर्शकः, यवानां लावकः, अोदनस्य भोजकः, विश्वस्य ज्ञाता, तीर्थस्य कर्ता, उदकस्य पिबः, ग्रामस्य गमनम्, गवां दोहः । कर्मणीति किम् ? शस्त्रेण भेत्ता । क्रियाविशेषणस्थापि कर्मत्वाभावान्न भवति-साधु पक्ता, स्तोकं पक्ता । कृत इति किम् ? कटं करोति, कृतपूर्वी कटम्, भुक्तपूर्वी अोदनम् ; त्यादि- 5 तद्धितयोः कर्मणि मा भूत् । कथमर्थस्य त्यागी ?, सुखस्य भोगी ?, विषयाणां जयी ?, वीराणां प्रसविनीति ? अत्र ताच्छीलिकयोधिनरिणनोः कर्मेति भवति ॥ ८३ ।। न्या० स०-कर्मणि कृतः। द्वितीयापवाद इति-“कर्मणि" [ २. २. ४०.] इत्यनेन प्राप्तायाः। पुत्रपौत्राणामिति-पुत्रस्यापत्यमनन्तरं "पुनर्भू पुत्र०" [६. १. ३६.] 10 इत्यञ्, पुत्रस्य पौत्राः पुत्रसहिताः पौत्रा वा इति विधेयम्, द्वन्द्वे तु “गवाश्वादिः" [३. १. १४४.] इति समाहृतिः स्यात् । पिबतीति पिबः "घ्राध्मा०" [ ५. १. ५८. ] इति शः। कृत इति किमिति-अयमर्थ:-ननु कर्म कारकं, तच्च क्रियामन्तरेण न सभवति, यतः क्रियायाः कारकं कारकं भवति, क्रिया च प्रत्ययसहितं धातुमाक्षिपति, धातोश्च द्वये एव प्रत्यया विधीयन्ते-त्यादयः कृतश्च, तत्र "तं पचति०" |६.४.१६१. |15 इत्यादिज्ञापकात त्यादिप्रयोगे द्वितीयाविधानात कृत्प्रयोग एव षष्ठी भविष्यति. कृद्ग्रहणे नेति, नैवम्-कृद्ग्रहणमन्तरेण तद्धितप्रयोगेऽपि यत् कर्म तत्रापि षष्ठी स्यात् तनिषेधार्थं कृत्ग्रहणम् । कृतपूर्वी कटमिति-वर्तते, कः कर्ता ? कृतपूर्वी, पूर्वं कृतवानित्यर्थः, कं कृतपूर्वी ? कटन्, तत्र यथा चित्रगुरित्यादौ बहुव्रीहिणा स्वामिसामान्येऽभिहिते विशेषाभिधानाय चैत्रादिः प्रयुज्यते तथाऽत्रापि सामान्यकर्मण्यभिहिते विशिष्ट-20 कर्माभिधानाय कटादेः क्त नाऽनभिहितस्य द्वितीयान्तस्य प्रयोगः, सामान्येन व्यवहारासंभवाद् विशेषणावश्यं निर्वाहः कार्यः । कथमिति-त्यागोऽस्यास्ति इति इनि तद्धितप्रत्ययेऽर्थस्येत्यादि कर्मणि षष्ठी न प्राप्नोतीत्याशङ्कार्थः । “युज-भुज०" [५. २. ५०.] इति घिनण । “जीण-दृक्षि०" [५. २. ७२. ] इति "प्रात्सूजोरिन्" [५. २. ७१.] इति यथाक्रमं त्यागीत्यादिषु प्रत्ययाः ।। २. २. ८३ ।। 25 दिवषो वातशः ॥ २. २. ८४॥ अतृश्प्रत्ययान्तस्य द्विषः कर्मणि गौणानाम्न: षष्ठी वा भवति । चौरस्य द्विषन्, चौरं द्विषन् ; "तृन्नु०" [२. २. ६०.] आदिसूत्रेण प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् ।। ८४ ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ८५-८६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः न्या० स० -- द्विषो वाऽतृशः । विकल्पोऽयमिति श्रन्ये तु संबन्धविवक्षायामेवेयं षष्ठीति प्रतियन्तः सूत्रं नारभन्ते, एवं - " वा क्लीबे" [ २. २. २. ] इत्यपि ।। २. २. ८४ । वैकत्र द्वयोः ॥ २. २. ८५ ॥ द्विकर्मकेषु धातुषु द्वयोः कर्मणोरेकत्रैकतरस्मिन् वा षष्ठी भवति, अन्यत्र पूर्वेण नित्यमेव । प्रजाया नेता त्र ुघ्नम्, अजाया नेता त्र ुघ्नस्य, 5 अथवा-अजां नेता स्र ुघ्नस्य, अजाया नेता त्रघ्नस्य पयसो दोहको गाम्, पयसो दोहको गोः; यदि वा गोर्दोहकः पयः, गोर्दोहकः पयसः । अन्ये तु नीवह्यादीनां द्विकर्मकारणां गौणे कर्मरिण, दुहादीनां तु प्रधाने विकल्पमिच्छन्ति ; उभयत्राऽपि नित्यमेवेत्यन्ये ।। ८५ ।। [ २७७ न्या० स० - वैकत्र० । द्वयोः कर्मणोरिति ननु कृत इत्यस्यैव षष्ठ्यन्तस्य 10 द्वयोरिति कस्मान्न विशेषणम् ?, तत्रापि हि द्वयोः कृदन्तयोरेकं यत् कर्म तत्र षष्ठी वा भवतीत्ययं सूत्रार्थो घटते, तथा च प्रपां स्रष्टा भेत्ता च मैत्र इत्यादावेव विकल्पः स्यादिति, नैवम् एवं सति "कर्मरिण कृतो द्वयोश्च वा" इत्येकमेव योगं कुर्यात्, एवं च सति एकस्य कृतः कर्मरिण नित्यं षष्ठी भवति, द्वयोस्तु कृदन्तयोर्वा भवतीति सूत्रार्थे समस्तार्थस्य सिद्धत्वात्, तस्मात् पृथग्योगात् कर्मण एव विशेषणं न कृत इत्यस्य 115 अन्यत्रेति यतः “कर्मरिण कृतः” [ २. २. ८३ ] इत्यनेन द्वयोरपि कर्मणोः षष्ठी प्राप्ता पक्षेऽनेन निषिध्यते । अजाया नेता त्रघ्नमिति - एकत्रेति सामान्येन निर्देशात् प्रधानाप्रधानकर्मणोरविशेषेण ग्रहणमित्युभयत्रैवोदाहरति । ननु कर्मणीत्यधिकृतत्वादेकशब्दस्य च द्वितीयसव्यपेक्षत्वात् एकत्रेत्युक्तेऽपि द्वयोः कर्मणोरेकतरस्मिन्निति गम्यत एव किं द्वयोरित्यनेन ? नैवम् - एवं सति प्रधानाप्रधानसंनिधौ प्रधाने कार्य संप्रत्ययः * इति20 न्यायात् प्रधान एव कर्मरिण स्यात्; यद्वा गौणादित्यधिकारात कर्मापेक्षयापि गुणकर्मण्येव स्यादिति द्वयोरपि प्रधानाप्रधानकर्मणोः पर्यायेण षष्ठीविकल्पार्थं द्वयोरित्युपादानमित्यदोषः ।। २. २. ८५ ।। कर्तरि ॥ २.२.८६ ॥ भवत 25 कृदन्तस्य कर्तरि गौणान्नाम्नः षष्ठी भवति, तृतीयाऽपवादः । प्रासिका, भवत: शायिका, भवतः स्वाप:, भवत प्रासना, भवतोऽग्रगामिका | कर्तरीति किम् ? गृहे शायिका । कृत इत्येव - त्वया शय्यते ।। ८६ ।। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] न्या० स० -- कर्त्तरि० । प्रासितु पर्याय: "पर्याय ० ' एक:, प्रासिका । आसनम्, आसना "रिणवेत्ति ०" इत्यनः ।। २. २. ८६ ।। बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ८७.] [५. ३. १२०.] इति [ ५. ३. १११. ] विहेतोरस्त्र्यणकस्य वा ॥ २. २. ८७ ।। वा, स्त्र्यधिकारविहिताभ्यामकार - रणकाभ्यामन्यस्य द्वयोः कर्तृ - कर्मषष्ठयोः 5 प्राप्तिहेतोः कृतः कर्तरि षष्ठी वा भवति, नित्यं प्राप्ते विभाषेयम् । विचित्रा सूत्रस्य कृतिराचार्यस्याऽऽचार्येण वा साधु खल्विदं शब्दानामनुशासनमाचार्यस्याचार्येण वा, साध्वी संग्रहण्याः कृतिः क्षमाश्रमणस्य क्षमाश्रमणेन आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालकस्य गोपालकेन वा साधु खलु पयसः पानं मैत्रस्य मैत्रेण वा, साध्वी खल्वनेकान्तजयपताकायाः कृतिराचार्यहरिभद्रस्या- 10 ssचार्यहरिभद्रेण वा । गम्यमानेऽपि कर्मरिण भवति - प्रन्तर्द्धा येनाऽदर्शनमिच्छति, यस्याऽदर्शनमिच्छतीति वा ; अत्राऽऽत्मन इति कर्म गम्यते । द्विहेतोरित्येकवचननिर्देश: किम् ? श्राश्वर्यमोदनस्य नाम पाकोऽतिथीनां च प्रादुर्भाव इति, भिन्नकृतोः कर्तृ -कर्मषष्ठीहेतुत्वमत्रेति न भवति । अस्त्र्यणक्रस्येति किम् ? चिकीर्षा मैत्रस्य काव्यानाम्, भेदिका चैत्रस्य काष्ठानाम् ; 15 रिगगन्तभिदेस्तु भेदिका चैत्रस्य मैत्रस्य काष्ठानाम् । कर्तरीत्येव - साधु खल्विदं शब्दानामनुशासनमाचार्यस्याऽऽचार्येण वेत्यत्र शब्दशब्दात् कर्मरिण विकल्पो न भवति । अन्ये तु घञल्प्रत्यययोद्विहेत्वोः कर्मण्येव षष्ठीमिच्छन्ति न कर्तरि - आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालकेन, आश्चर्य इन्द्रियाणां जयो यूना || ८७|| "" न्या० स० -- द्विहेतो ० । नित्यं प्राप्ते इति - " कर्त्तरि" [ २. २. ८६. ] इत्यनेन 120 खल्विदमिति - "खल संचये च" खलतीति "भृ-मृ-तृ ' [ उणा० ७१६. ] इति बहुवच - नादुः । [ संग्रहण्याः] संगृह्यन्ते स्तोकशब्दैर्बहवोऽर्था प्रस्यामिति "ऋ - हृ-सृ०” [ उणा० ६३८. ] इत्यरिणः । अगोपालकेनेति - पालयतीति गकः, गवां पालकः " अकेन क्रीडाजीवे ०' [ ३. १. ८१. ] समासः । अन्तद्धौ येनादर्शन मिच्छतीति पञ्चमीविधायकं पाणिनिसूत्रमिदम् अस्य चायमर्थः - अन्तद्ध - अन्तद्धिविषये आत्मनः कर्मतापन्नस्य येनो - 25 पाध्यायादिना कर्तृभूतेन यददर्शनं तदिच्छतीत्यर्थः । भिन्नकृतोरिति - ननु पाक इत्यत्रापि भावाऽकर्त्रीर्घञ्, प्रादुर्भाव इत्यत्रापि स एव तत् कथं भिन्नकृतोरित्युच्यते, सत्यम्धातुभेदा तस्यापि भेद इत्यदोष: । भेदिका चैत्रस्य मैत्रस्य काष्ठानामिति-भेदयितु Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ८८-८६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २७६ पर्याय इत्येव कार्य, भावे तु "णिवेत्ति." [ ५. ३. १११. ] इत्यनेनाऽनप्रत्यय एव स्याः । नन्वत्र प्रयोज्य-प्रयोजककोंः प्रधाने प्रयोजके षष्ठी प्राप्नोति गौण-मुख्ययो:०० इति न्यायात्, सत्यम्-यथा एकवाक्यस्थयो: कोंस्तृतीया स्यात् तथा तद्वाधिका षष्ठयपि । अन्ये तु घलेति-ललितस्वभाव इत्यर्थः । काशिकाकारस्तु स्त्र्यधिकारविहितयोरणकयोः प्रतिषेधादन्यस्मिन्नपि स्त्रीप्रत्यय एव षष्ठीमिच्छति । अपरे तु एकाकारयोर्भावाभि- 5 धायकयोः कृतोः प्रतिषेधाशंसनादन्यस्मिन् भावाभिधायक एव षष्ठीमिच्छन्ति ।।२.२.८७।। कत्यस्य वा ॥२. २.८८ ॥ कृत्यस्य कर्तरि गौरणानाम्नः षष्ठी वा भवति । भवतः कार्यः कटः, भवता कार्यः कटः; कर्तव्यः, करणीयः, देयः, कृत्यो वा कटः । कर्तरीत्येवगेयो माणवको गाथानाम्, प्रवचनीयो गुरुदिशाऽङ्गस्य ।। ८८ ॥ न्या० स०-कृतस्य वा। गेयो माणवको गाथानामिति-अत्र व्यावृत्तेर्गाथानामित्यत्र कर्मणि साफल्यं, माणवकात् तु अगौणत्वात् प्राप्तिरेव नास्ति ।। २. २. ८८ ।। नोभयोहंतोः ॥ २. २. ८६ ॥ उभयोः-कर्तृ-कर्मणोः षष्ठीहेतोः कृत्यस्य संबन्धिनोरुभयोरेव षष्ठी न भवति । नेतव्या ग्राममजा मैत्रेण, ऋष्टव्या ग्रामं शाखा चैत्रेण; जेतव्यः15 शतं मैत्रश्चैत्रेण । उभयोर्हेतोरिति किम् ? एकैकहेतोर्मा भूत-उपस्थानीयः पुत्रः पितुः, उपस्थानीयः पिता पुत्रस्य ।। ८६ ।। न्या० स०-नोभयोः०। ननु द्विकर्मकेषु धातुषु तावदयं प्रतिषेधः, तत्रैवोभयप्राप्तिसंभवात्, तत्र प्रधानकर्मणः कृत्येनैवाभिहितत्वात् षष्ठयविषयत्वा- प्रधानाऽप्रधानसंनिधौ प्रधान एव संप्रत्ययः इति न्यायात् तव्यादिवत् अप्रधानादप्यप्रसङ्गात्20 कर्तवैव प्रतिषेधो न्याय्य इत्युभयग्रहणमतिरिच्यते, नैवम्-द्वितीयाबाधिका हि कृत्प्रयोगे षष्ठी विधीयते, द्वितीया चाप्रधानाद् यथा भवति तथाऽत्र षष्ठ्यपि भविष्यति । उपस्थानीयः पुत्रः पितुः उपतिष्ठते “प्रवचनीयादयः" [५. १. ८.] इति कर्तर्यनीयः, अत्र पितुः शब्दात् "कर्मणि कृतः" [ २. २. ८३.] इति कर्मणि षष्ठी, द्वितीये तु उपस्थीयते इति कर्मणि “तव्या-ऽनीयौ [५. १. २७.] "कृत्यस्य वा” [ २. २. ८८. ] इति कर्तरि25 पुत्रात् षष्ठी ।। २. २. ८६ ।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ६० - ६१.] तुन्नुदन्ता-व्यय-क्वस्वाना-तृश् - शतृङि-णकच्खलर्थस्य ॥ २. २. ६० ।। २८० ] तृन उदन्तस्य अव्ययस्य क्वसोरानस्य प्रवृशः शतुः ङे: रणकचः खलर्थस्य च कृतः संबन्धिनोः कर्मकर्त्रीः षष्ठी न भवति । तृन् - वदिता जनाऽपवादान्; उदन्त - कन्यामलंकरिष्ण ु: रिपून् जिष्ण ु, शरान् क्षिप्ण:, 5 प्रोदनं बुभुक्षुः, देवान् वन्दारुः, धारुर्वत्सो मातरम्, श्रद्धालुस्तत्त्वम्; अव्ययकटं कृत्वा, पयः पाय पायं व्रजति, प्रोदनं भोक्तुं व्रजति; क्वसु-प्रोदनं पेचिवान्, तत्त्वं विद्वान्; ग्रानेति उत्सृष्टाऽनुबन्धनिर्देशात् कान - शाना- ऽऽनशां ग्रहणम्, कटं चक्रारणः, वचनमनूचानः; शान - मलयं पवमानः, कतीह कवच मुद्वहमानाः, कतीह शत्रून् निघ्नानाः, कतीह वपुर्भूषयमारणाः; श्रनश् - 10 प्रोदनं पचमानः, चैत्रेण पच्यमानः, कटं करिष्यमाणः, अतृश् - प्रधीयंस्तत्त्वार्थम्, धारयन्नाचाराङ्गम्; शतृ-कटं कुर्वन्, कटं करिष्यन्; ङि - परीषहान् सासहिः, कटं चत्रिः, दधिश्चित्तम्; णकच् - एधानाहारको व्रजति, कटं कारको व्रजति; चिन्निर्देशात् एकस्य न भवति - वर्षशतस्य पूरक:, पुत्रपौत्रस्य दर्शकः; खलर्थः-ईषत्करः कटो भवता, सुज्ञानं तत्त्वं भवता ।। ६० ।। 15 न्या० स० -- तृन्नुदन्ता० । “कर्मरिण कृतः” [ २. २. ८३. ] " कर्तरि " [ २. २. ८६. ] इति च प्राप्तायाः षष्ठ्या अपवादः । पायं पायं "रुणम् चाभीक्ष्ण्ये" [ ५. ४. ४८. ] “भृशा०” [ ७. ४. १७३ ] इति द्वित्वं च । भोक्तुं व्रजतीति श्रत्र हेतुहेतुमद्भावे तृतीया, "तुमोऽर्थे० " [ २. २. ६१. ] इत्यनेन चतुर्थी वा संबन्धविवक्षायां षष्ठी वा । परिषह्यन्ते “स्थादिभ्यः कः” [ ५. ३. ८२. ] "सोङसिवू सहस्सटाम्” [ २. ३. ४८. ]20 षत्वम्-परीषहाः, “घञ्युपसर्गस्य०" [ ३. २. ८६. ] इति दीर्घः । प्रहरिष्यतीति “क्रियायाम्०” [ ५. ३. १३. ] इति णकचि - आहारकः ।। छ । । २. २. ६०.] क्तयोरसदाधारे ॥। २. २. ६१ ॥ सतो वर्तमानादाधाराच्चान्यस्मिन्नर्थे विहितौ यौ तौ - क्तक्तवत् तत्संबन्धिनोः कर्म-कर्त्रीः षष्ठी न भवति । कटः कृतो मैत्रेण, कटं कृतवान् ; 25 गतो ग्रामं चैत्रः, ग्रामं गतवान् । असदाधार इति किम् ? राज्ञां ज्ञातः, राज्ञां बुद्धः, राज्ञां मतः, राज्ञामिष्टः, राज्ञां पूजितः, "कान्तो हरिश्चन्द्र इव T Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६२-६३.] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २८१ ] प्रजानाम्;" "ज्ञानेच्छा०" [५. २. ६२.] इत्यादिसूत्रेण सत्यत्र क्तः । कथं शीलितो मैत्रेण ?, रक्षितश्चैत्रेण ?; भूतेऽयं क्तः, वर्तमानताप्रतीतिस्तु प्रकरणादिनेति । अन्ये तु ज्ञानेच्छार्थिताच्छील्यादिभ्योऽतीते क्त नेच्छन्ति, तन्मते-अपशब्दावेतौ। आधारे-इदमोदनस्य भुक्तम्, इदं सक्त नां पीतम्, इदमहेः सृप्तम्, इदमेषामासितम्; "अद्यर्थाच्चाऽऽधारे" [५. १. १२.] 5 इति क्तः ।। ६१ ।। न्या० स०--क्तयोर०। ननु सन् धात्वर्थः, तत्र धातुरेव वर्तते, कृ प्रत्ययस्तु "कर्तरि" [ २. २. ८६. ] इत्यादिना कारके भावे च विधीयते, तत्र सति प्रत्ययविधिरेव नास्ति कथं प्रतिषेधः-सतोऽन्यस्मिन्नर्थ इति, नैष दोषः-सदर्थसहचारी प्रत्ययार्थोऽपि सन्नित्युच्यते ; यद्वा धात्वर्थोऽपि सन्निति प्रत्ययत एव विज्ञायते, नहि धातुतः क्रियालभरणो10 धात्वर्थो भूतो भवन् भविष्यन्निति वा ज्ञातु शक्यः, धातुर्हि क्रियामात्रमाह, न त्वमु विशेषम्, स तु प्रत्ययादेव प्रतीयत इति कादिकारकवृत्तिरपि प्रत्ययः सतीति विज्ञायते । कथमिति-शीलितो मैत्रेणेत्यादावपि-"ज्ञानेच्छा." [५. २. ६२.] इति क्तः, वर्तमानताप्रतीतिरप्यस्ति, तत् कथं निषेध इत्याशङ्कार्थः। भूतेऽयं क्त इति-यद्ययं भूते क्तः कथं वर्तमानताप्रतोति: ? उच्यते-वर्तमानमध्ये भूतो भविष्यंश्च कालोऽस्त्यतो भूते क्तः, यथा15 कटं करोतीत्यत्र कटस्य येऽवयवा निष्पन्नास्तदपेक्षयाऽतीतत्वं, ये च निष्पद्यमानास्तदपेक्षया वर्तमानत्वं, ये च निष्पत्स्यन्ते तदपेक्षया भविष्यत्वम् । अहेः सप्तमिति-सदाधारादन्यत्र चातु:शब्द्यं भवति, यदा कर्तरि क्तस्तदा-इममहिः सृप्तो देशं, यदा कर्मणि तदा-अयमहिना सृप्तो देशः, भावे तु “वा क्लीबे" [२. २. ६२.] इति वा षष्ठ्यामहेः सृप्तमहिना सृप्तमिति ।। २. २. ६१ ॥ 20 वा क्लीबे ॥ २. २. ६२ ॥ . क्लीबे यो विहितः क्तस्तस्य कर्तरि षष्ठी वा न भवति । छात्रस्य हसितम्, छात्रेण हसितम्; मयूरस्थ नृत्तम्, मयूरेण नृत्तम्; कोकिलस्य व्याहृतम्, कोकिलेन व्याहृतम्; इहाहेः सृप्तम्, इहाऽहिना सृप्तम् । क्लीब इति किम् ? चैत्रेण कृतम्, "क्तक्तवतू" [५. १. १७४.] इति भावे क्तः ।25 पूर्वेण प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् ।। ६२ ॥ अकमेरुकस्य ॥२. २. ६३ ॥ कमेरन्यस्योकप्रत्ययान्तस्य कर्मणि षष्ठी न भवति । अागामुकं Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] बृहद्वृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ६४-६६.] वाराणसी रक्ष पाहुः, भोगानभिलाषुकः । अकमेरिति किम् ? दास्या: । कामुकः ।। ६३ ॥ न्या० स०--अकमे० । वाराणसीति-वरणा च असिश्च वरणासी नद्यौ, ते विद्यते अस्याम् "अहरादिभ्योऽनु" [ ६. २.८७ ] पृषोदरादित्वा । ह्रस्वदीर्घव्यत्ययेऽञन्तत्वाद् ङ्याम् ; यद्वा वराण इति वीरणस्याख्या, वराणास्तृणविशेषाः सन्त्यस्यां “तृणादेः सल्" 5 [६. २. ८१. ] "लिमिन्यनि" [ लिङ्गानुशासने ] इति स्त्रीत्वे वराणसाया अदूरभवा "निवासा-दूर०" [ ६. २. ६९. ] इत्यण ।। २. २. ६३ ।।। एष्यहणेनः ॥ २. २. ६४ ॥ एष्यत्यर्थे ऋणे च विहितस्येनः कर्मणि षष्ठी न भवति । इन इति इन्-णिनोर्ग्रहणम् । ग्रामं गमी, औणादिक इन्, ग्राममागामी औरणादिको10 णिन्; शतं दायी, सहस्र दायी, कारी मेऽसि कटम्, हारी मेऽसि भारम् ; एष्वाधमर्थे णिन् । एष्यदृणेति किम् ? अवश्यंकारी कटस्य, साधुदायी वित्तस्य ।। ६४ ॥ न्या० स०--एष्यद०। शतं दायी शतं धारयन् ददाति "णिन् चावश्यक." [५. ४. ३६.] इति णिन् । करोषीति हरसीति [कारी, हारी] पूर्ववणिन् 15 ॥२. २. ६४ ।। सप्तम्यधिकरणे ॥ २. २. ६५ ॥ गौणानाम्न एक-द्वि-बहावधिकरणे कारके 'डि-पोस्-सूप' लक्षणा यथासंख्यं सप्तमी विभक्तिर्भवति । दिवि देवाः, पर्यङ्क प्रास्ते, तिलेषु तैलम्, गुरौ वसति, युद्धे संनह्यते, अमुल्यग्रे करिशतम् ।। ६५ ।। 20 न्या० स०--सप्तम्यधि० । अत्र सत्यर्थे वैषयिके वा स मी ।। २. २. ६५ ।। नवा सुजथै काले ॥ २. २. ६६ ॥ सूचोऽर्थो वारलक्षणो येषां प्रत्ययानां तदन्तैर्युक्तात् कालेऽधिकरणे वर्तमानाद् गौणान्नाम्नः सप्तमी वा भवति । द्विरह नि भुङ्क्ते, पक्षे शेषे षष्ठी-द्विरह नो भुङ्क्त; मासे पञ्चकृत्वो भुङ्क्ते, मासस्य पञ्चकृत्वो25 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६७-६८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २८३ 15 भुङ्क्त; बहुधाऽह नि भुङ्क्त, बहुधाह नो भुङ्क्त । सुजथैरिति किम् ? अह नि भुङ्क्ते, रात्रौ शेते । बहुव्रीह्याश्रयणं किम् ? सुजर्थप्रत्ययस्याप्रयोगे गम्यमाने तदर्थे मा भूत् । काल इति किम् ? द्विः कांस्यपात्र्यां भुङ्क्ते । अधिकरणे इत्येव-द्विरह्ना भुङ्क्ते । आधारस्याऽऽधारत्वाऽविवक्षायां पक्षे शैषिकी षष्ठी सिद्धैव, नियमार्थं तु वचनम्, तेन प्रत्युदाहरणेषु शेषे षष्ठी न 5 भवत्येव ।। ६६ ।। न्या० स०-नवा सु०। अधिकर, नित्यं स' मी सिद्धव, पक्षे षष्ठीविधानार्थं तु सूत्रम् । बहुव्रीह्याश्रयणं किमिति-अन्यथा षष्ठीतत्पुरुषाश्रयेण "सुजर्थे काले" इति कृते यदाऽर्थादिना द्विर्भुङ्क्त' इति द्विस्त्रिर्वेति प्रतीयते तदापि स्यात्, तदा मा भूदित्येवमर्थं तदाश्रयमित्यर्थः । द्विः कांस्यपाच्यामिति-कंसायेदं कंसीयं “परिणामिनि 10 तदर्थे" [ ७. १. ४४. ] इतीयः, ततः कंसीयस्य विकार: "कंसीयायः " [ ६. २. ४१. ] इति ञ्यो यलुक् च । द्विरह्ना भुङ्क्ते इति-अहरधिकरणमपि अत्राऽशने करणविवक्षामनुभवतीति तृतीयैव भवति । नियमाथं तु वचनमिति-सुजथैरेव योगे काले सप्तमी वा भवति, सुजोंगे काल एव वा सा मी भवतीत्युभयथापि नियमात् प्रत्युदाहरषु आधारस म्येव न षष्ठीति ।। २. २. ६६ ।। कुशला-युक्तेनासेवायाम् ॥ २. २. ६७ ॥ ___ कुशलो-निपुणः, आयुक्तो-व्यापृतः; प्राभ्यां युक्तादाधारे वर्तमानाद् गौरणान्नाम्नः सप्तमी वा भवति, आसेवायां-तात्पर्ये गम्यमाने । कुशलो विद्याग्रहणे, आयुक्तस्तपश्चरणे; पक्षे अधिकरणाऽविवक्षायां शेषषष्ठी-कुशलो विद्याग्रहणस्य, आयुक्तस्तपश्चरणस्य । आसेवायामिति किम् ? कुशलश्चित्र-20 कर्मणि, न च करोति; आयुक्तो गौः शकटे-पाकृष्य युक्त इत्यर्थः, "अधिकरणे" [२. २. ६५.] इत्येव नित्यं सप्तमी। पक्षे आधारस्याऽविवक्षायां विकल्पे सिद्धेऽनासेवायामाधाराऽविवक्षानिवृत्त्यर्थं वचनम् ।। ६७ ।। न्या० स०--कुशलायुक्ते । आयुक्त इति-"युजं पी" आयुङक्त स्म, “युजिच्” आयुज्यते स्म, कर्तरि क्तः ।। २. २. ६७ ।। 25 स्वामीश्वरा-धिपति-दायाद-साक्षिप्रतिभू-प्रसूतैः ॥२. २. ९८॥ एभिर्युक्ताद् गौणान्नाम्नः सप्तमी वा भवति; पक्षे-शेषषष्ठी। गोषु Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] बृहद्वृत्तिल वुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ६६ - १०० . ] " स्वामी, गवां स्वामी; गोष्वीश्वरः, गवामीश्वरः; गोष्वधिपतिः, गवामधिपति:; गोषु दायादः, गवां दायादः ; गोषु साक्षी, गवां साक्षी; गोषु प्रतिभूः, गवां प्रतिभूः, गोषु प्रसूतः, गवां प्रसूतः । “स्वामीश्वराऽधिपति ० ' इति पर्यायोपादानात् पर्यायान्तरयोगे न भवति - ग्रामस्य राजा, ग्रामस्य पतिः; षष्ठ्य ेव भवति । सप्तम्यर्थं वचनम् ।। ६८ ।। न्या० स० -- स्वामीश्वरा० । अधिपतीति - प्रधिरूढः पति “प्रात्यव०" [३. १. ४७. ] इति सः, अधिकश्वाऽसौ पतिश्च वा । प्रसूते स्म “ गत्यर्थ ० " [ ५. १. ११. ] इति क्तः । सप्तम्यर्थं वचनमिति प्रयमर्थः स्वाम्यादीनां गवादिसंबन्धित्वं तन्निवृत्तौ हि तेषां स्वाम्यादिभावाभाव:, तत्रास्त्येव षष्ठी, सप्तमो तु क्रियाप्रतीत्यभावान्नास्तीति पक्षे सप्तमी प्रापरणार्थं वचनमिति ।। २. २.६८ ।। 5 10 व्याप्ये क्तेनः ।। २. २. ६६ ॥ इष्टादिभ्यः क्तान्तेभ्य इष्टमनेनेत्याद्यर्थे तद्धित इन् वक्ष्यते, क्तप्रत्ययान्ताद् य इन् तदन्तस्य व्याप्ये वर्तमानाद् गौरणान्नाम्नः सप्तमी भवति ; वेति निवृत्तम् । अधीतं व्याकरणमनेनेति वाक्याऽवस्थायामभिधायाऽधीतीति वृत्त्योक्तं नाऽनभिहिते कर्मणि प्रत्त्यायार्थकर्तृकेण च धात्वर्थेन व्याप्यमाने 15 कृतपूर्वी कटमित्यादाविव द्वितीयायां प्राप्तायां तदपवादोऽयम् । प्रधीतं व्याकरणमनेनाऽधीती व्याकरणे, ग्राम्नातं द्वादशाङ्गमनेनाऽऽम्नाती द्वादशाङ्ग े, परिगणितं ज्योतिरनेन परिगणिती ज्योतिषि ; इष्टो यज्ञोऽनेनेष्टी यज्ञे । न इति किम् ? कटं करोति । क्तग्रहणं किम् ? कृतपूर्वी कटम्, भुक्तपूर्वी प्रोदनम् । इन्ग्रहणं किम् ? उपश्लिष्टो गुरून् मैत्रः । व्याप्य इति किम् ?, 20 मासमधीती व्याकरणे, अत्र मासान्मा भूत्, मासस्य हि न कर्मत्वम्, द्वितीया तु " काला-ध्वनोर्व्याप्तौ ” [ २. २. ४२. ] इत्यनेन ।। ६६ ।। तद्युक्ते हेतौ ॥ २. २. १०० ।। हेतुर्निमित्तं कारणम्, तेन - व्याप्येन युक्त – संयुक्त हेतौ वर्तमानाद् न्या० स० -- व्याप्येक्तेनः । वेति निवृत्तमिति व्याप्योपादानात्, तेन ह्यधिकारभेदः, पृथग्योगादिति वा । प्रत्ययार्थेत्यादि - प्रत्ययस्यार्थः प्रत्ययार्थः, प्रत्ययार्थः कर्ता यस्य धात्वर्थस्य अध्ययनलक्षणस्य स तथा तेन व्याप्यमाने व्याकरण इति ।। २.२ ।। 25 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १०१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २८५ गौणान्नाम्नः सप्तमी भवति । हेतुतृतीयाऽपवादः । "चर्मणि द्वीपिनं हन्ति, दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम् । केशेषु चमरी हन्ति, सीम्नि पुष्पलको हतः" ।। १ ।। तद्यक्त इति किम् ? वेतनेन धान्यं लुनाति, नाऽत्र वेतनं धान्येन संयुक्तम्, धनेन वसति । हेताविति किम् ? देवस्य पादौ स्पृशति ।। १०० ।। 5 ___ न्या० स०-तद्युक्तेः । तेन व्याप्येन युज्यते स्म । तथात्र नानादेशजविनेयानुग्रहार्थं युक्त-हेतुनिमित्तंकारणमिति बहुतरपर्यायकथनम्,हेतुशब्दोपादानात् त्विह विशिष्टमेव निमित्तमभिप्रेतं, न निमित्तमात्रम्, अन्यथा “तद्युक्त निमित्ते" इति कृते दात्रेण धान्यं लुनातीति निमित्तमात्रवाचिनो दात्रादपि स्यात् सप्तमी, कैन चोपपदविभक्त: कारकविभक्तिर्बलीयसी इति न भविष्यतीति वाच्यम्, यतो यथा कर्तृ-करणयोस्तृतीया विहितेति 10 तृतीयायाः कारकविभक्तित्वं तथाऽत्र सप्तम्या अपि 'व्याप्येन युक्तः' इति कारकश्रुत्या कारकविभक्तित्वम् ; सा ह्य पपदविभक्तिर्यत्र कारकगन्धोऽपि नास्ति, यथा शक्तार्थवषडादिभिर्योगे चतुर्थीति. तस्माद्ध तुशब्दाभिधेयं विशिष्टमेव निमित्तं, यदर्थः क्रियारम्भस्तदेवात्र निमित्तमभिप्रेतं न निमित्तमात्र, तेन दाबान्न सप्तमी, नहि दात्रा लवनक्रियेति । द्वीपिनमिति-द्विधा गता आपो यत्र "ऋक्तः०" [७. ३. ७६.] “द्वयन्तरनवर्ण."15 [ ३. २. १०६. ] इतोयादेशे द्वीपमस्यास्ति इन्, अयं नन्तः पुल्लिङ्गः, यदा तु द्वीपमाचष्टे रिणजि "विपिन." [ उणा० २८४. ] इति निपात्यते तदाऽकारान्त: “अभिधानद्वीपिनौ” इति प्रतिपदपाठात् पूक्लीबः । कुखौ दन्तावस्य स्तो "मध्वादिभ्यो र:" [ ७. २. २६. ] पूष्पं लातीति डेऽज्ञाताद्यर्थविवक्षायां के च-पुष्पलकः । देवस्य पादावितिअस्त्यत्र पादलक्षणेन कर्मणा देवस्य योगो हेतुत्वं तु नास्तीति ।। २. २. १०० ॥ 20 अप्रत्यादावसाधुना ॥ २. २. १०१॥ असाधुशब्देन युक्ताद् गौरणान्नाम्नोऽप्रत्यादौ-प्रत्यादिप्रयोगाऽभावे सप्तमी भवति । असाधुमैत्रो मातरि। अप्रत्यादाविति किम् ? असाधुमैत्रो मातरं प्रति, मातरं परि, मातरमनु, मातरमभि ।। १०१ ।। न्या० स०--अप्रत्यादा०। इहादिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वात् प्रति परि अनु25 अभि इत्येत एवाप्रत्यादावित्यनेन ग्राह्याः । ननु साधुशब्देन सदाचार उच्यते, आचरणं च क्रियाविषयमिति मातृशब्देन तत्स्था परिचर्यादिक्रिया उच्यते इति मातृपरिचरणादिक्रियाणां सम्यगाचरिता मातरि साधुरित्युच्यते, तद्वै परीत्येनासाधुर्मातरीति, ततश्चाऽसाधुमैत्रो मातराति मातृविषयस्य साधुत्वस्य निषेधात् प्रथम मात्रा साधोर्योगादन्त Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] बृह वृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १०२-१०४.] रङ्गत्वादुत्तरेणैव सिद्धा सपमो, किमतेनेति, नैवम्-पदान्तरसंबन्धादेकपदवर्तित्वेन । नसंबन्धस्यान्तरङ्गत्वादसमर्थनसमासस्य च नियतविषयत्वादर्थान्तराभिधायिना नञ्समासेनव मातु: संबन्धो युक्तोऽब्राह्मणमानयेत्यादिवदिति “साधुना" [ २. २. १०२. ] इत्युत्तरेण न सिध्यतीति वचनम्। नन्वभियोगे “लक्षणवीप्स्य०" [२. २. ३६. ] इत्यनेन, प्रत्यादियोगे तु “भागिनि०" [२. २. ३७. ] इत्यनेन च द्वितीयाया विशेष- 5 विधानात सप्तमी न भविष्यति, किमप्रत्यादावित्यनेन, सत्यम्-असाधूशब्दाभावेऽपि द्वितीया चरितार्था इति प्रत्यादिप्रयोगे सप्तमी स्यात् ।। २.२.१०१ ।। साधुना ॥ २. २. १०२ ॥ साधुशब्देन युक्ताद् गौणान्नाम्नोऽप्रत्यादौ सप्तमी भवति । साधुमैत्रो राजनि, साधुर्मातरि । अप्रत्यादावित्येव साधुर्मैत्रो राजानं प्रति, राजानं परि,10 राजानमनु, राजानमभि । उत्तरत्राऽर्चायां विधानात्, अनर्चायां तु व्यावृत्तेस्तत्त्वाख्याने विधिरयम् । कथं तहि साधु त्यो राज्ञ इति ? भृत्यापेक्षाऽत्र षष्ठी न साध्वपेक्षा, साध्वपेक्षायां तु सप्तम्येव भवति ।। १०२ ।। न्या० स०-साधुना। उत्तरत्रेति-पूर्वे त्व ग्रहणमुत्तरत्र निपुणविशेषणार्थमेव प्रतियन्तः सर्वत्र साधुशब्दयोगे सप्तमी प्रतियन्ति, यदुत्पल:-'एवं चार्चाग्रहणं निपुण-15 विशेषणार्थं संपद्यते' इति ।। २. २. १०२॥ निपुणेन चार्चायाम् ॥ २. २. १०३ ॥ निपुणशब्देन साधुशब्देन च युक्ताद् गौणान्नाम्नोऽप्रत्यादौ सप्तमी भवति, अर्चायां गम्यमानायाम्, षष्ठ्यपवादः। मातरि निपुणः, पितरि साधुः । अर्चायामिति किम् ? निपुणो मैत्रो मातुः, साधुमैत्रः पितुः, मातैवैनं20 निपुणं मन्यते, पितैव साधुमित्यनर्चायां न भवति । अप्रत्यादावित्येव-निपुणो मैत्रो मातरं प्रति, मातरं परि, मातरमनु, मातरमभि ।। १०३ ।। न्या० स०-निपुणेन। अर्चायामिति-"अचिरण अर्चने" "भीषिभूषि०" [५. ३. १०६.] इत्यञ् बहुवचनात् । मातरि निपुरणः अत्र मातरि सुष्ठ वर्तत इति मैत्रादेः प्रशंसा गम्यत इति ।। २. २. १०३ ॥ स्वेशेऽधिना ॥ २. २. १०४ ॥ स्वे-ईशितव्ये, ईशे च स्वामिनि वर्तमानादधिना युक्ताद् गौणान्नाम्नः 25 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १०५-१०६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २८७ . ___15 सप्तमी भवति, अधिः स्वस्वामिसंबन्धं द्योतयति, तत्र स्व-स्वामिवाचिनोर्यद् गौणत्वेन विवक्ष्यते ततो भवति । स्वे-अधि मगधेषु श्रेणिकः; अध्यवन्तिषु प्रद्योतः; ईशे-अधि श्रेणिके मगधाः, अधि प्रद्योतेऽवन्तयः; षष्ठीबाधनार्थों योगः ।। १०४ ।। न्या० स--स्वेशे०। ईशितव्य इति यथेष्ट विनियोज्ये। अधेरुपरिभाव- 5 स्वस्वामिसंबन्धयोोतकत्वेऽपि 'स्वेशे' इति वचनादत्र स्वस्वामिसंबन्धद्योती गृह्यते । संबन्धस्योभयनिष्ठत्वे युगपदुभयत्र स मी स्यादित्याह-यद्गौणत्वेनेति । अधि मगधेष्वित्यादिषु "विभक्तिसमीप०" [ ३. १. ३६. ] इति नाव्ययीभावो विभक्त्यर्थत्वाभावात्, यतो विभक्तिविभक्त्यर्थः कारकम्, अत्र च षष्ठ्यपवादः सप्तमी इति न विभक्त्यर्थत्वम् । यदि च समासः स्यात् तदा वाक्यं निवर्तत नित्यसमासत्वात् 'अधिस्त्रि' इत्यादिवत् ; 10 यदा तू सप्तम्यर्थ एवाधिशब्दस्तदात्राप्यव्ययीभाव एव-अध्यवन्ति प्रद्योत इति । नन्वत्र क्रमेण परस्परमाधाराधेयभावविवक्षायां पर्यायेण “सप्तम्यधिकरणे' [ २. २. ६५. ] एव स मी भविष्यति, किमननेति, सत्यम्-संबन्धविवक्षया षष्ठ्यपि स्यादित्याह-षष्ठीबाधनार्थों योग इति ।। २. २. १०४ ।। उपेनाधिकिनि ॥२. २. १०५॥ उपेन युक्तादधिकिनि वर्तमानाद् गौणान्नाम्नः सप्तमी भवति, उपेत्यधिकाऽधिकिसंबन्धं द्योतयति । उप खार्यां द्रोणः, द्रोणोऽधिक: खार्या इत्यर्थः । उप निष्के कार्षापणः, कार्षापणोऽधिको निष्कस्येत्यर्थः । उपेनेति किम् ? खार्या उपरि द्रोणः । अधिकिनीति किम् ? अधिके मा भूत्, तेनोप द्रोणे खारीति न भवति ।। १०५ ।। न्या० स०-उपेना० । अत्रापि यदधिकं तदधिकिन्यारूढमित्याधारविवक्षायां सप्तमो सिद्धैव, परं पूर्ववद् विभक्त्यन्तरबाधनार्थम् । अधिको निष्कस्येति-साधु त्यो राज्ञ इतिवन्निष्कशब्दस्याधिकशब्देन सह संबन्धाभावात् “अधिकेन भूयसस्ते' [ २. २. १११. ] इत्यनेन निष्कशब्दान्न पञ्चमी ।। २.२.१०५ ।। यद्भावो भावलक्षणम् ॥ २. २. १०६ ॥ 25 भावः-क्रिया, प्रसिद्धं लक्षणमप्रसिद्ध लक्ष्यम्; यस्य संबन्धिना भावेनक्रियया भावोऽपरक्रिया लक्ष्यते, तस्मिन् भाववति वर्तमानाद् गौणान्नाम्नः सप्तमी भवति । गोषु दुह्यमानासु गतः, दुग्धास्वागतः; अत्र कालतः 20 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १०७.] प्रसिद्धन गवां दोहेन भावेनाऽन्यस्य गमनमप्रसिद्धं लक्ष्यते; एवं-देवार्चनायां क्रियमाणायां गतः कृतायामागतः । गम्यमानेनाऽपि भावेन भावलक्षणे भवति-पाम्रषु कलायमात्रेषु गतः, पक्वेषु पागतः; अत्र जातेष्विति गम्यते । गम्यमानमपि हि विभक्त निमित्तं भवति, यथा-वृक्षे शाखा, ग्रामे चैत्रः; अत्र भवति, वसति चेत्याधारनिमित्त गम्यते । यत्र क्रियार्हाणां कारकत्वं 5 तद्विपर्ययो वा, यथा-ऋद्धेषु भुजानेषु दरिद्रा आसते, ऋद्धेष्वासीनेषु दरिद्रा भुञ्जते, यत्र च क्रियानर्हाणामकारकत्वं तद्विपर्ययो वा, यथा-दरिद्रष्वासीनेषु ऋद्धा भुञ्जते, दरिद्रषु भुजानेषु ऋद्धा पासते; तत्राऽपि भावो भावस्य लक्षणं भवतीत्यनेनैव सप्तमी । यद्ग्रहणं प्रकृत्यर्थम् । भाव इति किम् ? यो जटाभिस्तस्य भोजनम् । भावलक्षणमिति किम् ? यस्य भोजनं स मैत्रः । 10 तृतीयाऽपवादो योगः ।। १०६ ।। न्या० स०--यद्भावो० । कलायमात्रेष्विति-कलायो मालवकप्रसिद्धोऽधमधान्यविशेषो मानमेषां स्यात् "मात्रट" [ ७. १. १४५. ] इत्यनेन मात्रट् । यत्रेति-अयमर्थ:यत्र ऋद्धानां दरिद्राणां च भुजिक्रियामासनक्रियां च प्रति यथासंख्यं कारकत्वं, कोऽर्थः ? तां प्रति कतत्वं, तद्विपर्ययोऽकारकत्वं वा, तत्रापि भावो भावस्य लक्षणमित्यनेनैव सप्तमी 15 सिद्धेति, यदन्यैः- "क्रियाणां कारकत्वं तद्विपर्ययो वा" 'यत्र क्रियानर्हाणामकारकत्वं तद्विपर्ययो वा” इति सप्तमीविधायकं सूत्रद्वयं कृतं तन्नारम्भरणोयम्, यस्य भावो भावस्य लक्षणं ततो भाववतः सप्तमीष्यते, यद्ग्रहणमन्तरेण चैतन्न लभ्यते इत्याह-यद्ग्रहणं प्रकृत्यर्थमिति । यो जटाभिरुपलक्षितस्तस्य भोजनमित्यत्र न भावो भावस्य लक्षणमपि तु द्रव्यम् । तृतीयापवाद इति-इत्थंभूतलक्षणेऽर्थे ।। २. २. १०६ ।। 20 गते गम्ये वनोन्तेनैकार्य वा ॥ २. २. १०७ ॥ कुतश्चिदवधेविवक्षितस्याऽध्वनोऽवसानमन्तः, यद्भावो भावलक्षणं तस्याऽध्वनोऽध्ववाचिशब्दस्याऽध्वन एवाऽन्तेनाऽन्तवाचिना सहैकार्थ्यं सामानाधिकरण्यं वा भवति, तद्विभक्तिस्तस्माद् भवतीत्यर्थः; गते गम्येगतशब्देऽप्रयुज्यमाने इत्यर्थः । गवीधुमतः सांकाश्यं चत्वारि योजनानि, चतुर्घ25 योजनेषु गतेषु भवतीत्यर्थः; एवं लोकमध्याल्लोकान्तमुपर्यधश्च सप्त रज्जूनामनन्ति, पक्षे-पूर्वेण सप्तमी; गवीधुमतः सांकाश्यं चतुर्पु योजनेषु, गतेष्विति गम्यते । गत इति किम् ? दग्धेषु लुप्तेष्विति वा प्रतीतौ मा भूत् । गम्य Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १०८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २८६ इति किम् ? गतशब्दप्रयोगे मा भूत्-गवीधुमतः सांकाश्यं चतुर्षु योजनेषु गतेषु भवति, अत्रैकार्थ्यं न भवति ; सप्तमी तु पूर्वेण नित्यं भवति । अध्वन इति किम् ? कार्तिक्या आग्रहायणी मासे, अत्राऽप्यैकार्थ्याभावे पूर्वेण नित्यं सप्तमी। अन्तेनेति किम् ? अद्य नश्चतुर्पु गव्यूतेषु भोजनम्, भोजनं हि भोक्तृधर्मो नाऽध्वनोऽन्त इति पूर्ववत् सप्तम्येव । नन्वन्तेन सहाऽध्वनोऽभे- 5 दोपचारात् सिद्धमेवैकार्थ्यं किमनेन ? सत्यम्-कालेऽप्येवं मा भूदिति वचनम् ।। १०७ ।। न्या० स०--गते गम्ये० । कुतश्चिदवधेः गवीधुमत इत्यादिलक्षणात्, विवक्षितस्य इयत्तापरिच्छेदायोपात्तस्याध्वनोऽवसानं-सांकाश्याद्यन्तः । यद्भाव इति-यस्याध्वानश्चतुर्योजनरूपस्य भावेन गमनरूपेणाऽपरो भावः सांकाश्यभवनरूपो लक्ष्यते तस्येत्यर्थः ।10 ऐकार्यमिति-एकोऽर्थो द्रव्यमनेकभेदाऽधिष्ठानं यस्य स एकार्थस्तस्य भाव ऐकार्थ्यम् । तद्विभक्तिरिति-अन्यथैकविभक्तिमन्तरेण सामानाधिकरण्यं न घटेत । गवामी:-श्रीः तां दधाति “पृ. काहृषि०" [ उणा० ७२६. ] इति किदुः, सोऽत्राऽस्ति मतुः, अव्युत्पन्नो वा गवीधुमच्छब्दः। अद्य नश्चतुषु गव्यूतेष्विति-गव्यूतिरत्रास्ति विषयतयाऽवयवितया वा "अभ्रादिभ्यः" [७. २. ४६.] अः, गव्यूतं क्रोश एकः । नन्वन्तेनेति-चतुर्दा योजनेषु15 यत् सांकाश्यं तच्चत्वारि योजनानि ।। २. २. १०७ ।। षष्ठी वानादरे ॥२. २. १०८ ॥ यद्भावो भावलक्षणं तस्मिन् भाववति वर्तमानाद् गौणान्नाम्नोऽनादरे गम्यमाने षष्ठी वा भवति, पक्षे पूर्वेण सप्तमी। रुदतो लोकस्य प्रावाजीत्, रुदति लोके प्रावाजीत् ; क्रोशतो बन्धुवर्गस्य प्रावाजीत्, क्रोशति बन्धुवर्गे 20 प्रावाजीत् ; रुदन्तं क्रोशन्तं वाऽनादृत्य प्राव्राजीदित्यर्थः ॥ १०८ ।। न्या० स०-षष्ठी वा० प्तमीति-वाशब्दमन्तरेणानादरे पष्ठयाsपवादतया सप्तमी बाध्येत । ननु “यद्भाव:०" [२. २. १०६.] इति भावलक्षणे सामान्ये सप्तमी, तत्रानादर इति विशेषे षष्ठी, सप्तम्यामनादरप्रतीतिरर्थप्रकरणादेरित्यर्थभेदान्न बाध्य-बाधकभावोऽस्तीति किं पक्षे सप्तम्यर्थेन वाशब्देनेति, उच्यते-यथाऽनादरादन्यत्र25 साम्यतः सप्तम्यस्ति, एवं "शेषे" [२. २. ८१.] इत्यनेन षष्ठ्यपि, तत्रोभयत्रापि प्रव्रजन् रुदतापि लोकेन निवर्त्यमानस्तद्रोदनमनादृत्य प्रावाजीदित्यनादरः प्रकरणादेः प्रतीयत इति सामान्येऽर्थे षष्ठी सप्तमी बाधेतेति पक्षे तदर्थं वावचनम् ।। २. २. १०८ ।। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १०६.] सप्तमी चाऽविभागे निर्धारणे ॥ २. २. १०६ ॥ जाति-गुण-क्रियादिभिः समुदायादेकदेशस्य बुद्धया पृथक्करणं निर्धारणम्, तस्मिन् गम्यमाने गौणान्नाम्न: षष्ठी सप्तमी च भवति; अविभागे-निर्धार्यमाणस्यैकदेशस्य समुदायेन सह कथञ्चिदैक्ये शब्दाद् गम्यमाने। क्षत्रियः पुरुषाणां पुरुषेषु वा शूरतमः, शालयः शूकधान्यानां 5 शूकधान्येषु पथ्यतमाः, कृष्णा गवां गोषु वा संपन्नक्षीरतमा, धावन्तो गच्छतां गच्छत्सु वा शोघ्रतमाः, युधिष्ठिरः श्रेष्ठतमः कुरूणां कुरुषु वा। अविभाग इति किम् ? माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्य आढयतराः, पञ्चालाः कुरुभ्यः संपन्नतराः, मैत्रश्च त्रात् पटुः, अयमस्मादधिकः; अत्र हि शब्दात् भेद एव प्रतीयते, न तु कथञ्चिदैक्यमिति न भवति । पञ्चमीबाधनार्थं वचनम्,10 अन्ये तु पञ्चमीमपीच्छन्ति-गोभ्यः कृष्णा संपन्नक्षीरतमा ।। १०६ ।। न्या० स०--सप्तमी०। क्षतात् त्रायते "स्था-पा०" [ ५. १. १४२. ] इति कः, पृषोदरादित्वादलोपे क्षत्र, तस्यापत्य "क्षत्रादियः" [६. १. ६३.], क्षत्रियः पुरुषारणामित्य दिषु क्षत्रियत्व-शालित्वजात्या कृष्णत्वगुणेन धावनक्रियया, आदिशब्दा. युधिष्ठिरप्रभृतिसंज्ञया च निर्धारणम् । ननु निर्धार्यमारणस्यावयवस्य समुदायाभ्यन्तरत्वात् ततश्च15 समुदायस्याऽधिकरणविवक्ष यां वृक्षे शाखेतिवत् स म्याः सिद्धत्वात् संबन्धविवक्षायां त्ववयवस्य वृक्षस्य शाखेतिवत् षष्ठया अपि सिद्धत्वात् किमनेनेति, नैवम्-विभागे प्रतिषेधार्थत्वादस्य सर्वत्रैव निर्धारणस्य विभागरूपत्वेनाऽविभागपूर्वकत्वादविभागग्रहणस्य निरर्थकत्वादविभागग्रहणसामर्थ्यादवधारणमाश्रीयते-अविभागो यत्र शब्दत एव प्रतीयते तत्र निर्धारणे सप्तमी-षष्ठ्याविति, यथा क्षत्रियः पुरुषाणां पुरुषेष्वित्यत्र निर्धार्यमारणस्य 0 क्षत्रियस्य. पुरुषत्वेनाऽविभागप्रतोतिः; तेन माथुरा: पाटलिपुत्रकेभ्य आढयतरा इत्यत्र न भवति, नह्यत्र केनचित् प्रकारेण माथुराणां पाटलिपुत्रकेष्वविभाग: शब्दतः प्रतीयते, नहि पाटलिपुत्रका माथुरा नाप्याढयतरा इति वाक्याद् भेद एव प्रतीयते इत्याह-शब्दाद् गम्यमाने इति । गवां कृष्णेत्यादौ विभज्यमाना गौर्गोत्वेन समुदायादविभक्ता, कार्येन तु विभक्ता, तस्माद् विभज्यमानस्यैकदेशस्य विभागाश्रयस्य च समुदायस्य यत्र विभागा-25 विभागौ स एवानयोविषयः, यत्र तु तयोविभाग एव, न कथञ्चिदैक्यं तत्र पञ्चम्येव भवति, अत एवाह-पञ्चमोबाधनार्थमिति-अयमर्थ:-निर्धारणस्य विभागरूपत्वाद् यस्य हि यतो विभागस्तस्य तदपेक्षयाऽवधिरूपत्वाद् अपादानत्वात् “पञ्चम्यपादाने" [२. २. ६६. ] इति पञ्चम्यां प्रप्तायां यत्र विभागोऽपि तत्र तदपवादो योग इत्यर्थः, यद्येवं सर्वथा समुदायभावानापन्ने निर्धारणमेव न युज्यते, समुदायाद्धि एकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणमित्युक्त-30 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 [ पा० २. सू० ११०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६१ त्वात्, सत्यमेतत्-बुद्धया हि केनचिद् धर्मेण कल्पितेन माथुराः पाटलिपुत्रकाच समुदायभावमापद्यन्ते इति सिध्यति निर्धारणमित्यदोषः ।। २. २. १०६ ।। क्रियामध्येsध्वकाले पञ्चमी च ॥ २. २. ११० ।। क्रिययोर्मध्ये योऽध्वा कालश्च तस्मिन् वर्तमानाद् गौरणान्नाम्नः पञ्चमी, चकारात् सप्तमी च भवति । इहस्थोऽयमिष्वासः क्रोशाल्लक्ष्यं विध्यति, 5 क्रोशे वा लक्ष्यं विध्यति ; इह धानुष्काऽवस्थानमिषमोक्षो वैका क्रिया, लक्ष्यव्यश्व द्वितीया, तन्मध्ये कोशोऽध्वा; अद्य भुक्त्वा मुनिद्वर्य हात् भोक्ता, द्वय वा भोक्ता ; अत्र द्वयोर्भुक्तिक्रिययोर्मध्ये द्वयहः कालः । ननु च 'क्रोशे स्थितं लक्ष्यं विध्यति' द्वयहे पूर्णे भुङ्क्ते, इत्यधिकरण एव सप्तमी; 'क्रोशात् निःसृत्य स्थितं लक्ष्यं विध्यति, द्वयहमतिक्रम्याऽनु भुङ्क्ते' इत्यपादाने 10 “गम्ययपः कर्माऽऽधारे” [२. २. ७४.] इति पञ्चमी सिद्धैव, सत्यम् - यदा त्वस्यैव क्रियाकारकसंबन्धस्य फलभूता शेषसंबन्धलक्षणोत्तरावस्था विवक्ष्यते, यथा - द्विरह नो भुङ्क्ते, योजनस्य शृणोतीति, तदाऽपि क्रियामध्ये षष्ठी मा भूदिति वचनम् ।। ११० ।। न्या० स०-- क्रियामध्ये० । इहस्थोऽयमिति - नन्विष्वास इति धनुरुच्यते, यथा-15 अङ्गराजो महेष्वास इति, महान् इष्वासो यस्येति व्युत्पत्तेः, धनुश्च व्यधने करणं, कर्ता तु मैत्र दि:, तत् कथमुक्तम् - इष्वासो विध्यतीति, उच्यते - इष्वास इति क्रियाशब्दोऽयमिति यः विदिषूनस्यति - क्षिपति स मैत्रादिरप्युच्यते; यद्वा रूढिशब्दत्वेऽपि करणस्य स्वातन्त्र्यविवक्षायामिष्वासो विध्यतीति उपपद्यत एव यथा स्थालीकरणस्य कर्तृ विवक्षायां स्थाली पचतीत्युच्यते । भुक्त्वेति-नन्विहस्थोऽयमिष्वास इत्यादि क्रियाभेदाद् युक्तमिदमुदा-20 हरण, इदं त्वयुक्तमद्य मुक्त्वा मुनिद्वर्यहाद् भोक्त ेति भुजिक्रियाया एकत्वात्, सत्यम्भुजिक्रियाया एकस्या अपि कालभेदाद् भेदस्य सिद्धत्वादाधारोऽपि तस्या भिद्यते । अधिकरण एव सप्तमीति-क्रियामध्यव्यव स्थितस्याध्वनोऽधिकरणत्वात् सप्तमी सिद्धा, कोशैकदेशस्याधिकरणत्वात् क्रोशेऽप्यधिकरणत्वस्य वक्त ु ं शक्यत्वात्; एवं कालादपि द्वयहे पूर्णे इत्यत्र पूर्णद्वयहस्य यदुपश्लिष्टमहस्तत्र भोक्त त्यर्थावसायादौपश्लेषिकी सप्तमी 25 सिद्धा, पञ्चमी त्वध्वनोऽपादानत्वात् क्रोशान्निर्गच्छद्भिः शरैर्लक्ष्यं विध्यतीत्यर्थावगमात्; कालात् तु "गम्ययपः ० [ २. २.७४ ] इति द्वयहमतिक्रम्य भोक्त ेत्यर्थप्रतीतेः, किमर्थोऽयं योग इत्याक्षेपार्थ: यथा च शरनिर्गमनस्य धनुरपादानं तथा कोशोऽपि तस्मादपि हि ते निर्गच्छन्ति यद्वा क्रोशस्थं धनुरपि क्रोशेनाभिधीयते उपचारात्, मञ्चा: क्रोशन्तीतिवत् । अस्यैवेति- अपादानस्याधारस्य वेत्यर्थः । फलभूतेति - क्रियाकारकसंबन्धो 30 " Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १११-११३.] हि कटं करोतोत्यादावप्यस्ति । तद्वयवच्छित्त्यै शेषसंबन्धलक्षणा फलभूता कार्यभूतोत्तरावस्था इत्युक्तम् । षष्ठो मा भूदिति वचनमिति-अयमर्थः-यदा भोजन-श्रवणादौ कालाऽध्वनो: क्रियाकारकजन्यं शेषसंबन्धित्वमेव केवलं विवक्ष्यते न त्वपादानाधिकरणत्वे तदा ताभ्यां षष्ठ्येव स्यादिति सूत्रारम्भः । किञ्च यदा द्वयह-क्रोशशब्दौ द्वयहक्रोशविषयावेव न तदेकदेशविषयौ तदा नापायो नाप्याधारतेति षष्ठी प्राप्नोति, क्रोशं 5 वाहयित्वा विध्यति, द्वयहं वाहयित्वा भोक्त ति वा प्रतीतेद्वितीया प्राप्नोति तदबाधनार्थोऽयं योग आरभ्यते, वृत्तौ तु षष्ठी मा भूदिति षष्ठीग्रहणमुपलक्षणार्थम्, तेन द्वितीयाऽपि मा भूदित्यर्थः सिद्धो भवति ।। २. २. ११० ।। अधिकेन भूयसरते ॥ २. २. १११ ॥ . अधिरूढ इत्यर्थेऽधिकशब्दो निपात्यते, अधिरूढ इति कर्तरि कर्मणि च10 तो भवति, तत्र यदा कर्तरि तदाऽधिक इत्यनेनाऽल्पीयानुच्यते, यदा तु कर्मणि तदा भूयान्, तत्र सामर्थ्यादल्पीयोवाचिनाऽधिकशब्देन युक्ताद् भूयसोभूयोवाचिनो गौणानाम्नस्ते-सप्तमी-पञ्चम्यौ भवतः । अधिको द्रोणः खार्याम्, अधिको द्रोणः खार्याः ।। १११ ।। न्या० स०-अधिकेन। भूयस इत्युपादानात् अधिकशब्देनाल्पीयानेवोच्यत15 इत्याह-सामर्थ्यादिति । अत्राधिकाधिकिसंबन्धस्य विद्यमानत्वात् खारीशब्दात् “शेषे" [ २. २. ८१.] इत्यनेन षष्ठी प्राप्नोति, तथाऽधिकशब्दस्य कर्तृ साधनाध्यारूढार्थत्वात् "कर्मणि" [२. २. ४०.] इति द्वितोया च, अतस्तयोर्बाधिके सप्तमी-पञ्चम्यावनेन विधीयते ।। २. २. १११ ॥ तृतीयाल्पीयसः ॥ २. २. ११२ ॥ अधिकशब्देन सामर्थ्याद् भूयोवाचिना युक्तादल्पीयोवाचकाद् गौणान्नाम्नस्तृतीया भवति । अधिका खारी द्रोणेन ।। ११२ ।। न्या० स०--तृतीया। सामर्थ्यादिति-अल्पीयस इत्युपादानात् कर्मसाधनो भूयोऽर्थोऽधिकशब्द: प्रतिपत्तव्य इति । कर्तरि तृतीया सिद्धैव षष्ठीबाधनार्थं तु वचनम् ।। २. २. ११२ ॥ पृथग-नाना पञ्चमी च ॥ २. २. ११३ ॥ पृथग्-नानाशब्दाभ्यां युक्ताद् गौणान्नाम्नः पञ्चमी तृतीया च भवति । पृथग् मैत्रात्, पृथग मैत्रेण; नाना चैत्रात्, नाना चैत्रेण । यदा पृथग्-नाना 20 25 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ११४-११६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६३ शब्दावन्याथौं तदा प्रभृत्यादिसूत्रेण पञ्चमी सिद्धैव तृतीयैवाऽनेन विधीयते, यदा त्वसहायाौँ तदा पञ्चमीविधानार्थमपोदम् । अन्ये तु द्वितीयामपीच्छन्ति ।। ११३ ।। ऋते दिवतीया च ॥ २. २. ११४ ॥ ऋते इत्येतदव्ययं वर्जनार्थम्, तेन युक्ताद् गौणान्नाम्नो द्वितीया पञ्चमी 5 च भवति । चित्रं यथाश्रयमृते, नह्यङ्ग विक्रियते रागमृते, ऋते धर्मात् कुतः सुखम् । द्वितीयां नेच्छन्त्येके ।। ११४ ।। न्या० स०--ऋते द्वि० । नाङ्ग विनियत इति-विषयादिभिः कर्तृभिरित्यर्थः, विक्रियत इति कर्मण्ययं प्रयोगः, कर्मकर्तरि तु "भूषार्थ." [३. ४. ६३.] इति किरादित्वात् क्यप्रतिषेधः स्यात् ।। २. २. ११४ ।। 10 विना ते तृतीया च ॥ २. २. ११५ ॥ विनाशब्देन युक्ताद् गौणान्नाम्नस्ते-द्वितीयापञ्चम्यौ तृतीया च भवति । विना वातम्, विना वर्षम्, न विना शब्दभावनाम्, याञ्चां विना विद्धि, विना वातात्, विना वातेन । द्वितीयां नेच्छन्त्यन्ये ।। ११५ ।। न्या० स०--विना ते० । विनेति तृतीयान्तमव्ययम् । "प्राद्यः करणविन्यासः, प्राणस्योर्ध्व समीरणम् । स्थानानामाभिघातश्च, न विना शब्दभावना " ।। २. २. ११५ ।। 15 तुल्याथै स्तुतीया-षष्ठयौ । २. २. ११६ ॥ तुल्यार्थैर्युक्ताद् गौणान्नाम्नस्तृतीया-षष्ठ्यौ भवतः । मात्रा तुल्यः, मातुस्तुल्यः; पित्रा समानः, पितुः समानः; गुरुणा समः, गुरोः समः; चैत्रेण 20 सदृशः, चैत्रस्य सदृशः । अर्थग्रहणं पर्यायार्थम् । उपमा नास्ति कृष्णस्य, तुला नास्ति सनत्कुमारस्येत्यादावुपमादयो न तुल्यार्था इति न भवति । गौणाधिकाराच्च गौरिव गवयः, यथा गौस्तथा गवय इत्यादौ न भवति। तृतीयामविकल्प्य षष्ठीविधानं सप्तमीबाधनार्थम्, तेन गवां तुल्यः स्वामी, गोभिस्तुल्यः Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ११७-११८.] स्वामीत्यत्र “स्वामीश्वरा०" [२. २. ६८. ] इत्यादिना सप्तमी न भवति ।। ११६ ।। न्या० स०--तुल्यार्थैः । न तुल्यार्था इति-तुल्यादयो हि धर्मिवाचकाः, तुलोपमादयस्तु तुल्यत्वादिधर्मवचना इति न तुल्यार्थाः। गौणाधिकाराच्चेति-प्रधाना गोशब्दान्न भवतीत्यर्थः, तुल्यार्थतापि नास्तीति चकारेण परिहारान्तरं समुच्चीयत इति 5 शेषः । नन्वनन्तरात् पूर्वसूत्रात् तृतीयाऽनुवर्तते, ततः "तुल्यार्थैर्वा" इति तद्विकल्पे कृते "शे:" [ २. २.८१.] इत्यनेन पक्षे शेषलक्षणा षष्ठी सिद्धव, किमर्थं तद्विधानमित्याहतृतोयेत्यादि। गवां तुल्यः स्वामीति-गवां तुल्य इत्यर्थः, यद्यस्मत्स्वामी गवां तुल्य इत्यर्थो विवक्ष्यते तदा गोशब्दस्य स्वामिशब्देनायोगात् सप्तमीप्राप्तिरेव नास्तीति । गवय इति "की ग् गवय इत्येवं पृष्टो नागरिकर्यदा । वदत्यारण्यको वार्ता यथा गौर्गवयस्तथा ।। २. २. ११६ ।।" 10 द्वितीया-षष्ठयावेनेनाउनञ्चेः ॥ २. २. ११७ ॥ एनप्रत्ययान्तेन युक्ताद् गौणान्नाम्नो द्वितीयाषष्ठ्यौ विभक्ती भवतः, न चेत् सोऽञ्चेः परो विहितो भवति । पूर्वेण ग्रामम्, पूर्वेण ग्रामस्य ; अपरेण ग्रामम्, अपरेण ग्रामस्य; दक्षिणेन विजयाधम्, दक्षिणेन विजयाधस्य ; 15 उत्तरेण हिमवन्तम्, उत्तरेण हिमवतः । अनञ्चेरिति किम् ? प्राग् ग्रामात्, प्रत्यग् ग्रामात्; उदग् ग्रामात् ।। ११७ ।। न्या० स०--द्वितीया । पूर्वेणेति-पूर्वस्यामदूरवर्तिन्यां दिशि "अदूरे एनः" [७. २. १२२.] ॥ २. २. ११७ ॥ हेत्वर्थ स्तुतीयाद्याः ॥ २. २. ११८ ॥ 20 हेतुनिमित्त कारणमिति पर्यायाः, एतदर्थैः शब्दैर्युक्तात् प्रत्यासत्तस्तैरेव समानाधिकरणाद् गौणान्नाम्नस्तृतीयाद्यास्तृतीया-चतुर्थी-पञ्चमी-षष्ठीसप्तम्यो भवन्ति । धनेन हेतुना वसति, धनाय हेतवे वसति, धनाद् हेतोर्वसति, धनस्य हेतोर्वसति, धने हेतौ वसति; एवं-धनेन निमित्तेन, धनेन कारणेन, धनेनाऽपदेशेन; धनेन प्रयोजनेनेत्यादयोऽपि । तत्सामानाधिक-25 रण्याच्च हेत्वर्थेभ्योऽपि ता एव भवन्ति । प्रत्यासत्तेस्तैरेव समानाधिकरणा Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ११६-१२०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६५ दिति किम् ? अन्नस्य हेतुः । अन्ये तु हेत्वर्थशब्दयोगे नेच्छन्ति, हेतुशब्दप्रयोगे तु षष्ठीमेवेच्छन्ति । असर्वाद्यर्थमिदम् ।। ११८ ।। न्या० स०-हेत्वर्थैः । प्रत्यासत्तेरिति हेत्वर्थस्तु व्यधिकरणाद् हेतुसंबन्धे षष्ठयेवास्ति, न तत्र तृतीयाद्या इति सामर्थ्या हेत्वथैः समानाधिकरणाद् हेतोरेव तृशोयाद्या भवन्तीति । ननूत्तरसूत्रेण सर्वा विभक्तय इति सर्व विभक्त्यन्तर्गतत्वात् 5 तृतोय'द्या अपि सिद्धा:, किमर्थ मद मत्याह-असर्वार्थमिति । हेतौ तृतोयायां "ऋणा तो:" [२. २. ७६.]. "गुणादस्त्रियां नवा" [२. २.७७.] इति पञ्चम्यां प्राप्तायामयं विधिरारभ्यत इति ।। २. २. ११८ ।। सर्वादः सर्गः ॥२. २. ११६ ॥ हेत्वथैर्युक्तात् प्रत्यासत्तेस्तत्समानाधिकरणात् सर्वादेगौंणानाम्नः सर्वा। विभक्तयो भवन्ति । को हेतुर्वसति चैत्रः, कं हेतुं वसति, केन हेतुना, कस्मै हेतवे, कस्माद् हेतोः, कस्य हेतोः, कस्मिन् हेतौ; एवं यो हेतुः, यं हेतुम्, येन हेतुना, यस्मै हेतवे, यस्माद् हेतोः, यस्य हेतोः, यस्मिन् हेतौ; स हेतुः, तं हेतुम्, तेन हेतुना, तस्मै हेतवे, तस्माद् हेतोः, तस्य हेतोः, तस्मिन् हेतौ; सर्वो हेतुः, सर्वं हेतुम् ; भवान् हेतुः, भवन्तं हेतुम्, भवता हेतुना; उभौ15 हेतू, उभाभ्यां हेतुभ्यामित्यादि ; एवं किं कारणं ?, किं निमित्तं ?, किं प्रयोजनमित्यादि । तत्समानाधिकरणादित्येव-कस्य हेतुः । प्रथमां नेच्छन्त्येके, द्वितीयामपरे ।। ११६ ।। न्या० स०--सर्वादेः०। प्रियाः सर्वे यस्येति बहवीहौ हेत्वर्थयोगेऽपि न सर्वा विभक्तयः अन्यपदार्थप्रधानत्वेन सर्वादेगौणत्वात्, गौणे मुख्य च मुख्य कार्यसंप्रत्यय:820 कर्मधारये परमसर्वं हेतु वसतीत्यादि तु भवति, *ग्रहणवता नाम्ना०* इति तु नोपतिष्ठतेऽत्र ।। २. २. ११६ ।। असत्त्वारादर्थाटासियम् ॥ २. २. १२० ॥ सत्त्वं-द्रव्यं, ततोऽन्यदसत्त्वम्, पाराद् दूराऽन्तिकयोः, तन्त्रेणोभयोग्रहणम् ; असत्त्ववाचिनो दूरादिन्तिकार्थाच्च 'टा ङसि डि अम्' इत्येते25 प्रत्यया भवन्ति, गौणादिति निवृत्तम् । दूरेण ग्रामस्य ग्रामाद् वा, दूराद् ग्रामस्य ग्रामाद् वा, दूरे ग्रामस्य ग्रामाद् वा, दूरं ग्रामस्य ग्रामाद् वा वसति; Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १२१.] एवं विप्रकृष्टेन, विप्रकृष्टात्, विप्रकृष्टे, विप्रकृष्टं ग्रामस्य ग्रामाद् वा तिष्ठति; अन्तिकार्थः-अन्तिकेन, अन्तिकात्, अन्तिके, अन्तिकं ग्रामस्य ग्रामाद् वा वसति; एवमभ्याशेन, अभ्याशात्, अभ्याशे, अभ्याशं ग्रामस्य ग्रामाद् वा। केचिदारादर्थैः पञ्चम्यन्तैर्युक्तात् पञ्चमी नेच्छन्ति, तेनदूराद् ग्रामस्य, अन्तिकाद् ग्रामस्येत्येव भवति, न तत् सर्वसंमतं पञ्चम्या 5 अपि दर्शनात् "दूरादावसथान्मूत्रं, दूरात् पादावसेचनम् । दूराच्च भाव्यं दस्युभ्यो, दूराच्च कुपिताद् गुरोः” ॥ १ ॥ इति । असत्त्वेति किम् ? दूरः पन्थाः, अन्तिकः पन्थाः, दूराय पथे देहि, अन्तिकाय पथे देहि, दूरस्य पथः, अन्तिकस्य पथः स्वम् । कथं चिरं?, चिरेण?,10 चिराय ?, चिरात् ?, चिरस्येति ? ; विभक्तिप्रतिरूपका निपाता एते, यथापरस्परम्, परस्परेण, परस्परस्येत्यादयः ।। १२० ।। न्या० स०--असत्त्वा०। असत्त्वे पारादर्थः, न विद्यते सत्त्वं यस्य स चाऽसौ आरादर्थश्च वा। गौणादिति निवृत्तमिति-विभक्तिसंबद्धत्वात् तन्निवृत्तावित्यर्थः, अत्र हि टादीनि वचनान्युपात्तानि, न तृतीयाद्या विभक्तयः । दूरेण ग्रामस्य ग्रामाद् वा इत्यादि-15 इदं तदिति सर्वनामप्रत्यवमर्शयोग्यार्थाभिधायकत्वेऽप्येतेषां धर्ममात्रेण प्रयोगादसत्त्वरूपार्थाभिधायकत्वं न विरुध्यते, तथाऽत्र ग्रामशब्दात् “पारादर्थैः" [ २. २. ७८. ] इति वा पञ्चम्यां पक्षे "शेषे" [२. २. ८१.] इति षष्ठी। अन्तिकाय पथे इति-अत्रोपपदविभक्त: कारकविभक्तिरिति पञ्चमी बाधित्वा चतुर्थी । न तत् सर्वसंमतमिति-यत: काशिकाकारोऽप्याह-पञ्चम्या अपि दर्शनात् लोकाचारग्रन्थे। कथमिति-बारादर्थत्वा-20 भावात् कथमेभ्यो द्वितीयाद्या इत्याशङ्कार्थः ।। २. २. १२० ॥ जात्याख्यायां नवैको संख्यो बहुवत् ॥ २. २. १२१ ॥ जातेरेकत्वादेकवचन एव प्राप्ते पक्षे बहुवचनार्थं बहुवद्भाव उच्यते, जातेराख्या-अभिधानं जात्याख्या; तस्यामेकोऽर्थो जातिलक्षणोऽसंख्य:-संख्यावाचिविशेषणरहितो बहुवद् वा भवति । संपन्नो यवः, संपन्ना यवाः; संपन्नो25 व्रीहिः, संपन्ना व्रीहयः; जात्यर्थस्य बहुवद्भावात् तद्विशेषणानामपि बहुवद्भावः; तथा चोभयवाचिभ्यो बहुवचनम् । जातिग्रहणं किम् ? चैत्रः, मैत्रः । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १२२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६७ आख्या ग्रहणं किम् ? काश्यपप्रतिकृतिः काश्यपः भवत्ययं जातिशब्दो न त्वनेन जातिराख्यायते, किं तर्हि ? प्रतिकृतिः । एक इति किम् ? संपन्नौ व्रीहियवौ, " मगधेषु स्तनौ पीनौ, कलिङ्ग ेष्वक्षिणी शुभे" इत्यादावपि सव्येतरत्वलक्षणाऽवान्तरजातिद्वयोपाधियोगादेकत्वं नास्तीति बहुवद्भावो न भवति ; जातिमात्रविवक्षायां तु भवत्येव - मगधेषु स्तनाः पीनाः, स्तनः पीनः; 5 कलिङ्गष्वक्षीणि शुभानि प्रक्षि शुभमिति । असंख्य इति किम् ? एको व्रीहिः संपन्नः सुभिक्षं करोति, अत्र विशेषरणभूतसंख्याप्रयोगोऽस्तीति 'एके व्रीहयः संपन्नाः सुभिक्षं कुर्वन्ति' इति न भवति ।। १२१ ।। . न्या० स० -- जात्याख्यायां० । वैषयिकेऽधिकरणे सप्तमी निमित्तसप्तमी वा । जात्यर्थस्येति-न जातिशब्दस्य, तथा सति संपन्ना यवा इति यवशब्दादेव जातिशब्दाद 10 बहुवचनं स्यात्, न संपन्नशब्दात् तद्विशेषणभूतादिति, जात्यर्थस्य बहुवद्भावे संपन्नादिविशेषणान्यपि सामानाधिकरण्याद् यवादिशब्दोपात्ते जात्यर्थे वर्त्तन्त इति तेभ्योऽपि बहुत्वाश्रयं बहुवचनमुपपन्नमिति । चैत्रः, मैत्र इति - नेह जातिरभिधेया यदृच्छाशब्दत्वादनयो:, जातिर्हि सामान्यमुच्यते, यच्छबलशाबलेय-धवलघावलेयाद्यनेकव्यक्तिभेदेषु गौगौंरित्याद्यनुवृत्तप्रत्ययकारणमिति, यदि च बालकुमारादिभेदेऽनुवर्त्तमानमभिन्न रूपं जाति- 15 रुच्यते तथा सति नाजातिः कश्चिच्छब्दार्थोऽस्ति इति जातिग्रहणमनर्थकं स्यात्, तस्मात् सादृश्यसामान्यमिह जातिर्न स्वरूपसामान्यमिति । भवत्ययं जातिशब्द इति - " गोत्रं च चरणैः सह" इति लक्षणेन परमाख्याग्रहरणात् प्राधान्येन जातावभिधेयायां भवति, इह तु तद्विशिष्टा प्रतिकृतिराख्यायते इति । " मगधेषु स्तनौ पीनौ, कलिङ्गष्वक्षिरणी शुभे । बाहू प्रलम्बावङ्गेषु, वङ्ग ेषु चरणौ दृढौ" ।। २. २. १२१ ।। 20 अविशेषणे द्वौ चास्मदः ॥ २. २. १२२ ॥ अस्मदो द्वावेकश्चार्थो वा बहुवद् भवति, प्रविशेषणे - न चेत् तस्य विशेषणं प्रयुज्यते । आवां ब्रूवः, वयं ब्रूमः, अहं ब्रवीमि वयं ब्रूमः । अविशेषण इति किम् ? आवां गाग्यौं ब्रूवः, अहं पण्डितो ब्रवीमि श्रहं चैत्रो25 ब्रवीमि । कथं नाट्ये च दक्षा वयम् ?, “त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाऽभिमानोन्नता: " ?, " सा बाला वयमप्रगल्भमनसः " ? इत्यादि ; दक्षत्वादीनां विधेयत्वेनाऽविशेषणत्वाद् भविष्यति यदनूद्यमानमवच्छेदकं तद्विशेषणमिति । , Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १२३-१२४.] एकाऽनेकस्वभावस्याऽऽत्मनोऽनेकस्वभावविवक्षायां बहुवचनं सिद्धमेव, सविशेषणप्रतिषेधार्थं तु वचनम् ।। १२२ ।। न्या० स०--अविशे०। न विशेषणमविशेषणम्, यद्वा विशेषणस्याभावः । अस्मदः इत्यत्र अनुकरणत्वादस्मच्छब्दकार्याप्रवृत्तिः। अविशेषरणे इत्यत्र प्रतिषधप्रधानः प्रसज्यो नञ्, यद्यत्र पर्युदासः स्याद्-विशेषणादन्यस्मिन्निति तदा विशेषणे न विधिर्नापि 5 प्रतिषेधो विशेषणे ततोऽन्यस्मिस्तु प्रयुज्यमाने विधिः, कोऽर्थः ? सत्यप्यस्मदर्थस्य विशेषणे ततोऽन्यस्मिन् प्रयुज्यमाने स्यादित्यर्थः, ततश्चाहं मैत्रो ब्रवोमीत्यत्रापि मिवन्तस्य विशेष्यस्य भावाद् मैत्र इति विशेषणे सत्यपि स्यादित्याह-न चेत् तस्येति । आवां ब्रव इति-पत्र द्वयोर्मध्ये एको ब्रते ततश्च कथमावां ब्रव इति, उच्यते-द्वयोरप्यभेदोपचारात् । विधेयत्वेनेति-अज्ञातज्ञापनोयत्वेनेत्यर्थः । एकानेकस्वभावस्येति-अयमर्थ:-एकोऽप्यात्मा10 यथैकत्वेनानुभूयते तथा द्रष्टा श्रोता मन्तेत्यादिनानात्वेनापि, नह्य कान्तेनैकत्वेनानेकत्वेन वेतरविनिमुक्तेन प्रतिपत्तिरस्ति, तत्र यथैकत्वेन द्वित्वेन च तस्मिन् विवक्षिते एकवचनं द्विवचनं च तथा बहुत्वविवक्षायां बहुवचनं सिद्धम् । नटानां नृत्तं "नटान्नृत्तं ज्यः" [ ६. ३. १६५. ] नाट्यम् ।। २. २. १२२. ।। 15 फल्गुनी-प्रोष्ठपदस्य भे॥ २. २. १२३ ॥ फल्गुनीशब्दस्य प्रोष्ठपदाशब्दस्य च भे-नक्षत्र वर्तमानस्य द्वावथौं बहुवद् वा भवतः । कदा पूर्वे फल्गुन्यौ, कदा पूर्वाः फल्गुन्यः; कदा पूर्वे प्रोष्ठपदे, कदा पूर्वाः प्रोष्ठपदाः; उदिते पूर्वे फल्गुन्यौ, उदिताः पूर्वाः फल्गुन्यः; उदिते पूर्वे प्रोष्ठपदे, उदिताः पूर्वाः प्रोष्ठपदाः । भ इति किम् ? फल्गुनीषु जाते फल्गुन्यौ माणविके। द्वावित्येव-तेनैकस्मिन् ज्योतिषि न20 भवति-दृश्यते फल्गुनी। एकवचनान्तः प्रयोग एव नास्तीत्यन्ये । फल्गुनीप्रोष्ठपदस्येति शब्दपरो निर्देशःकिम् ? तत्पर्यायस्य मा भूत्-प्रद्य पूर्वे. भद्रपदे ।। १२३ ।। न्या० स०--फल्गु०। प्रोष्ठपदे इति-प्रवृद्धः ओष्ठो यस्य प्रोष्ठो गौस्तस्येव पादौ यस्या ययोर्वा "सुप्रात०" [ ७. ३. १२६. ] इति निपात्यते ।। २. २. १२३. ।। 25 गुरावेकश्च ॥ २. २. १२४ ॥ गुरौ-गौरवार्हेऽर्थे वर्तमानस्य शब्दस्य द्वावेकश्चाऽर्थो बहुवद् वा भवति । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १२४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ २६६ त्वं गुरुः, यूयं गुरवः; युवां गुरू, यूयं गुरवः; स कारुणिक उपाध्यायः, ते कारुणिका उपाध्यायाः; तौ कारुणिकावुपाध्यायौ, ते कारुणिका उपाध्यायाः ; एष मे पिता, एते मे पितरः; अयं तपस्वी, इमे तपस्विनः; गुरुशिष्यौ, गुरुशिष्याः; इह भवानाह, इह भवन्तस्त्वाहुः । आपः, दाराः, गृहाः, वर्षाः, पञ्चालाः जनपदः, गोदौ ग्रामः, खलतिकं वनानि, हरीतक्यः फलानि, 5 पञ्चालमथुरे, चञ्चाऽभिरूपो मनुष्य इति । सर्वलिङ्गसंख्ये वस्तुनि स्याद्वादमनुपतति मुख्योपचरितार्थाऽनुपातिनि च शब्दाऽऽत्मनि रूढितस्तत्तल्लिङ्गसंख्योपादानव्यवस्थाऽनुसर्त्तव्या ।। १२४ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ द्वितीयस्याऽध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ।। २ । २ ।। 10 मूलार्कः श्रूयते शास्त्रे, सर्वकल्याणकारणम् । अधुना मूलराजस्तु, चित्रं लोकेषु गीयते ।। ६ ।। , न्या० स०-- गुरा० । कारुणिक इति - करुणा प्रयोजनमस्य करुणया वा चरति । अयं भवात् इहभवान् "भवत्वायुः [ ७. २. ε१. ] इत्यधिकारात् " त्रप् च' [ ७. २. ९२. ] इति त्रप्, “क्वकुत्र०" [ ७. २. ९३.] इति पश्चान्निपात्यते । इमे भवन्त: 15 इहभवन्तः । पञ्चालानां देशोऽपि पञ्चाला उपचारात् । गोदौ - हृदौ तत्समीपग्रामोऽपि गोदौ । खलतिकं वनानीति - खलतीति " कुशिक ०" [ उणा० ४५. ] इत्यादिना निपात्यत इत्याम्नायः, यद्वा खलान् तिक्नोति “मूलविभुजादयः " [ ५. १. ११४. ] कः, खलति - काख्यपर्वतसमीपवर्तिवनानामपि खलतिक इत्याख्या । हरति रोगानिति "हृरुहि० " [ उणा० ७६.] इति ईतके - हरीतकी । पञ्चालाश्च मथुरा च पञ्चालमथुरे । चीयते 20 उपचोयते तृणैरिति चञ्चा । " चमेर्डोचडचौ" [ उणा० १२२. ] अभिमतं रूपं यस्य अभिमतं रूप्यते वा अभिरूपो मनुष्यश्वश्वव प्रकिञ्चित्करत्वात् अनुपततीति - अनुयाति अनुव्रजतीत्यर्थः । अनुसर्त्तव्येति - लिङ्गानि च संख्याश्च तास्ताश्च ताः लिङ्गसंख्याश्च तासामु - पादानं तस्य व्यवस्था साऽनुसर्तव्या । नन्वाप इत्येकस्यात्मापि जलकरिणकायां बहुवचनान्तोऽप्शब्दः प्रयुज्यते, दारशब्दश्चैकस्यामपि योषिति पुंल्लिङ्गो बहुवचनान्त:, 25 एवं गृह - शब्दोऽप्येकस्मिन्नपि गृहे, एवं वर्षा इत्येकस्मिन्नपि ऋतौ एवं पञ्चाला इति बहुवचनान्तेनैकोऽर्थ उच्यते जनपदः, तत्र बहुत्वाभावाद बहुवचनाऽयोगः, यद्यसौ बहुत्वसंख्यायोगी स्यात् तदैकवचनानुपपत्तिः जनपद इति एकत्वाभावात्, न कोऽर्थ एको भवति अनेक विरोधात् कथञ्चित् तथाभावे तूभयमप्युभयसंख्यायोगि स्यात्, न चैतदिष्यत इति, एवं गोदौ ग्राम इति द्वित्वैकत्वनियमाऽयोगः, खलतिकं वनानीत्येकवच - 3 "1 o Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १२४.] नान्तेन बह वभिधानमनुपपन्नम्, तथा हरीतक्यः फलानोति स्त्रीनपुसकयोलिङ्गयोरयोगः, तथा पञ्चालमथुरे इत्यनुत्तरपदस्य देशवृत्तेर्बहुविषयस्य बहुवभावप्रति धानुपपत्तिः, एवं चञ्चाभिरूप इत्यादावपि चञ्चादिलिङ्गता स्यादित्यत्र यत्नः कर्त्तव्यः, येन सर्वं समञ्जसं स्यादित्याशङ्कायामाह- सर्वलिङ्गसंख्ये वस्तुनीत्यादिसर्वाणि- त्रीण्यपि लिङ्गानि, सर्वाश्चएकत्व-द्वित्व-बहुत्वलक्षणाः संख्या एकस्मिन्न व वस्तुनि सन्ति, तथा हि- वस्त्वर्थो मात्रेति 5 शब्दाः सर्वत्र वस्तुतत्त्वे- घटवस्तु घटार्थो घटमात्रेति प्रवर्त्तन्ते इति लिङ्गानि दृश्यन्ते ; गुणगुरिण-द्रव्यपर्याया-ऽवयवावयविरूपे वस्तुनि घट इत्यभेदविवक्षायामेकत्वसंख्या, गुणगुणिनौ द्रव्य-पर्यायौ अवयवा-ऽवयविनौ घटौ नैकैकमात्र इति द्वित्वसंख्या, गुण-पर्यायाऽवयवानां बहत्वात तद्ध दविवक्षायां गणाश्च गुणी च गुणगणिनो घटा इति बहत्वसंख्या: न चैतदेकस्मिन् वस्तुनि स्याद्वादानुपातिनि विरुद्धं स्यात्, यतः कथञ्चिदिति वाद: स्याहादः10 तथाहि-स एवायं मैत्र इत्याजन्ममरणम विच्छेद: प्रतीयते, तन्न भेदमात्रं वस्तु, बालोऽयं न युवा, युवाऽयं न बालः, सुप्ताऽयं न उत्थितः, उत्थितोऽयं न सुप्त इति विच्छेदश्च प्रतीयते तन्नाभेदमात्रम्, न च तयोर्भेद एव 'मैत्रो बालो मैत्रो युवा' इत्येकत्वेन प्रतिभासनात्, गौरश्चेतिवद् भेदप्रतिभासाभावात्, एकान्तेन भेदेऽन्यतरविलोपः, तथा च भेदाभेदप्रतिभासायोगः, न चान्यतरस्य मिथ्यात्वमितराविशेषा, तस्मादन्तरालावस्थं वस्तु, तदेतत्।5 स्याद्वादानुपातीति नापानेकरूपता विरुध्यते, तदेवं क्रमाक्रमभाव्यनेकभेदात्मके वस्तुनि सर्वमुपपद्यते, तत्राप इति नैकस्यां व्यक्तौ प्रवर्तते, अपि तु बहुव्यक्तिविषय एव । एवं दारादयोऽपि पुल्लिङ्गाः, यथा द्वौ त्रय इति भेदविषया एव नैकैक विषया एव, एकद्रव्यविषयत्वेऽपि गुणपर्यायावयवभेदोपादानाद्वस्तुसामथ्योद् बहुत्वोपपत्तिः । एवं पञ्चाला इति वस्तुशक्तिस्वाभाव्यादवयवद्वारेण प्रवर्तते, जनपद इति समुदायद्वारेण ।20 एवं गोदौ ग्राम इत्यादावप्येकानेकसंख्योपपत्तिः । हरीतक्य: फलानीति लिङ्गभेदश्च सर्वलिङ्गत्वाद् वस्तुनः । पञ्चालमथुरे इति पञ्चालादोनां बहुत्वविषयाणां समासे उत्तरपदादन्यत्र समुदायाभिधानं न त्ववयवाभिधानमिति बहुत्वाभावः, नियतविषयाश्च शब्दशक्तयो भवन्ति, यथा-राज्ञ पुरुष इति वाक्ये राजशब्दो विशेषणादियोगिनमर्थमाचष्टे, वृत्तौ तु तद्विलक्षणं राजपुरुष इति । चञ्चाभिरूपो मनुष्य इति सा श्यान्मनुष्यवृत्तेश्च तद्रूपं25 यन्न विशेषणयोगि। पञ्चालादिशब्दानां च क्षत्रियाद्यथवृत्तीनामपि सोऽयमित्याभसम्बन्धादुपचाराज्जनपदाद्यर्थेऽपि वृत्तिरित्युक्त -मुख्योपचरितार्थानुपातिनीत्यादि । अत्र च रूढिः प्रमाणं, यतो वृद्धव्यवहाराच्छब्दार्थव्युत्पत्तिरित्युच्यते-रूढित इति-रूढिः शिष्टव्यवहारे प्रसिद्धिः । तत्तल्लिङ्गसंख्योपादानव्यवस्थेति-सा सा येदानी प्रदर्शितेति ।। २. २. १२४ ॥ ॥द्वितीयस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः॥ 30 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० १-३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३०१ अथ तृतीयः पादः नमस्-पुरसो गते क-ख-प-फि र सः ॥ २. ३. १ ॥ गतिसंज्ञकयोः 'नमस् पुरस्' इत्येतयोः संबन्धिनो रेफस्य क-ख-प-फेषु परेषु सकारादेशो भवति । नमस्कृत्य, नमस्करोति, नमस्कर्ता, नमस्कर्तुम्, नमस्कर्तव्यम्; पुरस्कृत्य, पुरस्करोति, पुरस्कर्ता, पुरस्कर्तुम्, पुरस्कर्तव्यम् ; 5 पुरस्खादः, पुरस्खादनम् ; पुरस्पातः, पुरस्पतनम्, पुरस्फक्कः, पुरस्फक्कनम् । गतेरिति किम् ? नमः कृत्वा, नमः करोति; नमःशब्दमुच्चारयतीत्यर्थः, नमःशब्दस्य कृग्योगे विकल्पेन गतिसंज्ञाविधानाद् वा तिस्रः पुरः करोति ।।१।। न्या० स०--नमस्-पुरसो० । नमस्कृत्येति-अनमो नमःकरणं पूर्व"साक्षादादि:." [ ३. १. १४. ] इति गतिसंज्ञायां "गति-क्वन्य:०" [३. १. ४२.] इति 10 सः । नमः कृत्वेति-अत्र नमः शब्दान्तरं न त्वव्ययमिति अम: “अनतो लुप्" [३. २. ६.]। पुर इति-"पृक" पिपर्तीति भ्राजादिनिपातनात् क्विपि दीर्घत्वे च "प्रोष्ठ्यादुर्" [ ४. ४. ११७. ] इत्युरि-पूः, ततः शस् ।। २. ३. १ ।। तिरसो वा ॥ २. ३. २ ॥ गतिसंज्ञकस्य तिरःशब्दस्य संबन्धिनो रेफस्य क-ख-प-फेषु परेषु सकारा-15 ऽऽदेशो वा भवति । तिरस्कृत्य, तिरःकृत्य; तिरस्करोति, तिरःकरोति; तिरस्कर्ता, तिरःकर्ता; तिरस्कर्तुम्, तिरः कर्तुम् । गतेरित्येव-तिरः कृत्वा काष्ठं गतः, अन्तर्धावपि “कृगो नवा" [३. १. १०.] इति विकल्पेन गतिसंज्ञाविधानात् तिरः कृत्वा । अगतेरप्यन्तर्धाविच्छत्यन्यः तिरस्कृत्वा ।।२।। 20 पुसः ॥ २. ३. ३॥ पुम्सशब्दसंबन्धिनो रेफस्य क-ख-प-फेषु परेषु सो भवति । पुस्कोकिलः, पुंस्खननम्, पुंस्पाकः, पुंस्फलम्, पुंस्काम्यति, पुंस्कः, पुंस्पाशः ।। ३ ।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृह वृत्तिलधुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू० ४-५ . ] न्या० स० -- पुंसः । ननु “पुमोऽशिटयघोषे० " [ १. ३. ६. ] इत्यत्र रमपहाय सत्वमेव विधीयतां किमनेनेति ? सत्यम् एतद् विना 'पुश्चरः, पुष्टिट्टिभ:' इत्यादयो न सिद्धयन्तीति प्रारभ्यते; न च वाच्यं “ सो रु : " [२.१.७२. ] इति रुत्वे तस्य शत्वषत्वादौ च कृते सर्वारिण सेत्स्यन्ति ? विधानसामर्थ्येन रुत्वाभावात् । पुंस्काम्यति त्र “रोः काम्ये” [ २. ३. ७. ] इति नियमात् “नामिनस्तयोः षः” [ २.३.८. ] इति षत्वं 5 न, 'पु ंस्कः, पुस्पाशः' इत्यत्र तु कृतमपि षत्वं परस्मिन् "पुंसः " [ २. ३. ३. ] इति सत्वे कर्तव्ये "गषमसत्०" [ २.१.६० ] इत्यनेनासिद्ध, ततः सप्तमपादे सत्वापेक्षया परमपि षत्वं " रणम् ० " [२. १. ६०. ] इत्यत्र ज्ञातव्यम्, अतः षत्वमर्वाचीनं सत्वं तु परविधिरिति ।। २. ३. ३. ।। ३०२ ] शिरो-sधसः पदे समासैक्ये ।। २. ३.४ ॥ 'शिरस् अधस्' इत्येतयोः संबन्धिनो रेफस्य पदशब्दे परे सो भवति, समास क्ये - तौ चेन्निमित्तनिमित्तिनावेकत्र समासे भवतः । शिरस्पदम्, अधस्पदम् ; "अव्ययं प्रवृद्धादिभिः " [ ३. १. ४८. ] इति समासः । पद इति किम् ? शिरःखण्डम् । समासेति किम् ? शिरः पदम् अधः पदम् । ऐक्य इति किम् ? परमशिरःपदम्, परमाधः पदम् ।। ४ ।। अतः कृ-कमि कंस- कुम्भ-कुशा-कर्णपात्रे नव्ययस्य 10 न्या० स० -- शिरोऽधसः ० । पदशब्दे पर इति न वाच्यं स्वं रूपं शब्दस्य इत्यनेन कृत्रिमाकृत्रिमयोः ० इत्यनेन या " तदन्तं पदम् " [ १.१.२० ] इत्यादि सूत्र: परिभाषितस्य ग्रहणं प्राप्नोतीति, समास इति वचनादुत्तरपदमन्तरेण च समासस्यासम्भवात् तस्य सामर्थ्य लब्धत्वात् पदग्रहरणानर्थक्यप्रसङ्गादिति । शिरस्पदम् अत्र “सप्तमी शौण्डाद्यैः” [ ३.१.८८. ] इति सः, षष्ठीतत्पुरुषो वा । अधः पदम् इत्यत्र 20 "अव्ययं प्रवृद्धादिभिः " [ ३. १.४८ ] इति नित्यं से प्राप्ते बाहुलकाद् वाक्यमपि । “ऋते तृतीयासमासे” [१. २. ८. ] इतिवत् समास इत्युक्तोऽपि तौ शाब्द्या वृत्या निर्दिश्येते इति न कोऽपि दोष: ।। २. ३.४ ।। 15 अकारात् परस्यानव्ययसंबन्धिनो रेफस्य कृ कम्यादिस्थेषु क ख - प - फेषु परेषु सो भवति, तौ चेन्निमित्तनिमित्तिनावेकत्र समासे भवतः । कृ-अयस्कृत्, अयस्कारः, अयस्कृतम् ; कमि - यशस्कामः पयस्कामः ; कंस - अयस्कंसः, ।। २. ३. ५ ।।25 1 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३०३ पयस्कंसः; कुम्भ-अयस्कुम्भः, पयस्कुम्भः; द्वन्द्व-पयस्कुम्भकपालानि; कुशाअयस्कुशा; पयस्कुशा; कर्णी-अयस्कर्णी, पयस्कर्णी; पात्र-अयस्पात्रम्, पयस्पात्रम् ; नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणात्-अयस्कुम्भी, पयस्पात्री; शुनस्कर्ण इति तु कस्कादिः । अत इति किम् ? गी:कारः, धूःकारः, भाःकरणम्, वाःपात्रम्, भास्कर इति तु कस्कादिः । कृकम्यादिष्विति किम् ? 5 अयःकीलः, पयःपानम् । अनव्ययस्येति किम् ? स्वःकारः, प्रातःकामः । समास इत्येव-यशः करोति । ऐक्य इत्येव-उपपयःकारः, परमयशःकामः । अयसः कुम्भकपालम्-अयःकुम्भकपालम्, पयसः पात्रखण्ड-पयःपात्रखण्डम् ; अत्र हि निमित्तनिमित्तिनौ नैकसमासस्थौ, यदा त्वेवं समासोऽयसः कुम्भोऽयस्कुम्भस्तस्य कपालं तदा भवत्येवायस्कुम्भकपालमित्यादि । इह कृ-कम्योः10 केवलयोः समासो न भवतीति प्रत्ययान्तयोर्ग्रहणम् । अथ क्विबन्ता धातुत्वं न जहतीति क्विबन्तयोरेव कस्मात् न भवति ? “गतिकारकस्य” [३. २. ८५.] इत्यादिसूत्रे क्विग्रहणात्, नह्यन्यप्रत्ययान्तानां धातूत्तरपदानामग्रहणे क्विग्रहणमर्थवद् भवति । कमिग्रहणात्, कामयतेन भवति-पयः कामयते पयःकामा "शीलि-कामिभक्ष्याचरि" [५. ३. ८७. ] इत्यादिना णः 115 कमेस्त्वणिपयस्कामीति भवति, कथं पयस्कामा ? कमनं कामः, पयसि कामोऽस्या इति बहुव्रीहिणा भविष्यति । कमिग्रहणेनैव कंसे लब्धे पृथक् कंसग्रहणं ज्ञापकम्-अस्तीदमपि दर्शनम्- *उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानिक इति ।।५।। न्या० स०--प्रतः कृ०। अयस्कार इति-अत्रायः करोतीति अर्थकथनमिदं.20 यतोऽयस् अम् कृ अरण इति समासः, ततोऽण्योगे कर्मनिमित्ता षष्ठी न भवति "न नाम्येकस्वरात्०" [३. २. ६.] इत्यत्र सूत्रेऽमोऽलुप्समासविधानात् । यशस्काम इतिगिङो विकल्पेन विधाना। कमिर्भवति, वाक्यं तु रिणङन्तस्यैव कार्य, यतोऽशविषये स विकल्पः शविषये तु नित्यमेव । अयस्कंस इत्यत्र अयसा मिश्रः कस इति वृत्तिपदेनैव क्रियायाः प्रख्यापनानास्त्यसामर्थ्य, विकारिविकारसंबन्धषष्ठीसमासो वा, पुल्लिङ्गाश्रये-25 णैव दृश्यत इति स्त्रियां नोदाह्रियते । “कमूङ" "मा-वा-वद्यमि०" [ उणा० ५६३. ] इति सः, कंस्ते इति वा अच कंसः। अयस्कुशेति-प्रयोविकारस्याविवक्षितत्वात् "भाजगोण." [२. ४. ३०. ] इति ङीर्न। अयःप्रधान यस्याः सा अय प्रधाना, सा चासौ कुशा चेति कर्मधारयः । अयस्कोति-प्रय इव करणौं यस्या इति बहुव्रीहौ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ६-७.] ' "नासिकोदर०" [२. ४. ३६.] इति वैकल्पिको डीः, समुदायस्य तु जातिवाचित्वे प्रति- पाये “पाककर्ण०" [२. ४. ५५. ] इति नित्यः; अय इव कर्णायति इति तु कृतेऽचि गौरादित्वाद् डी: । अयस्कुम्भी इत्यत्र गौरादित्वाद् ङीः । शुनस्कर्ण इत्यत्र उष्ट्रमुखादित्वा · से “षष्ठ्याः क्षेपे' [ ३. २. ३०.] अलूप । नन्वयस्कृतमित्यादौ कृगधातूरुत्तरपदं नास्ति त. कथं सकार इत्याह-इह कृ-कम्योरिति । कथं पयस्कामेति-कमेरिणङि 5 "शोलिकामि०" [६. १. ७३.] इति णे-पयःकामा, पिङभावे तु कर्मणोऽणि पयस्कामीति प्राप्नोति, तत् कथं पयस्कामेत्याह-कमनमित्यादि ।। २. ३. ५ ।। . प्रत्यये ॥ २. ३. ६ ॥ अनव्ययस्य यो रेफस्तस्य प्रत्ययविषयेषु क-ख-प-फेषु सो भवति । पाश-कल्प-काः प्रयोजयन्ति, काम्ये विशेषविधानादन्यस्य चाभावात् । पयस्पा-10 शम्, यशस्पाशम् ; पयस्कल्पम्, यशस्कल्पम् ; पयस्कम्, यशस्कम् । अनव्ययस्येत्येव-स्वःपाशम्, प्रातःकल्पम् । प्रत्यय इति किम् ? पाशो बन्धः, कल्पो विधिः, कं शिरः, पयःपाशः, पयःकल्पः, पयःकम् ।। ६ ।। न्या० स०--प्रत्यये। अत इतीह नाश्रीयते तेन पयस्कल्पेत्यादि सिद्धम् । इह प्रत्ययेन समासासम्भवाः समास इति सम्बद्धमैक्य इति च नानुवर्तते । प्रत्यय इति 15 किमिति-अत्र प्रत्ययग्रहणाभावे रोः काम्ये चेति कार्यं तस्य चायमर्थः-रो: स्थाने क चकारात् कखपफि च सो भवति, तहि नियमः कथमिति ? उच्यते-कखपफमध्यपातित्वात् काम्यग्रहणे लब्धे यत् काम्यग्रहणं करोति तद् ज्ञापयति-रोरेव काम्ये, ततश्च प्रत्ययग्रहणं विना अयःपाश इत्यादिष्वपि “रो: काम्ये" [२. ३. ७.] इति सूत्रेण सत्वं स्यात्, तन्मा प्रसाङक्षीदिति प्रत्ययग्रहणम् । स्वः- पाशमित्यादिषु प्रौत्सर्गिक नपुंसकत्वम् । पयः-20 कमित्यत्र पयसि कमिति कार्य न तु षष्ठीसमासः, "तृप्ता०" [३.१. ८५.] इति निषेधात् ।। २. ३. ६ ॥ रोः काम्ये ॥ २. ३. ७ ॥ अनव्ययसंबन्धिनो रेफस्य रोरेव काम्यप्रत्यये परे सो भवति । पयस्काम्यति, यशस्काम्यति । रोरिति किम् ? द्वाःकाम्यति, वाःकाम्यति ; 25 अहःकाम्यति । प्रत्यय इत्येव-पुरुषैः काम्यम् । अनव्ययस्येत्येव-अधःकाम्यति । पूर्वेणैव सिद्धे रोरेवेति नियमार्थं वचनम् ॥ ७ ॥ न्या० स०-रोः काम्ये। नियमार्थमिति-विपरीतनियमस्तु “वर्चस्का०" Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ८-९.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३०५ [३. २. ४८.] इति निर्देशात् प्रत्यये रोः काम्ये चेत्येकयोगाभावाद् वा न ॥ २. ३.७ ।। 'नामिनस्तयोः षः ॥ २. २. ८ ॥ तयोरिति प्रत्ययसूत्रसंगृहीतानां पाश-कल्पकानां, रोः काम्ये इति यथानिर्दिष्टस्य काम्यस्य च ग्रहणम् ; तयोः परयो मिन उत्तरस्य रेफस्य षकार आदेशो भवति । सर्पिष्पाशम्, यजुष्पाशम्, धनुष्पाशम्, गीष्पाशा, 5 धूष्पाशा; सर्पिष्कल्पम्, धनुष्कल्पम्; गीष्कल्पा, सर्पिष्कम्, सार्पिष्कः, धानुष्कः; सर्पिष्काम्यति, धनुष्काम्यति। नामिन इति किम् ? अयस्कल्पम् । तयोरिति किम् ? मुनिः करोति, भिन्द्युः पापानि । रोः काम्य इत्येव ? गीःकाम्यति, धूःकाम्यति ।। ८ ।। न्या० स०--नामिन। अत्र अनव्ययस्येति वर्तते, यतः पूर्वसूत्राभ्यां सकारे10 प्राप्तेऽयं ष इति, तेन उच्चैष्क इत्यादि न भवति, उच्चैष्काम्यतीत्यादि च । सार्पिष्क इति-"प्रत्यये" [२. ३. ६.] इति सूत्रे पाश-कल्प-का इत्युपलक्षणत्वादिकणोऽपि ग्रहणम् यद्वा इकारे लुप्तेऽयमपि क इत्यनेनात्रापि षत्वं, सर्पिषा संस्कृतः “संस्कृते" [६. ४. ३.] इतीकण , सप्तमीवाक्ये तु “संस्कृते भक्ष्ये' [ ६. २. १४०. ] इत्यनेनाण स्यात् ।। २. ३. ८ ॥ निदुबहिराविष्प्रादुश्चतुराम् ॥ २. ३. ६ ॥ निरादीनां संबन्धिनो रेफस्य क-ख-प-फेषु परेषु षो भवति । बहुवचननिर्देशो निस्दुसोनिर्दुरोश्च परिग्रहार्थः । निष्कृतम्, निष्पीतम् ; दुष्कृतम्, दुष्पीतम् ; बहिस्-बहिष्कृतम्, बहिष्पीतम् ; आविस्-आविष्कृतम्, प्राविष्पीतम् ; प्रादुस्-प्रादुष्कृतम्, चतुर्-चतुष्कण्टकम्, चतुष्पात्रम् । कथं नि३ ष्कुल! 20 दु३ ष्पुरुष ! , नैष्कुल्यम्, दौष्कुल्यम् ?, एकदेशविकृतस्यानन्यत्वाद् ।। ६ ।। न्या० स०--निर्दुर्बहिः। प्रादुष्कृतमिति-अत्र अन्ये तु निबन्धकाराः प्रादुष्पीतमित्यप्यवीयते, तच्च न युक्त, तथाह्य द्योतकरः-प्रादुष्पीतमित्यसदेतदुदाहरणं विरोधात्, प्रादुःशब्दस्य कृभ्वस्तिविषय एवोपलम्भादिति । चतुष्कण्टकमिति-अत्र बहुव्रीहिः समाहारो वा, समाहारेऽपि पात्रादित्वात् स्त्रीत्वप्रतिषेधाद् ङीन भवति । कथमिति-अयमाशयः-25 निर्दुरोः षत्वमुच्यमानमन्यत्वात् कथमत्र, तथाहि-अत्र परत्वात् षकरात् पूर्व "दुरादामन्त्र्यस्य०” [७. ४. ६६.] इति प्लुतः घ्यणि वृद्धिश्चेति ।। २. ३. ६ ।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० १०-११.] सुचो वा ॥ २. ३. १० ॥ सुजन्तानां संबन्धिनो रेफस्य क-ख-प-फेषु परेषु षकारो वा भवति । द्विष्करोति, त्रिष्करोति, त्रिष्खनति, चतुष्पचति, चतुष्फलति; पक्षे जिह्वामूलीयोपध्मानीयौ विसर्जनीयश्च भवति-द्वि) (करोति, द्विः करोति ; त्रि) (खनति, त्रिः खनति; चतु पचति, चतुः पचति; चतु- फलति, चतुः 5 फलति । सुजन्तस्य चतुरः परत्वादनेन विकल्पो न तु पूर्वेण नित्यो विधिः । कखपफीत्येव-द्विश्चरति, त्रिस्तरति ।। १० ।। न्या० स०--सुचो वा। सुच इति न रेफस्य विशेषणं, तेन चतुष्पचतीत्यत्रापि विकल्पः, नह्यत्र सुचः स्थाने रेफः “रात् सः" [२. १. ६०.] इति सुचो लोपात्, अतः सुजिति प्रकृतेविशेषणं, तत्र च तदन्तविज्ञानमित्याह-सुजन्तानामिति-एवं हि विज्ञायमाने10 सुचो लोपेऽपि स्थानिवद्भावेन सुजन्त एवायं चतुःशब्द इति । न चैवं त्रिष्करोतीति त्रिशब्दस्यापि सुजन्तसम्बन्धित्वात् कस्मान्न भवतीति वाच्यम्, अनन्तरे कृतार्थत्वादिति ॥२. ३. १० ॥ वेसुसोऽपेक्षायाम् ॥ २. ३. ११ ॥ इस् उस्प्रत्ययान्तस्य यो रेफस्तस्य क-ख-प-फेषु परेषु षो वा भवति,15 अपेक्षायां-स्थानिनिमित्तपदे चेत् परस्परापेक्षे भवतः । सर्पिष्करोति, सर्पि खादति, सर्पिष्पिबति, सर्पिष्फेनायते; धनुष्करोति, धनुष्खण्डयति, धनुष्पतति, धनुष्फलति; परमसर्पिष्करोति, परमसपिष्पिबति, परमधनुष्पतति, परमधनुष्पठति; पक्षे सर्पिः करोति, परमसर्पिः करोतीत्यादि । इसुस इति किम् ? पय) (करोति, पय-पिबति; इसुसोः प्रत्यययोर्ग्रहणादिह न भवति, मुनिः20 करोति, नदीभिः क्रियते, मुहुः पठति, भिन्द्य : पापानि; मुहुरित्यव्युत्पन्नमव्ययम् । इसा साहचर्यादुस औरणादिकस्य ग्रहणम्, तेनेह न भवति-चक्रुः कुलानि । त्याद्य स्यपीच्छत्यन्यः । अपेक्षायामिति किम् ? तिष्ठतु सपिः, पिब त्वमुदकम् । एकार्थीभावे च न भवति-परमसर्पिःकुण्डम् ।। ११ ।। न्या० स०-वेसु० । प्रत्यययोर्ग्रहणादिति-इह *०प्रत्यया-प्रत्यययो:०%25 *लक्षणप्रतिपदोक्तयो:०% अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य इत्यनेन च इसुसोः प्रत्यययोग्रहणादिह न भवतीत्यर्थः ।। २. ३. ११ ।। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० १२-१३ . ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३०७ नेकार्थेsक्रिये ॥ २. ३. १२ ॥ न विद्यते क्रिया प्रवृत्तिनिमित्तं यस्य तस्मिन्न कार्थे - समानाधिकरणे पदे यत् कखपफं तस्मिन् परे इसुस्प्रत्ययान्तस्य संबन्धिनो रेफस्य षो न भवति, "वेसुसोऽपेक्षायाम्” [२. ३. ११.] इत्यस्यायं प्रतिषेधो नान्यस्य, तद्विषय एवारम्भात् सर्पि) (कालकम् । यजु — पीतकम् । एकार्थे इति किम् ? s सर्पिष्कुम्भे, सर्पि) (कुम्भे; धनुष्पुरुषस्य, धनु - पुरुषस्य । प्रक्रिय इति किम् ? सर्पिष्क्रियते, सर्पिः क्रियते, धनुष्प्राप्तम्, धनुः प्राप्तम् ।। १२ ।। न्या० स० - नैकार्थेऽक्रिये एकार्थे इत्यत्र एकशब्दः समानार्थः, यथा चैत्रमैत्रयोकमातेति, एका-समानेत्यर्थः, अर्थशब्दस्तु इदं तदित्यादि सर्वनाम्ना व्यपदिश्यमानेऽनेकस्य युगपत् प्रयुज्यमानस्य भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तकस्य शब्दस्याधिकरणे द्रव्ये वर्तते । सर्पि कालक- 10 मित्यादि - कालकं पीतकमिति गुणवचनमक्रियावाचि समानाधिकरणमतः प्रतिषेधः । पीतकमिति - पीतशब्दः पावदित्वात् स्वार्थे कः, यद्वा पीतेन रक्तमिति "नीलपीतादकम् " [ ६.२.४. ] इति कः ।। २. ३. १२ ।। समासेऽसमस्तस्य ।। २. ३. १३ ।। पूर्वेणासमस्तस्य इसुस्प्रत्ययान्तस्य संबन्धिनो रेफस्य क-ख-प-फे परे षो15 भवति, समासे–तौ चेन्निमित्तनिमित्तिनावेकत्र समासे भवतः । सर्पिष्कुम्भः, असर्पिः सर्पिः कृत्वा सर्पिष्कृत्य, सर्पिष्खण्डम्, सर्पिष्पानम्, सर्पिष्फलम् ; धनुष्कृत्य, धनुष्खण्डम्, धनुष्पृष्ठम्, धनुष्फलम् । समास इति किम् ? तिष्ठतु सर्पिः, पिब त्वमुदकम् । असमस्तस्येति किम् ? परमसर्पिः कुण्डम्, इन्द्रधनुःखण्डम् ; पूर्वेणापि न भवति समासे सत्यपेक्षाया प्रभावात् । इदमेवासमस्त-20 स्येति वचनं ज्ञापकम् - इसुसोः “प्रत्ययः प्रकृत्यादेः " [ ७. ४. ११५.] इत्ययं नियमो न भवति, तेन परमसर्पिष्करोति, परमसर्पिः करोतीत्यत्र "वेसुसोऽपेक्षायाम्" [२. ३. ११.] इत्यनेनाधिकस्यापि विकल्पो भवति । बहुसपि - ष्कुण्डम्, बहुसर्पिष्पात्रमित्यत्र तु बहुप्रत्ययादेरपि समस्तत्वादनेन नित्यं भवति ।। १३ ।। 25 न्या० स०-- समासे० । सर्पिष्पानमिति - "पानस्य भावकरणे" [ २. ३. ६९.] इति त्वे प्राप्ते " षात् पदे " [ २. ३. ε२. ] इति निषेधः । इदमेवेति - ननु परमसर्पिष्करोति Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू० १४. ] परमधनुष्करोतीति परमसर्पिः परमधनुः शब्दयोरिसुसन्तत्वाभावान्मा भूत् षकारः, परमुत्तरपदार्थप्रधानत्वात् समासस्य सर्पि-र्धनुः शब्दयोरिसुसन्तत्वात् तदाश्रयः षो भविष्यति, किं तदर्थेन ज्ञापकेन न चैवं सति परमसर्पिः कुण्डमित्यत्रापि प्राप्नोति, सर्पिः शब्दस्य कुण्डेनासमासात्, किन्तु परमसर्पिः शब्दः, उच्यते - यद्यपि परमसर्पिः करोत्युत्तरपदार्थप्रधाने समासे प्रधानस्यापेक्षया योगात् षत्वं सिद्धयति, तथापि परमं सर्पिर्यस्य सर्पिषः समीपं 5 सर्पिषो निष्क्रान्तमिति - परम सर्पिष्करोति, उपसर्पिष्करोति, निःसर्पिष्करोतीत्यत्र न सिद्धयति, सर्पिः शब्दस्य करोतिक्रियायाश्च व्यपेक्षाभावादिति तदर्थमिदं ज्ञापकमिति भावः ।। २. ३. १३ ।। ३०८ ] भ्रातृष्पुत्र-कस्कादयः ।। २. ३. १४ ॥ भ्रातुष्पुत्रादयः कस्कादयश्च क ख - प - फेषु परेषु रेफस्य स्थाने यथासंख्यं 10 कृतषत्व-सत्वाः साधवो भवन्ति । भ्रातुष्पुत्रः, “ऋतां विद्या - योनिसंबन्धे" [ ३. २. ३७. ] इति षष्ठ्या प्रलुप्, परमसर्पिष्कुण्डिका, परमधनुष्कपालम्, परमबर्हिष्पूलः, परमयजुष्पात्रम् अत्र सर्पिष्कुण्डिका - धनुष्कपाल- बर्हिष्पूलयजुष्पात्राणां पूर्वेण षत्वे सिद्धेऽपि समस्तार्थमिह पाठः, अन्ये त्वेषां समस्तानां षत्वं न मन्यन्ते, तन्मते तु - परमसर्पिः कुण्डिकेत्यादिषु षत्वं न भवति । कस्कः - 15 वीप्सायां द्विर्वचनम्; कुतः कुतः श्रागतः कौतस्कुतः; शुनस्कर्णः - “षष्ठ्याः क्षेपे" [३. २. ३०.] इत्यलुप्; सद्यस्कालः - बहुव्रीहिरसमासो वा; सद्यः क्रयणं सद्यस्क्रीः, तत्र भवः - साद्यस्त्रः । भ्रातुष्पुत्र, सर्पिष्कुण्डिका, बर्हिष्पूल, यजुष्पात्र इति भ्रातुष्पुत्रादयः । कस्कः, कौतस्कुतः, शुनस्कर्णः, सद्यस्कालः, सद्यस्त्रीः, साद्यस्क्रः, भास्करः, अहस्करः, अयस्काण्डः, तमस्काण्डः, अयस्कान्तः, 20 अयस्कुण्डः, मेदस्पिण्ड; प्रयस्पिण्ड इति कस्कादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन यथादर्शनमन्येऽपि भवन्ति । सर्वत्र नामिनः परस्य रेफस्य षत्वमन्यत्र सत्वं द्रष्टव्यम् ।। १४ ।। न्या० स० -- भ्रातुष्पुत्र० । साद्यस्क्रः सद्यस्क्रीशब्दादेव साद्यस्त्रस्य सिद्धत्वात् पृथगुपादानं प्रत्ययान्तरनिवृत्त्यर्थं तेन सद्यस्त्रियो भावः - सद्यः क्रीता इत्यत्र न सत्वम् 125 कौतस्कुतः गरणपाठादरण, अन्यथा "क्वेहामात्र०" [ ६.३.१६. ] इति त्यच् स्यात्, किञ्च तसन्तस्य प्रथमान्तत्वेन “ततः ० [ ६. ३. १४६ ] इति पञ्चम्यन्ताद् विधीयमानो न प्राप्नोति । केचित् त्वपञ्चम्यन्तादधि प्रणमिच्छन्ति, सतस्तन्मतेन " तत श्रागते" [ ६. ३. १४६. ] इत्यनेन वाऽण । ननु द्वित्वे तत एकपदत्वाभावात् कथं " तत श्रागते” Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० १५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३०६ [६. ३. १४६.] इत्यण ? सत्यम्-भूतपूर्वकन्यायाद् भविष्यति । अहस्करः-अहः किरति लिहाद्यचिति कार्य, कृगस्तु "अतः कृकमि०" [२. ३. ५.] इति सिद्धमेव । अयस्कान्तेति-कनै इत्यस्य रूपं, कामपतेस्तु "अतः कृकमि०" [२. ३. ५.] इति सिद्धमेव, कामपतेर्वा समस्तार्थमिह पाठः, तेन परमायस्कान्त इत्यपि भवति । कस्क इति-यद्येवं "कः कः कुत्र न घुघुरापितधुरोघोरो चुरेत् सूकरः" इत्यादि कथम् ?, यतस्तत्रापि कस्क: 5 इति स्यात्, सत्यम्-परमताभिप्रायेण, ते हि "भ्रातुष्पुत्र." [ २. ३. १४. ] इति सूत्रं सन्धिविधौ विदधति, ततो विरामे विवक्षिते सति “न सन्धिः" [१. ३. ५२.] इत्यस्य प्रवृत्तेर्न सत्वम् ।। २. ३. १४ ॥ नाम्यन्तस्था-कवर्गात् पदान्तः कृतस्य सः शिइनान्तरेऽपि ॥ २. ३. १५ ॥10 नामिनोऽन्तस्थायाः कवर्गाच्च परस्य पदान्तः-पदमध्ये कृतस्य-विहितस्य कृतसंबन्धिनो वा सः सकारस्य षो भवति, शिटा नकारेण चान्तरेऽपिव्यवधानेऽपि । नामिनः-आशिषा, अग्निषु, नदीषु, वायुषु, वधूषु, पितृषु, एषा, गोष, नौष, सिषेवे, शिष्यते, चिचीषति, सुष्वाप, लुलूषति, जेष्यति, अनैषीत् , अच्योष्ट, अकौषीत् ; 'सर्पिष्मान् , यजुष्मान्, दोष्मान्' इत्यादौ "न15 स्तं मत्वर्थे " [१. १. २३.] इति पदप्रतिषेधात् पदमध्यत्वम् । अन्तस्थायाःगीर्षु, धूर्षु, चिकीर्षति, पुपूर्षति, हल्षु । कवर्गात्-वाक्षु, त्वक्षु, पिपक्षति, शिक्षति, अपाषु, क्रुषु । शिड्नान्तरेऽपि-सर्पिष्षु, हविष्षु, अत्र सकारेण व्यवधानम्; सर्पिःषु, धनुःषु; सीषि, यजूंषि, बह्वाशींषि कुलानि नकारस्यावश्यमनुस्वारभवनात् शिट्ग्रहणेनैव सिद्धे नकारोपादानं नकारस्थानेनैवानु-20 स्वारेण यथा स्यादित्येवमर्थम्, तेन मकारानुस्वारेण न भवति- पुंसु । शिटा नकारेण चान्तरे इति प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तेरुभयव्यवधाने न भवति"णिसुकि चुम्बने" निस्से । नाम्यन्तस्थाकवर्गादिति किम् ? असो, दास्यति । पदान्त इति किम् ? पदादौ पदान्ते च मा भूत्-दधिसेक् , दधिसेचौ; ईषदपरिसमाप्तः सेक्-बहुसेक् , बहुसेचौ; अत्रान्तर्वतिन्या विभक्त्या सेक्-25 शब्दस्य पदत्वात् सकारस्य पदादित्वम् ; अन्ते-अग्निस्तत्र । कृतस्येति किम् ? बिसम्, मुसलम्, सिसाधयिषति । अथ बिसं बिसं, मुसलं मुसलमित्यादौ द्वित्वे कृते सकारस्य षत्वं कस्माद् न भवति ? उच्यते-नात्र कृतः सकारः किन्तु Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० १६-१६.] तत्संपृक्तः समुदायो द्विरुच्चार्यते । तिसृभिरित्यत्र तु विधानबलात् न भवति । अधिकारश्चायमा षत्वविधैः ।। १५ ॥ न्या० स०-नाम्यन्तस्था० । अनुस्वारभवनादिति-नित्यत्वादन्तरङ्गत्वाच्चेत्यर्थः । बिसमिति-अव्युत्पन्नो ग्राह्यः, न तु "पटि-वीभ्यां डिसडिसी" [ उणा० ५७६. ] इति; यद्वा "विसच प्रेरणे" विस्यति "नाम्यूपान्त्यः " [५.१.५४. ] इति के-विसम्; 5 यदा तु डिस-डिसौ तदा विधानसामर्थ्यान्न भवति ।। २. ३. १५॥ समासेग्नेः स्तुतः ॥ २. ३. १६ ॥ अग्निशब्दात् परस्य स्तुत्शब्दसंबन्धिनः सकारस्य समासे षो भवति । अग्निष्टुत्, अग्निष्टुतौ; अग्निष्टुतः ।। १६ ।। न्या० स०-समासे०। असष इति वचनात् सकारस्य पदमध्यत्वं नास्तीति10 वचनम् ।। २. ३. १६ ।। ज्योतिरायुभ्यां च स्तोमस्य ॥२. ३. १७॥ ज्योतिरायुःशब्दाभ्यामग्नेश्च परस्य स्तोमशब्दसंबन्धिनः सकारस्य समासे षो भवति । ज्योतिःष्टोमः, आयु:ष्टोमः; अग्निष्टोमः ।- समास इत्येवज्योतिः स्तोमं दर्शयति ।। १७ ।। न्या० स०-ज्योतिरायुः । ज्योतिः स्तोमं दर्शयतीति-ज्योतिः प्रदीपादि कर्तृ समूहं दर्शयतीत्यर्थः ।। २. ३. १७ ॥ मातृ-पितुः स्वसुः ॥ २. ३. १८ ॥ मातृपितृभ्यां परस्य स्वसृशब्दसंबन्धिन: सकारस्य समासे षो भवति । मातृष्वसा, पितृष्वसा। समास इत्येव-मातुः स्वसा, पितः स्वसा ।। १८ ।। 20 न्या० स०--मातृ-पितुः। अकृतत्वात् पदादित्वाच्चाप्राप्तविधानम् । मातृपितुरित्यत्र सूत्रत्वात् “पा द्वन्द्व" [२. २. ३६.] इति न प्रवर्तते । वन्दिरत्नमतिस्तुआकारस्यानिर्देश ऋकारान्तस्वरूपपरिग्रहार्थः, ऋकारान्तस्वरूपं षष्ठीतत्पुरुष एव न तु द्वन्द्व इति मन्यते ।। २.३.१८ ।। अलपि वा ॥ २. ३. १६॥ मातृपितृभ्यां परस्य स्वसृशब्दसंबन्धिनः सकारस्याऽलुपि समासे षो वा 15 25 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० २०-२२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३११ भवति । मातुःष्वसा, मातुःस्वसा; पितुःष्वसा, पितुःस्वसा;-"स्वसृपत्योर्वा" [३. २. ३८.] इति षष्ठ्या अलुप् । समास इत्येव-मातुः स्वसा, पितुः स्वसा ॥ १६ ॥ न्या० स०-अलुपि वा। पूर्वेण प्राप्ते विभाषेयमारभ्यते। मातुःश्वसेति"शषसे शषसं वा" [ १. ३. ६. ] इति पाक्षिके रस्य सत्वे चातूरूप्यम् ।। २. ३. १६ ।। 5 नि-नद्याः स्नाते. कौशले ॥ २. ३. २० ॥ निनदीशब्दाभ्यां परस्य स्नातेः संबन्धिनः सकारस्य समासे षो भवति, कौशले-नैपुण्ये गम्यमाने । निष्णः कटकरणे, निष्णातः कटकरणे; नदीष्णः प्रतरणे, नदीष्णातः प्रतरणे; कुशल इत्यर्थः । नद्याः स्नातस्य नेच्छन्त्येके । कौशल इति किम् ? निस्नातः, नदीस्नः, यः स्रोतसा ह्रियते ॥ २० ॥ 10 न्या० स०--नि-नद्याः । नदीष्णातः प्रतरणे इत्यादिष्ववयवार्थो व्युत्पत्त्यर्थमेवाश्रीयते, कृतषत्वेन त्वनेन क्रियासु तात्पर्येणानुष्ठातोच्यते-'नद्याः स्नातस्य' इत्यत्र । एक इति-चन्द्रप्रभृतयः, ते हि नद्याः स्नातस्य नेः स्नातस्य वेच्छन्ति ।। २. ३. २० ॥ प्रते. स्नातस्य सूत्रे ॥ २. ३. २१ ॥ प्रतेः परस्य स्नातसंबन्धिनः सकारस्य समासे षो भवति, सूत्रेऽभिधेये,15 विशेषानुपादानात् चोर्णादिसूत्रं व्याकरणादिसूत्रं च गृह्यते । प्रतिष्णातं सूत्रम्-ऊर्णादिसूत्रं क्षालनेन शुद्धम्, व्याकरणादिसूत्रं त्वतिव्याप्त्यादिदोषाभावेन शुद्धमित्यर्थः । सूत्र इति किम् ? प्रतिस्नातमन्यत् । प्रत्ययान्तोपादानं प्रत्ययान्तरनिवृत्त्यर्थम्-प्रतिस्नातृ सूत्रम्, प्रतिस्नायकं सूत्रम् ॥ २१ ॥ न्या० स०-प्रतेः स्ना०। प्रत्ययान्तरनिवृत्यर्थमिति-अन्यथा पूर्वसूत्रात् स्नाति-20 रनुवतिष्यत एव किं तदुपादानेन इत्यर्थः ।। २. ३. २१ ।। स्नानस्य नाम्नि ॥ २. ३. २२ ॥ प्रतेः परस्य स्नानसंबन्धिनः सकारस्य समासे षो भवति, सूत्रविषये नाम्नि-समुदायश्चेत् सूत्रविषयं नाम भवतीत्यर्थः । प्रतिष्णानं सूत्रमित्यर्थः । नाम्नीति किम् ? प्रतिस्नानमन्यत् ।। २२ ।। 25 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] - बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० २३-२५.] . न्या० स०--स्नानस्य नाम्नि। प्रतिष्णानमिति-प्रतिस्नातीति नन्द्यादिभ्यो । रम्यादिभ्यो वाऽनः, अथवा प्रतिस्नाति तेनेति करणेऽनट् ।। २. ३. २२ ।। वेः स्त्रः ॥ २. ३. २३ ॥ वे: परस्य स्तृणातेः सकारस्य समासे षो भवति, नाम्नि-समुदायश्चत् संज्ञाविषयो भवति । विष्टरो वृक्षः, विष्टरमासनम्, विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः; 5 विष्टारबृहती छन्दः । नाम्नीत्येव-विस्तरो वचसाम्, विस्तारः पटस्य ॥ २३ ॥ न्या० स०-वेः स्त्रः। विष्टरमासनमिति अत्र विष्टरोऽतरी, नपुसकत्वम् । विष्टारपङ्क्तिरिति-विस्तीर्यते "छन्दोनाम्नि" [५. ३.७०.] इति घञ्, विस्तरस्य पङि क्तः, 'विस्तरस्य बृहतीति तु वाक्ये न घञ् संज्ञाया अभावात्, समुदायेन हि संज्ञा10 गम्यते । संज्ञाविषयत्वं च सामस्त्येन एकदेशेन च भवतीति क्रमेणोदाहरति-विष्टर इत्यादि-विस्तीर्यत इति “युवर्ण०" [५. ३. २८.] इत्यलि-विष्टरः। विष्टार इति हि छन्दोनाम्नोऽवयवः, विष्टारपङ्क्तिः ।। २. ३. २३ ।। अभिनिष्टानः ॥ २. ३. २४ ॥ 'अभिनिस्' इत्येतस्मात् परः, ष्टानशब्दः समासे कृतषत्वो निपात्यते,15 नाम्नि-समुदायश्चत् संज्ञाविषयो भवति । अभिनिष्टानो वर्णः, विसर्गस्यैषा संज्ञा, वर्णमात्रस्येत्यन्ये । नाम्नीत्येव-अभिनिःस्तन्यते अभिनिस्तानो मृदङ्गः ॥ २४ ॥ न्या० स०--अभि-नि०। अत्रोपलक्षणत्वान्निरोऽपि ग्रहः। "व्यत्यये लुग् वा" [ १. ३. ५६. ] रलुक् ॥ २. ३. २४ ।। 20 गवि-युधेः स्थिरस्य ॥ २. ३. २५ ॥ 'गवि युधि' इत्येताभ्यां परस्य स्थिरशब्दसंबन्धिनः सस्य समासे षो भवति, नाम्नि। गविष्ठिरः, अस्मादेव निर्देशात् सप्तम्या अलुप् युधिष्ठिरः ।। २५ ॥ ___ न्या० स०--गवि-युधेः । अनयोः सप्तम्यन्तानुकरणयोरपि युधशब्दस्य यथा-25 प्राप्त: “अव्यश्चनात्०" [ ३. २. १८. ] इत्यनेनैवालुप् ।। २. ३. २५ ।। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० २६-२८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३१३ 10 एत्यकः ॥ २. ३. २६ ॥ ककारवजितान्नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य सकारस्य एति-एकारे परे समासे षो भवति, नाम्नि । हरिषेणः, श्रीषणः, वायुषेणः, मातृषेणः । एतीति किम् ? हरिसिंहः । अक इति किम् ? विष्वक्सेनः, शतभिषक्सेनः । नाम्नीत्येव-पृथ्वी सेनास्य-पृथुसेनः । नाम्यन्तस्थाकवर्गादित्येव-सर्वसेनः, 5 महासेनः ।। २६ ॥ न्या० स०--एत्यकः। विष्वक्सेनः विषुवति परसेनां विषूः, प्रेरकः, तमञ्चति क्विपि ङ्यां विषची; विषुशब्दोऽव्ययं वा नानात्वे वर्तते, तदञ्चति; यद्वा विष्वगित्यव्ययं सामस्त्ये च वर्तते, पश्चात् त्रिष्वपि बहुव्रीहिः ।। २. ३. २६ ।। भादितो वा ॥ २. ३. २७ ॥ भं-नक्षत्रं, तद्वाचिन इकारान्तात् परस्य सकारस्यैकारे परे समासे षो वा भवति, नाम्नि। रोहिणिषेणः, रोहिणिसेनः; रेवतिषेणः, रेवतिसेनः; भरणिषेणः, भरगिसेनः; "ड्यापो बहुलं नाम्नि" [२. ४. ६६.] इति ह्रस्वः । इत इति किम् ? पुनर्वसुषेणः, अत्र पूर्वेण नित्यमेव, शतभिषक्सेनः ।। २७ ॥ न्या० स०--भादि० । बिभर्ति करणेऽनटि, "ऋ-हृ०" [उणा० ६३८.] इत्याद्यणौ वा भरणिः । रोहिण्य इव रेवत्य इव भरण्य इव कल्याणिनी सेना यस्येति । पुनर्वसुषेण इत्यादि-पुनर्वस्वनयोराराधितयोः पुनर्वसू, शतभिषज् नक्षत्रमतो भ इति व्यावृत्तेन द्वयङ्गवैकल्यम् ।। २. ३. २७ ॥ वि-कु-शमि-परे। स्थलस्य ॥ २. ३. २८ ॥ वि-कु-शमि-परिभ्यः परस्य स्थलशब्दसंबन्धिनः सकारस्य समासे षो भवति । नाम्नीति निवृत्तम् । विगतं वीनां वा पक्षिणां स्थलं-विष्ठलम्, कुत्सितं को:-पृथ्व्या वा स्थल-कुष्ठलम्, शमीनां स्थलं शमिष्ठलम्, “ड्यापो बहुलं नाम्नि" [२. ४. ६६.] इति ह्रस्वः, सूत्रे ह्रस्वस्य शमिशब्दस्योच्चारणाद् दीर्घान्न भवति-शमीस्थलम्, दीर्घादप्येके; परिगतं स्थलं परिष्ठलम् ।25 एभ्य इति किम् ? भूमिस्थलम् ।। २८ ।। 15 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० २६-३०.] न्या० स०-वि-कु-शमि०। नाम्नीति निवृत्तम् विष्ठलादिशब्दात् संज्ञाया । अप्रतीतेः उत्तरत्र गोत्रग्रहणाद् वा। स्थलमिति-तिष्ठत्यत्र सिकतादिकमिति “स्थो वा" [ उणा० ४७३. ] अल:-स्थलः। शमिष्ठलमिति-शमिशब्द: शमशब्दो वा, शमे: "इतोऽक्त्य." [ २. ४. ३२. ] इति ङीः । अत्र शमाद् गौरादित्वाद् ङी:। वि-कुशब्दावव्यया-ऽनव्ययौ विशेषानुपादानाद् द्वावपि गृह्य ते, तत्राव्ययपक्षे “गतिक्वन्य०" [ ३. १. 5 ४२. ] इति “प्रात्यव०" [ ३. १. ४७. ] इति च तत्पुरुषोऽन्यत्र षष्ठीसमास इत्याहविगतं वीनां वेति । दीर्घान्न भवतीति-बाहुलकान ह्रस्व इत्यर्थः ।। २. ३. २८ ।। कपेगोत्रे ॥ २. ३. २६ ॥ कपिशब्दात् परस्य स्थलशब्दसंबन्धिन: सकारस्य समासे षो भवति, गोत्रेऽभिधेये । कपिष्ठलो, नाम गोत्रस्य प्रवर्तयिता, यस्य कापिष्ठलिः पुत्रः । 10 गोत्रमिह लौकिकं गृह्यते, लोके चाद्यपुरुषा येऽपत्यसंततेः प्रवर्तयितारो यन्नाम्नोऽपत्यसंततिर्व्यपदिश्यते तेऽभिधीयन्ते । गोत्र इति किम् ? कपीनां स्थलं कपिस्थलम् ।। २६ ।। न्या० स०-कपेः। कपिभिरावृतं स्थलमस्य तस्यापत्यं "बाह वादिभ्यो गोत्रे" [ ६. १. ३२. ] इञ् प्रत्ययः । गोत्रमिहेत्यादि-न तु स्वापत्यसन्तानस्येत्यादि-लक्षणं15 शास्त्रीयम् ।। २. ३. २६ ।। गो-अम्बा-99म्ब-सव्या-अप-दिव-त्रि भूम्यग्नि-शेकु-शाक्वडणु-मजि-पुझिज-बहिःपरमे-दिवे स्थस्य ॥ २. ३. ३० ॥ 'गो अम्बा अाम्ब सव्य अप द्वि त्रि भूमि अग्नि शेकु शकु कु अगु मजि पुजि बर्हिस् परमे दिवि' इत्येतेभ्यः परस्य स्थशब्दसंबन्धिनः सकारस्य20 समासे षो भवति। गोष्ठम्, अम्बाष्ठः, “ड्यापो बहुलं नाम्नि" [२. ४. ६६.] इति हृस्वत्वे अम्बष्ठः, श्लिष्टनिर्देशादुभाभ्यामपि भवति-आम्बष्ठः; सव्यष्ठः, अपष्ठः, द्विष्ठः, त्रिष्ठः, भूमिष्ठः, अग्निष्ठः, शेकुष्ठः, शङ्कुष्ठः, कुष्ठः, अङ्गुष्ठः, मञ्जिष्ठः, पुञ्जिष्ठः, बहिष्ठः, परमेष्ठः, दिविष्ठः, अत एव निपातनात् सप्तम्या अलुप्, “तत्पुरुषे कृति" [३. २. २०.] इति तु "नेम्-25 सिद्धस्थे” [३. २. २६.] इति प्रतिषेधात् नोपतिष्ठते ॥ ३० ।। न्या० स०-गोऽम्बाम्ब० । आम्बष्ठः अम्ब्यते अपह्नवकारितया घत्रि, अथवा Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० ३१-३३. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः "1 अम्यते इति “शम्य मेरिंगद्वा" [ उरणा० ३१८. ] श्रम्बोऽपह्नवकर्ता, तस्यायं कार्यभूतः अरिण-आम्बोऽपह्नवरूपो धर्मः, तत्र तिष्ठतीत्यत्र सर्वत्र “स्था - पास्ना - त्रः कः " [ ५. १. १४२. ] अपतिष्ठतीत्यत्र तु "उपसर्गादातो ड: " [ ५. १.५६ . ] इति ड: प्रत्यय:अपष्ठः । श्रधिकरणे तु गोष्ठमित्यत्र “स्थादिभ्यः कः " [ ५३.८२. ] शीङक् शमूच् इत्यनयो: "कैशी - शमि० [ उणा० ७४६. ] इति कौ - शेकुरुद्भिद्विशेषः, शङ कुस्तु 5 “शङ्कुः पत्र-शिराजाले सङ्ख्या - कीलकशम्भुषु ।” सवनीयः सव्यः "य एच्चात: " [ ५.१.२८. ] म े ः सौत्रस्य "पदि पठि०" [ [ उरणा० ६०७ ] इति इप्रत्यये मखः । "पूङ पवने" इत्यस्मात् "पुवः पुन् च" [ उणा० १२८. ] इति जे - पुख:, स इवाचरति “कर्त्तुः क्विप्०” [ ३. ४.२५ ] तस्य लुप् । पुञ्जतीति "स्वरेभ्य इ:" [ १. ३. ३०. ] पुख: ।। २. ३. ३० ॥ : 10 [ ३१५ निदु स्सोः सेध-सन्धि-साम्नाम् ॥ २. ३. ३१ ।। निरादिभ्यः परेषां सेधादीनां सस्य समासे षो भवति, वचनभेदाद् यथासंख्याभावः । निःषेध:, दुःषेधः, सुषेधः निःषन्धिः, दुःषन्धिः, सुषन्धिः; निःषाम, दुःषाम, सुषाम ।। ३१ ।। न्या० स०--- निर्दु स्सो : ० । अत्र रेफस्य सकारेऽनेन शिडन्तरत्वात् परसकारस्य 15 'षत्वे पूर्वसकारस्य च “सस्य श षौ” [ १. ३. ६१.] इति षत्वे - निषेधादयः ।। २.३.३१ ।। प्रष्ठोश्ग्रगे ॥। २. ३. ३२ ॥ प्रात् परस्य स्थसकारस्य षो निपात्यते, अग्रगे- अग्रगामिण्यभिधेये । प्रष्ठोऽग्रगामी, प्रस्थोऽन्यः ।। ३२ ।। न्या० स० -- प्रष्ठोऽग्र० । प्रतिष्ठते - प्रष्ठः, “उपसर्गादातो ड: ०" [ ५. १. ५६. ]20 " न तु "स्था पा० [ ५. १. १४२. ] इति कः, तस्य नामपूर्वाद्धातोर्विहितत्वात् नामग्रहणे च प्रायेणोपसर्गस्य न ग्रहणमित्यस्यार्थस्य ज्ञापयिष्यमाणत्वात् ।। २. ३. ३२ ।। भीरुष्ठानादयः ॥ २. ३. ३३ ।। भीरुष्ठानादयः शब्दाः समासे कृतषत्वाः साधवो भवन्ति । भीरूणां स्थानं-भीरुष्ठानम्, श्रृङ्गुलीनां सङ्गः - प्रङ्गुलिषङ्गः; प्रङ्गुलिषङ्गा यवागूः 125 —भीरुष्ठान, श्रृङ्गुलिषङ्ग, सव्येष्ठ, परमेष्ठिन्, सुष्ठु, दुष्ठु, अपष्ठु, वनिष्ठु, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ३४.] गौरिषक्थ, प्रतिष्णिका, नौषेचिका, दुन्दुभिषेवण' इति भीरुष्ठानादयः । । समास इत्येव-भीरोः स्थानमित्यादि । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ३३ ।। न्या० स०--भीरुष्ठान । सव्ये तिष्ठति “सव्यात् स्थः' [उणा० ८५५.] इति डिति ऋप्रत्यये-सव्येष्ठ, “तत्पुरुष कृति" [ ३. २. २०. ] इति सप्तम्यलुप्, असौ सव्येष्ठासारथिः । अन्ये-ऋप्रत्ययान्तस्य च्छन्दोविषयत्वादाकारान्तः क्विबन्तोऽयमिति मन्यन्ते, 5 तन्मते-'सव्येष्टाः' इति विसर्गान्तः, "तत्पुरुषे कृति" [३. २. २०.] इत्यलुप् । परमेष्ठिनित्यत्र गणपाठसामर्थ्यादलुप् । सुष्ठु इत्यादि-अत्र “दुःस्वप-वनिभ्यः स्थः" [ उणा० ७३२. ] इति उप्रत्यये सुष्ठ्वादयः । शोभनं स्थानं यत्र तत् सुष्ठु दुष्ठु इति पृषोदरादित्वाद् वा, क्रियाप्रधानावेतौ सुष्ठ करोति दुष्ठु करोतीति क्रियापदसंनिधावेवेतयोः प्रयोगात् । गौरिषक्थः गौर्या इव सक्थिनी यस्य "सक्थ्य:०" [७. ३. १२६.] 10 इति ट: "ड्यापो बहुलम्" [ २. ४. ६६. ] इति ह्रस्वः। प्रतिष्णिकेत्यत्र प्रतिस्नातीति "उपसर्गादातः०" [५. १. ५६. ] इति प्रतिस्ना, यद्वा प्रतिस्नान्त्यस्यां "स्थादिभ्य:०" [५. ३. ८२.] इति के “गति-क्वन्य०" [ ३. १. ४२. ] इति सः, ततः स्वार्थे के "यादीदुत:०" [२. ४. १०४.] इति ह्रस्वत्वे "इच्चापुसोऽनि०" [२. ४. १०७.] इतीत्वे षत्वे। प्राकृतिगणार्थमिति-पत्र नौषेचनं दुन्दुभिषेचनमित्यादि ज्ञेयम्15 ॥२. ३. ३३ ॥ हस्वानाम्नस्ति ॥ २. ३. ३४ ॥ नाम्नो विहिते तकारादौ प्रत्यये परे ह्रस्वान्नामिन उत्तरस्य सकारस्य षो भवति । तल्-त्व-तस्-त्य-तय-तरप्-तमपः प्रयोजयन्ति । सर्पिष्टा, यजुष्टा; सर्पिष्ट्वम्, यजुष्ट्वम् ; सर्पिष्टः, यजुष्टः; निष्टयः चतुष्टयः; सर्पिष्टरम्,20 वपुष्टरम् ; सर्पिष्टमम्, वपुष्टमम् । प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति प्लुतत्वस्यासिद्धत्वादिहापि भवति-सर्पि३ष्ट्वम्, चतु३ष्टयः, सर्पि३ष्टरम्, यजु३ष्टमम् । ह्रस्वादिति किम् ? गीस्त्वम्, धूस्त्वम्, गीस्तरा, धूस्तमा, उच्चस्तराम्, उच्चस्तमाम् नामिन इत्येव-तेजस्ता, तेजस्त्वम्, पयस्ता, पयस्त्वम्, तेजस्तरम्, तेजस्तमम् । नाम्न इति किम् ? भिन्द्य स्तराम् । 25 विहितविशेषणं किम् ? सर्पिस्तत्र, सर्पिषस्तरणं तमनं वा-सर्पिस्तरः, सर्पिस्तमः । तीति किम् ? सर्पिस्साद् भवति ।। ३४ ।। न्या० स०-ह्रस्वान्ना० । सर्पिष्ट इत्यत्र "ग्रहीयरुह०" [७. २. ८८.] इति तस् । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० ३५-३६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३१७ अन्तरङ्ग इति प्रयमर्थः परत्वाद् पूर्वमपि लुप्ते ग्रामन्त्र्याद्याश्रयत्वेन बहिरङ्गत्वं लुपस्य । सपिस्तत्रेति - ननु सर्पिस्तत्रेत्यादौ "वेसुसोऽपेक्षायाम्" [२. ३. ११.] इत्यस्य कखपफीति व्यावृत्त्यैव षत्वव्यावृत्तेः सिद्धत्वात् किमनेन ? नैवम् - अपेक्षायां प्राप्तिरनेन तु अनपेक्षायामपि शङ्कयते, यथा- पश्यात्र सर्पिस्तत्र यजुर्वर्तत इति ।। २. ३. ३४ ।। निसस्तपेश्नासेवायाम् ॥ २. ३. ३५ ॥ निसः संबन्धिनः सकारस्य तकारादौ तपतौ परे षो भवति, अनानिष्टपति सुवर्णम्, सकृदग्नि स्पर्शनिस्तपति सुवर्णं सुवर्णकारः, पुनः सेवायामर्थे, पुनः पुनः करणमासेवा । यतीत्यर्थः । अनासेवायामिति किम् ? पुनस्तपतीत्यर्थः । ' निष्टप्तं रक्षो निष्टप्ता अरातयः' इत्यत्र तु सदप्यासेवनं न विवक्ष्यते । तीत्येव-निरतपत् । शनिर्देशो भौवादिकपरिग्रहार्थः, यङ्लुब् - 10 निवृत्त्यर्थश्व, निस्तातप्ति, निस्तातपीति । *" तिवा शवाऽनुबन्धेन निर्दिष्टं यद् गणेन च । एकस्वरनिमित्तं च पञ्चैतानि न यङ्लुपि" ।। ।। ३५ ।। 5 न्या० स०-- निसस्तपे० । निरतपदिति - अत्र पूर्वं कृतमपि षत्वं परस्मिन्नडागमे “णषमसत्०” [ २. १. ६०. ] इत्यनेन प्रसिद्धम् । निस्तातपीति प्रत्र भृशं निष्टपतीति 15 वाक्यं कार्यम्, आभीक्षण्ये तु अनासेवायामिति व्यावृत्त्यैव निरस्तत्वाद् | अन्त्यत्वादप्राप्ते वचनम् ।। २. ३. ३५ ।। घस्-वसः ॥। २. ३. ३६ ॥ , नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य घसेर्वसेश्च धातोः संबन्धिनः सकारस्य षो भवति । जक्षतु:, जक्षुः, जक्षिवान्; ऊषतुः ऊषुः, उषितः, उषितवान् 120 घसिरिह प्रकृत्यन्तरम्, प्रदेशस्य कृतत्वेनैव सिद्धत्वात्, प्रकृतसकारार्थं वचनम् । शिड्नान्तरेऽपि - बहूषि, बहुषु वसन्तीति नगराणि । त्येव - जघास, वसति ।। ३६ ।। नाम्यन्तस्थाकवर्गादि न्या० स०-घस्वसः । अत्र वसो भौवादिकस्य ग्रहः, इत्यस्य तु वृदभावेन नामिनः सस्यासंभवात्, *प्रदाद्यनदाद्योः बहूंषीति - वसन्तीति क्विपि य्वृति उषः, बहवः उषो वास्तव्या येषु तानि "वसिक् प्राच्छादने" इति न्यायाद् वा 125 अत्र नागमरूपे Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] बृहद्वृत्तिलधुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ३७-३८.] स्यादिविधौ प्रथमं कृतमपि षत्वं निवर्तत इति प्राग् नागमः, तस्मिन् च नामिनो व्यवधाने- । ऽपि शिड्नान्तरेऽपि इति षत्वम् ।। २. ३. ३६ ।। णि-स्तोरेवास्वद-स्विद-सहः षणि ॥ २. ३. ३७ ॥ स्वद-स्विद-सहवर्जितानां ण्यन्तानां स्तौतेरेव च संबन्धिनः सकारस्य नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य षणि-षत्वभूते सनि परे षो भवति, नान्येषाम् । 5 सिषेवयिषति, सुष्वापयिषति, सिषेधयिषति; तुष्टूपति । स्वदादिपर्युदासः किम् ? सिस्वादयिषति, सिस्वेदयिषति, सिसाहयिषति । स्तौतिसाहचर्यात् स्वदादिपर्युदासेन सदृशग्रहणाच्च ण्यन्तानामपि षोपदेशानामेव ग्रहणम्, तथा च कृतत्वात् सकारस्य “नाम्यन्तस्थाकवर्गा." [२. ३. १५.] आदिसूत्रेणैव सिद्धे नियमार्थं वचनम्-णिस्तोरेव षणि षत्वं नान्यस्य, तेनेह न भवति-10 सुसूषति, सिसिक्षति, सिसेविषति। एवकारः षण्येव णिस्तोरिति विपरोतनियमनिवृत्त्यर्थः, तेनेहापि भवति-असीषिवत्, तुष्टाव । षणीति किम् ? सिषेव, सुष्वाप । षत्वं किम् ? सुषुप्सति, तिष्ठासति । नकारः किम् ? व्यतिसुषुपिये। कथं प्रतीषिषति ?, अधीषिषति ? षणि निमित्त धातोः षत्वनियम उक्तः, इह तु सन एव द्विरुक्तस्य षत्वं न धातोरिति न प्रतिषेधः ।15 'सोषुपिषते, सेषिविषते' इत्यादौ तु यङि द्वित्वं पश्चात् सन्निति न प्रतिषेधः । येषां तु दर्शने द्वित्वेऽपि पुनः सनि द्विरुक्तिः, तन्मते-सुसोषुपिषत इत्यत्र पणि सुशब्दात् परस्य सस्य षत्वं न भवत्येव ।। ३७ ।। न्या० स०--रिणस्तो०। प्रतीषिषतीति-अत्र “इण्क् गतौ” इति लिख्यते, तस्य च ज्ञानार्थत्वात् “सनीङश्च" [ ४. ४. २५. ] इति न गम्वादेशः । “इंक स्मरणे"20 "इंङक अध्ययने" इत्यनयोस्तु अज्ञान इति विशेषणं नासम्भवात्, अतोऽनयोर्गम्वादेशः प्राप्नोतीत्येतौ न लिख्येते, "इणं क गतौ" इत्यस्याप्यज्ञानार्थत्वविवक्षायामादेशप्राप्तिः । "इंदु" इत्यस्य तु ज्ञानार्थत्वविवक्षायामविवक्षायामपि नादेश:, "इणिकोई:" [४. ४. २३.] इत्यत इणिकोश्चानुकृष्टत्वात् “सनीङश्च" [४. ४. २५. ] इति चकारेण । सोसुपिषत इति-अत्र यङोऽकारस्य स्थानित्वेन न गुणः, तथा 'नाम्यन्तस्था०" [२.३.१५.]25 इत्यस्यैवायं नियमः, एतद्विषय एवारम्भात् ।। २. ३. ३७ ।। सजेर्वा ॥ २. ३. ३८ ॥ इकारान्तनिर्देशात् सञ्ज इह ण्यन्तो गृह्यते, सञ्जयते म्यन्तस्थाकवर्गात् Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ३९.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३१६ परस्य षणि परे सस्य षो वा भवति । सिसञ्जयिषति, सिषजयिषति । नित्यं एत्वमित्येके ।। ३८ ।। न्या० स०--सजेर्वा इकारान्तनिर्देशादिति-अत एव इह इकार उच्चारणार्थों न क्वचिदपि विहितः ।। २. ३. ३८ ॥ उपसर्गात् सुग-सुव-सो-स्तु-स्तुभोऽव्यप्यद्वित्वे 5 ॥ २. ३. ३६ ॥ अद्वित्वे-द्विर्वचनाभावे सति सुनोति-सुवतिस्यति-स्तौति-स्तोभतीनां सकारस्योपसर्गस्थात् नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य षो भवति, अटयपिअडागमेऽपि सति, अड्व्यवधानेऽपीत्यर्थः । सुग्-अभिषुणोति, परिषुणोति । शिड्नान्तरेऽपीत्यधिकारात्-निःषुणोति, दुःषुणोति; अभिषुण्वन्तं प्रयुक्त-10 अभिषावयति, अत्रोपसर्गसंबन्धे सति णिः । ण्यन्तानां धातूनामुपसर्गसंबन्धे न भवति-अभिसावयति, परिसावयति; अट्यपि-अभ्यषुणोत्, पर्युषुणोत् । गिन्निर्देशात् सौतिसवत्योर्मा भूत-अभिसौति, अभिसवति । सुव-अभिषुवति, परिषुवति; अट्यपि-अभ्यषुवत्, पर्यषुवत्, शनिर्देशात्, सूतिसूयत्योर्न भवतिअभिसूते, अभिसूयते । सो-अभिष्यति, परिष्यति, अटयपि-अभ्यष्यत्, पर्यष्यत् ।15 स्तु-अभिष्टौति, परिष्टौति; सुष्टुतम्, सुष्टवम्, दुःष्टवम्; अटयपिअभ्यष्टौत्, प्रत्यष्टौत् । स्तुभ-अभिष्टोभते, परिष्टोभते; अटयपि-अभ्यष्टोभत्, पर्यष्टोभत् । उपसर्गादिति किम् ? दधि सुनोति, मधु सुनोति । पूजायां सोः पूजा-अतिक्रमयोश्चातेरुपसर्गत्वाऽभावादिह न भवति-सुस्तुतम्, अतिस्तुतम् । येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तमेव प्रत्युपसर्गसंज्ञा इति धात्वन्तरयोगे न20 भवति-निर्गताः सावका अस्मादसौ निःसावको देशः, अभिसावकीयतीत्यत्र सावकीयतेरभिना योगो न भवति । शिड्नान्तरेऽपीत्यधिकारात् अटा व्यवधाने न प्राप्नोतीत्यटयपीति ग्रहणम्, अपिशब्दोऽभावार्थः; अन्यथाटये व स्यात् । अद्वित्वे इति किम् ? अभिसुसूषति, अभ्यसुसूषत् ; परिसुसूषति, पर्यसुसूषत्; अभिसिषासति, अभ्यसिषासत् ; अत्र पूर्वसकारस्य षत्वं न भवति, मूलधातोस्तु25 यथाप्राप्तं षत्वं भवत्येव । केचित् तूपसर्गपूर्वाणां सुनोत्यादीनां पञ्चानामपि Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ४०.] सन्नन्त-स्तौति-वजितानां द्वित्वे सति मूलप्रकृतेरपि षवं नेच्छन्ति-अभ्यसूसवत्, । अभिसुसाव, अभिसोसूयते; सो-अभ्यसीसयत्, अभिसेसीयते, अभिसिसासति; स्तु-अभितोस्तूयते, अभितुस्ताव, अभ्यतुस्तवत् ; स्तुभ्-अभितुस्तुभे, अभितोस्तुभ्यते, अभ्यतुस्तुभत्; इत्यादि; पदादौ प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् ।। ३६ ।। न्या० स०-उपसर्गा० । अत्र प्रत्यष्टौत् न पर्यष्टौत् परिपूर्वस्य "स्तु-स्वख०" 5 [२. ३. ४६.] इति विकल्पभणनात् । ण्यन्तानामिति-धात्वन्तरत्वादिति शेषः ।' अटयपीति-विशेषविहितत्वेन पूर्व कृतमपि षत्वं परस्मिन् अडागमेऽसिद्धं स्यादिति । सौति-सवत्योरिति-"क् प्रसवे", "सुप्रसवैश्वर्ययोः" इत्यनयोः। सूति-सूयत्योरिति"धूङौक्, खूङौच्" इत्यनयोः । सुष्टुतमिति-सातिशयं स्तूयते स्म वाक्यम्, पूजायां तु सोरुपसर्गत्वाभावात् ।। २. ३. ३६ ॥ 10 स्था सेनि-सेध-सिच-सञ्जां द्वित्वेऽपि ॥ २. ३. ४० ॥ उपसर्गस्थात् नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परेषां स्थादीनां सकारस्य षो भवति, द्वित्वेऽपि अटयपि-द्विर्वचनेनाऽटा द्वाभ्यां च व्यवधानेऽपीत्यर्थः । स्थाअधिष्ठास्यति, प्रतिष्ठास्यति, अधितष्ठौ, प्रतितष्ठौ, अध्यष्ठात्, अध्यष्ठास्यत्; सेनि-सेनया अभियाति-अभिषेणयति, अभिषिषेणयिषति, अभ्यषेणयत्,15 अभ्यषिषेणयिषत्; सेध-प्रतिषेधति, प्रतिषिषेधिषति, प्रत्यषेधत्, प्रत्यषिषेधिषत्; सिच्-अभिषिञ्चति, सुषिक्त नाम किं तवात्र, अभिषिषिक्षति, अभ्यषिञ्चत्, अभ्यषिषिक्षत्; सञ्ज-अभिषजति, अभिषषञ्ज, अभिषिषङ्क्षति, अभ्यषजत्, अभ्यषिषङ्क्षत् ; ण्यन्तानामपि भवति-प्रतितिष्ठन्तं प्रयुक्त प्रतिष्ठापयति, एवं प्रतिषेधयति । उपसर्गादित्येव-अधिस्थास्यति,20 गतार्थत्वान्नात्राधिरुपसर्गः, वृक्षं वृक्षं परि सिञ्चति, अत्र वीप्स्यसंबद्धस्य परेर्धातना संबन्धाभावात् नोपसर्गत्वम्, निर्गताः सेचका अस्मान्निःसेचको देशः, अत्र येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तमेव प्रत्युपसर्गसंज्ञा इति न भवति । सेधेति कृतगुणस्य निर्देशः सिध्यतिनिवृत्त्यर्थः-अभिसिध्यति, अकारस्तूच्चारणार्थो न तु शनिर्देशः; तेन यङ्लुप्यपि भवति-प्रतिषेषिधीति 125 सेनेरषोपदेशार्थं स्था-सञ्जोरवर्णान्तव्यवधानेऽपि विध्यर्थं सिच्-सञ्ज-सेधां षणि नियमबाधनार्थं सर्वेषामड्व्यवधाने पदादौ च षत्वार्थं वचनम् ।। ४० ।। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० ४१-४२.] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३२१ न्या स० —— स्था-सेनि० । अथ सुस्थितो दुस्थित इत्यादौ कथं षत्वाभावः ? उच्यतेउपसर्गप्रतिरूपका निपाता एते इत्युपसर्गत्वाभावात् षत्वाभावः । ण्यन्तानामपीति - गिगः प्रागेवोपसर्गसंबन्धात् । अषोपदेशार्थमिति - प्रषोपदेशत्वं च सह इनेन वर्तते इति व्युत्पत्तौ, सर्वेऽपि साधितस्यापि वा व्युत्पत्तिपक्षे । स्था-सञ्जोरिति-उपसर्गस्थस्य नामिनोऽवरर्णान्तेन द्विर्वचनेनेत्यर्थः । नियमबाधनार्थमिति - सेनेस्तु "रिण- स्तोरेवा ०' इति सिद्धं तिष्ठतेस्तु सन् षत्वरूपो नास्तीति ।। २. ३. ४० ।। "1 [२. ३. ३७.] 5 अडप्रतिस्तब्ध - निस्तब्धे स्तम्भ ॥। २. ३. ४१ ॥ उपसर्गस्थात् नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य स्तम्भः सकारस्य द्वित्वेऽपि अटयपि षो भवति, न चेदसौ स्तम्भिर्डे प्रतिस्तब्धे निस्तब्धे च विषये भवति । विष्टभ्नाति, प्रतिष्टभ्नाति, वितष्टम्भः, प्रतितष्टम्भः, प्रतिताष्टभ्यते, 10 अभितिष्टम्भिषति, व्यष्टभ्नात् प्रत्यष्टभ्नात् । ग्रङ- प्रतिस्तब्ध - निस्तब्ध इति किम् ? व्यतस्तम्भत्, प्रत्यतस्तम्भत्, प्रतिस्तब्धः, निस्तब्ध: ।। ४१ ।। न्या० स० - अङ प्रति० । ष्टभुङ इत्यस्य लाक्षणिकत्वात् न ग्रहरणमिति नैयासिकाः प्राहुः, पारायणकारैस्तु प्रस्यापि षत्वं कृतम् एवमुत्तरसूत्रेऽपि ज्ञेयम् ।। २. ३. ४१ ।। 15 अवाच्वाश्रयोर्जाविदूरे ॥ २. ३. ४२ ॥ प्रवादुपसर्गात् परस्य स्तम्भः सकारस्याश्रयादिष्वर्थेषु गम्यमानेषु द्वित्वेऽपि पि षो भवति, ङे - ङविषयश्च ेत् स्तम्भिर्न भवति । श्राश्रयःआलम्बनम् – दुर्गमवष्टभ्नाति, दुर्गमवष्टभ्यास्ते, अवतष्टम्भ दुर्गम्, दुर्गमवाष्टभ्नात्; ऊर्ज-ऊर्जित्वम् - ग्रहो वृषलस्यावष्टम्भः प्रवष्टब्धो रिपुः शूरेण ; 20 अविदूरमनतिविप्रकृष्टम् – प्रसन्नमदूरासन्न च गृह्यते—प्रवष्टब्धा शरात्, अवष्टब्धा सेना । प्रवादिति किम् ? प्रस्तब्धः । चकारोऽङ इत्यस्यानुवृत्त्यर्थोऽनुक्तसमुच्चयार्थश्च तेन - 'उपष्टम्भः, उपष्टम्भकः, उपष्टब्ध:' इत्यादावुपादपि भवति । उपावादित्यकृत्वा चकारेण सूचनमनित्यार्थं तेनोपस्तब्ध इत्यपि भवति । श्रयादिष्विति किम् ? प्रवस्तब्धो वृषलः शीतेन । ग्रङ इत्येव - 25 अवातस्तम्भत् ।। ४२ ।। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ४३-४४.] न्या० स०--अवाच्चा०। समुदायानुवृत्तावपि व्यभिचारादङ इत्यस्यैव ग्रह इत्याह- । अड़े इति । दुर्गमिति-दुःखेन गम्यते अस्मिन् इति “सुगदुर्गमाघारे" [ २. १. १३२. ] इति सिद्धिः, कर्मव्युत्पत्तौ तु खल् स्यात्, दुर्गं नगरादि बहुलं वृत्तेति क्लिबत्वम्, दुःखेन गम्यतेऽत्र तत्र वाच्यलिङ्गः। पारायणकारैस्तु भौवादिकस्यास्य अवष्टम्भते दण्डमिति न तु नैयासिकाः । अनित्यार्थमिति-यद्येवं तर्हि वोपादित्येवंविधमतः सूत्रात् पृथगेव कथं 5 न कृतम्, सत्यम्-विचित्रा सूत्रकृतिः। अवस्तब्धो वृषलः शीतेनेति-सङ कुचित इत्यर्थः ।। २. ३. ४२ ॥ व्यवात् स्वनोशने ॥ २. ३. ४३ ॥ वेरवाच्चोपसर्गात् परस्य स्वनो धातोः सकारस्याशने-भोजनेऽर्थे द्वित्वेऽपि अट्यपि षो भवति । पूर्वसूत्रे चानुकृष्टत्वादिहाङ इति नानुवर्तते ।10 विष्वणति, अवष्वणति, भुङ्क्त इत्यर्थः; सशब्दं भुङ्क्ते इत्यर्थ इत्यन्ये, भुजानः कञ्चिच्छब्दं करोतीत्यर्थ इत्यपरे। विषष्वाण, अवषष्वाण, विषंष्वण्यते, अवषष्वण्यते, विषिष्वणिषति, अवषिष्वणिषति, व्यष्वणत्, अवाष्वणत्, व्यषिष्वणत्, अवाषिष्वणत् । व्यवादिति किम् ? अतिस्वनति, अत्यसिस्वनत् । अशन इति किम् ? विस्वनति, अवस्वनति मृदङ्गः; विविध15 शब्दं करोतीत्यर्थः ।। ४३ ।। सदोपतेः परोक्षायां त्वादेः ॥ २. ३. ४४ ॥ प्रतिवजितोपसर्गस्थात् नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य सदो धातोः सकारस्य द्वित्वेऽप्यट्यपि षो भवति, परोक्षायां तु द्वित्वे सति प्रादेः पूर्वस्यैव भवति । निषीदति, विषीदति, निषापद्यते, विषाषद्यते, निषिषत्सति, न्यषीदत्, व्यषीदत्,20 परोक्षायां त्वादेरेव-निषसाद, विषसाद । अप्रतेरिति किम् ? प्रतिसीदति, प्रत्यसीषदत्, प्रतिसिषत्सति; अत्र प्रतेः परस्याद्यसकारस्य षत्वं न भवति । प्रकृतिसकारस्य तु नामिनः परस्य "नाम्यन्तस्था०" [२. ३. १५.] इत्यादिसूत्रेण भवत्येव; अस्यापि नेच्छन्त्येके-प्रत्यसीसदत्, प्रतिसिसत्सति । तुर्विशेषणार्थः, परोक्षायामेष विशेषोऽन्यत्र तूभयत्रापि भवति ।। ४४ ।। 25, न्या० स०-सदो । “षद्लु विशरण." इत्यस्य "षद्लुत् अवसादने" इत्यस्य Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ४५-४६.] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३२३ च ग्रहरणम् । उपसर्गादित्यनुवर्तते । व्यवादित्यनुवृत्तौ तु तयोरेव विधानात् प्रतिवर्जनानर्थक्यं स्यात् ।। २. ३. ४४ ॥ स्वजश्च ।। २. ३. ४५ ॥ उपसर्गस्थात् नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य स्वञ्जेः सकारस्य द्वित्वेऽप्यट्यपि षो भवति, परोक्षायां तु द्वित्वे सत्यादेरेव । अभिष्वजते, परिष्वजते 5 प्रतिष्वजते, अभिषिष्वङ्क्षते, परिषिष्वङ्क्षते, प्रतिषिष्वङ्क्षते, प्रभिषाष्वज्यते, अभ्यष्वजत, प्रत्यष्वजत, अभ्यषष्वञ्जत; परोक्षायां त्वादेरेव - अभिषस्वजे, अभिषस्वञ्जे; परिषस्वजे, परिषस्वजे ; प्रतिषस्वजे, प्रतिषस्वजे । योगविभागादप्रतेरिति नानुवर्तते, चकारः परोक्षायां त्वादेरित्यस्यानुकर्षणार्थः, ततश्चोत्तरत्राननुवृत्तिः ।। ४५ ।। 10 न्या० स० - - स्वञ्जश्च । श्रभिषिष्वङ्क्षते नन्वत्र “रिणस्तोरेव ० " [ २. ३. ३७. ] इति निगमाद् मूलधातुसकारस्य षत्वं न प्राप्नोति, उच्यते- "स्पर्धे" पर:, [ ७. ४. ११६.] इति न्यायात् इदमेव प्रवर्तते । श्रभिषस्वञ्ज इति श्रत्र "स्वञ्जर्नवा” [ ४. ३. २२. ] परोक्षाया वा कित्त्वम्, पक्षे किद्वदभावात् नलोपाभावः । योग विभागादित्यादि-ननु योगविभागात् परोक्षायां त्वादेरिति नानुवर्तते इति कथं न विज्ञायते ? सत्यम् - व्याख्यानतो 15 विशेषप्रतिपत्तिरिति ।। २. ३. ४५ ।। परि-नि-वे सेवः ।। २. ३. ४६ ॥ परिनिव्युपसर्गस्थात् नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्य सेवतेर्धातोः सकारस्य द्वित्वेऽप्यपि षो भवति । परिषेवते, परिषिषेविषते, परिषेषेव्यते, परिषिषेवे, पर्यषेवत; निषेवते, निषिषेविषते, निषिषेवे, न्यषेवत, विषेवते, विषिषेविषते, 20 विषिषेवे ; व्यषेवत । परिनिवेरिति किम् ? अनुसेवते, प्रतिसिषेवे प्रतिसेषेव्यते, प्रत्यसिषेवत् अत्रोपसर्गाश्रितं षत्वं न भवति धातोस्तु द्वित्वाश्रितं भवत्येव; उभयत्र नेच्छन्त्येके - प्रतिसिसेवे, प्रतिसेसेव्यते, प्रत्यसिसेवत् ।। ४६ ।। न्या० स० -- परिनिवेः ० । सेव इति सामान्योक्तऽपि षेवृङ' इति गृह्यते, न तु 'सेवृङ' इति । कृतस्येत्यनुवृत्तिरिति पारायणमतम्, न्यासकारास्तु षेवृङ - सेवृङ सषोप 25 देशौ प्रग्रहीषुः ।। २. ३. ४६ ।। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ४७-४८.] सय-सितस्य ॥ २. ३. ४७ ॥ परि-नि-विभ्यः परयोः सय-सितयोः सकारस्य षो भवति । परिषयः, निषयः, विषयः; परिषितः, निषितः, विषितः; सय इति सिनोतेरलन्तस्याजन्तस्य घान्तस्य वा, सित इति क्तान्तस्य रूपम् । स्यतेर्वा नियमार्थं-परिनिविपरस्यैव क्तान्तस्य स्यतेर्यथा स्यादिति, तेनोपसर्गान्तरपूर्वस्य "उपसर्गात् सुग्०" 5 [२. ३. ३६.] इत्यादिनापि न भवति; तेन-प्रतिसितः निःसितः, इत्यादि सिद्धम् । योगविभागाद् द्वित्वेऽपि अटयपीति निवृत्तम्, तेन-मा विषसयदित्यत्र द्वित्वे सति पूर्वेण व्यवधानादुत्तरस्य न भवति, पूर्वस्य त्वव्यवहितत्वाद् भवत्येव-व्यसयीयत्, पर्यसितायत । कथं मा परिषिषयत् ? द्वित्वे सति उपसर्गात् परस्य पूर्वस्यानेन षत्वम्, उत्तरस्य तु “नाम्यन्तस्था०" [२. ३. १५] 10 इत्यादिनेति न दोषः ।। ४७ ॥ न्या० स०--सय-सित। स्यतेर्वा नियमार्थमिति-उद्योतकरस्त्वाह-सिनोतेरेव ग्रहणं न्याय्यं सयेत्यनेन साहचर्यात्, किञ्च स्यतिग्रहणे नियमार्थता जायते, सिनोतिग्रहणे त विध्यर्थतापि स्यादिति, यतो विधि-नियमसम्भवे च विधिरेव ज्यायान। न च वाच्यमेकेनैव सितग्रहणेन स्यति-सिनोत्युभयस्य उपादानात् विध्यर्थता नियमार्थतापि स्यादिति,15 यतोऽर्थेकत्वादेकवाक्यमिति केषाञ्चिद् वाक्यलक्षणम्, अर्थकत्वाच्च सयसित इति वाक्यसमाप्तौ स्यतिग्रहणार्थं वाक्यान्तरं करणीयं भवतीति सिनोतेरेव ग्रहणम् । मा विषसयदिति-विषमाख्यत् “णिज् बहुलम्०" [३. ४. ४२.] अत्र द्वित्वे कर्तव्ये "रणषमसत्" [२. १. ६०.] इत्यनेन षत्वनिवृत्तौ “अन्यस्य" [४. १.८.] इति द्विवचनम् । व्यसयीयदिति-विषयमैच्छत् क्यनि ईः। पर्यसितायतेति-परिषित इवाचरत् क्यङ20 "दीर्घश्च्वि०" [४. ३. १०८.] इति दीर्घः ।। २. ३. ४७ ।। असो-ड-सिवू-सह-स्सटाम् ॥ २. ३. ४८ ॥ परि-नि-विभ्यः परस्य सिवू-सहोर्धात्वोः स्सडागमस्य च संबन्धिनः सकारस्य षो भवति, न चेत् सिवसहौ सो-ङविषयौ भवतः । परिषीव्यति, निषीव्यति, विषीव्यति; परिषहते, निषहते, विषहते; परिष्करोति, विष्करः25 शकुनिः; नेस्तु परः सड् नास्तीति नोदाह्रियते । असोडेति किम् ? परिसोढः; परिसोढव्यः; निसोढः, निसोढव्यः ; विसोढः, विसोढव्यः; डे-मा परिसीषिवत्, मा परिसीषहत् ; मूलधातोस्तु षत्वं भवत्येव । सोप्रतिषेधस्तु सहेरेव न Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ पा० ३. सू० ४६-५० . ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३२५ सिवस्तस्य सोरूपासंभवात्, सिवोऽनुबन्धनिर्देशात् यङ्लुपि न भवति - परिसेषिवीति । बहुवचनं परि-नि-विभिः सह यथासंख्यनिवृत्त्यर्थम् ।। ४८ । न्या० स० -- असोङ । सोङ े त्येतयोर्द्वन्द्व े पश्चात् नत्राऽन्यपदार्थे सिवूसहलक्षणे बहुव्रीहौ कर्मधारये च पुनर्द्वन्द्व: ।। २३.४८ ॥ स्तु-स्वञ्जश्चाटि नवा ॥ २. ३. ४६ ॥ परि-नि-विभ्यः परस्य स्तु-स्वञ्जोर्धात्वोरसोङ - सिवू - सह -स्सटां च सकारस्याटि सति षो वा भवति । पर्यष्टोत् पर्यस्तौत्; न्यष्टौत्, न्यस्तौत्; व्यष्टोत्, व्यस्तौत्; पर्यष्वजत, पर्यस्वजत; न्यष्वजत, न्यस्वजत; व्यष्वजत, व्यस्वजत; पर्यषीव्यत् पर्यसीव्यत्; न्यषीव्यत्, न्यसीव्यत् ; न्यषीव्यत्, व्यसीव्यत्; पर्यषहत, पर्यसहत, न्यषहत, न्यसहत; व्यषहत, व्यसहत ; 10 पर्यष्करोत्, पर्यस्करोत् । असोङसिवूसहेत्येव- पर्यं सोढयत्, पर्यंसीषिवत्, पर्यसीषहत् । स्तु-स्वञ्जोर्नित्यं प्राप्ते सिवू -सह- स्सटां चाप्राप्ते विभाषा ।। ४६ ।। 5 न्या० स०—स्तु-स्वञ्जः । स्तु- स्वञ्जनित्यं प्राप्त इति - " उपसर्गात् सुग्० " [ २. ३. ३६. ] इति “स्वञ्जव” [ २. ३. ४५. ] इत्याभ्यामित्यर्थः ।। २. ३. ४६ ।। निरभ्यनोश्च स्यन्दस्याप्राणिनि ॥ २. ३. ५० ।। निरभ्यनुभ्यश्चकारात् परिनिविभ्यश्च परस्याप्रारिणकर्तृ केऽर्थे वर्तमानस्य स्यन्देः सकारस्य षो वा भवति । निःष्यन्दते तैलम् निः स्यन्दते तैलम् ; अभिष्यन्दते; अभिस्यन्दते; अनुष्यन्दते, अनुस्यन्दते; परिष्यन्दते; परिस्यन्दते, निष्यन्दते निस्यन्दते; विष्यन्दते, विस्यन्दते । शनिर्देशाद् यङ्लुपि न भवतिअभिसास्यन्दीति तैलम् । निरभ्यनोव ेति किम् ? प्रतिस्यन्दते तैलम् 120 पर्युदासोऽयं न प्रसज्य - अप्राणिनीति किम् ? परिस्यन्दते मत्स्य उदके । प्रतिषेध:, तेन - यत्र प्राणी चाप्राणी च कर्ता भवति, तत्राऽप्राण्याश्रयो विकल्पो भवति, न तु प्राण्याश्रयः प्रतिषेधः - अनुष्यन्देते मत्स्योदके, अनुस्यन्दते वा । निर्निभ्यां नेच्छन्त्येके ।। ५० ।। न्या० स० - निरभ्यनोः ० । एके इति - देवनन्दि- शकटललितस्वभावाः, नेस्तु 25 15 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ५१-५३.] चान्द्रादयः। पयुंदासोऽयमिति-अयमर्थः-अप्राणिनीति पर्युदासत्वाट विधेः प्राधान्यात्, सम्भवति चैकवाक्यत्वे वाक्यभेदाश्रयणस्यायुक्तत्वात्, प्रसज्यप्रतिषेधे तु न चेदित्यादिवाक्यभेदस्यावश्यंभावित्वात्, यतो यत्र प्राणी चाप्राणी च भवति । प्रसज्यप्रतिषेध इति-प्रसङ्ग कृत्वा प्रतिषेधः प्रसज्यप्रतिषेधः "अव्ययं प्रवद्धादिभिः" [ . १.४८. ] इति सः, "प्रसज्यस्तु निषेधकृत्" इत्यत्र तु "ते लुग् वा" [ ३. २. १०८. ] इति प्रतिषेध- 5 लोपः। ननु तदा "अव्ययस्य" [३. २. ७.] इति कथं सेर्न लुप् ? उच्यते-समाससम्बन्धी सिरत्र नाव्ययस्येति न भवति ।। २. ३. ५० ॥ वेः स्कन्दोक्तयोः ॥ २. ३. ५१ ॥ विपूर्वस्य स्कन्देः संबन्धिनः सकारस्य षो वा भवति, अक्तयोः-न चेत् क्तक्तवत् प्रत्ययौ भवतः, द्विवचनादर्थवद्ग्रहणानपेक्षमुभयपरिग्रहः । विष्कन्ता,10 विस्कन्ता; विष्कन्तुम्, विस्कन्तुम् । अक्तयोरिति किम् ? विस्कन्नः, विस्कन्नवान् ।। ५१ ।। परे ॥ २. ३. ५२ ॥ परिपूर्वस्य स्कन्दे: सकारस्य षो वा भवति परिष्कन्ता, परिस्कन्ता, परिष्कन्तुम्, परिस्कन्तुम् । योगविभागादक्तयोरिति नानुवर्तते, तेन-क्तयोरपि15 विकल्पो भवति-परिष्कण्णः, परिस्कन्नः; परिष्कण्णवान्, परिस्कन्नवान् । केचित् तु परिपूर्वस्य स्कन्देरजन्तस्य घनन्तस्य वा प्राच्यभरतविषये प्रयोगे नित्यं षत्वमन्यत्र विकल्पमिच्छन्ति, अन्ये तु प्राच्यभरतविषये प्रयोगे षत्वाभावमन्यत्र तु विकल्पमिच्छन्ति; तदुभयं नारम्भरणीयमनेनैव सिद्धत्वादिति ।। ५२ ।। न्या० स०--परेः। योगविभागादिति-विपरिभ्यां स्कन्दोऽक्तयोरित्येवंरूपात् अन्ये त्विति । चन्द्रपाणिनिदेवनन्दिप्रभृतयः अनेनैवेति-वेतीत्यस्य व्यवस्थितविभाषार्थत्वादिति शेषः ।। २. ३. ५२ ।। नि-नः स्फुर-सफुलोः ॥ २. ३. ५३ ॥ निनिभ्यां परयोः स्फुरति-स्फुलत्योः सकारस्य षो वा भवति ।25 निःष्फुरतिः, निःस्फुरति; निष्फुरति, निस्फुरतिः; निःष्फुलति; निःस्फुलति, निष्फुलति निस्फुलति । वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः ।। ५३ ।। 20 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ५४-५६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३२७ न्या० स०--निर्नेःस्फु०। निस्फुरतीति-निसः सकारस्य रुत्वे "श-ष-से." [ १. ३. ६. ] इति तस्य सत्वमनेन धातुसकारस्य षत्वं “सस्य श-षौ" [ १. ३. ६१. ] इति षत्वम्, सत्वाभावपक्षे कदाचिद् विसर्गः कदाचित् "व्यत्यये लुग वा" [ १. ३. ५६. ] इति लोपः, मूर्धन्याभावपक्षे कदाचित् सकारद्वयश्रवणं कदाचिद् विसर्ग-लोपौ ।। २. ३. ५३ ॥ 5 वेः॥२. ३. ५४ ॥ वेः परयोः स्फुरति-स्फुलत्योः सकारस्य षो वा भवति । विष्फुरति, विस्फुरति; विष्फुलति, विस्फुलति । योगविभाग उत्तरार्थः ।। ५४ ।। न्या० स०--वेः। स्फुर-स्फुलो निनि-वेरित्येकयोगभावोऽत्र ॥ २. ३. ५४ ॥ स्कभ्नः ॥ २. ३. ५५ ॥ 10 वेः परस्य स्कभ्नातेः सकारस्य नित्यं षो भवति । योगविभागाद् वेति निवृत्तम्, अन्यथा हि वेः स्कभ्नश्चेति क्रियेत । विष्कभ्नाति, विष्कम्भिता, विष्कम्भकः, विष्कम्भयति । श्नानिर्देशः किम् ? सश्नोर्मा भूत्-विस्कभ्नोति । स्कम्भूः सौत्रो धातुः अषोपदेशः ॥ ५५ ।। न्या० स०-स्कन्नः। ननु श्नानिर्देशाद् यत्र श्नाप्रत्ययस्तत्रैव षत्वं प्राप्नोति,15 न त तदभावे विष्कम्भितेत्यादौ ? नवम-श्नानिर्देशस्य श्ननिषेधपरतया व्याख्यातत्वात । निष्कभ्नातीत्यत्र क्षम्नादित्वाण्णत्वाभावः। सश्नोर्मा भूदिति-यदाह चन्द्रः-यद्यत्रापि स्यात् तदा स्कम्भ इति निदिशेत्, तस्मात् श्नानिर्देशादन्यत्र शिति प्रत्यये न षकार इति । शकटस्तु-श्नानिर्देश: ष्टभुङ स्कभुङिति भौवादिकनिवृत्त्यर्थमिति, अत एवोत्पलेनापि विष्कम्नाति विष्कम्णोतीति श्नुप्रत्ययेऽपि षत्वं गणपाठाभावाण्णत्वं च उदाहृतम्20 ।। २. ३. ५५ ।। नि-दु-सु-वे सम-सूतेः ॥ २. ३. ५६ ॥ निर्दुःसुविभ्यः परस्य समसूतिसंबन्धिनः सकारस्य षो भवति । निःषमः, दुःषमः, सुषमः, विषमः; निःपूतिः, दूःपूतिः, सुषूतिः, विषूतिः । समसूतीति नाम्नोर्ग्रहणाद् धातोर्वैरूप्ये च न भवति-निःसमति, दुःसमति, सुसमति,25 विसमति; निःसूतम्, दुःसूतम्, सुसूतम्, विसूतम् । अन्ये तु सम Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्तिल घुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू० ५७-५८ . ] सूत्योर्धात्वोरेवेच्छन्ति, तन्मते - निःषमति, दुःषमति, निःषूतं दुःषूतमित्यादावेव भवति ।। ५६ । ३२८ ] " न्या० स० - नि-दु-सुः वे: ० । समेति सह मया वर्तते इति समः “ गोश्चान्ते० ' [ २. ४. ε६. ] । निर्गतो निश्चितो वा समात्, सम इति समतीति प्रयोगकदेशः, "षम ष्टम" इत्यजन्तस्य च भवति । सूतीत्यादादिकस्य "इ कि तिव्०” [५. ३. १३८. ] 5 इति श्तिव्यपि भवति, सूति-सूयति-सुवतीनां क्त्यन्तानां च । तत्र "अवः स्वप०' [२. ३. ५७.] इत्यनेन पृथग् योगान्नाम्नोरेव ग्रहणं न धात्वोरित्याह-नाम्नो ग्रहरणादितिनामग्रहणे च लिङ्गविशिष्टस्यापि तेन सुषमा इत्यादिधात्वोरेवेच्छन्तीत्युक्त्वा कथं निः षूतमित्याद्युदाहृतम् ? सत्यम् - क्तप्रत्ययात् प्रागेव सुतेरुपसर्गेण योगाद् भविष्यति ।। २. ३. ५६ ।। अवः स्वपः ।। २. ३. ५७ ॥ निर्दुः-सु-विपूर्वस्य वकाररहितस्य स्वपेर्धातोः सकारस्य षो भवति । निःषुषुपतुः, दुःषुषुपतुः, सुषुषुपतुः, विषुषुपतुः; निष्षुप्तः, दुःषुप्तः; सुषुप्तः; विषुप्तः । अव इति किम् ? निःस्वप्नः दुःस्वप्नः, सुस्वप्नः, विस्वप्नः; विसुष्वाप ।। ५७ ।। न्या० स० -- श्रवः स्वपः निःषुप्त इत्यादी "ज्ञानेच्छा ०" [५. २. २. ] इति क्तः ।। २. ३. ५७ ॥ T 10 15 प्रादुरुपसर्गाद् य-स्वरेऽस्तेः ॥ २. ३. ५८ ॥ प्रादुःशब्दादुपसर्गस्थाच्च नाम्यन्तस्थाकवर्गात् परस्यास्तेः सकारस्य यकारादौ स्वरादौ च प्रत्यये परे षो भवति । प्रादुःष्यात्, निष्यात्, 20 विष्यात्, अभिष्यात् ; प्रादुःषन्ति, निषन्ति विषन्ति, अभिषन्ति ; शिड्नान्तरेऽपि - निःष्यात् निःषन्ति । प्रादुरुपसर्गादिति किम् ? दधि स्यात्, मधूनि सन्ति यदत्र मां प्रति स्यात् तद् दीयताम्, सर्पिषोऽपि स्यात् । य-स्वर इति किम् ? प्रादुः स्तः, निस्तः, अनुस्तः, अनुस्वः, अनुस्मः । अस्तेरिति किम् ? विसृतम् अनुसृतम्, अनुसूते: क्विपि अनुसूस्तस्यापत्यं शुभ्रादित्वादेयण 25 ऊलोपः- आनुसेयः । प्रादुःशब्दस्य तु कृभ्वस्तिष्वेव प्रयोगात् प्रत्युदाहरणं नास्ति ।। ५८ ।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ५६-६१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३२६ न्या० स०-प्रादुरु० । शुभ्रादित्वादिति-न्यासे तु "चतुष्पात्" [ ६. १. ८३. ] इति एयञ्, वृत्तौ तु सारसंग्रहाद्यभिप्रायेण "सुभ्र वादिभ्यः" [७. ३. १८२.] इत्युक्तम् । विसतमित्यादि-विसरतीति क्विपि तोऽन्ते क्विबन्ता धातुत्वं न त्यजन्ति इति न्यायात् 'विसत' इत्येवं रूपाद धातमात्रादमरूपे स्वरादौ प्रत्ययेऽस्तेरिति किमिति व्यावत्तेन द्वयङ्गवैकल्यम्, यदा तु क्तस्तदापि अस्तौ सति स्वरस्य प्रत्ययेति चिन्तेति न द्वयङ्ग- 5 विकलता ।। २. ३. ५८ ।। न स्सः ॥ २. ३. ५६ ॥ कृतद्विर्भावसकारसंबन्धिनः सकारस्य 'षो न भवति। सुपिस्स्यते, सुतुस्स्यते ; अत्र सुपूर्वस्य पिसेस्तुसेश्च सकारस्य क्ये "प्रदीर्घात्" [१. ३. ३२.] इत्यादिना द्विर्भावः । ननु 'दधिस्यते, मधुस्यति, समचिस्करत्, अग्निसात्10 करोति' इत्यादिषु प्रतिषेधाभावात् षत्वं प्राप्नोति ? उच्यते-स्सस्सडागमयो स्सात् प्रत्ययस्य च द्विःसकारपाठस्य षत्वप्रतिषेधार्थत्वेनाभिधास्यमानत्वात् षत्वं न भवति ।। ५६ ।। न्या० स०--न स्सः। सुपिस्स्यत इत्यादिप्रयोगस्थो द्विरुक्तः सकारः स्स इत्यनुक्रियते इत्याह-कृतेत्यादि । दधिस्यते अत्र "अस् च लौल्ये" [४. ३. ११५. ] स्स:15 ॥ २. ३. ५६ ॥ सिचो यङि॥२. ३. ६० ॥ सिञ्चतेर्धातोः सकारस्य यङि प्रत्यये परतः षो न भवति । सेसिच्यते, अभिसेसिच्यते; परत्वादुपसर्गलक्षणमपि षत्वं बाधते । एवमुत्तरत्रापि । यङीति किम् ? अभिषिषिक्षति । डकारः किम् ? अभिषिच्यते ।। ६० ।। 20 न्या० स०--सिचो। षत्वमिति-“स्था-सेनि." [ २. ३. ४०.] इत्यनेन ॥ २. ३. ६० ॥ गतौ सेधः ॥ २. ३. ६१ ॥ गतौ वर्तमानस्य सेधतेर्धातोः सकारस्य षो न भवति । अभिसेधति, अनुसेधति गाः, अभिगच्छति-अनुगच्छतीत्यर्थः; अभिसेधयति, अनुसेधयति-25 गमयतीत्यर्थः; अभिसिसेधिषति, अनुसिसेधिषति अभिजिगमिषति, अनु Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ६२-६३.] जिगमिषतीत्यर्थः। गताविति किम् ? प्रतिषेधति, निषेधति-पापान्निवारयतीत्यर्थः ।। ६१ ।। न्या० स०-गतौ से० । ननु कृसर-धूसर-केसरादिषु प्रत्ययसकारस्य षत्वप्रतिषेधो वक्तव्यः, नैवम्-उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानि इत्यबुधबोधनार्थं, व्युत्पाद्यमानान्यप्युणादयो व्युत्पत्तिकार्य न लभन्ते । इत्थं तहि वृक्ष इत्यत्रापि षत्वं न प्राप्नोति, उच्यते- 5 तहि बाहुलकात् षत्वाभावः ।। २. ३. ६१ ॥ सुगः स्य-सनि ॥ २. ३. ६२ ॥ सुनोतेः संबन्धिनः सकारस्य स्ये सनि च प्रत्यये परे षो न भवति । अभिसोष्यति परिसोष्यति, अभ्यसोष्यत्, पर्यसोष्यत् ; सनि-सुसूषतेः क्विपि-- सुसूः, सुसूषतीति तु नोदाह्रियते, णिस्तोरेव षणि इति नियमेनैव व्यावर्तितत्वात्,10 अभिसुसूषतीत्यपि नोदाह्रियते, अद्वित्वे इति व्यावृत्त्यैव निवर्तितत्वात् । स्यसनीति किम् ? सुषाव, अभिषणोति ।। ६२ ।। न्या० स०-सुगः स्य० । सुसूरिति-वर्णविधौ स्थानित्वाभावात् षणीत्यभावः । अभ्यसोष्यदित्यत्राप्यट्यपीति वचनात् “उपसर्गात् सुग्०" [ २. ३. ३६.] इति प्राप्तं निषिध्यते ॥ २.३.६२॥ 15 रघुवर्णानो ण एकपदेऽनन्त्यस्याउल-च-ट-तवर्ग-श सान्तरे ॥ २. ३. ६३ ॥ रेफ-षकार-ऋवर्णेभ्यः परस्याऽनन्त्यस्य नकारस्य रघुवर्णरेवैकपदे वर्तमानस्य णो भवति, न चेनिमित्तनिमित्तिनोरन्तरे लकार-चवर्ग-टवर्ग-तवर्गशकार-सकारा भवन्ति; शेषवर्ण-व्यवधानेऽपीत्यर्थः । तीर्णम्, चतुर्णाम्,20 पुष्णाति, नृणाम्, न णाम् ; व्यवधानेऽपि भवति-करणम्, वृक्षाणाम्, करिणाम्, ऋषीणाम्, गुरुणा, गुरूणाम्, करेण, वृहणम्, अर्केण, मूर्खण, स्वर्गेण, अर्पण, दर्पण, रेफेण, दर्भेण, धर्मेण, आर्येण, सर्वेण ; अhण । रघुवर्णादिति किम् ? तेन । एकपद इति किम् ? अग्निर्नयति, नृभिर्नृभिः, नेतृभिर्नेतृभिः। पद इत्येतावतैवैकपदे लब्धे एकग्रहणं नियमार्थम्, एकमेव25 यन्नित्यं तत्र यथा स्यात् ; यदेकं चानेकं च तत्र मा भूत्-चर्मनासिकः, Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ६४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३३१ मेषनासिकः । अनन्त्यस्येति किम् ? वृक्षान् । लादिवर्जनं किम् ? विरलेन, अर्चनम्, मूर्छनम्, अर्जनम्, झर्भनम्, किरीटेन, कर्मठेन, मृडेन, दृढेन, कर्णेन, कीर्तनम्, तीर्थेन, नर्देन, क्रोधेन, रशना, रसना । अधिकारश्चायमा गत्वविधेः ।। ६३ ।। न्या० स०-रषवर्णा० । ननु ऋवर्णग्रहणं किमर्थम् ? यत ऋवर्णादपि तन्मध्य- 5 व्यवस्थितरेफाश्रयं णत्वं भविष्यति, अत एव पाणिनिनापि रषाभ्यामित्येवोक्तम्, उच्यतेनहि वर्णकदेशा वर्णग्रहणेन गृह्यन्ते तद्भिन्नत्वाद् वर्णबुद्धेरनुपादानात्, तथाहि-मांसं न विक्रेयमिति सत्यपि निषेधे गावो विक्रियन्ते, तत्र मांसबुद्धेरभावात् । शेषवर्णव्यवधानेऽपोति-प्रसज्यप्रतिषेधादितरैर्व्यवधानेऽपि भवति । पुष्णातीति-अत्र "तवर्गस्य०" [१. ३. ६०.] इत्यनेनैव गत्वे सिद्धे षकारग्रहणं कषणमित्यादौ व्यवहितार्थ, तदर्थं च सत्10 परत्वात् “तवर्गस्य०" [ १. ३. ३०. ] इति बाधित्वा णत्वं प्रवर्तयति । नृभिर्ने भिरितिद्विष्प्रयोगो द्विर्वचनमित्याश्रयणाद् भिन्नपदत्वमित्यर्थः । विरलेनेति विपूर्वाद्रमे: "मुरल." [ उणा० ४७४. ] इति निपातनात् डित्यले। ऋषीरणामित्यादौ दीर्घरूपे स्यादिविधौ कर्तव्ये पूर्वकृतमपि णत्वमसिद्धं भवति ।। २. ३. ६३ ।। पूर्वपदस्थानाम्न्यगः ॥ २. ३. ६४ ॥ पूर्वपदस्थाद् रघुवर्णादगकारान्तात् परस्य सामर्थ्यादुत्तरपदस्थस्य नकारस्य णकार आदेशो भवति, नाम्नि-संज्ञायां विषये । द्रुणसः, खुरणसः, खरणाः, खुरणाः, शूर्पणखा, चन्द्रणखा, वाीणसः, हरिवाहणः, नरवाहण:, पुष्पगन्दी, श्रीणन्दी स्त्री। नाम्नीति किम् ? मेषनासिकः, चर्मनासिकः । अग इति किम् ? ऋगयनम् । एकस्मिन्न व पदे इति पूर्वसूत्रे विज्ञानादुत्तर-20 पदस्थस्य समासे न प्राप्नोतीति वचनम् । खरपस्यापत्यं खारपायणः, मातृभोगाय हितो मातृभोगीणः । गर्गभगोऽस्या अस्तीति गर्गभगिणीत्यादौ तु उत्तरपदसंबन्धी नकारो न भवतीति एकपदत्वात् पूर्वेणैव णत्वं भवति, यदा तु गर्गाणां भगिनीति विग्रहस्तदैकपदत्वाभावाद् गर्गभगिनीत्येव भवति । कथं 'देवदारुवनम्, कुबेरवनम्, मनोहरवनम्, प्रभङ्करवनम्', इत्यादिसंज्ञायां गत्वं25 न भवति ? उच्यते-“कोटर-मिश्रक-सिध्रक-पुरग-सारिकस्य वणे"[३.२.७६.] इति णत्वनिपातनस्य नियमार्थत्वेन व्याख्यास्यमानत्वात् संज्ञायां कोटिरादिभ्य एव वनशब्दस्य णत्वं भवति नान्येभ्य इति ।। ६४ ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] बृहवृत्ति-लवुन्याससंवलिते पा० ३. सू० ६५-६६.] न्या० स०-पूर्वपदस्था०। सामादिति-अयमर्थ:-रूढेन पूर्वपदमाक्षिप्यते । तदन्तरेण तस्यासम्भवात्, तच्च नकारस्य विशेषणम् । पुष्पगन्दीति-"पुष्पच्” पुष्प्यन्तीति अचि-पुष्पाणि२ नन्दयति प्रण ङी:-पुष्पणन्दी आचार्यः, वत्स-ऋषभकार्पटैनिश्चिक्ये, दिगम्बरेण तु योपान्त्यः, स च न शिष्टसम्मतः । वार्धारणसः वधस्येयं "तस्येदम" [६.३.१६०.] अण डी: "तद्धितस्वरे." [ २.४. १२. ] इति पू पूव-5 निषेधः । ऋगयनमिति-शिक्षादिषु ऋगयनपाठादेव गत्वनिषेधे सिद्धे किमग इत्यनेन ? सत्यम्-अबाधकान्यपि ज्ञापकानि भवन्ति । उत्तरपदसम्बन्धी नकारो न भवतीति"प्रत्ययः प्रकृत्यादेः" [ ७. ४. ११५] इति न्यायात् । पूर्वेरणव णत्वमिति-ननु पूर्वेणापि कथम् ? यत: खरपशब्दस्यान्तर्वर्तिनीं विभक्तिमाश्रित्य पदत्वमस्ति, तत्स्थत्वाद् रेफस्य चैकपदत्वाभावादिति, अत्रोच्यते-यत्र द्वावपि निमित्तनिमित्तिनावेकपदत्वं व्यभिचरतस्तत्र10 गत्वाभावः इह तु रेफस्य व्यभिचारेऽपि नकारस्य एकपदस्थत्वाव्यभिचारः, यद्वा सित्येवेति नियमेन आयनण्प्रत्यये खरपशब्दस्य पदत्वस्य निरस्तत्वात् पूर्वेणैव भवत्येव । मनोहरा वृक्षविशेषाः । प्रभङ्करेति-प्रभां करोति “सङ्ख्याहदिवा०" [ ५. १. १०२. ] इति टे "नवा खित्-कृदन्त०" [ ३. २. ११७. ] इति पृथग्योगाद्ध्वस्वत्वे मोऽन्तः। कोटरमिश्रकेत्यादि-कुटत् "ऋच्छि-चटि०" [ उणा० ३६७. ] इत्यरे बाहुलकाद् गुणे, मिश्रण 15 णके, सिध्यते: सेधतेर्वा "ऋज्यजि." [उणादि० ३८८. ] इति रे यावादित्वात् स्वाथिके कुत्सितादौ वा। पुरं गच्छतीति "नाम्नो गमः०" [५. १. १३१.] इति । शृणाते: "कृशकटि०" [उणादि० ६१६.] इति णिदि प्रत्यये-शारिः, स्वाथिके के शारि कायतीति वा ।। २. ३. ६४ ।। 20 नसस्य ॥२. ३. ६५ ॥ पूर्वपदस्थाद् रघुवर्णात् परस्य नसशब्दसंबन्धिनो नकारस्य णो भवति । प्रगता प्रवृद्धा वा नासिका यस्य स प्रणसः, एवं निर्णसः; प्रणसं मुखं, निर्णसं मुखम् ।। ६५ ।। निष्पा-ग्रे-अन्तः-खदिर-कार्थ्या-मशरेक्ष-प्लक्ष पीयुक्षाभ्यो वनस्य ॥ २. ३. ६६ ॥25 निरादिभ्यः परस्य वनशब्दनकारस्य णकार आदेशो भवति । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम्, तेन संज्ञायामसंज्ञायां च भवति; अन्यथा हि "कोटरमिश्रकसिध्रक०" [३. २. ७६.] इत्यादिवक्ष्यमाणनियमबलेन संज्ञायां न स्यात् । निर्वणम्, प्रवरणम्, अग्रेवणम्, “पारेमध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठ्या वा" [३.१.३०.] इत्य Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० ६७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३३३ व्ययीभावः, तत्संनियोगे च पूर्वपदस्यैत्वम्; अन्तर्वणम्, खदिरवणम्, कार्श्यवणम्, वचनसामर्थ्यात् शकारव्यवधानेऽपि भवति; आम्रवणम्, शरवणम्, इक्षुवरणम्, प्लक्षवणम्, पीयुक्षावरणम्, पीयुक्षाशब्दोऽव्युत्पन्न प्रबन्तः ।। ६६ ॥ न्या० स० -- निष्प्राग्रे० । निष्प्राग्रेन्तरो नौषधिवचना नापि वृक्षवचनाः, तेभ्य: 5 संज्ञायां कोटरादिनियमेन व्यावर्तितत्वादप्राप्तं णत्वं विधीयते, असंज्ञायामप्येकपदत्वाभावादप्राप्तमेव । इक्षु शरशब्दावौषधिवचनौ, शेषा वृक्षवचनास्तेषां संज्ञायां कोटरादिनियमेन रणत्वस्य व्यावर्तितत्वादुत्तरेणाप्राप्ते विध्यर्थमसंज्ञायां तूत्तरेण विकल्पे प्राप्ते नित्यार्थम् । काश्यंवरणमिति - कार्श्य शब्दो वृक्षविशेषवाची अव्युत्पन्नोऽथवा कृश्यतेः "नाम्युपान्त्य० " [ ५. १. ५४ ] इति के टयरिण धर्म - धर्मिणोरभेदोपचारात् कार्श्यगुरण - 10 युक्तो वृक्षोऽपि कार्श्यः । पीयुक्षेति - पीयुक्षाशब्दो द्राक्षापर्याय:, द्राक्षाविशेषो वा । "पींड च्" क्विपि पीः, पियं याति "पीमृग०" [ उरणा० ७४१.] इति किदुः, पीयु क्षायति " तो डो० " [५. १. ७६. ] इति ड: ।। २. ३. ६६ ।। दिव- त्रिस्वरौषधि-वृक्षेभ्यो नवानिरिकादिभ्यः ।। २. ३. ६७ ॥15 द्विस्वरेभ्यस्त्रिस्वरेभ्यश्च इरिकादिवर्जितेभ्य श्रोषधिवाचिभ्यो वृक्षवाचिभ्यश्व परस्य वनशब्द संबन्धिनो नकारस्य णो वा भवति । प्रोषधिःदूर्वावरणम्, दूर्वावनम् मूर्वावरणम्, मूर्वावनम् ; व्रीहिवरणम्, व्रीहिवनम् ; माषवरणम्, माषवनम् ; नीवारवणम्, नीवारवनम् ; कोद्रववरणम्, कोद्रववनम् ; प्रियङ्गुवरणम्, प्रियङ्गुवनम् ; प्रोषध्यः । वृक्ष - शिग्रुवणम्, शिग्रुवनम् ; दारु-20 वरणम् दारुवनम्; करीरवरणम्, करीरवनम्; शिरीषवरणम्, शिरीषवनम् ; बदरीवणम्, बदरीवनम् ; प्रियङ्गवणम्, प्रियङ्गुवनम् । “प्रोषध्यः फलपाकान्ता, लता गुल्माश्च वीरुधः । फली वनस्पतिर्ज्ञेयो, वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ।। १ ।।” इति यद्यपि भेदोऽस्ति तथाप्यति बहुत्वार्थ बहुवचनबलाद् वृक्षग्रहणे 25 वनस्पतीनामपि ग्रहणं भवति, अत एव च यथासंख्यमपि न भवति, तथा संज्ञायामसंज्ञायां च भवति । द्वि-त्रिस्वरेति किम् ? देवदारुवनम् भद्रदारुवनम् । श्रोषधिवृक्षेभ्य इति किम् ? विदारीवनम् पितृवनम्, शिरीषाणामदूरभवो Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू०६८. ] अनिरिकादिभ्य इति किम् ? ग्रामोऽपि शिरीषास्तेषां वनं शिरीषवनम् । इरिकावनम्, मिरिकावनम्, तिमिरवनम्, चीरिकावनम् कर्मारवनम्, इरिकादिराकृतिगणः । इरिकादिविशेषवर्जनाद् क्षीरवनम् ; हरिवनम् । विशेषाणामेवेह विधिः, तेनेह न भवति - द्र मवनम्, वृक्षवनम् ।। ६७ ।। ३३४ ] न्या० स०-- -द्वि- त्रिस्वरौ० । कोद्रववरणमिति - केन - अम्भसा उद्यन्ते "कैरव ० " 5 [ उरणा० ५१६. ] इति साधुः, केनो दुवन्त्युच्छब्दायन्तेऽचि वा । श्रोषध्यः फलपाकान्ता इति - उष्यतेऽनेनेति "व्यञ्जना घञ्” [ ५. ३. १३२. ] इति घत्रि - प्रोषः, प्रोषो धीयते - ऽस्यामिति - प्रोषधिः ' व्याप्यादाधारे" [ [ ५. ३.८८ ] इति कौ " इतोऽक्त्यर्थात् [ २.४३२. ] इति ङयाम् - श्रोषध्यः, "उषेरधिः" [ उणा० ६७५. ] इति वा । फलस्य पाकेनान्तो विनाशः शोषो यासां ताः फलपाकान्ताः । लताः प्रतानवत्यो मालत्यादयः, 10 लता वल्ली कर्कोट्यादिका । गुल्माः ह्रस्वस्कन्धास्तरवो बहुकाण्डपत्राः केतक्यादयः । एतल्लतागुल्मरूपं द्वयं वीरुधः ; उत्पलस्त्वेवं व्याचष्टे - लता गुल्मास्तेभ्यो विलक्षणा वीरुधः । पुष्पं विना फलमेव यस्य स प्लक्षादिः फली । पुष्पं च फलं च उपगच्छन्तिपुष्पफलोपगाः "नाम्नो गमः ०' [ ५. १. १३१. ] इति डे वृक्षाः पुष्पपलोपगा इति । न चोभयमेव उपगच्छन्ति त एव वृक्षाः किं तर्हि ? येऽप्यन्यतरत् पुष्पं फलं वा उपगच्छन्ति 15 तेऽपि वृक्षा एव तत्र वेतसादयः पुष्पमेव, प्लक्षादयः फलमेव, प्राम्रादयस्तूभयमप्युपगच्छन्ति, तत्र वृक्षो वनस्पतित्वमवकोशित्वं च न व्यभिचरति । वनस्पतिरवकेशी तु वृक्षत्वं व्यभिचरतः, यतः फली वनस्पतिर्ज्ञेयः फलवन्ध्यस्त्ववकेशीति, अत एव च वनस्प त्यादिग्रहणमकृत्वा वृक्षग्रहरणं कृतं तदन्तर्गतत्वाद् वनस्पतित्यादेरिति । विदारी लताविशेष: ।। २. ३. ६७ ।। 20 गिरिनद्यादीनाम् ॥ २. ३. ६८ ।। गिरिनदीत्यादीनां नकारस्य वा गो भवति । गिरिगदी, गिरिनदी; गिरिणख:, गिरिनखः; गिरिणद्ध:, गिरिनद्धः; गिरिरिणतम्बः, गिरिनितम्बः; वक्ररणदी, वक्रनदी; वक्ररिणतम्बा, वक्रनितम्बा; चक्ररिणतम्बा, चक्रनितम्बा; माषोणः, माषोनः; तूर्यमाणः, तूर्यमानः श्रर्गयरणः, श्रार्गयन: ; - ऋगयनं 25 वेत्त्यधीते वेत्यण, ऋगयनस्य व्याख्यानं तत्र भवो वा शिक्षादित्वादण् । बहुवचनाद् यथादर्शनमन्येऽपि भवन्ति ।। ६८ ॥ ; न्या० स० - गिरि न० । तूर्यमारण इति तुयं मानमस्येति वाक्ये निमित्त-निमित्तिनोरेकपदस्थत्वाभावादप्राप्ते विकल्पः, तूर्यतेस्त्वानशि श्ये मागमे च " रषुवर्णा ० ' " Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ६९-७०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३३५ [ २. ३. ६३. ] इति नित्यं प्राप्ते । शिक्षादित्वादिति-अन्यथा बहुस्वरत्वात् प्रायो बहुस्वरादिकण स्यात् ।। २. ३. ६८ ॥ पानस्य भाव-करणे ॥२. ३. ६६ ॥ पूर्वपदस्थेभ्यो रघुवर्णेभ्य परस्य भावे करणे च यः पानशब्दस्तत्संबन्धिनो नकारस्य णो वा भवति । क्षीरपाणं, क्षीरपानं वर्तते; कषायपाणं, कषायपानं 5 वर्तते; सौवीरपाणं, सौवीरपानं वर्तते। करणे-क्षीरपाणं, क्षीरपानं भाजनम् ; कषायपाणः, कषायपान: कंसः । भावकरण इति किम् ? पीयतेऽस्मिन्निति पानः, क्षीरपानो घोषः ।। ६६ ।। न्या० स०-पानस्य०। सौवीरपारणमिति-सौवीरेषु प्रायो भवं बाहुलकादकत्रं बाधित्वा भवेऽरण, सुवीराणामिदं “तस्येदम्" [६. ३. १६०.] इति वा सौवीरं10 काञ्जिकम् ।। २. ३. ६६ ।। देशे ॥ २. ३. ७० ॥ पूर्वपदस्थाद् रघुवर्णात् परस्य पानशब्दनकारस्य णो नित्यं भवति, देशे-समुदायेन चेद् देशो गम्यते; योगविभागाद् नवेति निवृत्तम् । पीयत इति पानम्, क्षीरं पानं येषां क्षीरपारणा उशीनराः, सुरापारणाः प्राच्याः, सौवीरपाणा15 वाहीकाः कषायपाणा गान्धारयः; तात्स्थ्यात् मनुष्याभिधानेऽपि देशो गम्यते । देशे इति किम् ? दाक्षीणां पानं दाक्षिपानम्, क्षीरपाना गोपालकाः ॥ ७० ॥ न्या० स०-देशे। योगविभागादिति-अन्यथा “पानस्य भावकरणदेशे” इति क्रियेत, तथाऽत्र कर्मसाधनपानशब्दो गृह्यते भावकरणप्रधानस्य तु पूर्वेण विकल्प एव ।20 उशीनरा इति-उश्यत इति “स्थादिभ्यः कः" [५. ३. ८२. ] वष्टीति क्विपि वा य्वृति गौरादिङयाम्-उशी नगरी, तस्या नराः; यद्वा वष्टे: “पदि-पठि." [ उणा० ६०७. ] इति इप्रत्यये बाहुलकात् कित्त्वे य्वृति-उशयः, तेषां नरः, बहुलवचनाद् दीर्घत्वे-उशीनरः, तस्यापत्यानि "राष्टक्षत्रियात" [६.१.११४.] इति विहितस्य "बहष्वस्त्रियाम्" [ ६. १. १२४. ] इति द्रेरञो लुप् । सौवीरेति-अजतेः "ऋज्यजि." [उणा० ३८८.]25 इति किति रे "अघक्य०" [४. ४. २.] इति वीभावे च-वीरः, वीरयतेऽचि-वीरः, शोभना वीरा यस्मात् तत् सुवीरं, तस्येदं तत आगतं वा। गान्धारयः गन्धारस्यापत्यं वृद्धम् “प्रत इञ्” [६. १. ३१.] गान्धारि:-राष्ट्रक्षत्रियसरूपः, ततो गान्धारीणां Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ७१-७२.] राजानः, गान्धारे राज्ञोऽपत्यानि वा “गान्धारिसाल्वेयाम्याम" [ ६. १. ११५. ] “यत्रोऽश्या०” [ ६. १. १२६. ] इति "बहुष्वस्त्रियां" [ ६. १. १२४. ] लुप्। ननु क्षीरपाणादयः शब्दा मनुष्येषु वर्तन्ते, तत्सामानाधिकरण्यादुशीनरादयोऽपि तत्रैव तत् कथमिह देशो गम्यते इत्याह-तात्स्थ्यादिति-अयमर्थः-उशीनरादयो हि शब्दा: संज्ञात्वेन पूर्वं देशेष्वेव प्रवृत्ताः, पश्चात् तु तत्स्थानसंबन्धात् मनुष्येषु, तेन मनुष्याभिधानेऽपि देशा- 5 भिधानं गम्यते । दाक्षीणां पानमिति-अत्र कर्तरि षष्ठी ।। २. ३. ७० ॥ ग्रामा-ग्राग्नियः ॥ २. ३. ७१ ।। ग्रामा-ऽग्राभ्यां परस्य नियो नकारस्य णो भवति । ग्रामणीः, अग्रणीः । ग्रामाग्रादिति किम् ? खरनी:, मेषनीः ॥ ७१ ।। न्या० स०-प्रामाप्रा०। ननु गतिकारक०* इति न्यायाद् विभक्त्युत्पत्ते:10 प्रागेव समासे निमित्त-निमित्तिनोरेकपदस्थत्वात् "रघुवर्णा०" [ २. ३. ६३. ] इत्यनेनंव णत्वं सिद्धमेव किमनेनेति ? सत्यम्-नियमार्थं यदि नियो णत्वं स्यात् तदा ग्रामाग्रादेव, तेन खरनी-मेषनीत्यादौ पूर्वेणापि न भवति ।। २. ३.७१ ।। वाह्याद् वाहनस्य ॥ २. ३. ७२ ॥ वोढव्यं वाह्यम्, तद्वाचिनो रेफादिमतः पूर्वपदात् परस्य वाहनशब्द-15 संबन्धिनो नकारस्य णो भवति । उह्यतेऽनेनेति वहनम्, प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकोऽण , अतो वा निपातनादुपान्त्यदीर्घत्वम् ; इक्षुवाहणम्, शरवाहणम् । वाह्यादिति किम् ? सुरवाहनम्, संबन्धमात्रमत्र विवक्षितम् ; नरवाहनः, नात्र वाह्यात् परं वाहनम्, किं तर्हि ? वाहनात् ।। ७२ ।। न्या० स०--वाह्याद् वा० । वोढव्यं वाह्यमिति-वहेरर्हेऽर्थे घ्यरिण-वाह्य वहनाह-20 मिक्ष्वादि, तेन यदापि वाहने वहनार्थमिक्ष्वादि वाह्य नारोपितं भवति, तदर्थं तु केवलमुपकल्पितं भूतलस्थं तदापि भवत्येव । सम्बन्धेति-स्वस्वामिभावलक्षणेऽत्र षष्ठी न तु वहनक्रियापूर्वके कर्मकरणसम्बन्धे, यदा तु सुरा अपि वाह्यत्वेन विवक्ष्यन्ते तदा णत्वं भवत्येव । यदा तु नरवाहनशब्द: कुबेरवाचकस्तदा "पूर्वपदस्था०" [ २. ३. ६४. ] इति प्राप्तस्य णत्वस्य "क्षुम्नादीनाम्" [२. ३. ६६.] इत्यनेन निषेधः, यदा तु यौगिको25 न संज्ञाशब्दस्तदा "पूर्वपदस्था०" [२. ३. ६४.] इति न णत्वं, यथात्र व्यावृत्त्युदाहरणे ॥ २. ३.७२॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू०७३-७५.] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३३७ अतोऽह्नस्य ॥ २. ३. ७३ ।। रेफादिमतोऽकारान्तात् पूर्वपदात् परस्याह्नशब्दसंबन्धिनो नकारस्य णो भवति । पूर्वाह्णः, अपराह्णः । श्रत इति किम् ? निरह्नः, दुरह्नः । अन इत्यकारान्तनिर्देशादिह न भवति - दीर्घाह नी शरत् ।। ७३ ।। न्या० स० -- श्रतोऽह्नस्य० । दीर्घाहनी शरदिति - दीर्घाही दीर्घाहा : दीर्घाहा 5 रूपत्रितयम् ।। २. ३. ७३ ।। चतुस्त्रेर्हायनस्य वयसि ॥ २. ३. ७४ ॥ 'चतुर् त्रि' इत्येताभ्यां पूर्वपदाभ्यां परस्य हायनशब्दसंबन्धिनो नकारस्य वयसि गम्यमाने गो भवति । चतुर्हाणो वत्सः, चतुर्हायणी वडवा; त्रिहायणो वत्सः, त्रिहायणी वडवा वयसीति किम् ? चतुर्हायना, त्रिहायना 10 शाला, ङीरपि वयस्येव भवति । चतुस्त्रेरिति किम् ? सहस्रहायनः पुरुषः, लक्षहायनः पक्षी ।। ७४ ।। । वोत्तरपदान्तनस्यादेरयुव पक्वा - अह्नः ।। २. ३. ७५ ।। " पूर्वपदस्थाद् रषृवर्णात् परस्योत्तरपदान्तभूतस्य तथा नागमस्य स्यादेश्च नकारस्य णो वा भवति, न चेत् स नकारो युवन् - पक्वा ऽहन्शब्दसंबन्धी 15 भवति । उत्तरपदान्त - व्रीहिवापिणौ, व्रीहिवापिनौ; माषवापिणौ, माषवापिनौ; व्रीहिवापिणी, व्रीहिवापिनी कुले; माषवापिणी, माषवापिनी कुले ; व्रीहिवापिणः, व्रीहिवापिनः ; माषवापिणः, माषवापिनः व्रीहिवापीणि, व्रीहिवापीनि कुलानि व्रीहिवापिरणा, व्रीहिवापिना । न-व्रीहिवापारिण, व्रीहिवापानि कुलानि माषवापारिण, माषवापानि कुलानि; " इव व्याप्तौ " 20 इत्यस्यानटि - प्रेण्वनं, प्रेन्वनं; “हिवु प्रीणने, पिवु सेचने" इत्यनयोः शतरि - प्रहिण्वन् प्रहिन्वन्; प्रपिण्वन् प्रपिन्वन्; हिवोरेव ह्यस्तन्यां - प्राहिण्वन् प्राहिन्वन्; बहुलवचनादनाम्नापि समासः, समासे हि पूर्वोत्तरपदव्यवहारः; • पुरुषश्च वारि चेति पुरुषवारिणी इत्यत्र तु परमपि विकल्पं बाधित्वाऽन्तरङ्गत्वादेकपदाश्रितं “रषृवर्णात् ०” [२. ३. ६३.] इत्यादिना नित्यमेव णत्वम् 125 ; Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ७६. ] स्यादि - व्रीहिवापेण, व्रीहिवापेन; माषवापेण, माषवापेन; व्रीहिवापाणाम्, व्रीहिवापानाम् ; माषवापारणाम्, माषवापानाम्; व्रीहिवापान्, माषवापानित्यत्र तु अनन्त्यस्येत्यधिकाराद् न भवति । उत्तरपदेति किम् ? गर्गाणां भगःगर्गभगः, सोऽस्या अस्तीति समासादिन्- गर्गभगिणी, प्रत्रोत्तरपदस्यान्तो नकारो न भवतीति विकल्पो न भवति, एकपदस्थत्वात् तु मातृभोगोरण इत्यादि - 5 वन्नित्यमेव गत्वं भवति । अन्तादिग्रहणं किम् ? गर्गाणां भगिनी गर्गभगिनी, एवं दाक्षिभगिनी; त्र न नकारोऽन्तः किन्तु ङीप्रत्ययः । यद्येवं माषवापिणी, माषवापिनीत्यत्र नकारस्योत्तरपदान्तत्वाभावात् विकल्पो न प्राप्नोति, उच्यते*गतिकारकोपपदानां कृद्भिः समासवचनं प्राक् प्रत्ययोत्पत्तेः इति न्यायात् प्रागेव स्त्रीप्रत्ययादन्तरङ्गत्वादश्वक्रीतीत्यादावकारान्तेनेव क्रीतशब्देन नका - 10 रान्तेन वापिन्शब्देनोपपदसमासः पश्चात् स्त्रीप्रत्ययः, विभक्त्यन्तत्वाभावेऽपि च रूढत्वादुत्तरपदत्वम्, ततश्चोत्तरपदस्यान्तो नकार इति णत्वविकल्पो भवति । युवपक्वान इति किम् ? आर्ययूना, क्षत्रिययूना; प्रपक्वानि, परिपक्वानि ; प्रपक्वेन परिपक्वेन; प्रपक्वानाम्, परिपक्वानाम्; दीर्घाह, नी शरत्, दीर्घाह, ना निदाघेन त्र्यह नि, चतुरहनि “ संख्या - साय - वेरह, नस्याहन् ङौ वा ” [ १. ४. ५०.]15 इति ग्रह नस्याह नादेशः । अलचटतवर्गशसान्तर इत्येव - गर्दभवाहिनौ, गर्दभवाहिनः ।। ७५ ।। ३३८ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते न्या० स०-वोत्तर० । प्राप्ताप्राप्तविभाषेयम्, तथाहि - लिखितेषु प्रयोगेषु गतिकारक इति न्यायात् स्याद्युत्पत्तेः प्रागेव समास इत्येकपदत्वात् प्राप्ते; व्याघ्रीवत् पामा येषां तानि व्याघ्रीपामारिण, व्याघ्रीपामानि वेत्यादिषु त्वदशितेष्वप्राप्ते; पाणि-20 निस्तु प्राप्ते विभाषां मन्यते, मन्मतेऽपि वापोऽस्त्यनयोः -वापिनौ, व्रीहीरणां वापिनाविति यदा क्रियते तदा प्राप्ते, व्यक्तिविवक्षायाम् "प्रजाते: शीले” [ ५. १. १५४. ], साध्वर्थविवक्षायां “साधौ' [ ५. १. १५५. ], भृशाभीक्ष्ण्यार्थविवक्षायां “भृशाभीक्ष्ण्ये ० ' [ ७.४.७३ ] णिन् । अत्रोत्तरपदस्यान्तोऽनकारो न भवतीति किन्तु " प्रत्ययः प्रकृत्यादेः” [७. ४. ११५. ] इति न्यायेन गर्गभग इत्येवं समुदायस्य । गर्दभं वहत 25 इत्येवंशीलो, गर्दभवद् वहत इति वा " कतुरिन्” [ ५. १. १५३. ] ।। २. ३. ७५ ।। " कवर्गैकस्वरवति ॥ २. ३. ७६ ॥ पूर्वपदस्थाद् रषृवर्णात् परस्य कवर्गवति एकस्वरवति चार्थादुत्तरपदे 7 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ७७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३३६ 10 सति उत्तरपदान्तस्य तथा नागमस्य स्यादेश्च नकारस्य णो भवति, न चेत् स नकारः पक्वशब्दसंबन्धी भवति । स्वर्गकामिणौ, मोक्षकामिणौ ; स्वर्गगामिणौ, वृषगामिणौ; स्वर्गगामिणी, वृषगामिणी; स्वर्गकामाणि, मोक्षकामाणि कुलानि; उरःकेण, उर) (केण; गुरुमुखेण, ऋषिमुखेण ; क्षीरमेघाणाम्, पुष्पमेघाणाम् । एकस्वर-ब्रह्महणौ, वृत्रहणौ; क्षीरपाणि, यूषपारिण; 5 क्षीरपेण, यूषपेण; उरःपेण, उर पेण; क्षीरपाणाम्, यूषपाणाम् । पुरोगान् परममृगानित्यत्र तु अनन्त्यस्येत्यधिकाराद् न भवति । अपक्वस्येत्येवक्षीरपक्वानि, यूषपक्वानि, क्षीरपक्वेन, यूषपक्वेन, क्षीरपक्वानाम्, यूषपक्वानाम्, अलचटतवर्गशसान्तर इत्येव-माषत्यागिनः, द्रव्यत्यागेन, माषजानि, माषजेन । नित्यार्थं वचनम् ॥ ७६ ।। न्या० स०--कवर्गक०। न चेदिति-सत्यपि त्रितयानुवर्तने प्रतिषेधस्य प्राप्तिपूर्वकत्वात् कवर्गवत्त्वात् पक्वशब्दस्यैव प्रतिषेध इति । स्वर्गकामिणाविति-सुखेन पुण्यकर्मभिरर्व्यत इति घत्रि न्यङ क्वादित्वाद् गे तं कामयेते इत्येवंशीलौ। मोक्षकामिणाविति-मुच्यन्ते प्राणिनः कर्ममलकलङ्क नात्रेति "मावावद्यमि०" [ उणा० ५६४. ] इति से। माषजानि माषेषु जातानि “सप्तम्या ड:" [ ५. १. १६६. ] न तु मासाज्जातानि15 जातित्वात् । नित्यार्थमिति-अयमर्थ:- गतिकारक०* इति न्यायेन निमित्त-निमित्तिनोरेकपदस्थत्वात् "रघुवर्णात्०" [ २. ३. ६३. ] इति नित्यं प्राप्तं "वोत्तर०" [२. ३. ७५.] इति विकल्पितं पुनरनेन नित्यं विधीयत इत्यर्थः ।। २. ३. ७६ ।। अदुरुपसगान्तरो ण-हिनु-मीना-मे ॥ २. ३. ७७ ॥ दुर्व|पसर्गस्थादन्तःशब्दस्थाच्च रघुवर्णात् परस्य णकार-हिनु-मीना-20 आनिसंबन्धिनो नकारस्य गो भवति, ऐति णोपदेशा धातवो गृह्यन्ते, उपसर्गाण्णत्वविधानात् । प्रणमति, परिणमति; प्रणयति, परिणयति; प्रणामकः, परिणामकः; प्रणायकः, परिणायकः; अन्तर्-अन्तर्णयति, अन्त र्णायकः; हिनु-प्रहिणोति, प्रहिण तः; मीना-प्रमीणाति, प्रमीणीतः; हिनुमीनाग्रहणे विकृतस्यापि भवति, एकदेशे विकृतस्यानन्यत्वात्; आनि-प्रयाणि,25 प्रवयाणि प्रापयाणि । पानीत्यर्थवत एव ग्रहणादनर्थकस्य न भवति-प्रवृद्धा वपा येषां तानि प्रवपानि मांसानि। अदुरिति किम् ? दुर्नयः, दुर्नीतम् । उपसर्गान्तरिति किम् ? प्रातर्नयति, पुनर्नयति । * येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तमेव प्रत्युपसर्ग Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ७८.] संज्ञा भवन्ति इतीह न भवति-प्रगता नायका यस्मात् प्रणायको देश इति । ण-हिनु-मीना-ऽऽनेरिति किम् ? प्रनृत्यति, अणोपदेशत्वात् णत्वं न भवति । अलचटतवर्गशसान्तर इत्येव-प्रतिनमति, प्रददानि । परिनदनमित्यत्र तु क्षुभ्नादित्वात् न भवति ॥ ७७ ।। न्या० स०--अदुरुप० । हिनु-मीना-ऽऽनिग्रहणात् समास्सयासम्भवात् पूर्वपदस्था- 5 दित्यस्य निवृत्तावविशेषेणोपसर्गाण्णत्वविधिः। हिनु-मीनाग्रहरणे इति-अथ 'प्रहिणोति प्रमीणीते' इत्यत्र गुणे इकारे च कृते हिनु-मीनेत्येतद्रूपविरहात् “स्थानीवा०" [७. ४. १०६.] इत्यस्याप्यसद्विधौ स्वरस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् कथं णत्वमित्याह-विकृतस्यापोति । प्रवपानि मांसानीति-उप्यत इति वपा भिदाद्यङ । आनीत्यर्थवत इति येन धातुना युक्त०* इति न्यायो धातोर्ज्ञातव्यो न नाम्न इति नाम्न उपसर्गत्वं 10 भवत्येव, प्रवपानीति समुदायस्यार्थवत्त्वादानीत्यस्य पृथगर्थाभावादनर्थकत्वम्, उपसर्गत्वाभावाद् वा, अत एव प्रवृद्धा इति विग्रहो वृत्तौ दर्शितः, नह्यत्रानिना सहोपसर्गयोगः । यद्येवं प्रयाणीत्यत्रापि न प्राप्नोति, नह्यत्रापि आनि प्रति उपसर्गयोगः, किन्तु धातु प्रति, नैवम्-योगस्यार्थद्वारकत्वात् तत्र प्रयोगविषयस्यैव धातोराश्रयणात् तस्य च न क्वचिदसंपृष्टस्य भावात् समुदायस्थस्यैवाश्रितत्वादित्यानिशब्दान्तं समुदायं प्रति य उपसर्गस्तस्मात्15 परस्य समुदायस्य य ानितस्तस्य णत्वमिति सूत्रार्थसंप्रत्ययाददोषः। एवं णकारेऽपि द्रष्टव्यम्, अन्यथा रणकारमात्रं प्रत्युपसर्गत्वाभावाण्णत्वासिद्धिः स्यादिति ।। २. ३.७७ ॥ नशा शः ॥२. ३. ७८ ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रघुवर्णात् परस्य नशेः शकारान्तस्य संबन्धिनो नकारस्य गो भवति । प्रणश्यति, परिणश्यति ; प्रणाशः,20 परिणाशः; अन्तर्णश्यति। श इति किम् ? प्रनष्टः, परिनष्टः; प्रनक्ष्यति ; परिनक्ष्यति । नशेरणोपदेशात् पूर्वेणासिद्धे विध्यर्थमिदम् ।। ७८ ।। न्या० स०-नशः शः। प्रनष्ट इति-अत्र "नशो धुटि" [ ४. ४. १०६.] इति नागमस्य "नो व्यञ्जनस्य." [ ४. २. ४५. ] इति लुक् । पुनझ्यतीत्यादि-अत्र परेऽसदित्यन्तरङ्गत्वात् पूर्वं कृतमपि णत्वं षत्वादावसत्त्वात् षत्वे कृतेऽप्येकदेशविकृस्यानन्यत्वात्25 प्राप्तमपि श इति वचनात् साक्षाच्छकारान्तत्वाभावानिवर्त्यते । नशेरणोपदेश इतिअस्माकं मतेऽयमणोपदेश इत्यर्थः, कलापके तु णोपदेशः ।। २. ३. ७८ ।। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ७६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३४१ नेमा-दा-पत-पद-नद-गद-वपी-वही-शमू-चिग-याति वाति-द्राति-प्साति-स्यति-हन्ति-देग्धौ ॥ २. ३. ७९ ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रघुवर्णात् परस्योपसर्गस्य नेर्नकारस्य माङादिषु धातुषु परेषु णो भवति । ङकारोपलक्षितो मा माङ्, तेन माङ्मेङोग्रहणम्, न माति-मीनाति-मिनोतीनाम् । प्रणिमिमीते, परिणिमिमीते; 5 प्रणिमयते, परिणिमयते । ङकारनिर्देशश्च नानुबन्धार्थः, किन्तु मात्यादिनिवृत्त्यर्थः, तेन यङ्लुप्यप्युदाहरिष्यते । दा इति संज्ञापरिग्रहात् ददाति-दयतियच्छति-द्यति-दधाति-धयतीनां ग्रहणम्-प्ररिणददाति, परिणिददाति; प्रणिदयते, परिणिदयते; प्रणियच्छति, परिणियच्छति ; प्रणिद्यति, परिणिद्यति ; प्रणिदधाति, परिणिदधाति; प्रणिधयति, परिणिधयति; पत-प्रणिपतति,10 परिणिपतति; पद-प्रणिपद्यते परिणिपद्यते; नद-प्रणिनदति, परिणिनदति; गद-प्रणिगदति, परिणिगदति; वपी-प्रणिवपति, परिणिवपति; वहीप्रणिवहति, परिणिवहति; शम्-प्रणिशाम्यति; परिणिशाम्यति; चिग्प्रणिचिनोति, परिणिचिनोति; याति-प्रणियाति, परिणियाति; वातिप्रणिवाति, परिणिवाति; द्राति-प्रणिद्राति, परिणिद्राति; प्साति-प्रणिप्साति,15 परिणिप्साति; स्थति-प्रणिस्यति, परिणिस्यति; हन्ति-प्रणिहन्ति, परिणिहन्ति; देग्धि-प्रणिदेग्धि, परिणिदेग्धि; तृचि-प्रणिमाता, प्रणिदातेत्यादि; अन्तरः खल्वपि-अन्तरिणमिमीते, अन्तरिणदेग्धि । अडागमस्य धात्ववयवत्वेन व्यवधायकत्वाभावात् प्रण्यमिमीतेत्यादावपि भवति, प्रण्यास्यतीत्यादौ तु प्राङा व्यवधानेऽपि प्रतिषेधाभावाद् भवति 120 अदुरित्येव-दुनिमाता। उपसर्गान्तर इत्येव-प्रातर्निमिमीते । वप्यादीनामनुबन्धेन तिवा च निर्देशो यङ्लुप्निवृत्त्यर्थः, तेन 'प्रनिवाबपीति' इत्यादौ न भवति, पूर्वेषु तु भवति-प्रणिमामाति, प्रणिमामेतीत्यादि । ङ्मादिष्विति किम् ? प्रनिमाति, प्रनिमीनाति; प्रनिमिनोति, प्रनिदायन्ते व्रीहयः; प्रनिदायन्ते पात्राणि ।। ७६ ।। 25 न्या० स०--नेईमादा। न मातीत्यादि-ननु मिनोतिमीनात्योर्मारूपाभावाद् Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ८०-८१.] ग्रहणाशङ्कापि कुतः ? उच्यते-"मिग्मीगोऽखलचलि" [४. २. ८.] इत्यनेनात्वविधानात् । नानुबन्धार्थ इति-यया रीत्या धातुपाठे माङित्यपाठि तया रीत्या यदि सूत्रेऽपि क्रियेत तदाऽनुबन्धनार्थः स्यात्, अत्र तु विशेषणं-ङकारेण उपलक्षितो मा-इति । ननु “सप्तम्या निर्दिष्टे पूर्वस्य" [७. ४. १०५.] तच्चानन्तरस्य न व्यवहितस्येति न्यायात् प्रण्यास्यतीत्यादौ आङा व्यवधाने न प्राप्नोतीत्याह-प्राङा व्यवधानेऽपीति- 5 अयमर्थः-"पदेऽन्तरे." [२. ३. ६३.] इति णत्वनिषेधकसूत्रे आङो वर्जनात् आङा व्यवधानेऽपि भवति ।। २. ३.७६ ।। अक खाद्यषान्ते पाठे वा ॥ २. ३. ८० ॥ पाठे-धातूपदेशे ककार-खकारादिः षकारान्तश्च यो धातुस्ताभ्यामन्यस्मिन् धातौ परेऽदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रषवर्णात् परस्य नेर्नकारस्य10 णो वा भवति । प्रणिपचति, प्रनिपचति; परिणिपचति, परिनिपचति; परिणभिनत्ति, प्रनिभिनत्ति; परिणिभिनत्ति, परिनिभिनत्ति; प्रणिपापच्यते, प्रनिपापच्यते; प्रणिपापचीति, प्रनिपापचीति; प्रणिपिपक्षति, प्रनिपिपक्षति ; प्रण्यपीपचत्, प्रन्यपीपचत्; प्रणिष्टभ्नाति, प्रनिष्टभ्नाति ; स्तम्भेः सौत्रेषु पाठात् पाठविषयत्वम् । पूर्वसूत्रारम्भसामर्थ्यात् पूर्वसूत्र-15 विभक्तोऽस्य विषयः, तेन 'प्रणिमयते, प्ररिणदयते' इत्यादौ पूर्वेण नित्यमेव णत्वम् । अक-खादोति किम् ? प्रनिकरोति, प्रनिकिरति, प्रनिखनति; प्रनिखादति । अषान्त इति किम् ? प्रनिद्वष्टि, प्रनिपिनष्टि । पाठ इति किम् ? इह च प्रतिषेधो यथा स्यात्-प्रनिचकार, प्रनिचखाद, प्रनिपेक्ष्यति । इह च मा भूत्-प्रणिवेष्टा, प्रनिवेष्टा; प्रणिदेष्टा, प्रनिदेष्टा; यङ्लुपि नेच्छन्त्येके-20 प्रनिपापचीति, प्रनिसासत्ति इत्यादि ।। ८० ।। ___ न्या० स०--अकखा० । अत्राकखादिषान्त इति सिद्धे नञ्द्वयं सुखार्थम्, नद्वये हि सति कखादेः षान्तस्य च वर्जनं प्रतीयते, एकस्मिस्तु कखादेः किंविशिष्टस्य षान्तस्येति प्रतीतिः स्यात् ; असंभवान्न भविष्यतीति न च वाच्यम्, "कषशिष" इत्यादावेवंविवस्यापि दर्शनात् । सौत्रेषु पाठादिति-ननु स्तम्भेर्धातुष्वपाठात् कथं पाठविषयत्वम् ? उच्यते-25 सौत्राणां सूत्रमेव धातूपदेशः । प्रनिवेष्टेति-"विशंत् प्रवेशने' इत्यस्य रूपम् ।। २. ३. ८० ।। दिद्वत्वेऽप्यन्तेऽप्यनितेः परेस्तु वा ॥ २. ३. ८१ ॥. अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रघुवर्णात् परस्यानितेर्नकारस्य द्वित्वे Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ८२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३४३ चाद्वित्वे चान्ते चानन्ते च वर्तमानस्य णो भवति, परिपूर्वकस्य तु वा भवति । द्वित्वे-प्राणिणिषति, प्राणिणत्; अद्वित्वे-प्राणिति, पराणिति; अन्ते-हे प्राण !, हे पराण !; परेस्तु वा, द्वित्वे-पर्यणिणिषति, पर्यनिनिषति; पर्याणिणत्, पर्यानिनत्; अद्वित्वे-पर्यणिति, पर्यनिति; अन्ते-हे पर्यण , हे पर्यन्; परिपूर्वकस्य द्वित्वे अन्ते च नित्यं गत्वमिच्छन्त्येके, अन्ये तु अन्तेऽनन्ते 5 च नेच्छन्त्येव; ये तु द्वित्वे कृतेऽपि पुद्वित्वमिच्छन्ति तन्मतेऽपि 'द्वित्वे' इति वचनात् द्वयोरेवाद्ययोर्णत्वं भवति, न तु तृतीयस्य-प्राणिणिषयते. प्राणिणिनिषत् । अनन्त्यस्येत्यधिकारात् अन्ते न प्राप्नोतीति अन्तवचनम् । अनितीति तिवा निर्देशो देवादिक-निवृत्त्यर्थः, न तु यङ्लुनिवृत्त्यर्थः, यङोऽसंभवात् ।। ८१ ।। 10 न्या० स०-द्वित्वेऽप्यन्ते०। प्राणिणिषतीत्यादौ द्वयोरप्यननेनैव णत्वं द्वित्व इति वचनात् । 'प्रारिणरिणषति' इत्यत्र परे द्वित्वे कर्तव्ये पषशास्त्रमसद् द्रष्टव्यमिति न्यायाद् द्वित्वे कृते णत्वम् । हे प्राण ! अन्ते “नामन्त्र्ये" [ २. १. ६२. ] इति नलोपनिषेधात् नान्तत्वं संभवतीत्यामन्त्र्ये दशितम् । ननु द्वित्वेऽपि कृतेऽन्तेऽपीति वचनादन्तेऽपि शब्दादनन्तेऽपि भविष्यति. कि द्वित्वेऽपीत्यनेन ? नैवम-द्वित्वेऽपीत्यस्याभावे प्राणिरिणषतीत्यत्र15 प्रथमनकारेऽन्तेऽपीत्यस्य चरितार्थत्वाद् द्वितीयनकारस्य णत्वं न स्यात् टवर्गेण व्यवधानात्, अन्तेऽपीत्यत्रापिशब्दाभावे द्वित्वेऽप्यन्त एव स्यादिति, न तु प्राणिणिषतीत्याद्यनन्तेऽपि । ननु द्वित्वे सति अन्तस्थो नकारः क्व सम्भवति ? उच्यते-प्राणितेः सनि प्राणिरिणषन्तं प्रयुङक्त णिगि अल्लोपे क्विपि प्रारिणणिषमाचष्टे णिजि पुनः "त्र्यन्त्यस्वरादेः" [७. ४. ४३.] इत्यनेन इसिति लोपे क्विपि हे प्राणिण ! इत्यादौ आमन्त्र्य-20 त्वाच्च नलोपाभावः ।। २. ३. ८१ ।। हनः ॥ २. ३. ८२ ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रघुवर्णात् परस्य हन्तेर्नकारस्य णो भवति । प्रहण्यते, पराहण्यते, निर्हण्यते, अन्तहण्यते, प्रहणनम्, पराहणनम्, निर्हणनम्, परिहणनम् ; अन्तर्हरणनम् । प्रघ्नन्ति, प्राघानीत्यादौ "हनो घि" [२. ३. ६४.] 25 इति प्रतिषेधान्न भवति । अदुरित्येव-दुहनः ॥ ८२ ।। न्या० स०-हनः०। प्रघ्नन्तीत्यादौ हन् इत्युच्यमानेऽप्येकदेशविकृतस्यानन्यत्वाण्णत्वं प्राप्नोतीत्याह-हनो घीति ।। २. ३. ८२॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते . [पा० ३. सू० ८३-८५.] ' व-मि वा ॥ २. ३. ८३ ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रघुवर्णात् परस्य हन्तेर्नकारस्य वकारे मकारे च परे पो भवति । प्रहण्वः, प्रहन्वः; प्रहण्मः, प्रहन्मः; प्रहण्मि, प्रहन्मि; प्राहण्वहे, प्राहन्वहे, प्राहण्महे, प्राहन्महे; अन्तर्हण्वः अन्तर्हन्वः; अन्तर्हःमः; अन्तर्हन्मः ।। ८३ ॥ 5 न्या० स०--वमि वा। पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पार्थम् । 'प्राहण्वहे' इत्यत्र "प्राङो यम-हनः०" [ ३. ३. ८६. ] इत्यात्मनेपदम् ॥ २. ३. ८३ ॥ निस-निक्ष-निन्दः कृति वा ॥ २. ३. ८४ ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रषवर्णात् परस्य निसादीनां धातूनां नकारस्य कृत्प्रत्यये परे णो वा भवति । प्ररिंणसनम्, प्रनिसनम् ; प्रशिक्षणम्,10 प्रनिक्षणम् ; प्रणिन्दनम्, प्रनिन्दनम् । कृतीति किम् ? परिणस्ते, परिणिस्ते; प्ररिणक्षति, परिणिक्षति; प्रणिन्दति, परिणिन्दति; णोपदेशत्वान्नित्यं भवति ॥ ८४ ।। न्या० स०-निस-निक्ष। नित्यं भवतीति-"अदुरुपसर्ग०" [२. ३. ७७. ] इत्यनेनेति शेषः। गोपदेशत्वात् “अदुरुपसर्ग०" [२. ३. ७७.] इत्यनेन, गति-15 कारकङस्युक्तानां०* इति न्यायादविभिक्त्यन्तैः कृदन्तैः सह प्रादीनां समासे सति निमित्त-निमित्तिनोरेकपदस्थत्वात् "रघुवर्णा०" [ २. ३. ६३. ] इत्यनेन वा नित्यं णत्वे प्राप्ते विकल्पार्थमिदम् ।। २.३.८४॥ स्व रात् ॥ २. ३. ८५॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रघुवर्णात् परस्य कृद्विषयस्य नकारस्य20 स्वरादुत्तरस्य णो भवति । प्रहाणः, प्रहाणवान् ; प्रहीणः, प्रहीणवान् ; परिहीणः, परिहीणवान्; प्रगूणः, प्रगूणवान् ; प्रयाणम्, परियाणम् ; प्रवपणम्, परिवपणम् ; प्रयायमाणम्, परियायमाणम्; प्रयायिणौ, परियायिणौ ; अप्रयाणिः, अपरियारिणः; प्रयाणीयम्, परियाणीयम्; प्रवहणीयम्, परिवहणीयम्; यथासंभवं 'क्त क्तवतु अन आन इन् अनि अनीय' इत्येते25 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ८६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३४५ प्रत्ययाः प्रयोजयन्ति । स्वरादिति किम् ? प्रभुग्नः, प्रभुग्नवान् । अदुरित्येवदुर्यानः पन्थाः। कृतीत्येव-प्रवापेन । अलचटतवर्गशसान्तर इत्येवप्रक्लृप्यमानम्, परिक्लृप्यमानम्; प्रेण्वनम्, प्रेन्वनम्; प्रदानम्, प्रधानम् ।। ८५ ॥ न्या० स०--स्वरात् । *गतिकारक०% इति न्यायात् "रषवर्णा०" [२. ३. 5 ६३.] इति सिद्धमेव, किन्तु प्रयायिणौ परियायिणावित्यत्र "वोत्तर०" [२. ३. ७५. ] इति वा णत्वं स्यात् तन्निवृत्त्यर्थमिदमारभ्यते । कृद्विषयस्येति-कृतीति विषयसप्तमीयं, न निमित्तसप्तमी, तस्यां हि स्वरात् परस्य धातोर्नस्य कृति निमित्ते णत्वमिति सूत्रार्थः स्यात्, न चैतत्, असंभवात्, नहि ख्यादीनां कृति निमित्तभूते स्वरात् परो धातुनकारोऽस्ति, येन प्राप्तौ प्रतिषधोऽर्थवान् स्यादिति स्वरादिति कृत्रकारस्य विशेषणम्, न “अदुरुप-10 सर्गान्तर०" [ २. ३. ७७. ] इत्यस्य, धातोर्वा, "देशेऽन्तरो यम-हनः" [ २. ३. ६१. ]" इति प्रतिषेधाद् अनेन हि प्रातस्य स प्रतिषेधः। न चान्तःशब्दो धातुर्वा स्वरान्तो येन प्रतिषेधोऽर्थवान् स्यादिति, क्विञ्चोपसर्गविशेषणे प्रभुग्न इत्यत्रापि स्यात। कृदविशेषणमपि न, तस्मिन्नपि कृते कृतो यः स्वरस्ततः परस्य नकारस्येति स्थिते प्रयाणीयमित्यादौ प्राप्तिः, प्रहीण इत्यादौ न स्यादिति । प्रक्लप्यमानमिति-वर्णकदेशस्य वर्ण-15 ग्रहणेन ग्रहणात् समुदायव्यापारे चावयवस्य लकारस्याप्युच्चारणमित्यलचटेति प्रवर्तत एव, यत लकारस्य मध्येऽर्धमात्रो लकारोऽग्रे, पश्चाच्च तुरीयः स्वरभागोऽस्ति ॥२. ३.८५॥ नाम्यादेरेव ने ॥ २. ३. ८६ ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रषवर्णात् परस्य नागमे सति नाम्यादेरेव20 धातोः परस्य स्वरादुत्तरस्य कृद्विषयस्य नकारस्य णो भवति । प्रेङ्करणम्, प्रेङ्गणम्, प्रेङ्खमाणः, प्रेङ्गमाणः; अत्र शानः, प्रेङ्खिणौ, प्रेङ्गिणौ; अप्रेङ्खणिः, अप्रेङ्गणिः; प्रेङ्खणीयम्, प्रेङ्गणीयम् । नाम्यादेरिति किम् ? प्रमङ्गनम्, प्रकम्पनम् । एवकार इष्टावधारणार्थः, न एव सति नाम्यादेरिति हि नियमे इह णो न स्यात्-प्रेहणम्, प्रोहणम् ; पूर्वेण सिद्धे नियमार्थं वचनम् । 25 नग्रहणं नागमादेशोपलक्षणार्थम् । नकारस्य व्यवधाने हि प्राप्तिरेव नास्तिप्रेण्वनम् । व्यञ्जनान्तादेवायं नियमः, ण्यन्तात् तु “णेर्वा" [२. ३. ८८.] । इति परत्वात् विकल्प एव-प्रमङ्गणा, प्रमङ्गना ।। ८६ ।। न्या० स०--नाम्यादेरे०। प्रेसरणमित्यादौ "कवर्गक०" [ २. ३. ७६. ] इति Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू० ८७-८८.] नागमस्य न णत्वं "म्नां०" [ १.३.३६. ] इति बहुवचनेन बाधितत्वात् । परत्वाद् विकल्प इति प्रेङ्खणमित्यादौ "नाम्यादे० ' [ २. ३. ८६. ] इत्यस्यावकाश:, प्रयापणेत्यादौ "णेर्वा” [ २. ३.८८ ] इत्यस्य प्रेङ्खणा, प्रेङ्खना' इत्यादौ तूभयप्राप्तौ परत्वाद् विकल्प एव, अत एव प्रमङ्गणमित्यादौ नियमाप्रवृत्तिः ।। २. ३. ८६ ।। व्यञ्जनादेर्नाम्युपान्त्याद् वा ॥ २. ३. ८७ ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रषृवरर्णात् परो यो व्यञ्जनादिर्नाम्युपान्त्यो धातुस्ततः परस्य कृद्विषयस्य स्वरादुत्तरनकारस्य णो वा भवति । प्रमेहरणम्, प्रमेहनम् ; प्रकोपणम्, प्रकोपनम् ; प्रगुप्यमाणम्, प्रगुप्यमानम्; प्रकोपिणौ, प्रकोपनौ; प्रकोपरिणः, अप्रकोपनि प्रकोपणीयम्, प्रकोपनीयम् । व्यञ्जनादेरिति किम् ? प्रेहरणम्, प्रोहरणम् । नाम्युपान्त्यादिति किम् ? प्रवपणम्,10 प्रवहणम् । स्वरादित्येव - प्रभुग्नः परिभुग्नः । प्रदुरित्येव - दुर्मोहन, दुर्गृहनः । अलचटतवर्गशसान्तर इत्येव - प्रभेदनम् ; प्रभोजनम् । “स्वरात् " [२. ३. ८५.] इत्यनेन नित्यं प्राप्ते विभाषेयम् ।। ८७ ।। 5 J न्या० स०-- व्यञ्जनादे० । दुर्मोहन इति-दुर्मुह्यतेऽनेनास्मिन् वा " करणाधारे” [ ५. ३. १२६. ] अनट्, दुर्मुह्यतीति नन्द्यादिभ्यो वा । दुर्गहन इत्यत्र “गोहः स्वरे”15 [ ४. २. ४२. ] ऊत् ।। २. ३. ८७ ।। णेर्वा ॥ २.३.८८ ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रषृवर्णात् परस्य ण्यन्ताद् धातोर्विहितस्य स्वरादुत्तरस्य कृद्विषयस्य नकारस्य णो वा भवति । प्रमङ्गणा, प्रमङ्गना; प्रयापरणम्, प्रयापनम् प्रयापिणौ, प्रयापिनौ; अप्रयापरिणः, अप्रयापनि: ; 20 प्रयापरणीयम्, प्रयापनीयम् । विहितविशेषणं किम् ? प्रयाप्यमाणः, प्रयाप्यमान इति क्येन व्यवधानेऽपि यथा स्यात् । अलचटतवर्गशसान्तर इत्येव प्रदापनम्, प्रतियापनम् । अनाम्यादिभ्यो धातुभ्यो नागमे सति “नाम्यादेरेव ने ” [२. ३. ८६. ] इति नियमेनाऽप्राप्ते, शेषेभ्यस्तु "स्वरात्" [२. ३. ८५. ] इत्यनेन नित्यं प्राप्ते उभयत्र विभाषेयम् ॥ ८८ ॥ 25 न्या० स० -- रणेर्वा । शेषेभ्यस्त्विति - नागमरहितेभ्यः ।। २३.८८ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ८६-६०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३४७ निविण्णः ॥ २. ३. ८६ ॥ निपूर्वाद् विदेः सत्ता-लाभ-विचारार्थात् परस्य क्तनकारस्य णत्वं निपात्यते । निविण्णः प्रावाजीत् । कश्चित् तु वेत्तेरपीच्छति-निविण्णवानिति च ।। ८६ ।। न्या० स०--निविण्णः। सत्तेत्यादि-एते त्रयोऽपि धातूनामनेकार्थत्वाद् वैराग्ये 5 वर्तन्ते । निविण्ण इति-"विदक् ज्ञाने" इत्यस्य सेट्त्वान्न । गतिकारक०* इति न्यायात् "रषवर्ण०" [२. ३. ६३.] इति सिद्धमेव, किमनेन ? सत्यम्-अलचटेति व्यावृत्त्याप्राप्तौ क्तनकारस्य णत्वं निपात्यते, धातुनकारस्य तु “तवर्गस्य०" [१. ३. ६०.] इति, “रवर्णा०" [ २. ३. ६३. ] इत्यनेन वा सिद्धमेव ।। २. ३. ८६ ॥ न ख्या-पूग-भू-भा-कम-गम-प्याय-वेपो णेश्च 10 ॥२. ३. ६० ॥ अदुरुपसर्गा-ऽन्तःशब्दस्थाद् रषवर्णात् परे ये ख्यादयोऽण्यन्ता ण्यन्ताश्च धातवस्तेभ्यः परस्य कृद्विषयस्य नकारस्य णो न भवति । · प्रख्यानम्, प्रख्यायमानम्, प्रख्यायिनौ, अप्रख्यानिः, प्रख्यानीयम् पूग्-प्रपवनम्, प्रपूयमानम्, प्रपाविनौ, अप्रपवनिः, प्रपवनीयम् ; भू-प्रभवनम्, प्रभूयमानम्, प्रभाविनौ,15 अप्रभवनिः, प्रभवनीयम् ; भा-प्रभानम्, प्रभायमानम्, प्रभायिनौ, अप्रभानिः, प्रभानीयम्; कम्-प्रकमनम्, प्रकम्यमानम्, प्रकामिनौ, अप्रकमनिः, प्रकमनीयम् गम्-प्रगमनम्, प्रगम्यमानम्, प्रगामिनौ, अप्रगमनिः, प्रगमनीयम्; प्यायप्रप्यानः, प्रप्यानवान्, प्रप्यायनम्, प्रप्यायमानम्, प्रप्यायिनौ, अप्रप्यायनिः, प्रप्यायनीयम्; वेप-प्रवेपनम्, प्रवेपमानम्, प्रवेपिनौ, अप्रवेपनिः, प्रवेपनीयम् 20 ण्यन्तेभ्योऽपि-प्रख्यापनम्, प्रपावनम्, प्रभावना, प्रभापनम्, प्रभापना, प्रकामना, प्रगमना, प्रप्यायना, प्रवेपनम् ; अण्यन्तेभ्यो नित्यं वेपो ण्यन्तेभ्यश्च विकल्पेन प्राप्ते प्रतिषेधः । पूगो गकारः किम् ? पवतेनिवृत्त्यर्थः, तेन प्रपवणम्, प्रपूयमाणम्, इत्यादि । ख्यातेर्णत्वमिति कश्चित्-प्रख्याणम्, प्रख्याय। माणम् ।। ६० ।। 25 न्या० स०--न ख्या-पूग्। ख्या इति निरनुबन्धोपादानं ख्यादेशस्य "ख्यांक Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] बृहद्दवृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ६१-६२.] प्रकथने" इत्यस्य च परिग्रहार्थम् । नित्यमिति - "स्वरात्" [ २. ३. ८५. ] इत्यनेन । वेपो विकल्पेनेति - "व्यञ्जनादेर्नाम्युपा०" [ २. ३. ८७ ] “णेर्वा" [ २. ३. ८७ ] इत्यनेन ।। २. ३. ६० ।। इत्यनेन । ण्यन्तेभ्यश्चेति देशेऽन्तरोऽयन- हनः ।। २. ३. ६१ ।। अन्तःशब्दात् परस्यायनशब्दस्य हन्तेश्व संबन्धिनो नकारस्य देशेऽभिधेये 5 णो न भवति । अन्तरय्यतेऽस्मिन्निति - श्रन्तरयनो देशः, एवमन्तर्हननो देशः । देश इति किम् ? अन्तरयणं वर्तते, अन्तर्हणनम्, अन्तर्हण्यते । अन्तर्घणो देश इति तु निपातनात् । अन्तर इति किम् ? प्रायणी देशः, प्रहरणनो देशः । अयन - हन इति किम् ? अन्तर्णमनो देश: ।। ६१ ॥ न्या० स० -- वेशेऽन्तरो० । " स्वरात्" [ २. ३.८५ ] इति “हनः" [२.३.८२.]10 इति च यथासंख्यं प्राप्ते प्रतिषेधः । अन्तर्घण इति - " हनोऽन्तर्घनान्त ०" [ ५. ३. ३४. ] इत्यलन्तो निपात्यते, वाहीकेषु देशविशेषस्येयं संज्ञा । प्रायगो देश इति - इंदु, इण्क् वा, प्रेयतेऽस्मिन्निति अनटि "स्वरात्" [ २. ३.८५ ] इति णत्वे, अयती स्यायो” [२. ३. १००. ] इति लत्वं स्यात् ।। २. ३. ६१ ।। तु "उपसर्ग षात् पदे ॥ २. ३. ६२ ॥ पदे परतो यः षकारस्तस्मान्निमित्तात् परस्य नकारस्य णो न भवति । सर्पिष्पानम्, यजुष्पानम्, दुष्पानम्; अत्र “पानस्य भाव - करणे" [ २. ३. ६६.] इति, निष्पानमिति "स्वरात्" [२. ३. ८५.] इति, निष्पायनमिति "र्वा" [२. ३. ८८ . ] इति प्राप्ते प्रतिषेधः । षादिति किम् ? निर्णयः, निर्यारणम् । पद इति किम् ? पुष्णाति सर्पिष्केण ।। ६२ ।। 20 15 न्या० स० -- षात् पदे । सर्पिष्पानमिति - नन्वत्र षकाराश्रितं मा भूण्णत्वं, सर्पिस्थपाश्रितं कथं नहि ? उच्यते यत्रोत्पद्यमानस्य रणत्वस्य निमित्तद्वयं भवति तत्र प्रत्यासत्त्याऽनन्तरमेव गृह्यते इति । सर्पिष्केणेति - सर्पिः कायतीति सर्पिस् अम् काधातुः अग्रे इति स्थिते क इत्यस्याविभक्त्यन्तत्वात् पदत्वाभाव इति नानेन त्वप्रतिषेधः । ननूत्तरपदमपि पदमुच्यते यथा "वेदूतोऽनव्यय ०" [२. ४. ६८. ] इत्यत्र पदे इत्युक्तेऽपि 25 उत्तरपदे इति वृत्तिकृता व्याख्यानात्, तद्वदिहापि पदे इत्युक्तोऽपि उत्तरपदमपि लप्स्यते, तत् कथं सर्पिष्केणेत्यत्र व्यावृत्तिः ? सत्यम् - नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः इति न्यायादेव - T Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० ६३-६४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३४६ विधं व्याख्यानं न सर्वत्रापि युक्त, किं त्वभिप्रेतसिद्धयर्थं क्वचिदेव ; यद्वा कुत्सिताद्यर्थे कप् तदा निर्विवादमेव ।। २. ३. ६२ ।। पदेऽन्तरे नायतद्धिते ॥ २. ३.६३ ॥ आङन्तं तद्धितान्तं च वर्जयित्वाऽन्यस्मिन् पदे निमित्त-निमित्तिनोरन्तरे व्यवधायके नकारस्य णो न भवति । प्रावनद्धम्, पर्यवनीतम्, माषकुम्भवापेन, 5 व्रीहिकुम्भवापेन, चतुरङ्गयोगेन, भर्तृ बाहुयुग्मेन, रोषभीममुखेन । अत्र यदा माषकुम्भस्य वाप इति, माषाः कुम्भो वापोऽस्येति वा समासस्तदा "वोत्तरपदान्तनस्यादे०" [२. ३. ७५.] इति विकल्पे प्राप्ते प्रतिषेधः, यदा तु माषस्य कुम्भवाप इति तदा “कवर्गकस्वरवति" [२. ३. ७६.] इति नित्ये प्राप्ते; एवं शेषेष्वपि यथासंभवं वाच्यम् । अन्ये तु माषाणां कुम्भवाप इति10 व्यवधायकस्योत्तरपदावयवत्वे प्रतिषेधं नेच्छन्ति, तन्मते-माषकुम्भवापेणेत्यादौ नित्यमेव णत्वम् । अपरे तु माषकुम्भस्य वाप इति व्यवधायकस्य पूर्वपदावयवत्वे प्रतिषेधं नेच्छन्ति, तन्मते-माषकुम्भवापेण, माषकुम्भवापेनेत्यादौ विकल्प एव भवति । अनाङीति किम् ? प्राणद्धम्, पर्याणद्धम् ; प्रण्यास्यति, प्रण्यापचति । अतद्धित इति किम् ? आर्द्र गोमयेण, शुष्कगोमयेण, परमापूपमयेण,15 यूषयावकेण ।। ६३ ।। न्या० स०-पदेऽन्तरे०। चतुरङ्गयोगेन-अत्र "कवर्गक०" [ २. ३. ७६. ] इति प्राप्तं निषिध्यते । 'माषकुम्भस्य वापः, माषस्य कुम्भवापः' इत्यस्मिश्च वाक्ये "वृत्त्यन्तोऽसषे" [ १. १. २५. ] इति पदसंज्ञानिषेधेऽपि भूतपूर्वकपदत्वमाश्रीयते। कवर्गकस्वरवति इति-कवर्गांशेन विशेषविहितत्वात्, न तु “वोत्तर०" [२. ३. ७५. ] इति 20 विकल्पः। युषयावकेणेति-यवानां विकारः "विकारे" [६. २. ३०.] अण वद्धिः, याव एव “यावादिभ्यः कः" [७. ३. १५. ] यूषेण-मांसमुद्गादिरसेन, मिश्रः, यावक:अलक्तक:-यूषयावकस्तेन ।। २. ३. ६३ ।। हनो घि । २. ३. ६४ ॥ हन्तेर्नकारस्य घकारे निमित्त-निमित्तिनोरन्तरे सति णो न भवति ।25 ' वृत्रघ्ने, वृत्रघ्ना, वृत्रघ्नः; ब्रह्मघ्नः; शत्रुघ्नः। संज्ञायां "पूर्वपदस्थान्नाम्न्यगः" [२. ३. ६४.] इति, असंज्ञायां तु “कवर्गकस्वरवति" [२. ३. ७६.] इति; Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ६५-६६.] प्रघ्नन्ति, प्राघ्नन्, प्राघानि, प्रघानिष्यते इत्यादिषु तु "हनः" [२. ३. ८२.] इति प्राप्ते प्रतिषेधः । हन इति किम् ? अर्पण, परिघेण। घीति किम् ? वृत्रहणौ, प्रहणनम् ।। ६४ ॥ नुतेर्यहि ॥ २. ३. ६५ ॥ नृतेर्धातोर्नकारस्य यविषये णो न भवति । नरीनृत्यते, नरिनति, 5 नर्नति, नरीनृतीति; अत्र “रषवर्णात्०" [२. ३. ६३.] इत्यादिना प्राप्तिः । यडीति किम् ? हरिरिव नृत्यतीति हरिणी नाम कश्चित्, “पूर्वपदस्थान्नाम्न्यगः" [२. ३. ६४.] इति णत्वम् ।। ६५ ।। न्या० स०-नृतेर्यङि । हरिणौत्यत्र “कर्तुणिन्” [५.१.१५३.] ॥ २.३.६५।। क्ष भनादीनाम् ॥ २. ३. ६६ ॥ 10 क्षुभ्ना इत्येवमादीनां नकारस्य णो न भवति । क्षुम्नाति, क्ष नीतः, क्षुभ्नन्ति, क्षुभ्नन्, क्षुभ्नानः; तृप्नोति, तृप्नुतः, तृप्नुवन्ति, तृप्नुवन्, तृप्नुवानः; आचार्यस्य भार्या-प्राचार्यानी, प्राचार्यस्य भोग प्राचार्यभोगस्तस्मै हित प्राचार्यभोगीनः; एषु "रघुवर्णात्" [२. ३. ६३.] इत्यादिना प्राप्ते, सर्वनाम, नृनमनः, परिनृत्तम्, गुरुनृत्तम्, परिनर्तनम्, ग्रामनट:, शरनदः, शरनदी, गिरि-15 नगरम्, परिनिवेशः, श्रीनिवासः, शबराग्निः, दर्भानूपः, हरिनन्दी, हरिनन्दनः, गिरिगहनम्; एषु “पूर्वपदस्थात्" [२. ३. ६४.] इत्यादिना प्राप्ते, परिनदनम्-अत्र “अदुरुपसर्गान्तरो०" [२. ३. ७७.] इत्यादिना प्राप्ते; सुप्रख्येन, अत्र “कवर्गकस्वरवति" [२. ३. ७६.] इति प्राप्त प्रतिषेधः । क्षुभ्ना, तृप्नु, प्राचार्यानी, प्राचार्यभोगीन, सर्वनामन्, नृनमन, नृनमेत्येके ; 20 नृत्त, नर्तन, नट, नद, नड इत्येके; नदी, नगर, निवेश, निवास, अग्नि, अनूप, नन्दिन्, नन्दन, गहन, नदन; ख्याग् इति क्षुम्नादिः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ६६ ॥ न्या० स०-क्षुम्नादीनाम्। क्षुम्नेति लुप्ततिनिर्देशेन धातुग्रहणं, . न तु यङ लुप्निवृत्त्यर्थम्, अनुबन्धनिर्देशे हि क्षोभणमित्यत्रापि स्यात्, एवं तृप्नु इत्यत्रापि 125 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ३. सू० ६७-६८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३५१ यद्येवं तर्हि क्षुनीत इत्यादौ गत्वशास्त्रस्य परेऽसत्त्वादीकारादौ कृते क्षुम्नेति रूपाभावान्न प्राप्नोति, उच्यते - स्वरादेशस्य स्थानिवद्भावादेकदेशविकृतस्यानन्यत्वाद् वा भविष्यतीत्यदोषः । बहुवचनेन चास्याकृतिगरणता द्योत्यते, तेनान्योऽप्यविहितलक्षणो णत्वप्रतिषेधः क्षुम्नादिषु द्रष्टव्य:, तेन धनदवाचकनरवाहनशब्दस्य न णत्वम् । नूनमेत्येक इतिअविभक्तिको निर्देश:, अकारान्तस्त्वयं ज्ञातव्यः ।। २. ३. ६६ ।। 5 पाठे धात्वादेर्णो नः ।। २. ३. ६७ ।। पाठविषये धात्वादेर्णकारस्य नकार आदेशो भवति । णीग् - नयति, णम् - नमति, णह - नह्यति । पाठ इति किम् ?, णकारीयति । धात्विति किम् ? णकारः । प्रादेरिति किम् ? भणति । सर्वे च नादयो गोपदेशा:नृति, नन्दि, नर्दि, नशि, नाटि, नक्कि, नाधू, नाथू, नृ वर्जम् । नाटीति " नटण 10 अवस्यन्दने” इत्यस्य वर्जनम्, भौवादिकस्य तु "णट नृत्तौ " इत्यस्य - प्रणति, प्रणाटयति। णोपदेशश्च षां "णहिनुमीनानेः" इत्यस्य विषयव्यवस्थार्थः ।। ६७ ।। "" न्या० स०-- पाठे धा० । नन्वादिग्रहणं किमर्थं ? तमन्तरेणापि गोपदेशबलान्नत्वं न भविष्यति, अन्यथा भनित्येव पठयेत, नैवम् - गोपदेशस्य " अदुरुपसर्ग ० ' [ २. ३. ७७. ] इति णत्वे फलमस्ति, तथाहि - उपसर्गपूर्वस्य प्रभणति, अन्यत्र तु भनतीति 15 स्यादित्यादिग्रहणं कर्त्तव्यमेव । पाठ इति किमिति - पाठ इत्यनेन धातूपदेशस्य ग्रहणाकारीयतेरनुपदेशान्नत्वाभावः । अथैते नादय एव पठ्यन्तां, तथा च सति नेदमारब्धव्यं भवतीत्याह-गोपदेशश्चेति, एवमुत्तरत्र षोपदेशेऽपि ।। २. ३. ९७ ।। षः सोऽष्टयै - ष्टिव- ष्वष्कः ।। २. ३. ६८ ॥ पाठे धात्वादेः षकारस्य सकार प्रादेशो भवति, न चेत् षकारः ष्ट्यं -20 ष्टिव-ष्वष्कसंबन्धी भवति । षहि-सहते । षिच्- सिञ्चति । पाठ इत्येवषण्ढीयति । धात्वित्येव - षण्ढः । प्रादेरित्येव - लषति । ष्ट्यादिवर्जनं किम् ? ष्ट्यायति, ष्टीवति, ष्टीव्यति, ष्वष्कते । स्वर - दन्त्यपरसकारादयः स्मि-स्विदिस्वदि-स्वञ्जि-स्वपयश्च षोपदेशा, सृपि, सृजि, स्त्या, स्तृ, स्तृ, सृ, सेकृवर्जम् । षोपदेशषां षत्वविषयव्यवस्थार्थः ।। ६८ ।। 25 न्या० स० -- षः सोऽष्टयं ० । न च वाच्यमत्राप्यादेरित्यधिकाराभावेऽपि पाठबलादेव लषतीत्यादौ सत्वं न भविष्यति, अन्यथा लस् इति कुर्यात्, यतः षकरणस्यान्यदपि Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू० ६६- १०० . ] फलमस्ति, यथा कृतत्वात् परोक्षायां षत्वे विलेषुरित्यादि सिद्ध्यति, न - प्रादिग्रहरणाभावे प्रस्तुते लसतीति स्यात् ।। २. ३. ६८ ।। ऋ-र लु-लं कृपोऽकपीटादिषु ॥ २. ३. ६६ ॥ कृपेर्धातोर्ऋकारस्य लृकारो रेफस्य च लकार प्रादेशो भवति, स चेत् कृपिः कृपीटादिविषयो न भवति । क्लृप्तः, क्लृप्तवान्, क्लृप्यते, चिक्लृप्सति, 5 अचीक्लृपत्, कल्पते, कल्पयति, कल्पिता, कल्प्ता, कल्पकः, कल्पः, चलीक्लृप्यते, चलोकल्पित । अकृपीटादिष्विति किम् ? कृपीटम्, कृपणः, कृपाणः; कृपः, कर्पूरः, कर्परः; बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ६६ ।। कर्पटः, कर्पटिः; इत्यादि । न्या० स० - ऋर लुलम्० । अथ 'वर्णैकदेशा वर्णग्रहणेन गृह्यन्ते' इत्यस्यापि 10 पक्षस्याश्रितत्वाद् लकार- लृकारयोरेफ-लकारग्रहणेनैव ग्रहणात् किं द्वयोरुपादानेन ? “कृपे रोल:" इत्येव क्रियताम्, नैवम् - क्वचिद् वर्णैकदेशानां वर्णग्रहणेनाग्रहणमिति ज्ञापनार्थन् । "दूरादामन्त्र्यस्य ० " [ ७. ४. ६६ ] इत्यत्र ऋद्वजितस्य स्वरस्य प्लुतत्वं वदन् स्वरद्वारेणैव सिद्धे पुनरपि यत लृकारग्रहणं करोति तदेव बोधयति - ऋत्प्रतिषेधे लृतोऽपि प्रतिषेधप्रसङ्ग इति ऋकारापदिष्टं कार्यं लृकारस्यापि इति । अचीक्लृपत् अत्र " ऋदुवर्णस्य " 15 [४. २. ३७.] "ऋतोऽत्" [ ४.१.३८. ], अत एव च 'चलोकृप्यते' इत्यादी "ऋमतां री:” [४. १. ५५.] “रि-रौ च लुपि” [४. १. ५६.] इति सिद्धम् ।। २. ३. ६६ ।। उपसर्गस्याभ्यौ ॥ २. ३. १०० ॥ उपसर्गसंबन्धिनो रेफस्य " अयि गतौ” इत्यस्मिन् धातौ परे लकारादेशो भवति । प्लायते, पलायते, पल्ययते, प्लत्ययते; अत्रानेकवर्णव्यवधानान े - 20 च्छन्त्येके । प्रतिपूर्वस्य प्रयोग एव नास्तीत्यन्ये - निलयनम्, दुलयनम् । कथं निरयते ? दूरयते ? रुत्वस्यासिद्धत्वात् निसो दुसश्च न भवति । उपसर्गस्येति किम् ? परस्यायनं - परायनम् । प्रयाविति किम् ? "इंण्क् गतौ" अल्- प्रायः, परायः । अयीति इकारनिर्देशोऽयि गतावित्यस्य परिग्रहार्थः ।। १०० ।। न्या० स०-- उपसर्गस्यायो । दुलयनमिति - दुलय्यते निन्दार्थवृत्तित्वात् खुलभावे-25 नटि सिद्धम् ।। २. ३. १०० ।। T Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ३. सू० १०१-१०४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३५३ ग्रो यहि ॥ २. ३. १०१ ॥ यङि प्रत्यये परे गिरते रेफस्य लकारादेशो भवति । गहितं निगिरतिनिजेगिल्यते । गृणातेस्तु यङेव नास्ति । केचित् तु तस्यापीच्छन्ति, लत्वं तु नेच्छन्ति । यङीति किम् ? निगीर्यते ।। १०१ ।। न्या० स०--ग्रो यङि। निजेगिल्यत इति-अत्र “भ्वादे:०" [ २. १. ६३. ] 5 इत्यस्य परे लत्वेऽसत्त्वम् । यडेव नास्तीति-"न गृणा-शुभ-रुचः" [३. ४. १३. ] इति निषेधात् । तस्यापोच्छन्तीति-तन्मते निजेगीर्यते इति भवति ।। २. ३. १०१ ।। नवा स्वरे ॥ २. ३. १०२॥ गिरते रेफस्य स्वरादौ प्रत्यये विहितस्य लकारो वा भवति । गिलति, गिरति; निगलनम्, निगरणम् ; निगालकः, निगारकः । स्वर इति किम् ? 10 निगीर्णः, निगीर्णवान् । विहितविशेषणं किम् ? इह च यथा स्यात्-निगाल्यते, निगार्यते; इह च मा भूत्-गिरौ, गिरः ।। १०२ ।। न्या० स०--नवा स्वरे। निगाल्यत इति-अत्र निपूर्वात् ग तो णौ वृद्धौ लकारो णिलोपश्चेत्युभयप्राप्तौ नित्यत्वात् पूर्वं णिलोपः, न च प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् इति न्यायेन लत्वस्यापि प्राप्तौ तस्यापि नित्यत्वं वर्णाश्रये प्रत्ययलक्षणस्य प्रतिषेधात्15 ।। २. ३. १०२ ।। परे_-क-योगे ॥ २. ३. १०३ ॥ परिसंबन्धिनो रेफस्य ‘घ अङ्क योग' इत्येतेषु शब्देषु परेषु लो वा भवति । पलिघः, परिघः; पल्यङ्कः, पर्यङ्कः; पलियोगः, परियोगः ।। १०३ ।। न्या० स०--परेर्घाङ्कयोगे। पल्यङ्क इति-अङ्कयत्यच्, अङ्क परिगतोऽङ्कन वा20 परिगतः, एवं-परियोगः ।। २. ३. १०३ ।। ऋफिडादीनां डश्च लः ॥ २. ३. १०४ ॥ ऋफिड इत्यादीनामृ-रो लु-लौ डकारस्य च लो भवति वा । लृफिडः, लुफिलः; ऋफिलः, ऋफिडः; लतकः, ऋतकः; कपलिका, कपरिका; तिल्पिलीकम्, तिपिरीकम् ; कपिलकम्, कपिरकम् ; लोमानि, रोमारिण; 25 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० १०४.] अगुलिः, अगुरिः; पुलुषः, पुरुषः; तलुनः, तरुणः; सलिलम्, सरिरम् ; अलम्, अरम्; मूलम्, मूरम् ; कलीलः, करीरः; कल्म, कर्म ; मुकुलम्, मुकुरम् ; पांसुलः, पांसुरः; लेखा, रेखा; लिक्षा, रिक्षा; लोहितम्, रोहितम्, इत्यादि । अर्थभेदेऽपि-इला भूमिः, इरा अमृतम् ; तल्पलो गजपृष्ठैकदेशः, तर्परः पशूनां कण्ठघण्ट:; कलभो बालहस्ती, करभ उष्ट्रः; शलभः पतङ्गः, 5 शरभोऽष्टापदः; कालो वर्णः, कारो रक्षानिर्वेशः; वालः केशः; वारः क्रियाभ्यावृत्तिः; लघुरपचितपरिणामः, रघुः राजा; गलः प्राण्यङ्गम्, गरो विषम् ; एवं-मुद्गल-मुद्गर, मण्डल-मण्डर; कन्दल-कन्दरादयोऽपि द्रष्टव्याः । ऐकाhऽपि दृश्यते-गलं गरं च; बडिशम्, बलिशम् ; डश्च लः; ऋफिलः, ऋफिडः; वलभी, वडभी; चूला, चूडा; इला, इडा; व्यालः, व्याडः; 10 पुरोलाशः, पुरोडाशः; षोलशः, षोडशः; बलिशम्, बडिशम्; पुलिनम्, पुडिनम्, पीला, पीडा। यथादर्शनमन्येऽपि ऋफिडादौ द्रष्टव्याः । संयुक्तस्य आदेश्च न दृश्यते-पाण्डुः, कण्डूः, डामरः, . डीनः, डुण्डुभः; डिण्डिमः ।। १०४ ।। न्या० स०--ऋफिडादीनां०। अतेर्बाहुलकात् फिडक्प्रत्यये-ऋफिडः । अतरेव 15 क्त कुत्सादौ च के-ऋतकः, ऋतं सत्यं कायति “प्रातो डो०" [ ५. १. ७६. ] इति डे वा। कं-सुखं परं यस्यां "शेषाद् वा" [७. ३. १७५.] इति कचि आपि इत्वेकपरिका। तपौच "सरणीकास्तीका." [उणा० ५०.] इति-तर्परीकं गन्धद्रव्यविशेषः । कपिरशब्दात् के-कपिरकं, कम्पयतीति वा “कीचक०" [उणा० ३३.] इति निपातः । रोमारणीति-रुवन्तीति मन् । अङ्गुरि इति-"अगु गतौ" "मस्यसि०" [उणा० ६६६.] 20 इति डरौ। नअपूर्वाद् रातेः “गमिजनि०" [उणा० ६३७.] इति बहुलवचनाड्डित्यमि अरम्। मूरमिति-"मूङ बन्धने" "ऋज्यजि०" [उणा० ३८८.] इति किति रे । करीर इति-"कृश पृ.०" [ उणा० ४१८. ] इति ईरे-करीरः। पांसुर इति-"मध्वादिभ्यो रः" [७. २.२६. ]। लिखेः समानार्थाद् रिखो भिदाद्यङि-रेखा। लिक्षेतिरिषेः “ऋजिऋषि." [ उणा० ३८८. ] इति किति से। गर इति-गिरति प्राणान् 25 लिहाद्यचि । मण्डर इति-मण्डे: “जठर०" [उणा० ४०३.] इति अरे। कन्दर इति"कदुङ वैक्लव्ये" "ऋषि-चटि०" [उणा० ३६७.] इत्यरे। ऐकार्थ्य इति-एकोऽभिन्नोऽर्थों ययोस्तयोर्भावे। वलभीति-वडेः सौत्रात् "कृ-गश -शलि" [उणा० ३२६.] इत्यभे गौरादिङयां च-वडभी। चुडेति-चुदण् णिजन्ताद् भिदाद्यङि निपातः । इडेति-ईड्यते-स्तूयते प्रात्माऽस्यां "म्लेच्छीड." [उणा० ३. ] इति । व्याड इति-व्यंग30 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [ पा० ३. सू० १०५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३५५ “ऋ-सृ-तृ-व्या-लिह्यवि० " [ उरणा० १७१. ] इत्यडे | पुरोडाश इति -पुरो दाश्यते घत्रि “पृषोदरादय:" [ ३. २. १५५ ] । वडे: सौत्रात् " कुलिकनि ० " [ उणा० ५३५. ] इति किशे - वडिशम् । पुलिनमिति - "पुल महत्त्वे" "वृजि-महि० " [ उणा० २८३. ] किदिने - पुलिनम् । निर्देशस्य समानत्वात् क्वचिल्लकारस्य डकारोऽपि - पुडिनम् । पीडेति" भीषि - भूषि०" [ ५. २. १०६ ] इत्यादिना बहुवचनादङ । पाण्डुरिति - " पनेर्दीर्घश्व" 5 [ उणा० ७६६. ] इति हुप्रत्ययः । कण्डूरिति - "कषेण्डद्वौ च षः" [ उणा० ८३१. ] इति । डामर इति - "दमेरिद्वा दव ड : " [ उणा० ४०२. ] । डीन इति - डीङ च् " सूयत्याद्योदितः " [ ४. २.७० ] इति नकारे "डीयश्व्यैदित:" [ ४. ४. ६१. ] इति 'इनिषेधे-डीनः । डुण्डुभ इति- डुण्डुशब्देन भातीति डुण्डुभ: । डिण्डिम - शब्दम " क्वचित्" [ ५. १. १७१ ] इति डे - डिण्डिमः, अथवा "डिभेः कित्" [ उणा० ३५६. ]10 ।। २. ३. १०४. ॥ जपादीनां पो वः ।। २. ३. १०५ ॥ जपादिशब्दसंबन्धिनः पकारस्य वकारदेशो वा भवति । जवा, जपा; पारावतः, पारापतः त्रिविष्टपम्, त्रिपिष्टपम्; पारावारः, पारापारः; कवाटः, कपाटः ; विष्टवम्, विष्टपम्; कवलः, कपलः; अवाची, अपाची । जपादयः 15 प्रयोगतोऽनुसर्तव्याः ।। १०५ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृहद्वृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ।। २ । ३ ।। मूलराजासिधारायां, निमग्ना ये महीभुजः । उन्मज्जन्तो विलोक्यन्ते, स्वर्गगङ्गाजलेषु ते ।। २ । ३ । ३ ।। 20 न्या० स० - जपादीनां पो वः । जपति जपतः (?) सो "व्यध-जप-मद्भ्यः " [ ५. ३. ४७ ] इत्यल् । पारापत इति - पराद् विप्रकृष्टादापततीति क्विपि परापत्, तस्यापत्यम् । त्रिविष्टपमिति - विष्लृ की "विष्टपोलप०" [ उणा० ३०७ ] इति तृतीयं विष्टपं प्राच्या स्त्रिपिष्टपमिति पठन्ति । पारापार इति - पारयतीति पारः, न पारोऽपारः, अपारः पारोऽस्य पारापारः, राजदन्तादित्वात् पारस्य प्राग् निपातः । कपाट इति - 25 "कपुङ चलने” “कपाटविराट० " [ उरणा० १४८. ] इति निपातः । विष्टपमिति विष्टं पातीति " क्वचित्" [ ५. १. १७१ ] इति डे । कवल इति-के-तालुनि पलति ।। २. ३. १०५ ।। इति द्वितीयस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ २ ॥३॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] बृहवृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० १-२.] [ प्रथ चतुर्थ: पाद: स्त्रियां नतोऽस्वस्रादेडीः ॥ २. ४. १॥ स्त्रियां वर्तमानान्नकारान्ताद् ऋकारान्ताच्च स्वस्रादिवजितान्नाम्नो ङीः प्रत्ययो भवति । राज्ञी, अतिराज्ञी, तक्ष्णी, दण्डिनी, छत्रिणी; की, हीं । स्त्रियामिति किम् ? पञ्च सप्त दश नद्यः, नान्तायाः संख्याया युष्मद-5 स्मदोरिवालिङ्गत्वात्; अत एव नकारलोपेऽपि “प्रात्" [२. ४. १८.] इत्याबपि न भवति । अस्वस्रादेरिति किम् ? स्वसा, अतिस्वसा, परमस्वसा, दुहिता, ननान्दा, याता, माता, तिस्रः, चतस्रः; तिसृ-चतस्रादेशस्य विभक्त्यानन्तर्यनिमित्तत्वात् संनिपातलक्षणत्वेन तद्विघातकत्वाभावादेव ङीनिवृत्तौ सिद्धायां स्वस्रादिषु तयोः पाठः संनिपातलक्षणन्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थः,10 तेनातिदन्या कन्ययेत्यादौ विभक्तिनिमित्तेऽनादेशे सति ङीः सिद्धो भवति ; एवं-या सेत्यादिषु अकारादेशे अाबपि ।। १ ।। ___ न्या० स०-स्त्रियां नतो.। स्त्रियां वर्तमानादिति-'स्त्रीत्वयुक्त ऽर्थे वर्तमानात् स्वार्थे ङयाबादयः' इति मतं सम्मतं निर्वहति, यथाह-वार्तिकं “सिद्धं तु प्रातिपदिकविशेषणात् स्वार्थे टाबादयः" । अतिराज्ञीति-पूजितो राजा स्त्री चेदतिराज्ञी, “पूजा-15. स्वते:०" [ ७. ३. ७२. ] इति समासान्तप्रतिषेधः। राजानमतिक्रान्तेत्यपि कृते समासान्तविधेरनित्यत्वमिति काशिका ।। २. ४. १ ।। अधातूहदितः ॥ २. ४. २ ॥ धातुवजितो य उदित् ऋदिच्च प्रत्ययोऽप्रत्ययो वा तदन्तान्नाम्नः स्त्रियां वर्तमानाद् ङीः प्रत्ययो भवति । उदित्-भवति, गोमती, यवमती, प्रेयसी,20 विदुषी। ऋदित्-पचन्ती, दीव्यन्ती, महती; एषु प्रत्यय उदृदित् तदन्तं नाम। अतिभवती, अतिमहती; अत्र नामाव्युत्पत्तिपक्षे उदृदित्, तदन्तं समासनाम। भवती, महतीति तु व्यपदेशिवद्भावेन तदन्तम् । निर्गोमती, अतिपुंसोत्यत्र प्रत्ययस्योदित्त्वात् गोमदादिशब्दोऽपि उदित् तेन तदन्तं Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ३-४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३५७ समासनाम। अधात्विति किम् ? सुकन्, सुकंसौ; सुहिन्, सुहिंसौस्त्रियौ ।। २ ।। न्या० स०--अधातू । अधात्विति पर्युदासाश्रयणात् तस्य च विधिप्रधानत्वात् प्रतिषेधस्यानुमितत्वेन गौणत्वाद् गोमन्तमिच्छतीति स्त्री गोमत्यतीति विधिनिषेधप्राप्तौ अधातुत्वाश्रितो विधिरेव, न तु धातुत्वाश्रितः प्रतिषेधः । गोमदादिशब्दोऽ- 5 प्युदिदिति-अवयधर्मण समुदायोऽपि व्यपदिश्यते, अत्रावयव उदित् तद्धर्मेण समुदायोऽपीत्यर्थः । सुकन्नित्यादि-"न्स्महतो०" [ १. ४. ८६. ] इत्यत्र महत्साहचर्यात् क्विबन्तस्य कंसो न ग्रहणमित्यर्थस्य ज्ञापितत्वादत्र न दीर्घः । प्रत्ययस्यो दित्त्वादिति-"अजादेः" [२. ४. १६. ] इत्यत्र वृत्तिव्याख्यानेन तदन्तस्य ग्रहणे सिद्धे यदिदं व्याख्यानं तद युक्त्यन्तरस्यापि दर्शनार्थम्, यत एकस्यापि साध्यस्य सिद्धयर्थं बह्वयोऽपि युक्तय10 उपन्यस्यन्ते ॥ २. ४. २ ॥ अञ्चः ॥ २. ४. ३ ॥ अञ्चन्तानाम्न: स्त्रियां ङीर्भवति । प्राची, प्रतीची, अपाची, उदीची ।। ३ ।। न्या० स०-अञ्चः। अञ्च इति कृतनलोपाभावस्य धातुरूपस्याञ्च निर्देशः,15 तेनार्चाविवक्षणे नलोपाभावे तदविवक्षणे लोपे ङीः सिद्धः । “अचः" इति निर्देशे तु "अच्च् प्राग्दीर्घश्च" [२. १. १०४.] इतिवत् कृतनलोस्यैव स्यात् । इत्थं च प्राञ्ची प्रत्यञ्चीत्यादौ डी गच्छेत् ।। २. ४. ३ ।। ण-स्वरा-घोषाद् वनो रश्च ॥ २. ४. ४ ॥ वन इति वन्-क्वनिप्-वनिपामविशेषेण ग्रहणम्, णकारान्तात्20 स्वरान्तादघोषान्ताच्च यो विहितो वन् प्रत्ययस्तदन्तानाम्नः स्त्रियां डीभवति, वनोऽन्तस्य च तत्संनियोगे रो भवति । ण-'प्रोण'-अवावरी । स्वर-'धा'धीवरी, अतिधीवरी; 'पा'-पीवरी, 'कृ'-सहकृत्वरी, राजकृत्वरी; सुत्वरी । अघोष-'दृश्'-मेरुदृश्वरी । णस्वराघोषादिति किम् ? 'युध्'-सहयुध्वा, 'यज्'यज्वा स्त्री । विहितविशेषणं किम् ? शृणातीति शर्वरी, स्वराद् विहितत्वाद्25 गुणे कृते घोषवतो यथा स्यात् । वन इति किम् ? श्वयते: "श्वन्मातरिश्वन्" [उणा० ६ ०२.] इत्यादिनाऽनि प्रत्ययेऽन्तलोपे च सति-शुनी, अतिशुनी; Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ५-६.] मङ्घर्नलोपेऽवागमे च-मघोनी। नान्तत्वादेव ङीः सिद्धस्तन्नियमार्थं रविधानार्थं च वचनम् ।। ४ ।। न्या० स०--स्वराधो० । वनतेः क्विबन्तस्य "अहन्पञ्चमस्य०" [४. १. १०७.] इति दीर्घ वे वन्निति रूपाभावाद् , विजन्तस्य च प्रयोगादर्शनात् प्रत्ययस्यैव ग्रहणमित्याहवन इति वन्-क्वनिपित्यादि-ननु निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य इति क्वनिप्- 5 ङवनिपोर्ग्रहणं न प्राप्नोति, उच्यते-कनिरनुबन्धग्रहणे क्वचित् सानुबन्धस्य ग्रहणम् इति न्यायान्न दोषः। वनोऽन्तस्येति-ननु "प्रत्ययस्य" [७. ४. १०८.] इति सर्वस्यापि प्राप्नोति तत् कथमुक्तमन्तस्येति ? सत्यम्-वात् न् वन् इति कृते भविष्यति । अतिशुनी पूजितः श्वाऽतिश्वा, स्त्री चेदतिशुनी, यद्वा अतिक्रान्तः श्वा ययेति बहुव्रीहिः, श्वानमतिक्रान्तेति कृते “गोष्ठातेः शुनः" [ ७. ३. ११०.] इति समासान्तः स्यात् । मघोनीति-10 मघोनो भार्याभेदोपचारेण मघोनी। नियमार्थमिति-णस्वराघोषादेव वनो ङीर्भवति, तेन सहयुद्ध्वेत्यादौ पूर्वेणापि न भवति । विपरीतनियमस्तु "स्त्रियां नृतः" [२. ४. १.] इत्यस्यारम्भान्न, विपरीतनियमे हि राज्ञीत्यादौ स्वरात् परस्य नकारस्यावस्थानात् "स्त्रियां नृतः०" [ २. ४. १. ] इत्यनेन ङीन स्यात् ।। २. ४. ४ ।। वा बहुव्रीहेः ॥ २. ४. ५॥ 15 स्वराघोषात् परो यो विहितो वन् प्रत्ययस्तदन्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीप्रत्ययो वा भवति, रश्चान्तादेशः । प्रियावावरी, प्रियावावा स्त्री; बहुधीवरी, बहुधीवा; बहुमेरुदृश्वरी, बहुमेरुदृश्वा स्त्री। स्वराघोषादित्येव-प्रिययज्वा स्त्री ।। ५॥ न्या० स०-वा बहु०। बहुमेरुदृश्वरीति-अन्ये चन्द्रगोम्यादयो “नोपान्त्यवतः"20 [२. ४. १३.] इति प्रतिषेधमिच्छन्तो बहुमेरुदृश्वेत्येव कथयन्ति । स्वमते तु व्यक्त्या सूत्रस्य प्रवर्तनान्न निषेधः ।। २. ४. ५ ।। वा पादः ॥ २. ४. ६ ॥ बहुव्रीहेस्तन्निमित्तकपाच्छब्दान्तात् स्त्रियां डीर्वा भवति । द्विपदी, द्विपात् ; त्रिपदी, त्रिपात्; बहुव्रीहिनिमित्तो यः पादिति बहुव्रीहिणा पाच्छब्दस्य25 विशेषणत्वादिह न भवति-पादमाचष्टे पाद्, त्रयः पादोऽस्या:-त्रिपात् स्त्री ॥६॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ७-८. श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३५६ न्या० स० –– वा पादः । इह न भवतीति - अथ " पदिच् गतौ” इत्यतो ण्यन्तात् क्विपि कृते यत् पादिति रूपं तदिह कस्मान्न विज्ञायते ? उच्यते -पादयतेः क्विबन्तस्य प्रयोगादर्शन मिति प्रयोगेऽपि वा क्रियाकारकसम्बन्धमात्रं पादः क्विबन्तात् प्रतीयते न तु विशिष्टार्थप्रतीतिः, द्विपाच्छन्दश्व विशिष्टार्थावयव इति ।। २. ४. ६ ।। ऊध्नः ।। २.४.७ ।। ऊधन्निति कृतनकारादेशस्योधसो ग्रहणम्, तदन्तान्नाम्नो बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्भवति । कुण्डोध्नी, घटोध्नी, महोध्नी; पीवरोध्नी । "अनो वा " [२. ४. ११.] इति विकल्पे प्राप्ते वचनम् । समासान्तविधौ ' ऊध्न्' इत्यादेशे नान्तत्वादेव ङीः सिध्यति, किन्तु पञ्चभिः कुण्डोध्नीभिः क्रीत इतीकरण तल्लुपिच 'पञ्चकुण्डोध्न्' इति प्रकृतेः सौ पञ्चकुण्डोदिति स्यात् पञ्च - 10 कुण्डोधेति चेष्यते ।। ७ ।। 5 " न्या० स०—ऊध्नः । ऊध्न् इत्यादेश इति प्रयमर्थः - यदि समासान्तविधौ ऊनत्यादेशं न कुर्यात् किन्तु न इत्येव ततः " अनो वा" [ २. ४. ११. ] इत्यनेन विकल्पः स्यात्, न तु “स्त्रियां नृत० " [ २.४. १. ] इत्यनेन नित्यं ङीरिति । पञ्चकुण्डोधेतिननु लुपः पित्त्वात् "क्यङ मानि० " [ ३.२.५०. ] इत्यनेन पुंवद्भावः कथं न भवति ? 15 उच्यते—“कौण्डिन्यागस्त्ययोः ० [ ६.१.१२७. ] इत्यत्र कौण्डिन्यनिर्देशान्न भवति ; यद्वा "स्त्रियामूधसो न्” [ ७. ३. १६६. ] इत्यत्र स्त्रियां विषये व्याख्यानात्, विषयव्याख्यानं हि निर्निमित्तत्वार्थम्, ततो यदि पुंवद्भावोऽभिप्रेतः स्यात् तदा ङयामूधसोऽनिति सनिमित्तकमेव कुर्यात् ; ननु ङयामिति कृते ङीरपि कथम् ? उच्यते - तदा गौरादौ पठयेत ऊधस्शब्दः ; यद्वा उधस इति सूत्रं क्रियेत । ननु ङयामिति कृते ङीरपि कथं ? निमित्तक - 20 व्याख्यानमेव क्रियतां, तस्मिन्नपि न किञ्चिद् विनङ्क्ष्यति, निमित्तव्याख्याने हि " मूल्यैः क्रीते” [ ६. ४. १५०. ] इकरिण तल्लुपि “ङयादे: ०” [ २. ४. ε५. ] इति ङीनिवृत्ती तन्निमित्तकसमासान्तस्यापि निवृत्तिः प्राप्नोति, ततश्च पञ्चकुण्डोधा इति विसर्गान्तं रूपं प्राप्नुयादिति समासान्तविधौ सनिमित्तक प्रदेशो नाकारि ।। २. ४. ७ ।। " अशिशोः ।। २. ४. ८ ।। प्रशिशु इत्येतस्माद् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्भवति । श्रविद्यमानः शिशुरस्या शिश्वी । बहुव्रीहेरित्येव-न शिशुः - प्रशिशुः ।। ८ ।। न्या० स० -- अशिशोः । ननु ऊधन् शब्दस्याशिशुशब्दस्य च बहुव्रीहिविशेषणत्वेन 25 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ६-१२.] समानार्थत्वादेकयोग एव क्रियताम् ? उच्यते-बहुव्रीहावप्यून इति तदन्तस्य विधिः, । अशिशोरिति च स्वरूपस्येति योगविभागः ॥ २. ४. ८ ॥ संख्यादेर्हायनाद् वयसि ॥ २. ४. ६ ॥ संख्यादेयिनशब्दान्तानाम्नो बहुव्रीहेः स्त्रियां वयसि गम्यमाने ङीर्भवति। द्विहायनी, त्रिहायणी, चतुर्हायणी; अत्र “चतुस्त्रेयिनस्य वयसि" 5 [ २. ३. ७४. ] इति णत्वम् । संख्यादेरिति किम् ? अतीतहायना । हायनादिति किम् ? द्विवर्षा कन्या । वयसीति किम् ? द्विहायना, त्रिहायना, चतुर्हायना शाला, कालकृता प्राणिनां शरीरावस्था वय इति णत्वमपि न भवति । बहुव्रीहेरित्येव-शते हायनेषु संभूता जाता भवा वेति इकणि तल्लुपि च-शतहायना स्त्री ।। ६ ।। 10 न्या० स०--सङ्ख्यादे०। इकरिण तल्लुपि चेति-"वर्षाकालेभ्यः" [६. ३. ८०.] इत्यस्य, शकटाभिप्रायेणेदमुक्तम् । तन्त्रोद्योतस्तु शतहायनशब्दस्य कालवाचकत्वाभावे "तत्र कृत०" [ ६. ३. ६४. ] इत्यनेनाणेवेतोच्छति ।। २. ४. ६ ।। दाम्नः ॥ २. ४. १० ॥ संख्यादेमिन्शब्दान्तानाम्नो बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्भवति । द्विदाम्नी,15 त्रिदाम्नी । संख्यादेरित्येव-उद्दामानम्, उद्दामाम्, उद्दाम्नी वडवां पश्य, “अनो वा' [२. ४. ११.] इति विकल्पस्यापवादो योगः ।। १० ।। अनो वा ॥ २. ४. ११ ॥ अन्नन्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्वा भवति । उत्तरत्रोपान्त्यवतः प्रतिषेधादुपान्त्यलोपिन एवायं विधिः । बहुराश्यौ, बहुराजे, बहुराजानौ; दीर्घाणि20 अहानि यस्यां दीर्घाह नी, दीर्घाहा, दीर्घाहाः शरत्; बहुतक्ष्ण्यौ, बहुतक्षे, बहुतक्षाणौ । बहुव्रीहेरित्येव-अतिराज्ञी, निस्तक्ष्णी ।। ११ ।। नाम्नि ॥२. ४. १२ ॥ अन्नन्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां-नाम्नि संज्ञायां नित्यं ङीर्भवति । अधिराज्ञी, Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० १३-१४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३६१ सुराज्ञी नाम ग्रामः; बहुराज्ञी, बहुसाम्नी नाम पुरी; श्रयमप्युपान्त्यलोपवत एव विधिः, नित्यार्थं वचनम्, तेन पक्षे डाप् विकल्पेन न भवति ।। १२ ।। नोपान्त्यवतः ।। २. ४. १३ ।। यस्य उपान्त्यलोपो नास्ति स उपान्त्यवान्, तस्मादन्नन्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्न भवति । नायम् " अनो वा ” [ २. ४. ११ ] इति सूत्रविहितस्यैव 5 प्रतिषेधः, किन्तु “स्त्रियां नृतो०” [२. ४. १. ] इत्यस्यापि । सुपर्वा, सुपर्वारणौ; सुशर्मा, सुशर्माणौ प्रियश्वा, प्रियश्वानौ । उपान्त्यवत इति किम् ? बहुराज्ञी । बहुव्रीहेरित्येव - प्रतिपर्वणी यष्टिः । अन इत्येव सदण्डिनी ।। १३ ।। न्या० स०-- नोपान्त्य ० । उपान्त्यलोपो नास्तीति - " न वमन्तसंयोगात् ” [ २.१.10 १११. ] इति निषेधेनेत्यर्थः । स्त्रियां नृत इत्यस्यापीति - अन्यथा “नोऽनुपान्त्यवतो वा" इत्येकयोगः क्रियेत । प्रतिपर्वणीत्यत्राव्युत्पत्तिपक्षाश्रयणात् "णस्वराघोष० " [ २. ४. ४. ] इति ङी रश्च न भवति, किन्तु नान्तत्वात् “ स्त्रियां नृत: ०" [२.४. १.] इत्यनेन [ङीः ] । सदण्डिनीति - श्रत्र "इनः कच्" [ ७. ३. १७०. ] इति कच् प्राप्तः “सहात् तुल्ययोगे” [ ७. ३. १७८. ] इति निषिध्यते ।। २. ४. १३ । 15 मनः ।। २. ४. १४ ॥ तेन मनन्तान्नाम्नः स्त्रियां ङीर्न भवति । सीमा, सीमानौ, पामा, पामानौ । *प्रनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवता चानर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति महिमानमतिक्रान्ता-प्रतिमहिमेत्यादावपि ङीप्रतिषेधो भवति । बहुव्रीहेरिति निवृत्तं योगविभागात् ।। १४ ।। 20 न्या० स० -- मनः । ङीनं भवतीति- बहुव्रीहौ मन्नन्तेऽपि अन्नन्तद्वारा ङीर्भवत्येव, यथा "दातु प्रदानोचितभूरिधाम्नीम्" [ किराता० स. ३. ] इति । श्रतिमहिमेत्यत्र प्रतिक्रान्तो महिमा ययेति बहुव्रीहौ "अनो वा" [ २. ४. ११.] इत्यस्य " मनः " [ २. ४. १४. ] इत्यस्य च द्वयोरन्यत्र चरितार्थत्वात् परत्वात् प्राप्तमपि प्रतिषेधं बाधित्वा विशेषविहितत्वाद् "अनो वा” [ २. ४. ११. ] इति विकल्प एव । योगविभागादिति-न25 मन्नुपान्त्यवद्भ्यामित्येवंरूपात् ।। २. ४. १४ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते ताभ्यां वाssप् डित् ॥ २. ४. १५ ॥ मन्नन्तान्नाम्नोऽन्नन्ताच्च बहुव्रीहेः स्त्रियामाप् प्रत्ययो वा भवति, स च डित् ; पक्षे यथाप्राप्तम् । सीमे, सीमा:; सुपर्वे, सुपर्वाः; पक्षे पूर्वाभ्यां प्रतिषेधाद् ङीर्न भवति - सीमानौ, सीमानः; सुपर्वाणी, सुपर्वाणः । उपान्त्यलोपिनस्तु बहुव्रीहेर्डीरपि भवति- बहुराजे, बहुराजाः ; बहुराजानौ, बहुराजानः; 5 बहुराज्ञ्यौ, बहुराज्ञ्यः । उद्दामाम्, उद्दामानम्, उद्दाम्नीं वडवां पश्य । “दातुं प्रदानोचित - भूरिधाम्नीमुपागतः सिद्धिमिवास्मि विद्याम् ।" [ किराता० स० ३.] । एवमुपान्त्यलोपिनोऽन्नन्तस्य बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीडाट्विकल्पाभ्यां त्रैरूप्यम् । उपान्त्यवतस्तु डाप्रतिषेधाभ्यां द्वैरूप्यं भवति । डित्करणमन्त्यस्वरादिलोपार्थम् । डाप् इत्यकृत्वा डिद्विधानमुत्तरत्राप एवानु- 10 वृत्त्यर्थम् ।। १५ ।। ३६२ ] [ पा० ४. सू० १५-१६.] न्या० स० -- ताभ्यां वा । पूर्वाभ्यामिति - " मनः” [ २. ४. १४ . ] " नोपान्त्यवतः " [ २. ४. १३. ] इत्येताभ्याम् । " महत्त्व योगाय महामहिम्नामाराधनीं तां नृपदेवतानाम् । दा प्रदानोचितभूरिधाम्नीमुपागतः सिद्धिमिवास्मि विद्याम् ।। " त्रैरूप्यमिति - " वा बहुव्रीहेः " [ २.४. ५. ] इति वचनात् वन्नन्तस्यापि त्रैरूप्यं, न सुधीवे, सुधीवान सुधीवयौं ।। २. ४. १५ ।। 15 अजादेः ।। २. ४. १६ ॥ अजादिभ्य प्रवृत्त्याऽजादीनामेव स्त्रियां वर्तमानेभ्य प्राप् प्रत्ययो भवति, बाधकबाधनार्थमनकारार्थं च वचनम् । प्रजा, एडका, अश्वा, चटका, मूषिका, 20 कोकिला ; एभ्यो जातिलक्षणस्य ङीप्रत्ययस्यापवाद प्राप्; बाला, होडा, पाका, वत्सा, मन्दा, विलाता, कन्या, मध्या, मुग्धा; विलातेत्यन्ये न पठन्ति तेनविलातीत्यपि, एभ्यो वयोलक्षणस्य; ज्येष्ठा, कनिष्ठा, मध्यमा; एभ्यो धवयोगलक्षणस्य च; पूर्वापहारणा, अपरापहारणा, निपातनाद् णत्वम्, संप्रहाणा, परप्रहाणेत्यप्यन्ये, एषु टिल्लक्षणस्य; त्रीणि फलानि समाहृतानि 25 त्रिफला, अत्र द्विगुलक्षणस्य | क्रुञ्चा, देवविशा, उष्णिहा; एषु व्यञ्जनान्त Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० १७.] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३६३ त्वात् "आत्" [ २. ४. १८. ] इत्यनेनाप्राप्तेरजादिपाठः, कश्चिदेतेभ्यो विकल्पेनेच्छति; तन्मते - क्रुङ्, देवविट्, उष्णिक् । अन्ये तु - क्रुञ्चानालभेत, उष्णिहककुभौ, देवविशश्च मनुष्य इति प्रयोगदर्शनात् अकारान्ता एवैत इति मन्यन्ते । अजादेरित्यावृत्त्या षष्ठीसम्बन्धः किम् ? अजादिसम्बन्धिन्यामेव स्त्रियामभिधेयायां यथा स्यात्, तेनेह न भवति - पञ्चानामजानां समाहारः- 5 पञ्चाजी, दशाजी; अत्र समाहारः समासार्थ स्त्री; नासावजशब्दसंबन्धिनी; अत एव च ज्ञापकादत्र स्त्रीप्रकरणे तदन्तादपि भवति, तेन - महांश्चासावश्चेति सामान्येन विग्रहे स्त्रीविवक्षायां महाजा परमाजेति सिद्धम्, एवमतिभवती, अतिमहती, प्रतिधीवरी, अतिपीवरी, परमशूद्रत्यादि ।। १६ ।। न्या० स०—–श्रजादेः ० । एडकेत्यत्र 'ईडिक्' "कीचक० " [ उरणा० ३३. ] इति 110 बालेति–“बल प्राणने" बलतीति वा ज्वलादिणः । होडा इत्यत्र "हुरत् निमज्जने" ण्यन्तादचि उरणाद्यप्रत्ययो वा । मन्देति - ' मदुङ' प्रचि, उरणाद्यप्रत्ययो वा । मन्दाविलाते इति-मध्यमवपसौ स्त्रियौ । मध्येति “शिक्यास्याज्य मध्य ० " [ उणा० ३६४. ] इति निपातनात् मध्या । विपूर्वाल्लातेः क्त - विलातेति न्यासः । पूर्वापहाणेतिपूर्वश्र्वास पहा पूर्वापहानः, स्त्री चेत् पूर्वापहारणा, एवम् अपरापहारणा इति - यद्वा 15 पूर्वमपहीयतेऽस्यामिति “करण०” [ ५. ३. १२६. ] इत्यनट्, यद्वा अपहीयतेऽस्यामनया वा “करणाधारे” [ ५. ३. १२६ ] अनट् । अपहानशब्दोऽपि टिद्वारेण ङीप्रत्ययाभावार्थमादौ द्रष्टव्य:, तेन पूर्वा च साऽपहाना चेति प्राबन्तेन वाक्यं कार्यम्, क्रियाशब्दत्वाच्च "पूर्वपदस्था०" [ २.३.६४ ] इति णत्वाभावः । संप्रहीयते परेण प्रहीयते भुजिपत्यादिनाऽनट् स्वराण्णत्वम् । क्रुञ्चा, उष्णिहा, देवविशेत्यादि - अत्र त्रयोऽपि 20 क्विबन्ताः, छान्दसा एते इति पूर्वे इति न मतव्यक्त निबन्धः कृतः । नामग्रहणे न तदन्तस्य इति न्यायादजाद्यन्तादापः प्राप्तिरेव नास्ति किमावृत्तिव्याख्यानेनेत्याहएव चेति ।। २. ४. १६ ।। ऋचि पादः पात्-पदे ॥ २. ४. १७ ॥ पादिति कृतपाद्भावः पादशब्दो गृह्यते, तस्याबन्तस्य ऋच्यभिधेयायां 25 पात् पदेति निपात्यते । त्रिपात् चतुष्पात् ऋक्, त्रिपदा गायत्री, चतुष्पदा पङ्क्तिः । ऋचीति किम् ? द्विपाद्, द्विपदी; चतुष्पाद्, चतुष्पदी ।। १७ ।। न्या० स० -- ऋचि पादः० । ननु " ऋचि पादो वा" इति क्रियताम्, ऋचि अभिधेयायां वाप् भवतीति सूत्रार्थः, न विकल्पपक्षे ऋच्यभिधेयायामपि " वा पादः " Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० १८-१६.] [२. ४. ६. ] इति ङी: स्यात् । “वा पादः" [ २. ४. ६. ] इति प्राप्तेऽयमारभ्यते । ॥ २. ४. १७॥ आत् ॥ २. ४. १८ ॥ अकारान्तानाम्नः स्त्रियां वर्तमानादाप् प्रत्ययो भवति । खट्वा, सर्वा, या, सा। खट्वादीनामकारान्तत्वम्-अतिखट्वः, प्रियखट्वः; पञ्चभिः 5 खट्वाभिः क्रीत:-पञ्चखट्व इत्यादिप्रयोगदर्शनात्, उपदेशाच्च निश्चीयते । आदिति किम् ? सोमपाः स्त्री, दृषद्, समिद्, आदित्यधिकृतमुत्तरत्र यथासम्भवं योजनीयम् ॥ १८ ।। न्या० स०--प्रात् । ननु या सेत्यादीनां 'यः, सः' इत्यादावकारान्तप्रयोगदर्शनादकारान्तत्वनिर्णयादस्तु तत आ, खट्वादीनां तु नित्यं स्त्रियां वर्तमानत्वादकारान्त-10 प्रयोगादर्शनात् तदनिश्चयात् कथं तेभ्य आबित्याशङ्कयाह-खट्वादीनामिति । उपदेशाच्चेति-यद्यकारान्तो न स्यात् ततो नाबन्त इति तस्यापद्वारेण ह्रस्वोऽपि न स्यादित्यर्थः । प्रादिति किमिति-अवर्णादिति क्रियतामित्यर्थः। सोमपाः स्त्रीति-सोमं पिबतीति विच्, आदिति वचनादत्राप् न भवति । ननु चात्राप्भावाभावयोराकारश्रुतेस्तथैव विद्यमानत्वात् किं तद्भावेन विनश्यतीति ? उच्यते-प्रापि सति “दीर्घड्याब्०"15 [१. ४. ४५.] इति सेर्लोपः स्यात्, तथा सोमपः कन्याः पश्येत्यत्र "लुगातोऽनापः" [२. १. १०७.] इति शसि लुग् न स्यात् ॥ २. ४. १८ ॥ गौरादिभ्यो मुख्यान्डी ॥ २. ४. १६ ॥ गौरादेर्गणान्मुख्यात् स्त्रियां ङीः प्रत्ययो भवति, मुख्यादित्यधिकारोऽयम् । गौरी, शबली। गौर, शबल, कल्माष, सारङ्ग, पिशङ्ग, हरिण,20 पाण्डुर, अमर, सुन्दर, विकल, विष्कल, पुष्कल, निष्कल; गौरादीनां गुणवचनत्वेनाजातिवाचित्वादप्राप्ते पाठः । यस्तु विकलेति कालविशेषवाची पाबन्तः स विगता कलेति भविष्यति । दास, चेट, विट, भिक्षुक, बन्धक, पुत्र, गायत्र, आनन्द, टेट, कटेट, नट; एषामजातिवचनत्वादप्राप्ते पाठः । काव्य, शैव्य, मत्स्य, मनुष्य, मुकय, हय, गवय, ऋश्य, दुरण, प्रोकण; एषां जातिवाचित्वेऽ-25 प्यष्टानां यान्तत्वाद् द्रुणौकणयोनित्यस्त्रीविषयत्वादप्राप्ते पाठः । भौरिकि, भौलिकि, भौलिङ्गि, औद्गाहमानि, प्रालम्बि, पालच्चि, कालच्चि, सौधर्म, Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० १६. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः ३६५ आयस्थूण, आग्ट्ट; भौरिकि भौलिक्योः क्रौड्यादित्वात्, शेषाणां त्वरिणञन्तानां गुरूपान्त्यत्वात् ष्ये प्राप्ते पाठः । कथं भौरिक्या ?, भौलिक्या ? क्रौडयादिपाठात् ष्योऽपि । आपच्चिको राष्ट्रसरूपः क्षत्रियस्तस्यापत्यं स्त्री अपच्चिकीत्यत्र शकादित्वात् ञ्यलोपेऽपि जातिवाचित्वाद् ङीर्भवति, एवं दोटी । वरट, नाट, 5 मूलाट, पाट, पाट, पेट, पट, पटल, पुट, कुट, फाण्टश, धातक, केतक, तर्कार, शर्कार, बदर, कुवल, लवण, बिल्व, आमलक, मालत, वेतस, अतस, आढक, कदर, कदल, गुडूच, बाकुच, नाच, माच, कुम्भ, कुसुम्भ, यूष, मेथ, सूष, मूष, करीर, सल्लक, वल्लक, मल्लक, मालक, मेध, पिप्पल, हरीतक, कोशातक, शम, तम, सुसव, शृङ्ग, भृङ्ग, बिम्ब, बर्बर, पाण्ड, लोहाण्ड, शष्कण्ड, पिण्ड, 10 मण्डर, मण्डल, यूप, सूप, सूर्प, सूर्म, मठ, पिठर, ऊर्द, गूर्द, सूर्द, खार, काकरण, द्रोण, अरीहण, उकरण, वृश, आसन्द, अलिन्द, कन्दल, सलन्द, देह, देहल, शष्कुल, शच, सूच, मञ्जर, अलज, गण्डज, वैजयन्त, शालूक, उपरतस, छेद; एषां नित्यस्त्रीविषयत्वादप्राप्ते पाठः । क्रोष्टु, सरस्; अनयोरनकारान्तत्वादप्राप्ते पाठः। अनड्वाही, अनडुही; अत एव पाठादनडुह, शब्दस्य ङयामुकारस्य 15 पक्षे वाशब्दादेश: सौ नित्यं नागमाभावश्च । प्रत्यवरोहिणी, पृथिवी, आग्रहायणी; सप्रत्ययपाठः पुंवद्भावनिषेधार्थः । अनड्वाहीभार्यः, अनडुही वृन्दारकेत्यादि तद्धितलोपेऽपि लुगभावार्थश्च । पञ्चानड्वाहिः, दशानडुहिः, श्राश्मरथ्यः ; गोत्रयञन्ताद् डायन् मा भूत्, ङघ ेव यथा स्यादित्यस्य पाठः । एहि, पर्येहि; अनयोरिदन्तत्वाद् विकल्पे प्राप्ते 20 नित्यार्थः पाठः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन - नद, मह, भष, प्लव, चर, गर, तर, गाह, देव, सूद, अराल, उदवड, चण्ड, उमाभङ्ग, हरीकरण, वटर; अधिकार । एषण करणे इति केचित् इष्यते - अन्विष्यतेऽनया दोष इति "इषोऽनिच्छायाम्" [५. ३. ११२. ] इत्यने सति एषणी - वैद्यशलाका; करणादन्यत्रैषरणा, अन्वेषणा; आबेव; तदन्ये न मन्यन्ते । मुख्यादिति किम् ?,25 बहुदा भूमिः ।। १९ ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० १६.] न्या० स०--गौरादिभ्यो। गौरेति-गूयते उपादेयता "खुर-क्षर०" [उणा० । ३६६.] इति निपातः, यद्वा “गुरैत् गुरति मनोऽस्मिन् घनि गोर एव गौर इति क्षीरस्वामी। शाम्यति एकत्वमिति “शमेव च वा" [ उणा० ४७०. ] इत्यनेनाऽलप्रत्ययः, मकारस्य वः । कलयति "कुलेश्च माषक्” [ उणा० ५६३. कल्माष ] सरति वर्णभावम् "सृ-व-न भ्यो रिणत्" [ उणा० ६६. ] अङ्गः [सारङ्ग]। “पिशत् अवयवे' पिशतीति 5 "विडि-विलि-कृरि-मृदि-पिशिभ्यः कित्" [उणा० १०१. ] अङ्ग पिशङ्ग। हरतीति"ह-वृहि-दक्षिभ्य इणः" [ उणा० १६४. ] [हरिण] पण्डते मनोऽत्रेति “जठर०" [ उणा० ४०३. ] इति साधुः [पाण्डुर]। सुष्ठु नन्दयत्यच् “पृषोदर०" [३. २. १५५.] इति सुन्दर, अथवा सुन्दिः सौत्रः सौन्दर्ये वर्तते । विपूर्वात् कले: “अः" [ उणा० २. ] इत्यप्रत्यये, यत्र विकला सामग्री तत्र विगता कला लेशो यस्याः, अन्यत्र विकल्पे च ।10 विष्कल इति-गणपाठसामर्थ्यात् षकारः, यद्वा “वर्चस्कादि०" [ ३. २. ४८.] इति षकारः। [पुष्कल] पुष्कलार्थ पृषेः कलक। निष्कलेत्यत्र निसपूर्वात कलेरप्रत्यये "निर्दुर्." [२. ३. ५६.] इति षत्वम् । चेटतीति लिहाद्यचि-चेटः। “विट शब्दे" इत्यतो "नाम्युपान्त्यः" [ ५. १. ५४. ] इति के-विटः। टेकते "अः" [उणा० २.] इत्यकारे बाहुलकत्वात् कस्य टत्वे टेटः। अट पट इट एटतीति "नाम्युपान्त्य०"15 [ ५. १. ५४. ] इति के इट:, कटशब्देन षष्ठीसमासः। “नट नृत्तौ” नटतीत्यच्, एते त्रयोऽपि नर्तकाः । कवेः शिवेरपत्यं “कुर्वादि०" [६. १. १००.] “दुनादि०" [६. १. ११८. ] इति ज्ये-काव्य शैव्य, ततो ङ्यां "व्यञ्जनात्तद्धितस्य" [ २. ४. ८८.] इति यलोपे-कावी शैवी। मुकय इति-वेसरः । द्रुणेति-कच्छपी। अोकणेति-"उचच् समवाये" चिक्कणादिनिपातनादणे कत्वे च-पोकरण, ङ्यामोकणी, श्रीकरणादिव्या-20 पारानन्तरं गुप्त्यादौ पर्यन्तबन्धनस्य किलाख्या। भौरिकीत्यत्र-भवते: “भू-सू-कुशि०" [उणा० ६६३.] इति किति रिप्रत्यये स्वाथिके के च-भूरिक, ऋफिडादित्वाल्लत्वेभूलिक, तयोरपत्यम् “अत इञ्" [६. १. ३१.] । भौलिङ्गीति-"भलि परिभाषणादौ" "भलेरिदुतौ चातः" [ उणा० १०३. ] इङ्गकि अकारस्योकारे-भुलिङ्ग, अथवा भुवि लिङ्ग कीतिरस्येति वा पृषोदरादित्वात् भुवो ह्रस्वत्वे-भुलिङ्ग, तस्यापत्यं भौलिङ्गि25 "सात्वांश०" [ ६. १. ११७. ] इति इञ् । आलच्चीत्यत्र "अली भूषण." शतृ, कलण शतृ अलन्तं कलन्तं चिनोति "क्वचित्" [ ६. २. १४५. ] अलच्चस्यापत्यं कलच्चस्यापत्यम् “अत इञ्" [६. १. ३१.]। सौधर्मति-सुधर्मस्यापत्यम् ऋष्यण तदा डीः सिद्ध एव, अथवा शोभनो धर्मो यस्याः “द्विपदाद्धर्मादन्" [७. ३. १४१.] इत्यन्, “ताभ्यां वाप् डित्" [ २. ४. १५. ]30 डापि-सुधर्मा, सुधर्माया अपत्यं “ड्याप्त्यूङः" [ ६. १.७०.] इति एयणबाधक: "प्रदोर्नदी०" [ ६. १. ६७. ] इत्यण्, यद्वा सुधर्मणोऽपत्यं “ङसोऽपत्ये" [ ६. १. २८. ] अण् । आयस्थूणेति-अयस्थूणस्यापत्यं शिवादेरण्, यद्वा "ऋषि-वृष्ण्यन्धक०" [.६. १. ६१. ] कुरुद्वारोऽण, प्रायस्थूण ऋषिः । अरदस्यापत्यम् “ऋषि-वृष्ण्यन्धक०" [६.१.६१.] Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३६७ इति कुरुद्वारोऽण् । आपच्चिकीति - प्रपदं चिन्वन्ति परेषां "क्वचिड्डः” [उरणा० १६८.] प्रापच्चाः पुरुषास्ते अस्य सन्ति “अतोऽनेक० " [ ७. २. ६. ] इति इकः । आ समन्तात् पिच्चयति शत्रून् “कुशिक ०" [ उणा० ४५. ] इति वा साधुः । अपच्चि - कस्यापत्यं "दुनादि ० " [६. १. ११८ ] इति ञ्यः, शकादित्वाल्लुप् । दोटीति-दोटस्यापत्यं “पुरमगध०” [ ६. १. ११६. ] इत्यण् "द्व ेरञणोऽप्राच्य०" [ ६. १. १२३. ] इति 5 लुप् । नाटी प्रोषधिः । मूलाटी प्रोषधिः । पाटेति गरिणतम् । सुपाटेति-छेदपाटी । पेटी समूहः । फाण्टशी प्रोषधिः । धातकी वृक्षविशेषः । तर्करी प्रोषधिः । शर्कारी वृ० वि० । लवणी प्रो० । कदरीकदल्यौ - वृक्षौ । गुडूची प्रो० । बाकुची " कूर्च ० ' [ उणा० ११३. ] इति साधुः । बावची | नाची - माच्यौ श्रोषध्यौ । कुम्भी आधार: शाकविशेषश्च । कुसुम्भी प्रो० । पूषी प्रो० यवागूविशेषो वा । मेषी प्रो० । सूषी 10 शाकवि० । मूषी - मूषिका करीरी दन्तमूलम् । वल्लकी वीणा । मल्लकी विचिकिलः । मालकी प्रोषधिः, ग्रामान्तराटवी च । मेथी वाली शकटन्यासे । “मुरलोरल ०" [ उणा० ४७४.] इति पिष्पलः । कोषातक इति केचित् । कोषं कोशं चातति रणके । शमी शिवा वृक्षश्च । सुषवी शाकभेदः कृष्णजीरकं कारवेल्लः कपिकच्छूव । सुसवीति पाठ इति केचित् । शोभनः सवोऽस्याः । शृङ्गी विषं कारवेल्लच । भृङ्गी प्रो० । बर्बरी 15 ओ०, कुञ्चितकेशा च । पाण्डी प्रो० । लोहाण्डेति - लोहमिवाण्डं यस्या लोहाण्डी नाम शकुनिः, प्रोषधिश्व | rorust श्रो० । मण्डरी प्रो० । मण्डली प्रो० समुदायश्च । पूपी सूपी सूर्पी प्रोषध्यः | सूर्मी लोहमयी प्रतिमा । पिठरी स्थाली । ऊर्दी विमानविशेषः । गूद्द क्रीडा । सूद्द प्र० । [ पा० ४. सू० १६. ] " " काकणेति - काकान् नयतीति "क्वचिड्ड: " [ उणा० १६८. ] “पृषोदर ० " 20 [ ३. २. १५५. ] इति णत्वम् । द्रोणी जलक्षेपणी कुण्डिका । अरीहणी प्रो० । उकणी प्रो० क्षुद्रजन्तुश्च । वृसी तालव्योपान्त्योऽपि । प्राङ सम्- ददाते: “उपसर्ग ०” [ ५. ३. ११० ] इति डे - श्रासन्दः । लिन्दी संनिपातहन्त्री प्रोषधिः । कन्दली प्ररोहः । सलन्दी देही प्रोषध्यौ । मञ्जः सौत्रात् मञ्जरी । अलजी प्रो० । गण्डाज्जायते इति " पृषोदर० ” [३. २. १५५ ] इति गण्डजी प्रो० । विजयन्तस्येयं वैजयन्ती । शालूकी 25 ओ० । उपरि तस्यतीति गणपाठादेरत्वम् - उपरतसी प्रो० । छेदी प्रो० । प्रत्यवरोहतीत्येवंशीला क्रियाशब्दः प्रत्यवरोहिणी । ननु तथापि पृथिवीशब्दस्याग्रहायणीशब्दस्य च स्वतः स्त्रीत्वात् " परतः स्त्री० " [ ३. २.४६ ] इति पुंवद्भावो न भविष्यति किमर्थमनयोस्तथा पाठः, उच्यते - नहि सप्रत्ययपाठस्य पुंवद्भाव एव प्रयोजनं किन्तु तद्धितलोपे लुगभावोऽपि तत्र क्वचिद्वयं यथासंभवमूहनीयम् । श्रनड्वाहीभार्य इति - 30 अनड्वाही शब्दो व्यक्तौ प्रवर्तितः, जातिवाचित्वे तु "स्वाङ्गान्ङी० " [ ३. २. ५६. ] इत्यनेन पु ंवन्निषेधः सिद्धः । प्राङपूर्वस्य “ईहि चेष्टायाम्" इत्यस्य हते इति वाक्ये “मन्यादिभ्यः किः” इति कौ - एहि, एवं पर्येहते पर्येहिः । चरी गूढपुरुषी । गरी भक्षिका । तरी तरित्री स्त्री । गाही अवगाहिका । सूदी सूपकारिणी । अराल इति Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० ४. सू० २०. ] पक्षिविशेषार्थोऽत्र द्रष्टव्यः, वक्रार्थस्तु शौरणादौ द्रष्टव्यः । उदवड इति - "वड प्राग्रहणे " सौत्रो धातुः, उदकं वडति इति उदवडः पानीयहारिणीवाचकः कृमिजातिविशेषो वा । चण्ड इति - गौरीवाचक श्वण्डशब्दोऽत्र द्रष्टव्यः, कोपनावाचकस्तु शोरणादौ द्रष्टव्यः । उमाया भङ्ग इव भङ्गो यस्याः । हरी श्रोषधिस्तस्या इव करणा यस्या:, हरयः सुवर्णवर्णाः करणा यस्या वा । वटर: क्षुद्रजन्तुः, अधिकारं कारयति या स्त्री । करणे इति - 5 करणकारके इत्यर्थः । " ईषच् गतौ" ।। २. ४. १६ ।। अणत्रेयेकण्-नत्र-स्नञ् टिताम् ॥ २. ४. २० ॥ अरणादिप्रत्ययानां योऽकारस्तदन्तान्नाम्नः प्रत्यासत्तेस्तेषामेवाणादीनां वाच्यायां स्त्रियां वर्तमानाद् ङीर्भवति । प्रण - उपगोरपत्यमौपगवी, तपोऽस्या अस्तीति तापसी, कुम्भकारी, काण्डलावी याति; अञ् - उत्सस्यापत्यमौत्सी, 10 दिस्यापत्यं पौत्री - बैदी, छत्र - चुरा - तपः शीलेति छत्रादित्वादत्रि - छात्री, चौरी, तापसी; एयण - सुपर्ण्या अपत्यं सौपर्णेयी, वैनतेयी; एयच् - शिलायास्तुल्या शिलेयी, एयञ् - शैलेयी, “ शिलाया एयच्च" [ ७. १. ११३. ], निरनुबन्धनिर्देशः सामान्यग्रहणार्थः । इकरण - अक्षैर्दीव्यति प्राक्षिकी, प्रस्थेन क्रीता प्रास्थिकी; नम् - स्त्रिया अपत्यमियं वा स्त्रैणी; स्नञ् - पुंसोऽपत्यमियं वा पौंस्नी; टित्-15 जानु ऊर्ध्वं प्रमाणमस्या जानुदघ्नी, जानुद्वयसी, जानुमात्री, पञ्च अवयवा यस्याः पञ्चतयी, एवं द्वयी, त्रयी; शक्तिरायुधमस्याः शाक्तीकी, एवं याष्टीकी; ह्यो भवा ह्यस्तनी, एवमद्यतनी, श्वस्तनी, चिरन्तनी, परुत्तनी; भूतपूर्वा भिक्षु: - भिक्षुचरी, सक्त धानी, गायनी, कुरुचरी; प्रत्ययसाहचर्यादागमटितो न भवति - पठिता विद्या । शुनिन्धयी, स्तनन्धयीत्यादौ तु धातोष्टि- 20 त्करणस्यानन्यार्थत्वादटितोऽपि भवति । अरणादीनां षष्ठीनिर्देशेनाकारस्य विशेषणं किम् ? पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्, “ तदधीते० " [ ६. २. ११७.] इत्यरण, तस्य "प्रोक्तात्" [ ६. २.१२६ . ] इति लोपे - पाणिनीया कन्येति ङीर्यथा मा भूत् । प्रत्यासत्त्या तैरेवाणादिभिः स्त्रिया विशेषणं किम् ? गौतमेन प्रोक्ता नीतिगतमीति, ताम् “अधीते” [६. २. ११७.] इत्यण,25 तस्य " प्रोक्तात्" [६. २. १२६ . ] इति लोपे "ङयादे० " [२. ४. ε५.] इत्यादिना ङीलोपे च ङीर्यथा न स्यात् - गौतमा कन्या, अस्त्यत्राणोऽकारो न तु तदभिधेया नीतिलक्षणा स्त्रीप्रत्ययार्हा, यदभिधेया तु कन्यालक्षरणा स्त्रीप्रत्ययार्हा Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० २१-२२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३६६ न तस्याकारोऽस्ति इति । तथा बहुकुम्भकारा नगरी, बहुकुरुचरेत्यादि । २० ॥ न्या० स०-अरणजेयेकण ०। काण्डान् लविष्यामीति काण्डलावी "कर्मणोऽण" [५. ३. १४.] । पाणिनीयमिति-पणनं पणः "पणेर्माने" [५. ३. ३२.] अल्, सोऽस्यास्तीति पणी, तस्यापत्यं वृद्धं "ङसोऽपत्ये' [ ६. १. २८. ] अण्, पाणिनस्यापत्यं 5 युवा “प्रत इञ्" [ ६. १. ३१. ], पाणिनिना प्रोक्त "तेन प्रोक्त" [ ६. ३. १८१. ] इति विषये "यूनि लुप्" [ ६. १. १३७. ] इति इत्रो लुप्, अन्यथा “वृद्धत्रः" [६.३.२८.] इति स्यात्, यतो "वृद्धाधुनि" [ ६. १. ३०.] इत्यत्र यूनोऽपि वृद्धसंज्ञाकार्यदर्शनादित्युक्तम्, ततोऽत्रापि इजन्तस्यावृद्धेऽपि वर्तनं ज्ञेयं, ततो "दोरीयः" [६. ३. ३२.] । बहुकुम्भकारा नगरीति-अत्र बहवः कुम्भकारा यस्यामिति कार्यम्, यदा तु बह्वयः10 कुम्भकार्यो यस्यामिति क्रियते तदा "ऋन्नित्यदितः" [७. ३. १७१. ] इति कचि बहुकुम्भकारीकेति भवति ।। २. ४. २० ॥ वयस्यनन्त्ये ॥ २. ४. २१ ॥ प्राणिनां कालकृता शरीरावस्था बाल्ययौवनादि वयः, तस्मिन्ननन्त्येऽचरमे वर्तमानादकारान्तान्नाम्नः स्त्रियां ङीर्भवति । कुमारी, किशोरी, वर्वरी,15 कलभी, तरुणी, तलुनी, वधूटी, चिरिण्टी। धवयोगाभावविशिष्टं वयः कुमारीशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तम्, न तु धवयोगाभावमात्रम्; वृद्धकुमारी तु उपमानात् । अनन्त्य इति किम् ? वृद्धा, स्थविरा। आदित्येव-शिशुः । कथं द्विवर्षा ?, त्रिवर्षा ?, उत्तानशय्या ?, लोहितपादिकेति ? नैता वयःश्रुतयोऽर्थात् तु वयो गम्यते । बाला वत्सेत्यादयस्त्वजादौ ।। २१ ।। 20 न्या० स०--वयस्य०। कूमारीति-एतेषां कूमारादयश्चत्वारः प्रथमवयोवचनाः, किञ्च तदन्तादपि विधिरिष्टः, परमश्चासौ कुमारश्च, स्त्री चेत् परमकुमारी। तरुणीतितरुणादयस्तु तावन्त एव कौमारादुत्क्रम्य नययौवनवचना इति । द्विवर्षा इति-द्वे वर्षे भूता "प्राणिनि भूते" [६. ४. ११२. ] इत्यः। उत्तानशय्येति-उत्ताना शेते "ऊर्ध्वादिभ्यः०" [ ५. १. १३६. ] अः ।। २. ४. २१ ॥ 25 दिवगोः समाहारात् ॥ २. ४. २२ ॥ समाहारद्विगुसंज्ञकान्नाम्नोऽकारान्तात् स्त्रियां ङीर्भवति । पञ्चपूली, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० २३.] पञ्चाजी, दशराजी, द्विकुडवी, पञ्चकुमारी। कथं त्रिफला ? ' अजादिपाठात् ।। २२ ॥ न्या० स०-द्विगोः समा०। सम्यगाहरणमेकीकरणं समाहारः। समाहारद्विगुसंज्ञेति-समाहारविशेषितेन द्विगुना नाम विशिष्यते, अयमर्थ:-समाहृति विना पञ्च रात्रयः प्रिया अस्य पञ्चरात्रप्रिय इत्यादावपि ङी: स्यात् । ननु द्वन्द्वसमाहारस्य "द्वन्द्व - 5 कत्व०" [लिङ्गानुशासने] इति नपुंसकत्व विधानेन स्त्रीत्वाभावात् समाहारादित्युक्तऽपि द्विगो: समाहारादिति लप्स्यते, कि द्विगग्रहणेन ?, अथोत्तरार्थमित्यपि न वाच्य तद्धितलुकीति करणात्, नैवम्-समाहारादित्युक्तौ समाहारान्तान्नाम्न इत्याशङ्कयेत, ततश्च वाक्त्वचमतिक्रान्ता अतिवाक्त्वचीति स्यात्, इष्टं च अतिवाक्त्वचेति ।। २.४.२२ ॥ 10 परिमाणात् तद्धितलुक्यबिस्ताsचित-कम्बल्यात् ॥२. ४. २३ ॥ परितः-सर्वतो मानं परिमाणम्, तच्च रूढिवशात् प्रस्थादि, यदाहुः "ऊर्ध्वमानं किलोन्मानं परिमाणं तु सर्वतः । आयामस्तु प्रमाणं स्यात् संख्या बाह्या. तु सर्वतः" ।। १ ।। 15 बिस्तादिभ्यो यदन्यत् परिमाणं तदन्ताद् द्विगोरकारान्तात् तद्धितलुकि स्त्रियां ङीर्भवति । द्वाभ्यां कुडवाभ्यां क्रीता-द्विकुडवी, त्रिकुडवी; द्वयाढकी, त्र्याढकी। परिमाणादिति किम् ? पञ्चभिरश्व : क्रीता-पञ्चाश्वा दशाश्वा; द्विशता, त्रिशता। तद्धितलुकीति किम् ? द्विपण्या। अबिस्ता-ऽचितकम्बल्यादिति किम् ? द्वाभ्यां बिस्ताभ्यां क्रीता-द्विबिस्ता, त्रिबिस्ता,20 द्विपरमबिस्ता; द्वयाचिता, व्याचिता; द्विकम्बल्या, त्रिकम्बल्या ।। २३ ।। न्या० स०--परिमारणा० । सर्वत आरोह-परिणाहाभ्यां मीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेति परिमाणम्, परिच्छित्तिक्रियाकरणमात्रं परिमाणं नेह ग्राह्य, मानादित्यकरणादित्याहतच्चेति । तदन्तादिति-अर्थे कार्यासम्भवादिह, परिमाणवाची यः शब्दस्तदन्तादित्यर्थः । आढौकते मानाय अचि पृषोदरेत्यादिना साधुः, अथवा "कोचक०" [ उरणा० ३३. ]25 इति साधुः। द्विशतेत्यादि-"शताद्यः" [ ६. ४. १४५. ] इत्यस्य विधानसामर्थ्यान्न लुप, तस्य च विकल्पेन प्रवृत्तेः पक्षे “संख्या-डते:०" [ ६. ४. १३०. ] इति कः, “अनाम्न्यद्विः प्लुष्" [ ६. ४. १४१. ] । द्विपण्येति-"पणपाद०" [ ६. ४. १४८. ] इति ये तस्य च Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० २४-२५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३७१ विधानसामर्थ्यादलुपि। ननु बिस्तादय उन्मानवचनाः, तथाहि-बिस्तशब्देन षष्टिः पलशतान्युच्यन्ते, आचितशब्देन तौलकम्, कम्बल्यशब्देनाप्यूर्णापलशतम्, तत्राऽपरिमाणत्वाद् ङीप्रसङ्गाभावात् किं निषेधेन ?, नैवम्-अनेकार्थानि हि मानानि भवन्ति, तत्र देशविशेषे परिमाणार्थान्यपि तानि सन्ति, तदर्थं युज्यते एव निषेधः। “द्वित्रिबहोनिष्कबिस्तात्” [ ६. ४. ११४. ] इति इकण्लोपो द्विबिस्ताशब्दे ।। २. ४. २३ ।।। काण्डात् प्रमाणादक्षेत्रे ॥२. ४. २४ ॥ प्रमाणवाचिकाण्डशब्दान्तादक्षेत्रविषयाद द्विगोस्तद्धितलुकि सति स्त्रियां ङीर्भवति । आयामः-प्रमाणम्, द्वे काण्डे प्रमाणमस्या:-द्विकाण्डी, त्रिकाण्डी रज्जुः । प्रमाणादिति किम् ? द्वाभ्यां काण्डाभ्यां क्रीता-द्विकाण्डा, त्रिकाण्डा शाटी। अप्रमाणादपीच्छन्त्यन्ये, तन्मते-द्विकाण्डी, त्रिकाण्डी शाटीत्येव भवति ।10 प्रक्षेत्र इति किम ? द्व काण्डे प्रमाणस्या:-द्विकाण्डा, त्रिकाण्डा क्षेत्रभक्तिः । अक्षेत्र इति द्विगोविशेषणं किम् ? काण्डस्य क्षेत्रविषयत्वेऽपि यथा स्यात्द्वाभ्यां काण्डाभ्यां क्षेत्रसंज्ञिताभ्यां क्रीता द्विकाण्डी वडवा, नात्र द्विगुः क्षेत्रविषयः, कि तहि ? काण्डशब्द इति ।। २४ ।। न्या० स०-काण्डात् प्र० । क्षियन्ति निवसन्त्युप्तानि बीजानि वृद्धि वा गच्छन्त्य-15 स्मिन्निति "हु-या-मा०" [उणा० ४५१.] इति ।-क्षेत्रम्, षोडशहस्तप्रमाणं काण्डम् । क्षेत्रभक्तिरिति-भक्तिग्रहणं तद्धितार्थस्य स्त्रीत्वार्थम् । क्षेत्रसंज्ञिताभ्यामिति-यकाभ्यां काण्डाभ्यां क्षेत्र परिच्छिन्न ते ते काण्डे अपि क्षेत्रसंज्ञिते ।। २. ४. २४ ।। पुरुषाद् वा ।। २. ४. २५ ॥ प्रमाणवाचिपुरुषशब्दान्ताद् द्विगोस्तद्धितलुकि स्त्रियां ङीर्वा भवति ।20 द्वौ पुरुषौ प्रमाणमस्याः-द्विपुरुषी, द्विपुरुषा; त्रिपुरुषी, त्रिपुरुषा परिखा। प्रमाणादित्येव-द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां क्रीता-द्विपुरुषा, त्रिपुरुषा वडवा। तद्धितलुकीत्येव-पञ्चपुरुषा-रज्जुः, प्रमाणभूताः पञ्च पुरुषाः समाहृताः-पञ्चपुरुषी "द्विगोः समाहारात्" [२. ४. २२.] इति नित्यमेव ।। २५ ।। न्या० स०-पुरुषाद् वा। द्विपुरुषीति-मात्रटो "हस्तिपुरुषाद् वाण्" [ ७. १.25 १४१. ] इत्यणो वा "द्विगो: संशये च' [ ७. १. १४४. ] इति लुप् ।। २. ४. २५ ।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते . [पा० ४. सू० २६-२८.] रेवत-रोहिणाद् भे ॥ २. ४. २६ ॥ भं-नक्षत्रम्, रेवत-रोहिणाभ्यां नक्षत्रशब्दाभ्यां स्त्रियां ङीर्भवति । रेवती, रोहिणी । यदापि "चित्रारेवती-रोहिण्याः स्त्रियाम्" [६. ३. १०८.] इति जाता यस्याणो लुकि डीप्रत्ययस्यापि लुग् भवति, तदापि नक्षत्रशब्दत्वात् पुनरनेन डीर्भवति-रेवत्यां जाता-रेवती, रोहिण्यां जाता--5 रोहिणीति । भ इति किम् ? रेवता, रोहिणा । कथं "रेवतीरमणो बलः, रेवती, शुष्करेवती ?" रेवच्छब्दो मत्वर्थीयान्तोऽस्ति, तत उदिल्लक्षणो ङीः । कथं रोहिणी ?, कटुरोहिणी ? रोहिणशब्दः प्रकृत्यन्तरमस्ति, ततो जातिलक्षणो डीभविष्यति ।। २६ ।। ___ न्या० स०-रेवत-रो०। रेवत्यां जाता रेवतीति-पत्र कन्या वाच्या, ततो10गौणोऽपि रेवतीशब्दो नक्षत्रे वर्तते । ननु “गौरादिभ्यः" [ २. ४. १६.] इत्यतो मुख्याधिकारे मुख्यादेव प्राप्नोति, तत् कथमत्र गौणात् ?, सत्यम्-मुख्याधिकारेऽपि क्वाऽपि शाब्दया वृत्त्या क्वाऽप्यार्थ्या वृत्त्या प्राधान्यं ग्राह्यम्, अत्र तावदा. वृत्त्या प्राधान्यम्, कथं ? नक्षत्रलक्षणोऽर्थो यदि वाच्यो न भवेत् तदा कथं तद्विशिष्ट: कालो वाच्यः स्यादमुना प्रकारेणेति। कथं रेवतीति-रीङच रीयते विच गुणः, रेर्मेथोऽस्यास्ति15 मत् “नाम्नि" [ २. १. ६५.] वत्वम् । रोहिणीति-स्त्रीपर्यायत्वादत्र रोहिणशब्दस्यानक्षत्रार्थाद् डोर्न प्राप्नोतीत्याशङ्का। प्रकृत्यन्तरमिति-अर्थभेदात् प्रकृतिभेद इत्यर्थः ।। २. ४. २६ ।। नीलात् प्राण्यौषध्योः ॥ २. ४. २७ ॥ नीलशब्दात् प्राणिनि औषधौ च स्त्रियां ङीर्भवति । नीली वडवा,20 नीली गौः, नीली औषधिः । प्राण्यौषध्योरिति किम् ? नीला शाटी ॥ २७ ॥ न्या० स०-नी०। नीलीत्यत्र जातिशब्दादपि जातौ नित्यस्त्रीत्वात् “जाते:०" [ २. ४. ५४. ] इत्यप्राप्तेऽनेनैव ङीः। ये तु नीलः पट इत्यर्थान्तरेऽस्त्र्यर्थस्यापि दर्शनादनित्यं स्त्रीत्वमभ्युपगच्छन्ति तेषां गुणशब्दस्यैवेदमुदाहरणम्, जातिशब्दात् तु “जाते."25 [ २. ४. ५४. ] इति डीः सिद्ध एव ।। २. ४. २७ ।। क्ताच्च नाम्नि वा ॥ २. ४. २८ ॥ नीलशब्दात् क्तान्ताच्च शब्दरूपात् स्त्रियां ङीर्वा भवति, नाम्नि Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० २६-३०. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः संज्ञायाम् । नीली, नीला; प्रबद्धा चासौ विलूना चेति प्रबद्धविलूनी, प्रबद्धविलूना ।। २८ । [ ३७३ न्या० स०–०क्ताच्च० । प्रबद्धा चासौ विलूना चेतीति- अर्थकथनमिदं, प्रबद्धश्चासौ विलूनच स्त्री चेदिति तु कार्यम्, अन्यथा गौणत्वाभावात् "गोश्चान्त०” [ २. ४. ε६. ] इत्यत्राप्रवृत्तावदन्तत्वाभावाद् ङीर्न स्यात्, औषधिविशेष:, प्रखण्डः संज्ञाशब्दः, व्युत्पत्ति - 5 मात्रमिदम् ।। २. ४. २८ ।। केवल मामक-भागधेय - पापा- अपर-समाना-ssर्यकृतसुमङ्गल- भेषजात् ॥ २. ४. २६ ॥ एभ्यः स्त्रियां ङीर्भवति, नाम्नि | केवली नाम ज्योतिः, मामकी, भागधेयी, पापी, अपरी, समानी, आर्यकृती, सुमङ्गली, भेषजी । नाम्नीति 10 किम् ? केवला । मामकशब्दादनन्तत्वेनैव ङीसिद्धौ नाम्नि नियम्यते, तेनमामिका बुद्धिरित्यसंज्ञायामञ्लक्षणोऽपि ङीर्न भवति ।। २६ ।। न्या० स० - केवल - माम० । केवलीति - केव्यते-सेव्यते केवलिभिरिति “मृदिकन्दि - कुण्डि ०" [ उरणा० ४६५. ] इत्यल: । मामकशब्दादिति - ननु कथं मामकग्रहरणं नियमार्थं ? शोभनो मामकोऽस्याः सुमामकेत्यत्र तदन्तविधेरिष्टत्वाद् विध्यर्थताप्युपपद्यत 15 एव, विधि-नियमसंभवे हि विधेरेव ज्यायस्त्वात्; सत्यामपि वा नियमार्थतायां विपरीतनियमः कस्मान्न भवति - मामकशब्दस्यैव नाम्नीति; प्रत्रोच्यते - इह प्रकरणे तदन्तविधेरिष्टत्वेऽपि मुख्याधिकारादमुख्यमा मकशब्दान्तान्न ङी, केवलैरेव चेतैः संज्ञाप्रतीतिर्न त्वमुख्यतदन्तैः, अत एव केवला एव केवलादय उदाहृता न कृतसमासा इत्युपपद्यत एव नियमार्थता विपरीतनियमोऽपि न भवति, तदा हि केवलादीनामपि संज्ञायां ङीनिवर्त्तित: 20 स्यात्, संज्ञापि बाध्येति तेषां वैषम्यं स्यात्, यथोक्तनियमे तु न किञ्चिन्नोपपद्यत इति । अपरीति-पिपर्तीति प्रचि परः, तस्य नञ्समासेऽपरी । भेषजीति - " भेषृग् भये" घत्रि भेषं जयति "क्वचित्" [ ५. १. १७१. ] इति डे । मामकी - मातुली । भागधेयी - बलिः । पापी, अपरी श्रोषष्यौ । समानी छन्दः । आर्यकृती क्रियाविशेषः । सुमङ्गली छन्द ओषधिर्वा । भेषजी प्रोषधिः ।। २. ४. २६ ।। 25 भाज- गोण- नाग-स्थल - कुण्ड-काल- कुश· कामुक व Cकबरात् पक्वा-ssवपन-स्थूला-कृत्रिमा-मत्र- कृष्णा-ssयसीरिरंसु श्रोणि- केशपाशे ॥ २. ४. ३० ॥ भाजादिभ्यो दशभ्यो यथासंख्यं पक्वादिष्वर्थेषु स्त्रियां ङीर्भवति, नाम्नि । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ३१.] भाज्यत इति भाजी पक्वा चेत्, भाजान्या; गोणी आवपनं चेत्, गोणान्या; ' नागी स्थूला चेत्, नागान्या; जातौ तु नाग्येव, तस्याः स्थौल्याभावात् । स्थली अकृत्रिमा चेत्, स्थलान्या; कुण्डी अमत्रं चेत्, कुण्डान्या; काली कृष्णा चेत्, कालान्या; कुशी प्रायसी चेत्, कुशान्या; कामुकी रिरंसुश्चेत्, कामुकान्या; कटी श्रोणी चेत्, कटान्या; कबरी केशपाशश्चेत् कबरान्या; जानपदशब्दादपि 5 वृत्ताविच्छत्यन्यः-जानपदी वृत्तिः, वृत्तेरन्यत्र-जानपदा मदिरा ।। ३० ।। ___ न्या० स०--भाज-गोण। भाजीति-“भजण् विश्राणने" इत्यस्य भाज्यतेविश्राण्यते दीयते "णिवेत्त्यास०" [५. ३. १११] इत्यने प्राप्ते बाहुलकात् “शंसि०" [ ५. ३. १०५. ] इति अः. अथवा "स्थादिभ्यः कः" [५. ३. ८२.] इति कः । कुण्डोति-इह कुण्डशब्दस्य डीविधानं विस्पष्टार्थमेव, जातिवचनात् “जाते:०" [२. ४.10 ५४. ] इत्यनेनैव सिद्धत्वात् । कुण्डान्येति-"कुडुङ दाहे" "क्त ट०" [ ५. ३. १०६. ] इत्यप्रत्यये "प्रात्" [ २. ४. १८. ] इत्यापि क्रियाशब्दोऽयम् । कालयति मन इति अचि [कालो]। कुशान्येति-काष्ठमयी तदाकृतिर्वल्गा वा। केशपाश इति-"क्लिशः के च" [उणा० ५३०.] इति शे-केशः । “पांक् रक्षणे” “पा-दा-वमि०" [ उणा० ५२७. ] इति शे-पाशः। केशपाशः केशवेषः केशानां वेषः केशरचनाविशेष इत्यर्थः। नागेति-न15 अगः “नखादयः” [३. २. १२८.] ।। २. ४. ३० ।। नवा शोणादेः ॥ २. ४. ३१ ॥ शोणादेर्गणात् स्त्रियां ङीर्वा भवति । शोणी, शोणा; चण्डी, चण्डा । शोण, चण्ड, अराल, कमल, कृपण, विकट, विशाल, विशङ्कट, भरूज, ध्वज, कल्याण, उदार, पुराण, बहु, बहुः, बह वी;-एवंनामा काचित्, गुणवचनात्20 तूत्तरेणैव भविष्यति । हन्-वृत्रघ्नी, वृत्रहा। चन्द्रभागान्नद्याम्-चन्द्रभागी, चन्द्रभागा नाम नदी, नद्या अन्यत्र चन्द्रभागा नाम देवता। अनद्यामिति केचित्-चन्द्रभागी, चन्द्रभागा काचित्, अनद्यामित्येव-चन्द्रभागा नाम नदी। अण्णन्तान्नद्यामित्येके-चान्द्रभागी, चान्द्रभागा नाम नदी; अण्णन्तान्नित्यं प्राप्ते विकल्पः । अनद्यां तु नित्यं डी:-चान्द्रभागी छाया । अन्ये तु अण्णन्ता-25 देवार्थभेदेन विकल्पमिच्छन्ति-नद्यामाप्प्रत्ययोऽन्यत्र ङीप्रत्ययः-चान्द्रभागा नदी, चान्द्रभागी वनराजिः ।। ३१ ।। न्या० स०-नवा शो०। शोणीति-“शोण वर्णे' अस्याऽचि-शोण उज्ज्वलो Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ३२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३७५ वर्णः, निर्दोषरक्तवर्ण इत्यर्थः । चण्डीति-कोपनायामनेनैव विकल्पः, गौर्यां तु गौरादिपाठान्नित्यं डीः। अरालशब्दो वक्रार्थोऽत्र दृष्टव्यः, पक्षिविशेषे तु गौरादौ। लक्ष्मयां कमली कमला। भरोऋषेर्जात:-भरुजः-ऋषिविशेषः। भरूजेति तु पाठान्तरम्, तदा "भृजङ -भर्जने' णिगन्तादचि, अत एव पाठा रेफात् परतो दीर्घ ऊकारागमे-भरूजा:स्नेहभृष्टाः किल तन्दुला:। ध्वजी ध्वजा कल्पपालभार्या दशवक्रा च । वृत्रघ्नीति- 5 केवलस्य हन्शब्दस्याप्रयोगात् तदन्तमुदाहरति । चन्द्रभागीति-चन्द्रभागयोः पर्वतयोरदूरभवा नद्यपि चन्द्रभागी। अणन्तान्नद्यामित्येके। चान्द्रभागीति-चन्द्रभागाभ्यां गिरिभ्यां प्रभवति अण ।। २. ४. ३१ ।। इतोक्त्य र्थात् ॥ २. ४. ३२ ॥ इकारान्तानाम्नः स्त्रियां ङीर्वा भवति, न चेत् तत् क्त्यर्थप्रत्ययान्तं 10 स्यात् । भूमी, भूमिः ; अगुली, अङ्गुलिः; धूली, धूलिः; अाली, पालिः; धमनी, धमनिः; दर्वी, दर्विः; श्रोणी, श्रोणिः; राजी, राजिः; प्रावली, प्रावलिः; यष्टी, यष्टिः; शारी, शारिः; सरणी, सरणिः; अशनी, अशनिः; अरणी, अरणिः, शकृत्करी, शकृत्करिः; प्रात्मभरी, आत्मभरिः; कपी, कपिः; अही, अहिः; तारी, तारिः, मुनी, मुनिः; अञ्चती, अञ्चतिः; 15 अङ्कती, अङ्कतिः; अंहती, अंहतिः; शकटी, शकटि:; शस्त्री, शस्त्रिः , रजनी, रजनिः; धरणी, धरणिः, रात्री, रात्रिः । अक्त्यर्थादिति किम् ? कृति; हृतिः, अजननिः, अकरणिः, ज्यानिः, ग्लानिः; हानिः । कथं साती ?, साति: ?-तिगन्ताद् भविष्यति । अन्ये तु अञ्चति-प्रति-अंहति-शकटिशस्त्रि-शारि-तारि-अहि-कपि-मुनि-रात्रि-यष्टिभ्यः कटि-श्रोणि-प्रभृतिप्राण्यङ्ग-20 वाचिभ्यः क्तिवजितकृदन्तेभ्यश्च कारान्तेभ्य इच्छन्ति, नान्येभ्यः, तन्मते-शोभनो गन्धो यस्याः सा सुगन्धिः, सुरभिगन्धिः; निर्गता कौशाम्ब्या निष्कौशाम्बिः, आरिणः, शारिणः-इत्यादिषु न भवति, क्तिमात्रवर्जनाच्चाकरणि-अजननि-ज्यानिग्लानिप्रभृतिषु न प्रतिषेधः ।। ३२ ।। न्या० स०-इतोऽक्त्यर्थात्। आवलोति-पाङ पूर्वाद् वले: “पदि-पठि."25 [उणा० ६०७.] इति इकारे । सरणीति-स्रियते गम्यतेऽनया "ऋ-ह-सृ०" [उणा० । ६३८.] इत्यादिनाऽरिणः । अरणीति-अग्निनिर्मथनकाष्ठम् । जनपदे भवा जाता वा "उत्सादेरञ्" [६. १. १६.] । अञ्चतेर्भार्याऽभेदोपचारेण अञ्चतीति-अग्निभार्या, अप्राप्तमपि धवयोगात् स्त्रीत्वम् । अङ्कतिः-वायुब्रह्माग्निः, तेषां भार्याऽभेदोपचारेण Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] बृहत्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ३३-३५.] अङ्कति । अहंतीति-दानेऽपि "तिरयों-ऽहति-शाणी" [लिङ्गानुशासने] इति स्त्रीत्वम् । ' शस्त्रीति-"शसू हिंसायां" "रा-शदि०" [उणा० ६६६.] इति बहुवचनादत्रौ । सातिरिति-"वन षण भक्तौ" सन्यादित्याशास्यमाना "तिक्-कृतौ०" [५. १. ७१.] इति तिकि "न तिकि दीर्घश्च" [४. २. ६६.] इति प्रात्वम् । शारिणरिति-श्यते: “का-वा-वी." [ उणा० ६३४. ] इति बहुवचनाण्णौ। क्तिमात्रेति-न तु क्त्यर्थवर्जनादित्यर्थः । कथ-5 मिति-अत्रापि क्तिप्रत्ययोऽस्तोत्याशङ्कार्थः। अन्ये विति-पाणिनेः पूर्वे। ननु 'कृच्छेषा उणादयः' इति न्यायात् कृदन्तेभ्यश्चेत्यनेनैवाञ्चतिप्रभृतीनामुणादीनां ङीभविष्यति किं तेषां पृथगुपादानेन ? सत्यम्-तन्मते उणादीनामञ्चतिप्रभृतिशोण्यन्तानामेव भवति, तेनाणीत्यादीषु ङीन भवति ।। २. ४. ३२ ॥ पद्धतेः ॥ २. ४. ३३ ॥ 10 पद्धतिशब्दात् स्त्रियां ङीर्वा भवति । पद्धती; पद्धतिः। क्त्यर्थ प्रारम्भः ।। ३३ ॥ न्या० स०-पद्धतेः। पादाभ्यां हन्यते "श्वादिभ्यः" [५. ३. ६२.] क्तिः, "हिम-हति०" [३. २. ६६.] पदादेशः, अथवा हननं-हतिः, पादस्य हतिः ॥२. ४. ३३।। शक्तेः शस्त्रे ॥२. ४. ३४ ॥ 15 शक्तिशब्दाच्छस्त्रे स्त्रियां ङीर्वा भवति । शक्ती, शक्तिः । शस्त्र इति किम् ? शक्तिः -सामर्थ्यम् ।। ३४ ।। न्या० स०--शक्तः शस्त्रे। शक्तिशब्दस्य क्त्यन्तत्वादक्त्यर्थादिति प्रतिषेधे प्राप्ते शस्त्रवाचिनो विकल्प प्रारम्यत इति ।। २. ४. ३४ ।।। 20 स्वरादुतो गुणादरखरोः ॥ २. ४. ३५ ॥ स्वरात् परो य उकारः सामर्थ्यादेकवर्णव्यवहितस्तदन्ताद् गुणवचनात् खरुजितान्नाम्नः स्त्रियां ङीर्वा भवति । गुणादिति सामान्योक्तावपि केवलगुणवृत्तेः स्त्रीत्वायोगात् ततो द्रव्यवृत्तेः प्रत्ययः । पट्वी, पटुः; मृद्वा, मृदुः; बह वी, बहुः; साध्वी, साधुः; तन्वी, तनुः; लघ्वी, लघुः; विभ्वी, विभुः । स्वरादिति किम् ? पाण्डुर्भूमिः। उत इति किम् ? श्वेता पटी। गुणादिति25 किम् ? पाखुः स्त्री, चिचीषुः स्त्री। अखरोरिति किम् ? खरुरियम् । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ३६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः “सत्त्वे निविशतेऽपैति, पृथग्जातिषु दृश्यते । श्राधेयश्चाक्रियाजश्व, सोऽसत्त्वप्रकृतिर्गुणः " ।। १॥ इति गुणमिह परिभाषन्ते । सत्त्वं- द्रव्यम्, तत्रैव निविशते—तदेवाश्रयति यः स गुण इति संबन्धः । द्रव्यादपैत्यपगच्छति यथाऽऽन्नीलता पीततायामुपजातायाम्, पृथग्जातिषु - भिन्नजातीयेषु दृश्यते, यथा सैव नीलता आम्र 5 दृष्टा तरुणतृणेषु दृश्यते, एतेन सर्वेण जातिर्गुणो न भवतीत्युक्तं भवति । आधेय - उत्पाद्यो यथा कुसुमयोगाद् गन्धो वस्त्रे, यथा वाऽग्निसंयोगाद् घटे रक्तता । क्रियाजो - नित्यः, तद्यथाऽऽकाशादिषु महत्त्वादिः । तदेवं गुणस्योत्पाद्यत्वाऽनुत्पाद्यत्वप्रकारद्वयप्रदर्शनेनोत्पाद्यत्वैकप्रकारस्य कर्मणो व्यवच्छेदः । असत्त्वप्रकृतिः- द्रव्यस्वभावरहितः, अनेन द्रव्यस्य 10 व्यवच्छेदः ।। ३५ ॥ [ ३७७ न्या० स० - स्वरादुतो० । अर्थे कार्यासम्भवादुत इत्यादिविशेषरणायोगाच्चोपचाराद् गुरणवचनः शब्दो गुरण इत्युच्यते । स्त्रीत्वायोगादिति - उकारान्तस्य पुंस्त्वविधा - नादित्यर्थः । खरुरियमिति क्रूरा मूर्खा दर्पिष्टा श्वेता वा स्त्री, "खरुः स्यादश्व- हरयोर्दर्पदन्तसितेषु च " । यद्यपि महत्व रूपस्याकाशगुणस्यापैतीति विशेषणं न घटते तथाप्या-15 प्रादिस्थितनीलादिगुणस्य घटमानं सर्वस्यापि विशेषणं भवति, यथा कस्यचिद् गोश्वन्द्रक इति विशेषणं चिह्न कृतं चन्द्रकोऽयं गौरिति पश्चाद् गोसमूहोऽपि चन्द्रकोऽयमित्युच्यते तथाऽत्रापि भविष्यति ।। २. ४. ३५ । " श्येतैत- हरित - भरत-रोहिताद् वर्णात् तो नश्च ।। २. ४. ३६ ॥20 एभ्यो वर्णवाचिभ्यः स्त्रियां ङीर्वा भवति, तत्संनियोगे तकारस्य नकारश्च भवति । श्येनी, श्येता; एनी, एता; हरिणी, हरिता; भरणी, भरता; रोहिणी, रोहिता; लत्वे - लोहिनी, लोहिता । वर्णादिति किम् ? श्येता, एता । चकारो नकारस्य ङोसंनियोगशिष्टतार्थः ।। ३६ । न्या० स० - श्येतैत ० । वाऽधिकारः प्रधानत्वात् प्रत्ययविधिनैव संबध्यते 125 श्येनीति - शुभ्रा । एनी कर्बुरा शुभ्रा वा । हरिणी नीला । भरणी पाटला धूसरा घृतवर्णा वा रोहिणी रक्ता इत्यर्थः ।। २. ४. ३६ ।। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] बृहवृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ३७-३८.] क्नः पलिता-सितात् ॥ २. ४. ३७ ॥ त इति चेति चानुवर्तते, पलितासिताभ्यां स्त्रियां ङीर्वा भवति, तत्संनियोगे तकारस्य क्नादेशश्च । पलिक्नी, पलिता; असिक्नी, असिता ।। ३७ ।। न्या० स०--क्नः पलिता। ङीप्रत्ययसम्बन्धे पञ्चमी, तस्यैव च विकल्प 5 इत्याह-ङोर्वेति । असिक्नीति-असितशब्देनाधर्मानृतन्यायेन सितप्रतिपक्षो वर्ण उच्यते, तदैव ङीप्रत्ययः क्नादेशश्च, यदा तु सिता-बद्धा, न सिताऽसितेति तदा न स वर्ण इति तत्र द्वयमपि न भवति। पलितशब्दोऽपि केशरोगविषये वर्ण, पलितमस्या अस्ति अभ्राद्यः, या गौर्लघ्व्यपि गर्भ दधाति सा असिक्नी अन्तःपुरदूती च ।। २. ४. ३७ ।। असह-न-विद्यमानपूर्वपदात् स्वाक्षादक्रोडादिभ्यः 10 ।। २. ४. ३८ ॥ सह-नत्र -विद्यमानवजितपूर्वपदं यत् स्वाङ्ग, तदन्तात् क्रोडादिगणवजितान्नाम्नोऽकारान्तात् स्त्रियां ङीर्वा भवति । पीनस्तनी, पीनस्तना; अतिक्रान्ता केशानतिकेशी, अतिकेशा माला; निष्क्रान्ता केशेभ्यो निष्केशी, निष्केशा यूका; स्वडी, स्वडा वृश्चिकी, अडो नाम वृश्चिकाद्यवयवः । असहनत्र -15 विद्यमानपूर्वपदादिति किम् ? सहकेशा, अकेशा, विद्यमानकेशा। स्वाङ्गादिति किम् ? बहुयवा। अक्रोडादिभ्य इति किम् ? कल्याणी क्रोडा अस्याः कल्याणक्रोडा, क्रोड-शब्दः स्त्रीक्लीबलिङ्गः; कल्याणखुरा, पीनगुदा, एकशफा, दीर्घबाला, भव्यभाला, सुगला, सुभगा; कल्याणी उखा-स्फिक् यस्याः सा कल्याणोखा, कल्याणगोखा। बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन-20 किशलयकरा, मृणालभुजेत्यादि । आदित्येव-परमशिखा । "अविकारोऽद्रवं मत, प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते । च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु ।। १॥" इति च स्वाङ्गम् । अविकार इति किम् ? बहुशोफा । अद्रवमिति किम् ? बहुकफा। मूर्तमिति किम् ? बहुज्ञाना । प्राणिस्थमिति किम् ? 25 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ३६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३७६ दीर्घमुखा शाला। च्युतं च प्राणिनस्तदिति किमर्थम् ? अप्राणिस्थादपि पूर्वोक्ताद् यथा स्यात्-बहुकेशी, बहुकेशा रथ्या। तन्निभं च प्रतिमादिष्विति किमर्थम् ? प्राणिस्थसदृशादपि पूर्वोक्ताद् यथा स्यात्-पृथुमुखी, पृथुमुखा प्रतिमा। कथं कल्याणं पाणिपादमस्याः कल्याणपाणिपादा इत्यत्र न भवति ? स्वाङ्गसमुदायो हि न स्वाङ्गम्, बहुस्वरत्वेन वक्ष्यमाणनियमबलाद् वा न 5 भवतीति । द्विपादी, त्रिपादीत्यत्र तु "द्विगोः समाहारात्" [२. ४. २२.] इति विशेषविधानाद् नित्यमेव ङीर्भवति। अस्वाङ्गपूर्वपदादेवेच्छन्त्यन्ये-पाणी एव पादौ यस्याः सा पाणिपादा, मुखमेव नासिका यस्याः सा मुखनासिका ।। ३८ ।। न्या० स०--असहन०। सह-नञ्-विद्यमानशब्दानां पूर्वपदरूपाणां वर्जनात्10 मध्यपदेन स्वाङ्गस्य व्यवधानेऽपि ङीप्रतिषेधः, यथा-विद्यमानं कल्याणं मुखं यस्याः सा विद्यमानकल्याणमुखेति । पीनगुदेति-"नाम्युपान्त्य०" [५. १. ५४. ] इति के-गुदं स्त्रीणामपाङ्गम्-अपकृष्टमङ्गम्, कल्याणं गुदमस्या इति न्यासः । भव्यभालेति-“भलि भल्लि परिभा०" घत्रि-भालः ललाटः। कल्याणगोखेति-उखाशब्दसान्निध्यात् स्त्रीत्वं ज्ञायते। गोरिव खम्-इंद्रियं यस्याः सा गोखा, कल्याणा गोखा यस्या इति, अवयव-15 विशेषो जघनरूपः । अविकार इति-विकारो वातादिजन्मशोफादिः। अद्रवमितिद्रवणं द्रवः, न द्रवोऽस्येत्यद्रवम्, द्रवतीति द्रवं, न द्रवमद्रवं वा। मूर्त्तमिति-रूपादियोगो मूत्तिः, असर्वगतद्रव्यपरिमाणं वा, तद्योगान्मूर्तं पुद्गलद्रव्यम् । च्युतं च प्राणिन इतिअपरं लक्षणद्वयमुच्यते, तद्-अविकारादिलक्षणयुक्त, प्राणिनः च्युतमपि स्वाङ्ग भवति ।। २. ४. ३८ ।। 20 नासिकोदरोष्ठ-जङ्घा-दन्त-कर्ण-शङ्काजगात्र कण्ठात् ॥ २. ४. ३६ ॥ असह-नत्र -विद्यमानपूर्वपदेभ्य एभ्यः स्वाङ्गेभ्यः स्त्रियां ङीष् भवति, पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमिदम्, तेन-नासिकोदराभ्यामेव बहुस्वराभ्याम्, ओष्ठादिभ्य एव च संयोगोपान्त्येभ्यो भवति, नान्येभ्यः । तुङ्गनासिकी, तुङ्गनासिका; 25 कृशोदरी, कृशोदरा; बिम्बोष्ठी, बिम्बोष्ठा; दीर्घजङ्घी, दीर्घजङ्घा; समदन्ती, समदन्ता; चारुकर्णी, चारुकर्णा; तीक्ष्णशृङ्गी, तीक्ष्णशृङ्गा; मृदङ्गी, मृदङ्गा; सुगात्री, सुगात्रा; स्निग्धकण्ठी, स्निग्धकण्ठा। असह-नञ् Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० ४०-४२.] 10 विद्यमानपूर्वपदादित्येव-सहनासिका, अनासिका, विद्यमाननासिका; सोदरा, । अनुदरा; विद्यमानोदरा; इत्यादि । नियमः किम् ? पृथुजघना, सुललाटा, दृढहृदयेत्यादौ बहुस्वराद् न भवति; कल्याणगुल्फा, सुपार्धा इत्यादौ संयोगोपान्त्यान्न भवति । अङ्ग-गात्र-कण्ठेभ्यो डीप्रत्ययं नेच्छन्त्यन्ये । केचित् तु दीर्घजिह्वशब्दादपीच्छन्ति-दीर्घजिह वी, दीर्घजिह्वा कन्येति ।। ३६ ॥ न्या० स०-नासिको। सहनासिकेति-सहस्य सो विकल्पेन भवतीत्यत्र न । तुङ्गनासिकोति-"तुजु वलने च" इत्यस्य घत्रि उद्गादित्वाद् गे-तुङ्गा। समदन्तीतिसमशब्दोऽजन्तः । कल्याणगुल्फेति-"गल अदने" "कलि-गलेरस्योच्च" [ उणा० ३१५.] इति फे-गुल्फः, कल्याणी गुल्फावस्याः ।। २. ४. ३६ ।। नरख-मुखादनाम्नि ॥ २. ४. ४० ॥ असह-नञ्-विद्यमानपूर्वपदाभ्यां स्वाङ्गाभ्यां नख-मुखशब्दाभ्यां स्त्रियां डी; भवति, अनाम्नि-असंज्ञायामेव । शूर्पनखी, शूर्पनखा; अतिनखी, अतिनखा; चन्द्रमुखी, चन्द्रमुखा; अतिमुखी, अतिमुखा । अनाम्नीति किम् ? शूर्पणखा, व्याघ्रणखा, वज्रणखा, गौरमुखा, श्लक्ष्णमुखा, कालमुखा; संज्ञाशब्दा एते ।। ४० ।। 15 न्या० स०--नखमु० । संज्ञाशब्दा एते इति-न तु यौगिका इत्यर्थः ॥२.४.४०॥ पुच्छात् ॥ २. ४. ४१ ॥ असह-नञ्-विद्यमानपूर्वपदात् स्वाङ्गात् पुच्छात् स्त्रियां ङीर्वा भवति । दीर्घपुच्छी, दीर्घपुच्छा; अतिपुच्छी, अतिपुच्छा। असह-नञ्-विद्यमानपूर्वपदादित्येव-सपुच्छा, अपुच्छा, विद्यमानपुच्छा ।। ४१ ॥ 20 न्या० स०-पुच्छात् । नासिकादिनियमानिवृत्तौ वचनम् । यद्येवं नासिकादिसूत्र एव कुतो न पठ्यते ? किमर्थं पृथुगुद्दिश्यत इति, उच्यते-पुच्छादित्यस्यैवोत्तरत्रानुवृत्त्यर्थम् ॥ २.४. ४१ ।। कबर-मणि-विष-शरादेः ॥ २. ४. ४२ ॥ कबरादिपूर्वात् पुच्छात् स्त्रियां नित्यं ङीर्भवति, पुनर्विधानं नित्यार्थम् ।25 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ४३-४४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३८१ कबरं - कर्बुरं कुटिलं वा पुच्छमस्या : - कबरपुच्छी, मरिणः पुच्छेऽस्या मणिपुच्छी, विषं पुच्छेऽस्या विषपुच्छी; शरं पुच्छेऽस्याः शरपुच्छी ।। ४२ ।। न्या० स०-- कबरम० । “न सप्तमोन्द्वादिभ्यश्व" [ ३. १. १६५. ] इत्यनेन मरिण - पुच्छीत्यादिषु मण्यादिशब्दानां पूर्वनिपातः ।। २. ४. ४२ ।। पक्षाच्चोपमानादेः ।। २. ४. ४३ ।। उपमानपूर्वात् पक्षशब्दात् पुच्छशब्दाच्च स्त्रियां ङीर्भवति । उलूकस्येव पक्षावस्या उलूकपक्षी शाला, उलूकस्येव पुच्छमस्या उलूकपुच्छी सेना ।। ४३ ।। 5 न्या० स० -- पक्षाच्चो० । उपमीयतेऽनयेति बाहुलकात् "उपसर्गादात:" [५. ३. ११०.] इत्यङ, प्रसिद्धसाधर्म्यादिप्रसिद्धविषये येन ज्ञानमुपजन्यत इति । " कबर - मरिण - 10 विष- शरादेः पक्षाच्चोपमादेस्तु" इत्येकयोगाकरणात् स्वाङ्गादेरिति निवृत्तम् । उलूकस्येव पक्षावस्या इति प्रत्र उलूकशब्द उलूकपक्षे उलूकपुच्छे च वर्त्तते, यथोष्ट्रमुखे उष्ट्रशब्द:, अतश्चोलूकशब्द उपमानं भवतीत्युलूक इव पक्षावस्या इत्यादिविग्रहः, उलूकस्येव पक्षावित्यादि त्वर्थकथनम् ।। २. ४. ४३ ॥ क्रीतात् करणादे ॥ २. ४. ४४ ॥ करणमादिरवयवो यस्य तस्मात् क्रीतान्ताद् नाम्नोऽकारान्तात् स्त्रियां ङीर्भवति । अश्व ेन क्रीयते स्म श्वक्रीती, धनक्रीती, वस्त्रक्रीती, विभक्त्युत्त्पत्तेः पूर्वमेव कृदन्तेन समासः ; मनसाक्रीती, अलुप् । करणग्रहणं किम् ? सुक्रीता, दुष्क्रीता । आदिग्रहणं किम् ? अश्व ेन क्रीता, नह्यत्र करणं क्रीतान्तस्य नाम्न आदिरवयवो भवति, ऐकपद्याभावात् । कथं " सा हि तस्य धनक्रीता 20 प्राणेभ्योऽपि गरीयसी" इति, धनं च सा क्रीता चेति कर्मधारयोऽयम्, करणविवक्षायामपप्रयोग एव । केचित् तु धनेन क्रीतेत्यत्राबन्तेनापि समासमिच्छन्ति बहुलाधिकारात्, तदाऽकारान्तत्वाभावात् ङीनं भवति ।। ४४ ।। 15 न्या० स० —— क्रीतात् कर० । केचित् त्विति - तन्मतेऽपि प्रत्ययोत्पत्तेः प्रागिति समासो बहुलाधिकाराल्लभ्यते, मन्मतेऽपि बहुलाधिकाराश्रयणे तथैव ।। २. ४. ४४ ।। 25 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ४५-४७.] क्तादल्पे ॥ २. ४. ४५ ॥ क्तप्रत्ययान्ताद् नाम्नः करणादेरल्पेऽर्थे स्त्रियां ङीर्भवति । अभ्रविलिप्ती द्यौः, सूपविलिप्ती स्थाली; अल्पाभ्रा, अल्पसूपेत्यर्थः । अल्प इति किम् ? चन्दनानुलिप्ता स्त्री, अनल्पेन चन्दनेन लिप्तेत्यर्थः ।। ४५ ।। न्या० स०--क्तादल्पे। अभ्रविलिप्तीति-पूर्ववदस्याद्यन्तेन समासः। सूपवि- 5 लिप्तीति-अल्पार्थस्य गम्यमानत्वादल्प-शब्दस्याप्रयोगः ।। २. ४. ४५ ।। स्वाक्षादेरकृत-मित-जात-प्रतिपन्नाद् बहुव्रीहे. ॥ २. ४. ४६ ॥ स्वाङ्गादेः कृतादिवजितात् क्तान्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्भवति । शङ्खौ भिन्नावस्याः शङ्खभिन्नी, ऊरुभिन्नी, केशविलूनी; गलकोत्कृत्ती। कृता-10 दिवर्जनं किम् ? दन्तकृता, दन्तमिता, दन्तजाता, दन्तप्रतिपन्ना । बहुव्रीहेरिति किम् ? हस्ताभ्यां पतिता हस्तपतिता, पादपतिता ।। ४६ ।।। ___ न्या० स०--स्वाङ्गादेः । पूर्ववत् पारिभाषिकं स्वाङ्गम् । क्तान्ताद् बहुव्रीहेरिति-कृतादिवजितो यः क्तः क्तान्त इति “विशेषणमन्तः" [७. ४. ११३. ] इति न्यायात्, सोऽन्ते यस्य बहुव्रीहेः। “जातिकाल." [३. १. १५२.] इति शङ्खादेः प्राग15 निपातः । हस्ताभ्यां पतित इति कार्यमन्यथा अदन्तत्वाभावेनैव ङीप्राप्ति स्ति ।। २. ४. ४६ ।। अनाच्छादजात्यादेर्नवा ॥ २. ४. ४७ ।। आच्छादवजिता या जातिस्तदादेः कृतादिवजितक्तान्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्वा भवति । शाङ्गरो जग्धोऽनया शाङ्गरजग्धी, शाङ्गरजग्धा; पलाण्डु-20 भक्षिती, पलाण्डुभक्षिता। अनाच्छादग्रहणं किम् ? वस्त्रच्छन्ना, वसनच्छन्ना । जात्यादेरिति किम् ? मासयाता, संवत्सरयाता, बहुयाता, अयाता, सुयाता, सुखयाता, दुःखयाता; पूर्वेणापि न भवति, अस्वाङ्गादित्वात् । अकृताद्यन्तादित्येव-कुण्डकृता, कुण्डमिता, पलाण्डुजाता, वृक्षप्रतिपन्ना। क्तादित्येवशाङ्गरप्रिया ।। ४७ ।। . . ... 25 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ४८-४६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३८३ न्या० स०--अनाच्छा०। आच्छादशब्द: करणसाधनकप्रत्ययान्तः, तस्य च नविशिष्टस्य जात्या कर्मधारयः, तत आदिशब्देनावयवार्चन बहुव्रीहिः कार्यः । शाङ्गरजग्धीति-शाङ्गरशब्दस्तालव्यादिरव्युत्पन्नः । मासयातेत्यादिषु मास-संवत्सरशब्दयोः कालवचनत्वाद् बहु-सुख-दुःखानां च गुणवचनत्वान्नस्त्वभाववचनत्वादजात्यादेरिति व्यावृत्त्या निषिध्यते । वृक्षप्रतिपन्न ति-वृक्षात् प्रतिपन्नमनया। शाङ्गरप्रियेति-शाङ्गरं 5 प्रियमस्याः ।। २. ४. ४७ ।।। पत्युनः ॥ २. ४. ४८ ॥ पत्यन्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीर्वा भवति, तत्संनियोगेऽन्तस्य नकारादेशश्च । दृढः पतिरस्या दृढपत्नी, दृढपतिः; स्थिरपत्नी, स्थिरपतिः; स्थूलपत्नी, स्थूलपतिः; वृद्धपत्नी, वृद्धपतिः । मुख्यादित्येव-बहुस्थूलपतिः पुरी,10 अत्र हि पत्यन्तो बहुव्रीहिर्मुख्यो न भवति, यस्तु मुख्यः स पत्यन्तो न भवति; यदापि स्थूलश्चासौ पतिश्चेति कर्मधारये सति बहवः स्थूलपतयो यस्यामिति बहुव्रीहिस्तदापि स्थूलपत्यन्तो बहुव्रीहिर्न पत्यन्त इति न भवति ।। ४८ ।। न्या० स०--पत्युनः। पत्युरिति पञ्चम्यन्तमधिकृतस्य बहुव्रीहेविशेषणं, तेन च तदन्तविधिरित्याह-पत्यन्तादिति । बहुस्थूलपतिः पुरीति-स्थूलाः पतयो यासां ता:15 स्थूलपतय इति कृते “पत्युनः" इति नविकल्पनाद् बहवः स्थूलपतयो यस्याम् । मुख्यो न भवतीति-द्वितीयेन बहुव्रीहिणा बाधितत्वात् । पत्यन्तो न भवतीति-किं तर्हि ? स्थूलपत्यन्तः ।। २. ४.४८ ॥ सादेः ॥ २. ४. ४६ ॥ सपूर्वात् पतिशब्दात् स्त्रियां ङीर्वा भवति, अस्य च नकारोऽन्तादेशः; 20 पूर्वेणैव सिद्धे पुनर्वचनं बहुव्रीहिनिवृत्त्यर्थम् । ग्रामस्य पतिः-ग्रामपत्नी, ग्रामपतिः; आशापत्नी, आशापतिः; अधिष्ठात्री पति:-अधिपत्नी, अधिपतिः; ईषदूना पतिः-बहुपतिः, बहुपत्नी। सादेरिति किम् ? पतिरियम्, ग्रामस्य पतिरियम् । मुख्यादित्येव-अतिक्रान्ता पतिमतिपतिः । गौरणादपीच्छन्त्यन्येअतिपत्नी, अतिपतिः । यदा तु पत्नीशब्दस्य षष्ठयन्तेन समासस्तदा राजपत्नी25 शूद्रपत्नीत्याद्येव भवति ।। ४६ ।। न्या० स०-सादेः। सह विद्यमानवचनो न तु तुल्ययोगवचनः सपत्न्यादाविति Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० ४. सू० ५०-५२.] निर्देशात्, तुल्ययोगे हि पूर्वेण शब्देन सह पतिशब्दस्य नकारो भवतीति सूत्रार्थे सपत्नीति निर्देशो न स्यात् । ननु 'सादेः पत्युर्नः' इत्येकयोगो विधीयतां, सादित्वेन बहुव्रीहावपि अन्यस्मिन् वा भविष्यति, नैवम् - मुख्यादित्यधिकारात् सादावेव स्यात्, न तु बहुव्रीहौ, पृथग्योगे तु पूर्वसूत्रे मुख्यादिति बहुव्रीहिसमासस्यैव विशेषणं, न पत्युः ।। २. ४. ४६ ।। सपत्न्यादौ । २. ४. ५० ।। सपत्न्यादौ यः पतिशब्दस्तस्मात् स्त्रियां ङीर्भवति, नकारश्चान्तादेशः ; पुनविधानं नित्यार्थम् । समानः पतिरस्याः समानस्य पतिरिति वा - सपत्नी, एवम् - एकपत्नी, वीरपत्नी, पिण्डपत्नी, भ्रातृपत्नी, पुत्रपत्नी; षडेते सपत्न्यादयः । समुदायनिपातनं समानस्य सभावार्थम्, पुंवद्भावप्रतिषेधार्थं चसपत्नीभार्यः, सपत्न्या अयं - सापत्नः ।। ५० ।। 5 10 न्या० स० - सपत्न्यादौ । सभावार्थमिति-धर्मादिषु पत्नीशब्दस्यापाठादित्यर्थः । पुंवद्भावप्रतिषेधार्थं चेति - " परतः स्त्री० " [ ३. २.४९ ] इति " जातिश्च णि० " २. ३. ५१. ] इति च प्राप्तस्य ।। २. ४. ५० ।। ऊढायाम् ॥ २. ४. ५१ ।। पत्युः केवलाद्दृढायां-परिणीतायां स्त्रियां ङीर्भवति, नकारश्चान्तादेशः 115 पत्नी, यजमानस्य पत्नी, वृषलस्य पत्नी । ऊढायामिति किम् ? पतिरियं संगृहीता, प्रभार्या वेत्यर्थः ।। ५१ ।। न्या० स०—– ऊढायाम् । याऽग्निसाक्षिपूर्वकेण पाणिग्रहणेन परिणीता सेह गृह्यते । तदन्तविधिश्व नामग्रहणे नाश्रीयत इत्याह- केवलादिति । संगृहीतेत्यत्र अनग्निसाक्षिकं कामादितमदारकर्मत्वे परिगृहीतेत्यर्थः । प्रभार्या चेत्यत्र भार्याया अन्या20 प्रधानभूता भगिन्यादिरुच्यते ।। २. ४. ५१ ।। पाणिगृहीतीति ॥ २. ४. ५२ ।। इतिशब्दः प्रकारार्थः, पाणिगृहीतीप्रकाराः शब्दा ऊढायां स्त्रियां ङयन्ता निपात्यन्ते । पाणिगृहीतोऽस्याः पाणौ वा गृहीता - पाणिगृहीती, एवंकरगृहीती, पाण्यात्ती, करात्ती । ऊढायामिति किम् ? यस्या यथाकथञ्चित् 25 पाणिगृह्यते सा पाणिगृहीता । बहुव्रीहावेवेच्छन्त्यन्ये ।। ५२ ।। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ५३-५४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३८५ न्या० स०--पाणि । पाणिगृहीती इति प्रकारो येषां ते तथा, जसः सूत्रत्वाल्लुप् ।। २. ४. ५२ ॥ पतिवन्यन्तर्वन्यौ भार्या-गर्मिण्योः ॥ २. ४. ५३ ॥ भार्या-अविधवा स्त्री, तस्यामभिधेयायां पतिमच्छब्दाद् डीरस्य च पतिवत्नादेशः, तथा गभिण्यां स्त्रियामभिधेयायामन्तर्वच्छब्दाद् डीरस्य 5 चान्तर्वत्नादेशो निपात्यते; निपातनादेव च अधिकरणप्रधानादप्यन्तःशब्दान्मत्वर्थीयो मतुर्भवति । भार्येति किम् ? पतिमती पृथ्वी । गर्भिणीति किम् ? अन्तरस्यां शालायामस्ति ।। ५३ ।। न्या० स०--पतिवत्न्यन्त । अधिकरणप्रधानादपीति-"तदस्यास्त्यस्मिन् ०" [ ७. २. १. ] इत्यत्र तदिति प्रथमान्ताद् विहितत्वेनाऽप्राप्त इत्यर्थः ।। २. ४. ५३ ।। 10 जातेरयान्त-नित्यस्त्री-शूदात् ॥ २. ४. ५४ ॥ जातिवाचिनोऽकारान्तानाम्नः स्त्रियां ङीर्भवति, न चेत् तद् यान्तं नित्यस्त्रीजातिवाचि शूद्रशब्दो वा भवति । तत्र जातिः काचित् संस्थानव्यङ्गया, यथा-गोत्वादिः, सकृदुपदेशव्यङ्गयत्वे सत्यत्रिलिङ्गाऽन्या, यथाब्राह्मणत्वादिः, अत्रिलिङ्गत्वं देवदत्तादेरप्यस्तीति सकृदुपदेशव्यङ्गयत्वे सती-15 त्युक्तम्, गोत्र-चरणलक्षणा च तृतीया, यदाहुः __"प्राकृतिग्रहणा जातिलिङ्गानां च न सर्वभाक् । सकृदाख्यातनिर्लाह्या, गोत्रं च चरणैः सह" ।। १ ।। इति । कुक्कुटी, सूकरी, तटी, पात्री; तथा ब्राह्मणी, वृषली; तथा नाडायनी, चारायणी; कठी, बह वृची। जातेरिति किम् ? मुण्डा, शुक्ला, कृता,20 देवदत्ता। अयान्तेति किम् ? इभ्या, क्षत्रिया, वैश्या, अर्या; गवयी, हयी, मुकयी, मनुषी, मत्सी, ऋश्यी इति गौरादिपाठात् । अन्तग्रहणं साक्षात्प्रतिपत्त्यर्थम्, तेन-वतण्डस्यापत्यं पौत्रादि स्त्रीति यञ्, तस्य लोपे स्थानिवद्भावेऽपि वतण्डीत्यत्र यान्तलक्षणः प्रतिषेधो न भवति । नित्यस्त्रीजातिवर्जनं किम् ? मक्षिका, यूका, खट्वा । कथं तर्हि द्रोणी ?, कुटी ?, अत्र हि शब्दयोनित्य-25 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ५५.] स्त्रीत्वाभावेऽपि द्रोणी-कुटीजातेनित्यस्त्रीत्वात् प्रतिषेधः प्राप्नोति ;-नैवम्गौरादिपाठाद् भविष्यति । शूद्रवर्जनं किम् ? शूद्रा। कथं महाशूद्रीआभीरजातिः ?, नात्र शूद्रशब्दो जातिवाची, किं तर्हि ?-महाशूद्रशब्दः, यत्र तु शूद्र एव जातिवाची तत्र भवत्येव ङीनिषेधः-महती चासौ शूद्रा च महाशूद्रति । जातिलक्षणस्य चायं प्रतिषेधः, तेन-धवयोगे भवत्येव शूद्रस्य । भार्या-शूद्री। आदित्येव-पाखुः, तित्तिरिः; कोयष्टिः । मुख्यादित्येवबहुशूकरा भूमिः, बहुब्राह्मणा शाला। कथं सुपर्णी ? सुपर्णशब्दस्यापि जातिवाचित्वात्, तस्य च मुख्यत्वात् ।। ५४ ।। न्या० स०--जातेरया०। जाति: सामान्यमभिन्नबुद्धिध्वनिप्रसवनिबन्धनमर्थः, तत्र च कार्यासम्भवात् तद्वाचिनो ग्रहणमित्याह-जातिवाचिन इति । सकृदुपदेशव्यङ्गयत्वे10 इति-उभयोरपि संबध्यते। आकृतिग्रहणेत्यत्र गृह्यतेऽनेनेति आकृति:-अवयवरचना ग्रहणं यस्याः। लिङ्गानां चेति-लिङ्गानां सर्व-सर्वत्वं भजति लिङ्गसमुदायं वा, सर्व भजते वा। सकृदाख्यातेत्यत्र सकृदाख्याता सती नियमेन ग्राह्या। पात्रीति-अव्युत्पन्नोऽयं, "हु-या-मा०" [ उरणा० ४५१. ] इति त्रप्रत्ययान्तो वा, डन्तस्य तु टिद्वारा ङी: सिद्ध एव । ब्राह्मणीति-अयमप्यव्युत्पन्नः, “चिक्कण०" [ उणा० १६०. ] इति 15 निपातो वा, ब्रह्म अणति कर्मणोऽणि पृषोदरादिनिपाते, अपत्याणि वाऽणन्तत्वाद् डी: सिद्ध एव । बह वचीति-"नाप्रियादौ" [ ३. २. ५३. ] इत्यनेन न पुवन्निषेधः, तत्र पुरण्यबन्तस्य ग्रहणात। यद्यपि कठादयोऽपि ब्राह्मणविशेषास्तथापि कठादीनामत्रिलिङ्गत्वं न, यथा-कठेन प्रोक्त वेत्त्यधीते वा-कळं ब्राह्मणकुलमिति तुर्य जातिलक्षणं विधेयमेव । कुटीति-मतान्तरेण कुटीशब्दस्य नित्य-स्रीत्वं, स्वमते "गृहे कुट:"20 [ लिङ्गानु० पुस्त्री० श्लो० २ ] इति लक्षणेन पुंस्त्रीत्वमिति मतान्तरेणेदं दर्शितम् । कथं महाशूद्रीति-केवलात् शूद्रात् ङ्यां महती चासौ शूद्री चेति महाशूद्रीति परस्याभिप्रायः। महांश्चासौ शूद्रश्च ति व्युत्पत्तिमात्रमिदम्, यथा-पलिक्नीत्यत्र वृत्तिनिमित्तं जातिः, जातिद्वारेण ङीः। आभीरजातिरिति-वैश्यभेद एव, आभीरो गवाधुपजोवी। कथं सुपर्णीति-पर्णशब्दस्यैव जातित्वं, तस्य च कृते समासे अमुख्यत्वमित्यभि-25 प्रायः ।। २.४.५४ ।। पाक-कर्ण-पर्ण-वालान्तात् ॥ २. ४. ५५ ॥ पाकाद्यन्ताज्जातिवाचिनो नाम्नः स्त्रियां डीभवति । अोदनस्येव पाकोऽस्या:-पोदनपाकी, क्षणं क्षणेन वा पाकोऽस्या:-क्षणपाकी, पाखुकर्णी, शकुकर्णी, मुद्गपर्णी, सालपर्णी, गौरिव वाला अस्याः-गोवाली, अश्ववाली; 30 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ५६-५८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३८७ संज्ञा एता प्रोषधीजातीनाम् । जातेरित्येव-बहुपाका यवागूः । आसां जातीनां नित्यस्त्रीरूपत्वाद् वचनम्, एवमुत्तरसूत्रत्रयेऽपि ।। ५५ ।। न्या० स०-पाककर्ण। आखुकर्णोति-पाखोः कर्ण इव कर्णः पत्रं यस्याः, शङ कुरिव कर्णोऽस्याः, मुद्गस्येव पर्णान्यस्याः, “सल गतौ" सल्यत इति घत्रि-साल:, दन्त्यादिः, सालस्येव पर्णान्यस्याः ।। २. ४. ५५ ।। असत-काण्ड-प्रान्त-शतकाचः पुष्यात् ॥ २. ४. ५६ ॥ सदादिरहितशब्दपूर्वो यः पुष्पशब्दस्तदन्ताज्जातिवाचिनो नाम्नः स्त्रियां ङीर्भवति । शङ्खपुष्पी, सुवर्णपुष्पी, हिरण्यपुष्पी। सदादिप्रतिषेधः किम् ? सत्पुष्पा, काण्डपुष्पा, प्रान्तपुष्पा, शतपुष्पा, एकपुष्पा, प्राक्पुष्पा, प्रत्यक्पुष्पा ।। ५६ ।। न्या० स०--असत्काण्ड । शङ्खपुष्पीति-शङ्खादिवर्णः शङ्खादिशब्दः, तेन शङ्खादि पुष्पं यस्याः। सत्पुष्पेत्यादि-अत्र सन्ति काण्डे प्रान्ते शतमेकं च पुष्पं पुष्पाणि वा यस्या इति विग्रहः । प्राकपुष्पेति-अञ्चतिलृप्तधाप्रत्ययान्तः, प्राक् प्रत्यक् पुष्पं यस्याः । २. ४. ५६ ।। असं-भस्त्रा-जिनैक-शण-पिण्डात् फलात् ।। २.४.५७॥ 10 15. समादिवजितशब्दपूर्वो यः फलशब्दस्तदन्ताज्जातिवाचिनो नाम्नः स्त्रियां ङीर्भवति । दासीफली, पूगफली; दाडिमफली। समादिप्रतिषेधः किम् ? संफला, भस्त्राफला, अजिनफला, एकफला; एकान्ने च्छन्त्यन्ये, शणफला, पिण्डफला; औषधिजातिविशेषाणां संज्ञा एताः ।। ५७ ।।। न्या० स०-असंभस्त्रा०। दासीफलीति-दासीव पूगो दाडिमं च फलं यस्या इति । संफलेति-संगतं भस्त्रेव अजिनमिव एकं च फलमस्याः । शरणफलेति-शरणस्येव फलान्यस्याः । पिण्डफलेति-पिण्डाकाराणि फलान्यस्याः पिण्डफला कटुतुम्बी, यनिघण्टु:-"कटुकाऽलाबुती तुम्बी लञ्चा पिण्डफला तथा" ।। २. ४. ५७ ।। अनञो मूलात् ॥ २. ४. ५८ ॥ नवजितशब्दपूर्वो यो मूलशब्दस्तदन्ताज्जातिवाचिनो नाम्नः स्त्रियां 25 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ५६.] डीभवति । दर्भमूली, शीर्षमूली । अनत्र इति किम् ? अमूला ।। ५८ ।। न्या० स०-अनमो०। दर्भमूलीत्यत्र दर्भस्येव शीर्षे च मूलं यस्याः। अमूलेत्यत्र न विद्यन्ते मूलानि यस्याः ।। २. ४. ५८ ।। धवाद् योगादपालकान्तात् ॥ २. ४. ५६ ॥ धवो-भर्ता, तद्वाचिनोऽकारान्ताद् योगात्-संबन्धात् स्त्रियां वर्तमानात् 5 पालकान्तशब्दजितान्नाम्नो ङीर्भवति । प्रष्ठस्य भार्या-प्रष्ठी, एवं प्रचरी, गणकी, महामात्री, कुमार्यां भवो भर्ता-कौमारः, तस्य भार्या-कौमारी प्रष्ठादयो हि शब्दा धववाचिनोऽपि योगात्-सोऽयमित्यभेदोपचारेण भार्यायां वर्तन्ते, यदा तु "तस्येदम्" [६. ३. १६०.] इति व्यतिरेकविवक्षा तदा तद्धितो भवतिप्राष्ठी, प्राचरी। धवादिति किम् ? परिसृष्टा, प्रजाता, प्रसूता; सर्वत्र10 विनि ठितगर्भेत्यर्थः, अस्त्यत्र योगस्तेन विना प्रसवाभावात्, न तु धववाचि नाम। योगादिति किम् ? देवदत्तो धवः, देवदत्ता भार्या स्वत एव, न तद्योगात् । अपालकान्तादिति किम् ? गोपालकस्य भार्या-गोपालिका, एवंपशुपालिका, अविपालिका। आदित्येव-सहिष्णोर्भार्या-सहिष्ण । कथं ज्येष्ठस्य भार्या-ज्येष्ठा ?, एवं कनिष्ठा ?, मध्यमा ? अजादि-15 पाठात् ।। ५६ ।। न्या० स०--धवाद् योगा। सम्बन्धादिति-सम्बन्धश्च संबन्धिनमपेक्षते, स च प्रत्यासन्नत्वाद् धवस्यैव विज्ञायते, तेन धवेन स्त्रिया सम्बन्धादित्यर्थः । कौमारीतिकुमारी एव प्रतीयते। योगात् सोऽयमिति-अत्र सोऽयमित्यभिसम्बन्धेन वृत्तिर्वेदितव्या, नवयमेवाभिसम्बन्धस्तस्येदमिति, किन्त सोऽयमित्यपि, अभेदाच्च भेदस्य निवतत्वात20 तद्धितानुपपत्तिः । व्यतिरेकविवक्षेति-प्रष्ठस्येयमिति भेदविवक्षेत्यर्थः । अस्त्यत्र योग इति-परिसर्ग-प्रसवौ सम्बन्धनिमित्तौ, न च तौ पुमांसमाचक्षात इत्याह-अस्त्यत्रेति । अन्ये त्वाहुः-परिसर्गो दोहद उच्यते, तेन परिसृष्टा सपरिसर्गा, जातदोहदेत्यर्थः । प्रजनःप्रथमं गर्भग्रहणं, प्रसवस्तु गर्भविनिलुण्ठनम्, एतैश्च योषित एव सम्बन्धो न पुसः, पुरुषसंयोगनिमित्ता एते, न तद्वाचिन इत्यर्थः । गोपालकस्येति-पालयतीति पालकः,25 गवां पालक इति “अकेन क्रीडाजीवे" [३. १. ८१.] इति कर्मषष्ठीसमासः ॥ २.४.५६ ।। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ६०–६२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३८६ पूतक्रतु-वृषाकप्यग्नि- कुसित - कुसिदादै च ॥ २. ४. ६० ॥ एभ्यो धवनामभ्यस्तद्योगात् स्त्रियां वर्तमानेभ्यो ङीर्भवति, तत्संनियोगे ऐकारश्चान्तादेशः । पूतक्रतोर्भार्या - पूतक्रतायी, एवं वृषाकपायी, ग्रग्नायी, कुसितायी, कुसिदायी । योगादित्येव - पूताः क्रतवो यया सा पूतक्रतुः एवंवृषाकपिर्नाम काचित् ।। ६० ।। न्या० स० -- पूतक्रतु० । ननु कुसिदादै चेति पञ्चमीनिर्देशादेकारः प्रत्यय एव विज्ञायते, ततश्च ङी ऐकारश्च प्रत्ययौ भवत इति सूत्रार्थः कथं न लभ्यते, कथमुक्तमैकारवान्तादेश इति नैष दोष:- " एयेऽग्नायी” [ ३. २. ५२. ] इति निर्देशात्, न ह्यकारस्य प्रत्ययत्वे अग्नायीति भवति । वृषो धर्मः, कपिर्वराहस्ताद्रूप्यात् पृषोदरादित्वाद् दीर्घे - वृषाकपिः, वृषं दानवमात्रम्पितवान् वा “अम्भि कुण्ठि" [ उरगा० ६१४. ] इति इ: 110 कुसितकुसिदो ऋषी ।। २. ४. ६० ।। मनोरौ च वा ॥। २. ४. ६१ ।। मनोर्धवनाम्नस्तद्योगात् स्त्रियां वर्तमानाद् ङीर्वा भवति, तत्संनियोगे ऐकारश्चान्तादेशो भवति । मनोर्भार्या -मनावी, मनायी, कार मनुः ।। ६१ ।। 5 न्या० स०-- मनोरौ० । प्रत्ययसंनियोगार्थं चकारोऽनुवर्त्तते । वाशब्दः प्रथमं विधेयतया प्रधानेन ङीप्रत्ययेन संबध्यते, न त्वौकारेण तत्संनियोग विधानेनाप्रधानत्वादिति ।। २. ४. ६१ । 15 वरुणेन्द्र- रुद्र-भव- शर्व - मृडादान् चान्तः ।। २. ४. ६२ ।। एभ्यो धवनामभ्यस्तद्योगात् स्त्रियां वर्तमानेभ्यो ङीर्भवति, तत्संनियोगे 20 च आनन्त आगमो भवति । वरुणस्य भार्या - वरुणानी, एवम्-इन्द्राणी, रुद्राणी, भवानी, शर्वाणी, मृडानी । कश्चित् त्वाहिताग्नेर्भार्या - ग्राहिताग्न्यानी, एवं प्रजापत्यानी, वणिजानीत्यादावपीच्छति इन्द्रमाचष्टे इन्द्र, तद्भार्या - इन्द्राणी, एवं - मातुलानीत्यपरः ।। ६२ ।। न्या० स० -- वरुणेन्द्र० । आनन्त आगमो भवतीति श्रानिति दीर्घोच्चारणं25 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [ पा० ४. सू० ६३-६५.] मतसंग्रहार्थम्, अन्तग्रहणाभावे तु प्रानपि भिन्नप्रत्ययः स्यात् । किञ्चवान्तग्रहणभावे “अनेकवरणः सर्वस्य” [ ७.४. १०७ ] इति सर्वस्यादेशः स्यात् ।। २. ४. ६२ ।। मातुलाचार्योपाध्यायाद् वा ।। २. ४. ६३ ॥ एभ्यो धवनामभ्यस्तद्योगात् स्त्रियां वर्तमानेभ्यो ङीर्भवति, तत्सन्नियोगे चाऽनन्तो वा भवति । मातुलस्य भार्या - मातुलानी, मातुली; एवम् - प्राचार्यानी, क्षुभ्नादित्वाण्णत्वाभाव:, प्राचार्थी, प्राचार्येति नेच्छन्त्यन्ये, उपाध्यायानी, उपाध्यायी; प्रन्ये तु - मातुला, प्राचार्या, उपाध्यायेत्यपीच्छन्ति, तदर्थं ङीप विकल्पनीयः ।। ६३ ॥ T 5 सूर्याद् देवतायां वा ॥ २. ४. ६४ ॥ सूर्यशब्दाद् धवनाम्नस्तद्योगाद् देवतायां स्त्रियां वर्तमानाद् ङीर्वा10 भवति, तत्संनियोगे ग्रान् चान्तः । सूर्यस्य भार्या -सूर्याणी, पक्षे आबेव - सूर्या । देवतायामिति किम् ? सूर्यस्यादित्यस्य मनुष्यस्य वा भार्या मानुषी - सूरी । सूर्याणीति नेच्छन्त्यन्ये ।। ६४ ।। न्या० स० -- सूर्याद्दे० । सूर्यस्यादित्यस्येति - भगवतोऽपि हि सूर्यस्य वरप्रदानेन मानुषी या भार्या या सूरी, यथा- कुन्ती । सूर्यारणीति नेच्छन्त्यन्ये इति - पूर्वे, सूर्याणी तु15 शकट एव ।। २. ४. ६४ ।। यव-यवना-9रण्य-1 - हिमाद् दोषलिप्युरूमहत्त्वे ।। २. ४. ६५ ॥ धवाद् योगादिति च निवृत्तम्, यवादिभ्यः शब्देभ्यो यथासंख्यं दोषादौ गम्यमाने स्त्रियां ङीर्भवति, तत्संनियोगे ग्रान् चान्तः । दोषे - दुष्टो यवो -- 20 यवानी, यवानां दोषकारि सहचरितं द्रव्यान्तरम्, अप्रसवधर्मा यव एवेत्यन्ये । लिपौ - यवनानामियं लिपिः -- यवनानी, उक्तार्थत्वात् " तस्येदम्” [ ६. ३. १६०.] इत्यरण न भवति । उरुत्वे - उर्वरण्यम् - अरण्यानी । महत्त्व - महद्धिमं - हिमानी । लिपीति किम् ? यावनी वृत्तिः, यवनस्य भार्या - यवनी । यवा ऽरण्यहिमानां तु दोषाद्यभावे स्त्रीत्वमेव नास्तीति न प्रत्युदाह्रियते, संज्ञायां तु भवत्येव - 25 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [पा० ४. सू० ६६-६८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३९१ यवा, यवना, अरण्या; हिमा नाम काचित् ।। ६५ ।। न्या० स०--यव-यवना० । यौतेरचि यवः, नन्द्यादित्वादने च यवनः । धवाद् योगादिति च निवृत्तमिति दोषाद्यर्थविशेषोपादानादिति शेषः । दुष्टो यव इति-अत्रावयवार्थ एवंविधोऽसन्नदेव व्युत्पत्तये परिकल्प्यते, यवजातहि जात्यन्तरं यवानीत्यर्थः द्रव्यान्तरमिति - रालक इत्यर्थः । उरु-महत्त्वयोरेकार्थत्वेऽपि पृथुगुपादानं यथासंख्यार्थम् । 5 प्रण न भवतीति-तद्विषये ङोविधानादित्यर्थ: ।। २. ४. ६५ ।। आर्य-क्षत्रियाद् वा ।। २. ४. ६६ ।। आभ्यां स्त्रियां ङीर्वा भवति, तत्संनियोगे प्रान् चान्तः । आर्याणी, आर्या, क्षत्रियाणी, क्षत्रिया; अधवयोगेऽयं विधिः, धवयोगे तु विशेषविधानात् पूर्वेण नित्यं ङीरेव -- प्रार्यस्य भार्या - प्रार्थी एवं क्षत्रि धवयोग एवायं 10 विधिरिति कश्चित्, तन्मते - आर्यस्य भार्या - आर्याणी, आर्या एवं क्षत्रियाणी, क्षत्रिया; धवयोगादन्यत्र प्रार्या क्षत्रियेत्येव भवति ।। ६६ ।। यत्रो डायन् च वा ।। २. ४. ६७ ।। यञ्प्रत्ययान्तात् स्त्रियां ङीर्भवति, तत्संनियोगे डायन् चान्तो वा भवति । गार्गी, गार्ग्यायणी; वात्सी, वात्स्यायनी ।। ६७ ।। न्या० स० -- यत्रो डा० । डायन् चेत्यत्र डित्कररणमासुरायरणीत्यत्र प्रयोजनार्थम् । डायन् चान्तो वा भवतीति - साक्षान्निदिष्टस्य डायन एव वाशब्देन सम्बन्धो, नानुमितेन ङीप्रत्ययेन प्रत्यासत्तेः, "षावटाद् वा " [ २. ४. ६६. ] इति सूत्रकरणाद् वा ।।२.४.६७।। 15 लोहितादिशकलान्तात् ।। २. ४. ६८ ।। लोहितादिभ्यः शकलान्तेभ्यो यवन्तेभ्यः स्त्रियां ङीर्भवति, तत्संनियोगे 20 डायन् चान्तः । लौहित्यायनी, सांशित्यायनी, कात्यायनी, शाकल्यायनी ।। ६८ ।। न्या० स० -- लोहिता० । अत्र यदि यत्र इति नाधिक्रियते तदा 'लोहिता' इत्यत्र “श्येतैत०” [ २. ४. ३६. ] इति ङीविकल्पपक्षे, सकलस्य भार्या - शकलीत्यत्र चानेन ङी डायन् च स्यात्, लोहित्यायनीत्यादौ च यत्रन्तान्न स्यादत श्राह - यजन्तेभ्य इति । कायते : 25 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ६९-७१.] "पृषि-रजि०" [उणा० २०८.] इति कित्यते आकारलोपे च-कतः ।। २. ४. ६८ ॥ । पावटाद् वा ॥२. ४. ६६ ।। षकारान्तानाम्नोऽवटशब्दाच्च यजन्तात् स्त्रियां वा डीभवति, तत्संनियोगे डायन् चान्तः। पौतिमाष्यायणी, पौतिमाष्या; शार्कराक्ष्यायणी, शार्कराक्ष्या; गौकक्ष्यायणी, गौकक्ष्या; पावट्यायनी, आवट्या ।। ६६ ।। 5 न्या० स०--पावटाद् वा । अत्र ङी-डायनोरुभयोरनुवर्तनात् प्राधान्यात् ङीप्रत्ययेनैव वाशब्दस्य सम्बन्धो, नाऽन्वाचीयमानेन डायनेत्याह-स्त्रियां वा डोर्भवतीति ।। २. ४. ६६ ॥ कौरव्य-माण्डूका-सुरे ॥ २. ४. ७० ॥ एभ्यः स्त्रियां ङीर्भवति, तत्संनियोगे डायन् चान्तः । कौरव्यायणी,10 माण्डूकायनी, आसुरायणी ।। ७० ।। न्या० स०--कौरव्य० । कौरव्यायणीति-यदा कुरोर्ब्राह्मणस्यापत्यं तदा "कुर्वादेर्व्यः" [६. १. १००.], यदा तु कुरो राज्ञोऽपत्यं तदा "दुनादि०" [ ६. १. ११८. ] इत्यनेन, अयं चानयोविशेषः-दुनादीत्यस्य द्रिसंज्ञत्वाद् बहुषु लुप् भवति। मण्डूकस्यापत्यं "पीला-साल्वा०" [७. १. ८७.] इत्यण् । असुरस्य ऋषेरपत्यं स्त्री "बाह्वादि०"15 [६. १. ३२.] इञ् ॥ २. ४. ७० ।। इत्र इतः ॥ २. ४.७१॥ इञ्प्रत्ययान्तानाम्न इकारान्तात् स्त्रियां ङीर्भवति । सुतंगमेन निर्वृत्तेति इञि सौतंगमी, एवं मौनिचित्ती इत इति किम् ? इञआदेशात् ष्याद् मा भूत्-वराहस्यापत्यं-वाराह्या, एवं-बालाक्या, कारीषगन्ध्या, कौमुद-20 गन्ध्या ।। ७१ ॥ न्या० स०--इत्र इतः। इकारान्तादिति-तद्धितप्रकरणसाहचर्यात् "प्रश्नाख्याने वे" [५. ३. ११६.] इति इञ् न गृह्यते, पूर्वसूत्रे आसुरिग्रहणात् । डायन् नानुवर्तते, अन्यथा इअन्तद्वारेण सिद्धम् । अपत्येान्तस्य मनुष्यजातिवचनत्वादुत्तरेणैव सिद्धेऽजात्यर्थोऽमारम्भः ।। २.४.७१ ॥ 25 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ७२-७३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३६३ नुतिः ॥ २. ४. ७२॥ नुर्मनुष्यस्य या जातिस्तद्वाचिन इकारान्तानाम्नः स्त्रियां ङीर्भवति । अवन्तेः कुन्तेश्चापत्यमिति ज्यः, तस्य लोपे-अवन्ती, कुन्ती, दाक्षी, प्लाक्षी, तैकायनी, ग्लुचुकायनी। इत इत्येव-विशोऽपत्यमित्यत्र तस्य च लोपे-विट, एवं-दरद्; अवन्तीयतेः क्विप्, तस्य लोपे-अवन्तीः स्त्री। नुरिति किम् ? 5 तित्तिरिः । जातेरिति ? निष्कौशाम्बिः कन्या ।। ७२ ।। न्या० स०--नुर्जातः। अवन्ती, कुन्ती, “दुनादि०" [ ६. १. ११८. ] इति ञ्यः "कुन्त्यवन्ते:०" [ ६. १. १२१. ] इति लुप् । तैकायनी "तिकादेरायनि" [६. १. १०७. ] । ग्लुचुकायनी "अदेरायनिः" [६. १. ११३.] । तस्य च लोपे इति"राष्ट्रक्षत्रियात्" [ ६. १. ११४. ] इति विहितस्य "द्रेरणः०" [६. १. १२३.]10 इत्यनेनेत्यर्थः । एवं-दरदिति “पुरमगध०" [ ६. १. ११६. ] इति विहितस्याणः, एवं चास्य "गोत्रं च चरणैः सह" इति जातित्वम् ; यद्वा मनुष्यपर्यायत्वात् स्वयमेव जातित्वम् । अवन्तीः स्त्रीति-अवन्तेरपत्यं बहवो माणवका: "दुनादि०" [६. १. ११८.] ज्यः, "बहुषु०" [ ६. १. १२४. ] इति लुप्, अवन्तीनिच्छति या स्त्री क्यन्, अवन्तेरपत्यं या स्त्रीति तु कृते "दुनादि०" [६. १. ११८.] ञ्यस्य “कुन्त्यवन्ते:०" [ ६. १. १२१. ]15 इत्यनेन लुपि क्यनः प्रागेव ङीः स्यात् ।। २. ४. ७२ ।। उतोऽप्राणिनश्चायुरज्ज्वादिभ्य ऊङ् ॥ २. ४. ७३ ॥ उकारान्तान्न जातिवाचिनोऽप्राणिजातिवाचिनश्च नाम्नः स्त्रियामूङ् प्रत्ययो भवति, युशब्दान्तं रज्ज्वादींश्च वर्जयित्वा । कुरूः, इक्ष्वाकूः, ब्रह्मबन्धूः, धीवबन्धुः; अप्राणिनश्च-अलाबूः, कर्कन्धूः; ब्रह्मा बन्धुरस्या इत्यत्रोङः पूर्वं20 "शेषाद् वा" [७. ३. १७५.] इति कच् प्रत्ययः परोऽपि न भवति, तत्र बहुलाधिकारात् । उत इति किम् ? विट, वधूः, ऊङि हि सति वधूमतिक्रान्तोऽतिवधूरित्यत्र हृस्वः स्यात्, यथा--अतिब्रह्मबन्धुरित्यत्र । अप्राणिनश्चेति किम् ? पाखुः, कृकवाकुः। जातेरित्येव-पटुः, चिकीर्षुः-स्त्री; काकु:स्वरभेदः, शङ्कः--संख्याविशेषः । अयुरज्ज्वादिभ्य इति किम् ? अध्वर्युः स्त्री,25 चरणत्वाज्जातिः; रज्जुः, हनुः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । कथं तर्हि भीरु ! गतं निवर्तत इति ? भीरुशब्दस्य हि क्रियावाचित्वाज्जातिलक्षणस्योङोऽभावे संबोधने प्रोत्वं प्राप्नोति, नैवम्-ताच्छीलिकानां संज्ञाप्रकारत्वान्मनुष्यजाति Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू०७४-७५.] वचनत्वम्, तथा चोङि सति ह्रस्वत्वं सिद्धम् । अन्ये तु " सूर्यं पश्यरूपा त्वं किमभीरुररार्यसे” इति प्रयोगदर्शनाज्जातिवचनत्वमनिच्छन्त ऊङ न मन्यन्ते ।। ७३ । ३९४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते " न्या० स० -- उतोऽप्रा० । ऊङिति दीर्घनिर्देश उत्तरार्थः तेन "नारी सखी ० [ २. ४. ७६. ] इत्यत्र श्वश्रूरिति दीर्घान्तो निपातः सिद्धः । कुरूरिति तस्यापत्यं 5 " दुनादि ० " [ ६. १. ११८. ] इति विहितस्य त्र्यस्य "कुरोर्वा" [ ६. १. १२२. ] इति लुपि " गोत्रं च चरणैः सह" इति जातित्वादुङ । इक्ष्वाकूरिति - "राष्ट्रक्षत्रियात् ०" [ ६. १. ११४. ] इति अञ्, तस्य "द्रेरण० " [६. १. १२३ . ] लुप् । ब्रह्मबन्धूरितिअत्र च "लिङ्गानां च न सर्वभाक्" इति जातित्वम् । तत्र बहुलाधिकारादितिसमासान्तप्रकरणे इत्यर्थः, यद्वा ऊश्वासावुङ चेति द्विविधानादन्यः प्रत्ययो न भवतीति 10 कैयटमतम् ।। २. ४. ७३ ।। बावन्त-कद्रु-कमण्डलोर्ना म्नि ॥ २. ४. ७४ ।। बाहुशब्दान्तान्नाम्नः कद्र - कमण्डलुभ्यां च नाम्नि विषये स्त्रियामूङ् प्रत्ययो भवति । मद्रबाहूः, भद्रबाहूः, कद्र ू, कमण्डलूः; संज्ञा एताः । नाम्नीति किम् ? वृत्तौ बाहू अस्या वृत्तबाहुः ।। ७४ ।। न्या० स०-- बाह्वन्त० । अन्तग्रहणं तदन्तविध्यर्थम्, प्रक्रियमाणे हि तस्मिन् यः स्त्रीसंज्ञायां बाहुशब्दस्तस्मात् केवलादूङ् विधीयते, यथैव हि देवदत्तशब्दः स्त्री- पु सयोः संज्ञा, एवं बाहुशब्दोऽपि प्रप्राणिनश्चेत्यनेन भुजाभिघायकाद् बाहुशब्दादुङ सिद्धो न तु संज्ञाशब्दात्, अन्तग्रहणात् तु तदन्ताद् बाहुशब्दात् क्रियते, न तु केवलात् । मद्रबाहूरित्यत्र मद्रौ भद्रौ बाहू यस्या इत्यवयवार्थकल्पना यथाकथञ्चित् समुदायस्य संपादनार्थं 20 क्रियते । कमण्डलूरित्यत्र कमण्डलुशब्दस्य चाप्राणिजातित्वादप्राणिनश्चेत्यङि प्राप्ते नियमः क्रियते, रज्ज्वादिपाउन च ऊङ प्रतिषेधे प्राप्ते विधिः क्रियत इति । नन्वस्याप्राणिजातिवचनत्वात् “चतुष्याद्भय एयञ्” [ ६. १. ८३. ] इत्यत्र कामण्डलेय इति कथमुदाहरति, चतुष्पाज्जातिवाचित्वात् प्राणिजातित्वमव्यभिचरितमेव, सत्यम् - प्रप्राणिजातिवचनोऽयं शब्दान्तरमेव, श्रानन्त्यात् शब्दानामिति ।। २. ४. ७४ ।। उपमान-सहित-संहित-सह- सफ-वाम-लक्ष्मणाद्यूरो ।। २. ४. ७५ ॥ , उपमानादिपूर्वपदाद्दूरुशब्दात् स्त्रियामूङ् प्रत्ययो भवति । 15 करभ इव 25 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ७६-७७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३६५ ऊरू यस्याः सा--करभोरूः, एवं--नागनासोरूः, कदलीस्तम्भोरूः, सहितोरू:, संहितोरू:, सहोरूः, सफोरूः, वामोरू:, लक्ष्मणोरूः। उपमानाद्यादेरिति किम् ? वृत्तोरुः, पीनोरुः । कथं स्वामिन ऊरू-स्वाम्यूरू, हस्तिन इव स्वाम्यूरू यस्याः सा-हस्तिस्वाम्यूरुः वडवा ? एवं--करभमात्रुः; नात्रोरुशब्द उपमानादिपूर्वोऽपि तु स्वाम्यूरुमात्रूरुशब्दौ ।। ७५ ।। न्या० स०--उपमान। कुत्सितौ अपलक्षणौ ऊरू यस्याः, शत्रुपर्यायावेतौ । सफशब्दः संक्लिष्टार्थोऽव्युत्पन्नो दन्त्यादिरिति न्यासकृत् । लक्ष्मणादूरोरिति कृते 'सहिता ऊरुः, हे संहित ! ऊरुर्वर्त्तते' इत्यादावपि स्यात् । आदिशब्दः पूर्वावयववचनः, तेन च समासलाभादूरोरुत्तरपदत्वं गम्यते, अत आह-उपमानादिपूर्वपदादिति । नागनासोरूरिति-नगे भवा अरिण-नागाः, नास्यत इति "क्तट:" [५. ३. १०६.] इत्यप्रत्यये--10 नासा। कदलीस्तम्भोरुरिति-कदलशब्दाद् गौरादित्वाद् ड्याम् । कथमिति-यद्यत्रादिग्रहणमकृत्वाऽन्तग्रहणं क्रियेत तदा ऊर्वन्तादिति विज्ञायमानेऽत्राप्यूङ प्रसज्येत, अस्ति ह्यत्रोपमानात् परोऽयमूर्वन्तः-स्वाम्यूरुशब्दः, हस्तिस्वाम्यूरुरिति । वडवेत्यादि-यथा हस्तिनः सम्बन्धित्वेन स्वाम्यूरू पायातस्तथा वडवाया अपि, एतावता उच्चस्त्वं वडवाया निवेदितम् ।। २. ४. ७५ ।। नारी सरती पणू श्वशू ॥ २. ४. ७६ ॥ एते शब्दाः स्त्रियां ड्यन्ताश्च ऊङन्ताश्च निपात्यन्ते । न-नरयोङऱ्या नारादेशः--नारी। सखिशब्दात् सखशब्दाच्च बहुव्रीहेर्डीः--सखी, सह खेन वर्तते या सापि--सखी; निपातनसामर्थ्याद् धवयोगेऽपि भवति--सख्युः स्त्री-- सखी । पङ्गशब्दादजातावूङ्--पङ्गः । श्वशुरशब्दाच्च जातिलक्षणे धवयोग-20 लक्षणे च ङीप्रत्यये प्राप्ते ऊङ् उकाराकारयोर्लोपश्च-श्वश्रूः ।। ७६ ॥ न्या० स०--नारी सखी० । पॉशब्दादजाताङिति-यद्यप्ययं गुणवचनस्तथापि नात्रैकवर्णव्यवहितस्वरात् पर उकार इति "स्वरादुत:०" [ २. ४. ३५. ] इति, अमनुष्यजातित्वादप्राणिजातित्वाभावाच्च “उतोप्राणिनः०" [२. ४. ७३. ] इति वाप्राप्तेऽनेनोङ । श्वश्रूरित्यत्र द्वावपि तालव्यौ। अयं च यद्वा श्वशुरशब्दः संज्ञाशब्दस्तदा अपि25 श्वशुरा इत्येव भवति, न तु श्वश्रूरिति ।। २. ४. ७६ ।। 15 यूरिस्तः ॥ २. ४. ७७ ॥ युवन्शब्दात् स्त्रियां तिः प्रत्ययो भवति, नकारान्तत्वाद् डीप्रत्यये प्राप्ते Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते तदपवादो योगः । युवतिः । यूनीत्यपि कश्चित्, न तच्छिष्टसंमतम् । कथं युवती ?, यौते रौणादिककिदतिप्रत्ययान्तात् " इतोऽक्त्यर्थात् " [२. ४. ३२.] इति ङीर्भविष्यति । मुख्यादित्येव -- प्रतियूनी, निर्यूनी ॥ ७७ ॥ [ पा० ४. सू० ७८.] न्या० स०-- - यूनस्तिः । युवतिरित्यत्र ङीरिति जातिग्रहणे सकृद् बाधित० इति न्यायात् पश्चात् " इतोऽक्त्यर्थात् " [ २. ४. ३२. ] इत्यपि न ।। २. ४. ७७ ।। अनार्षे वृद्धेsणिञो बहुस्वरगुरूपान्त्यस्यान्त्यस्य व्यः ॥। २.४.७८ ।। 4 5 अनार्षे वृद्धे विहितौ यावणिजौ प्रत्ययौ तदन्तस्य सतो बहुस्वरस्य गुरूपान्त्यस्य नाम्नोऽन्त्यस्य स्त्रियां ष्य इत्यादेशो भवति, गुरुग्रहणादनेकव्यञ्जनव्यवधानेऽपि भवति; गुरुग्रहणं हि दीर्घपरिग्रहणार्थं संयोगपरपरि - 10 ग्रहार्थं च, अन्यथा दीर्घोपान्त्यस्येत्युच्येत । करीषस्येव गन्धोऽस्य करीषगन्धिः, तस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री इत्यण, तस्य ष्यादेशः - कारीषगन्ध्या, एवं - कौमुदगन्ध्या । देवदत्तस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री इतीञ, तस्य ष्यादेशः -- दैवदत्त्या, एवं - वाराह्या, बालाक्या । अनार्ष इति किम् ? वासिष्ठी, वैश्वामित्री । वृद्ध इति किम् ? वराहस्य प्रथमापत्यं स्त्री - वाराही, अहिच्छत्रे जाता - प्राहिच्छत्री, एवं - 15 कान्यकुब्जी । प्ररिणञ इति किम् ? ऋतभागस्यापत्यमिति बिदाधित्वादञ् - आर्तभागी, एवम् प्राष्टिषेणी । बहुस्वरेति किम् ? दाक्षी, प्लाक्षी । गुरूपान्त्यस्येति किम् ? औपगवी, कापटवी । प्रणिजन्तस्य सतो बहुस्वरादिविशेषणं किम् ? द्वारस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री इतीजि - दौवार्या, तथा - उडुलोम्नोऽपत्यमितीबि -- प्रडुलोम्या, सारलोम्या; अत्रेञः पूर्वम बहुस्वरत्वेऽगुरूपान्त्यत्वे च20 सत्यपीत्रि सति बहुस्वरत्वाद् गुरूपान्त्यत्वाच्च यथा स्यात् । स्त्रियामित्येवकारीषगन्धः, वाराहिः पुमान् । मुख्यस्येत्येव - बहवः कारीषगन्धा यस्यां साबहुकारीषगन्धा, निर्वाराहिः । कथं सौधर्मी ?, श्रायस्थूणी ?, भौलिङ्गी ?, आलम्बी ?, आलच्ची ?, कालच्ची प्रौद्ग्राहमानी ? ; -- गौरादिपाठात् । षित्करणं " या पुत्रपत्योः ०" [२. ४. ८३.] इत्यत्र विशेषणार्थम् ।। ७८ ।। 25 अन्त्यस्य ष्य इति- अणन्तमित्रन्तं च बहुस्वरं नाम न्या० स०-- अनार्षे० । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ७६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ३६७ निर्दिष्टमिति निर्दिश्यमानानाम् इति न्यायेन सकलस्याप्यादेश प्राप्तेऽन्त्यग्रहणम्, उत्तरार्थं च, तेन "भोजसूतयो:०" [२. ४. ८१.] इत्यत्र “अनेकवर्णः सर्वस्य" [ ७. ४. १०७. ] इति न्यायान्न सर्वयोर्भोज-सूतशब्दयो: ष्यादेशः । देवदत्त्येति-शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् ष्यादेश आबन्तसहित एव स्त्रीलिङ्गमभिव्यनक्ति, एवं-कारीषगन्ध्येत्यत्रापि । कान्यकुब्जीत्यत्र कन्या कुब्जा यत्रेति “ड्यापो बहुलम्०" [ २. ४. ६६. ] 5 इति ह्रस्वः, यद्वा कन्याशब्दं केचित् परतः स्त्रीलिङ्ग मन्यन्ते । प्रार्तभागीति-ननु च ऋषिवचन एवायमृतभागः, तत्रानार्षत्वमपि नास्तीति द्वयङ्गविकलत्वम्, सत्यम्-शास्त्रेऽस्मिन् प्रदेशान्तरेऽपि ऋषिश्रुत्या विहितः "ऋषि-वृष्ण्यन्धक०" [ ६. १. ६१. ] इति प्रत्यय आर्ष इति रूढः, अयं तु “बिदादिभ्यः" [६. १. ४१.] इत्येवं विहितत्वादनार्ष इति प्रत्युदाह्रियते; ऋत:-प्राप्तो भगः-पुण्यं येन, अथवा ऋतेन-सत्येन भज्यते वा ।10 औपगवीति-उपगता गावोऽस्यानेन वेत्युपगुः । बहुकारीषगन्धा निर्वाराहिरित्यत्राणिअन्तस्य स्त्रीवृत्तित्वेऽपि मुख्याधिकारात् तस्यान्यपदार्थे गुणीभूतत्वेन मुख्यत्वाभाव इति । नन्वेते याबादयः स्त्रीप्रत्ययाः स्त्रीत्वस्य द्योतका न तु वाचकाः, तत्र यथा विद्युदादयः शब्दाः स्त्रीप्रत्ययमन्तरेण स्वमहिम्नैव स्त्रीत्वं प्रतिपादयन्ति तथा खट्वादयोऽपि प्रतिपादयिष्यन्ति, किमेभ्यः स्त्रीप्रत्ययविधानेन ? उच्यते-विचित्रशक्तयो हि भावा भवन्ति, तेऽत्र 15 यथा-घनतरतिमिरनिकरनिरुद्धपदार्थ-सार्थेऽपि निशीथे गगनतलप्रसृमरांशुरचिरांशुरितरनिरपेक्षतयैवात्मानं प्रकाशयति, न चैवं स्तम्भादयः, तेऽपि चास्मदादीनां प्रदीपादिप्रकाशकसव्यपेक्षा प्रात्मान प्रकाशयन्त्येव, सोश्लष्टानां तू प्रदीपादिनिरपेक्षा एव; यथा वा सूर्योपलश्चण्डांशुकरनिकरसंपर्कसमासादितमाहात्म्यः स्वयं शीतोऽपि सान्तरमवस्थितं दाह्य दहति, न तु प्रत्यासन्न, प्रत्युत, तत्र शैत्यमुपदर्शयति, तथा शब्दा अपि शक्तिवैचित्र्यात् 20 क्वचित् पदत्वेन पदान्तरसापेक्षेण पदान्तरानपेक्षेण च स्त्रीत्वं प्रतिपादयन्ति, तत्र पदान्तरसापेक्षेण यथेयं गौरित्यादि, अत्र गवाद्यर्थस्योभयलिङ्गत्वादियमिति पदान्तरापेक्षेण गवादिपदेन स्त्रीत्वं प्रतिपाद्यते, तस्य स्त्रीत्वाप्रतिपादने इयमिति न स्यात। पदान्तरानपेक्षेण नाममात्रेणादेश-प्रत्ययाभ्यां च, तत्र नाममात्रेण यथा-स्वसा दुहितेत्यादयः, अत्र नाममात्रमेव स्त्रीत्वप्रतिपत्तौ समर्थमिति स्त्रीप्रत्ययाभावः, आदेशेन सप्रत्ययेना-25 प्रत्ययेन च, सप्रत्ययेन-क्रोष्ट्री, कारीषगन्ध्येति, अप्रत्ययेन-तिस्रः, चतस्र इति; प्रत्ययेनैकेनानेकेन च, तत्रैकेन-राज्ञी, खट्वेति; अनेकेन सान्तरेण निरन्तरेण सान्तरनिरन्तरेण च, सान्तरेण-कालितरा हरिरिणतरेति, निरन्तरेण-आर्याणी भवानी, सान्तरनिरन्तरेणआर्याणितरा भवानितरेति । तदेवमनेकप्रकारायां लिङ्गप्रतिपत्तौ नैक: प्रकारः शक्यो नियन्तुम्, शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् ।। २. ४. ७८ ॥ 30 कुलारख्यानाम् ॥ २. ४. ७६ ॥ पुणिक-भुणिक-मुखरप्रभृतयः कुलाख्याः, कुलमाख्यायते आभिरिति कृत्वा, तासामनार्षे वृद्धेऽणिजन्तानामन्तस्य स्त्रियां ष्यो भवति; अबहुस्वरा Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] बृहद्वृत्तिल घुन्याससंवलिते [ पा० ४. सू० ८०.] गुरूपान्त्यार्थं वचनम् । पुरिणकस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री - पौरिणक्या, भौणिक्या, मौखर्या, गौप्त्या । वृद्ध इत्येव - पौरिगकी, भौणिकी; - अत्र प्रथमापत्ये इञ । अनार्ष इत्येव - गौतमी । गौरादित्वात् तु भौरिकी भौलिकी ।। ७६ ।। न्या० स० -- कुलाख्यानाम् । कुलमाचक्षते - व्यपदिशन्ति यतः कुलाख्या:, यद्वा कुलमाख्यायते आभिरिति "स्थादिभ्यः कः" [ ५. ३. ८२.] बाहुलकात् स्त्रीत्वं स्वप्रभ- 5 वस्यापत्यसंतानस्य व्यपदेशिका: पुणिक - भुणिक - मुखरप्रभृतयः । पौणिक्येत्यत्र पुरणति भरगति प्रच्, "पृषोद० " [ ३.२.१५५. ], पुणो भुगोऽस्यास्तीति "प्रतोऽनेक ० " [ ७. २. ६. ] इति इकः । गौरादित्वात् तु भौरिकी भौलिकीति -अयमर्थः - प्रथममनेन प्राप्तावस्य बाधनार्थं गौरादौ पाठः, ततस्तत्र पाठाद् ङीरेव केवली मा भूदिति क्रौडयादो पाठ: ।। २. ४. ७६ ।। 10 कौड्यादीनाम् ॥ २. ४. ८० ॥ अबहुस्वरागुरूपान्त्यार्थोऽनन्तरापत्यार्थश्वारम्भः, 'कौडि' इत्येवमादीना - मरिणञन्तानामन्तस्य स्त्रियां ष्यादेशो भवति । क्रोडस्यापत्यं क्रौडिः, स्त्रीकौड्या, लाड्या | कौडि, लाडि, व्याडि, आपक्षिति, पिशलि, सौधातकि, भौरिकि, भौलिकि, शाल्मलि, शालास्थल, कापिष्ठलि, रौढि, दैवदत्ति, 15 याज्ञदत्ति इत्यादय इञन्ताः । चौपयत, चैकयत, चैटयत, बैल्वयत, शैकयत; एतेऽरणन्ताः । ष्यस्यादेशत्वात् क्रौडेयः चौपयतेय इत्यादिषु प्रापत्यस्य यस्य लोपः सिद्धः, अन्ये त्वत्र ष्यस्य प्रत्ययत्वमिच्छन्तो यलोपं नेच्छन्ति - क्रौड्य यः, चौपयत्येयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ८० ।। न्या० स० -- क्रोडघादीनाम् । क्रोडस्यापत्यभित्यत्र करोतेः "विहड - कहोड ० "20 [ उणा० १७२. ] इत्यडेऽकारस्य निपातनादोकारे । व्याडीत्यत्र विविधमडतीति व्यडः । भौलिकीत्यत्र बिभर्ते: “कुशिक ० " [ उणा० ४५. ] इत्यादिना भुरिक, ऋफिडादिलत्वेभुलिक, क्रोडयादिपठितयोर्भु' रिक-मुलिकयोभरिक्या भौलिक्या, गौरादिपाठाद् भौरिकी भौलिकी च । शाल्मलीत्यत्र शाड: ‘“रुचि कुटि” [ उरणा०५०२. ] इति मलक्, शाल्मयोऽस्य सन्ति वा “अभ्रादिभ्यः " [ ७.२.४६. ], शाल्मलस्यापत्यमिञ् । शालास्थली - 25 त्यत्र शालायाः स्थलमिव स्थलमस्य; एवं - कपिष्ठलः । इजन्ता इत्यत्र क्रोडादिभ्यस्तस्याऽपत्यमित्यर्थे “अतः०” [ ६. १. ३१. ] इति इत्रि कृते, सुधातृशब्दात् तु " व्यास-वरुट ० " [ ६.१.३८. ] इति इत्रि अन्तस्याकि कृते - कौडि इत्यादयो भवन्ति [ चौपयत ] "चुप मन्दायां” रिणगन्तात् शतृप्रत्ययः । चैकयतेत्यत्र "चीक शीकरण” “चिट प्रेष्ये" “ककुङ” Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ८१-८३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने, द्वितीयोऽध्यायः [ ३६६ यथासंभवं णिज् णिग् वा, पश्चात् शतृ, ततोऽपत्यार्थेऽण । बैल्वयत इत्यत्र बिल्वमाचष्टे "णिज् बहुलम्०" [ ३. ४. ४२.] इति णिचि शत्रादौ च। ष्यस्यादेशत्वादिति-अत्र क्रौण्ड्यादीनामिति षष्ठीनिर्देशादन्तस्येत्यधिकाराच्च ष्य इत्यादेशोऽयम्, तेन यत् सिद्धं तत् दर्शयति ।। २. ४. ८० ।। | भोज-सूतयोः क्षत्रिया-युवत्योः ॥ २. ४. ८१ ॥ 5 भोज-सूतशब्दयोरन्तस्य क्षत्रिया-युवत्योरभिधेययोः स्त्रियां ष्यादेशो भवति । भोज्या-भोजवंशजा क्षत्रिया, सूत्या--प्राप्तयौवना मानुषीत्यर्थः, अन्ये सूतसंबन्धिनी युवतिः-सूत्या, न सर्वेत्याहुः । क्षत्रिया-युवत्योरिति किम् ? भोजा, सूता ।। ८१ ।। न्या० स०--भोज-सूत० । “जाते:०" [२. ४. ५४. ] इति डीप्रत्ययापवादोऽनेन 10 ष्यादेशः। मूलोदाहरणे सूतस्तरुण उच्यते। सूतसम्बन्धिनी युवतिरिति-क्षत्रियाद् ब्राह्मण्यां जातः सूतः, प्राजनकर्मणि प्राजितृत्वे सूतशब्दः, तस्य कर्मणः सम्बन्धिनी तत्की सूत्येति, कोऽर्थः ? रथप्राजित्री ।। २. ४. ८१ ॥ दैवयज्ञि-शौचिवृक्षि-सात्यमुनि-काण्ठेविद्या ॥२. ४. ८२ ॥15 एषामित्रन्तानां स्त्रियामन्तस्य ष्यादेशो वा भवति, इञन्तमात्रनिर्देशात् पौत्रादौ प्राप्ते प्रथमापत्ये त्वप्राप्ते विभाषा। दैवयश्या, दैवयज्ञी; शौचिवृक्ष्या, शौचिवृक्षी; सात्यमुग्या, सात्यमुग्री; काण्ठेविद्धया, काण्ठेविद्धी ।। ८२ ॥ न्या० स०--दैवत्रज्ञि ० । देवयश्येति-देव एव यज्ञः पूजनीयो यस्य स तथा ।20 शौचिवृक्ष्येत्यत्र स्वमते शुचिर्वृक्षोऽस्येति, उद्योतकरस्तु-शुचेः “नाम्युपान्त्य." [ ५. १. ५४. ] इति के-शुचो वृक्षोऽस्येत्याह। सात्यमुग्येति-सत्यमुग्रं यस्य असौ सत्यमुग्रः, अत एव निर्देशाद् मोऽन्तः मान्तमव्ययं वा, सत्यं मुञ्चति क्विपि सत्यमुचं रातीति वा डे । काण्ठेविद्धच ति-यदा कण्ठे विध्यते स्म तदा "तत्पुरुषे कृति" [३. २. २०.] इति अलुप्, यदा तु कण्ठे विद्धमनेन तदा "अमूर्द्धमस्तकात्" [३. २. २२.] इत्यलुप् ॥ २. ४. ८२. ।। 25 ष्या पुत्र-पत्योः केवलयोरीच तत्पुरुषे ।। २. ४. ८३ ॥ मुख्य प्राबन्तः ष्यः पुत्र-पतिशब्दयोः केवलयोः परयोस्तत्पुरुष समासे Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] बृहत्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ८४.] ईच् भवति, चकारो "वेदूतो०" [२. ४. ६८.] इत्यादौ विशेषणार्थः ।' कारीषगन्ध्यायाः पुत्रः--कारीषगन्धीपुत्रः, एवं--कारीषगन्धीपतिः; कौमुदगन्धीपुत्रः, कौमुदगन्धीपतिः; परमकारीषगन्धीपुत्रः, परमकारीषगन्धीपतिः । ष्येति किम् ? गौकक्ष्यापुत्रः, इभ्यापुत्रः, क्षत्रियापुत्रः। पुत्र-पत्योरिति किम् ? कारीषगन्ध्याकुलम् । केवलयोरिति किम् ? कारोषगन्ध्यापुत्रकुलम्, कारीष- 5 गन्धीपुत्रस्य कुलमिति विग्रहे तु-कारीषगन्धीपुत्रकुलमित्यपि भवति। तत्पुरुष इति किम् ? कारीषगन्ध्यापतिरस्य कारीषगन्ध्यापतिरयं ग्रामः । मुख्य इत्येव--अतिक्रान्ता कारीषगन्ध्यामतिकारीषगन्ध्या, तस्याः पुत्रोऽतिकारीषगन्ध्यापुत्रः ।। ८३ ॥ न्या० स०-ज्या पुत्र । ष्याशब्दाद् “दीर्घड्याप्०" [ १. ४. ४५. ] सूत्रत्वाद् ।0 वा सेलु प्। पुत्रपत्योरित्यत्र सौत्रनिर्देशात् "लघ्वक्षर०" [ ३. १. १६०. ] इति पतिशब्दस्य न पूर्वनिपातः । अत्र केवलग्रहणमन्तरेण ष्यान्तस्येति विधीयमाने पुत्र-पत्योस्तदादावतिप्रसङ्गः स्यात्, अयमभिप्राय:-पुत्रपत्योरित्यौपश्लेषिकेऽधिकरणे सप्तमी, उपश्लेषश्च यथा ताभ्यां केवलाभ्यां ष्यान्तस्यास्त्येवमुत्तरपदादिभूताभ्यामपीति । अथ ष्यान्तस्य पुत्रपत्योश्चाधिकरणतया तत्पुरुषस्य निर्दिश्यमानत्वात् प्रत्यासत्तेर्यस्यैव तत्पुरुषस्य15 ष्यान्तोऽवयवस्तस्यैव यौ पुत्र-पती अवयवौ, न तत्पुरुषान्तरस्य, तयोः ष्यस्य ईज् भवति, तदा तु पुत्र-पती अन्यस्यावयवी, अन्यस्य तु ष्यान्त इति ईज् न भविष्यति । एवं तर्हि तत्पुरुषेण सन्निधापितस्योत्तरपदस्य पुत्र-पतिशब्दाभ्यां विशेषणाद् विशेषणेन तदन्तविज्ञानात् पुत्र-पतिशब्दान्तयोरुत्तरपदयोरतिप्रसङ्गः स्यात्, यतो विधि-विधान-विधिभाजां संनिधाने तदन्तविधिर्भवति, तत्र विधिरीज्भावो, विधानं पुत्र-पती, विधिभाक् च ष्यान्त इति20 तदन्तग्रहणनिराकरणार्थं केवलग्रहणम् ।। २. ४. ८३ ।। बन्धौ बहुव्रीहौ ॥ २. ४. ८४ ॥ मुख्य पाबन्तः ष्यो बन्धुशब्दे केवले परतो बहुव्रीहौ समासे ईज् भवति । कारीषगन्ध्या बन्धुरस्य-कारीषगन्धीबन्धुः, कौमुदगन्धीबन्धुः; परमकारीषगन्धीबन्धुः, परमकौमुदगन्धीबन्धुः । बन्धाविति किम् ? कारीषगन्ध्या-25 पतिमः । केवल इत्येव--कारीषगन्ध्याबन्धुकुलः; कारीषगन्धीबन्धुकुल इत्यत्र कारीषगन्धीबन्धुः कुलमस्येति विग्रहः । बहुव्रीहाविति किम् ? कारीषगन्ध्याया बन्धुः-कारीषगन्ध्याबन्धुः । मुख्य इत्येव-अतिकारीषगन्ध्या बन्धुरस्य--प्रतिकारीषगन्ध्याबन्धुः ।। ८४ ।। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ८५-८७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४०१ मात-मातु-मातुके वा ॥ २. ४. ८५ ॥ मुख्य आबन्तः ष्यो मातादिषु केवलेषु परेषु बहुव्रीहौ समासे ईज् वा भवति । कारीषगन्ध्या माता यस्य स कारीषगन्धीमातः कारीषगन्ध्यामातः, परमकारीषगन्धीमातः, परमकारीषगन्ध्यामातः; कारीषगन्ध्या माता यस्य स कारीषगन्धीमाता, कारीषगन्ध्यामाता कारीषगन्धीमातृकः, कारीष- 5 गन्ध्यामातृकः; मातेति निर्देशाद् मातृशब्दस्य पुत्रप्रशंसामन्त्र्यमन्तरेणापि पक्षे मातादेशः, अन्यथा मातृशब्देनैव गतत्वाद् मातशब्दोपादानमनर्थकं स्यात् । मातृ-मातृकशब्दयोश्च भेदेनोपादानादृदन्तलक्षणः कच् प्रत्ययोऽपि विकल्प्यते ।। ८५ ।। अस्य व्यां लक् ॥ २. ४. ८६ ॥ 10 ङीप्रत्यये परे पूर्वस्याकारस्य लुग् भवति । कुरुचरी, मद्रचरी । अस्येति किम् ? दण्डिनी, की ।। ८६ ।। न्या० स०--अस्य ड्याम् । ईजाधिकारे समानदीर्घत्वेनैव प्रयोगजातं सेत्स्यति, कि लुको ग्रहणेन ? सत्यम्-यदा पञ्चभिः कुमारीभिः क्रीत इति इकरणो लूपि उभयो: स्थाने०* इति न्यायादीचोऽपि ङीव्यपदेशे डीनिवृत्तौ व्यञ्जनान्तता, ईव्यपदेशे तु15 इकारान्तता, [तदा] मा भूदिति लुक्ग्रहणम् ।। २. ४. ८६ ॥ मत्स्य स्य यः ।। २. ४. ८७ ॥ 20 मत्स्यशब्दसंबन्धिनो यकारस्य यां लुग भवति । मत्सी। कथं मत्स्यो नाम कश्चित् तस्यापत्यं स्त्रीति इञ् ङी-मात्सी? ङीनिमित्तादेशस्यापि ङीग्रहणेन ग्रहणात् ।। ८७ ।। न्या० स०--मत्स्यस्य यः। मत्सीति-ननु ङ्यामिति “सप्तम्या निर्दिष्टे पूर्वस्य" [७. ४. १०५. ] तच्चानन्तरस्येति न्यायान्मत्सीत्यत्र "स्वरस्य परे प्राग्विधौ" [७. ४. ११०.] इत्यकारलुचः स्थानिवद्भावाद् या निमित्ते यकारासंभवात् कथं लुगिति, नैवम्-वचनादेकेन वर्णेन व्यवधानमाश्रीयते । ननु भवेत्वेवं परं मत्स्यस्येयं “तस्येदम्" [६. ३. १६०.] इत्यणि मस्त्याकारलोपे अरणन्तत्वाद् ड्याम् "अस्य ड्याम्०"25 [२. ४. ८६. ] इत्यणोऽकारलोपे द्वयोरकारयोः स्थानिवद्भावाद् मात्सीत्यत्र यलुक्न Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ८८-८६.] प्राप्नोति, नैवम्-"न सन्धि०" [ ७. ४. १११.] इति स्थानिवद्भावप्रतिषेधात्, प्रथमपक्षे तु "न सन्धि०" [७. ४. १११. ] इत्यस्य चिन्तापि न कृता, उत्तरान्तरेणैव सिद्धत्वात् ।। २.४. ८७ ॥ व्यञ्जनात् तद्धितस्य ॥ २. ४. ८८ ॥ व्यञ्जनात् परस्य तद्धितस्य यकारस्य यां लुग् भवति । मनोरपत्यं 5 स्त्री-मनुषी, गर्गस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री-गार्गी, सोमो देवता अस्याः-सौमी दिक्, उचितस्य भाव औचिती, चातुरी, वृकात् टेण्यरिण-वार्केणी; समिध आधाने टेण्यरिण-सामिधेनी। व्यञ्जनादिति किम् ? कारिकाया अपत्यंकारिकेयी, हारिकेयी। तद्धितस्येति किम् ? वैश्यस्य भार्या-वैश्यी ? यामित्येव-पावटया ।। ८८ ।। 10 न्या० स०-व्यञ्जना०। तद्धितस्येत्यत्र तद्धितसम्बन्धिनो यकारस्येति वैयधिकरण्ये षष्ठी, यकारस्य किंविशिष्टस्य ? तद्धितस्य तद्धितरूपस्येति तु सामानाधिकरण्ये सामिधेनीत्यादौ न स्यात् । औचितीति-"उचच् समवाये" उच्यति-समवैति प्रकृतैः स्वभावैः "क्रुशी-पिशि०" [उणा० २१२.] इति किदितः । [वार्केरणी] वृकाः शस्त्रजीविनस्तेषां संहतिः। सामिधेनीति-समिधामाधानी। वैश्योति-विशति अध्ययनार्थं 15 यज्ञशालायामिति “शिक्या-ऽऽस्याऽऽढय०" [ उणा० ३६४. ] इति साधुः, येषां मते विशोऽपत्यमिति “विशो जातौ” इति सूत्रेण ट्यण्प्रत्यये वैश्यशब्दः साध्यते तन्मते यलोपः प्राप्नोत्येव । पतनं-पतः, ततोऽन्यत्-अपतः, तत्र साधु-अपत्यम्, एवं-विदन्त्यनयेति विद्या, तामधीते स्त्री अणन्तत्वाद् ङ्यां कृद्यकारत्वाल्लोपाभावे-वैद्यी, अस्यैव सुप्रसिद्धत्वात् पूर्वं बुद्धावुपारोहात् तत्प्रदर्शनं न्याय्यं, न तु वैद्यस्य स्त्री-वैद्यीति न्यासकार:20 ।। २. ४. ८८।। सूर्या-अगस्त्य योरीये च ॥ २. ४. ८६ ॥ अनयोर्यकारस्य ङीपत्यये ईयप्रत्यये च लुग् भवति । सूर्यस्य भार्या मानुषी-सूरी। सूर्यस्येयमित्यणि-सौरी प्रभा। अगस्त्यस्येयम्-आगस्ती, सौर्यस्यायं-सौरीयः, एवमागस्तीयः । ईये चेति किम् ? सूर्यो देवताऽस्य-25 सौर्यः, अगस्त्यस्यायम्-आगस्त्यः ।। ८६ ।। ___ न्या० स०--सूर्या० । सौरीयागस्तीयशब्दयोः प्रथमं देवतार्थेऽण, इदमर्थे पश्चादीयः ।। २.४. ८६ ।। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ६०-६१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४०३ तिष्य-पुष्ययोर्भा णि ॥ २. ४. ६० ॥ भस्य-नक्षत्रस्य संबन्ध्यण -भाण , यो भात् इत्युल्लेखेन विधीयते, तिष्य-पुष्ययोर्यकारस्य भाणि परतो लुग् भवति । तिष्येण चन्द्रयुक्त न युक्तातैषी रात्रिः, तैषमहः; पौषी रात्रिः; पौषमहः; तिष्येण गुरूदयवता युक्तः संवत्सरः-तैषः संवत्सरः, एवं-पौषः; तिष्ये भव:-तैषः शिशुः, एवं-पौषः । 5 तिष्य-पुष्ययोरिति किम् ? सिध्येन चन्द्रयुक्त न युक्त-सैध्यमहः । भाणीति किम् ? तिष्यो देवताऽस्य-तैष्यश्चरुः, पुष्यस्य माणवकस्येदं-पौष्यम् । अन्ये तु तिष्य-पुष्ययोर्नक्षत्रे वर्तमानयोः सामान्येऽणि नित्यं सिध्यशब्दस्य तु विकल्पेन यलोपमिच्छन्ति, तन्मते तिष्यो देवताऽस्य-तैष्य इत्यत्रापि प्राप्नोति । तथा सिध्येन युक्त-सैधमहः, सैध्यमहः, सैधी रात्रिः, सैध्यी रात्रि-10 रित्यपि ॥ १० ॥ न्या० स०--तिष्य-पुष्य। तेषः शिशुः, अत्र भवार्थे “भर्तु-संध्या०" [६. ३. ८६.] इति अण, जातार्थे तु "बहुला-ऽनुराधा०" [ ६. ३. १०७. ] इति लुप् स्यात् । अन्ये विति-यदाचार्यरत्नमति:-नक्षत्र इति तिष्यपुष्ययोविशेषणं, 'तन्मते' इत्यादिना तेषामनिष्टमुद्भावयति ।। २. ४. ६० ।। 15 आपत्यस्य क्य-व्योः ॥ २. ४. ६१ ॥ व्यञ्जनात् परस्यापत्यस्य यकारस्य क्ये च्वौ च परतो लुग भवति । गार्ग्यमिच्छति- गार्गीयति, एवं-वात्सीयति ; गार्ग्य इवाचरति-गार्गायते, एवंवात्सायते; अगार्यो गाग्र्यो भूतः-गार्गीभूतः, एवं-वात्सोभूतः । आपत्यस्येति किम् ? संकाशेन निर्वृत्तं-सांकाश्यं, तदिच्छति-सांकाश्यीयति; सांकाश्यायते,20 सांकाश्यीभूतः । व्यञ्जनादित्येव-कारिकेयीयति, कारिकेयायते, कारिकेयीभूत: ।। ६१ ।। न्या० स०--आपत्यस्य० । अपत्ये भव आपत्यः, तस्य स्थानसम्बन्धे षष्ठी। गार्गीयतीति-येन नाव्यवधानम् ०% इति न्यायादीकाराऽकारादिना व्यवहितस्यापि यस्य लुक् । गार्गायते इति-यदा गार्ग्य इवाचरति "कर्तु: क्विप्०" [ ३. ४. २५. ] इति 25 क्विपि तल्लपि तेप्रत्यये "क्यः शिति" [३.४.७०.] इति क्य पानीयते तदाऽनेन यलोपो न भवति, च्विसाहचर्यात्, यतश्च्विर्नाम्न एव परतो विहितो गृह्यते, अयं तु नाम Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ६२-६३.] धातोरिति । सांकाश्यीभूत इति-असाङ्काश्यः साङ्काश्यो देशो भूतः ।। २. ४. ६१ ।। । तद्धितय-स्वरे नाति ॥ २. ४. ६२ ॥ व्यञ्जनात् परस्यापत्ययकारस्य यकारादावाकारादिवजिते स्वरादौ च तद्धिते लुग् भवति । गार्ये साधु:-गार्यः, गर्गाणां समूहो-गार्गकम्, एवंवात्सकम् ; गार्यस्यायं-गार्गीयः, एवं-वात्सीयः । आपत्यस्येत्येव-संकाशेन 5 निर्वृत्तं-सांकाश्यम्, तत्र भवः--सांकाश्यक; एवं--काम्पील्यकः । तद्धितेति किम् ? गाग्र्येण, वात्स्येन । य-स्वर इति किम् ? गार्ग्यरूप्यः । अनातीति किम् ? गाायणः । व्यञ्जनादित्येव-कारिकेयिः, हारिकेयिः ।। ६२ ।। न्या० स०--तद्धितय०। गार्गकमिति-गर्गस्यापत्यानि यञ्, तस्य च "न प्राजितीये." [६. १. १३५. ] इत्यनेन निषेधात् “यात्रोऽश्यापर्णान्त०" [६.१.१२६.] 10 इति न लुप्, ततो गर्गाणां समूहो गार्गक “गोत्रोक्ष०" [६. २. १२.] अकञ्। गार्गीय इति-गार्ग्यस्यायं शिष्यश्चेत, अन्यथा “गोत्राददण्ड०" [६. ३. १६६.] इत्यका स्यात । काम्पील्येति-कम्पनं कम्पः, कम्पोऽस्यास्तीति-कम्पी, कम्पिन मिलति “मूल विभुजादयः" [ ७. १. १४४. ] कः, समानदीर्घत्वम् । गार्यरूप्य इत्यत्र भूतपूर्वो गार्गस्येति विगृह्य “षष्ठ्या रूप्यप्चरट्" [ ७. २. ८०.] इति रूप्यपि; अथवा गार्यादागतः "नृ-हेतुभ्यः'15 [ ६. ३. १५६. ] इति रूप्यः ।। २. ४. ६२ ॥ बिल्वकीयादेरीयस्य ॥ २. ४. ६३ ॥ नडादिषु बिल्वादयः पठ्यन्ते, तेषां कीयप्रत्ययान्तानामिह निर्देशः, बिल्वकीयादीनां दशानां शब्दानामवयवस्येयस्य तद्धितयस्वरे परे लुग् भवति ; अनाति इति नानुवर्तते; आतोऽसंभवात् । बिल्वाः सन्त्यस्यामिति-बिल्वकीया20 नाम नदी, तस्यां भवा-बैल्वकाः; एवं-वैण काः, वैत्रकाः, वैतसकाः, त्रैकाः, ताक्षकाः, ऐक्षुकाः, काष्ठकाः; कापोतकाः; क्रौञ्चकाः । बिल्वकीयादेरिति किम् ? नाडकीयः, प्लाक्षकीयः । तद्धितयस्वर इत्येव-बिल्वकीयाः, बिल्वकीयरूप्यम् ।। ६३ ॥ न्या० स०--बिल्वकीया० । ननु बिल्वकीयादयो द्विधाकेचिन्नडादेः कीये सति,25 अपरे कुत्सिताद्यर्थकप्प्रत्ययन्तादीये सति, तत् केषामिह ग्रहणमित्याशङ्कय आदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वादित्याह-नडादिष्वित्यादि । बिल्वो वेणवो वेत्राणि वेतसास्त्रयस्तक्षाण Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ६४-६५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४०५ इक्षवः काष्ठानि कपोताः क्रुञ्चाः सन्त्यस्यामिति विग्रहे “नडादेः कीयः" [ ६. २. ६२. ] "प्रात्" [२. ४. १८. ] इत्याप्, ततो भवार्थेऽण । काष्ठकोया इत्यत्र तु काष्ठकीयशब्दः कच्छादौ द्रष्टव्यः, ततः कच्छादिपाठात् "कोपान्त्याच्चाए" [ ६. ३. ५६. ] अन्यथा “दोरीयः" [ ६. ३. ३२. ] स्यात् । क्रौञ्चका इति-क्रुञ्चाशब्दस्य कीये नडादिपाठाद् ह्रस्वः, क्रुञ्चकीयायां भवाः। नन्वत्र ईयग्रहणं किमर्थम् ? बिल्वकीयादेरित्येव 5 क्रियताम्, एवमपि कृते बैल्वका इत्यादीन्यणि "अवर्णेवर्णस्य" [ ७. ४. ६८. ] इति ईयाकारलोपे ततो "बिल्वकीयादेः” इत्यनेनाधिकारायातस्य यकारमात्रस्य लोपे पुनः "अवर्णेवर्णस्य" [७. ४. ६८.] इति ईकारलोपे सेत्स्यन्ति; न च वाच्यं बिल्वकीयादेरित्यनेन यकारलोपे कर्तव्ये "स्वरस्य०" [ ७. ४. ११०. ] इति परिभाषयाऽकारलोपस्य स्थानित्वम्, “न संधि०" [ ७. ४. १११. ] इति यविधौ स्थानित्वनिषेधेऽपि ईकारलोपे10 स्थानित्वमस्त्येवेति ईयग्रहणम् । ननु तहि “बिल्वकीयादेर्यस्य” इति क्रियताम्, एवं कृते यकाराधिकारे पुनर्यत् ग्रहणं करोति तदेवं ज्ञापयति-अत्र सस्वरस्यैव यस्य लुक्, सस्वरलोपे च स्वरव्यञ्जनसमुदायत्वात् "स्वरस्य०" | ७.४.११०. | इति स्थानित्वाभावे सर्व भविष्यति, सत्यम्-एवं कृते एषाप्याशङ्का स्यात्-अनेन यकारलोपे ईकारस्य लुग न भवतीति, यदीकारलोपोऽपि सम्मतः स्यात् तदा ईयस्येति कुर्यादिति ।। २. ४. ६३ ।। 15 न राजन्य-मनुष्ययोरके ॥ २. ४. ६४ ॥ राजन्य-मनुष्यशब्दयोर्यकारस्याकप्रत्यये परतो लुग् न भवति । राजन्यानां समूहो--राजन्यकम्, एवं--मानुष्यकम् । “तद्धितयस्वरेऽनाति" [२. ४. ६२.] इति यलोपे प्राप्त प्रतिषेधोऽयम् ।। ६४ ।।। न्या० स०--न राजन्य०। राजन्यकमिति-राज्ञोऽपत्यमिति "जातौ राज्ञः"20 [६. १. ६२.] इति ये "अनोऽटये ये" [७. ४. ५१.] इति निषेधादनो लुगभावे राजन्यानां समूहः “गोत्रोक्ष०” [ ६. २. १२. ] इति अकञ् ॥ २. ४. ६४ ॥ ड्यादेगौणस्याक्विपस्तद्धितलुक्यगोणी-सूच्यो. ॥२. ४. ६५ ॥ ङयादेः प्रत्ययस्य गौणस्याक्विबन्तस्य तद्धितलुकि सति लुग् भवति,25 गोणी-सूचीसंबन्धिनस्तु न भवति । सप्त कुमार्यो देवतास्य-सप्तकुमारः, पञ्चभिर्धीवरीभिः क्रीतः-पञ्चधीवा, पञ्चेन्द्राण्यो देवतास्य-पञ्चेन्द्रः, एवंपञ्चाग्निः; एषु डीनिवृत्तौ तत्संनियोगशिष्टयोरागमा-ऽऽदेशयोरपि निवृत्तिः । द्विस्त्रः, पञ्चभिर्युवतिभिः क्रीत:-पञ्चयुवा, एवं--पञ्चखट्वः, पञ्चसखः, Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते द्विपङ्गुः, त्रिकरभोरुः; कुवल्या विकारः फलं - कुवलम्, एवं - बदरम्, आमलकम् । ङादेरिति किम् ? पञ्चभिः प्रेयोभिः क्रीतः -- पञ्चप्रेयान् । गौणस्येति किम् ? अवन्तेरपत्यं स्त्री - प्रवन्ती, एवं कुन्ती, कुरू: ; अत्र हि तद्धितलुकि कृते जातौ ङ ङौ इत्यगौणत्वम् । अक्विप इति किम् ? कुमारीमिच्छति क्यन्, कुमारीयतीति क्विप्, तस्य लोपे - कुमारी, ततः पञ्च 5 कुमार्यो देवता अस्य - पञ्चकुमारी; एवं पञ्चेन्द्राणी, पञ्चयुवती । तद्धितलुकीति किम् ? औपगवीत्वम् । कथं हरीतक्याः फलं विकारोऽवयवो वा हरीतकी ?, एवं कोशातकीत्यादि ? ; ग्रत्र लुबन्तस्य स्त्रीत्वात् पुनगौरादिलक्षणो ङीः । गोणी- सूच्योरिति किम् ? पञ्चभिर्गोणीभिः क्रीतः - पञ्चगोरिणः, दशगोरिणः, पञ्चसूचिः, दशसूचिः ।। ६५ ।। [ पा० ४. सू० ६६. ] 10 न्या० स० -- ङयादेगौरण० । लुगिति लुप एव उपलक्षणं तेनाऽगोमती गोमती भूता - गोमतीभूतेत्यत्र च्वेरभावेऽपि लुबभावाद् ङीनिवृत्तेरभावः । पुनगौरादिलक्षणो रिति एवं विदारी मूलम्, आमली फलमित्यादि । तथा विशाखाभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्तः कालः “चन्द्रयुक्तात्०” [ ६. २. ६. ] इत्यणो लुपि ङयादिनिवृत्तौ पुनरापि विशाखा काल इति । [ द्वित्रः ] द्वे स्त्रियौ देवते अस्य, अरण, "द्विगोरन० " [ ६.१.२४.]15 लुक् । पञ्चसख इति यदा सखिशब्दाद् ङयां पञ्चभिः सखीभिः क्रीत इति वाक्ये कृते इकरणो लोपेऽनेन ङीनिवृत्तौ तदा "राजन् सखे : ०" [ ७. ३. १०६. ] इति समासान्तः; यदा तु सखशब्दात् “नारी सखी० " [ २.४.७६ ] इति ङीस्तदा ङीनिवृत्तौ सिद्धमेव । कुवल - बदराभ्यां गौरादिङयन्ताभ्यां हेमाद्याञ् "प्राण्यौषधि० " [ ६. २. ३१. ] इत्यण् यथासंख्येन, ग्रामलकात् "दोरप्राणिनः " [ ६. २. ४६ ] इति मयट् " फले” [ ६.२.५८. ]20 लुप् । तद्धितलुकि कृते इत्यत्र पञ्चभिर्धीवरीभिः क्रीता इतीकरिण लुकि "ङयादे: " [ २. ४. ६५ ] इति ङयभावे पुनर्यां प्रिया पञ्च धीवर्यो यस्येत्यपि कृते "ङयादे: ० [ २. ४. ६५ ] इति ङयभावः - प्रियपञ्चधीवा ।। २. ४. ६५ ।। " " गोश्चान्ते ह्रस्वोऽनंशिसमासेयोबहुव्रीहौ ॥ २. ४. ६६ ।। गौणस्याक्विपो गोशब्दस्य ङयाद्यन्तस्य च नाम्नोऽन्ते वर्तमानस्य 25 ह्रस्वो भवति, न चेदसावंशिसमासान्त ईयस्वन्तबहुव्रीह्यन्तो वा भवति । चित्रा गावोऽस्य - चित्रगुः, शबलगुः पञ्चभिर्गोभिः क्रीतः - पञ्चगुः शतगुः, कौशाम्ब्या निर्गतो - निष्कौशाम्बिः, एवं - निर्वाणसिः, निःश्रेयसिः ; खट्वामतिक्रान्तोऽतिखट्व: प्रिया खट्वा यस्य स प्रियखट्व:, प्रतिब्रह्मबन्धुः, Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४०७ प्रतिवामोरुः । गौणस्येत्येव - सुगौः, किंगौः, राजकुमारी, परमब्रह्मबन्धूः; नक्षत्रमाला | अक्विप इत्येव-गामिच्छति क्यन्, गव्यतीति क्विप् - गौः, ततः प्रिया गौः अस्य प्रियगौः; कुमारीमिच्छति क्यन्, क्विप्– कुमारी, ततः प्रियश्चासौ कुमारी च - प्रियकुमारी चैत्रः । गोवति किम् ? प्रतितन्त्रीः, प्रतिलक्ष्मीः, प्रतिश्रीः, प्रतिभ्रः । अन्त इति किम् ? गोकुलम्, कुमारीप्रियः, 5 कन्यापुरम्; अत्र गोशब्दो ङयाद्यन्तं च समासार्थे न्यग्भूतत्वाद् गौणम् । सुगोप्रियः, राजकुमारीप्रिय: ; एवं - पञ्चशालाप्रिय इत्यादौ तु यद्यपि गोशब्दान्तं ङयाद्यन्तं च नामान्यपदार्थे गुणीभूतं तथापि न तदपेक्षयाऽन्त्यत्वम्, यदपेक्षया चान्त्यत्वं न तदपेक्षया गौणत्वमिति न भवति । ननु च ङ्यादीनां प्रत्ययत्वात् " प्रत्ययः प्रकृत्यादेः " [ ७. ४. ११५. ] इति यस्मात् स विधि - 10 स्तदादेर्ग्रहणम्, इतीह न प्राप्नोति - प्रतिराजकुमारिः, प्रतिरत्नमाल इति, सत्यम्--“गौणो ङयादिः " [७. ४. ११६.] इति मुख्ये स्त्रीप्रत्ययेऽयं न्यायो नोपतिष्ठते, राजकुमारी - रत्नमालाशब्दयोश्च स्त्रीप्रत्ययान्तयोर्मुख्यत्वमेव, तेनङयादिप्रत्ययान्तमात्रं विधानानपेक्षमिह गृह्यते । इह कस्मान्न भवति ? - इति; परत्वात् प्रथममेव कचि 15 बहुकुमारीकः, बहुब्रह्मबन्धूक कृतेऽन्त्यत्वाभावात् । अनंशिसमासेयोबहुव्रीहाविति किम् ? अर्धं पिप्पल्या:अर्धपिप्पली, एवं --तुर्यभिक्षा, बहव्यः श्रेयस्यो यस्य स - बहुश्रेयसी पुरुषः, एवं-प्रियश्रेयसी ।। ६ ।। [ पा० ४. सू० ε६. ] न्या० स० – गोश्चान्ते० । अंशिसमासवर्जनात् समासस्यान्त एव ह्रस्वः । नन्वर्द्धपिप्पलीति - 'अनंशिसमासेयो बहुव्रीहौ' इति व्यावृत्तौ किमिति दर्शितं ? यतो 20 ह्रस्वत्वेऽपि कृतेऽपि "परलिङ्गो द्वन्द्वोंऽशी ०" [ लिङ्गानुशासने ] इति वचनात् पिप्पलीलिङ्ग "इतोऽक्त्यर्थात् " [ २.४. ३२. ] इति ङयां रूपं तथैव, सत्यम् - " इतोक्त्यर्थात् ” [ २. ४. ३२. ] इति वैकल्पिको ङीः, ततोऽर्द्धपिप्पलि:, अर्धपिप्पलीति रूपद्वयं स्यात्, इष्यते चार्द्धपिप्पलीत्येव । ननु तर्हि तुर्यभिक्षेति किमर्थं दर्शितम् ? यतोऽत्रापि "परलिङ्गो द्वन्द्वोंशी ० " इति वचनाद् भिक्षेत्युत्तरपदस्य स्त्रीत्वे ह्रस्वत्वे कृतेऽपि पुनरापि सति 25 'तुर्यभिक्षा' इत्येव भवति, सत्यम् - तुर्यभिक्षेति सिध्यत्येव परं तु तुर्यभिक्षामतिक्रान्तो यः तिर्यभिक्ष इति ह्रस्वत्वं स्यात्, यतस्तुर्यभिक्षेति उत्तरपदलिङ्गत्वे पुनरापि तुर्यभिक्षेत्याबन्तः, “प्रत्ययः प्रकृत्यादेः” [ ७. ४. ११५. ] इति न्यायात्, वर्जने च सति भिक्षैवावन्तः, ततः पूर्वपदार्थप्रधानत्वादशिसमासस्य " गौणो ङघादिः " [ २.४. ६५ ] इति Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ६७-६८.] न्यायोपढौकनात् “गौश्चान्ते." [ २. ४. ६६. ] इति ह्रस्वाभावादतितुर्यभिक्षा इति भवति, एतदेव साधु ।। २. ४. ६६ ।। क्लीबे ॥ २. ४. ६७ ॥ क्लीबे--नपुंसके वर्तमानस्य स्वरान्तस्य नाम्नो ह्रस्वो भवति । कीलालपं, ग्रामणि, नतभ्र , अतिहि, अतिरि, अतिधु, अतिनु कुलम्, अधिस्त्रि, 5 उपवधु । काण्डे, कुड्ये, युगवरत्राय युगवरत्रेन्द्र इत्यादावेत्वदीर्घत्वादेनिमित्तान्तरापेक्षत्वेन बहिरङ्गस्यासिद्धत्वाद् ह्रस्वत्वं न भवति । काण्डीभूतं, शुक्लीभूतमित्यादावव्ययानामलिङ्गत्वाच्च ।। ६७ ।। न्या० स०--क्लोबे। अधिस्त्रीति-आधारार्थप्रधानत्वात् प्रथमा, सामान्यविशेषभावेन सप्तमी वा, विश्रान्तन्यासकारैस्तु यत्र तत्रापि सप्तमीष्टा। काण्डे, कुड्ये, इति-10 नन्वत्र “पदं वाक्यमव्ययं च०" [लिङ्गानु०] इति वचनादलिङ्गत्वे ह्रस्वत्वप्राप्तिरेव नास्ति, तत् कथमुक्तम्-असिद्धत्वादिति, सत्यम्-पदस्यालिङ्गत्वेऽपि काण्डकुड्ययोरवयवयोर्यल्लिङ्ग तद् यदा समुदाये 'काण्डे कुडये' इत्येवंरूपे उपचर्यते तदा प्राप्तिः, यद्वा 'काण्डे कुड्ये' इत्यत्र योऽस्य स्थाने परेण इकारेण सह एकारः स क्वचिद् नपुसकाकारसम्बन्धी क्वचित् पदसम्बन्धी कथ्यते, उभयोः स्थाने निष्पन्नत्वात् । युगेति-युज्यते इति 15 "वर्षादयः क्लीबे [ ५. ३. २६. ] अल् गुणाभावो गत्वं च निपात्यते ।। २. ४. ६७ ।। वेदूतोऽनव्ययस्वदीचङीयुवापदे ॥२. ४. ६८ ॥ ईकारोकारयोरुत्तरपदे परतो ह्रस्वो वा भवति, न चेत् तावव्ययौ यवृत्--ईज्रूपौ ङीरूपौ इयुवस्थानौ च भवतः । लक्ष्मिपुत्रः, लक्ष्मीपुत्रः; ग्रामणिपुत्रः, ग्रामणीपुत्रः; ब्रह्मबन्धुपुत्रः, ब्रह्मबन्धुपुत्रः; खलपुपुत्रः,20 खलपूपुत्रः। ईदूत इति किम् ? खट्वापादः, गोकुलम् । अव्ययादिवर्जनं किम् ? अव्यय--काण्डीभूतम्, वृषलीभूतम्, ऊरीकृत्य, उररीकृत्य ; स्वृत्-- इन्द्रहूपुत्रः, शकहूपुत्रः; ईच्--कारीषगन्धीपुत्रः, कौमुदगन्धीपतिः; डी-- गार्गीपुत्रः, वात्सीपुत्रः; इयुव्--श्रीकुलम्, भ्र कुलम्, यवक्रीकुलम्, कटप्रूकुलम् । उत्तरपद इति किम् ? अग्नी पश्य, पटू पश्य ।। ६८ ।। 25 न्या० स०-वेदूतोऽन। इन्द्रहूपुत्र इति-इन्द्रं ह्वयति “असरूपोपवादे." [ ५. १. १६.] इत्यणपवादे क्विपि “यजादिवचे:०" [ ४. १. ७६.] इति य्वृति Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ६६-१००.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४०६ "दीर्घमवोऽन्त्यम्" [ ४. १. १०३. ] इन्द्रह्वः पुत्रः । शकहूपुत्र इति-शकस्यापत्यानि "पुरुमगध:०" [ ६. १. ११६. ] इत्यण् “शकादिभ्यो." [ ६. १. १२०. ] लुप् शकान् ह्रयति, शेषं पूर्ववत् । वृषलीभूतमिति-अवृषलं वृषलं भूतं, मतान्तरेणेदं वाक्यम्, अन्यथा अत्रिलिङ्गत्वान्न प्राप्नोति, "अत्रिलिङ्गाऽन्या" इति च जातिलक्षणे लिखितत्वादस्यात्रिलिङ्गत्वम् ।। २. ४. ६८ ।। व्यापो बहलं नाम्नि ॥ २. ४. ६६ ॥ यन्तस्य आबन्तस्य च नाम्न उत्तरपदे परतो नाम्नि-संज्ञायां विषये ह्रस्वो भवति बहुलम् । भरणिगुप्तः, रोहिणिमित्रः, महित्रातः, महिदत्तः, महिगुप्तः, शिलवहम्, शिलप्रस्थम् ; क्वचिद् विकल्प:--रेवतिमित्रः, रेवतीमित्रः; पृथिविदत्तः, पृथिवीदत्तः; पृथिविगुप्तः, पृथिवीगुप्तः; गङ्गमहः,10 गङ्गामहः; गङ्गदेवी, गङ्गादेवी; शिशपस्थलम्, शिंशपास्थलम् । क्वचिन्न भवति-फल्गुनीमित्रः, नान्दीमुखम्, नान्दीतूर्यम्, नान्दीकरः, नान्दीघोषः, महीफलम्, महीकरः, महीविशालः, लोमकागृहम्, लोमकाखण्डः, लेपिकागृहम्, लेपिकाखण्डः, गङ्गाद्वारम् । ङ्याप इति किम् ? श्रीपुरम्, विष्टापुरम् । उत्तरपद इत्येव--भरण्याः, रोहिण्याः । नाम्नीति किम् ? नदीस्रोतः,15 खट्वापादः ।। ६६ ।। न्या० स०--ड्यापो०। ङीसाहचर्यादापः प्रत्ययस्य ग्रहणं, न तु क्विबन्तस्याप्नोतेरित्याह-आबन्तस्य चेति । नन्दे: “पदिपठि०" [ उणा० ६०७. ] इति इः, बाहुलकाद् दीर्घ-नान्दी, तस्या मुखम् । विष्टापुरमिति-विशं तायते क्विपि “य्वोः प्वयव्यखने" [ ४. ४. १२१. ] लुप्, पृषोदरादित्वात् डत्वाभावेविष्टा, विष्ट: पू:,20 "ऋक्तः०" [ ७. ३. ७६. ] अत् समासान्तः। रोहिणीति-"रेवत-रोहिणाद् भे" [ २. ४. २६. ] ङी:, गवि वाच्यायां तु “जातेरयान्त०" [२. ४. ५४. ] इति वा ङी: । लोमभिः कायतीति लोमका। भरिण्या इति-यद्यनेन ह्रस्वः स्यात् तदा 'भरिण्याः, भरिणेः' इति रूपं स्यात्, इदानीं तु 'भरिण्याः' इत्येकमेवेष्टम् ।। २. ४. ६६ ।। त्वे ॥२. ४. १०० ॥ 25 याबन्तस्य त्वे. प्रत्यये बहुलं ह्रस्वो भवति । रोहिण्या भावः-- रोहिणित्वम्, रोहिणीत्वम् ; अजत्वम्, अजात्वं वा ।। १०० ॥ न्या० स०-वे । अथ "ड्यापो बहुलं त्वे नाम्नि" इत्येकयोग एव कथं न Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० १०१-१०३.] क्रियते, तत्रैवं विज्ञास्यते-त्वप्रत्यये नाम्नि च ह्रस्वो भवतीति; नैवम्-तत्र ह्य त्तरपद इत्यस्ति, ततश्च त्वप्रत्यये नाम्नि चोत्तरपदे ह्रस्वो भवतीति विज्ञानाद् रोहिरिणत्वफलमजत्वफलमित्यत्र स्यात्, इह न स्यात्-रोहिणित्वमिति पृथुगुच्यते ।। २. ४. १०० ।। भूवोच्च ळुस-टयोः ॥ २. ४. १०१॥ भ्र शब्दस्य कुंस-कुटयोरुत्तरपदयोः परयोह्र स्वोऽकारश्च भवति । 5 भ्रकुसः, भ्रकुंसः, भ्र कुटि:, भ्रकुटिः, भ्र कुंस-भ्रू कुटिशब्दावपीच्छन्त्यन्ये ॥ १०१ ॥ न्या० स०-भ्र वोऽच्च०। भ्र वौ कुसयति "कर्मणोऽण्" [५. १. ७२. ] इति, भ्र वः कुटि: कौटिल्यं वा । भृकुस-भृकुटिशब्दावपि नारायणकण्ठी मन्यते ॥ २. ४. १०१॥ 10 मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि भारि-तूल-चिते ॥२. ४. १०२॥ माला-इषीका-इष्टकाशब्दानां केवलानामन्ते वर्तमानानां च भारिन्तूल-चितशब्देषूत्तरपदेषु परेषु ह्रस्वो भवति यथासंख्यम् । मालां बिभर्तीत्येवंशीलः-मालभारी, उत्पलमालभारी; मालभारिणी, उत्पलमालभारिणी; 15 इषीकतूलम्, मुजेषीकतूलम् ; इष्टकचितम्, पक्वेष्टकचितम् । इदमेवान्तःग्रहणं ज्ञापकम् ॐग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः इति, तेनदिग्धपादोपहतः सौत्रनाडिरित्यादौ पदादेशा-ऽऽयनण प्रत्ययादयो न भवन्ति ।। १०२ ॥ न्या० स०-मालेषी० । मालादिभिः प्रकृतस्य नाम्नो विशेषणात् तदन्तलाभात्20 केवलस्य व्यपदेशिवद्भावाद् ह्रस्वसिद्धौ किमर्थमन्तग्रहणमित्याशङ्कायामाह-इदमेवेति ।। २.४.१०२ ।। गोण्या मेये ॥२. ४. १०३ ।। गोणीशब्दस्य मानवाचिन उपचारान्मये वर्तमानस्य ह्रस्वो भवति । गोण्या मितो गोणिः । मेय इति किम् ? गोणी ॥ १०३ ।। . Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० ४. सू० १०४ - १०५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४११ न्या० -- गोण्या० 1 विनैव तद्धितेन गोणीशब्दो गोणीप्रमितेऽर्थे व्रीह्यादावुपचाराद् वर्तते, यथा प्रस्थप्रमिते प्रस्थ इति, तस्य चायं ह्रस्व इति सूत्रारम्भ इत्यर्थः । सत्यामपि वा तद्धितलुचि 'गोणीसूच्यो:' इति प्रतिषेधे “गोश्चान्ते ० " [ २. ४. ε६. ] इति च समासे ह्रस्वस्य विज्ञानादिह नास्तीति तदर्थमिदमारभ्यते ।। २. ४. १०३ ।। स० 5 ड्यादीदूतः के ॥ २. ४. १०४ ॥ ङीप्रत्ययस्याऽऽकारेकारोकाराणां च के प्रत्यये हस्वो भवति । कुमारिका, पविका, सोमपकः, कीलालपकः, सोमपिका, कीलालपिका, लक्ष्मिका, तन्त्रिका, वधुका, यवागुका, ब्रह्मबन्धुका | ङीग्रहणं पुंवद्भावबाधनार्थम् । काकः पाक इत्यादौ तु प्रत्यया ऽप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव 10 ग्रहणम् इति न्यायान्न भवति ।। १०४ ॥ न्या० स० -- ङयादीदू० । सोमपिकेत्यादौ ह्रस्वस्य दारदिकेत्यादौ च पिति पुंवद्भावस्य सावकाशत्वात् पट्विकेत्यादौ चोभयप्राप्तौ परत्वात् पुंवद्भावे पविकेत्यादि न सिध्यतीत्याह - ङीग्रहणमित्यादि - ङीग्रहणमनवकाशत्वात् पुंवद्भावं बाधत इत्यर्थः । प्रत्ययाप्रत्ययोरिति न्यायान भवतीति - ककतेरचि पृषोदराद्यात्वं - काकः, पचनं - पाक:, 15 घञि " तेऽनिट: ० " [ ४. १. १११. ] इति कत्वम् । अथ कायतेः पिबतेच “भीण्शलि - वलि० " [ उरणा० २१. ] इति यदा कस्तदा ह्रस्वः कस्मान्न भवति ? उच्यतेउणादीनामव्युत्पन्नत्वात्, व्युत्पत्तिपक्षे तु बहुलवचनान्न भवति ॥ २.४. १०४ ।। न कचि ॥। २. ४. १०५ ।। ,20 ङादीदूतः कचि प्रत्यये परे ह्रस्वो न भवति । बहुकुमारीकः, 2 बहुकीलालपाकः, बहुलक्ष्मीकः, बहुब्रह्मबन्धूकः; खार्या क्रीतं -- खारीकम्, एवं -- काकणीकम्, “खारीकाकणीभ्यः कच्" [६. ४. १४६ . ] इति कच् । "न कचि” [ २. ४. १०५. ] इति प्रतिषेधः पूर्वसूत्रे निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य इति न्यायस्याभावज्ञापनार्थः तेन - निषादक जातो-नैषादकर्षुकः, एवं -- शाबरजम्बुक इत्यादाविकरिण ह्रस्वः सिद्धः ।। १०५ ।। 25 न्या० स० न कचि । बहुलक्ष्मीक इत्यत्र एकत्वे "पुमनडुन्नौ० ” [ ७.३. १७३. ] बहुत्वे तु 'शेषाद् वा' [ ७. ३. १७५. ] कच् । पूर्वसूत्रे क इति निरनुबन्धे Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] बृहवृत्तिलघुन्याससंवलिते पा० ४. सू० १०६-१०७.] कचि प्राप्तिरेव नास्तीत्याह-न कचोति प्रतिषेध इति-नषादकषुकः, शाबरजं० । ॥ २. ४. १०५ ।। नवापः ॥ २. ४. १०६ ॥ आपः कचि परे ह्रस्वो वा भवति, पूर्वेण प्रतिषेधे प्राप्ते पक्षे ह्रस्वार्थमिदम् । प्रियखट्वकः, प्रियखट्वाकः; बहुमालकः, 5 बहुमालाकः ।। १०६ ।। इच्चापुसोऽनित्क्याप्परे ॥ २. ४. १०७ ॥ आबेव परो यस्माद् न विभक्तिः स आप्परः, अपुंलिङ्गार्थाच्छब्दाद् विहितस्यापः स्थाने इकारो ह्रस्वश्च वा भवतः, अनितोऽनकारानुबन्धस्य प्रत्ययस्यावयवभूते कि--ककारे आप्परे परतः । अल्पा खट्वा--खट्विका,10 खट्वका, खट्वाका; परमविका, परमखट्वका, परमखट्वाका; प्रिया खट्वा यस्याः सा-प्रियट्विका, प्रियखट्वका, प्रियखट्वाका। चकारो ह्रस्वानुकर्षणार्थः, तेनोभयविकल्पे त्रैरूप्यं सिद्धम् । अपुंस इति किम् ? सर्विका। न विद्यते खट्वा अस्या इति “गोश्चान्ते." [२. ४. ६६.] इत्यादिना ह्रस्वत्वे स्त्रीपुंससाधारणात् पुनरापि--अखट्वा, सैवाल्पा--15 अखटिवका, तथा खट्वामतिक्रान्ता--अतिखट्वा, सैवाल्पा--अतिखट्विका, अत्रापुंस्काद् विहित प्राप् न भवतीति त्रैरूप्यं न भवति । "ड्यादीदूतः के" [२. ४. १०४.] इत्यनेन तु ह्रस्वे कृते "अस्या०" [२. ४. ११.] इत्यादिनेत्वमेव भवति, कश्चित् त्वपुंस्काद् विहित आबस्तीति भवत्येव रूपत्रयम्--न विद्यते खट्वा यस्याः सा-अखट्विका, अखट्वका, अखट्वाका। अनिदिति20 किम् ? अनुकम्पिता दुर्गादेवीति कप्नि-दुर्गका, “ड्यादीदूतः के" [२. ४. १०४.] इत्यनेन ह्रस्व एव भवति । कीति किम् ? खट्वाता, मालाता। आप्पर इति किम् ? प्रियरखट्वाकः पुरुषः । आबेव परो यस्मादिति बहुव्रीहिः किम् ? प्रियखट्वाकमतिक्रान्ताऽतिप्रियखट्वाका, अत्र हि प्रथम द्वितीया परा पश्चादाबिति । आप इत्येव-मातृका ।। १०७ ॥ 25. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४१३ न्या० स० -- इच्चापुं सो० । न् इत् - अनुबन्धो यस्य प्रत्ययस्याऽसौ - नित्, न नित् - अनित्, तस्य सम्बन्धी क् - प्रनित्क्, तस्मिन् । प्रिया खट्वा यस्याः “ शेषाद्वा” [ ७. ३. १७५. ] विकल्पेन कचि - प्रियखटिवकेत्यादि रूपत्रयं भवति । प्रापीति कृते उपश्ल ेषसप्तम्यैव प्राबुपश्लिष्टे ककारे इत्वमित्यर्थस्य सिद्धेः परग्रहणं नियमार्थमित्याहश्रावेव पर इति । सविकेति - सर्वा नाम काचित्, ततः स्वार्थे “यावादिभ्यः कः " 5 [ ७. ३. १५. ] “ङयादीदूतः के” [ २.४. १०४. ] ह्रस्वत्वे "प्रस्यायत्तत् ० ' [ २. ४. १११. ] इकारः । सर्वादेः सर्वशब्दस्य तु "त्यादिसर्वादे: ०" [ ७. ३. २६. ] इत्यनेनाऽन्त्यस्वरात् प्रागकि सर्विकेति प्रत्रापः स्थानित्वमपि न स्यात् । मातृकेतिननु यथा इहाप् नास्ति तथा मिमोते इति धान्यमातुरपि मातृशब्देनाभिधानात् 'प्रपु ंसः' इत्यपि न स्यात्, ततो द्वयङ्गविकलत्वान्नदं प्रत्युदाहरणं युज्यते, प्रत्युदाहरणं हि10 तदङ्गाभावे कार्याभावं प्रदर्शयत् तदङ्गसामर्थ्य प्रदर्शनार्थमुपादीयते, तत्राङ्गद्वय वैकल्प्येsस्याङ्गस्य वैकल्प्यादिह कार्याभाव इति निर्णयाभावादेकस्याप्यभाव इति; नैष दोष:जननीवचनस्यान्यस्यैवाव्युत्पन्नस्य मातृशब्दस्य ग्रहणात्, यद्वा प्रत्युदाहरण दिग्मात्रमिदं, तेन स्वकेत्यादि प्रत्युदाहरणं द्रष्टव्यम् ।। २. ४. १०७ ।। [ पा० ४. सू० १०८. ] स्व-ज्ञा-9ज-भस्त्रा- अधातुत्ययकात् ।। २. ४. १०८ ।। 15 स्व-ज्ञा-ऽ-ज-भस्त्रेभ्यः, अधातोरत्यप्रत्ययस्य च याववयवौ यकार-ककारौ ताभ्यां च, परस्याप: स्थानेऽनित्प्रत्ययावयवे ककारे प्राप्परे परत इकारो वा भवति । कुत्सिता स्वा ज्ञातिः - स्विका, स्वका; अस्विका, अस्वका; निः स्विका, निःस्वका; बहुस्विका, बहुस्वका; ज्ञातिधनाख्यायामसर्वादित्वादकोऽभावे कप्रत्ययान्तः स्वशब्दः । ज्ञिका, ज्ञका; अज्ञिका, अज्ञका; निर्शिका, 20 निर्जका; बहुज्ञिका, बहुज्ञका; अजिका, अजका; अनजिका, अनजका; निरजिका, निरजका; बह वजिका, बह वजका । भस्त्रग्रहणं स्त्री-पुंससाधारणवृत्तेर्ग्रहणार्थम्-अविद्यमाना भस्त्रा यस्याः सा-प्रभस्त्रा, सैवाल्पाअभस्त्रिका, अभस्त्रका एवं निर्भस्त्रिका, निर्भस्त्रका; बहुभस्त्रिका, बहुभस्त्रका ; अतिभस्त्रिका, प्रतिभस्त्रका; अत्र हि गौणस्य ह्रस्वत्वे कृते 25 समासात् स्त्री-पुंससाधारणादाबिति पूर्वेण न सिध्यति ; यदा त्वपुंस्कादाप् विधीयते तदा पूर्वेण त्रैरूप्यमेव - भस्त्रिका, भस्त्रका, भस्त्राका; न भस्त्रा'अभस्त्रा, साऽल्पा चेत् प्रभस्त्रिका, प्रभस्त्रका, अभस्त्राका; एवं - परमभस्त्रिका, परमभस्त्रका, परमभस्त्राका । यकार - इयिका, इभ्यका; क्षत्रि Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] . बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० १०६.] यिका, क्षत्रियका; आर्यिका, आर्यका । ककार-चटकिका, चटकका; मूषकिका, । मूषकका; एलकिका, एलकका। धातुत्यवर्जनं किम् ? सुनयिका, सुशयिका; अशोकिका, सुपाकिका; दाक्षिणात्यिका, पाश्चात्यिका, इहत्यिका, अमात्यिका। आप इत्येव-कुत्सिता स्वा-आत्मा आत्मीया वा सर्वादित्वादकि-स्विका। सांकाश्ये भवा योपान्त्यलक्षणेऽकनि-सांकाश्यिका, एवं-काम्पील्यिका, हृदिकं 5 भजति हार्दिकिका; अत्र “गोत्रक्षत्रियेभ्योऽकञ् प्रायः" [६. ३. २०८.] इत्यकञ्, एवं-श्वाफल्किका, सर्वत्रोत्तरेण नित्यमिकारः । कथं बह वपत्यिका? बह पत्यका ? ; नात्र त्यप्रत्ययः, प्रत्यया-प्रत्यययोश्च प्रत्ययस्यैव ग्रहणम् । अथ शुष्किकेत्यत्र कथं न विकल्प: ? क्तादेशस्य कस्यासिद्धत्वात् ।। १०८ ।। न्या० स०--स्वज्ञाज। धातुश्च त्यश्च-धातुत्यौ, न धातुत्यौ-अधातुत्यौ, यश्च10 कश्च-यकम्, अधातुत्ययोर्यकम्-अधातुत्ययकम्, स्वश्च ज्ञश्च अजश्च भस्त्रश्च अधातुत्ययकं च-स्वज्ञाजभस्त्राधातुत्ययकं, तस्मात् । अत्र सूत्रेऽपुस इति नानुवर्ततेऽसंभवात्, आरम्भसामर्थ्याच्च । [कुत्सिता] स्वा ज्ञातिः-स्विका इति-यद्यपि स्वशब्द: "स्वो ज्ञातावात्मनि क्लीबे, त्रिष्वात्मीये धनेऽस्त्रियाम्" इति पठ्यते तथापि कुत्सिताद्यर्थविषये ज्ञातावपि स्त्रीत्वमत एव पाठात् भवति ह्य पाधिभेदाद् ह्रस्वे कृते लिङ्गयोगस्तदन्य-15 लिङ्गत्वं च, यथा पचतिरूपमित्यलिङ्गस्यापि नपुंसकलिङ्गत्वम्, कुटीरमिति स्त्रीलिङ्गस्यापि नपुसकलिङ्गत्वम् । विचित्रा हि शब्दशक्तयः; यद्वा ज्ञातिरत्र स्त्रीरूपा विवक्षिता, तेन योनिमन्नामत्वात् स्वशब्दस्य स्त्रीत्वम् । न विद्यते स्वा यस्या इति कृते कपि-अस्विका, अस्वकेति रूपे, कपि निमित्तभूते विकल्पपक्षे “अस्यायत्तत्०" [ २. ४. १११. ] इति न, विकल्पसामर्थ्यात्, कचि तु "नवापः” [ २. ४. १०६. ] इति ह्रस्वे20 कृते "अस्यायत्तत्०" [२. ४. १११. ] भवत्येव, न च सूत्रविकल्पः प्रवर्त्तते, सूत्रं विनापि अस्विका अस्वकेति सिध्यतीति अस्विकेति रूपमेकरूपेणेव गतार्थमिति । दाक्षिणात्यिकेति-दक्षिणस्यां भवा “दक्षिणापश्चात्" [ ६. ३. १३. ] इति त्यण, अत्र "सर्वादयोऽस्यादौ" [३. २.६१. 1 इति प्रवद्भावो न भवति. "दक्षिणापश्चात." [ ३. २. ६१. ] इत्यत्र आकारनिर्देशात्; यद्वा "कौण्डिन्यागस्त्ययोः०" [६. १.25 १२७. ] इति ज्ञापकात् । स्वा प्रात्मा प्रात्मीया वेति-स्त्रीसम्बन्ध्यत्रात्मा विवक्षितः, तस्य च योनिमता स्त्रीशरीरेणाभेदोपचाराद् योनिमन्नामत्वात् 'स्वा' इत्यत्र स्त्रीत्वम्, बाहुलकाद् वा स्त्रीत्वम् । श्वाफल्किकेति-श्वानं फालयति-श्वफल्कः, अन्धकविशेषः ॥ २.४.१०८ ॥ द्वयेष-सूत-पुत्र-वन्दारकस्य ॥२. ४. १०६ ॥ 30 आप इति निवृत्तं पृथग् योगात्, एषामन्तस्यानित्प्रत्ययावयवे ककारे Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ११०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४१५ आप्परे परत इकारादेशो वा भवति । द्विके, द्वके; एषिका, एषका; केवलयोरेवानयोर्विकल्पेनेकारः । यदा तु 'न द्व, न एषा, न के, न एषका' इत्यादिविग्रहे कृते विभक्त लुपि सत्यां पुनः समासाद् विभक्तौ तामाश्रित्य त्यदाद्यत्वं तत प्राप्, स च स्थानिवद्भावेन विग्रहकालभाविन्या विभक्त : परो न तु कात्, तदा 'अनेषका, अद्वके' इत्यत्रकारो न भवति । अस्विकेत्यादौ तु 5 न विभक्त: पर प्राप्, किन्तु कादेव । सूतिका, सूतका; पुत्रिका, पुत्रका; वृन्दारिका, वृन्दारका । द्विशब्दसाहचर्यादेषेति सर्वादेः कृतविकारस्यैतदो निर्देशः, तेनेषेर्णकादिप्रत्ययान्तस्याविकृतस्यैतच्छब्दस्य च न भवति-इच्छतीति-एषिका, एता एव-एतिकाः ।। १०६ ।। न्या० स०-दूषसूत । यदा तु न दे न एषेति एषद्विशब्दौ नपूर्वावित्व-10 विकल्पं न प्रयोजयतः, तत्रापि कृते नसमासेऽनसमासे वाऽगिति द्वयी गतिः, उभयोरपि च पक्षयोविभक्त : पर आबिति, यतः अन्तरङ्गानपि विधीन् बहिरङ्गापि लुप् बाधते इति समासार्थाया विभक्त स्त्यदाद्यत्वात् पूर्व लुपा भाव्यं, प्रत्ययलक्षणं च नास्तीति समुदायाद् या विभक्तिस्तामाश्रित्य त्यदाद्यत्वे सत्यापा भाव्यम्, स च विग्रहकालभाविन्या विभक्त्या व्यवधीयते । तहि द्विके इति मूलप्रयोगेऽपि कुत्सिते द्वे इति15 तद्धितवृत्ती "त्यादिसर्वादेः" [ ७. ३. २६. ] इत्यकि औकारस्य लोपे तद्धितान्तात् प्रौकारे तदाश्रये त्यदाद्यत्वे आपि च तद्धितवृत्तिनिमित्तस्य औकारस्य स्थानिवद्भावाद् न प्राप्नोति, नैवम्-उभयोरपि औकारयोरेकपदभक्तत्वेन व्यवधानं न भवति, 'अद्वके' इत्यत्र तु समासभक्तस्य औकारस्य प्रथमेन द्विशब्दभक्त न औकारेण व्यवधानं भवत्येव । सूतिकेति-सुपूर्वाद् वयते: क्तः, सूते स्मेति वा क्तः, तत पाबन्तात् कुत्सितादौ कप् ।20 पुत्रिकेति-पुत्रशब्दात् कुत्सितादौ कपि आबादौ च, कृत्रिमः पुत्र इति वा "तनुपुत्रा-ऽणुबृहतो." [७. ३. २३.] इति कः। वृन्दारिकेति-प्रशस्तं वृन्दमस्या अस्तीति वृन्दारकः, ततो “जातेरयान्त." [ २. ४. ५४. ] इति बाधायै “अजादे:०" [२. ४. १६. ] इत्याप् ।। २. ४. १०६ ॥ वौ वर्तिका ॥ २. ४. ११० ॥ 25 वौ-शकुनावभिधेये वर्तिकेतीत्त्वं वा निपात्यते । वर्तते इति एकेवर्तिका, वर्तका-शकुनिः । वाविति किम् ? वर्तिका-भागुरिर्लोकायतस्य - व्याख्यात्रीत्यर्थः ।। ११० ॥ न्या० स०-वो वर्तिका। वर्तिका भागुरिरिति-वर्तयतीति एके "मस्या Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] बृह वृत्तिलघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० १११-११२.] यत्तत्०" [२. ४. १११. ] इति इकारः । भागुरिः प्राचार्यः, बाहुलकात् स्त्रीलिङ्गः, लोके आयतं-लोकायतं नास्तिकशास्त्रम् ।। २. ४. ११० ।।। अस्याश्यत्-तत्-क्षिपकादीनाम् ॥ २. ४. १११ ॥ यत्-तत्-क्षिपकादिवजितस्य नाम्नो योऽकारस्तस्यानित्प्रत्ययावयवे ककारे आप्परे परत इकारो भवति, वेति निवृत्तं पृथग्योगात् । जटिलिका, बधिरिका, 5 मुण्डिका, कारिका, पाचिका, मुद्रिका। अस्येति किम् ? गोका, नौका । अनित्कीत्येव-जीवका, नन्दका "अाशिष्यकन्” [५. १. ७०.] । अनित इति पर्युदासेन प्रत्ययग्रहणादिह न भवति-शक्नोतीति-शका, तका। आप्पर इत्येव-कारकः, हारकः । आबेव परो यस्मादिति नियमः किम् ? बहुपरिव्राजका मथुरा, बहुमद्रका सेना, विभक्त्यन्तादयमाबिति प्रतिषेधः । यत्-तत्-10 क्षिपकादिवर्जनं किम् ? यका, सका, क्षिपका, ध्र वका, धुवका, लहका, चरका, चटका, इष्टका, एडका, एरका, करका, अवका, अलका, दण्डका, पिष्पका, कन्यका, मेनका, द्वारका, रेवका, सेवका, धारका, उपत्यका, अधित्यकेत्यादि । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। १११ ।। न्या० स०-अस्यायत्त । पृथग्योगादिति-अयमर्थः-यद्यत्रापि विकल्पः स्यात्15 तदा 'स्विका, स्वका' इत्यादौ “ड्यादीदूतः०" [ २. ४. १०४.] इति ह्रस्वत्वेऽनेन वैकल्पिकस्य इत्वस्य सिद्धत्वात् “स्वज्ञाजभस्त्रा." [ २. ४. १०८. ] इत्यादीनां पृथुगुपादानमनर्थकं स्यादित्यर्थः । मुण्डिकेति-मुण्डयतीति “णक-तृचौ" [५. १. ४८.] इति णकः । मद्रिकेति-माद्यतीति रप्रत्ययः, ततो "वजिमदाद् देशात् कः" [६. ३. ३८.] इति क-प्रत्ययः। प्रत्ययग्रहरणादिति-अथवा प्रत्ययपरिग्रहे च "नरिकामामिका"20 [२. ४. ११२.] इति ज्ञापको। बहुपरिव्राजकेति-ननु चात्र ककारादाबेव श्रूयते नान्यदिति कथं प्रतिषेध इत्याह-विभक्त्यन्तेत्यादि । एडकेत्यादि-अत्र ईडिक् ईरिक आभ्यां "कीचक०" [ उणा० ३३. ] इति निपातनाद् गुणे-एडका, एरका। क्षिपका आयुधविशेषः । ध्र वका धुवकेति आवपनविशेषौ । लहका सविलासा स्त्री। चरका ऋषिः । एडका अजाविशेषः । एरका तृणम् । करका घनोपल:, त्रिलिङ्गः। अवका शेवालः 125 अलका दण्डका नगयौं। पिष्पका अश्वत्थस्य फलम् । मेनका गौरीमाता अप्सराश्च । द्वारका नगरी ॥२. ४. १११ ॥ नरिका मामिका ॥ २. ४. ११२ ॥ ___ नरकशब्दस्य मामकशब्दस्य चाप्रत्ययावयवे ककारे आप्परे परतोऽकार Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० ४. सू० ११३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने द्वितीयोऽध्यायः [ ४१७ स्येत्त्वं निपात्यते । नरान् कायतीति-नरिका "प्रातो डोह वा-वा-मः" [५. १. ७६.] इति डः। ममेयं-मामिका, अनि ममकादेशः, "केवलमामक०" [२. ४. २६.] इत्यादिना संज्ञायां ङीप्रत्ययस्य नियमादाप्, ककारस्याप्रत्ययसम्बन्धित्वात् पूर्वेणाप्राप्ते वचनम् ।। ११२ ।।। तारका-वर्णका-SSटका ज्योतिस्तान्तपितृदेवत्ये : ॥२. ४. ११३ ॥ तारकादयः शब्दा यथासंख्यं ज्योतिरादिष्वर्थेषु इकारादेशरहिता निपात्यन्ते । तरतर्णके-तारका-ज्योतिः, तच्च नक्षत्रं कनीनिका च, नक्षत्रमेवेत्यन्ये, अन्यत्र-तारिका। वर्णयतीति एके-वर्णका-तान्तवः प्रावरणविशेषः, अन्यत्र वणिका-भागुरी लोकायतस्य । अश्नोतेरौणादिके10 तककि-अष्टका-पितृदेवत्यं कर्म, अन्यत्राष्टौ द्रोणाः परिमाणस्या इति केअष्टिका खारी। पितृदेवतार्थ कर्मेति "देवतान्तात् तदर्थे" [७. १. २२.] इति ये-पितृदेवत्यमिति सिद्धम् ।। ११३ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृहद्वृत्तौ [तत्त्वप्रकाशिकायां] द्वितीयस्याध्यायस्य 15 चतुर्थः पादः समाप्तः [२. ४.] श्रीमूलराजक्षितिपस्य बाहुर्बिभर्ति पूर्वाचलशृङ्गशोभाम् । संकोचयन् वैरिमुखाम्बुजानि यस्मिन्नयं स्फूर्जति चन्द्रहासः ।। ८ ।। समाप्तोऽयं द्वितीयोऽध्यायः ।। न्या० स०--तारका व०। णिजन्ताद् वर्ण्यत इति संज्ञायां एके-वर्णका,20 वर्णयतीति तु चौरादिकप्रतिपत्त्यर्थ तिवा निर्देशो, न तु णकारम्भकः, अथवा वर्णयतिआधारविशेषगतमाधेयगुणं वादयतीति ।। २. ४. ११३ ।।। इत्याचार्य० द्वितीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः संपूर्णः ॥ ॥ समाप्तोऽयं द्वितीयोऽध्यायः॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः अथ प्रथमः पादः धातोः पूजार्थस्वतिगतार्थाधिपर्यतिक्रमार्थातिवजी प्रादिरूपसर्गः प्राक्च ॥ ३.१.१ ॥ त्वषत्वनागमाः सिद्धाः । धातोः संबन्धी तदर्थद्योती चाद्यन्तर्गतः प्रादिः शब्दगरण उपसर्गसंज्ञो 5 भवति, तस्माच्च धातोः प्राक् प्रयुज्यते न परो न व्यवहितः पूजार्थों स्वती गतार्थावधिपरी अतिक्रमार्थमति च वर्जयित्वा । प्रणयति, परिणयति, अभिषिञ्चति, निषिञ्चति, प्रलम्भः, उपलम्भः । एषूपसर्गसंज्ञायां धातोरिति किम् ? वृक्षंवृक्षमभिसिञ्चति । प्रगता नायका यस्मात्स प्रनायको देशः इत्यत्र तु सत्यपि धातुसंबन्धे येनैव 10 धातुना संबद्धाः प्रादयस्तं प्रत्येवोपसर्गसंज्ञा इति गमिसंबन्धेऽपि नयति प्रत्यनुपसर्गत्वात् णत्वं न भवति । एवं प्रछेको देश इत्यत्रारादेशो न भवति । पूजार्थस्वत्यादिवर्जनं किम् ? पूजार्थों स्वती - सुसिक्तम् भवता, सुस्तुतं भवता, अतिसिक्तं भवता - अतिस्तुतं भवता, धात्वर्थः प्रशस्यते, प्रत्रोपसर्गसंज्ञाया अभावात् षत्वं न भवति । पूजाग्रहणं किम् ? - सुषिक्तं नाम किं तवात्र ? - 15 धात्वर्थोऽत्र कुत्स्यते । गतार्थावधिपरी - अध्यागच्छत्यागत्यधि, पर्यागच्छति आगच्छति परि । उपरिभावः सर्वतोभावश्वान्यतः प्रकरणादेः प्रतीयत इति गतार्थत्वम्, अत्र प्राक्त्वनियमाभावः । अध्यागमनं प्रयोजनमस्याध्यागमनिकः, पर्यागमनिकः - श्रत्र 'प्रयोजनम्' [६. ४. ११७.] इतीकरण अधिपरिशब्दयोरादेरकारस्य वृद्धिर्न भवति । उपसर्गत्वाभावेन गतिसंज्ञाया प्रभावे 20 समासाभावेन पृथक्पदत्वात् । पर्यानीतम् - श्रत्रानुपसर्गत्वाण्णो न भवति । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० १.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४१६ गतार्थग्रहणं किम् ? - अध्यागच्छति, पर्यागच्छति - अत्रोपरिभावस्य सर्वतोभावस्य च प्रकरणादेरप्रतीतस्य द्योतने उपसर्गसंज्ञास्त्येवेति प्राक्त्वनियमः । अतिक्रमार्थोऽतिः-यदर्थं क्रिया तस्मिन् निष्पन्ने क्रियाप्रवृत्तिरतिक्रमः - प्रतिसिक्तं भवता, प्रतिस्तुतम् भवता - अतिक्रमेण सेकः स्तुतिश्च कृतेत्यर्थः, -अत्र षत्वं न भवति । प्रतिसिक्त्वा, अतिस्तुत्वा,- - अत्र समासाभावाद्यबादेशो न भवति । 5 अतिक्रमग्रहणं किम् ? प्रतिशय्य । प्रादिग्रहरणं किम् ? - पुनर्नमति, साधु सिञ्चति । “धात्वर्थं बाधते कश्चित् कश्चित्तमनुवर्तते । तमेव विशिष्टयन्योऽनर्थकोऽन्यः प्रयुज्यते " ।। १ ।। बाधते यथा-प्रतिष्ठते, प्रस्मरति, प्रवसति, प्रलीयते, प्रतीक्षते, 10 प्रतिपालयति, तमनुवर्तते यथा - प्रधीते, अध्येति, प्राचामति, प्राचष्टे, अनुरुध्यते, प्रलोकयति, तमेव विशिनष्टि यथा - प्रपचति, प्रकरोति, प्राणिति, प्राश्नाति निरीक्षते, निष्टपति, अनर्थको यथा- प्रलम्बते, प्रार्थयते, विजयते, विजानाति, निमीलति, निखञ्जति, निरजति, एषां चाऽऽपञ्चभ्यः प्रायेण प्रयोगो भवति, - आहरति, व्याहरति, अभिव्याहरति समभिव्याहरति, 15 प्रसमभिव्याहरतीति । अथ किं धातुः पूर्वं क्रियाविशेषकेणोपसर्गेण युज्यते उत साधनाभिधायिना प्रत्ययेनेति ? - साधनेनेति केचित् । साधनं हि क्रियां निर्वर्तयति तामुपसर्गो विशिनष्टि, अभिनिर्वृत्तस्य चोपसर्गेण विशेष: शक्यो वक्तुं नानभिनिर्वृत्तस्य, तदयुक्तम्, यो हि धातूपसर्गयो रभिसंबन्धस्त 20 मभ्यन्तरीकृत्य धातुः साधनेन युज्यते । यस्माद्विशिष्टैव क्रिया साधनेन साध्यते, न तु साधनाल्लब्धस्वरूपान्यतो विशेषं लभते, तस्मात्पूर्वमुपसर्गेणेति युक्तम् । तथा च समस्करोत्संचस्कारेत्यत्रान्तरङ्गत्वात् स्सटि कृते प्रत्ययनिमित्ते प्रडागमद्विर्वचने भवतः, अतश्च वम् । पूर्वं हि धातोः साधनेन संबन्धे आस्यते गुरुणेत्यकर्मकः, उपास्यते गुरुरिति सकर्मको धातुः केन स्यात् ? न25 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू १.] चैतद्वाच्यम् प्रत्ययसंबन्धमन्तरेण क्रियाविशेषस्यानभिव्यक्तेर्न धातोः पूर्वमुपसर्गेण संबन्धो युज्यते । यतः ४२० ] बृहद्दवृत्तिलघुन्याससंवलिते "बीजकालेषु संबद्धा, यथा लाक्षारसादयः । वरर्णादिपरिणामेन, फलानामुपकुर्वते ।। १ ।।” "बुद्धिस्थादभिसंबन्धात्तथा धातूपसर्गयो । अभ्यन्तरीकृतो भेदः, पदकाले प्रकाश्यते ।। २ ।। " 5 यद्येवमुपेत्याधीत्येत्यादावन्तरङ्गत्वादेत्वदीर्घत्वयोः कृतयोर्हं स्वाभावातोऽन्तो न प्राप्नोति, सत्यम्; 'प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इति भविष्यति । प्रेजुः प्रोपुः इत्यत्र तु यज्वपोर्वृति द्वित्वे च सति अन्तरङ्गत्वात्समानदीर्घत्वे पश्चादेदोतौ । यद्वा पूर्वमेदोतौ ततोऽयवादेशे 'व्यञ्जनस्यानादेर्लु क्' ० [४. १. ४४. ] इति लुकि पुनरेदोतौ । ननु कर्तुं प्रकर्षेणेच्छति प्रचिकीर्षति इत्यादौ धात्वन्तरसंबद्धस्योपसर्गस्य तदर्थप्रतिपादकप्रत्ययादेव प्राक्प्रयोगः प्राप्नोति नैवम्, तस्याधातुत्वात्, समुदायस्यैव धातुत्वात् । एवं मनःशब्दात् सुभवतौ, दुर्भवतौ, अभिभवतौ क्यङ्प्रत्यये सुमनायते, दुर्मनायते, अभिमनायते हस्तिनातिक्रामति - प्रतिहस्तयति, सेनया अभियाति; 15 अभिषेरणयतीत्यादावपि द्रष्टव्यम् । धातोरिति प्राक्चेति चाधिकारो गतिसंज्ञां यावत् । प्र परा अप सम् अनु अव निस् दुस् निर् दुर् विप्राङ् नि अधि प्रति परि उप प्रति अपि सु उत् अभि इति प्रादिः ।। १ ।। न्या० स० -- धातोः पूजार्थ० । श्रनेकार्थत्वाद्धातूनां कुत्रापि श्रूयमारणार्थबाधया-20 ऽर्थान्तरं द्योतयति, कुत्रापि श्रूयमाणमेवेत्युक्त - तदर्थद्योतीति । प्राक्शब्दस्याऽव्यवहिते वर्त्तनादाह-न पर इति । धात्वर्थः प्रशस्यते इति - शोभनत्वोद्भावनेन सिचिस्तौत्योरर्थस्य कर्तु : पूजा प्रतायत इत्यर्थः । गतार्थावऽधिपरी इति गतो ज्ञातोऽर्थोऽभिधेयं गतार्थी, योऽर्थोऽनयोद्यत्यस्तस्य प्रकररणादिवशादऽवगमे निष्प्रयोजनावेतावुच्येते इति गता त्वं यद्येवं प्रकरणादिनोक्तत्वात्तदर्थस्य तयोः प्रयोगायोग : ? उच्यते, प्रकरणादिवशाद - 25 saगतार्थानामपि स्फुटतरार्थाऽवगत्यर्थः प्रयोगो लोके भवति । यथा - अपूपौ द्वौ ब्राह्मणी Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४२१ द्वावानयेत्यपूपावित्यादौ द्विवचनादवगतेऽपि द्वित्वे द्विशब्दस्य प्रयोग इति । समासाभावादिति । गतिसंज्ञाया अभावात् 'गतिक्वन्य०' [३. १. ४२.] इत्यनेन । 'अतिरतिक्रमे च' [ ३. १. ४५. ] इत्यपि बाहुलकान्न । वृक्षवृक्षमऽभिसिञ्चतीति-वीप्स्यार्थेनाऽभिना योगात् 'लक्षणवीप्स्य.' [ २. २. ३६. ] इति द्वितोया। धात्वर्थ बाधत इति, प्रादेरव्ययत्वादनेकार्थतां दर्शयति, धातुपाठ योऽर्थस्तदपेक्षया धात्वर्थं बाधते इत्युक्त, अन्यथा- 5 ऽनेकार्थत्वाद् धातूनामयमर्थो न स्यात् । अतिशय्येति-जित्वा इत्यर्थः । प्रतिष्ठते इत्यादि-अत्र तिष्ठत्यादयोश्चत्वारो गतिनिवृत्त्यादिलक्षणं प्रसिद्धमर्थं परित्यज्य तत्प्रतिपक्षभूते प्रस्थानविस्मरणप्रवासप्रलयलक्षणे वर्तन्ते, तदुत्तरौ त्वर्थान्तरमात्रे पालने इति । प्राचामतीति इदं मतान्तरेणोक्त, स्वमते तु बाधा धात्वर्थस्य । अभ्यन्तरीकृत्येति-बुद्धिस्थी कृत्येत्यर्थः । यस्माद्विशिष्टव क्रियेति । क्रियायाः क्षणिकत्वात्, सामान्यक्रियाया10 उत्पत्त्यनन्तरमेव विनाशादुपसर्गयोगे न स्याद् विशिष्टत्वमित्यर्थः । अन्तरङ्गत्वादेत्वदीर्घत्वयोरिति-संपन्नकारणत्वादेत्वदीर्घत्वयोरन्तरङ्गत्वं तागमस्य तु संपत्स्यमानकारणत्वाद् बहिरङ्गत्वम्, कृते च यबादेशे एकपदत्वात्तागमस्यैवान्तरङ्गत्वम्। 'व्यञ्जनस्यानादेलुक' [४. १. ४४.] इतीति-उभयो: स्थाने निष्पन्नत्वात् यकारवकारयोर्धातुव्यपदेशात् पुनरपि 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक्' [४. १. ४४.] भवति ।15 तस्याधातुत्वादिति सन्नादेः प्रत्ययस्य क्रियार्थत्वेऽपि न धातुत्वं भ्वादिसाहचर्यात् भ्वादयोऽप्रत्यया एव घातवोऽन्येऽपि तथा। अमनो मनः सुभवति दुर्भवति अभिभवतीति वाक्यं कर्त्तव्यं 'व्यर्थे भृशादे: स्तोः' [३. ४. २६.] क्यङ सलोपश्च सुशब्दस्य भवतिना संबन्ध इति, यदा तु असुमना: सुमना इति मनसा संबन्धस्तदा सुशब्दस्य प्राक्त्वं सिद्धमेव । ननु सुकटंकराणि वीरणानि, दुष्कटंकराणि वीरणानीत्यत्र गतिसंज्ञकस्य सुशब्दस्य धातो:20 प्राक् प्रयोगः प्राप्नोति ? नैवम्, 'दुःस्वीषतः कृच्छ्राकृच्छ्रार्थात् खल्' [५.३.१३६.] 'व्यर्थे काप्याभूकृगः' [५. ३. १४०.] इत्यत्र च खित्करणात्, तस्य ह्य तत् प्रयोजनं खिति मोऽन्तो यथा स्यात्, यदि च सुशब्दस्य प्राग् धातोः प्रयोगः स्यात्तदा खित्करणमनर्थकं स्यादिति, सुशब्दादिना कटादेर्व्यवधानात्, सुशब्दात्त्वव्ययत्वान्न भवति ।। ३. १. १॥ ऊर्याद्यनुकरणविडाचश्च गतिः ॥ ३. १. २॥ 25 ऊर्यादय, अनुकरणानि, च्व्यन्ता, डाजन्ताश्च शब्दा, उपसर्गाश्च धातोः संबन्धिनो गतिसंज्ञा भवन्ति, तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यन्ते । ऊर्यादि:-ऊरीकृत्य, उररीकृत्य, ऊरीकृतम्, उररीकृतम्। अनुकरण खाटकृत्य, फूत्कृत्य, कथं खाडिति कृत्वा निरष्ठीवदिति ?-इति शब्देन - व्यवधानान्न भवति । च्व्यन्तः-शुक्लीकृत्य, घटीकृत्य । डाजन्त-पटपटाकृत्य,30 सपत्राकृत्य । उपसर्गः-प्रकृत्य, पराकृत्य, प्रकृतम्, पराकृतम् । ऊरी, उररी, Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते ... [पा० १. सू० २.] . अङ्गीकरणे, विस्तारे च, उरुरी-अङ्गीकारे,-एते त्रयो भशार्थप्रशंसयोरपि । पाम्पी-विध्वंसमाधुर्यकरुणविलापेषु। ताली, आताली, वर्णोत्तमार्थयोः । धूशी-कान्तिकाङ्क्षयोः । पाम्प्यादयो विस्तारेऽपि । शकला, शंसकला, ध्वंशकला, भ्रशकला, पालम्बी, केवाशी, शेवाली, पाली, मस्मसा, मसमसा,-एते हिंसायाम्, आद्याश्चत्वारः 5 परिभवेऽपि, ततः परे चत्वारश्चाविष्कारेऽपि, अन्त्यौ च द्वौ-चूर्णसंवरणयोरपि । पार्दाली-शब्दार्थेऽपि, मस्मसा, मसमसानुकरणेऽपि केचित्तु मस्मसेत्यत्र ऋकारौ निपात्य मस्मसेति पठन्ति, केचिदालम्बीस्थाने आलोष्ठीति पठन्ति । गुलुगुधा-क्रीडापीडयोः। गुलगुधेत्यन्ये मन्यन्ते । सजूः-सहार्थे । फल, फली, विक्ली, प्राक्ली,-एते विकारे । प्राद्यौ क्रियासंपत्तिकर्मसिद्धयकण्टकेष्वपि,10 अन्त्यौ तु विचार विभागयोरपि। श्रौषट्, वषट्, वौषट्, स्वाहा, स्वधा,देवतासंप्रदानदानमात्रयोः, वषट्-पूजायामपि, स्वधा तृप्तिप्रीतिप्रत्यभिवादनेष्वपि, श्रत् श्रद्धाने शीघ्र च । प्रादुस्, आविस्, प्राकाश्ये-पशू केवाली,-हिंसायाम्। वेताली-विस्तारे। केचित्तु धूली वर्षाली पाम्पालीविचालीशब्दानप्यधीयते, इत्यूर्यादयः । एषां विडाच्साहचर्यात्15 कृभ्वस्तिभिरेव योगे गतिसंज्ञा। श्रतश्च दधातिकरोतिभ्याम् । प्रादुराविःशब्दौ कृग्योगे विकल्पार्थं साक्षादादावपि पठ्यते गतिप्रदेशाः “गतिः" [१. १. ३६.] इत्यादयः ।। २ ।। न्या० स०--ऊर्याद्य० । सोऽयमित्यभेदोपचारेण कुतश्चित् सादृश्यात् येनानुक्रियते तदनुकरणमित्याह-अनुकरणानीति-च्विडाचोः प्रत्ययत्वात् प्रकृतेराक्षेपात् प्रत्ययमात्रस्य 20 धातुसंबन्धासंभवाच्च तदन्तप्रतिपत्तिरित्याह-व्यन्ता इति । डाजिति चित्करणाप्तिता कृत्वेत्यादौ पितृशब्दात् 'ऋदुशनस्' [१. ४. ८४.] इत्यनेन डा इति तदन्तस्यागतित्वात्ततो यबादेशाभावः। खाडिति कृत्वेति-कृत्वेत्यस्य इतिना संबन्धः, इतेश्च खाट् इत्यनेन अतो धातोः खाटश्च परस्परं न संबन्धः। खाट्कृत्येत्यत्र-खाडिति मूर्द्ध न्यान्तोऽनुकरणशब्दोऽव्युत्पन्नः, एवं पूच्छब्दोऽप्यव्युत्पन्नः। विस्तारे चेति-अत्र एकत्रावस्थितस्य25 स्वावयवैरनियतदिग्देशव्याप्तिविस्तारः । उरुरीत्यत्र ‘महत्त्युर्च' ७३७ (उणादि) इति 'उ' प्रत्यये उरुः तं रीयते। माधुर्यकरुणेत्यत्र-रसनेन्द्रियग्राह्यो मनः प्रीतिजनको गुणविशेषो माधुर्यम्, इष्टवियोगजनितं शब्दं रोदनं करुणविलापः। पाम्पीत्यत्र च पिबते: 'अर्तीरिस्तु' ३३८ (उणादि) इति मे पामस्तत्पूर्वात्पीयतेः क्विपि निपातनात् Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४२३ पूर्वपदान्तलोपे पाधातोर्लेखने तु आकारस्य ईकारे वा पाम्पी । तालीत्यत्र-केवलादाङ पूर्वाच्च तालयतेः 'तृ स्तृ तन्द्रितन्त्री' ७११ (उणादि)इति बहुवचनादीकारे ताली पाताली च । धूशीत्यत्र धूनोतेः क्विपि धूस्तत्र शेते इति क्विपि धूशी, कान्तिस्तेजस उत्कर्षतः, काङक्षा अभिलाषः । शकलेत्यत्र शशि प्लुतिगतावित्यचि शश:, खलतेरचि खलः शशाः खला अस्या पृषोदरादिदर्शनादत एव निपातनादेकस्य शस्य 5 लोपे खस्य च कत्वे आपि शकला। संशकलेति हत्वा हत्वा शशाः संचीयन्तेऽस्यामिति हिंसोच्यते, संगता शकला संशकला, ध्वस्ता शकला भृशं शकला पृषोदरादित्वात् पूर्वपदयोलभावे भ्रभावे च ध्वंशकला भ्रंशकला । प्राङ पूर्वाल्लम्बेः 'तृ स्तृ तन्त्रि' ७११ (उणादि) इति बहुवचनादीकारे आलम्बी। 'केवृङ सेचने' अचि केवः, तत्पूर्वात् 'शोंच तक्षणे' इत्यतो बाहुलकात् कितीकारे पृषोदरादित्वात् पूर्वपदान्तस्याकारे केशावी। शेते:10 'शीङाप:' ५०६ (उणादि) इति वः तदालीयते इति क्विपि शेवाली । पारयतीति क्विपि पाः, पारं ददाति विचि पार्दाः, तं लीयते इति पार्दाली। मस्मसेत्यत्र 'मसैच परिणामे' क्विपि अचि च मसो मसा इति षष्ठीतत्पुरुषे मस्मसा, पूर्वस्याप्यचि मसमसा। चूर्णसंवरणयोरपीति । अत्रावयविनः सूक्ष्मावयविभागश्चूर्णम्, सर्वत्र अपिशब्दो हिंसासंबन्धद्योतनार्थः । 'गुत् पुरीषोत्सर्गे' ततो विचि कुटादित्वात् गुणाभावे गुवं लुनातीति 15 क्विपि तं गुध्नातीति 'मूलविभुजादयः' [५. १. १४४.] (इति) के निपातनादूकारस्य ह्रस्वत्वे आपि गुलुगुधा फलनिष्पत्तावित्यतो बाहुलकादूकारे ईकारे च फलू फली । विपूर्वादाङ पूर्वाच्च क्रीणातेः क्विपि ऋपिडादित्वाल्लत्वे विक्ली आक्ली।। क्रियासंपत्तिकर्मसिद्ध्यकण्टकेष्वपीत्यत्र-क्रियासंपादनं पाठादिक्रियायाः फलप्राप्तिः, कण्टकरहितो देशादिः । विभागयोरपीत्यत्र विभागो विभक्तप्रत्ययनिमित्तं गुणविशेषः ।20 औषडित्यत्र श्रूयते, वाति, उच्यते च बाहुलकात् क्विबन्ताः साधवः । देवतासंप्रदानेत्यत्र देवतासंप्रदानं देवताभ्यः संप्रदीयमानं हविर्द्रव्यं दानमात्र दानसामान्यं स्वधा पितृभ्य इति श्रुतेः । कथं स्वधा देवतासंप्रदाने वर्तते ? उच्यते, पितृ णामपि देवतारूपत्वाददोषः । स्वधा तृप्तिप्रीतीत्यत्र तृप्तिः श्रद्धोच्छेदः, प्रीतिरानन्दः, प्रत्यभिवादनं प्रतिनमस्क्रिया । श्रद्धाने इत्यत्र धर्मकर्मविषयोऽभिलाषः श्रद्धानं, केवालीत्यत्र 'केवृङ सेवने' इत्यचि25 केवलमालीयते क्विपि केवाली। योगे गतिसंज्ञेति विडाचोः कृभ्वस्तिभिरेव योगे भावात् तदेकवाक्यतया चैषां निर्देशात्तद्योग एव गतित्वमित्यर्थः । श्रतश्च दधातिकरोतिभ्यामिति । ‘मृगयेच्छया' [५. ३. १०१] इत्यत्र श्रद्धेतिनिर्देशात् तथैव प्रयोगदर्शनाच्छास्त्रस्यानुवादकत्वादिति शेषः ।। ३. १. २ ।। कारिका स्थित्यादौ ॥३. १. ३ ॥ 30 कारिकाशब्दः स्थित्यादावर्थे धातोः संबन्धी गतिसंज्ञो भवति । तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते । स्थितिमर्यादा वृत्तिर्वा, आदिशब्दाद्यत्नधात्वर्थनिर्देशौ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] बृहदवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४-५.] गृह्यते । कारिकाकृत्य,-स्थितिं यत्न क्रियां वा कृत्वेत्यर्थः । स्थित्यादाविति किम् ? कारिकां कृत्वा,-कौं कृत्वा इत्यर्थः ।। ३ ।। न्या० स०--कारिका-कारिकाकृत्येति करणं कारिका भावे एकः, कारिका करणं पूर्व इति वाक्येऽपि अनेन गतिसंज्ञायां 'अव्ययस्य' [३. २. ७.] इति षष्ठ्या लुप्, एवं सर्वत्र । श्लोकवाचिनस्तु कारिकाशब्दस्य सत्यपि धातुसंबन्धसंभवे प्रयोगा- 5 दर्शनात् ग्रहणाभाव इति ।। ३. १. ३ ।। भूषादरक्षेपेडलंसदसत् ॥ ३. १. ४ ॥ अलं, सत्, असत् इत्येते शब्दा यथासंख्यं भूषादरक्षेपेष्वर्थेषु वर्तमाना धातोः संबन्धिनो गतिसंज्ञा भवन्ति तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यन्ते । भूषामण्डनम्-अलंकृत्य, अलंकृतम्, प्रीत्या संभ्रम-आदरः-सत्कृत्य, सत्कृतम्,10 क्षेपोऽनादरः-असत्कृत्य, असत्कृतम् । भूषादिष्विति किम् ? अलं कृत्वा माकारीत्यर्थः, सत् कृत्वा, विद्यमानं कृत्वेत्यर्थः, असत्कृत्वा-अविद्यमानं कृत्वेत्यर्थः ।। ४ ।। अग्रहानुपदेशेऽन्तरदः ॥ ३. १. ५ ॥ अन्तर् अदस् इत्येतौ शब्दौ यथासंख्यमग्रहेऽनुपदेशे चार्थे गम्यमाने15 धातोः संबन्धिनौ गतिसंज्ञौ भवतः, तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते । अग्रहोऽस्वीकारः । अन्तर्हत्य, मध्ये हिंसित्वा शत्रून् गत इत्यर्थः । स्वयं परामर्शोऽनुपदेशो विशेषानाख्यानं वा। अदःकृत्यैतत्करिष्यतीति चिन्तयति । अग्रहानुपदेशे इति किम् ? अन्तर्हत्वा मूषिकां श्येनो गतःपरिगृह्य गत इत्यर्थः । अदः कृत्वा गत इति परस्य कथयति 120 अदस्शब्दस्त्यदादौ । अव्ययमिति केचित् ॥ ५ ॥ न्या० स०-अग्रहानु०। मध्ये हिंसित्वेति-अन्तःशब्दो मध्येऽधिकरणभूते वर्तते परिग्रहे च, तत्र परिग्रहे प्रतिषेधादितरत्र गतिसंज्ञा विज्ञायते इति दर्शयति, विशेषानाख्याने चिन्तयतीत्यस्य स्थाने कथयतीति प्रयोगो ज्ञेयः ।। ३.१.५ ।। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६-८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४२५ कणेमनस्तुप्तौ ॥ ३. १. ६ ॥ कणे मनस् इत्येते अव्यये तृप्तौ गम्यमानायां धातोः संबन्धिनी गतिसंज्ञे भवतः, तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते । तृप्ति:-श्रद्धोच्छेदः । कणेहत्य पयः पिबति । मनोहत्य पयः पिबति, तावत् पिबति यावत्तृप्तः इत्यर्थः । तृप्ताविति किम् । तन्दुलावयवे कणे हत्वा गतः, मनो हत्वा गतः, 5 चेतो हत्वेत्यर्थः ।। ६ ॥ न्या० स०-करणेमनः कणतेरचि सप्तम्यां कणे इति सप्तमीप्रतिरूपकमव्ययमश्रद्धायां वर्तते। अव्यये इति अव्ययः सन् तृप्ति वक्ति, अत एव वृत्तौ अव्ययमिति संभवद्विशेषणं सूत्रेऽव्ययमित्यस्याकरणात् । कणे-मनस् इत्येते अव्यये इति स्वरूपनिरूपणमात्रमेवेति, तृप्ताविति व्यावृत्तेर्न द्वयङ्गवैकल्यम् ।। ३. १. ६ ॥ 10 पुरोऽस्तमव्ययम् ॥३. १.७ ॥ पुरस् अस्तम् इत्येते अव्यये धातोः संबन्धिनी गतिसंज्ञे भवतः, तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्येते, पूर्वपर्यायः-पुरःशब्दः, अनुपलब्ध्यर्थोऽस्तंशब्दः । पुरस्कृत्य गतः-पुरस्कृतम्, अस्तंगत्य पुनरुदेति सविता-अस्तंगतानि दुःखानि । अव्ययमिति किम् ? पुरः कृत्वा,-नगरीरित्यर्थः । अस्तं कृत्वा15 काण्डं गतः-क्षिप्तमित्यर्थः । सकारोऽप्यत्र न भवति ।। ७ ।। न्या० स०-पुरोस्त०। पुरःकृत्वेत्यत्र पुर्शब्दः शसि सकारान्तोऽस्त्येवेति न द्वयङ्गवैकल्यम् । नन्वत्र गतिसंज्ञायामपि गतिसमासे सति स्यादिनिवृत्तिभावात् पुरसिति असन्तस्य संज्ञिरूपस्यासंभवात् संज्ञाया निवृत्तेस्तनिमित्तस्य समासादिकार्यस्यापि निवृत्तेः किमव्ययविशेषणेनेति ? नैवं, स्यादिनिवृत्ताप्येकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् स एवायं संज्ञीति 20 संज्ञा न निवर्तते, यस्मिन् वा तद्रूपं न निवर्त्तते तत्प्रत्युदाहरणं यथा पुरः करोतीति नानार्थकमव्ययविशेषणमुत्तरार्थम् ।। ३. १.७ ॥ गत्यर्थवदोऽच्छः ॥ ३. १. ८ ॥ अच्छेत्यव्ययमभिशब्दार्थे दृढार्थे च वर्तते, तत् गत्यर्थानां वदश्च धातोः सम्बन्धिगतिसंज्ञं भवति, तेभ्यश्च धातुभ्यः प्रागेव प्रयुज्यते। अच्छगत्य,25 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ६-११.] अच्छव्रज्य, अच्छोद्य। गत्यर्थवद इति किम् ? अच्छ कृत्वा गतः । अव्ययमित्येव ।-उदकमच्छं गत्वा ।। ८ ॥ न्या० स०-गत्यर्थवदो। अत्र समासान्तविधेरनित्यत्वादत एव निर्देशाद् वा 'चवर्गदषहः' [७. ३. ९८.] इति समासान्तो न भवति, अवतेरचि पृषोदरादित्वाद् वकारस्य छत्वे 'स्वरेभ्यः' [१.३.३०.] इति द्वित्वे अच्छ इति अभ्यादावर्थेऽव्ययं 5 निर्मलादावनव्ययम् ।। ३. १.८ ।। तिरोऽन्तौँ ॥ ३. १. ६ ॥ तिरः शब्दोऽन्तधौं व्यवधाने वर्तमानो धातोः संबन्धिगतिसंज्ञो भवति तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते। तिरोभूय, तिरोधाय। अन्तर्धाविति किम् । तिरो भूत्वा स्थितः,-तिर्यग्भूत्वेत्यर्थः ।। ६ ।। 10 कृगो नवा ॥ ३. १. १० ॥ तिरस् इत्यव्ययमन्तधौं वर्तमानं कृगो धातोः संबन्धिगतिसंज्ञं वा भवति तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते । तिरस्कृत्य, तिरःकृत्य, तिरस्करोति, तिरः करोति, पक्षे-तिरःकृत्वा । अन्तर्धावित्येव । तिरः कृत्वा काष्ठं गतःतिर्यगित्यर्थः ।। १० ।। 15 मध्येपदेनिवचनेमनस्युरस्यनत्याध्याने ॥ ३. १. ११ ॥ एतानि सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपकाण्यव्ययानि अनत्याधानेऽर्थे वर्तमानानि कृगो धातोः संबन्धीनि गतिसंज्ञानि भवन्ति वा, तस्माच्च धातो: प्रागेव प्रयुज्यन्ते, अत्याधानम् उपश्लेष आश्चर्य च, ततोऽन्यदनत्याधानम् । मध्येकृत्य, मध्ये कृत्वा, पदेकृत्य, पदे कृत्वा, निवचनेकृत्य, निवचने कृत्वा,-20 निवचने-वचनाभावः, वाचं नियम्येत्यर्थः, मनसि कृत्य, मनसि कृत्वा, उरसि कृत्य उरसि कृत्वा-उभयत्र निश्चित्येत्यर्थः । अनत्याधान इति किम् ? मध्ये कृत्वा धान्यराशि स्थिता हस्तिनः, पदे कृत्वा शिरः शेते, मनसि कृत्वा सुखं गतः, उरसि कृत्वा पाणि शेते। अव्ययमित्येव । मध्ये कृत्वा वाचं तिष्ठतीत्यादि ।। ११ ॥ 25 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १२-१३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४२७ न्या० स०--मध्येपदे०। प्रनत्याधाने इति अत्र 'विभक्तिसमीप' [ ३. १. ३६.1 इत्यनेनार्थाभावेऽव्ययीभावः, तस्मिन्नपि 'सप्तम्या वा' [३. २. ४.] इति विकल्पादम् भावाभावः, तत्पुरुषो वा। सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपकेत्यत्र-प्रतिगतं सादृश्येन प्रतिपन्न रूपं शब्दस्य तत्त्वं श्रुतिर्यस्तानि प्रतिरूपकारिण सप्तम्या एकवचनं तदन्तानां प्रतिरूपकारिण सप्तम्येकवचनान्तानि प्रतिरूपकाण्येषामिति वा विग्रहः। उपश्लेष इत्यत्र सन्निपत्ययोग: 5 सर्वप्रकारं साधारणमुच्यते, न तु संयोगमात्रं मध्ये इत्यादीनां अव्ययत्वात् पृषोदरादिनिपातनादेकारान्तत्वमिकारान्तत्वं च । निवचन इत्यत्र तु ब्रु गो वचेर्वा 'करणाऽऽधारे' | ५. ३. १२६. | इति अनटि वचनस्याभाव इति निशब्देनाऽव्ययीभावे पृषोदरादित्वादेकारे च निवचने इति । मध्ये कृत्वा वाचं तिष्ठतीति मध्ये इति औपचारिकोऽयमाधार इति वाचोऽनत्याधानमस्ति, वचनं हि शब्दप्रकाशनफलं न केनाऽपि सह समवैति ।।३. १. ११।। 10 उपाजेन्वाजे ॥ ३. १. १२ ॥ एते अव्यये सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपके स्वभावाद्द बलस्य भग्नस्य वा बलाधाने वर्तमाने कृगो धातोः संबन्धिनी गतिसंज्ञे वा भवतः। तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते । उपाजेकृत्य, उपाजे कृत्वा, अन्वाजेकृत्य, अन्वाजे कृत्वा,-दुर्बलस्य भग्नस्य वा बलाधानं कृत्वेत्यर्थः ।। १२ ।। 15 न्या० स०--उपाजे० । 'उप अनु' इत्येवं पूर्वादजतेर्घत्रि पृषोदरादित्वादेकारे उपाजे अन्वाजे ।भग्नस्य वा बलाधानमित्यत्र शकटस्य धुरोऽक्षस्य वा भग्नस्य यत्काष्ठमुपधीयते तदुपाजे अन्वाजे इति चोच्यते ।। ३. १. १२. ॥ स्वाम्येधिः ॥ ३. १. १३ ॥ अधीत्येतदव्ययं स्वामित्वे गम्यमाने कृगो धातोः संबन्धिगतिसंज्ञं वा20 भवति, तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते । चैत्रं ग्रामेऽधिकृत्याधि कृत्वा वा गतः,-स्वामिनं कृत्वेत्यर्थः । स्वाम्य इति किम् ? चिन्तया ग्राममधिकृत्य, उद्दिश्येत्यर्थः । सार्थकत्वे उपसर्गसंज्ञकत्वात् नित्यं प्राप्ते पक्षे प्रतिषेधार्थं वचनम्, अनर्थकत्वे तु विधानार्थम् । प्रादिरुपसर्ग इति वर्तते, तेनोपसर्गसंज्ञापि विकल्प्यते इति25 कृत्वाधीति प्राक्त्वेऽप्यनियमः ॥ १३ ।। न्या० स०--स्वाम्येऽधिः । प्रादिरुपसर्ग इति वर्तते इति । अत्र व सूत्र मण्डूक Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] बृहद्वृत्तिलघुन्याससंवलिते [ पा० १. सू० १४. ] प्लुतिन्यायेन प्रादिरुपसर्ग इति वर्त्तते, न ऊर्यादिसूत्रेषु तेन ऊर्यादीनां न उपसर्गसंज्ञा, ततश्च ऊरी स्यादित्यादी 'प्रादुरुपसर्गा,' [२. ३. ५८ ] इति न षत्वम् । प्रावत्वेऽप्यनियम इति न केवलं समास एवेत्यर्थः । नन्वधिपूर्वः करोतिर्विनियोगे वर्त्तते, तत्कथं स्वामित्वे गम्यमान इत्युच्यते ? सत्यं विनियोगोऽपि चेत् स्वामित्वविषयो भवति ।। ३. १. १३ ।। T साक्षादादिश्च्व्यर्थं ॥। ३. १. १४ ॥ साक्षादादयः शब्दाश्च्व्यर्थे वर्तमानाः कृगो धातोः संबन्धिनो गतिसंज्ञा वा भवन्ति, तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यन्ते । साक्षात्कृत्य, साक्षात् कृत्वा, - असाक्षाद्भूतं साक्षाद्भूतं कृत्वेत्यर्थः, एवं - मिथ्याकृत्य, मिथ्या कृत्वा । च्व्यर्थ इति किम् ? यदा साक्षाद्भूतमेव किंचित् करोति, तदा साक्षात्कृत्वेत्येव भवति । च्व्यन्तानां तु 'ऊरी'-[ ३. १२.] प्रादिसूत्रेण नित्यमेव गतिसंज्ञा, लवणीकृत्य 10 उष्णीकृत्य । साक्षात्, मिथ्या, चिन्ता, भद्रा, रोचना, लोचना, श्रमा, आस्था, अग्धा, प्राजर्या, प्राजुरा, प्राजरुहा, बीजर्या बीजरुहा, संसर्पा । अर्थेअग्नौ, वशे, विरूपने, प्रकपने, विसहने, प्रसहने, प्रतपने । अर्थेप्रभृतयः सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपकाः स्वभावात् निपाताद्वा । लवणम्, उष्णम्, शीतम्, उदकम्, आर्द्र म्, - लवणादीनामेतत्सूत्रविहितगति संज्ञासंनियोग एव 15 मान्तत्वं निपात्यते । प्रादुस् प्रविस्, नमस् इति साक्षादादिः ।। १४ । 5 न्या० स० - साक्षादादि० । च्व्यन्तानां त्विति अर्थग्रहणात् व्यन्तानां विकल्पो न भवति, साक्षादिति सादृश्यप्रत्यक्षयोः । मिथ्या इति लोके, चिन्ता इति मानसे व्यापारे, भद्रादयः त्रयः प्रशंसायाम्, श्रमा इति सहार्थे, आस्था इति आदरप्रतिज्ञयो:, प्रग्धादयः षट् शोभार्थे, प्राजर्या इति रहः समवाय- संयोग- सामर्थ्येषु, बीजर्या बीजरुहा इति20 बीजप्रसवनेऽपि, संसर्पा इति प्रयोजनसंवरणयो:, श्रग्नौ इति तैक्ष्ण्ये, वशे इति अस्वातन्त्र्ये, विकपने प्रकपने इति उभौ वैरूप्ये, विकपने हिंसायां प्रकपने इत्यन्ये । विसहने प्रसहने इति उत्साहे सामर्थ्ये च, निपाताद्व ेति प्राकारान्तानां ध्वनीनां निपातनादाकारान्तत्वं, न तु प्राबन्तत्वम्, लवरणम् इति रुच्यर्थे, उष्णं इति अभिभवे, शीतं इति अनादरे, उदकं इति क्लेदे द्रवे च, आर्द्र इति सोदकाभिनवयोः । मान्तत्वं निपात्यत इति तेन लवणी- 25 कृत्येत्यादौ पूर्वसूत्रविहितगतिसंज्ञासन्नियोगे न भवति, तथा लवणं कृत्वा यवागूं भुङ्क्त े, शीतः कृतः, शीता कृता, शीताः कृताः इत्यादावभिधेयवल्लिङ्गो गतिसंज्ञाया प्रभावान्मान्ताभावः ।। ३. १. १४ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १५-१७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४२६ नित्यं हस्तेपाणावाहे ॥ ३. १. १५ ॥ हस्तेपाणावित्येतौ सप्तम्येकवचनान्तप्रतिरूपकावव्ययौ, सप्तम्यन्तावनव्ययावित्येके, तावुद्वाहे दारकर्मण्यर्थे गम्यमाने कृगो धातोः संबन्धिनौ गतिसंज्ञौ नित्यं भवतः, तस्माच्च धातोः प्राक् प्रयुज्यते । हस्तेकृत्य, पारणौकृत्य,-भार्यां कृत्वेत्यर्थः । उद्वाह इति किम् ? हस्ते कृत्वा कार्षापणं 5 गतः । नित्यग्रहणाद्वानिवृत्तिः ॥ १५ ॥ 15 प्राहवं बन्थे ॥ ३. १. १६ ॥ प्राध्वमित्येतन्मकारान्तमव्ययमानुकल्ये वर्तते, तच्चानुकल्यं यदा बन्धहेतुकं भवति, तदा बन्ध इत्युच्यते, अनेकार्थत्वाद्वा निपातानां मुख्य एवास्य बन्धोऽर्थः, तत्र वर्तमानः प्राध्वंशब्द: कृगो धातोः संबन्धी गतिसंज्ञो भवति,10 तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते । प्राध्वंकृत्य, बन्धनेनानुकूल्यं कृत्वेत्यर्थः । बन्ध इति किम् ? प्राध्वं कृत्वा शकटं गतः ।। १६ ।। न्या० स०--प्राध्वं बन्धे। बन्धहेतुकमिति बन्धजनितमित्यर्थः, दुष्टाश्वादिर्हि बन्धनेनानुकूल्ये व्यवस्थाप्यते । बन्ध इत्युच्यते इति कार्ये कारणोपचारात्, कारणं बन्धः, कार्यमानुकूल्यं बन्ध एवानुकूल्ये वर्तते ॥ ३. १. १६ ।। जीविकोपनिषदौपम्ये ॥ ३. १. १७ ॥ जीविकोपनिषच्छब्दौ प्रौपम्ये गम्यमाने कृगो धातोः संबन्धिनौ गतिसंज्ञौ भवतः तस्माच्च धातोः प्रागेव प्रयुज्यते । जीविकाकृत्य, उपनिषत्कृत्य, जीविकामिवोपनिषदमिव कृत्वेत्यर्थः । प्रौपम्य इति किम् ? जीविकां कृत्वा, उपनिषदं कृत्वा गतः ।। १७ ।। न्या० स०--जीविकोपनिषदौपम्ये जीवनं जीविका 'भावे' [ ५. ३. १२२. ] इति णकः, तत आपीत्वे च जीविका अथवा जीव्यतेऽनया इति 'नाम्नि पुसि च' [५. ३. १२१.] इति णके जीविका जीवनोपायः, औपम्य इत्यत्र उपमीयतेऽनयेति , 'उपसर्गादातः' [ ५. ३. ११०.] इति अङि भिदादित्वाद् वा उपमा, तस्या भाव औपम्य, उपमानोपमेयभावलक्षणसंबन्धः, समासकृत्तद्धितेषु संबन्धाभिधानमिति संबन्धे25 भावप्रत्ययोत्पादात् ॥ ३.१.१७॥ 20 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १८.] नाम नाम्नैकाथ्य समासो बहुलम् ॥ ३. १. १८ ॥ नाम नाम्ना सहैकार्थ्ये एकार्थीभावे सति समाससंज्ञं भवति बहुलम्, ऐकार्थ्यं च सामर्थ्य विशेषः । स च पृथगर्थानां पदानां क्वचित्परस्परव्यपेक्षालक्षणं सामर्थ्यमनुभूय भवति, यथा-राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः, नीलं च तदुत्पलं नीलोत्पलम् । क्वचित् अननुभूयैव भवति, यथा-उपकुम्भम्, 5 कुम्भकारः, वाक्यान्तरेण त्वर्थः प्रदर्श्यते कुम्भस्य समीपं-कुम्भं करोतीति । क्वचिन्न भवत्येव, यथा छात्राणां पञ्चमः, रामो जामदग्न्यः इति लक्षणं चेदमधिकारश्च । तेन बहुव्रीह्यादिविशेषसंज्ञाभावे यत्रैकार्थता दृश्यते, तत्रानेनैव समाससंज्ञा भवति-विस्पष्टं पटुः, विस्पष्टपटुः, विचित्रं कटुकः; विचित्रकटुकः, एवं-विविक्तकषायः । व्यक्तलवणः, संपन्नमधुरः, पट्वम्लः,10 निपुणपण्डितः, कुशलदक्षः, चपलवत्सलः इत्यादिषु गुणविशेषणस्य गुणवचनेन समासः । काष्ठा परं प्रकर्षमध्यायक:-काष्ठाध्यायकः । दारुणमध्यायकःदारुणाध्यायकः, अमातापुत्रमध्यायकः-अमातापुत्राध्यायकः, निष्ठुरमध्यायक इत्यर्थः, वेशं सुभगमध्यायकः-वेशाध्यायकः । एवमनाज्ञाताध्यायकः, अयुताध्यायकः, अद्भ ताध्यायकः भृशाध्यायकः, घोराध्यायकः, परमाध्यायकः,15 स्वध्यायकः, अत्यध्यायक: इत्यादिषु क्रियाविशेषणस्य क्रियावता समासः । तथा-सर्वश्चर्मणा कृतः सर्वचर्मीणो रथः, अद्य श्वो वा विजायते अद्यश्वीना गौः, दशभिरेकादश गृह्णाति दशैकादशिकः, ऊध्वं मुहूर्ताद्भवम्-ऊर्ध्वमौहर्तिकम्, एवमौर्ध्वदेहिकम्, और्ध्वदमिकम् ; कृतः पूर्वं कटोऽनेन कृतपूर्वी कटम्, भुक्तपूर्वी प्रोदनम्, गतपूर्वी ग्राममित्यादिषु तद्धितार्थे समासः । तथा20 कन्येइव, दंपतीइव, वाससीइव, रोदसीइवेत्यादिष्विवेनालुप् समासः । एकपद्यं च समासफलम् । तथा-भूतः पूर्वं भूतपूर्वः, एवं दृष्टपूर्वः, श्रुतपूर्वः । सर्वेषु चैषु विशेषसंज्ञाऽप्राप्तौ अनेनैव समासः । बहुलमिति शिष्टप्रयोगानुसरणार्थम् नामेति किम् ? चरन्ति गावो धनमस्य । नाम्नेति किम् ? चैत्रः पचति । बहुलवचनादेव क्वचिदनामापि समस्यते,-भात्यर्कोऽत्रेति भात्यर्क नभः, नभसा25 सामानाधिकरण्यं समासफलम् । क्वचिदनाम्नापि-अनुव्यचलत्, अनुप्रावर्षत्, यद् व्यकरोत्, यत् परियन्ति । अत्र नित्यसंध्यादिः समासफलम्, समासस्य च Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४३१ नामत्वेऽपि संख्यायास्त्यादिभिरेवोक्तत्वात्स्यादयो न भवन्ति, पदत्वार्थमुत्पन्नस्य वा प्रथमैकवचनस्य त्याद्यन्तार्थप्राधान्यात् नपुंसकत्वे लोपो भवति । समासप्रदेशा 'वौष्ठौतौ समासे' [१. २. १७.] इत्यादयः ।। १८ ।। न्या० स०--नाम नाम्नैकार्थ्य० । ननु चात्र सहग्रहणं कर्त्तव्यं, सहभूतयोः समाससंज्ञार्थम्, न च नाम्नेति तृतीयया सहयोगाक्षेपात् 'वृद्धो यूना' [ ३. १. १२४. ] " इतिवत् एकैकस्य न भविष्यतीति वक्तव्यं, यथा पुत्रेण सहागत इति द्वयोरपि तातपुत्रयोरागमनेन संबन्ध एवमेकैकस्य समाससंज्ञा स्यात्, सहग्रहणात्त्वेका समाससंज्ञा सहभूतयोर्भवति, दोषाभावात् (एकैकस्य समाससंज्ञेतिशेषः) भवत्विति चेत्, यद्यपि समुदायरूपवाक्यवर्जनात् पर्युदासात् समाससमुदायस्य नामत्वे दोषाभावः, तथापि ऋक्पाद इत्यादौ समासान्ते दोषः ? सत्यं, यथा प्रत्यवयवं वाक्यपरिसमाप्तिदृष्टा यथा यज्ञदत्तदेवदत्त-10 विष्णुमित्रा भोज्यन्तामिति, न चोच्यते प्रत्येकमिति प्रत्येकं च भूजिक्रिया समाप्यते, एवमत्राऽपि (स) प्रत्येकं समाससंज्ञा सत्यपि नोच्यते, यद् वा समास इति महतीयं संज्ञा अन्वर्था विज्ञायते. समस्यन्ते, संक्षिप्यन्ते पदान्यस्मिन्निति, समूदायविषयायां तु संज्ञायां पूर्वोत्तरपदयोरेकत्वेन न्यसनं भवति, तस्मात् समास इति समुदायस्यैवेयं संज्ञा विज्ञायते, न प्रत्येकमिति, सहग्रहणमन्तरेणापि तदर्थलाभात् सहग्रहणं न कर्त्तव्यमिति । 15 __ क्वचिदिति यत्र सर्वाणि सत्वार्थाभिधायीनि पदानि भवन्ति, यत्र त्वेकमसत्वार्थाभिधाय्युपकुम्भमित्यादौ तत्र सामर्थ्यमननुभूयैव समासोऽत आह-क्वचिदित्यादि । सामर्थ्यमनुभूय भवतीति ननु अनुभूयेत्यत्र भवनक्रियायाः सामर्थ्यविशेषः कर्ता अनुभवनक्रियायास्तु पदानि कतृ 'णि इति भिन्नकर्तृ कतायां क्त्वा न प्राप्नोति ? नैवं, वर्त्तनक्रियाऽपेक्षया तुल्यकर्तृत्वं, वर्त्तनक्रियायास्तु पदान्येव कतृ णि कोऽर्थः-पदानां सामर्थ्यमनुभूय वर्त्त-20 मानानां सामर्थ्य विशेषो भवति, न च वाच्यमनुभवनक्रियाया भवनक्रियायाश्च सामर्थ्यविशेष एव कर्तेति तुल्यकर्तृत्वं, यतः परस्परव्यपेक्षा पदानामेव संभवतीत्यनुभवनक्रियायाः पदान्येव कतृ गि। अननुभूयैवेति नित्यसमासत्वादिति शेषः, जामदग्न्य इति प्रथमापत्यस्याऽपि पौत्रकार्यकरणाद् वृद्धत्वविवक्षायां 'गर्गादेर्यञ्' [ ६. १. ४२. ] । राजपुरुष इति ननु द्विधा वृत्तिरजहत्स्वार्था जहत्स्वार्था च तत्राद्यायां राजपुरुष इत्यादौ विशिष्टस्य25 पुरुषस्यानयनं घटते द्वितीयायां तु पुरुषमात्रस्य न जातुचिद् राजविशिष्टस्य ? नैतदस्ति, जहदपि राजशब्दः स्वार्थं नात्यन्ताय जहाति, तद्यथा तक्षा राजकर्मणि प्रवर्त्तमानः स्वं तक्षकर्म राजकर्मविरोधि जहाति, नाविरुद्ध हसितकण्डूयितादि, तथा राजशब्दोऽपि विशेष्यार्थविरोधिनमर्थं जहाति न तु विशेषणत्वम् । अथवाऽन्वयाद् राजविशिष्टस्य ग्रहणं यथा चम्पकपुटो मल्लिकापुट इति । सुमनोमालास्तीति निष्ठितास्वपि सुमनस्सु30 , व्यपदेशोऽन्वयाद् भवति, तथेहापि, तेन राजविशिष्टस्यानयनं न पुरुषमात्रस्येति, क्वचिदननुभूयेत्यत्र तदयं वस्तुसंक्षेपः राजपुरुषादीनि शब्दान्तराण्येव न जातुचिद् राज्ञः पुरुषः इति वाक्यगम्यो व्यपेक्षालक्षणोऽर्थस्तस्मात् प्रतीयते, भिन्नार्थान्येव हि एतानि शब्दरूपाणि Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १६.] नित्यत्वाच्छब्दार्थसंबन्धानामदूरविप्रकर्षण हि बालव्युत्पत्तये वाक्यमुपदर्श्यते, न हि ' वाक्यमेव समासीभवति, विभक्त रपि स्वयमेव तदर्थाभावात् या निवृत्तिः सा ऐकायें इत्यनेनानूद्यते, न तु विधीयते । लक्षणं चेदमिति ननु अधिकारोऽयं लक्षणं वा उभयमपि ब्रमः, अधिकारस्तावद् देवदत्तः पचतीत्यत्र विशेषसमासनिवृत्यर्थः, अन्यथा हि पचतीत्यनेन कर्तृ सामान्यं यदुपात्तं 5 तद्देवदत्त इत्यनेन कर्तृ विशेषेण विशेष्यते इति सामानाधिकरण्येन विशेषणविशेष्यभावोऽस्ति, ननित्यादावुत्तरपदानुपादाने उत्तरपदोपस्थानार्थश्च, लक्षणं च यस्य समासस्यान्यल्लक्षणं नास्ति तस्येदं लक्षणं, तेन विस्पष्टादीनि गुणविशेषणानि गुणवचनेन विस्पष्टं पटुः विस्पष्टपटुः इति समस्यन्ते, पटवादयः शब्दाः पटुत्वादिगुणयोगात् मुख्यतया गुणिनि वर्तमाना अपि गौणतया पाटवादावपीति । विस्पष्टादयः पटवादीनां10 प्रवृत्तिनिमित्तस्य पाटवादेविशेषणानि, न तु द्रव्यस्येति विस्पष्टमिति नपुसकत्वं, अत एव मुख्यं सामानाधिकरण्यं नास्ति इति कर्मधारयतत्पुरुषाभावः । काष्ठा परं प्रकर्षमिति काष्ठाशब्दस्य स्त्रीलिङ्गस्य क्रियाविशेषणत्वान्नपुसकत्वे 'अनतो लुप्' [ १. ४. ५६. ] भवति, ह्रस्वत्वं तु बाहुलकान्न भवति, सोमपं कुलमित्यत्र कुलस्य विशेषणत्वे क्लोबत्वमेवेति ह्रस्वत्वं भवत्येव । 15 ऊर्ध्वमोहत्तिकमिति ऊवं मुहर्तादयो भवः कालः तत्र भवः 'अध्यात्मादिभ्य इकण्' [ ६. ३. ७८.] इकण्, सप्तमो चोर्ध्वमोहूर्तिक इति निर्देशादुत्तरपदवृद्धिः । वाससीइवेति अत्रोत्तरपदप्राधान्यात् से 'अव्ययस्य' [३. २. ७.] इति लुप् । एवं दृष्टपूर्व इति पूर्वं दृष्टा इत्यपि कृते निपातनात् ह्रस्वत्वं, तेन न मे श्रुता, नापि च दृष्टपूर्वति सिद्धम् । सामान्येन समासं कृत्वा पश्चाद् स्त्रीत्वे वा। चरन्ति गावो धनमस्येति अत्र20 समासे चरन्ति गुरिति स्यात् । नित्यसंध्यादिरिति ऐकपद्यात् 'ह्रस्वोऽपदे वा' [ १. २. २२. ] इति ह्रस्वविकल्पाप्रवृत्तेनित्यं यत्वादि भवतीत्यर्थः, अन्ये त्वाहुः एको द्वावित्यादिवदुक्त ष्वप्येकत्वादिषु नामार्थत्वात् केवलायाश्च प्रकृतेः प्रयोगाभावाद् भाव्यमत्र प्रथमैकवचनेन तस्य च 'दीर्घङ याब्' [ १. ४. ४५. ] इत्यनेन लुप् 'अनतो लुप्' [ १. ४. ५६. ] इति तन्मतग्रहणायाह-पदत्वार्थमिति। त्याद्यन्तार्थप्राधान्यादिति त्याद्यन्तस्य साध्यार्थ-25 प्रधानत्वादसत्त्ववाचित्वं असत्त्वं च सामान्यं, सामान्यं च नपुंसकं ततः 'अनतो लुप्' [ १. ४. ५६.] ।। ३. १. १८ ।। सुज्वार्थे संख्या संख्येये संख्यया बहुव्रीहिः ॥३. १. १६ ॥ सुचोऽर्थो वारः, वार्थों विकल्पः संशयो वा, सुज्वार्थे वर्तमानं30 संख्यावाचि नाम संख्येये वर्तमानेन संख्यावाचिना नाम्ना सहकार्यों समाससंज्ञं Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४३३ बहुव्रीहिसंज्ञं च भवति । द्विर्दश द्विदशाः, त्रिर्दश त्रिदशाः, द्विविंशतिः द्विविंशाः,एवं त्रिविशा वृक्षाः, सुजर्थस्य समासेनैवाभिहितत्वात् सुचोऽप्रयोगः । द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः, त्रिचतुराः, पञ्चषाः, सप्ताष्टाः । सुज्वार्थ इति किम् ? द्वावेव न त्रयः । संख्येति किम् ? गावो वा दश वा। संख्ययेति किम् ? दश वा गावो वा। संख्येये इति किम् ? द्विविंशतिर्गवाम् । बहुव्रीहिप्रदेशा 'वा 5 बहुव्रीहे' [२. ४. ५.] इत्यादयः ।। १६ ।। न्या० स०-सुज्वार्थे। विकल्पः संशयो वेति ननु विकल्पसंशययोः को भेदः ? उच्यते, निर्णये सति विकल्पः, यथा देवदत्तो भोज्यतां चैत्रो वा, यद्वा विकल्पे क्रियाप्रवृत्तिः संशये तु न। विकल्पे क्रियाप्रवृत्तिर्यथा द्वित्रेभ्यो देहि भोजनं, ततश्च द्वाभ्यां त्रिभ्यो वा देहीति विकल्पो गम्यते, अस्मिन् सति क्रियाप्रवृत्तिः, संशये क्रियाप्रवृत्त्यभावो10 यथा पुरुषेभ्यो देहीत्युक्त त्रिभ्यो दापितं चतुर्यो वेति संशेते, न जाने त्रयश्चत्वारो वा आगता इति च संशयः अनिर्णयरूपः प्रतिभासः, ननु द्विदशा इत्यादौ वाऽर्थे द्वित्रा इत्यादौ तु सन्निकृष्टसंख्याभिधायिनि सुजथे समासः कस्मान्न क्रियते ? उच्यते, यदि नेष्यते तदाऽनभिधानात् ।। ३. १. १६ ।। आसन्नादूराधिकाध्यर्धार्धा दिपूरणं दिवतीयाद्यन्यार्थे 15 ॥३. १. २० ॥ आसन्न, अदूर, अधिक, अध्यर्ध इत्येतानि अर्धशब्दपूर्वपदं च पूरणप्रत्ययान्तं नाम संख्यावाचिना नाम्नैकार्थ्य समस्यते द्वितीयाद्यन्तस्यान्यस्य पदस्यार्थे संख्येयरूपेऽभिधेये स च समासो बहुव्रीहिसंज्ञो भवति । आसन्ना दशा दशत्वं येषां येभ्यो वा ते आसन्नदशाः, नवैकादश वा, एवमासन्नविंशाः,20 एकोनविंशतिः, एकविंशतिर्वा, आसन्नत्रिंशाः, एकोनत्रिंशदेकत्रिंशद्वा, एवम्अदूरदशाः, अदूरविंशाः, अदूरत्रिंशाः, अधिका दश येभ्यो येषु वा तेऽधिकदशाः, एकादशादयः, अधिकत्वं च दशानाम् एकाद्यपेक्षम् । अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः। एवम्-अधिकविंशाः एकविंशत्यादयः, अधिकत्रिंशाः एकत्रिंशदादयः, अध्यर्धा विंशतिर्येषां तेऽध्यर्धविंशाः, त्रिंशदित्यर्थः, एवमध्यर्धत्रिंशाः,25 अध्यर्धचत्वारिंशाः । अर्धपञ्चमा विंशतयो येषां ते अर्धपञ्चविंशा:। नवतिरित्यर्थः, एवमर्धचतुर्थविशा:-सप्ततिरित्यर्थः, अर्धतृतीयविंशाःपञ्चाशदित्यर्थः । आसन्नादिग्रहणं किम् ? संनिकृष्टा दश येषां ते Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २०.] संनिकृष्टदशानः । पूरणस्यार्धपूर्वत्वविशेषणं किम् ? पञ्चमी विंशतिर्येषां ते पञ्चमीविंशतयः ऊनपञ्चमा विंशतयो येषां ते ऊनपञ्चविंशतयः । पूरणमिति किम् ? अर्धद्वया विंशतयो येषां तेऽर्धद्वयविंशतयः । द्वितीयाद्यन्यार्थ इति किम् ? अासन्ना दश, अधिका दशभिः । तथाधिका षष्टिर्वर्षाण्यस्येति वाक्येऽधिकषष्टिशब्दयोरनेन द्विपदो बहुव्रीहिर्न भवति, यदि 5 स्यात्, समासान्तो डः प्रसज्येत, न चासाविष्यते, उत्तरेण तु त्रिपदो बहुव्रीहिर्भवत्येव । अधिकषष्टिवर्षः-अधिका षष्टिर्येषां वर्षाणामित्यत्र त्वन्यार्थत्वेऽपि अनभिधानान्न भवति । 'एकार्थं चानेकं च' [३. १. २२.] इत्यनेनैव सिद्ध प्रतिपदविधानं डप्रत्ययविधावेतत्संप्रत्ययार्थम्, एवमुत्तरसूत्रमपि ।। २० ।। न्या० स०--प्रासन्नादूरा०। पूरणमभिधेयत्वेन विद्यते यस्य प्रत्ययस्य यस्मिन् 10 वा अभ्रादित्वादकारे पूरणार्थविहितः प्रत्यय उच्यते, तस्य च केवलस्यासंभवात्तदन्तः शब्दस्तस्य चार्धादीति विशेषणमित्याह-पूरणप्रत्ययान्तमिति अर्द्ध आदिर्यस्य स चासौ पूरणश्च, द्वितीया आदिर्यासां विभक्तीनां ता द्वितीयादयः द्वितीयादयश्च तत् अन्यच्च तस्य अर्थः । आसन्नदशा इति प्रा दशभ्यः संख्येत्यस्य प्रायिकत्वादत्र दशन्शब्दः संख्याने वर्त्तते, परं संख्येयेन सह अभेदे बहुवचनं, यदि संख्येयवृत्तिना दशन्शब्देनासन्ना दश येषामित्येव 15 वाक्यं क्रियते, न दशत्वमिति तदा संख्यावाचिनेति, वृत्त्यंशेन निषेधान्न स्यादनेन समासः । नवैकादश वेति पर्यायश्च विघटेत, यत इत्थं कृते एकोनविंशत्यैकविंशतिसंख्याप्रतीतिः, यथा दशशब्दो दशत्वे संख्याने वृत्तस्तथा विंशत्यादयोऽपीत्याह-एवमासन्नविशा इति आसन्नदशा इत्यादिषु क्ताः इत्यनेन पूर्वनिपातः सिद्ध एव । अदूरदशा इत्यादिषु तु 'विशेषणसर्वादि' [३. १. ५०. ] इति संख्यायाः पूर्वनिपातो न भवति, 'प्रमाणीसंख्याड्ड:' [७. ३. १२८.]20 इति संख्यायाः समासान्तविधानात् । अधिका दश येभ्यो येषु वेति एकाद्यवयवापेक्षया यद्दशानामधिकत्वं तत् एकादशादिसमुदायापेक्षयाऽपि ज्ञेयं, तेन अधिकयोगे 'अधिकेन भूय सस्ते' [ २. २. १११. ] इति सप्तमीपञ्चम्योः सिद्धये यच्छब्देन बहूनामेकादशादीनामभिधानात् पञ्चमीसप्तम्योर्बहुवचनमित्याह-येभ्यो येषु वेति एकादशादिषु दशानामधिकत्वं किमपेक्षमित्याह-एकाद्यपेक्षमिति ननु तहि कथर्माधका दश यस्येत्येकवचनेन वाक्यं न कृतम् ? 25 उच्यते, बहुवचनमवयवावयविनोरभेदविवक्षया, एकादशादयोऽवयवाः, तत उपचारादवयवस्यैकस्यावयविनां बहुवचनं पश्चादवयवे च न विग्रहः क्रियतेऽधिकशब्देन एकादय आक्षिप्यन्ते इत्येकोऽवयवः दश इति द्वितीयोऽवयवस्तयोविग्रहः येषामिति समासार्थः, सत समदाय एकादशादिः। कोऽर्थः ? येभ्यो येषु वा एकादशादिसमुदायेषु एकाद्यपेक्षयाऽधिका दश इत्यर्थः। 30 अधिकविंशा इति अव्युत्पन्नोऽयमधिकशब्दस्तेन 'तद्धिताक' [ ३. २. ५४. ] इति Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४३५ न पुवन्निषेधः, अन्यथा कोपान्त्यद्वारा तन्निषधः स्यात्, एवमधिकत्रिंशा इत्यपि । अर्द्धपञ्चविशा इति यद्यप्यध्यर्द्धस्यार्द्धादिपूरणस्य च 'कसमासेऽध्यर्द्धः' [१. ४. ४१.] 'अर्द्धपूर्वपदः पूरणः' [१. १. ४२.] इत्याभ्यां संख्यासंज्ञाऽस्ति, तथापि पूर्वेण सुज्वार्थे संख्यायाः समासस्याविधीयमानत्वान्न सिध्यतीत्यपादानं, 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' [७. ११५.] इति न्यायेन पूरणप्रत्यये मटि पञ्चमीत्यस्य पूरणप्रत्ययान्तता नार्द्धपञ्चमेत्यस्य । तेन तद्धिताक' [ ३. २. ५४. ] इति न पुवन्निषधः:, अर्धपञ्चमी विंशतिर्यासु 'पूरणीभ्यस्तत् प्राधान्येऽप्' [ ७. ३. १३०. ] अर्द्ध पञ्चम्याः चतस्रो विंशतय पूर्णाः पञ्चमी विशतिर मित्यर्थः । संनिकृष्टदशान इति अत्र 'प्रमाणीसंख्याड्डः' [७. ३. १२८.] इति न भवति, तत्र प्रतिपदोक्तस्य समासस्य ग्रहणात् । अर्धद्वया विंशतयो येषामिति अर्द्ध द्वयं विंशतिर्यासु10 एक दशकलक्षणमर्द्ध द्वितीयं तु द्विभागीकृतं किं भवति पञ्च। अधिकषष्टिवर्ष इत्यत्र अधिका षष्टिर्वर्षाण्यस्य इति विग्रहे 'दिगधिकं संज्ञा' [ ३. १. ९८.] इति कर्मधारयतत्पुरुष इति 'पुवत् कर्मधारये' [ ३. २. ५७. ] इत्यादिना बाधकबाधनार्थः पुवद्भावो भवति, यदा तु 'आसन्नादूरा' [ ३. १. २०.] इत्यमुना द्विपदो बहुव्रीहिः स्यात्तदा 'तद्धिताक' [३. २. ५४. ] इत्यादिना पुवनिषेधः स्यात् । ननु यथा बहुव्रीहिणा15 विभक्त्यर्थस्याभिधानात् षष्ठ्यादयो न भवन्त्येवं लिङ्गसंख्ययोरभिधानात् तयोर्योतकत्वात् यादयो न प्राप्नुवन्ति । स्वार्थिकत्वात् ङ्यादीनां समासेन अभिहितेऽपि स्त्रीत्वादौ तद्द्योतनाय भवन्ति, स्त्रियां यद्वर्त्तते नाम तस्मात् ङ्यादयो भवन्तीति हि तत्रार्थः, तथा चित्रगुरिति समासेन नामार्थमात्रस्य कर्मादिशक्तिरहितस्यैकत्वादय उक्तास्ततः कर्मादिगतैकत्वप्रतिपादनाय वचनानि भवन्ति, चित्रगुपश्य चित्रगुणा कृतमिति प्रथमा20 तहि न प्राप्नोति समासेन संख्याया अभिधानात् ? नैवं, सापि न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या, न च केवलः प्रत्यय इति समयाद् भविष्यति, अथवा यदा चित्रगुरेकत्वविशिष्टो नामार्थः प्रतिपिपादयिषितस्तदा विभक्त्या विनाऽसौ न शक्यते प्रत्याययितुमिति प्रथमैकवचनं विधेयमेवं द्वित्वबहुत्वयोद्विवचनबहुवचनविधिः ।। ३. १. २०. ।। 25 अव्य यम् ॥३. १. २१ ॥ अव्ययं नाम संख्यावाचिना नाम्नैकार्थ्य समस्यते द्वितीयाद्यन्यार्थे संख्येयेऽभिधेये स च समासो बहुव्रीहिसंज्ञो भवति । उप समीपे दश येषां ते उपदशाः, नवैकादश वा, एवमुपविशाः, उपत्रिंशाः, उपचत्वारिंशाः । योगविभाग उत्तरार्थः ।। २१ ।। 30 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २२.] एकार्थ चामेकं च ॥ ३. १. २२ ॥ एकः समानोऽर्थोऽधिकरणं यस्य तदेकार्थम् समानाधिकरणम् एकमनेक चैकार्थं नामाव्ययं च नाम्ना द्वितीयाद्यन्तस्यान्यस्य पदस्यार्थे समस्यते स च समासो बहुव्रीहिसंज्ञो भवति । आरूढो वानरो यं स आरूढवानरो वृक्षः, ऊढः रथः येन स ऊढरथोऽनड़वान, उपहृतो बलिरस्यै सा उपहृतबलिर्यक्षी, 5 भीताः शत्रवो यस्मात् स भीतशत्रुर्नपः, चित्रा गावो यस्य स चित्रगुश्च त्रः, के सब्रह्मचारिणोऽस्य किंसब्रह्मचारी, अर्धं तृतीयमेषामधेतृतीयाः, वीराः पुरुषाः सन्त्यस्मिन् वीरपुरुषको ग्रामः, अनेकं च-पारूढा बहवो वानरा यं स आरूढवहुवानरो वृक्षः, ऊढा बहवो रथा अनेन ऊढबहुरथोऽनड्वान् । शोभनाः सूक्ष्मजटाः केशा अस्य सुसूक्ष्मजटकेशः, शोभनं नतमजिनंवासोऽस्य 10 सुनताजिनवासाः, संजातानि अन्तेषु शितीनि रन्ध्नाण्यस्मिन् समन्तशितिरन्ध्रः, पञ्च गावो धनमस्य पञ्चगवधनः, पञ्च नावः प्रिया अस्य पञ्चनावप्रियः, मत्ता बहवो मातङ्गा यत्र तन्मत्तबहुमातङ्ग वनम्, पञ्च पूला धनमस्य पञ्चपूलधनः, पञ्च कुमार्यः प्रिया अस्य पञ्चकुमारीप्रियः, 'नाम नाम्ना०' [३. १. १८.] इति विवक्षितसंख्यत्वादनेकस्य समासो न स्यादित्यनेक-15 ग्रहणम् । अव्ययं खल्वपि-उच्चैर्मुखमस्य उच्चैर्मुखः, एवं नीचैर्मुखः,अन्तरङ्गान्यस्यान्तरङ्गः, एवं बहिरङ्ग:-कतु कामोऽस्य कर्तु कामः, हतु मनोऽस्य हतु मनाः । व्यधिकरणत्वादव्ययस्य न प्राप्नोतीत्यव्ययानुकर्षणार्थश्चकारः। सामानाधिकरण्ये तु 'एकार्थम्-' [३. १. २२.] इत्यनेनापि सिध्यति । अस्ति क्षीरमस्या अस्तिक्षीरा गौः, अस्तिधना राजधानीत्यादि 120 क्रियावचनत्वे त्वस्त्यादीनां 'नाम नाम्ना'-[ ३. १. १८. ] इत्यादिनैव बहुलवचनात् सिद्धम् एकार्थग्रहणं किम् ? पञ्चभिर्भुक्तमस्य । द्वितीयाद्यन्यार्थ इत्येव, वृष्टे मेघे गतः, यथा मे माता तथा मे पिता, सुस्नातं भोः । इह कस्मान्न भवति-वृष्टे मेघे गतं पश्य, वहिरङ्गात्र द्वितीयान्ततेति । शब्दे कार्यासंभवादर्थे लब्धे यदर्थग्रहणं तदन्यपदार्थस्य या लिङ्गसंख्याविभक्तयस्ता यथा25 स्युरित्येवमर्थम् । बहुलाधिकारात् राजन्वती भूरनेन, प्राग्ग्रामोऽस्मात्, पञ्च भुक्तवन्तोऽस्य, इत्यादिषु न भवति ।। २२ ।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४३७ न्या० स० -- एकार्थं च० । अत्र बहुव्रीहेरेव ग्रहणमत आह-एकः समानेत्यादि । उपहृत बलिर्यक्षीति प्रत्रोपहृतिक्रियाकर्म्मरणा संबध्यमानाया यक्ष्याः संप्रदानत्वमुपहरणस्य दानरूपत्वात् । समानोऽर्थोऽधिकरणमिति यथा श्रारूढो वानरो यमित्यत्र ग्रारूढोऽपि सः वानरोऽपि सः । चित्रगुश्चैत्र इति ननु चित्रा गावो यस्येत्यत्र हि देवदत्तार्थो विशेषणं, चित्रगव्यो विशेष्यं, वृत्तौ च चित्रगव्यो विशेषणं, देवदत्तार्थो विशेष्यं तदेतत् कथमुच्यते ? - 5 विचित्रा हि शब्दशक्तय इति । नन्वन्यस्य पदस्यार्थाभिधाने चित्रगुश्चैत्र इत्यादावऽनुप्रयोगानुपपत्ति: चैत्रपदस्य हि यावानर्थस्तावान् बहुव्रीहिणा वक्तव्यो, द्वितीयाद्यन्यार्थे तस्य विधानात्ततो गतार्थत्वादनुप्रयोगो न प्राप्नोति, यथा चार्थे द्वंद्वविधानाद् द्वंद्व े चकारस्याप्रयोगः । [ पा० १. सू० २२. ] नैष दोष:, चित्रगुशब्देन तद्वन् मात्रसामान्यमुच्यते, न तु विशेष इति तत्रावश्यं 10 विशेषणार्थिना विशेषार्थिना विशेषोऽनुप्रयोक्तव्यः । चित्रगुः कः ? चैत्र इति । ननु भवतु चित्रा गावोऽस्येत्येवं सामान्येन समासे कृतेऽन्यपदार्थसामान्यस्य बहुव्रीहिणाऽभि धानाद् विशेषस्याऽनुप्रयोगः । यदा तु चित्रा गावोऽस्य देवदत्तस्येति विशिष्टेऽन्यपदार्थे बहुव्रीहिः क्रियते, तदाऽनुप्रयोगासिद्धि: ? नैवं यतो नेदमुभयं युगपद् भवति वाक्यं समासश्च, लौकिके प्रयोगे वृत्तिवाक्ययोर्युगपत्प्रयोगाभावादेकेनैवार्थस्य प्रत्यायितत्वा - 15 दितराप्रयोगात्, तत्र यदा तु वाक्यं न, तदा समासः सामान्येन तदा वृत्तिः शब्दशक्तिस्वभावादन्यपदार्थसामान्यमभिधातुं शक्नोति न तु विशेषमिति । वा विकल्पेन नर: वने रमते 'क्वचित्' [ ५.१.१७१.] इति डे वनरस्तस्यायमिति वा वानरः, श्रन्तेषु शितीनीति अर्थकथनमिदं विग्रहस्तु प्रन्तशितीनीति, अवान्तरः समासः कार्यः । सूक्ष्मजटाः केशा इत्यत्र सूक्ष्मा जटा येषां केशानामिति ततस्त्रिपदो बहुव्रीहिः, शोभनं नतं तत: 20 सुनतमजिनं वासोऽस्येति बहुव्रीहिः, वृत्तौ तूभयसमासप्रदर्शनाय सामान्येन वाक्यमुक्त, अन्यथैकार्थत्वं न स्यात् । पञ्चनावप्रिय इत्यत्राटि समासान्तात् ङीर्न बाधन्ते स्वार्थकाः क्वचिदित्यतः अकारान्तान्नाम्नो ङीविधानात् समासमध्ये ङीनं भवतीति न्यासकारः, हि कथं पूर्ववीप्रिय इत्यादि ? कश्चित्तु मध्येऽपि ङीप्रत्ययमिच्छति । यथा मे माता तथा मे पितेति मे मातेत्याद्यर्थकथनमात्रं यावता मे माता मन् - 25 मातेति तु विग्रहः, ततो यथेति मन्मात्रिति तथेति च त्रयाणां पदानां मत्पित्रा सह समासः ( प्राप्तः न च वाच्यं एकार्थत्वाभावान्न समास: ), यतो स एव मातृसदृशः स एव मत्पितेत्येकार्थत्वमस्ति । सुस्नातं भोरिति अन्यपदार्थोऽस्ति इति समासः प्राप्नोति, अत्रोच्यते - प्रत्यासत्तेः समस्यमानयोरेव पदयोरन्यपदार्थे समासोऽत्र तु समुदायस्य तस्य वाक्यस्य तात्पर्यार्थो 30 नावयवभूतयोः पदयोर्वाच्योऽन्योऽर्थं इति न भवत्येव समासः, समासे हि यथामन्मातृ तथामत्पितृकः स्यात्, द्वितीयाद्यन्यार्थ इति प्रथमा व्यवच्छेद्या तथा वाक्यार्थश्च तेन वाक्यार्थे न भवति यथा मे माता तथा मे पिता सुस्नातं भोरिति एतदेवं भाव्यते । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] बृहत्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २३.] अस्योदाहरणस्यायमर्थः यथा कश्चित् केनचित् पृष्टः कीदृशः कुलशीलादिना तत्र पितेति ? । साह-यथा मे मातेति, अथवा स्नाहीति कश्चिदक्तः स आह यथा मे मातेति, यथा शद्धा मे माता तथा पितापीत्यभिजनशुद्धिरपि स्नानं किं बाह्य न स्नानेन, ततः सुस्नातं भो इति । ननु द्वितीयाद्यन्यार्थ इत्यत्र किमर्थग्रहणम् ?, अन्यपदं हि शब्दः, शब्दस्य च कार्य न संभवतीत्यर्थो लप्स्यते ? इत्याह-शब्दे कार्येत्यादि सत्यमेतत्, लप्स्यत एवार्थः किंतु तत् 5 सद्रव्यस्य सलिङ्गस्य ससंख्यस्य कृत्स्नस्य अभिधानं यथा स्यादित्येवमर्थं कृतमस्त्र्यारोपाभावे इति लिङ्गानुशासननिरपेक्षम् ।। ३. १. २२ ।। उष्ट्रमुखादयः ॥ ३. १. २३ ॥ उष्ट्रमुखादयो बहुलं बहुव्रीहिसमासा निपात्यन्ते। उष्ट्रमुखमिव मुखमस्य उष्ट्रमुखः, वृषस्कन्ध इव स्कन्धोऽस्य, वृषस्कन्धः, हरिणाक्षिणी10 इवाक्षिणी यस्याः सा हरिणाक्षी, हंसगमनमिव गमनं यस्याः सा हंसगमना, इभकुम्भाविव स्तनौ यस्याः सेभकुम्भस्तनी, एवं नागनासोरुः, चन्द्रमुखी, कमलवदना, बिम्बोष्ठी, चक्रनितम्बा, पितुरिव स्थानमस्य पितृस्थानः, पितरीव स्थानीयमस्मिन् पितृस्थानीयः, इत्यादि । अत्रोपमानमुपमेयेन सान्यवाचिना च सह समस्यते। उपमेयसरूपस्य चोपमानपदस्य यथासंभवं लोपः-कण्ठे15 स्थिता इत्यलुप्समासः । ततः कण्ठेस्थिताः काला यस्य स कण्ठेकाल:, एवमुरसिस्थितानि लोमान्यस्योरसिलोमा, एवमुदरेमणिः, वहेगडुः इत्यादिषु सप्तमीपूर्वपदं समानाधिकरणं समस्यते उत्तरपदस्य च लोपः। व्यधिकरणो वा कण्ठेकालादिषु बहुव्रीहिः । केशसंघातश्च डा अस्य केशचूड: सुवर्णविकारोऽलंकारोऽस्य सुवर्णालंकारः इत्यादिषु संघातविकारापेक्षया षष्ठया2c समस्तं समानाधिकरणं समस्यते उत्तरपदलोपश्च । केशसंघातचूडः, सुवर्णविकारालंकारः इत्यप्यन्यः । तथा प्रपतितानि पर्णान्यस्य प्रपर्णः, प्रतितपर्णः, प्रपलाशः, प्रपतितपलाशः । उद्रश्मिः, उद्गतरश्मिरित्यादिषु प्रादिपूर्वं धातुजं पदं समस्यते तस्य च विकल्पेन लोपः। तथा अविद्यमानः पुत्रोऽस्य अपुत्रः, अविद्यमानपुत्रः इत्यादिषु नञ्पूर्वमस्त्यर्थं पदं समस्यते तस्य2. च वा लोपः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। २३ ।। न्या० स०-उष्ट्रमुखादयः। उपमानमुपमेयेन समस्यमानं न एकार्थतां भेजे स एव चन्द्रस्तदेव मुखं न भवत्यतो भिन्नसूत्रम् । सामान्यवाचिना चेति साधारणधर्म Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २४-२५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४३६ वाचिनावस्थानादिना रूपेणेत्यर्थः, आदिपदाद् गुरुस्थानमिव स्थानमस्येत्यादि । वहेगडुरिति गडशब्दस्योकारान्तत्वात् पुस्त्वम्, न्यासकारस्तु क्लीबत्वमपि, तथा एषु गम्यमानार्थत्वाद् द्वितीयमुखादि शब्दाप्रयोगः, मन्दमतिव्युत्पादनायेदमुच्यते, न हि वाक्योपमर्दैन समासो विधीयते नित्यत्वाच्छब्दानां पुरुषप्रयत्ननिर्वा हि शब्दाः, न हि येन प्रयत्नेनोष्ट्रमुखशब्दो निर्वय॑ते तेनैवोष्ट्रमुखमिवेत्यादिकोऽपि भिन्नाधिकरणप्रयत्नत्वाद् 5 भिन्नावैताविति, अत एवोच्यतेऽनादिशब्दप्रवाह इति। अनुवादकं च स्मृतिशास्त्रं न विधायकमतिप्रसङ्गाच्च, अन्यथा दध्ना उपसिक्त प्रोदनो दध्योदनः, गुडेन मिश्रा धाना गुडधाना इत्यादौ समासेऽ श्यमानानामुपसिक्त इत्यादीनां लोपार्थं यत्नः कर्त्तव्यः स्यात्तस्माद्वृत्तिविषये दधिशब्द उपसिक्तार्थवृत्तिगुंडशब्दो मिश्रार्थवृत्तिरिति वाक्येनोपदय॑ते ।। ३. १. २३ ।। 10 सहस्तेन ॥३. १. २४ ॥ सह इत्येतनाम तुल्ययोगे विद्यमानार्थे च वर्तमानं तेनेति तृतीयान्तेननाम्नाऽन्यपदार्थे समस्यते स च समासो बहुव्रीहिसंज्ञो भवति । तुल्ययोगे-सह पुत्रेण सपुत्र आगतः, सन्छात्र आगतः,-आगमनमुभयोस्तुल्यम्, विद्यमानार्थेसहकर्मणा वर्तते सकर्मकः, एवं सलोमकः, सपक्षकः, सधनः, समदः, सदर्पः, 15 सविद्यः,-विद्यमानतात्र सहार्थो न तुल्ययोगः । सह इति किम् ? साकं सार्धं सत्रा अमापुत्रेण । बहलाधिकारात विद्यमानार्थे क्वचिन्न भवति । सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी, सहैव धनेन भिक्षां भ्रमति । प्रथमान्तान्यपदार्थार्थ प्रारम्भः । एवमुत्तरत्रापि ।। २४ ।। न्या० स०--सहस्तेन-तेनेति तृतीयान्तप्रतिरूपकान्निपातात् तृतीया। न तुल्य-20 योग इति-ननु तुल्ययोगविद्यमानार्थयोः को भेदः ? उच्यते, क्रियागुणद्रव्यैरुभयोः सदृशः संबन्धस्तुल्ययोगः, विद्यमानार्थता तु न तथा, तथाहि-सकर्मकादात्मनेपदमित्युक्त यथ धातोरात्मनेपदं भवति, न तथा कर्मणोऽपि, तथा सलोमको भोज्यतामिति यथा देवदत्तो भोज्यते, न तथा लोमान्यपि, तथा सपक्षक: खगो हत इत्यत्र यथा पक्षी हतो, न तथा पक्षा अपोति भावः । क्वचिन्न भवतीति तुल्ययोगे तु भवत्येव । वहति गईभीति अत्र23 . तत्पुत्राणामस्तित्वमेव विवक्षितं, न तु वहन क्रियेति विद्यमानार्थता ।। ३. १. २४ ।। दिशो रूढयान्तराले ॥ ३. १. २५ ॥ रूढया दिशः संबन्धि नाम रूढय व दिशः संबन्धिना नाम्नाऽन्तरालेऽन्य Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २६.] पदार्थेऽभिधेये समस्यते स च समासो बहुव्रीहिसंज्ञो भवति । दक्षिणस्याश्च । पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं सा दक्षिणपूर्वा दिक्, एवं पूर्वोत्तरा, उत्तरपश्चिमा, दक्षिणपश्चिमा, 'सर्वादयोऽस्यादौ' [३. २. ६१.] इति पूर्वपदस्य पुंवद्भावः । कथं पश्चिमदक्षिणा, पश्चिमोत्तरा। कर्मधारयोऽयम् । बहुव्रीहौ हि सर्वनाम्नः पूर्वनिपातः स्यात् । रूढिग्रहणं यौगिकनिवृत्त्यर्थम् । तेनेन्द्रयाश्च 5 कौबेर्याश्च दिशोर्यदन्तरालमिति वाक्यमेव ।। २५ ।। न्या० स०-दिशो रूढया०-दिशि वर्तमाना नित्यस्त्रीलिङ्गा एवेति 'परतः स्त्री पुवत्' [३. २, ४६.] न प्राप्नोतीति सर्वादयोऽस्यादावित्युक्तम् । ये पुनर्दिशि दृष्टाः शब्दास्तेषां स्त्रीत्दे परतः स्त्रीति भवति वाच्यलिङ्गत्वात् । समासस्त्वनेन भवति रूढिग्रहणात् । अन्तरालस्यान्यपदार्थत्वेऽपि प्रथमान्तत्वात् 'एकार्थं च' [ ३. १. २२. ] 10 इत्यनेन न प्राप्नोतीति वचनं कजभावार्थं च, कथमिति चेत् ? उच्यते, 'शेषा वा' [७.३. १७५.] इत्यत्र हि शेष सामान्यविहिते बहतीहौ न त्वन्यस्मिन्निति व्याख्यानात अथ अन्य पदार्थत्वादिदमपि न कर्त्तव्यं स्यात्, द्वितीयाद्यन्यार्थ इति द्वितीयादिग्रहणमकृत्वाऽन्यपदार्थ इति कृते साध्यसिद्धेः, अनिष्टविषयपरिहारस्तु बहुलग्रहणाद् भविष्यति, तस्मादिदं सूत्र कजभावार्थमेव, एवं 'सुज्वार्थे' [ ३. १. १६. ] इत्यादिसूत्रत्रयमपि ।। ३. १. २५ ।।15 तत्रादाय मिथस्तेन प्रहृत्य सरूपेण युद्धेऽव्ययीभावः ॥३. १. २६ ॥ तत्रेति, सप्तम्यन्तं नाम, मिथ आदायेति क्रियाव्यतिहारे, तेनेति तृतीयान्तं, मिथः प्रहत्येति क्रियाव्यतिहारे, सरूपेण समानरूपेण नाम्ना युद्धविषयेऽन्यपदार्थे समस्यते, स च समासोऽव्ययीभावसंज्ञो भवति । केशेषु च20 केशेषु च मिथो गृहीत्वा कृतं युद्धं केशाकेशि, एवं कचाकचि, बाहूबाहवि, दण्डैर्दण्डैश्च मिथः प्रहृत्य कृतं युद्धं दण्डादण्डि, एवं यष्टायष्टि, मुष्टामुष्टि, अस्यसि । तत्रेति तेनेति च किम् ? केशांश्च केशांश्च गृहीत्वा कृतं युद्धम्, मुखं च मुखं च प्रहृत्य कृतं युद्धम् । प्रादायेति प्रहत्येति किम् ? केशेषु च केशेषु च स्थित्वा कृतं युद्धं गृहकोकिलाभ्याम्, दण्डैश्च दण्डैश्चागत्य कृतं25 युद्धमेताभ्याम् मिथ इति क्रियाव्यतिहारः किम् ? केशेषु च केशेषु च गृहीत्वा युद्धमनेन। सरूपेणेति किम् ? हस्ते च पादे च गृहीत्वा कृतं युद्धम् । युद्ध इति किम् ? हस्ते च हस्ते च गृहीत्वा कृतं सख्यम्, युद्ध इति विषय Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० २७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४४१ निर्देशात् युद्धोपाधिकायामन्यस्यामपि क्रियायां भवति-बाहूवाहवि व्यासजेतामिति । अव्ययीभावप्रदेशाः 'अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः' [३. २. २.] इत्यादयः ।। २६ ॥ न्या० स०-तत्रादाय० । काकाक्षिगोलकन्यायेन मिथः प्रत्येकमभिसंबन्ध्यते, अत एव सूत्रे मध्ये पठितः । प्रहृत्येति इति शब्दो वाक्यस्वरूपपरामर्शार्थः, स च प्रत्येकं 5 संबध्यते, तत्रादाय मिथ इति मिथस्तेन प्रहृत्येति । अव्ययीभावसंज्ञ इति ननु 'संज्ञा संज्ञान्तरबाधिका न' इति न्याया। बहुव्रीहिसंज्ञाप्यस्तु ? नैवं, द्विगुश्चेति चकारकरणाद् द्वितीया संज्ञा न। ननु युद्धक्रियायामेवायं समासः स चान्यपदार्थ इति 'एकार्थं च [३. १. २२.] इति बहुव्रीहिणव सिद्धयतीति किं संज्ञान्तरेण इजन्तश्च, परमदण्डादण्डोति पदान्तरेण समासव्युदासार्थं तिष्ठद्ग्वादिषु पठनीयः, तस्य च अव्ययत्वं किमनेन, न च10 अन्यपदार्थस्य प्रथमान्तत्वात् कथं तेन समास इति वाच्यं, केशानां च केशानां चान्योऽन्यस्य ग्रहणं यस्मिन् युद्धे इति विग्रहात्, द्वितीयादिग्रहणं वा बहुव्रीहिविधानसूत्रे न विधास्यामः ? उच्यते, एकशेषबाधनार्थं, तथाहि केशेषु च केशेषु च गृहीत्वा युद्ध, दण्डैश्च दण्डैश्च प्रहृत्य युद्धं, ग्रहणप्रहरणे च सहविवक्षितत्वात् रूपत्वादेकशेषप्राप्तौ वचनसामर्थ्यात् समूहान्यथाऽनुपपत्त्या समूहविषययाऽनयाऽव्ययीभावसंज्ञयाऽनवकाशया बाध्यते, पूर्वेण तु15 बहुव्रोहावेकशेषो न शक्येत बाधितुमन्यत्र सावकाशत्वात्तस्य । वृक्षा इति द्वंद्ववत् । केशाकेशीति नन्वन्यचिकीषितायाः क्रियाया अन्येन करणं क्रियाव्यतिहारः, ततश्च यदेकेन केशग्रहणमकारि तत अपरोन विधत्ते परचिकीर्षितमिति. क्रियाव्यतिद्वारो नास्तीति कथं समासः ? उच्यते, एवमत्रापि केशेषु च स्थित्वेत्यत्र केशेषु च स्थित्वेतीजेषु इत्यर्थः । केशेषु च केशेषु च गृहीत्वा युद्धमनेनेति, एकश्च सकेश: अन्यश्च मुण्डोऽतो न मिथोभावः ।20 हस्ते च पादे च गृहीत्वेति यदा तु हस्तश्च पादश्चेति कृत्वा 'प्रारिणतूर्याङ्गाणाम्' [ ३. १. १३७. ] इत्येकत्वे हस्तपादे च हस्तपादे च मिथो गृहीत्वा कृतं युद्धमिति क्रियते, तदा हस्तपादाहस्तपादीति भवति । व्यासजेतामिति बाह्वोश्च बाह्वोश्च मिथो गृहीत्वा व्यासङ्गः कृतः, क्रियाव्यतिहारे आत्मनेपदं ह्यस्तनी आताम् व्यासङ्गकृतवन्तावित्यर्थः रोषावेशादाभिमुख्येन कौचित्पाणिग्राहं रंहसो वोपयान्तौ । हित्वा हतीमल्लवन्मुष्टिघातैनन्तौ बाहाबाहवि व्यासजेताम् ।। १ ।।माघे।। ३. १. २६ ।। 25 नदीभिर्ना मिन ॥ ३. १. २७ ॥ नदीवाचिभिर्नामभिर्नाम समस्यते, नाम्नि संज्ञायामन्यपदार्थे, स च समासोऽव्ययीभावसंज्ञो भवति । उन्मत्ता गङ्गा यत्र स उन्मत्तगङ्गं देशः, Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० २८-२६.] एवं लोहितगङ्गम्, तूष्णीगङ्गम्, शनैर्गङ्गम्, इमानि देशनामानि ।' नदीभिरिति बहुवचननिर्देशात् तद्विशेषाणां स्वरूपस्य च ग्रहणम् । नाम्नीति किम् ? शीघ्रगङ्गो देशः, अन्य पदार्थ इत्येव ? कृष्णा चासौ वेण्णा च कृष्णवेण्णा, एवं शुष्कतापी ।। २७ ।। न्या० स०–नदीभिर्नाम्नि । शनैर्गङ्गमिति शनर्योगात् गङ्गाऽपि शनैः सा विद्यते । यत्र । स्वरूपस्य च ग्रहणमिति उत्तरसूत्रे पञ्चनदमित्यत्र स्वरूपग्रहणाच्च पर्यायाणां स्रोतस्विनोनिम्नगासिन्धुप्रभृतीनां न ग्रहः ।। ३. १. २७ ॥ संख्या समाहारे ॥३. १. २८ ॥ अन्यपदार्थ इति निवृत्तम् । संख्यावाचि नाम नदीवाचिभिर्नामभिः सह समस्यते, समाहारे गम्यमाने, स च समासोऽव्ययीभावसंज्ञो भवति ।10 द्वयोर्यमुनयोः समाहारो द्वियमुनम्, एवं त्रियमुनम्, पञ्चनदम्, सप्तगोदावरम्, अत्राव्ययीभावत्वे समासान्तोऽम्भावश्च सिद्धो भवति । समाहार इति किम् ? एका नदी एकनदी। द्वीरावतीको देशः, द्विगुबाधनार्थं वचनम् । अन्ये तु पूर्वपदप्राधान्येऽव्ययीभावः-गोदावरीणां सप्तत्वं सप्तगोदावरम्, समाहारे तु द्विगुरेवेत्याहुः, सप्तानां गोदावरीणां समाहारः सप्तगोदावरि, दिगोदावरि15 इत्यादि ।। २८ ।। न्या० स०-संख्या समा० । निवृत्तमिति समाहारे इति भणनात्, उभयपदप्रधानः समासोऽनेन विधीयते, समाहार इति किमिति समाहृति विना द्वीरावतीको देश इत्यादौ द्विगोरिव बहुव्रोहेरपि बाधकः स्यात् । द्विगुबाधनार्थमिति ननु तर्हि तस्य क्वावकाश: ? सत्यं, नदीनाम्नोऽन्यत्र । गोदावरीणां सप्तत्वमिति आ दशभ्यः संख्या संख्येये वर्त्तते 20 इत्यस्य प्रायिकत्वाद् वृत्तिविषये द्वयादयः संख्यानेऽपि वर्तन्ते । सप्तगोदावरीति, अन्यस्तु सर्वो नपुसकत्वे 'क्लीबे' [२. ४. ६७.] इति ह्रस्वः, एवं द्विगोदावरि ।। ३. १. २८ ।। वंश्येन पूर्वार्थ ॥ ३. १. २६ ॥ विद्यया जन्मना वा प्राणिनामेकलक्षणसंतानो वंशः, तत्र भवो वंश्यः, स इहाद्यः कारणपुरुषो गृह्यते, तद्वाचिना नाम्ना संख्यावाचि नाम समस्यते,25 पूर्वस्य पदस्यार्थेऽभिधेयेऽव्ययीभावश्च समासो भवति । एको मुनिर्वंश्यो Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ३०. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४४३ व्याकरणस्य एकमुनि व्याकरणस्य एवं द्विमुनि व्याकरणस्य, त्रिमुनि व्याकरणस्य । यदा तु विद्यया तद्वतामभेदविवक्षा तदैकमुनि व्याकरणं, द्विमुनि व्याकरणमित्यादि सामानाधिकरण्यं भवति, सप्त काशयो वंश्या राज्यस्य सप्तकाशि राज्यस्य, एवं त्रिकोशलं राज्यस्य, एकविंशतिभारद्वाजं कोशलस्य । पूर्वार्थ इति किम् ? द्वौ मुनी वंश्यावस्य द्विमुनि, द्विमुनिकं 5 व्याकरणम्, द्विमुनिरागतः । अन्यपदार्थे बहुव्रीहिरेव । अन्ये तु पूर्वार्थ इति विशेषं नेच्छन्ति, तन्मते - एकश्चासौ मुनिश्र्चति कर्मधारयप्रसङ्ग, द्वौ मुनी समाहृताविति द्विगुप्रसङ्गे, एको मुनिर्वंश्योऽस्येति बहुव्रीहिप्रसङ्ग चाव्ययीभाव एव समासो भवति ।। २६ ।। न्या० स० - वंश्येन० । स इहाद्य इति ननु वंशे भवा इति व्युत्पत्त्या सवेंऽपि पाठका: 10 कारकाश्च कथं न लभ्यन्ते, प्राद्य एव कथं गृह्यते ? उच्यते, 'गौरणमुख्ययो:' इति न्यायात् । एकमुनि व्याकररणस्येति एको मुनिर्वंश्य एतावानेव विग्रहः, व्याकरणस्येत्येतत्तु भिन्नपदमतोऽन्यपदार्थाभावान्न बहुव्रीहिः, पूर्वपदार्थप्राधान्याच्च यथाक्रममेकवचन द्विवचन-बहुवचनानि तेषां च 'अनतो लुप्' [ ३. २. ६. ] प्रभेदविवक्षायामनेनैव समासः परं व्याकरणात् प्रथमा भवति अयं विशेषः । सप्त काशय इति काशे राज्ञोऽपत्यानि 'दुनादि' [ ६.१.११८] 15 इति य: 'बहुष्वस्त्रियां' [ ६. १. १२४. ] लुप् । एकविंशतिभारद्वाजमिति भरद्वाजस्येमे इत्येव कार्यं ‘तस्येदम्' [ ६. ३. १६०. ] इत्यण्, अपत्ये तु बिदाद्यत्रो 'यत्रित्र:' [ ६.१.५४ ] इति बहुषु लोपः स्यात्, यद्यप्यत्रैकविंशतिशब्दस्य विशेषलक्षणेनैकत्वं तथापि पूर्वपदार्थस्यैकविशतिशब्दवाच्यस्य बहुत्वाद् भारद्वाजा इति बहुत्वमेव शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् । आगत इति त्र ग्रन्थ इति गम्यते, अन्यथा वंश्य इति विशेषरणं न घटते ।। ३. १. २६ ।। 20 पारेमध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठ्या वा ॥ ३. १. ३० ।। पारेप्रभृतीनि नामानि षष्ठ्यन्तेन नाम्ना सह पूर्वपदार्थे वा समस्यन्तेऽव्ययीभावश्च समासो भवति, तत्संनियोगे चाद्यानां त्रयाणामेकारान्तता निपात्यते । पारं गङ्गायाः पारेगङ्गम्, पारसमुद्रम्, मध्यं गङ्गायाः मध्येगङ्गम्, मध्येसमुद्रम्, अग्रं वनस्य श्रग्रेवरणम्, अग्रेसेनम्, अन्तर्गिरे: 25 अन्तर्गिरम्, अन्तर्गिरि । वावचनात्पक्षे षष्ठीसमासोऽपि भवति, गङ्गायाः `पारम् गङ्गापारम्, गङ्गामध्यम्, वनाग्रम्, गिर्यन्तः । षष्ठ्यति किम् ? पारं शोभनम् ।। ३० ।। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ३१.] न्या० स०-पारेमध्ये० । समासे निपातयिष्यमाणकारान्तानामिदमनुकरणम् । पारं गङ्गाया इति विग्रहः, दिग्मात्रमेतत् गङ्गायाः पारमित्यपि कृते पारेगङ्गमिति भवत्येव 'प्रथमोक्तन' [ ३. १. १४८. ] इत्यतः । पारेगङ्गमिति ननु एकारान्ततानिपातनं किमर्थं बहुलवचनादलुप्यपि सिद्धयति ? नैवं, सिध्यति यदा पारं गङ्गाया इति, सप्तमी यदा तु पारे गङ्गायाः कृतमित्यादौ सप्तम्यर्थाभावात् सप्तम्या अभावान्न सिद्ध्यति । वावचनादिति ननु । 'नित्यं प्रतिनाल्पे' [३. १. ३७.] इति नित्यग्रहणलब्धया विभाषयैव सर्वत्र पारं गङ्गाया इत्यादौ वाक्यस्य सिद्धत्वात्तत्पक्षे च गङ्गापारमिति षष्ठीसमासस्याऽपि सिद्धेविचनमतिरिच्यते, न च षष्ठीसमासे प्राप्तेऽव्ययीभावस्यारम्भात्तस्याऽपि बाधा स्यादिति वाच्यं, यतो विभाषाधिकाराद् विकल्पेनाऽस्य बाधनात् षष्ठीसमाससिद्धेस्तस्याऽपि विकल्पेन विधानाइ वाक्यस्य सिद्धिः ? 10 ___ उच्यते, विकल्पस्यावचने पूर्वकायवदंशिसमासविमुक्त पक्षे यथा षष्ठीसमासो न भवति किंतु वाक्यमेव, एवमत्राऽपि न स्यात् । किं पुनः कारणमंशिसमासेन मुक्त षष्ठीसमासो न भवति ? उच्यते, समासतद्धितानां वृत्तिर्विकल्पेन वृत्तिविषये नित्यैवापवादप्रवत्तिः, इह पुनः वावचनेनैकेन वत्तेविभाषा अपरेण वत्तिविषयेऽपवादविकल्पः, अयं वस्त्वर्थः इह वाक्येनाभिधाने प्राप्ते वृत्तिरारभ्यमाणा वाक्यस्य बाधिका प्राप्नोति इति15 विकल्पेन पक्षे तस्याभ्यनुज्ञानं क्रियते, तत्रापवादेऽपि विकल्पेन विधीयमाने विकल्पो वाक्यस्यैवाभ्यनुज्ञानं करोतोत्युत्सर्गस्य नित्यमेव बाधेन भाव्यं, तत्र वा ग्रहणेनोत्सर्गोऽपि पक्षेऽभ्यनुज्ञायत इति त्ररूप्यं सिद्ध्यतीति, इदमेव वावचनं 'वोदश्वितः' [ ६. २. १४४. ] इति च ज्ञापकमुत्सर्गो भवतोति, वा इति प्रत्येक संबध्यते, तेन यत्र षष्ठीसमासः प्राप्नोति, तत्रानुज्ञायते । गिर्यन्तः इत्यत्र तु 'तृप्तार्थ' [ ३. १. ८५. ] इत्यादिना निषिद्धोऽपि20 वावचनाद् विधीयते ॥ ३. १. ३० ॥ यावदियत्त्वे ॥३. १. ३१ ॥ इयत्त्वमवधारणम्-तस्मिन् गम्यमाने यावदिति नाम नाम्ना समस्यते, पूर्वपदार्थेऽव्ययीभावश्च समासो भवति । यावन्त्यमत्राणि यावदमत्रम्, यावानोदनो यावदोदनम्, यावानवकाशो यावदवकाशम्,-अतिथीन् भोजय 125 यावन्त्यमत्राणीति नितिपरिमाणेनामत्रादिना तावन्त इति अतिथिपरिमाणमिहावधार्यते । इयत्त्व इति किम् ? यावद्दत्तं तावद्भक्तम्, कियद्भक्तमिति नावधारयति । यावदित्यव्ययमनव्ययं चेह गृह्यते । अव्ययमेवेत्यन्ये ॥ ३१ ॥ ___ न्या० स०-यावदियत्वे । इयतां परिच्छिन्नसंख्यानामियतो वा परिच्छिन्नपरि-30.. माणस्य भाव इयत्त्वं तस्मिन् । यावन्तोति अव्यये तु यावदमत्राणीति कार्यम् । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४४५ यावदमत्रमिति पूर्वार्थप्रधानत्वादव्ययत्वे सिः, अनव्ययत्वे तु जस् समासात् । यावद्दत्तमिति असमस्तमिदम्, अत एव तावदित्युपादीयते, समासे हि गुणीभूतत्वात्तावदित्यस्योपादानाभावः स्याद्यथा यावदमत्रमित्यत्र ।। ३. १. ३१ ।। पर्यपाबहिरच पञ्चम्या ॥३. १. ३२ ॥ पर्यादीनि नामानि पञ्चम्यन्तेन नाम्ना सहैकार्थ्ये पूर्वपदार्थेऽभिधेये 5 समस्यन्ते स च समासोऽव्ययीभावसंज्ञो भवति । परि त्रिगर्तेभ्यः परित्रिगर्तम्, अपत्रिगर्तेभ्यः अपत्रिगर्तम्, प्रा ग्रामात् प्राग्रामम्, बहिर्गामात् बहिर्गामम्, प्राग् ग्रामात् प्राग्रामम्, प्रत्यग्ग्रामात् प्रत्यग्ग्रामम्, अपाग्ग्रामात् अपारग्रामम्, उदग् ग्रामात् उदग्ग्रामम् वृष्टो मेघः । पर्यादिसाहचर्यादञ्चतिथूनलुबन्तोऽव्ययं गृह्यते, तेनेह न भवति-प्राङ् ग्रामात् चैत्रः । प्रतिपदविहितायाश्च पञ्चम्या 10 ग्रहणादिहाव्ययीभावो न भवति-अपगतः शाखायाः अपशाखः । पञ्चम्येति किम् ? परि वृक्षं विद्योतते विद्युत्, यदत्र मां परि स्यात् ।। ३२ ।। न्या० स०-पर्ययाङ । पञ्चम्या प्रहणादिति ननु पञ्चमीग्रहणं किमर्थं तदन्तरेणाऽपि विशिष्टपञ्चमीप्रतिपत्तेस्तथाहि- अपपरिशब्दो परस्परसाहचर्याद् वर्जनाथौं ग्रहीष्येते, तद्योगे च पञ्चम्येव विहिता, आङ शब्दोऽपि ङिदत्रोपात्तः, वाक्यस्मरणयोस्तु15 ङित्त्वाभावादीषदादिषु चतुर्वर्थेषु वर्तमानो ग्राह्यः, तत्रापीषदर्थ 'पाङल्पे' [३. १. ४६.] इति परत्वात्तत्पुरुषविधानात् पारिशेष्यान्मर्यादाभिविध्यर्थवृत्तेर्ग्रहणम्, बहिर्गतो ग्रामादित्यादावपादानपञ्चम्यन्तादसामर्थ्यान्न भविष्यति ।प्राग्ग्राम इत्यादौ च पूर्वपदार्थप्राधान्य एव सति संभवेऽव्ययीभावस्य विधानात् समासाभाव इति पञ्चम्यन्तेनैव समासस्य सिद्धत्वात् किं तदुपादानेनेति अत आह- पञ्चम्येति किमिति 'लक्षणवीप्स्येत्थंभूते'20 [ २. २. ३६ ] इत्यधिकृत्य 'भागिनि च' [२. २. ३७] इत्यनेन परियोगे द्वितीया, तया सह माभदित्यर्थः। अथात्र वर्जनार्थपरिग्रहणाच्च न भविष्यतीति चेतहि न्यायानवादकमेव पञ्चमीग्रहणं भवति । परित्रिगर्त्तमिति पञ्चम्यर्थप्रधानात् प्रथमा, क्रियाविशेषणत्वविवक्षायां तु द्वितीया यथा आमेखलं संचरतामित्यत्र एवं सर्वत्र । प्राङ ग्रामाच्चैत्र इति यदा गमनार्थस्याञ्चते:25 क्विपि कर्मणि षष्ठी तदा प्राङ ग्रामस्येत्यपि प्रयोगो भवति, कोऽर्थः ? गच्छन्ग्राममित्यर्थः । प्रतिपदविहितायाश्चेति लक्षणप्रतिपदोक्तयोरिति न्यायात् । अपशाख इति न च वाच्यं शाखाया अपेन सह संबन्धाभावादेव न भविष्यति समासः, यतो गतार्थस्यापेनैवाभिधानादस्त्यपेन शाखायाः संबन्ध इति, न च परत्वात् 'प्रात्यव' [ ३. १. ४७ ] इति तत्पुरुषणास्य बाधा इति वाच्यं, तत्रान्यग्रहणात् ।। ३. १.३२ ।। 30 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ३३-३४.] लक्षणेनाभिप्रत्याभिमुख्ये ॥ ३. १. ३३ ॥ लक्षणं चिह्नम्, तद्वाचिना नाम्ना आभिमुख्ये वर्तमानावभिप्रतीत्यैकार्थ्य सति पूर्वपदार्थेऽभिधेये समस्येतेऽव्ययीभावश्च समासो भवति । अभि अग्निम्अभ्यग्नि, प्रत्यग्नि-प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति,-अग्नि लक्षीकृत्याभिमुखं पतन्तीत्यर्थः । लक्षणेनेति किम् ? स्र ग्घ्नं प्रति गतः-प्रतिनिवृत्य पुनः 5 स्र ग्घ्नमेवाभिमुखं गत इत्यर्थः । अभिप्रतीति किम् ? येनाग्निस्तेन गतः । प्राभिमुख्य इति किम् ? वृक्षमभि विद्योतते विद्युत् । पूर्वपदार्थ इत्येव ? अभिमुखोऽङ्को यासां ता अभ्यङ्का गावः ।। ३३ ।। न्या० स०--लक्षणेना। अभिप्रपन्नो मुखमभिमुखस्तस्य भावः कर्म वा पतिराजान्त' [७. १. ७०.] इति घ्यण आभिमुख्यम् । प्रत्यग्निमिति वैचित्र्यार्थं ससन्धि वाक्यम् ।10 अभ्यग्नोति अत्राग्निना शलभपातो लक्ष्यते इत्यग्निर्लक्षणं भवति, तस्य चाभिप्रतिभ्यामाभिमुख्यं प्रतिपाद्यते, अग्नौ हि शलभाः संमुखा एव पतन्ति, ननु लक्षीकृत्य इत्ययुक्त लक्षणोकृत्येति भणनीयं न लक्षीकृत्येति कोऽर्थः, अग्निं लक्षणत्वेन लक्ष्योकृत्येत्यर्थः । कोऽर्थो दर्शनक्रियाऽपेक्षयाऽग्निर्लक्ष्यः पतनक्रियापेक्षया लक्षणं यतः पूर्वं पश्यन्ति ततः पतन्ति, अव्ययीभावात् क्रियाविशेषणत्वादुत्पन्नस्यामो लुप् । स्त्र ग्घ्नं प्रति गत इति15 प्रतिगतस्य मध्ये प्रतिशब्दोऽर्थवानस्ति इति तेनाऽपि सह संबन्धोऽस्तीति समासः स्यात् । पुनः स्रग्घ्नमिति अत्र प्रतिगतोऽयं देवदत्तः कोऽर्थः ? अभिमुखं गत इत्यर्थः, किं कृत्वा ? पुनरपि निवृत्य इति, अत्र स्र ग्घ्नादन्यन्नगरान्तरं गन्तुकाम: पथि व्यामोहात्तमेव प्रत्यागत इति नास्ति गमनं प्रति स ग्घ्नस्य लक्षणता, यदुद्दिश्य हि गमनं क्रियते तल्लक्षणं भवति, अत्र तु व्यामोहादेवेत्थं गतः, गतक्रियापेक्षया च स ग्घ्नस्य कर्मत्वम् येनाऽग्निस्तेन20 गत इति येनतेनौ प्रत्यथौं, अग्निरित्युभयत्राऽपि संबन्धनीयं येनाऽग्निर्गतस्तेनाऽग्निर्गत इत्युदाहरणद्वयं द्रष्टव्यं, गतो देवदत्तः किमत्र लक्षणं येनाऽग्निः अग्निर्लक्षणमित्यर्थ, एवं तेनाऽग्निरिति भिन्न च यथा एकमेवेदमुदाहरणमित्यर्थः, गत इति लक्ष्यं तेनेति लक्ष्यस्य द्योतकमग्निर्लक्षणं येनेति लक्षणस्य द्योतकमिति लक्ष्यलक्षणभावः ।। ३. १.३३ ।। दैयऽनुः ॥ ३. १. ३४ ॥ 25 अनु इत्येतनाम दैर्घ्य आयामविषये यल्लक्षणं तद्वाचिना नाम्नैकार्थ्य सति पूर्वपदार्थेऽभिधेये समस्यते, स च समासोऽव्ययीभावसंज्ञः । अनु गङ्गां दीर्घा अनुगङ्ग वाराणसी, गङ्गाया लक्षणभूताया आयामेन वाराणस्या Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३५-३६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः आयामो लक्ष्यते, एवमनुयमुनं मथुरा । विद्योतते लक्षणेनेत्येव विद्युत् । माभूत् ।। ३४ ।। [ ४४७ दैर्ध्य इति किम् ? वृक्षमनु लक्ष्येण वाराणस्यादिना न्या० स० – दैर्घ्येऽनुः । वृक्षमनुविद्योतत इति । अत्र वृक्षो विद्योतनस्य लक्षणत्वेन विवक्ष्यते न दैर्घ्यस्येति ।। ३. १. ३४ ।। 5 समीपे ॥ ३.१. ३५ ॥ अनु इत्येतन्नाम समीपेऽर्थे वर्तमानमर्थात् समीपिवाचिना सहैकार्थ्य सति पूर्वपदार्थेऽभिधेये समस्यते, स च समासोऽव्ययीभावसंज्ञः । अनु वनस्य अनुवनमशनिर्गता, अनुनृपं पिशुना: अनोरव्ययत्वात् 'विभक्तिसमीप'[ ३. १. ३६. ] इत्यादिनैव समासे सिद्धे विकल्पार्थम्, तेन वाक्यमपि भवति 10 पृथग्वचनं लक्षणेनेत्यस्य निवृत्त्यर्थम् ।। ३५ ।। न्या० स० - समीपे । समोपशब्दोऽव्युत्पन्नः वर्णानुपूर्वीनिर्ज्ञानार्थं च संगता आपो यत्रेति । अनुवनमश निर्गतेति समासाच्चात्र गमन क्रियाकर्मभूतसामीप्याभिधायकात् प्रमोऽम्भावः, सप्तमी वा । निवृत्त्यर्थमिति पूर्वे तु प्रत्राऽपि लक्षणेनेत्यनुवर्त्तयन्ति, यदुत्पलः । अनुशब्दः समीपसमोपिनोर्लक्ष्यलक्षण संबन्ध द्योतकस्तथा हि वनसामीप्यगताया अशनेर्वनं 15 लक्षणम् ।। ३. १. ३५ ।। तिष्ठदिग्वत्यादयः ॥। ३. १. ३६ ॥ तिष्ठद्गुप्रभृतयः समासशब्दा अव्ययीभावसंज्ञा भवन्ति, यथायोगमन्यपदार्थे पूर्वपदार्थे चाभिधेये । तिष्ठन्ति गावो यस्मिन् काले गर्भग्रहणाय दोहाय वाहाय वत्सेभ्यो निवासाय जलपानार्थं वा स कालस्तिष्ठद्गु, वहन्ति 20 गावो यस्मिन् काले स कालो वहद्गु, आयन्ति गावो यस्मिन् स काल आयतीगवम्,, - अत्र पूर्वपदस्य पुंवद्भावाभावः समासान्तश्च निपातनात् एतेऽन्यपदार्थे काले । तथा-खले यवा यस्मिन् स कालः खलेयवम्, खलेबुसम्, निपातनात्सप्तम्या अलुप् लूनयवम्, लूयमानयवम्, पूनयवम्, पूयमानयवम्, संहृतयवम्, संह्रियमाणयवम्, संहृतबुसम्, संह्रियमाण बुसम्, - एते प्रथमैक-25 वचनान्ता एवान्यपदार्थे काले । देशेऽपीत्यन्ये-तेन खलेयवं पश्य, खलेयवेन Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० १. सू० ३६. ] कृतम्, खलेयवे कृतम् इत्यादयः प्रयोगा साधवः, द्वितीयादिविभक्त्यन्ता एते साधव इत्यन्ये । नाभेरधः प्रधोनाभम् निपातनादत् समासान्तः, पूर्वपदार्थप्रधानोऽयम् । तथा - समत्वं भूमेः समभूमि, एवं समपदाति, पक्षे पूर्वपदस्य मान्तत्वमपि निपात्यते - समभूमि, समंपदाति । एतौ देशकालभावेष्वन्यपदार्थेष्वित्यन्ये, उत्तरपदार्थप्राधान्ये तु समा भूमिः समभूमिः 5 समपदातिरिति कर्मधारय एव । तथा - शोभनत्वं समस्य शोभनत्वं समाया: शोभना समा यत्र सुषमम्, एवं विषमम् निष्षमं, दुष्षमम्, अपरसमम् । उत्तरपदार्थप्राधान्ये तु तत्पुरुष एव । शोभना समा सुषमा । शोभने समे समशब्देनाव्ययीभाव इत्यन्ये, तथा - समाया श्रायतीत्वम् प्रायती समा यत्र यती समेति वा प्रायतीसमम्, एवं पापसमम्, पुण्यसमम्, समशब्देन 10 तृतीयासमास इत्यन्ये । आयत्या समम् - प्रायतीसमम् । एवं पापसमम्, पुण्यसमम्, तथा प्रकृष्टत्वं चाह्नः प्राह रणम् निपातनादह्लादेशः, एवं प्ररथम्, प्रमृगम्, प्रदक्षिणम् । कालभावलक्षणेऽन्यपदार्थेऽपीत्यन्ये,–प्रक्रान्तमहरस्मिन् प्राह ्मणम्, प्रगता रथा अस्मिन् प्ररथम्, प्रनष्टा मृगा अस्मिन् प्रमृगम्, प्रकृता दक्षिणा अस्मिन् प्रदक्षिणम्, अन्यत्र प्रगता मृगा अस्मात् प्रमृगो देश:, 15 देशेऽप्यन्ये । उत्तरपदार्थप्राधान्ये तु तत्पुरुष एव, प्राह णः, प्ररथः, प्रमृगः, प्रदक्षिणा । तथैकत्वमन्तस्य एकोऽन्त इति वा एकान्तम्, देशेऽन्यपदार्थेऽपीत्यन्ये । एवं प्रान्तं समपक्षम्, समानतीर्थम्, समानतीरम्, तथा - संप्रत्यसंप्रत्यप्रदक्षिणानि यथासंख्यं वर्तमानावर्तमानवामेषु । तथा-युद्धे इजन्तं च केशाकेशि, दण्डादण्ड, द्विदण्ड, द्विमुसलि । 'तिष्ठद्गु' - इत्यत्रेतिशब्दः स्वरूपपरिग्रहार्थ : 120 तेनेह समासान्तरं न भवति - परमं तिष्ठद्गु तिष्ठद्गु प्रियमस्येति वाक्यमेव भवति । अत एव प्रदक्षिणसंप्रतिभ्यां सह नञ्समासेन सिद्धावप्रदक्षिणासंप्रत्योः पाठः । इजन्तस्य च तिष्ठद्ग्वादिपाठ: 'इच् युद्धे' [७. ३. ७४.] इत्यनेनेजन्तस्य समासान्तरप्रतिषेधार्थः, द्विदण्डयादेरव्ययीभावार्थश्च । अन्ये तु परपदेनैव समासं प्रतिषेधन्ति तन्मते - परमतिष्ठद्गु, प्रातिष्ठद्गु, जपन् 25 सन्ध्यामित्यादयोऽपि साधवः । तिष्ठद्ग्वादिराकृतिगणः - तेन प्रसव्यम्, अपसव्यम्, यत्प्रभृति, तत्प्रभृति, इतः प्रभृति इत्यादि सिद्धम् ।। ३६ ।। . Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३७-३८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४४६ न्या० स०-तिष्ठन्विति । प्रायतीगवमिति इंणक आयन्ति शतरि 'ह्विणोरप्' [४. ३. १५.] इति यत्वे ङयाँ प्रायत्यो गावो यस्मिन्निति कार्यम्, वृत्तौ त्वर्थकथनमात्रमेवं पूर्वत्र तिष्ठग्वित्यत्रापि । असाधव इति द्वितीयाद्यन्ता इति शेषः। समा शब्दः संवत्सरवाची। प्रायतीसममिति अत्र यदा शत्रन्तात् ङोस्तदा गणपाठात् पूवभावाभाव:, यदा त्वायतिशब्दः नित्यस्त्री ड्यन्तस्तदा पुंवत्प्राप्तिर्नास्ति । तृतीयासमास इत्यन्ये इति 5 तृतोयातत्पुरुष इत्यर्थः, पीयते पुरुषस्य माहात्म्यमनेन पाति रक्षति शुभस्थाने प्रवर्त्तमानं पुरुषमिति वा पापम् । प्राह णमिति 'नपुसकाद् वा' [७. ३. ८६] इति विकल्पेनाति प्राप्तेऽन्हादेशः । एवं प्रान्तमिति प्रगतत्वमन्तस्य प्रगतोऽन्तः प्रगतोऽन्तोऽस्मिन्निति वा, समत्वं समानत्वं वा पक्षस्य तीर्थस्य तीरस्य चेति विग्रहत्रयं दर्शनीयं, एवं प्रान्तमिति स्वमतं परमतं चेहापि द्रष्टव्य-10 मित्येवं शब्दार्थः । तथा संप्रतीत्यादि संभूतिरिदानी न संभूतिरिदानीं न प्रकृष्टत्वं दक्षिणत्वस्य न प्रगतं दक्षिणेनेत्यादिवाक्यानि, तथा द्वौ दण्डौ अस्मिन् प्रहरणे द्वे मुसले प्रहरणमस्य द्विदण्ड्यादिः, इन् । प्रसव्यमित्यादि प्रगतत्त्वं सव्यस्य सव्या ति वाक्यं, यस्मात् प्रभृति इति वाक्यं यत्प्रभृत्यादिषु इतिकरणाच्च कृतापसव्यादिषु समासो न भवति, यत्र च दृश्यते तत्र चिन्तनीयम् । आतिष्ठद्गु इति तिष्ठद्गु ा इति सः ।। ३. १. ३६ ॥ 15 नित्यं प्रतिनाल्पे ॥ ३. १. ३७ ॥ अल्पेऽर्थे वर्तमानेन प्रतिना नाम्ना नाम नित्यं समस्यतेऽव्ययीभावश्च समासो भवति । शाकस्याल्पत्वं शाकप्रति, सूपस्य मात्रा-सूपप्रति । अल्प इति किम् ? वृक्षं प्रति विद्योतते विद्युत् । नित्यग्रहणं वाक्यनिवृत्त्यर्थम्तेनान्यत्र समासो वाक्यं च भवति ।। ३७ ।। 20 ___ न्या० स०--नित्यं प्रति०। शाकप्रतीति पूर्वार्थ इत्यधिकारेऽप्यसंभवादस्योत्तरपदार्थप्रधान एवाऽयं समासः, अथवाऽव्ययानां दोषामन्यमहर्दिवामन्या रात्रिरितिवद्वृत्तिविषये सत्वप्रधानत्वदर्शनान्मात्रावति प्रतिशब्दस्य वृत्तेरविरोधादल्पः सूप इति विग्रहः ।। ३. १.३७ ।। संख्याक्षशलाकं परिणा घूतेऽन्यथावृत्तौ ॥३. १.३८ ॥25 संख्यावाचि नामाक्षशलाके च द्यूतविषयेऽन्यथावर्तने वर्तमानेन परिणा । नाम्ना सहैकार्थ्ये नित्यं समस्यन्तेऽव्ययीभावश्च समासो भवति, वर्तने चैषां कर्तृत्वात्तृतीयान्तत्वम्, अक्षशलाकयोस्त्वेकवचनान्तयोरेवेष्यते । पञ्चिका नाम Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ३६.] घृतं पञ्चभिरक्षैः शलाकाभिर्वा भवति, तत्र यदा सर्वे उत्ताना अवाञ्चो वा पतन्ति तदा पातयितुर्जयः अन्यथापाते पराजयः । एकेनाक्षेण शलाकया वा न तथावृत्तम् यथा पूर्वं जये एकपरि, द्विपरि, त्रिपरि, परमेण चतुष्परि, पञ्चसु त्वेकरूपेषु जय एव भवति । अक्षेणेदं न तथा वृत्तम् यथा पूर्वं जये अक्षपरि, शलाकापरि । संख्यादीति किम् ? पाशकेन न तथा वृत्तम् । 5 परिणेति किम् ? अक्षेण परिवृत्तम् । द्यूत इति किम् ? रथस्याक्षेण न तथा वृत्तम् । अन्यथावृत्ताविति किम् ? पञ्चपरीति माभूत् । केचित् समविषमद्यूते सममित्युक्ते यदा विषमं भवति, तदा अक्षपरि शलाकापरीति प्रयुज्यत इत्याहुः । अन्ये पूर्व पदमाहूतं तच्च पतितमिष्टं सिद्धं पुनस्तदाहृतं यदा न पतति, तदायं प्रयोगोऽक्षपरि शलाकापरीत्याहुः ।। ३८ ।। 10 न्या० स०-संख्याक्षशलाकं० । ननु 'नाम नाम्नैकार्थ्य' [३. १. १८.] इत्यतः सत्रात ऐकाक्षं सतीत्यनवत्तंते, तत ऐकायें सति समासः ऐकायं च ऐकपद्यं तच्च समासे सति भवति, तत इतरेतराश्रयदोषे समासः कथम् ? उच्यते, यत्र यत्र येन सूत्रेण समासः कत्तु मिष्यते तत्र तत्र तस्मादेव ऐकायं प्रथमं ज्ञातव्यम् ततः समासः, अन्यथा हि सर्वाण्यपि सूत्राणि निरर्थकतां भजेरन् इति हि न्यासविदः । षडादिभि ताभावात्15 षट्परीत्यादि न भवति, उत्कर्षतस्तु चतुष्परीत्येव नित्यसमासोऽयमिति परिप्रयोगो वाक्ये नाऽक थि, किंतु न तथा वृत्तमिति पर्यायः । समविषमवू ते इति एकिकाद्विकारूपे । अन्ये पूर्वमिति तस्मिन्ने व द्यूते ।। ३. १. ३८ ।। विभक्तिसमीपसमुद्धिव्यद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति. पश्चात्कारयातियुगपत्सहसंपत्साकल्यान्तेऽव्ययम् 20 ॥३. १. ३६ ।। विभक्त्यादिष्वर्थेषु वर्तमानमव्ययं नाम नाम्ना सहैकार्थ्ये सति पूर्वपदार्थेऽभिधेये नित्यं समस्यते, स च समासोऽव्ययीभावसंज्ञो भवति । विभक्तिविभक्त्यर्थः कारकम, अधिस्त्रि निधेहि-स्त्रीषु निधेहीत्यर्थः, एवमधिकुमारि, समीपे-उपकुम्भं, कुम्भस्य समीप इत्यर्थः, एवमुपाग्नि, उपशरदम्,25 ऋद्धराधिक्यं समृद्धिः-सुमद्रम्, मद्राणां समृद्धिरित्यर्थः, एवं सुमगधम्, सुभिक्षम्, विगता ऋद्धिः व्यृद्धि:-ऋद्धयभावः, दुर्यवनं-यवनानामृद्धयभाव Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ३६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४५१ इत्यर्थः, एवं दुभिक्षम्, अर्थाभावो धर्मिणोऽसत्त्वम्-निर्मक्षिकम्-मक्षिकोणामभाव इत्यर्थः, एवं निर्मशकम्, अमक्षिकम्, उन्मशकम्, निवातम्, अत्ययोऽतीतत्वम्-सत एवातिक्रान्तत्वम्, अतिवर्ष-वर्षाणामतीतत्वमित्यर्थः, एवमतिशीतम्, निशितम्, निहिमम्, अतृणम्, नितृणम्, असंप्रतीति वर्तमानकाले उपभोगादेः प्रतिषेधः,-अतिकम्बलं, कम्बलस्योपभोगं प्रति नायं काल इत्यर्थः, 5 एवमतितैसृकम्, अत्याम्रम्, पश्चादर्थे, अनुरथं याति-रथस्य पश्चादित्यर्थः, एवम् अनुपादातम्, क्रम-पानुपूर्व्यम्, अनुज्येष्ठं प्रविशन्तु-ज्येष्ठानुक्रमेणेत्यर्थः, एवमनुवृद्धं साधूनर्चय, ख्यातिः-शब्दप्रथा, इतिभद्रबाहु, तद्भद्रबाहु, अहोभद्रबाहु, भद्रबाहुशब्दो लोके प्रकाशत इत्यर्थः, युगपदेककालार्थः-सचक्रं धेहि-चक्रेण सहैककालं चक्राणि वा युगपद्धहीत्यर्थः, एवं सधुरं प्राजः, सदृगर्थे-सव्रतम्-10 व्रतस्य सदृशमित्यर्थः, एवं सशीलम्, सकिखि, सदेवदत्तम्,-अव्ययीभावे सहस्य सभावः । संपत् सिद्धिः-सब्रह्म साधूनां-संपन्न ब्रह्मत्यर्थः, एवं सवृत्तं मुनीनाम्, सक्षत्रमिक्ष्वाकूणाम्-साकल्यमशेषता--सतृणमभ्यवहरति--न किंचित् त्यजतीत्यर्थः, एवं सतुषम्, अन्त:-समाप्ति:-सपिण्डैषणमधीते-पिण्डैषणापर्यन्तमधीत इत्यर्थः, एवं सषड्जीवनिकायमधीते,-अत्र समाप्तिरसकलेऽप्यध्ययने। प्रतीयत इति साकल्ये अनन्तर्भावः । पूर्वपदार्थ इत्येव ? समृद्धा मद्राःसुमद्राः । अव्ययमिति किम् ? समीपं कुम्भस्य ।। ३६ ।। न्या० स०--विभक्तिसमीप० । अव्ययं नाम इति अत्र नाम नाम्नेति समुदायः संज्ञो समास इति संज्ञा, समासः संज्ञी अव्ययीभाव इति संजा एतावती पदयोजना। समस्यत इति अन्वर्थरूपत्वं समाससंज्ञायाः प्रदश्याव्ययीभावसंज्ञो भवतीत्युपसंहरतीति 120 अधिस्त्रीति अत्राधिशब्दस्य क्लुप्तानेकार्थवृत्तेराधाररूपविभक्त्यर्थवृत्तित्वं प्रकाशयितुमुक्ताधारस्याऽपि सप्तम्यन्तेन स्त्रीशब्देन समासः । ऋद्ध्यभाव इति ऋद्धरुत्तरपदार्थधर्मस्याभावो न तूत्तरपदार्थस्येव धम्मिण इत्यर्थाभावाद् भिद्यते, तत्र हि धर्मिण एवाभावः यवनानां ऋद्ध्यभावः इत्यत्र 'राष्ट्रक्षत्रियात्' [३. १. ११४.] इत्यत्रो 'बहुष्वस्त्रियाम्' [६. १. १२४.] इति लोपे। धर्मिणोऽसत्त्वमिति धम्मिणोऽनुत्पत्तिरेव न तु सतोऽभाव इत्यर्थाभावोऽत्ययाद् विशिष्यते, अत्ययो हि सतोऽतिक्रान्तकालसंबन्धिनी सत्त्वोच्यते । उपभोगादेः प्रतिषेध इति न तु वस्तुन इति तदऽभावाद्भिद्यते न सांप्रतिकवस्त्वभाव इत्यर्थाभावाद्भिद्यते । ननु च वर्षाणामत्ययो नाम वर्षाणामभाव एव प्रध्वंसाभावो हि सः, तत्रार्थाभाव इत्येव सिद्धे 25 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४०.] किमर्थमत्ययग्रहणम् ? उच्यते, अर्थाभाव इति धम्मिणोऽभवनमात्रमुच्यते, तथाहि निर्मक्षिकं निर्मशकं वर्तते इति तत्र मक्षिकादयो भूत्वा माभूवन्नभूत्वा वा सर्वथा ते तत्र न सन्तोत्येतावन्मात्रमेव प्रतीयते, न तु प्राक् पश्चाद् वेति विशेषः, अतोऽत्ययो नार्थाभाव इति । असंप्रतीति अत्र न संप्रत्यसंप्रतीति बाहुलकादसमर्थसमासोऽयं यथा असूर्यपश्याः, संप्रतीति हि इदानीमित्यर्थः । तैसृकमिति त्रयो मुख्या आसां 'सोऽस्यमुख्यः' [७. १. १६०.] इति कः, पृषोदरादित्वात्तिस्रादेशः, तिसृकासु भवोऽरण । अनुरथं यातीति ननु यथा नित्यसमासत्वात् पश्चाद्रूपेणार्थान्तरेणान्वित्यव्ययं समस्यते तथा पश्चाच्छब्दोऽपि अव्ययत्वादप्यर्थान्तरेण समस्यतां नित्यसमासत्वात् प्रयोगसमवायि वाक्यं नाप्नोति ? उच्यते, 'सर्वपश्चादादयः' [३. १.८०.] इति वचनात् पश्चाच्छब्दस्य अव्ययीभावसमासं प्रत्यव्ययत्वं नाङ्गीकार्यम्,10 अव्ययत्वे हि अव्ययीभावः स्यात् तत्र चान्य इत्यधिकारात् समासान्तर-प्राप्तावन्यत्वाभावात् तत्पुरुषो न स्यात् । अनुपादातमिति अत्र पदातीनां समूहः पादाभ्यामतत्यचि वा पादातं पादातः । लोके प्रकाशते इत्यर्थ इति अत्रेति तत् अहोऽव्ययानि शब्दं प्रद्योतयन्ति, अव्ययानामन्यत्रा:सत्व-वृत्तित्वेऽपि वृत्तिविषये निष्कौशाम्बिरतिखट्वः प्रकटो विकट इत्यादिवत्। 5 सत्त्ववृत्तिदर्शनात् । युगपद्धेहोति शब्दशक्तिस्वाभाव्याच्चान्यपदार्थप्रधानोऽयम् । सकिखीति लोमशिका जोवविशेष: किखिः, यस्य लोके लुकटीति प्रसिद्धिः, यमगोत्रविशेषश्च । संपत्सिद्धिरिति सिद्धिरात्मभावनिष्पत्तिः समृद्धिस्त्वन्यभावनिष्पत्तिरिति सिद्धिः समृद्धेरन्या । ब्रह्मणः संपत् सब्रह्म। पिण्डो भक्तमिति पिण्डो भक्तमिष्यतेऽन्विष्यते कल्प्याकल्प्यविभागेन विचार्यतेऽस्मिन्निति 'इषोऽनिच्छायाम्' [ ५. ३. ११२. ] इति20 व्युत्पत्तेः । सषट्जोवनिकायमधीत इत्यत्र जीवानां निकायाः षट् जीवनिकाया यत्र पठितव्ये, अथवा षण्णां जोवानां निकायस्ततः षट्जीवनिकायेनान्तः षड्जीवनिकायं ग्रन्थमन्तं कृत्वा न तु सकलमित्यर्थः। अनन्तर्भाव इति अत्र श्रुतस्कन्धादिरन्यपदार्थः, स्वभावात्तत्प्रधानोऽयं समासः ।। ३. १. ३६ ।। योग्यतावीप्सार्थानतिवृत्तिसादृश्ये ॥ ३. १. ४० ॥ 25 एष्वर्थेष्वव्ययं नाम नाम्नैकाक्षं पूर्वपदार्थे समस्यतेऽव्ययीभावश्च समासः । योग्यतायाम्-अनुरूपं चेष्टते-रूपस्य योग्यां चेष्टां कुरुते । वीप्सायाम्-प्रत्यर्थं शब्दा अभिनिविशन्ते-अर्थमर्थं प्रतीत्यर्थः, एवं प्रतिपर्यायम्, वीप्सायां द्वितीयाया विधानात् वाक्यमपि भवति--अर्थमर्थं प्रतीति । अर्थानतिवृत्तिः पदार्थानतिक्रमः-यथाशक्ति पठ-शक्त रनतिक्रमणेत्यर्थः, एवं30 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ४१-४२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४५३ यथाबलम्, नात्र विन्यासविंशेष इति क्रमाद्भदः । सादृश्ये-सशीलमनयोःशीलस्य सादृश्यमित्यर्थः,एवं सव्रतमनयोः, सकिखि-किख्या सादृश्यमित्यर्थः । सदृगित्यनेनैव सिद्धे सादृश्यग्रहणं मुख्यसादृश्यपरिग्रहार्थम् ।। ४० ।। न्या० स०--योग्यतावीप्सा। प्रत्यर्थमिति 'वाऽभिनिविणः' [ २. २. २२. ] इति विकल्पेन कर्मण आधारसंज्ञा, समासेन वीप्साया द्योतितत्वात् तन्निमित्ता द्विरुक्तिन 5 प्रवर्तते । वाक्ये तु लक्षणादेरनेकस्यार्थस्य द्योत्यस्य संभवाद् विभक्तिमन्तरेण वीप्सा द्योतयितु न शक्येति। पदार्थानतिक्रम इति पदमुत्तरपदं शक्त्यादिरूपं तस्यार्थः सामर्थ्य तस्यानतिवृत्तिः। विन्यासविशेष इति मूर्तस्यानेकस्य पदार्थस्य नियतदेशाद्यपेक्षं व्यवस्थापनं विन्यासः स एव विशेषः, यदि सहगित्येव कुर्यात्तदा सकिखि देवदत्त इति सामानाधिकरण्यमेव स्यादित्याह-सादृश्यग्रहरणमित्यादि तेन देवदत्तस्य सकिखीति 10 वैयधिकरण्यमपि सिद्धम्, सहगशब्दो हि धर्मिवाची सादृश्यशब्दस्तु धर्मवाची ।। ३. १. ४० ॥ यथाथा ॥ ३. १. ४१ ॥ थाप्रत्ययरहितं यथेत्येतदव्युत्पन्नमव्ययं नाम नाम्ना सहैकार्थ्ये नित्यं समस्यते, पूर्वपदार्थेऽभिधेये स च समासोऽव्ययीभावः । यथारूपं चेष्टते-15 रूपानुरूपमित्यर्थः, यथावृद्धमभ्यर्चय-ये ये वृद्धास्तानित्यर्थः, यथासूत्रमनुतिष्ठति-सूत्रानतिवृत्त्येत्यर्थः । अथा इति किम् ? यथा चैत्रः तथा मैत्रः । पूर्वेणैव सिद्धे सादृश्ये प्रतिषेधार्थं वचनम् ।। ४१ ।। न्या० स०--यथाऽथा। यथावृद्धमिति अत्र क्रमोऽपि प्रतीयते तत् कथमुक्त ये ये वृद्धा इत्यादि, उच्यते, प्रतीयतां क्रमो वीप्साऽपि प्रतीयते, न ह्य कोऽनेकार्थो न20 भवति । पूर्वरणव सिद्ध इति पूर्वसूत्रोपात्तेष्वेवार्थेषु अस्याऽपि प्रवृत्तेः। सादृश्ये प्रतिषेधार्थमिति ननु यथा चैत्र इत्यादौ चैत्रसदृशो मैत्र इत्यर्थः, ततश्च थाप्रत्ययान्तः सादृश्ये न प्रवर्ततेऽपि तु सहशि ततः किमुक्त सादृश्ये प्रतिषेधार्थम् ? उच्यते, सादृश्योपाधिकत्वात् सहगपि सादृश्य शब्देनोच्यतेऽतो वचनं, सहशि तु 'विभक्तिसमीप' [ ३. १. ३६. ] इति प्राप्ते निषेधः, अव्युत्पन्नस्य सादृश्यं विना योग्यतादिष्वर्थेषु 'योग्यता'25 [ ३. १. ४०.] इति सिद्धः समासः परं व्युत्पन्नस्य सहगर्थे 'विभक्ति' [ ३. १. ३६. ] इत्यादिना समासः प्राप्तस्तन्निवधार्थं वचनम् ।। ३. १. ४१ ।। गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः ॥ ३. १. ४२ ॥ कु इत्यव्ययं पापाल्पयोर्वर्तते, गतिसंज्ञकाः कुश्च नाम नाम्ना सह नित्यं Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४३-४५.] समस्यन्ते, स च समासोऽन्यो बहुव्रीह्यादिलक्षणरहितस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । ऊरीकृत्य, खाटकृत्य, शुक्लीकृत्य, पटापटाकृत्य, प्रकृत्य, कारिकाकृत्य, कुकुत्सितो ब्राह्मणः कुब्राह्मणः, एवं कुपुरुषः, ईषदुष्णं कोष्णं, कवोष्णं, कदुष्णम्, एवं कामधुरम् । अव्ययमित्येव कुर्विशाला-पृथिवीत्यर्थः । अन्य इति किम् ? कुत्सिताः पुरुषा यस्य स कुपुरुषकः, अत्र बहुव्रीहित्वात् कच् भवति । 5 तत्पुरुषप्रदेशाः ‘गोस्तत्पुरुषात्' [७. ३. १०५.] इत्यादयः ।। ४२ ।। न्या० स०-गति क्वन्य० । कु इत्यव्ययमिति गतिसाहचर्यादव्ययमित्यधिकाराद् वा संभवव्यभिचारेति न्यायात् कु इत्यस्य विशेषणं न तु गतिसंज्ञानां तेषामव्यभिचारात् । कुब्राह्मण इति नित्यसमासत्वात् कुत्सितो ब्राह्मण इत्यस्वपदविग्रहः ।। ३. १. ४२ ।। । दुनिन्दाकृच्छे ॥ ३. १. ४३ ॥ - 10 दुरित्यव्ययं नाम निन्दायां कृच्छे चार्थे वर्तमानं नाम्ना नित्यं समस्यते, स च समासोऽन्यस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । निन्दित पुरुषः दुष्पुरुषः, कृच्छण कृतं दुष्कृतम् । अन्य इत्येव ? निन्दिताः पुरुषा यस्य स दुष्पुरुषः,-अत्रापि बहुव्रीहित्वात्कच् ।। ४३ ।। सु पूजायाम् ।। ३. १. ४४ ॥ 15 ___ सु इत्यव्ययं पूजायां वर्तमानं नाम्ना नित्यं समस्यते, स च समासोऽन्यस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । शोभनो राजा सुराजा। अन्य इत्येव ? मद्राणां समृद्धिः सुमद्रम्,-अत्राव्ययीभावत्वादम् ।। ४४ ।। न्या० स०--सु पूजायाम् । पूजाया अन्यत्रातिशयार्थेऽनुक्ताऽपि व्यावृत्तिद्रष्टव्या ।। ३. १. ४४ ।। 20 अतिरतिक्रमे च ॥ ३. १. ४५ ॥ अतीत्यव्ययमतिक्रमे पूजायां च वर्तमानं नाम्ना नित्यं समस्यते, स च समासोऽन्यस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । अतिस्तुतं भवता, अतिसिक्तं भवता,अतिक्रमेण स्तुतिसेकौ कृतावित्यर्थः, अतिस्तुत्य, अतिसिच्य, पूजायाम्-शोभनो राजा अतिराजा। बहुलाधिकारादतिक्रमे क्वचिन्न भवति-अति श्रुत्वा,25 अति सिक्त्वा ॥ ४५ ॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ४६-४७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४५५ आङल्पे ॥ ३.१.४६ ॥ आङित्यव्ययमल्पेऽर्थे वर्तमानं नाम्ना नित्यं समस्यते, स च समासोऽन्यस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । ईषत्कडारः-आकडारः, एवमापिङ्गलः । आबद्धमायुक्तमित्यादौ तु क्रियायोगे गतिलक्षण एव समासः ।। ४६ ।। प्रात्यवपरिनिरादयो गतक्रान्तक्रष्टग्लानक्रान्ताद्यर्थाः 5 प्रथमाद्यन्तः ॥ ३. १. ४७ ॥ प्रादयः शब्दा गताद्यर्थेषु वर्तमानाः प्रथमान्तेन, अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थेषु द्वितीयान्तेन, अवादयः क्रुष्टाद्यर्थेषु तृतीयान्तेन, पर्यादयो ग्लानाद्यर्थेषु चतुर्थ्यन्तेन निरादयः क्रान्ताद्यर्थेषु पञ्चम्यन्तेन, नाम्ना सह नित्यं समस्यन्ते, स च समासोऽन्यस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । प्रादयः प्रगत आचार्यः प्राचार्यः, एवं10 प्रान्तेवासी, प्रवृद्धो गुरुः प्रगुरुः, प्रकृष्टो वीरः प्रवीरः, संगतोऽर्थः समर्थः, विरुद्धः पक्षो विपक्षः, प्रत्यर्थी पक्षः प्रतिपक्षः, प्रतिबद्धं वचः प्रतिवचः, । उपश्लिष्टः पतिरुपपतिः, उपपन्नोऽनुकूलः प्रतिकूलो वा नायक:-उपनायकः, अनुनायकः, प्रतिनायकः, अत्यादयः-अतिक्रान्तः खट्वाम् अतिखट्वः, उद्गतो वेलाम् उद्वेलः, प्रतिगतोक्षं प्रत्यक्षः, अनुगतः प्रतिगतो वा लोमानि-अनुलोमः,15 प्रतिलोमः, अभिप्रपन्नो मुखमभिमुखः, अवादयः-अवक्रुष्ट: कोकिलया अवकोकिलः, परिणद्धो वीरुद्भिः परिवीरुत्, संनद्धो वर्मणा संवर्मा, अनुगतमर्थेनान्वर्थं नाम, संगतमक्षेण समक्षम् वस्तु, वियुक्तमर्थेन व्यर्थं वचः, संगतमर्थेन समर्थं पदम्, पर्यादयः-परिग्लानोऽध्ययनाय पर्यध्ययनः, उद्युक्तः संग्रामाय उत्संग्रामः, शक्तः कुमार्य अलंकुमारिः, शक्तः पुरुषेभ्यः अलंपुरुषीणः,20 अलंशब्दस्य चतुर्थ्यन्तेन वाक्यमपीन्छन्त्यन्ये, प्रलं जीविकायै-अलंजीविकः, अलं कुमार्च-अलंकुमारिः, निरादयः-निष्क्रान्तः कौशाम्ब्या निष्कौशाम्बिः, अपगतः शाखायाः अपशाखः, अन्तर्गतोऽङ्गुल्या अन्तरऽङ्गुलो नखः, उत्क्रान्ता कुलादुत्कुला कुलटा, एवमुद्वलः समुद्रः, उच्छास्त्रं वचः, उत्सूत्रो न्यायः, उच्छृङ्खलः कलभः, अपगतमादपार्थं वचः, एवमपक्रम कार्यम् । बहुलाधि-25 कारात् षष्ठ्यन्तेनापि-अन्तर्गतो गाय॑स्य अन्तर्वार्यः, एवमन्तरगुलो नखः, Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४८.] सप्तम्यन्तेनापि-प्रतिष्ठितमुरसि प्रत्युरसम् । गताद्या इति किम् ? वृक्षं । प्रति विद्योतते विद्युत्, साधुर्देवदत्तो मातरं प्रति । अन्य इत्येव । प्राचार्यको देशः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ४७ ।। न्या० स०--प्रात्यवपरि०। गताद्यर्थेषु वर्तमाना इति अनेन प्रादीनां गम्यादिक्रियाविशिष्टसाधनेषु प्रवृत्तिर्वृत्तिविषये विज्ञायते, तत्रास्यास्मिन्नर्थे वृत्तिरिति विशेष- 5 निर्णयो लक्ष्यानुसारेण भवति, तत्राऽपि प्रयोगपर्यालोचनया विशिष्टार्थवृत्तित्वं प्रादीनां वाक्यराचष्टे । प्रगत प्राचार्य इत्यत्र वाक्ये प्रादेोतकत्वं गम्यमानप्रादेशप्रगतार्थस्य वाचकत्वं प्रार्थत्वाद् गतस्य प्राचार्यो देश इति न भवति । प्रान्तेवासीति अन्ते वसतीत्येवं व्रती 'व्रताभीक्ष्ण्ये' [ ५. १. १५७. ] णिन् ‘शयवासिवासेषु' [ ३. २. २५. ] इत्यलुप् । अनुलोम इति 'प्रत्यन्वव' [ ७. ३. ८२. ] इति अत् समासान्तः, 'नोपदस्य'10 [७. ४. ६१.] इत्यन्त्यस्वरादिलोपः । अन्तरङ्गुल इति 'संख्याव्ययादङ गुले' [ ७. ३. १२४. ] इति डः । प्रत्युरसमिति 'प्रत्युरसः' [ ७. ३. ८४. ] इत्यत् समासान्तः ।। ३. १. ४७ ।। अव्ययं प्रवादिभिः ॥ ३. १. ४८ ॥ 20 अव्ययं नाम प्रवृद्धादिभिर्नामभिनित्यं समस्यते, स च समासोऽन्य-15 स्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । पुनःप्रवृद्धं बर्हिः, पुनरुत्स्यूतं वास:, पुननिष्क्रान्तो रथः, पुनरुक्त वचः, पुनर्नवं वयः, पुनःशृतं पयः, स्वर्यातः, अन्तर्भूतः, प्रातःसवनम्, उच्चै?षः, नीचैर्गतम्, अधस्पदम्, अनद्वापुरुषः, असशक्तः पुरुषः, प्रायश्चित्तम्, सद्यस्क्रीः, प्राग्वृत्तम्, पुराकल्पः, श्वःश्रेयसम्, श्वोवसीयसम् इति । बहुवचनमाकृतिगरणार्थम् ।। ४८ ।। न्या० स०-अव्ययं प्र०। पुनः प्रवृद्धमिति कालवाचकात् पुनः शब्दात् 'कालाध्वभाव' [ २. २. २३. ] इति विकल्पेन द्वितीया सप्तमी वा सर्वत्र, पुनः प्रवर्द्धते स्मेति कार्य, न तु भूयः प्रवृद्धमिति तस्याप्यव्ययत्वादनेनैव नित्यसमासत्वात समदायस्येवाऽयं पर्यायो भवति, एवमुत्तरेष्वपि, श्राति श्रायति वा पयः स्वयमेव तद् श्रायद् वा चैत्रेण प्रयुज्यते स्म, ततः पुनः श्रप्यते स्म। अन्तर्भूत इत्यत्र अन्तःशब्देन25 मध्यस्थोऽप्युच्यते तदा प्रथमा। अधस्पदमिति अघस्थाने पदमित्येव कार्यं न त्वधस्तादिति तस्याप्यव्ययत्वात्, अनिर्णयोऽनद् वा तेन पुरुषः न विद्यते द्वा संशयोऽस्येति व्युत्पत्त्याद् वा धर्मी उच्यते, न अद्वा अनद् वा संशयितः पुरुषः ससंशयः पुरुषो वा अनद् वा पुरुषः। भ्रातुष्पुत्रकस्कादित्वात् सत्वे सद्यस्कोः। 'निसश्च श्रेयसः' [ ७. ३. १२२. ] इति Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ४६-५०. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४५७ श्वः श्रेयसम् । श्वोवसीयसमिति वसुशब्दान्मतो ईयसि 'विन्मतो:' [ ७. ४. ३२. ] इति मत्लोपे शोभनं वसीय: 'श्वसो वसीयस:' [ ७. ३. १२१.], अत् ।। ३. १.४८ ।। इस्युक्तं कृता ।। ३. १. ४६ ॥ कृत्प्रत्ययविधायके सूत्रे ङसिना पञ्चम्यन्तेन नाम्नोक्तं ङस्युक्तम् । तत् कृदन्तेन नाम्ना नित्यं समस्यते, स च समासोऽन्यस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । कुम्भं 5 करोति कुम्भकारः, शरलाव:, अग्निचित्, सोमसुत् अन्यथाकारं भुङ्क्त, अतिथिवेदं भोजयति, इह च गतिकारकङस्युक्तानां विभक्त्यन्तानामेव कृदन्तैर्विभक्त्युत्पत्तेः प्रागेव समास इष्यते - तेन प्रस् स्थ इत्यादौ, चर्मन् टा क्रीत, अभ्र टा विलिप्त इत्यादौ, कच्छ अम् प इत्यादौ च समासे च सति अकारान्तत्वात् ङीः सिद्धः - प्रष्ठी, चर्मक्रीती, अभ्रविलिप्ती, कच्छपी इत्यादि 110 यदि पुनर्विभक्त्यन्तैः कृदन्तैः समासः स्यात् तदान्तरङ्गत्वाद्विभक्तेः प्रागेव आपः प्राप्तावकारान्तत्वाभावात् ङीर्न स्यात् । तथा-माषान् वापिन् व्रीहीन् वापिन् इत्यादौ समासे नकारस्यानन्तत्वाण्णत्वं सिद्धम् - माषवापिणी, व्रीहिवापिणी । विभक्त्यन्तेन तु समासेऽन्तरङ्गत्वाद्विभक्तेः प्रागेव ङीप्राप्ती नकारस्यान्त्यत्वाण्णत्वं न स्यात् । पूर्वपदस्य च विभक्त्यन्तत्वनियमात् 15 चर्मीतीत्यादिषु पदकार्यं नकारलोपादि सिद्धं भवति । ङस्युक्तमिति किम् ? कारकस्य व्रज्या, कारकस्य गतिः, अलं कृत्वा, खलु कृत्वा । कृतेति किम् ? धर्मो वो रक्षतु ।। ४६ ।। न्या० स०--ङस्युक्तं ० । कृदन्तेनेति प्रत्यासत्त्या तत्सूत्रविहितनैव । श्रापः प्राप्ताविति प्राप् किल स्त्रीत्वमात्रनिमित्तः स्यादिस्तु कश्चित् संख्यानिमित्तः कश्चित् 20 कर्मादिनिमित्तः । कारकस्येति 'क्रियायां क्रियार्थी' [ ५. ३. १३. ] इति सह म्युक्तत्वाणकच् अभारि ङस्युक्तं यदि न भण्यते तदा व्रज्याकारकगतिकारको इति स्याताम् ।। ३ १.४६ ।। तृतीयोक्तं वा ॥ ३. १. ५० ।। 'दंशेस्तृतीयया' [ ५.४. ७३.] इत्यारभ्य यत्तृतीयोक्तं नाम तत् कृता 25 नाम्ना वा समस्यते स च समासोऽन्यस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । मूलकेनोपदंशं, मूलकोपदंशं भुङ्क्त, दण्डेनोपघातं दण्डोपघातं गाः कलयति, पार्श्वयोः Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] बृहद्वृत्ति-लधुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ५१.] पार्वाभ्यां वोपपीडं, पार्बोपपीडं शेते । वाशब्दो नित्यसमासनिवृत्त्यर्थः तेनोत्तरेषु वाक्यमपि भवति ।। ५० ।। न्या० स०-तृतीयोक्तं । वाशब्द इति-इह पृथग्योगादेव नित्यत्वस्य निवृत्तिर्वाशब्दस्तु नित्यसमासाधिकार निवृत्त्यर्थ इति ।। ३. १. ५० ।। नञ् ॥ ३. १. ५१ ॥ नजित्येतन्नाम नाम्ना समस्यते, स च समासोऽन्यस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । न गौः अगौः, अनुच्चैः, असः निवर्त्यमानतद्भावश्चोत्तरपदार्थः पर्यु दासे नसमासार्थ:-स चायं चतुर्धा-तत्सदृशः, तद्विरुद्धः, तदन्यः, तदभाव इति । अब्राह्मणः, अशुक्ल इति तत्सदृशः-क्षत्रियादिः पीतादिश्च प्रतीयते, अधर्मः, असित इति तद्विरोधी-पाप्मा कृष्णश्च प्रतीयते, अनग्नि: अवायुरित्यग्नि-10 वायुभ्यामन्यः प्रतीयते, अवचनम् अवीक्षणमिति वचनवीक्षणाभावः प्रतीयते । नन्वस्योत्तरपदार्थप्राधान्येन तल्लिङ्गसंख्यत्वे सति कथं भवन्त्यनेके जलधेरिवोर्मयः' इत्यादौ अनेके इति बहुवचनम्-असाधव एवेदशाः शब्दाः । प्रसह्यप्रतिषेधे तु नञ् पदान्तरेण संबध्यत इति उत्तरपदं वाक्यवत् स्वार्थ एव वर्तते-तत्रासामर्थ्येऽपि यथाभिधानं बहुलकात् समासः-सूर्यमपि न पश्यन्ति15 असूर्यपश्या राजदाराः, पुनर्न गीयन्ते अपुनर्गेयाः श्लोकाः, श्राद्धं न भुक्त अश्राद्धभोजी, अलवण-भोजी भिक्षुः, तथा कर्णवेष्टकाभ्यां न शोभते अकार्णवेष्टकिकं मुखम्,-'शोभमाने' [६. ४. १०२.] इतीकण , वत्सेभ्यो न हितोऽवत्सीयो गोधुक्,--'तस्मै हितः' [७. १. ३५.] इतीयः, वधं नार्हत्यवध्यो ब्राह्मणः, 'दण्डादेर्यः' [६. ४. १७८.] इति यः, संतापाय न शक्त असांतापिकः 20 सदुपदेशः,-'तस्मै योगादेः शक्त' [६. ४. ६४.] इतीकण । अन्य इत्येव ? न विद्यन्ते मक्षिका यत्र सोऽमक्षिकाकः, मक्षिकाणामभावोऽमक्षिकमिति ।। ५१ ।। न्या० स०-नञ् । ननु न इत्येव निरनुबन्धः पठ्यतां किं सानुबन्धेन नत्रित्युपादानेन ? सत्यं, चादिषु कारोपदेशं स्मारयितु अकारो निद्दिश्यते प्रतिबध-शङ्का-25 व्युदासार्थं च, नेत्युक्त हि समासस्य प्रतिषेधः सम्भाव्यते । अगौरिति नत्रा विशेषित आरोपितगवादिस्वरूपो गवयादिरित्यर्थः । निवर्त्यमानतद्भाव इति । घटादे: पटादिभावो Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ५२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४५६ यः कुतश्चिद् व्या मोहादाशङ्कितः स निवर्त्यमानस्तिरस्क्रियमाणो यत्रोत्तर पदार्थे स निवर्त्यमानतदभावः, निवर्त्यमानो यस्तस्य उत्तरपदस्य भाव उत्तरपदप्रवत्ति-निमित्तगोत्वब्राह्म गत्वादि त वानिहार्थ उत्तरपदस्यैवार्थः । नञ् समासस्यापि निवृत्तिविशिष्टोत्तरपदार्थ-प्राधान्यमित्यर्थः । स चायमिति उत्तरपदार्थ इत्यर्थः । अवचनं इत्यादिषु कश्चिद् वचनमवचनं च एकमेव जानाति पश्चाद्वचनं न भवति, कोऽर्थः ? यद् वचनं वर्तते । तद्वचनं न भवति । एतेन किमुक्त भवति ? अवचनस्य वचनाभावः प्रतीयते इत्यर्थः, एवं अवोक्षणम् इत्यत्रापि ज्ञेयम् । प्रतीयते इति सर्वत्र शब्दशक्तिस्वाभाव्यादिति योज्यम् । प्रश्राद्धभोजी-इत्यादिषु 'व्रताभीक्ष्ण्ये' [५. १. १५७.] इति णिन्, कणौं वेष्ट्येते आभ्यामिति नाम्नि पुसि च णकः । अकार्णवेष्टकिकम् इत्यादिषु नत्रः शुभिक्रिययैव संबन्धान्नाकारस्य वृद्धिः, एवं सर्वोदाहरणेषु ज्ञातव्यम् । नन्विदं सूत्रं विनाप्यब्राह्मण10 इत्यादयो विशेषणमित्यनेन कर्मधारयेऽपि सेत्स्यन्ति, यतो नञ् विशेषणम् ब्राह्मणो विशेष्यमिति ? उच्यते, पूर्वापरभावनियमार्थं वचनं, यत्र द्वौ गुणशब्दौ भवतः, तत्रानियमेन पूर्वनिपातः, यथा अखञ्जः, नञ् नि धमात्रे वर्त्तते, खजशब्दोऽपि गुणमात्रे इत्यनियमेन प्राप्नोतीति वचनम् । प्रसङ्ग कृत्वा प्रति वधः प्रसज्यप्रतिषेधः 'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः' [३. १. ४८.] सः । 15 हता गुणरस्य भयेन वा मुने-स्तिरोहिताश्चित् प्रहरन्ति देवताः । कथं त्वमी संततमस्य सायका, भवन्त्यनेके जलधेरिवोर्मयः ॥१॥ किराते अनेके इति अत्र न एक इति कृत्वा विशेष्यलिङ्गसंख्यां चाश्रित्य अनेक इत्यपि समर्थ्यते उत्पलेन । कश्चिदेकशब्दस्यान्यार्थस्य एकशेषादेक इति साधयित्वा पश्चान्नसमासं मन्यते ।। ३. १. ५१ ॥ 20 पूर्वापराधरोत्तरमभिन्नाशिना ॥ ३. १. ५२ ॥ अंश एकदेशस्तद्वानंशी, पूर्वादयः शब्दाः सामर्थ्यादंशवाचिनोंऽशिना समस्यन्ते, अभिन्न न 'न चेत्सोंऽशी भिन्नः प्रतीयते' तत्पुरुषश्च समासो भवति । पूर्वः कायस्य पूर्वकायः, एवम् अपरकायः, अधरकायः, उत्तरकायः, पूर्वादिग्रहणं किम् ? दक्षिणं कायस्य । अभिन्न नेति किम् ? पूर्व छात्राणामामन्त्रयस्व । 25 प्रसज्यप्रतिषेधः किम् ? पूर्व पाणिपादस्य-अत्र हि समाहारस्यैकत्वेऽपि पाणिः पाद इति भेदप्रतीतेन भवति । पूर्वग्राम इत्यादौ तु न ग्रामशब्दात्प्रासादादिभेदप्रतीतिः । अंशिनेति किम् ? पूर्वो नाभेः कायस्य ॥ ५२ ।। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] बृह वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू ५३.] न्या० स०-पूर्वापराध। पूर्वः कायस्येति पूर्वो भागः कस्मात् ? नाभ्यादेः, । कस्य ? कायस्येति संबन्धाद्दिक्पञ्चमी कायशब्दान्न भवति । पूर्व छात्राणामिति बहुवचनात् भेदप्रतोतिः, छात्राणां संबन्धिनं कस्मादपि छात्रात् पूर्वमित्यर्थः । प्रसज्यप्रतिषेधः किमिति; यद्यत्राभिन्न न भवतीति पर्युदासः स्यात्तदा समाहारस्यैकत्वादत्रापि समासः स्यात्, भिन्नेन न भवतीति प्रसज्यप्रतिषधे तु विज्ञायमाने समाहारद्वद्वस्य 5 भेदपूर्वकत्वात् भेदनिमित्तः प्रति धोऽपीति समासाभावः। अंशिनेति किमिति ननु नाभेर्यः पूर्वो भागो व्यवस्थितः, स कायस्य शोभनो रिक्तो वेत्याद्यर्थोऽत्र विवक्षितस्तत्र पूर्वस्य कायापेक्षत्वेनासमर्थत्वादेव नाम्या सह समासो न प्राप्त: किमंशिवर्जनेन ? सत्यं, यद्यपि कायापेक्षत्वं पूर्वस्य तथापि प्रधानसापेक्षत्वेऽपि वृत्तिर्भवतीति असत्यंशिनेत्यस्मिन्नवधिभूतया नाभ्या समासः संभाव्येत, अमुना कायेनांऽशिना सह समासो यथाभिधानमस्ति10 ततः प्रवर्तते पूर्वकायो नाभेरिति ।। ३. १. ५२ ।। सायाहुनादयः ॥ ३. १. ५३ ॥ सायाह्नादयः शब्दा अंशिना तत्पुरुषेण साधवो भवन्ति । सायमह्नः सायाह्नः, मध्यमह्नः मध्याह्नः, मध्यं दिनस्य मध्यंदिनम्, मध्यं रात्रेः मध्यरात्रः, उपारताः पश्चिमरात्रगोचरात् इत्यादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्-पूर्वे15 पञ्चालाः, उत्तरे पञ्चालाः इतिवत्समुदायवाचिनामंशेऽपि प्रवृत्तिदर्शनात् सामानाधिकरण्ये सति कर्मधारयेणैव सिद्धम् । पूर्वश्चासौ कायश्च पूर्वकायः, सायं च तदहश्च सायाह्न इति । तत्पुरुषविधानं त्विह पूर्वत्र चाह्नः सायं कायस्य पूर्वमिति षष्ठीसमासबाधनार्थम् ।। ५३ ।।। न्या० स०--सायाह्लादयः। स्यतेपनि नौणादिको वा सायशब्दः, मान्तमव्ययं20 वा। सायमन इति ननु 'सायम्' शब्देनाऽहरन्त उच्यते इत्युक्तार्थत्वात् सायमन इति विग्रहेऽहनशब्दस्य प्रयोगो न प्राप्नोति ? सत्यं, दिनान्ते यानि कार्याणि क्रियन्ते तान्यप्युपचारात् 'सायम्' शब्देनोच्यन्ते, ततः संदेहः किं कार्याण्यभिधीयन्ते उत दिनान्त इत्यहन्शब्दः प्रयुज्यते, सूत्रसामर्थ्यात् वा तस्माच्च दिनान्त एव लभ्यते । उपारताः पश्चिमरात्रगोचरा-दपारयन्तः पतितुजवेन गाम् । तमुत्सुकाश्चक्रुरवेक्षणोन्मुखं, गवां गणा: प्रस्नुतपीवरोधसः ।। १॥ किराते षष्ठोसमासबाधनार्थमिति ननु सायमोऽव्ययत्वात् 'तृप्त' [३. १. ८५.] इत्यादिना षष्ठोसमासस्य नियेन प्राप्तिरेव नास्ति किमुच्यते षष्ठीसमासबाधनार्थमिति ? उच्यते, यदाऽकारान्तः सायशब्दोऽनव्ययं नपुंसकलिङ्गस्तदा प्राप्नोति ।। ३. १. ५३ ॥ 25 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ५४-५५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६१ समेंशेध नवा ॥ ३. १. ५४ ॥ अर्धमित्येतत्समेंऽशे वर्तमानमंशिना अभिन्न न वा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । अर्धं पिप्पल्याः अर्धपिप्पली, पक्षे-पिप्पल्यर्धम् । एवमर्धकोशातकी, कोशातक्यर्धम्, अर्धपणः, पणार्धम्, अर्धवेदिः, वेद्यर्धम्, अर्धचापम् चापार्धम्, अर्धस्वरः, स्वरार्धम्, अर्धग्रामः, ग्रामार्धम्, अर्धापूपः, 5 अपपार्धम्, समेंऽश इति किम् ? ग्रामाधः, नगराधः, । अर्धं च सा पिप्पली चेति कर्मधारयेणैव सिद्धे भेदविवक्षायां पक्षे षष्ठीसमासबाधनार्थमसमांशे चार्द्धश्चासौ ग्रामश्चेति कर्मधारयनिषेधार्थं वचनम् । अंशिनेत्येव ? पिप्पल्या अर्ध चैत्रस्य, अत्र चैत्रेण समासो न भवति । अभिन्न नेत्येव ? अर्धं पिप्पलीनाम् । कथमपिप्पल्यः, अर्धं पिप्पल्या इत्यभिन्न न समासे10 सत्येकशेषात्, अर्धराशिरित्यत्र राशेरभेदप्रतिभासाद्भविष्यति, अत्र समेंऽशे वर्तमानोऽर्धशब्द आविष्टलिङ्गी नपुंसकः, असमांऽशे तु पुंलिङ्गः। अन्ये त्वसमासे वाच्यलिङ्गमेनमाहुः । असमांश एव च षष्ठीसमासं, समांशे तु नित्यमंशितत्पुरुषमिच्छन्ति ।। ५४ ।। न्या० स०-समेंऽशे । अद्ध पिप्पल्या इत्यत्रार्द्धशब्दस्य तुल्यभागेऽर्द्धमिति क्लीबत्वं,15 अर्द्धपिप्पलीति समुदायस्य तु परलिङ्गो द्वंद्वोऽशीति वचनात् स्त्रीत्वम्, एवमुत्तरत्र । अतुल्यभागे तु ग्रामार्द्ध इत्यादावर्द्धसुदर्शनेति पुस्त्वम् । षष्ठीसमासबाधनार्थमिति अयमर्थः सूत्राभावे भेदाभेदविवक्षायां प्रयोगद्वयं सिद्ध्यति । सूत्रकृतौ तु भेदविवक्षायामेव पक्षे षष्ठीसमासं बाधित्वा प्रयोगद्वयं सिद्धम्, अन्यथा भेदे षष्ठीसमास एव स्यात् । अर्द्ध पिप्पलोनामिति पिप्पल्याख्यस्यांशिनोऽनेकद्रव्यस्वभावत्वादभिन्नत्वाभावात् समासा-20 भावः, षष्ठीसमासस्तु भवत्येव पिप्पल्यर्द्धमिति । प्रकरणादिना बहुत्वस्याप्यन्तर्गतबहुवचनान्तस्यापि प्रवृत्तिरविरुद्धा । ३. १. ५४ ।। जरत्यादिभिः ॥ ३. १. ५५ ॥ असमांशार्थ प्रारम्भः, अर्धशब्दो जरत्यादिभिरंशिभिरभिन्न : सह वा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । अ? जरत्या अर्धजरती तत्तुल्यम् 25 अर्धजरतीयम्, अर्धवैशसम्, अर्धोक्तम्, अर्धविलोकितम्,-पक्षे जरत्यर्ध Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ५६-५७.] इत्याद्यपि भवति । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । इदमपि षष्ठीसमास- ' बाधनार्थम् ।। ५५ ।। न्या० स०-जरत्यादि। अर्द्धजरतीयमित्यत्र 'काकतालोयादयः । अवैशसम् इति ‘शसू हिंसायाम्' विशसनं 'क्रुत्संपदादिभ्यः' [५. ३. ११४.] विशसैव प्रज्ञाद्य ण् अझै वैशसस्यार्द्ध मरणमित्यर्थः ।। ३. १. ५५ ।। दिवत्रिचतुष्पूरणाग्रादयः ॥ ३. १. ५६ ॥ द्वित्रिचतुर् इत्येते पूरणप्रत्ययान्ता अग्र इत्यादयश्च शब्दा अंशवाचिनोंऽशिनाऽभिन्न न वा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति। द्वितीयं भिक्षाया द्वितीयभिक्षा, एवं तृतीयभिक्षा, चतुर्थभिक्षा, तुर्यभिक्षा तुरीयभिक्षा, अग्रं हस्तस्य अग्रहस्तः, एवं तलपादः, ऊर्ध्वकाय इत्यादि, पक्षे भिक्षाद्वितीयम्,10 भिक्षातृतीयम्, भिक्षाचतुर्थम्, भिक्षातुर्यम्, भिक्षातुरीयम्, हस्ताग्रम्, पादतलम्, कायोर्ध्वमित्यादि । नित्याधिकाराभावादेव पक्षे वाक्यस्य सिद्धत्वाद्वानुवृत्तिः पक्षे षष्ठीसमासार्थम्-तेन पूरणेन निषिद्धोऽपि षष्ठीसमासो भवति । व्यादिग्रहणं किम् ? पञ्चमं भिक्षायाः। पूरणेति किम् ? द्वौ भिक्षायाः । अशिनेत्येव ? भिक्षाया द्वितीयं भिक्षुकस्य, भिक्षुकेण समासो न भवति ।15 अभिन्न नेत्येव ? द्वितीयं भिक्षाणाम् । अग्रादिराकृतिगणः ।। ५६ ।। न्या० स०--द्वित्रिचतुः। द्विश्च त्रिश्च चत्वारश्च द्वित्रिचतुस्तच्च सूत्रत्वात् पूरणशब्दस्य विशेषणस्यापि न पूर्वनिपातः । पञ्चमं भिक्षाया इति । षष्ठीसमासोऽपि वा ग्रहणेन यस्यैवायमंशिसमासस्तस्यैव प्राप्नोतीत्यत्र न भवति। द्वितीयं भिक्षाणामिति अत्र बहुत्वाद् भिक्षा भिन्ना ।। ३. १. ५६ ।। 20 कालो दिवगौ च मेयेः ॥ ३. १. ५७ ॥ अंशांशिनिवृत्तौ तत्संबद्धं वेति निवृत्तम् । कालवाचि नामैकवचनान्तं द्विगौ च विषये वर्तमानं मेयवाचिना नाम्ना समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । मासो जातस्य मासजातः, मासजातौ, मासजाताः, मासजाता स्त्री, एवं संवत्सरजातः मासमृतः, संवत्सरमृतः द्विगौ-एको मासो जातस्य25 एकमासजातः, द्वे अहनी सुप्तस्य द्वयह्नसुप्तः, त्र्यह्नाध्यापितः । कथं Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६३ द्वयहजातः त्र्यहजात: ? समाहारद्विगोर्जातेन काल इत्यंशेन समासेन भविष्यति । इह च यद्यपि विग्रहे जातादि कालस्य विशेषणम् तथापि शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् समासो जातादिप्रधानस्तेन समासे लिङ्ग संख्या च तदीयतदीयमेव भवति । काल इति किम् ? द्रोण धान्यस्य काल इति चैकवचनं द्विगोः अन्यत्र प्रयोजकम् - तेन मासौ मासा वा जातस्येत्यत्र न 5 भवति । द्विगौ तु द्वौ त्रयो वा मासा जातस्य द्विमासजातः त्रिमासजात इत्यपि भवति, द्विगुग्रहणं त्रिपदसमासार्थम् । अन्यथा नाम नाम्नेत्यनुवृत्तेर्द्वयोरेव स्यात् । चकारो द्विगुरहितकालपरिग्रहार्थः । मेयैरिति किम् ? मासश्चत्रस्य । जातादेरेव हि मेयत्वम् जन्मादेः प्रभृति जातादिसंबन्धित्वेनैवादित्यगतेः परिच्छेदात्, न द्रव्यमात्रस्य क्तान्तेनैव च मेयेन प्रायेणायं 10 समास इष्यते - तेन मासो गच्छतः, वर्षमधीयानस्य, मासो गन्तु वर्तते इत्यादौ न भवति, अयमपि षष्ठीसमासापवादो योगः ।। ५७ ।। [ पा० १. सू०५८. ] शब्द 15 न्या० स०-- कालो द्वि । अंशांशिनिवृत्ताविति कालमेयैरित्यभिनवार्थ ग्रहणात्, जातोत्तरपदानि मासजात इत्यादीनि बहुव्रीहावपि सिध्यन्ति । परं मासो मृतस्य मासमृत इत्यत्राऽन्यपदार्थाऽसंभवात् द्विगौ च द्वयह्नसुप्त इत्यादाविति वचनम् । शक्तिस्वाभाव्यादिति अन्यथा मासो जाताया इति स्त्रीत्वविवक्षायां मासजाता इत्यत्र ह्रस्वत्वं स्यात् पूर्वपदप्राधान्याच्च पश्चादाप् न स्यात् । द्व े अहनी सुप्तस्येति द्व े इति चाहनी, इति च नामद्वयं सुप्तस्येति नाम्ना समस्यते । ततस्त्रिपदे समासे जाते सुप्त इत्युत्तरपदे परे 'सख्या समाहारे च' [ ३. १ ६६ ] इति द्विगुसंज्ञायां द्विगुविषये द्वेरुत्तरपदनिमित्ते द्विगौ भाविनि त्रयाणां तत्पुरुषः । अन्यत्र प्रयोजक मिति अन्यत्र चरितार्थ- 20 मित्यर्थः, द्विगौ तु द्विवचनाद्यन्तमपि समस्यते इति भावः । मासश्चैत्रस्येति अत्र न मासश्चैत्रस्य परिच्छेदकत्वेन संबन्धी किं तूत्सवास्पदत्वेनाऽन्येन वा प्रकारेणेति ।। ३. १. ५७ ।। स्वयंसामी क्तेन ॥ ३.१.५८ ॥ स्वयं सामि इत्येते अव्यये क्तान्तेन नाम्ना सह समस्येते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । स्वयंधातौ पादौ स्वयं विलोनमाज्यम् - श्रात्मनेत्यर्थः, 25 सामिकृतम्, सामिभुक्तम्, -अर्धमित्यर्थः । समासे सत्यैकपद्यादेकविभक्तिस्तद्धिताद्युत्पत्तिश्च भवति । स्वायंधौतिः, सामिकृतिः, सामिकृतायनिः इत्यादि । क्तेनेति किम् ? स्वयं कृत्वा, सामि भुक्त्वा ।। ५८ ।। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १ सू० ५६ - ६० . ] न्या० स०-- स्वयं सामी० । धौत इत्यत्र करणे कर्मकर्त्तरि वा क्तः, यतः करणशक्त ेः कर्तृ शक्तेोर्वा वाचकः स्वयंशब्दः । श्रात्मनेत्यर्थं इति त्र करणे कर्त्तरि वा तृतीया । सामिकृतमित्यत्र 'विशेषणं विशेष्येण ' [ ३.१.६६. ] इत्यनेन कर्म्मधारयेणैव सिध्यति, परं यदृच्छया पूर्वापरभावः स्यात् तद्बाधनार्थमिहोपादीयते ।। ३. १.५८ ।। द्वितीया खट्वा क्षेपे ।। ३. १. ५६ ।। खट्वा इत्येतन्नाम द्वितीयान्तं क्षेपे गम्यमाने क्तान्तेन नाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । क्षेपः समासार्थो न वाक्येन गम्यते इति नित्य एवायं समासः । खट्वारूढः, खट्वाप्लुतो जाल्मः - उत्पथप्रस्थित एवमुच्यते । खट्वा, पल्यङ्क, प्राचार्यासनं वा, प्रधीत्य गुरुभिरनुज्ञातेन हि:0 खट्वारोढव्या, यत्त्वन्यथा खट्वारोहणं तदुत्पथप्रस्थानम्, उपलक्षणं चेह खट्वारोहणमुत्पथप्रस्थानस्य, तेन सर्वोऽपि विमार्गप्रस्थितः खट्वारूढ इत्युच्यते । क्षेप इति किम् ? खट्वामारूढ उपाध्यायोऽध्यापयति ।। ५६ ।। ४६४ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते 5 न्या० स०-- - द्वितीया खट्वा० । क्षेपः समासार्थ इति तत्रैव तस्य प्रसिद्धेः । नित्य एवेति यत्तु खट्वामारूढ इति वाक्यं तत्पूर्वोत्तरपदविभागमात्र 15 दर्शनार्थम् ।। ३. १. ५६ ।। कालः ॥। ३. १. ६० ॥ कालवाचि नाम द्वितीयान्तं नाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । रात्रिमतिसृताः- रात्र्यतिसृताः, एवं रात्र्यारूढाः, रात्रिसंक्रान्ताः, प्रहरतिसृताः - षड् मुहूर्ताश्चराचरा:- ते हि दक्षिणायने रात्रि गच्छन्ति, 20 उत्तरायणे त्वहरिति, मासं प्रमितो मासप्रमितः प्रतिपच्चन्द्रमाः - मासं प्रमातुमारब्ध इत्यर्थः । अव्याप्त्यर्थ आरम्भः ।। ६० ।। " न्या० स० -- कालः । कालयति भूतानि प्रच् । अव्याप्त्यर्थं इति । क्तनेति निवृत्तमिति पृथग्योगादिति शेषः । सर्व्वरात्र कल्याणीति यद्यपि सर्वशब्दो न कालवृत्तिस्तथाप्युत्तरपदप्रधानत्वेन समासस्य सर्वरात्र इति समुदायोऽपि कालः । मासं25 पूरक इति पूरयिष्यतीति क्रियायां क्रिया' [ ५. ३. १३. ] इति कचि रणके तु 'कर्मरिण कृत:' [ २. २. ८३. ] इति षष्ठी स्यात् एकचि तु 'तृन्नुदन्त' [ २. २.९०. ] . इति निषेधान्न । ३. १. ६० ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६१-६३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६५ व्याप्तौ ॥ ३. १. ६१ ॥ व्याप्तिर्गुणक्रियाद्रव्यैरत्यन्तसंयोगः, व्याप्तौ या द्वितीया तदन्तं कालवाचि नाम व्यापकवाचिनाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति, क्त नेति निवृत्तम् । मुहूर्तं सुखं-मुहूर्तसुखम्, मुहूर्तरमणीयः, सर्वरात्रकल्याणो, सर्वरात्रशोभना, मुहूर्ताध्ययनम्, मुहूर्तगुडः। व्याप्ताविति किम् ? मासं 5 पूरको व्रजति । काल इत्येव ? क्रोशं कुटिला नदी ।। ६१ ।। श्रितादिभिः ॥ ३. १. ६२ ॥ द्वितीयान्तं नाम श्रितादिभिर्नामभिः समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । धर्म श्रित:-धर्मश्रितः, श्रीश्रितः, संसारातीतः, नरकपतितः, निर्वाणगतः । श्रित, अतीत, पतित, गत, अत्यस्त, प्राप्त, पापन्न, गमिन्,10 गामिन्, आगामिन् इति श्रितादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन ओदनबुभुक्षुः, हिताशंसुः, तत्त्वबुभुत्सुः, सुखेच्छुः इत्यादि सिद्धम् ।। ६२ ।। न्या० स०--श्रितादिभिः। धर्म श्रित इति प्राप्त्यर्थत्वात् 'गत्यर्थाकर्मक' [ ५. १. ११. ] इति क्तः प्राप्त इत्यर्थः, यद्यपि बहुव्रीहिणैव धर्मश्रित इत्यादीनि सिध्यन्ति, तथापि यत्तत्पुरुषं शास्ति तत् ज्ञापयति यत्र समासेऽर्थे विग्रहभेदात्तत्पुरुषबहुव्रीही15 प्राप्नुतस्तत्र तत्पुरुष एव, तेन राजसख इत्यादौ न बहुव्रीहिः, किं च बहुव्रीहौ कच् स्यात् । संसारातीत इत्यत्र अत्येति स्म उल्लङ्घते स्म 'गतिक्वन्य' [ ३. १. ४२. ] इति समासः, अतिक्रमार्थातिवर्ज इत्यनेन नोपसर्ग इति न वाच्यं, यदर्थं क्रिया तस्मिन्निष्पन्ने क्रियाप्रवत्तिरतिक्रमः, यथाऽतिसिक्त पुष्पफलादौ निष्पन्नेऽपि पुनः सेकक्रियाप्रवत्तेः । निर्वाणगत इति क्त निर्वाति सुखीभवत्यत्रे त्यनटि वा, प्राप्ता जीविका ययेत्यादि20 बहुव्रीहिणाऽपि सिध्यति । प्राप्तगवीत्यादौ तु समासान्तो न स्यादिति वचनम् । स्त्रीलिङ्गार्थमिति स्त्र्येकार्थोत्तरपदा भावात् 'परत: स्त्री' [ ३. २. ४६.] इति पुभावो न प्राप्नोतीत्यत्करणम् ।। ३. १. ६२ ।। प्राप्तापत्रौ तयाच्च ॥ ३. १. ६३ ॥ प्राप्तापन्नौ सामर्थ्यात् प्रथमान्तौ तथा द्वितीयान्तेन नाम्ना सह समस्येते,25 तत्पुरुषश्च समासो भवति तत्संनियोगे चानयोरन्तस्याकारो भवति । प्राप्ता Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ६४-६५.] जीविकां-प्राप्तजीविका, आपन्ना जीविकाम्-पापन्नजीविका, एवं प्राप्तगवी, आपन्नगवी स्त्री, प्राप्तो जीविकां-प्राप्तजीविकः, आपन्नजीविकः, प्राप्तगवः, आपन्नगवः-पुरुषः, प्राप्तं जीविकां-प्राप्तजीविकम्, आपन्नजीविकं कुलम् । अद्वचनं स्त्रीलिङ्गार्थम्, प्राप्तापन्नयोः प्रथमोक्तत्वात् पूर्वनिपातार्थं वचनम् । श्रितादित्वाच्चानयोद्वितीयाया अपि प्रथमोक्तत्वेन प्राग्निपात:-तेन 5 जीविकाप्राप्तः, जीविकापन्न इत्यपि भवति ।। ६३ ।। इषगुणवचनैः ॥ ३. १. ६४ ॥ ईषदित्येतदव्ययं गुणवचनैर्नामभिः सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति, ये गुणे वर्तित्वा तद्योगे गुणिनि वर्तन्ते ते गुणमुक्तवन्तो गुणवचनाः । ईषदल्पं पिङ्गलः ईषपिङ्गलः-एवमोषत्कडारः, ईषद्विकटः, ईषदुन्नतः,10 ईषद्रक्तः । गुणवचनैरिति किम् ? ईषत्कारकः, ईषद्गार्यः, गुणः क्रियया वा हीनो गार्य एवमुच्यते । समासे तद्धितकाम्य समासान्तराणि च वसाद्यादेशाभावादयश्च प्रयोजनम्-ईषत्पिङ्गलस्येदमैषत्पिङ्गलम्, ऐषत्पिङ्गलकाम्यत्, कोपेनेषद्रक्तः,-कोपेषद्रक्तः, ईषत्पिङ्गल युष्माकमथो पुत्र इति ।। ६४ ॥ 15 न्या० स०-ईषद् गुरग० । गुणं वचन्तीति रम्याद्यनटि गुणवचनाः । ईषपिङ्गल इति पिङ्गत्वमस्यास्ति सिध्मादित्वाल्लः । न च वाच्यमीषत्पैङ्गल्ययोगात् पुरुषोऽपीषत्. स चासो पिङ्गलश्चेति कर्मधारयेण सिद्ध्यति, यतस्तत्र पूर्वनिपातकामचारः, ईषत्शब्दात् क्रियाविशेषणत्वादम्, उन्नतरक्तशब्दावौणादिको पुतपितेति साधू ततो गुणवचनौ, क्त तु क्रियावचनौ स्याताम् । समासान्तराणीति 20 अन्यथा 'नाम नाम्ना' [ ३. १. १८. ] इत्यनुवर्तमाने कोपेन ईषद्रक्त इति त्रिपदो न स्यात्, कोपेषद्रक्त इत्यत्र 'ऊनार्थ' [ ३. १. ६७. ] इति समासः, ईषद्ररक्त इति न गुणवचनः, तेनोत्तरेण न समासः ।। ३. १. ६४ ।। तृतीया तत्कृतैः ॥ ३. १. ६५ ॥ तृतीयान्तं नाम तत्कृतैस्तृतीयान्तार्थकृतैर्गुणवचनैर्नामभिः सह समस्यते,25 तत्पुरुषश्च समासो भवति । शङ्कुलया कृतः खण्डः-शकुलाखण्डश्चैत्रः, Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६६-६७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६७ एव गिरिकाणः, मदपटुः, क्षारशुक्लः, कुसुमसुरभिः, कृतार्थो वृत्तावन्तर्भूत इति कृतशब्दो न प्रयुज्यते । तत्कृतैरिति किम् ? अक्षणा कारणः, पादेन खजः, शकुलया हेतुना खण्डः, काणत्वादि ह्यत्र काण्डादिना कृतम्, नाक्ष्यादिना, अक्ष्यादिना परं संबन्धमात्रम्, यदा तु तत्कृतत्वविवक्षायां कर्तरि करणे वा तृतीया तदा भवत्येव समासः । अक्षिकाण इत्यादि 5 गुणवचनैरित्येव ? गोभिर्वपावान्, दध्ना पटुः पाटवमित्यर्थः, न ह्य तौ पूर्व गुणमुक्त्वा सांप्रतं द्रव्ये वर्तेते इति गुणवचनौ न भवतः । अत एव शुद्धगुणवाचिनापि समासो न भवति-घृतेन पाटवम्, विद्यया धाष्टय म्-अत्रापि समासो भवतीति कश्चित् । अन्ये तु गुणवचनैर्गुणमात्रवृत्तिभिरपि समासमिच्छन्ति-शकुलाखण्डश्च त्रस्य, गिरिकाणश्च त्रस्येति ।। ६५ ।। 10 न्या० स०-तृतीया०। प्रत्ययः प्रकृत्यविनाभावीति तृतीयान्तं नामेह गृह्यते । अत एवेति गुणवचनत्वाभावादेवेत्यर्थः ।। ३. १. ६५ ॥ चतस्राद्धम् ॥ ३. १. ६६ ॥ अर्द्धशब्दस्तृतीयान्तस्तत्कृतार्थेन चतसृशब्देन सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । अर्धेन कृताश्चतस्रोऽर्धचतस्रो मात्राः, एवमर्धचतस्रः खार्यः 115 चतस्रति किम् ? अर्धेन कृताश्चत्वारो द्रोणाः ।। ६६ ।। ऊनार्थपूर्वाद्यैः ॥ ३. १. ६७ ॥ तृतीयान्तं नाम ऊनार्थैः पूर्वादिभिश्च नामभिः समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । माषेणोनम्-माषोनम्, एवं कार्षापणोनम्, माषविकलम्, कार्षापणविकलम्, पूर्वाद्यः-मासेन पूर्वः-मासपूर्वः, संवत्सरपूर्वः, एवं मासावरः,20 संवत्सरावरः । पूर्व, अवर, सदृश, सम, कलह, निपुण, मिश्र, श्लक्ष्ण, इति पूर्वादयः । प्राकृतिगणोऽयम्-तेन धान्येनार्थो, धान्यार्थः, हिरण्यार्थः, आत्मनापञ्चमः, आत्मनाषष्ठः, ‘एतावलुप्समासौ' माषेणाधिकं-माषाधिकम्, कार्षापणम्, एवं द्रोणाधिका खारी भ्रात्रा तुल्याः-भ्रातृतुल्याः, एकेन द्रव्यवत्त्वम्-एकद्रव्यवत्त्वम् इत्यादि सिद्धम् । पूर्वादियोगे यथायोगं हेत्वादौ25 तृतीया ।। ६७ ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते . [पा० १. सू० ६८-६९.] न्या० स०-ऊनार्थ । पूर्वादियोगे इत्यत्र पूर्वादीनां हि पूर्वादिभावे मासादिहेतुरिति अत्र हेतौ तृतीया। हेत्वादाविति आदिशब्दात्तुल्यार्थरित्यादि । एकेन द्रव्यवत्त्वमिति एकं च तत् द्रव्यं चेति कर्मधारये एकद्रव्यमस्यास्तीति कृते 'एकादे: कर्मधारयात्' [ ७. २. ५८. ] इतीकण् स्यादित्येवं समासः ॥ ३. १. ६७ ॥ कारकं कृता ॥ ३. १. ६८ ॥ कारकवाचि नाम तृतीयान्तं सामर्थ्यात्कर्तृकरणरूपं कृदन्तेन नाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति। कर्तृ-पात्मना कृतम्-प्रात्मकृतम्, परकृतम्, 'कृत्सगतिकारकस्यापि' [७. ४. ११७.] चैत्रेण नखनिभिन्नः चैत्रनखनिभिन्नः, एवं सुजनसुलभः, दुर्जनदुर्लभः, अरिदुर्जयः, करणे,-परशुना छिन्नःपरशुच्छिन्नः, एवं नखनिर्भिन्नः-पादप्रहारः, पादाभ्यां ह्रियते-पादहारकः,10 तलाहृतिः, शस्त्रप्रहृतिः, बहुलाधिकारात् स्तुतिनिन्दार्थतायां प्रायेण कृत्यैः समासः । कर्तृ-काकपेया नदी, एवं नाम पूर्णेत्यर्थः, श्वलेह्यः, कूपः एवंनामासन्नोदक इत्यर्थः, कुक्कुटसंपात्या ग्रामाः, एवं नामासन्ना इत्यर्थः । करणकण्टकसंचेय प्रोदनः । एवं नाम विशद इत्यर्थः, वाष्पच्छेद्यानि तृणानि एवं नाम मृदूनीत्यर्थः, अन्यत्रापि बुशोपेन्ध्यम्, तृणोपेन्ध्यम्,-तेजसः अल्पता ख्याप्यते,15 घनघात्यः-कृच्छसाध्यत्वमुच्यते । कारकमिति किम् ? विद्ययोषितः, अन्ननोषितः, तेन हेतुनेत्यर्थः । पुत्रेण गतः, छात्रेणागतः, तेन सहेत्यर्थः । कृतेति किम् ? गोभिर्वपावान्, धान्येन धनवान् । बहुलाधिकारादेव क्तवतुना क्त्वया तव्यानीयाभ्यां च न भवति, दात्रेण लूनवान्, परशुना छिन्नवान्, दात्रेण कृत्वा, परशुना छित्त्वा, काकैः पातव्यः, श्वभिर्लेढव्यः ।। ६८ ।। 20 न्या० स०-कारकं० । आत्मना कृतमिति अर्थकथनमात्रमिदम् । आत्मना क्रियते स्मेति कार्य गतिकारकेति न्यायात् । काकपेया नदी इत्यादिषु निन्दा सुगमौवेति न दर्शिता। अल्पता ख्याप्यते इति नाऽत्र निन्दा स्तुतिर्वा किंतु स्वरूपकथनम् । घनघात्य इति घात्यस्य काठिन्यं प्रतिपाद्यते । तेन सहेत्यर्थ इति । एवं शिक्षया परिव्राजक इतीत्थंभूतलक्षणेऽप्युक्तमपि ज्ञेयम् । अनीयप्रयोगे श्वभिर्लहनीय25 इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् ।। ३. १. ६८ ॥ नविंशत्यादिनकोऽच्चान्तः ॥ ३. १. ६६ ॥ एकशब्दस्तृतीयान्तो नविंशत्यादिनाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ७०-७१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६६ समासो भवति एकशब्दस्य चादन्तो भवति। एकेन नविंशतिः-एकानविंशतिः, पक्षे एकानविंशतिः, एवमेकान्नत्रिंशत्, एकाद्नत्रिंशत्, एकान्नचत्वारिंशत्, एकाद्नचत्वारिंशत् । नविंशत्यादिनेति निर्देशात् 'नत्रत्' [३. २. १२५.] न भवति ।। ६६ ।। न्या० स०--नविंशत्यादिनै०। नजत् न भवतीति 'नत्रव्ययात् संख्याया ड:' 5 [ ७. ३. १२३. ] इत्यपि न भवति, विधानसामर्थ्यात् 'लुगस्य' [ २. १. ११३ ] इत्यादिना अलोपो न भवति, अन्यथा तू इति कुर्यात् इति ॥ ३. १. ६६ ॥ चतुथी प्रकृत्या ॥ ३. १. ७० ॥ प्रकृति:-परिणामि कारणम्, चतुर्थ्यन्तमर्थाद्विकृतिवाचि नाम प्रकृतिवाचिना नाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । यूपाय10 दारु-यूपदारु, कुण्डलहिरण्यम् । प्रकृत्येति किम् ? रन्धनाय स्थाली, अवहननायोलूखलम्, मूत्राय संपद्यते यवागूरित्यादौ तु विकारस्याप्रधानस्य संपद्यते इत्यादिक्रियासापेक्षत्वात् न भवति ।। ७० ।। न्या० स०--चतुर्थी०। प्रक्रियते परिणामरूपतयेति वा प्रकरोति कार्यमिति वा बाहलकात क्तिः, प्रक्रियादिति वा 'तिक्कृतौ नाम्नि' [५.१.७१. 1। प्रका परिणामि इत्यत्र तेन रूपेण यूपादिलक्षणेन भवनं तद्भावः परिणामः सोऽस्याऽस्तीति । रन्धनाय स्थालीति । यथा यूपाद्यात्मना दादि प्रतिष्ठमानं यूपादेः प्रकृतित्वेन विज्ञायते, नैवं रन्धनादेः स्थाल्यादीनि । मूत्राय संपद्यते इति यद्यप्यार्थ्या विधेयतया मूत्रस्य प्राधान्यं तथापि शाब्द्या प्रथमं यवाग्वा सह क्रियासंबन्धः । यथा राज्ञः पुरुष इति प्रार्थ्या राज्ञः प्राधान्येऽपि शाब्द्या पुरुषस्यैव इति अप्राधान्यं । ततश्च अप्रधानसापेक्षे समासो20 न भवति, प्रधानसापेक्षे तु भवत्येव ।। ३. १. ७० ।। हितादिभिः ॥ ३. १.७१ ॥ चतुर्थ्यन्तं नाम हितादिभिः सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । गोभ्यो हितं-गोहितम्, एवं गोसुखम्, गोरक्षितः, हित, सुख, रक्षित, बलि, इति हितादयः । प्राकृतिगणनायम्-तेन अश्वघासः, श्वश्रूसुरा, श्वश्रूसुरम्,25 हस्तिविधानम्, धर्मनियमः, धर्मजिज्ञासा, नाटयशाला, आत्मनेपदम्, परस्मैपदम् Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ७२-७३.] इत्यादि सिद्धम् । कृत्यप्रत्ययान्तं चेह पठ्यते-देवदेयम्, ब्राह्मणदेयम्, वरप्रदेया कन्या, इह न भवति ब्राह्मणाय दातव्यम् ।। ७१ ।। न्या० स०--हितादि०। गोम्यो हितमिति 'हितसुखाभ्याम्' [ २. २. ६५. ] इत्यनेन चतुर्थी, पाशीविवक्षायां तु तद्भद्रायुष्य' [२. २. ६६.] इति आशंसायां हितयोगे या चतुर्थी तदन्तस्य समासो न भवति समासादाशिषोऽनवगमादिति । प्रात्मने- 5 पदमिति पचत इत्येवमादीनामात्मा स्वभावस्तदर्थं पदं ते आते इत्यादिना आत्मनेपदम् । तिवाद्यवयवापेक्षया प्रकृतिप्रत्ययसमूदायः पचतीत्यादिलक्षणः परोऽर्थस्तदर्थं तिवादिकं पदं परस्मैपदम् ।। ३. १.७१ ।। तदर्थार्थन ॥ ३. १. ७२ ॥ तस्याश्चतुर्थ्या अर्थो यस्य स तदर्थः, चतुर्थ्यन्तं नाम तदर्थेनार्थशब्देन10 नाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । पित्रे इदं-पित्रर्थं पयः, महदर्थं धनम्, उदकार्थो घटः, आतुरार्था यवागूः । 'उर्थो वाच्यवत्' इति वाच्यलिङ्गता, नित्यसमासश्चायम्, चतुर्थंव तदर्थस्योक्तत्वात् अर्थशब्दाप्रयोगे वाक्यासंभवात्, समासस्तु वचनाद्भवति । तदर्थेत्यर्थविशेषणं किम् ? पित्रेऽर्थः, मात्रेऽर्थः, तदर्थं धनमित्यर्थः ।। ७२ ।। 15 न्या० स०-तदर्था० । तस्याश्चतुर्थ्या अर्थो यस्य इत्युष्ट्रमुखादित्वाद् व्यधिकरणो बहुव्रीहिस्ततस्तदर्थश्चासावर्थश्चेति कर्मधारयः, यद्वा तस्या अर्थस्तदर्थस्तस्मिन् अर्थस्तेन तदर्थाऽर्थेन । समासस्त्विति पित्रर्थ इत्यादिसमासे अर्थशब्दप्रयोगः इत्यर्थः ।। ३. १. ७२ ॥ पञ्चमी भयायैः ॥ ३. १. ७३ ॥ 20 पञ्चम्यन्तं नाम भयाद्यैर्नामभिः सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । वृकाद्भयम्-वृकभयम्, एवं वृकभीतः, भयभीता। भय, भीत, भीति, भी, भीरु, भीलुक, निर्गत, जुगुप्सु, अपेत, अपोढ, मुक्त, पतित, अपत्रस्त इति भयादयः । प्राकृतिगणश्चायम्-तेन द्वीपान्तरानीतः, स्थानभ्रष्टः, तात्परः, तपरः इत्यादि सिद्धम् । बहुलाधिकारादिह न भवति । प्रासा25 दात्पतितः, भोजनादपत्रस्तः ।। ७३ ।। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू०७४-७६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४७१ क्तेनासत्त्वे ॥ ३. १. ७४ ॥ असत्वे वर्तमाना या पञ्चमी तदन्तं नाम क्तप्रत्ययान्तेन नाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । स्तोकान्मुक्तः, अल्पान्मुक्तः, कृच्छान्मुक्तः, कतिपयान्मुक्तः, दूरादागतः, विप्रकृष्टादागतः, अन्तिकादागतः, अभ्याशादागतः, कृच्छाल्लब्धम्, 'असत्वे डसेः' [३. २. १०.] इत्यलुप् । क्त नेति किम् ? 5 स्तोकान्मोक्षः । असत्वे इति किम् ? स्तोकात् वद्धितः-स्तोकाद्रव्यादित्यर्थः, एवमल्पात् प्रवृद्धम् । समासे तद्धिताद्युत्पत्तिः फलम्-स्तोकान्मुक्तिः इत्यादि ।। ७४ ।। पराशतादिः ॥ ३. १. ७५ ॥ परःशतादिः पञ्चमीतत्पुरुषः साधुर्भवति । शतात्परे-परःशताः,10 सहस्रात्परे-परःसहस्राः, लक्षाल्लक्षाया वा परे परोलक्षाः-परशब्दस्य पूर्वनिपातः सकारागमश्च निपातनात् । परशब्देन समानार्थः परस्शब्दः सकारान्तोऽप्यस्तीत्यन्ये ।। ७५ ।। षष्ठययत्नाच्छेथे ॥ ३. १. ७६ ॥ शेषे या षष्ठी तदन्तं नाम नाम्ना सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो15 भवति । अयत्नात्-न चेत् स शेषो 'नाथः' [२. २. १०.] इत्यादेयत्नाद्भवति । राज्ञः पुरुषः-राजपुरुषः, यतिकम्बलः, राज्ञो गोक्षीरं राजगोक्षीरम्, राजगवीक्षीरम् । ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः, जिनभद्रगणेः क्षमाश्रमणस्य भाष्यमित्यादौ सापेक्षत्वान्न भवति । कथं देवदत्तस्य गुरुकुलम् ? जिनदत्तस्य दासभार्येति, सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वाद्भवति । अयत्नादिति किम् ? सर्पिषो20 नाथितम्, मातुःस्मृतम्, सर्पिषो दयितम्, मातुरीशितम्, एधोदकस्योपस्कृतम्, चौरस्य रुग्णम्, चौरस्योज्जासितम्, शतस्य द्यूतम्, शतस्य द्यूतश्चैत्रः, कटकरणस्यायुक्तः शेष इति किम् ? सर्पिषो ज्ञानम्, रुदतः प्रवजितः, मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः, गवां कृष्णा संपन्नक्षीरतमा, अध्वगानां रथगामी शीघ्रतमः । कथं सर्पिर्शानम् ? मातृस्मरणमित्यादि, कृद्योगेऽत्र षष्ठीत्युत्तरेण भविष्यति,25 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ७७-७८.] संबन्धे त्वनेनैव । गोस्वामी, पृथिवीश्वरः, विद्यादायाद इत्यादिषु त्वयत्नजा शेष एव षष्ठी। 'स्वामीश्वरा'-[२. २. ६८.] दिसूत्रस्य नित्यं षष्ठीप्राप्तौ पक्षे सप्तमीविधानार्थत्वात् । संघस्य भद्र भूयात्, शासनस्य भद्र भूयादित्यादौ त्वाशिषि षष्ठयाः समासो न भवति, असामर्थ्यात् अनभिधानाद्वा। नहि संघभद्र भूयादित्युक्त संघस्य भद्रं भूयादित्यर्थः 5 प्रतीयते, अपि तु संघभद्र नाम संघसंबन्धितया प्रसिद्धं किंचिद्भद्रं कस्य चिद्भूयादिति ।। ७६ ।। न्या० स०--षष्ठ्यय०। प्रयत्नान्न चेदिति तुल्यार्थयोगे यत्नजाया अपि षष्ठ्याः समासो भवति, तुल्यार्थानां याजकादिदृष्टे: । गमकत्वादिति अवश्यसापेक्षत्वादित्यर्थः । मनुष्याणामित्यादिषु त्रिषु योगेष्वपादानपञ्चमीप्रसक्तौ 'सप्तमी चाऽविभागे'10 [२. २. १०६.] इति षष्ठी। असामर्थ्यादिति तत्त्वं भूयादिति सापेक्षत्वात् । अनभिधानेति अभिधानलक्षणा हि कृत्तद्धितसमासा भवन्तीति न्यायात् विवक्षितार्थाप्रतिपादनात् ।। ३. १.७६ ।। कृति ॥ ३. १. ७७ ॥ 'कर्मणि कृतः' [२. २. ८३.] 'कर्तरि' [२. २. ८६.] इति च या15 कृति कृत्प्रत्ययनिमित्ता षष्ठी विहिता तदन्तं नाम नाम्ना समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । सिद्धसेनकृतिः, गणधरोक्तिः, इध्मव्रश्चनः, पलाशशातनः, धर्मानुस्मरणम्, तत्त्वानुचिन्तनम्, सर्पिर्ज्ञानम्, एधोदकोपस्करणम्, चौरोज्जासनम् ।। ७७ ॥ न्या० स०--कृति। चौरोज्जासनमिति 'कर्मणि कृतः' [ २. २. ८३. ]20 'कर्त्तरि' [२. २. ८६.] वाऽस्या विधानात् यत्नजाया अपि षष्ठ्याः समासः ।। ३. १. ७७ ।। याजकादिभिः ॥ ३. १.७८ ॥ षष्ठ्यन्तं नाम याजक इत्येवमादिभिर्नामभिः सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । ब्राह्मणानां याजक:-ब्राह्मणयाजकः, एवं गुरुपूजकः, याजक,25 पूजक, परिचारक, परिवेषक, स्नापक, अध्यापक, आच्छादक, उन्मादक, Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ७९-८१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४७३ उद्वर्तक वर्तक होतृ भर्तृ । आकृतिगणोऽयम् - तेन तुल्यार्था अपि - गुरुसदृशः, गुरुसमः, दास्याःसदृशः, वृषल्याः समः ' षष्ठ्याः क्षेपे' [ ३. २. ३०. ] इत्यलुप् । तथा-अन्यत्कारकम्, विश्वगोप्ता, तीर्थकर्ता, तत्प्रयोजको हेतुश्च, जनिकर्तुः प्रकृतिः, इत्यादि सिद्धं भवति । 'कर्मजा तृचा च' [ ३. १. ८३.] इति प्रतिषेधापवादो योगः, तुल्यार्थैः विध्यर्थश्च ।। ७८ ।। । न्या० स० -- याजका० । याजकेति याजक: ऋत्विक् पतिवाचकस्यैवात्र पाठः, कृतीत्यनेनैव सिद्धे किमर्थोऽयं योगः ? चेतीति । विध्यर्थश्चेति तुल्यार्थैरिति या षष्ठी सा शैषिका न भवतीति अप्राप्तौ ।। ३. १७८ ।। भत्रिति भर्तृ शब्दस्य इत्याह कर्म्मजा तृचा पत्तिरथौ गणकेन । ३. १.७६ ॥ पत्तिरथशब्दौ षष्ठ्यन्तौ गरणकेन नाम्ना समस्येते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । पत्तीनां गरणकः - पत्तिगरणकः, एवं रथगरणकः । पत्तिरथाविति किम् ? कार्षापणानां गरणकः । गरणकेनेति किम् ? रथस्य दर्शकः, कथं ज्योति - र्गणकः ? 'प्रकेन क्रीडाजीवे' [ ३. १८१.] इति भविष्यति । 'कर्मजा तृचा च' [३. १. ८३.] इत्यस्यापवादोऽयम् ।। ७९ ।। सर्वपश्चादादयः ॥ ३. १. ८० ॥ सर्वपश्चादित्यादयः षष्ठीतत्पुरुषाः साधवो भवन्ति । सर्वेषां पश्चात् सर्वपश्चात्पदं वर्तते, सर्वचिरं जीवति, तदुपरिष्टात् रुक्मं निदधाति इत्यादि, - अव्ययेन प्रतिषेधं वक्ष्यति तस्यापवादोऽयम् । बहुवचनं शिष्टप्रयोगानुसरणार्थम् ।। ८० ।। 5 10 न्या० स० -- सर्व्वप० । सर्वेषां पश्चादिति यदा संबन्धे षष्ठी तदा निषेधे प्राप्ते समासः, यदा तु रिरिष्टेति तदा अप्राप्ते समासः । प्रतिषेषं वक्ष्यतीति यदा संबन्धे षष्ठी तदा इत्यर्थः, तत्र संबन्धषष्ठीग्रहणात् उपलक्षरणमिदं तेन यदा रिरिष्टेति षष्ठी तदाप्राप्ते समासः ।। ३ १ ८० । अकेन क्रीडाजीवे ॥ ३१.८१ ॥ आजीवो जीविका, षष्ठ्यन्तं नामाकप्रत्ययान्तेन नाम्ना समस्यते, 15 20 25 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ८२-८३.] क्रीडायामाजीवे च गम्यमाने तत्पुरुषश्च समासो भवति । उद्दालकपुष्पभञ्जिका, वारणपुष्पमचायिका, शालभञ्जिका,-कस्याश्चित् क्रीडायाः संज्ञा । आजीवे, दन्तलेखकः, नखलेखकः, अवस्करसूदकः, रमणीयकारकः, दन्तलेखनादिरस्याजीवो गम्यते । क्रीडाजीवौ वाक्येन न गम्यते इति नित्यसमासा एते । क्रीडाजीव इति किम् ? प्रोदनस्य भोजकः, पयसः पायकः, 'कर्मजा 5 तृचा च' [३. १. ८३.] इति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् ।। ८१ ।। न्या० स०--अकेन । 'कर्मजा तृचा च' [ ३. १. ८३. ] इत्यस्यापवादस्ततश्च भनक्तीति भञ्जिका उद्दालकपुष्पाणां भञ्जिकेति कृते 'कृति' [ ३. १. ७७. ] इति प्राप्नोति, तत उत्तरेण निषेधस्तदाऽस्य सूत्रस्य फलं, यदा तु उद्दालकपुष्पाणि भज्यन्ते यस्यां क्रीडायामिति विग्रहस्तदा निषेधाभावे 'कृति' [ ३. १. ७७. ] इत्यनेनैव सिद्ध-10 त्वादस्य न किञ्चित् फलम् । ननु भनक्तीति भञ्जिकेति कर्तरि कथं साधयन्ति यत उद्दालकपुष्पभजिकेति क्रीडानाम ततस्तस्याः क्रीडाया भङ्ग कर्तृत्वं न संगच्छते अपि तु क्रीडाकारिणाम्, उच्यते। अस्यां क्रीडायां भजनक्रियाकरणादुपचारात् सापि की भण्यते, शालशब्दोऽपि तालव्याद्यो वृक्षवाचकोऽस्ति ।। ३. १. ८१ ॥ न कर्तरि ॥ ३. १. ८२ ॥ कर्तरि विहिता या षष्ठी तदन्तं नामाकप्रत्ययान्तेन नाम्ना न समस्यते। भवतः शायिका, भवत आशिका, भवतोऽग्रगामिका कर्तरीति किम् ? इक्षुभक्षिकां मे धारयसि, पयःपायिकां मे धारयसि ।। ८२ ।। न्या० स०-न कर्तरि०। अग्रगामिकेति कृत् सगतिकारकस्येति न्यायादग्रगामिकेति अस्यापि कृदन्तत्वम् ।। ३. १. ८२ ।। कर्मजा तुचा च ॥ ३. १. ८३ ॥ कर्तरीत्यनुवर्तते तच्चाकस्य विशेषणम्, कर्मणि विहिता षष्ठी कर्मजा, तदन्तं नाम कर्तरि विहितो योऽकप्रत्ययस्तदन्तेन तृजन्तेन च नाम्ना सह न समस्यते । प्रोदनस्य भोजकः, सक्तूनां पायकः, अपां स्रष्टा, पुरां भेत्ता। कर्मजेति किम् ? संबन्धषष्ठयाः प्रतिषेधो माभूत्, गुणो गुणिविशेषक :-25 गुणिनः संवन्धी विशेषक इत्यर्थः कर्तरीत्येव ? इक्षुभक्षिकां मे धारयसि, पयःपायिकां मे धारयसि । कथं भूभर्ता ? वज्रभर्तेति,-भर्तृ शब्दो यः 15 20 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ८४-८५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४७५ पतिपर्यायस्तेन संबन्धषष्ठया याजकादिपाठात् कर्मषष्ठया वाऽयं समासः, क्रियाशब्दस्य तु तत्राग्रहणादनेन प्रतिषेधः भुवो भर्ता, वज्रस्य भर्ता ।। ८३ ।। न्या० स०--कर्मजा। तच्चाकस्येति तृचोऽव्यभिचारात् 'अकस्याऽपि' ग्रहः तृच् सन्निहितस्य । गुणीत्यत्र शिखादित्वादिन् । क्रियाशब्दस्य त्विति बिभर्तीति 5 भरणक्रियामात्रमुपादाय वर्तमानस्येत्यर्थः, पतिपर्यायभर्तृ शब्द औरणादिकोऽव्युत्पन्नोऽप्यस्ति ।। ३. १. ८३ ।। तृतीयायाम् ।। ३. १.८४ ॥ कर्तरि या तृतीया तस्यां सत्यां कर्मजा षष्ठी न समस्यते। आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालकेन, साध्विदं शब्दानामनुशासनमाचार्येण । तृतीयायामिति10 किम् ? साध्विदं शब्दानुशासनमाचार्यस्य, साध्वी कटचिकीर्षा चैत्रस्य, कर्तरि षष्ठ्यामपि न समास इति कश्चित्-विचित्रा सूत्रस्य कृतिराचार्यस्य । कर्तरीत्येव ? साध्विदं शब्दानुशासनमाचार्यस्य नः पुण्येन । कर्मजेत्येव ? मैत्रस्य संबन्धी कृतो मैत्रकृतश्च त्रेण । कथं गोदोहो गोपालकेन ? संबन्धषष्ठ्या भविष्यति ।। ८४ ।। 15 न्या० स०--तृतीयायाम्। मैत्रस्य संबन्धी कृत इत्यत्र प्रोदनोऽन्यो वाऽर्थप्रकरणादिना नितिः ।। ३. १. ८४ ॥ तप्तार्थपूरणाव्ययातूशशबानशा ॥ ३. १.८५ ॥ तृप्ताथैः पूरणप्रत्ययान्तैरव्ययैरतृशन्तैः शत्रन्तैरानशन्तैश्च नामभिः षष्ठयन्तं नाम न समस्यते । तृप्तार्थाः-फलानां तृप्तः, फलानां सुहितः,20 सक्तूनां पूर्णः, प्रोदनस्याशितः, पयसो घ्राणः । पूरण-तीर्थकराणां षोडशः, चक्रधराणां पञ्चमः शान्तिः, चक्रधराणां द्वितीयः सगरः, वासुदेवानां तृतीयः स्वयंभूः। अव्यय-राज्ञः साक्षात्, ग्रामस्य पुरस्तात्, चैत्रस्य कृत्वा, मैत्रस्य प्रकृत्य, अव्ययीभावस्याप्यन्वर्थाश्रयणात्क्वचिदव्ययत्वम्-तेन चैत्रस्योपकुम्भमित्यत्र समासो न भवतीति केचित् । अतृश्-रामस्य द्विषन्, रावणस्य द्विषन् ।25 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] बृहत्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ८६.] शतृ-चैत्रस्य पचन्, अध्वगानां धावन्तः शीघ्रतमाः, चैत्रस्य पक्ष्यन् । पानश्चैत्रस्य पचमानः, चैत्रस्य पक्ष्यमाणः, सर्वत्र संबन्धे षष्ठी । एतैरिति किम् ? ब्राह्मणस्य कर्तव्यं ब्राह्मणकर्तव्यम् । इध्मवश्चनः, पलाशशातनः राज्ञः पाटलिपुत्रकस्य धनम्, शुकस्य माराविदस्य शब्दः, सर्पिषः पीयमानस्य गन्धः, सूत्रस्याधीयमानस्यार्थ इत्यादौ सामानाधिकरण्ये धनादिपदापेक्षा षष्ठीत्यसा-5 मर्थ्यात्समासो न भवति, विशेषणसमासस्तु निरपेक्षत्वेन सामर्थ्याद्भवत्येव, पाटलिपुत्रकश्चासौ राजा च तस्य पाटलिपुत्रकराजस्येत्यादि। षष्ठीसमासे तु अनियमेन पूर्वनिपातः स्यात् ।। ८५ ।। न्या० स०-तृप्तार्थः । तृप्तोऽर्थोऽभिधेयो येषां, पूरणेत्यत्र अभेदोपचारात् पूरणप्रत्यया गृह्यन्ते । सति तृप्तसुहितयोः 'ज्ञानेच्छा' [ ५. २. ६२. ] इति क्तः पूर्णे कर्मणि 10 क्तः। आशिते शील्यादित्वात् क्तः घ्राणे 'गत्यर्था' [ ३. ४. ११. ] इति क्तः । ग्रामस्य पुरस्तादिति अव्युत्पन्नमव्ययं व्युत्पत्तौ तु 'रिरिष्ट' [ २. २. ८२. ] इति षष्ठ्या विधानात् समासो न प्राप्नोत्येव । अध्वगानामिति अत्राऽपि संबन्धे षष्ठी न निर्धारणे तस्य सतोऽप्यविवक्षा। माराविदस्येति मारमावेत्ति मारवित् तस्याऽपत्यं 'ङसोऽपत्ये' [६. १.२८.] अण् । सर्वत्र संबन्धे षष्ठीति कर्मजषष्ठ्यपि न समस्यते, चैत्रस्य कर्मत्व-15 भृतो द्विषन् । अनियमेन पूर्वनिपातः स्यादिति 'षष्ठ्ययत्न' [ ३. १. ७६.] इत्यत्र विशेषणविशेष्ययोर्द्व योरपि प्रथमोक्तत्वात् विशेषणसमासे तु प्रधानानुयायिनो व्यवहारा इति न प्रागनिपातः। पाटलिपुत्रकस्येति चतुर्यु उदाहरणेषु यथासंख्यं धनं गृहं गन्धः अर्थश्च ज्ञेयानि ।। ३. १. ८५ ॥ 20 ज्ञानेच्छार्थािधारक्तेन ॥ ३. १. ८६ ॥ ज्ञानार्थादिन्छार्थादर्चार्थाच्च वर्तमानो यः क्तो यश्च 'अद्यर्थाच्चाधारे' [५. १. १२.] इत्याधारे विहितस्तदन्तेन नाम्ना षष्ठयन्तं नाम न समस्यते । राज्ञां ज्ञातः, राज्ञां बुद्धः, राज्ञामिष्टः, राज्ञां मतः, राज्ञाचितः, राज्ञां पूजितः, इदमेतेषां यातम्, इदमेषां यातम्, इदमेषामासितम्, इदमेषां भुक्तम्, इदमेषां पीतम् । कथं राजपूजितः राजमहितः, राजसंमतः, कलहंसराममहितः ? 25 कृतवान् इति बहुलाधिकारात् इष्टेन भूतकालक्त न तृतीयासमासा एत इति केचित् । अन्ये तु कृद्योगजाया एव षष्ठया इह समासप्रतिषेध इति संबन्ध षष्ठीसमासा एत इत्याहुः ।। ८६ ।। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ८७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४७७ न्या० स०--ज्ञानेच्छा०। ज्ञानेच्छा र्थाश्च आधारश्च तेषां क्त इति शकटन्यासः, सर्वत्र कर्तरि षष्ठी, सत्याधारे च क्तविधानात् 'क्तयोरसदाधारे' [२. २. ९१.] इति षष्ठ्या न निषेधः । इष्टेनेति 'तेन प्रोक्त' [ ६. ३. १८१.] इत्यतस्तृतीयाधिकारे यदुपज्ञात इत्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययं विधत्ते तत् ज्ञापयति, न वर्तमाने काले विहितोऽयं क्तप्रत्ययः किंतु भूते काले, तथा राजपूजित इत्यादावपि । तृतीयासमासा इति अत्र भूते 5 तविधानात् 'क्तयोरसदाधारे' [२. २. ६१. ] इति षष्ठीनिषेधात् तृतीयासमासा इत्यर्थः । कृद्योग जाया इति कर्तृ कर्मविहिताया इत्यर्थः ।। ३. १. ८६ ।। अस्वस्थगुणैः ॥ ३. १. ८७ ॥ ये गुणाः स्वात्मन्येवावतिष्ठन्ते न द्रव्ये ते स्वस्थाः, तत्प्रतिषेधेनास्वस्थगुणवाचिभिर्नामभिः सह षष्ठयन्तं नाम न समस्यते । पटस्य शुक्लः,10 काकस्य कृष्णः, गुडस्य मधुरः, चन्दनस्य सुरभिः, घृतस्य तीव्रः, कुकुमस्य मृदु:-अत्र अर्थात्प्रकरणाद्वापेक्ष्यस्य वर्णादेर्निर्ज्ञाने य इमे शुक्लादयस्ते पटादेरिति सामोपपत्तेः समासः प्राप्नोतीति प्रतिषिध्यते। तथा-पटस्य शौक्ल्यम्, काकस्य कार्ण्यम्, गुडस्य माधुर्यम्-एषु पूर्वेषु च शुक्लादेर्गुणस्य शुक्लः पट इत्यादौ द्रव्येऽपि वृत्तिप्रदर्शनात् अस्वास्थ्यमस्त्येव । गुणशब्देन चेह15 लोकप्रसिद्धा रूपरसगन्धस्पर्शगुणा अभिप्रेतास्ततः तद्विशेषैरेवायं प्रतिषेधःतेन यत्नस्य गौरवं-यत्नगौरवम्, वचनगौरवम्, प्रक्रियालाघवम्, बुद्धिकौशलम्, मतिवैगुण्यम्, करणपाटवम्, पुरुषसामर्थ्यम्, अङ्गसौष्ठवम्, हस्तचापलम्, वचनमार्दवम्, उत्तरपदार्थप्राधान्यम्, क्रियासातत्यम्, वर्तमानसामीप्यम्, सत्सामीप्यम्, अधिकरणैतावत्यम्, प्रयोगान्यत्वम्, गतताच्छील्यम्, पटहशब्दः,20 नदीघोषः, वचनप्रामाण्यम्, शब्दाधिक्यम्, वाङ्माधुर्यम्, गोविंशतिः, गोत्रिंशत्, गोशतम्, गोसहस्रम्, समाहारैकत्वमित्यादिषु प्रतिषेधो न भवति । अस्वस्थगुणैरिति किम् ? घटवर्णः, कन्यारूपम्, कपित्थरसः, चन्दनगन्धः, स्तनस्पर्शः, बहुलाधिकारात्कण्टकस्य तैक्ष्ण्यम्, वृषलस्य धाष्टर्य मित्यादिषु समासो न भवति, कुसुमसौरभ्यम्, चन्दनसौरभमित्यादिषु25 भवतीति ।। ८७ ॥ न्या० स०-अस्वस्थगु०। स्वात्मन्येवावतिष्ठन्त इति ननु द्रव्याश्रयी गुण इति गुणलक्षणं ततः कथमिदमिति ? सत्यं, अभिधाव्यापारापेक्षया स्वस्थत्वं गुणानां यतः Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते... पा० १. सू० ८८.] शौक्ल्यादिशब्दैर्द्धर्ममात्रमेवाभिधीयते। सुरभिरिति सुष्, रभते 'पदिपठि' ६०७ । (उणादि) इति इ प्रत्ययः, आगमस्यानित्यत्वात् 'रभोऽपरोक्षा' [ ४. ४. १०२. ] इति न। अर्थात् प्रकरणाद् वेति ननु शुक्लादिवर्णादेविशेषणम्, पटस्य शुक्लो वर्ण इति ततश्च पटादेर्वण्र्णादिना संबन्धो न तु शुक्लादिविशेषणेनेति पष्ठ्यन्तस्य समासप्राप्तिरेव नास्तीत्याशङ्का। अस्वास्थ्यमस्त्येवेति गुणग्रहणेन ये गुणा द्रव्यस्य विशेषणं भवन्ति, 5 शुक्ल: पट इत्यादौ ये च भूतपूर्वगत्या ट्यणाद्यन्ताः शौक्ल्यादयस्तेऽपि गृह्यन्ते, यतः शुक्लशौक्ल्यमिति, एवं मधुरमाधुर्यादीनामपि । ननु अनेनैव व्याख्यानेन पटस्य शुक्ल इत्यादिष्वेव निषेधः प्राप्त: यतो यथा शुक्ल: पट इत्यादौ द्रव्येऽपि वृत्तिस्तथा न शौक्ल्यशब्दस्य द्रव्ये वृत्तिर्यत: शौक्ल्यशब्देन गुणमात्रमेवाभिधीयते न द्रव्यम् ? उच्यते, यद्यपि शौक्ल्यशब्दो द्रव्ये न वर्तते तथापि शौक्ल्यशब्दो गुणवचनः, ततो यद्यप्ययं द्रव्यं वक्तु 10 न शक्नोति तथापि आत्मीयशुक्ललक्षणेन शब्देन यदि वादयति तहि भवत्येव, आत्मीयत्वं चानयोर्गुणमात्रवृत्तित्वात्, यथा कश्चित् पुमान् भार्यायाः पार्थात् पित्रोभक्ति कारयति ततो यद्यात्मना न करोति तथापि भक्ति कुर्वन्नभिधीयते एवमत्राऽपि भविष्यति । तद्विशेषरेवायमिति तद्विशेषाश्च शुक्लादयो मधुरादयः सुरभ्यसुरभी शीतादयश्च गुणा गृह्यन्ते, तेषामेव द्रव्य विशेषणत्वसंभवात्, तेन रूपादीनां न ग्रहः, न हि ते द्रव्यस्य विशेषणं भवन्ति 15 पटो रूपं, गुडो रसः, चन्दनं गन्धः स्तनस्पर्शः इति । रूपादिविशेषा ये शुक्लादयस्त एव गृह्यन्ते, तेन गौरवादयः संख्यादयो वैशेषिकप्रसिद्धाश्च न गृह्यन्ते । वाङ्माधुर्यमिति रसनेन्द्रियग्राह्य एव रसो लोके मधुरशब्दस्य रूढोऽत्र तूपचारादिति न गुडस्य माधुर्यमितिवनिषेधः, यतो गौणमुख्यन्यायेन मुख्यो लौकिको गुणः समासाभावं प्रयोजयतीति । बहलाधिकारादिति ननु कण्टकस्य तेक्षण्यमित्यादौ तक्षा , ततो20 द्वीन्द्रियग्राह्याणां न गुणत्वं किं त्वेकेन्द्रियग्राह्याणामेवेति वैशेषिकमतम्, ततः समासः प्राप्तः, कुसुमसौरभ्यमित्यादौ च पटस्य शौक्ल्यमितिवत् समासाभावप्रसङ्गस्तदेतदुभयं कथमित्याशङ्का ।। ३. १८७ ।। सप्तमी शौण्डायैः ॥ ३. १. ८८ ॥ सप्तम्यन्तं नाम शौण्डाद्यैर्नामभिः सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो25 भवति । पाने प्रसक्तः शौण्ड:-पानशौण्डः, पानशौण्डो मद्यपः, अक्षेषु प्रसक्तःशौण्ड इव अक्षशौण्डः, शौण्डशब्द इह गौणो व्यसनिनि वर्तते, वृत्तौ प्रसक्तिक्रियाया अन्तर्भावादप्रयोगः, अक्षधूर्तः। अक्षकितवः । शौण्ड धूर्त, कितव, व्याल, सव्य, प्रायस, व्यान, सवीण, अन्तर, अधीन, पटु, पण्डित कुशल, चपल, निपुण, सिद्ध, शुष्क, पक्व बन्ध, बहुवचनमाकृतिगणार्थम् 130 तेन शिरः शेखरः, हस्तकटकः, आपातरमणीयः, अवसानविरसः, पृथिवीविदितः, Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू०८६-६१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४७६ पृथिवीप्रणतः, अन्तेगुरुः, मध्येगुरुः, 'ऋणेऽधम'-अधमर्णः, 'ऋणे उत्तमः'उत्तमर्णः, राजदन्तादित्वात्परनिपात इत्यादि सिद्धं भवति ।। ८८ ।। न्या० स०--सप्तमी०। व्यालेति व्याङ पूर्वादडतेरचि लत्वे च। प्रायसेति आयस्यतीत्यचि अलस इत्यर्थः । व्यानेति अनितेर्घत्रि आनस्ततो विवृद्ध आनो बलमस्य आसक्त इत्यर्थः। सवीरणेति सह वीण इव दक्षिण इत्यर्थः, इह गौरण इति 5 परमार्थतो मद्यप: शौण्ड इत्युच्यते व्यसनी तु गौणवृत्त्या, आपतनं भावे घत्रि आपाते प्रारम्भे रमणीय आपातरमणीयः ।। ३. १.८८ ।। सिंहाथै पूजायाम् ॥ ३. १. ८६ ॥ सप्तम्यन्तं नाम सिंहाद्यैर्नामभिः सह समस्यते, पूजायां गम्यमानायाम्, तत्पुरुषश्च समासो भवति । समरे सिंह इव-समरसिंहः । एवं रणव्याघ्रः,10 भूमिवासवः, कलियुधिष्ठिरः, उपमयात्र पूजावगम्यते बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ८६ ॥ काकाद्यै क्षेपे ॥ ३. १. ६० ॥ सप्तम्यन्तं नाम काकाद्यैर्नामभिः सह समस्यते, क्षेपे गम्यमाने, तत्पुरुषश्च समासो भवति। तीर्थे काक इव तीर्थकाकः, एवं तीर्थध्वाङ्क्षः,15 तीर्थवायसः, तीर्थबकः, तीर्थश्वा, तीर्थसारमेयः, तीर्थकुक्कुटः, तीर्थशृगालः,अनवस्थित एवमुच्यते, उपमया चात्र क्षेपो गम्यते । क्षेप इति किम् ? तीर्थे काकस्तिष्ठति, वहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ६० ।। न्या० स०--काका० । तीर्थसारमेय इति सारो मेयोऽस्य यद्वा सरमा शुनी तस्या अपत्यं 'चतुष्पाभ्य एयञ्' [ ६. १. ८३. ] कुकुर इत्यर्थः । अनवस्थित इति20 यथा काकादिस्तीर्थफलमजानन् अचिरस्थायी भवत्येवं यो देवदत्तादिः कार्याण्यारभ्य तेष्वनिर्वाहक: स तीर्थाधारेण काकादिनोपमीयमानः क्षिप्यत इत्यस्ति क्षेपस्य गम्यमानतेत्याह-अनवस्थितेत्यादि ।। ३. १. ६० ।। .... . पात्रसमितेत्यादयः ॥ ३. १. ६१ ॥ पात्रेसमितादयः सप्तमीतत्पुरुषा निपात्यन्ते, क्षेपे गम्यमाने । पात्र एव 25 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० 1 बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० १. सू० १.] समिताः, पात्रेसमिताः, एवं पात्रेबहुलाः, गेहेशूरः, गेहेदाही, गेहेक्ष्वेडो, गेहेनर्दी, गेन । गेहमेव विजितमनेन गेहेविजिती, - 'इष्टादे:' [ ७. १. १६८. ] इतीनि 'व्याप्येक्ते`न.' [२. २. ६६.] इति सप्तमी, एवं गेहेविचितो, गेहेव्यालः, गेहेपटुः, गेहेपण्डितः, गेहेप्रगल्भः, गोष्ठेशूरः, गोष्ठेक्ष्वेडी, गोष्ठेनर्दी, गोष्ठेविजिती, गोष्ठेव्यालः, गोष्ठेपटुः, गोष्ठेपण्डितः, गोष्ठेप्रगल्भः, - एषु प्रवधारणेन क्षेपो 5 गम्यते । उदुम्बरे मशक इव उदुम्बरमशकः, एवमुदुम्बरकृमिः, कूपकच्छप:, कूपमण्डूकः, अवटकच्छपः, अवटमण्डूकः, उदपानमण्डूकः, अल्पदृश्व' वमुच्यते, नगरकाकः, नगरवायसः, नगरश्वा एतैः सदृशो धृष्ट उच्यते, उदुम्बरमशकादिषूपमया क्षेपो गम्यते । गेहेमेही, पिण्डीशूरः, -य आवश्यकार्थमपि बहिर्न निर्गच्छति, भोजन एव च संरभते स एवमुच्यते, 10 अत्रावधारणेन निरुत्साहता तया च क्षेपो गम्यते । पितरिशूरः, मातरि - पुरुष:, - यः सदाचारं भिनत्ति स एवमुच्यते, - - त्र प्रतिषिद्धासेवनेन क्षेपो गम्यते । गर्भेधीरः, गर्भेशूरः, गर्भेसुहितः, गर्भेतृप्तः, गर्भेदृप्तः, -योऽलीकाभिमानित्वादनुचितचेष्टः स एवमुच्यते, तत एव च क्षेपो गम्यते । कर्णेटिरिटिरि:, 15 कर्णेचुरुचुरः, कर्णेटिरिटिरा, कर्णेचुरुचुरा, - चापलेनानुचितचेष्टोच्यते,टिरिटिरीति गत्यनुकरणम्, चुरुचुर्विति वाक्यानुकरणम् । तत् करोति रिजन्तादप्रत्ययो निपातनसामर्थ्याच्चानो न भवति । इतिशब्दः समासान्तरनिवृत्त्यर्थः–तेन परमाः पात्रेसमिताः, पात्रेसमितानां पुत्रः इत्यादिषु समासो न भवति । निपातनात् सप्तम्या अलुप् बहुवचनम् प्राकृतिगणार्थम्, 20 तेन-व्ररणकृमिः, गृहसर्पः, गृहकलविङ्कः, आखनिकबक: इत्यादयो गृह्यन्ते ।। ६१ ।। न्या० स० —— पात्रेस ० । गेहेक्ष्वेडीति त्रिक्ष्विदाङ् इति धातो क्ष्विद: स्थाने विडं केचित् पठन्ति, गेहे एव क्ष्वेडते 'ग्रहादिभ्यो णिन् ' [ ५. १. ५३. ] एवमग्रेतनद्वये । गेहमेव विजितमनेनेति 'व्याप्ये क्तेन:' [२. २. ६६ ] इत्यनेन क्तप्रत्ययान्तात् यस्तद्धित 25 इन् तदन्तस्य व्याप्ये वर्त्तमानात् सप्तमी विहितेति प्रथमान्तेन विग्रहः, यद्वा अर्थकथनमिदं गेहेविजीतीत्येव क्रियते । गेहेविचितीति - गेहमेव विचितं गवेषितमनेन यथादृष्टं Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६२-६३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४८१ विचिन्वता तेन गवेषयतेत्यर्थः। अवधारणेनेति पात्रेसमिता इत्यत्र पात्रशब्देन पात्रसहचारिभोजनं लक्ष्यते ततो भोजन एव समिता मिलिता: सन्ति न कार्यान्तरे इत्यवधारणात् क्षेपो गम्यते। उदपानमण्डूक इति । उदकं पीयतेऽस्मिन् 'नाम्न्युत्तर' [ ३. २. १०७. ] इति उदादेशः। भोजन एवेति पिण्डीशब्द: ख्यापयितव्योपलक्षणमित्युक्त भोजन एवेति । गर्भधीर इति । गर्भ एव स्थैर्यादियुक्तो गर्भान्निःसृत्य तु चापलादिदोषयुक्तः 5 इत्यर्थः । चापलेनान्विति-कणे किमपि जल्पित्वा जीवति नास्य विक्रमाद्गुण इति क्षेपो गम्यते । प्राकृतिगरणार्थमिति पत्र प्राकृतिः सादृश्यं तत्प्रधानो गण आकृतिगणः, अथवा आकृतिशब्देन जातिरुच्यते सा यथा सकला व्यक्तीाप्नोति तद्वत् यः प्रचुरशब्दविषयं व्याप्नोति स जातिसादृश्यादाकृतिगणः। सप्तम्या अलुबिति ननु पात्रेसमितेत्यादि-10 कृत्प्रत्ययान्तेषु 'तत्पुरुषे कृति' [ ३. २. २०. ] इति शेषेषु 'अद्व्यञ्जनात्' [३. २. १८.] इत्यलुप् प्राप्तस्तत् किं निपाताश्रयेण? सत्यं, ताभ्यां बहुलं संज्ञायां चालुबुक्त त्याहनिपातनादिति ।। ३. १. ६१ ।। क्ते न ॥ ३. १. ६२ ॥ सप्तम्यन्तं नाम क्तान्तेन नाम्ना सह समस्यते, क्षेपे गम्यमाने, तत्पुरुषश्च15 समासो भवति । भस्मनिहुतम्, प्रवाहेमूत्रितम्, उदकेविशीर्णम्,-निष्फलं कृतमेवमुच्यते, अवतप्तेनकुलस्थितम्, कार्येष्वनवस्थितत्वमुच्यते,-सर्वत्रोपमानेन क्षेपो गम्यते । नित्यसमासाश्चैते पात्रेसमितादयश्च ।। ६२ । न्या० स०--क्तन०। नित्यसमासाश्चैते इति वाक्यस्य क्रियाकारकसंबन्धमात्रप्रत्यायकतया क्षेपप्रतिपादने सामर्थ्याभावात् समासस्यैव तत्र सामर्थ्यात् ।। ३. १. ६२ ।। 20 तबाहोरात्रांशम् ॥ ३. १. ६३ ॥ पृथग्योगात्क्षेप इति निवृत्तम् । तत्रेत्येतत्सप्तम्यन्तं नामाहरवयवा रात्र्यवयवाश्च सप्तम्यन्ताः क्तान्तेन नाम्ना सह समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति । तत्रकृतम्, तत्रभुक्तम्, पूर्वाह णे कृतं पूर्वाह णकृतम्एवमपराह णकृतम् । पूर्वरात्रकृतम्, अपररात्रकृतम्, तद्धिताद्युत्पत्तिः25 समासफलम्-तात्रकृतिः। तत्राहोरात्रांशमिति किम् ? घटे कृतम् । कथमन्यजन्मकृतं कर्मेति ? 'कारकं कृता' [३. १. ६६.] इति तृतीयासमासोऽयम् । अहोरात्रग्रहणं किम् ? शुक्लपक्षे कृतम्,-पक्षो मासांशः । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १ सू० ६४-६५.] अंशग्रहणं किम् ? ग्रहनि भुक्तम् । एतत्तु ते दिवा वृत्तं रात्रौ वृत्तं तु द्रक्ष्यसि । कथं रात्रिवृत्तम् संध्यागजितमिति - बहुलाधिकारात् । क्तेनेत्येव ? तत्र भोक्ता, पूर्वाह्णे भोक्ता ।। ६३ ।। ४८२ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते न्या० स० -- तत्राहोरा० । पृथग्योगादिति तत्राहोरात्रांश च क्तनेति चकारादन्यत् नाम । तत्रेति सप्तम्यन्तमिति सप्तमी साधर्म्यात् त्रप् प्रत्ययोऽप्यत्र सहमी साधर्म्यं S पुनस्त्रपोऽधिकरणार्थता यथैव ह्यधिकरणार्थप्रत्यायनाय सप्तमी प्रयुज्यते तथा त्रपीति ।। ३. १. ६३ ।। नाम्नि ॥ ३.१.६४ ॥ सप्तम्यन्तं नाम नाम्ना समस्यते, नाम्नि संज्ञाविषये, समदायश्चेत्संज्ञा. भवति स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । अरण्येतिलकाः, प्ररण्येमाषकाः, 10 वनेकशेरुकाः, वनेवल्वजाः, कूपेपिशाचिकाः, वनेहरिद्र काः, पूर्वाह, स्फोटकाः, अपराह ्मणेस्फोटकाः, तथा स्तूपेशाणः, मुकुटेकार्षापणः, हलेद्विपदिका, - सप्तम्या अलुप, नित्यसमासोऽयम्, नहि वाक्येन संज्ञा गम्यते ॥ ६४ ॥ न्या० स०-- नाम्नि । अरण्येतिलका इति तिलप्रकारा माषप्रकाराः 'कोण्वादेः' [ ७. २. ७६. ] इति कः । कशेरुकवल्वज वृक्षविशेषौ तृणे च । पिशाचिका भट्टारिका 115 सप्तम्या अलुबिति अरण्येतिलका इत्यादिषु 'प्रद्व्यञ्जनात्' [ ३. २. १८. ] इत्यनेन स्तूपेशा इत्यादिषु तु 'प्राक्कारस्य ' [ ३. २. १६. ] इत्यनेन ।। ३. १. ९४ ।। कृद्येनावश्यके ॥ ३. १. ६५ ।। सप्तम्यन्तं नाम 'य एच्चातः [ ५.१.२८ ] इति कृद्यप्रत्ययान्तेन नाम्ना समस्यते, आवश्यकेऽवश्यंभावे गम्यमाने, तत्पुरुषश्च समासो भवति |20 मासेऽवश्यं देयम्- मासदेयम्, एवं संवत्सरदेयम्, पूर्वाह, रोगेयम्, प्रातरध्येयम्, ग्रामदेयम्, नगरदेयम् । कृदिति किम् ? मासे पित्र्यम् । य इति किम् ? मासे स्तुत्यः, मासे पाच्यम्, मासे दातव्या भिक्षा । संवत्सर कर्तव्यमिति तु बहुलाधिकारात् । आवश्यक इति किम् ? मासे देया भिक्षा ।। ६५ ।। न्या० स ० -- कृद्य ना० । मासेऽवश्यमिति 'यद्भावो भावलक्षणम्' [२. २.25 १०६.] इति सप्तमी मासे गते देयमिति हि मासादिभावो लक्ष्यते इति । अथवा मासाद्येक ** Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १६. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४८३ देशे मासादिशब्द इत्याधार एव सप्तमी । अन्यथा उपचारं विना समग्रेऽपि मासे देयमिति यदि विवक्ष्यते तथा 'कालाध्वनोर्व्याप्तौ ' [ २. २.४२. ] इति द्वितीया स्यात् । मासदेयमिति मासस्य पूरके त्रिंशत्तमे दिने देयमित्यर्थः । प्रयमपि नित्यसमासो यतो न समासे अवश्यंशब्दस्य प्रयोग इति न्यासः । 'तत्पुरुषे कृति ' [ ३. २.२० ] इत्यलुप्प्राप्ती बाहुलकात् सप्तम्याः लोपः, निरनुबन्धन्यायात् क्यपध्यणोर्ग्रहरणाभावे मासे स्तुत्येत्यादौ न 5 समासः । मासे दातव्या भिक्षेति प्रर्थवद्ग्रहणे इति न्यायात् कृत्तव्यप्रत्ययैकदेशस्य यकारस्य न ग्रहणम् ।। ३. १. ६५ । विशेषणं विशेष्येणैकार्थं कर्मधारयश्च ॥ ३. १.६६ ॥ विशिष्यते ऽनेकप्रकारं वस्तु प्रकारान्तरेभ्यो व्यवच्छिद्यतेऽनेनेति विशेषणं, व्यवच्छेद्यं विशेष्यम्, भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयोः शब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिरैकार्थ्यं 10 सामानाधिकरण्यमिति यावत्, तद्वदेकार्थम् । विशेषणवाचि नामैकार्थं विशेष्यवाचिना नाम्ना सह समस्यते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । नीलं च तदुत्पलं च नीलोत्पलम्, कृष्णाश्च ते तिलाश्च कृष्णतिलाः, पुमांश्चासौ गौश्च पुंगवः, मोषिका चासौ गौश्च मोषिकगवी, । विशेषण - विशेष्ययोः संबन्धिशब्दत्वादेकत रोपादानेनैव द्वये लब्धे द्वयोरुपादानं परस्पर-15 मुभयोर्व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकत्वे समासो यथा स्यादित्येवमर्थम्, तेनेह न भवति, - तक्षकः सर्पः, लोहितस्तक्षक इति, - न ह्यसर्पोऽन्यवरर्णो वा तक्षकोऽस्ति । कथं तहि आम्रवृक्षः ? शिशपावृक्षोऽस्तपर्वत इत्यादी समासो न ह्यवृक्ष प्रात्रः शिशपा वा भवति ? - नात्राम्रादयः शब्दा वृक्षविशेषाणामेव वाचकाः किं तर्हि फलादेरपि तत्सहचरित माधुर्यस्थैर्यादेर्गुणविशेषस्य च एवं च तक्षकाहि: 20 शेषाहिरित्यादयोऽपि भवन्ति । यदि वा आम्रारणां फलानां संबन्धी वृक्षः आम्रवृक्षः, एवं शिशपावृक्ष:, अस्तस्य पर्वतोऽस्तपर्वतः, एवमुदयपर्वतः इत्यादयः षष्ठीसमासा द्रष्टव्याः । " विशेषणत्वे उभयोश्च विशेष्यत्वे सति विशेष्यस्यापि विशेषणत्वमित्युत्पलशब्दस्यापि नीलादिना समासप्रसङ्गः तथा च 'प्रथमोक्त 25 प्राक्' [३. १. १४८.] इति वचनादुत्पलनीलमित्यपि स्यात् नैवम्, अविशेषेऽपि विशेषणविशेष्यभावस्य ' प्रधानानुयाय्यप्रधानम्' इति न्यायात् Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ६६.] अप्रधानस्यैव प्रधानेन समासः । प्राधान्यं च द्रव्यशब्दानां द्रव्यस्यैव साक्षात्क्रियाभिसंबन्धात्, यद्यपि चोत्पलादिशब्दा जातिशब्दास्तथापि उत्पत्तेः प्रभृत्याविनाशाद्रव्येण जातेरभिसंबन्धाद्रव्यशब्दा उच्यन्ते, गुणक्रिययोस्तु तथा द्रव्येण संबन्धाभावान्न तन्निमित्ताः शब्दा द्रव्यशब्दा इति नीलोत्पलमित्याद्येव भवति, न तूत्पलनीलादीति । यस्तु गुणादिशब्दानामेव समासस्तत्रोभयोरपि 5 पदयोरप्रधानत्वात्कामचारेण पूर्वापरनिपातः-खजश्वासौ कुण्टश्व खञ्जकुण्टः, एवं कुण्टखञ्जः, शुक्लकृष्णः, कृष्णशुक्लः, एवं रोहितपाण्डुः २, हरितबभ्र : २, पूर्वा चासावुत्तरा च पूर्वोत्तरा, एवमुत्तरपूर्वा, दक्षिणपूर्वा, पूर्वदक्षिणा-विदिक्, पाचकपाठक, पाठकपाचकः-पुरुषः, कृष्णसारङ्गः, कृष्णशबलः, कृष्णकल्माषः इत्यादौ तु गुणशब्दत्वेऽपि सारङ्गादिशब्दानां समुदायवाचित्वात्प्राधान्यम्10 कृष्णादिशब्दानां त्ववयववाचित्वेनाप्राधान्यम् इति कृष्णादीनामेव पूर्वनिपातः । एकार्थमिति किम् ? वृद्धस्योक्षा वृद्धोक्षा। कर्मधारये तु समासान्तः स्यात्बहुलाधिकारात्क्वचित्समासो न भवति-रामो जामदग्न्यः, अर्जुनः कार्तवीर्यः, दीर्घश्चारायणः, क्वचिन्नित्यः-कृष्णसर्पः, लोहितशालिः, गौरखरः, लोहिताहिः, नरसिंहः, पुरुषमृगः, करिमकरः, बकटिट्टिभः, नकुलसर्पः, पक्षिमार्जारः,15 कुक्कुटसर्पः,-जातिविशेषवाचित्वान्नित्यसमासा एते। न हि वाक्येन जातिर्गम्यते, जातिशब्दानां चावयवद्वारेण समुदायेऽपि वृत्तेः सामानाधिकरण्यम्, भूयोऽवयवाभिधायिनश्च प्राधान्याद्विशेष्यत्वमितरस्य तु विशेषणत्वम् । चकारस्तत्पुरुषकर्मधारयसंज्ञा समावेशार्थः । कर्मधारयप्रदेशाः 'कडारादयः कर्मधारये' [३. १. १५८.] इत्यादयः ।। ६६ ।। 20 न्या० स०--विशेषणं । वृत्तिरेकार्थ्यमिति एक: साधारणोऽर्थो द्रव्यलक्षणस्तदतदात्मको यस्य तदेकार्थं तस्य भावः । तक्षकः सर्प इति । सर्प इति विशेष्यं तक्षक इति विशेषणम्, व्यतिक्रमेण तु तक्षको विशेष्यमेव, न ह्यस्य सर्पो विशेषणं घटतेऽसंभवात् । लोहितस्तक्षक इति लोहित इति विशेष्यं तक्षको विशेषणं व्यत्ययेन तु तक्षको विशेष्यमेव लोहित इति विशेषणं न भवति तस्य रक्तत्वाव्यभिचारात् । शिशपा वा भवतीति न च25 वाक्येऽपि, तर्हि वृक्षादिप्रयोगो न स्यादिति वाच्यं, द्वौ द्विरदावितिवद्गतार्थस्याऽपि लोके प्रयोगदर्शनात्, यद्वा पूर्व वृक्षप्रयोगात् सामान्यावगतेविशेषावगमाय शिंशपेति प्रयुज्यते । एवं च तक्षकाहिरिति यतस्तक्षकशेषशब्दावहिगुणादावपि वर्त्तते । तक्षक: सर्प इत्यादौ तु तद्गुणविवक्षायामपि बाहुलकान्न भवति, विशेषणविशेष्यद्वयोपादानं हि बाहुलक Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ६७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४८५ प्रपञ्चार्थम् । प्राधान्यं च द्रव्यशब्दानामिति नीलादि अन्याश्रितत्वादप्रधानमुत्पलं तु तस्याश्रयत्वात् प्रधानं । उत्पलं हि द्रव्यरूपत्वात् क्रियासिद्धये साक्षादुपयुज्यमानं प्राधान्येन विवक्ष्यते, नीलस्तु गुणत्वात् द्रव्यव्यवधानेन क्रियायामुपयोगादुत्पलस्य विशेषणं संपद्यते इति । ननु प्राधान्यं च द्रव्यशब्दानामित्युक्तमुत्पलादयस्तु जातिशब्दास्तत्कथमित्याहयद्यपीति । यस्तु गुणादीति आदिशब्दात् द्रव्यक्रिययोर्ग्रहः, क्रिया पाचक इत्यादिका 5 दर्शितैव, द्रव्यं यथा दण्डी चासौ धन्वी चात्राऽपि पूर्वनिपाते कामचारः । पदयोरप्रधानत्वादिति द्रव्यव्यवधानेन क्रियायामुपयोगात् । पूर्वोत्तरेति रविपरिवर्तनसंयोगेन दिश उच्यन्ते अतोऽत्रापि गुणः प्रवृत्तिनिमित्तम् । पूर्वदक्षिणा विदिगिति विदिगित्युपलक्षणं तत्संबन्धिन्यन्यत्राऽपि देशादौ भवति । सारङ्गो वर्णसमूहः, अर्जुनः कार्तवीर्य इति कृतं वीर्यं येन तस्यापत्यमिति 'ऋषिवृष्णि'10 [६. १. ६१.] इत्यण । कृष्णसर्प इत्यादिषु चतुर्यु उदाहरणेषु गुणवचनत्वात् कस्य पूर्वनिपातः ? इत्याह-भूयोवयवाभिधायिन इत्यादि । जातिशब्दानामिति यद्येवं कथं कृष्णसर्पशब्दयोः समानाधिकरण्यं द्वयोरेव तयोर्जातिविशेषवाचकत्वादित्याशङ्का चकारस्तत्पुरुषेति अत्र अनुवर्तते या तत्पुरुषसंज्ञा तया अस्याः कर्मधारयसंज्ञायाः समावेशो यथा स्यादित्येवमर्थश्चकारः। समावेशार्थ इति । यदि च चकारस्तत्पुरुष इत्यस्यानुकर्षणार्थ15 इत्युच्येत तदा चानुकृष्टं नोत्तरत्र इति विज्ञायेत ॥ ३. १. ६६ ॥ पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलम् ॥ ३. १. ६७ ॥ पूर्वकाल इत्यर्थनिर्देशः पूर्वः कालो यस्यार्थस्य स पूर्वकालः, तद्वाचि नामैकादीनि चैकार्थानि परेण नाम्ना सह समस्यन्ते, तत्पुरुषः कर्मधारयश्च समासो भवति, पूर्वकालः संबन्धिशब्दत्वादपरकालेन । पूर्वं स्नातः20 पश्चादनुलिप्तः-स्नातानुलिप्तः, एवं लिप्तवासितः, कृष्टमतीकृता भूमिः, छिन्नप्ररूढो वृक्षः, एकशब्दः संख्यान्यसहायाद्वितीयेषु वर्तते,-एका शाटीएकशाटी, शाटशब्देन त्वनभिधानान्न भवति-एकः शाट:, एकर्षयः, एकचौरः, एकधनुर्धरः, सर्वशब्दो द्रव्यावयवप्रकारगुणानां कात्स्न्यें वर्तते-सर्वशैलाः, सर्वरात्रः, सर्वान्नम्, । सर्वशुक्लः, जरत्-जरद्गवः, जरद्राजः, जरद्वलिनः,25 पुराण-पुराणवैयाकरणः, नव-नवोदकम्, नवोक्तिः, केवल-केवलमसहायं ज्ञानं केवलज्ञानम्, केवलजरत्, केवलपुराणम् । एकार्थमित्येव ? • स्नात्वानुलिप्तः,-स्नात्वेत्यसत्त्ववाचिनो नानुलिप्तपदेनैकार्थ्यम् । पूर्वेणैव सिद्धे पुनर्वचनं स्पर्द्ध परमिति पूर्वनिपातस्य विषयप्रदर्शनार्थम् पूर्वापरकालवाचि Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ६८.] नोरद्रव्यशब्दत्वादनियमे प्राप्ते पूर्वकालवाचिन एव पूर्वनिपातनाथ । च ।। ६७ ।। न्या० स०--पूर्वकालक०। पूर्वकालेत्यस्य कृतद्वंद्व रेकादिभिद्वंद्वः, यदि पुनरेकादिभिरकृतद्वद्वे: पूर्वकालेत्यस्य द्वंद्वः क्रियेत तदैकशब्दस्य स्वराद्यदन्तत्वात् पूर्वनिपातः स्यात्तथा च सर्वेषामेकरूपतायां स्वरूपग्रहणे पूर्वकालेत्यर्थनिर्देश इति यद् वक्ष्यते तदुपपन्न 5 न स्यात् । मतोकृतेति मतमस्या अस्तीति मतिनी क्षेत्रभूमिः, अमतिनी मतिनी कृतेति च्वौ पुवद्भावे दीर्घत्वे च मतीकृता, अथवा मतं लोष्टमईनकाष्ठं तदस्या अस्ति अभ्रादित्वादप्रत्ययः, ततोऽमता मता कृतेति, अद्रव्यशब्दत्वादिति शेषः, एतच्चोपलक्षणमेकादीनामपि, यदा क्रियाशब्देन वा सामानाधिकरण्यं तदा पूर्वेण समासे खञ्जकुण्टादिवत् पूर्वनिपातस्यानियमः स्यादुभयोरपि पूर्वोत्तरपदयोविशेषणत्वादिति, केवलं न चेति कृते 10 अकेवलमेव भवति, यतोऽयं योगो 'विशेषणं विशेष्येण' [३. १. ६६.] इति प्राप्तौ तत्समासश्च सर्वत्र विशेषणम्' [ ३. १. ६६.] इति सूत्रस्य बाधकः, अतो नत्रा सह सर्वोऽपि कर्मधारयो न भवति ।। ३. १. ६७ ।। दिधिकं संज्ञातधितोत्तरपदे ॥ ३. १. ६८ ॥ दिग्वाचि अधिकमित्येतच्च नामैकार्थं परेण नाम्ना सह समस्यते,15 संज्ञायां तद्धिते च प्रत्यये विषयभूते उत्तरपदे च परतः स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । दक्षिणाः कोशला:-दक्षिणकोशलाः, उत्तरकोशलाः, दक्षिणपञ्चालाः, उत्तरपञ्चालाः,-एवंनामानो जनपदाः, पूर्वेषुकामशमी, अपरेषुकामशमी, पूर्वकृष्णमृत्तिकाः, अपरकृष्णमृत्तिकाः,एवंनामानो ग्रामाः, संज्ञायां नित्यसमासः, नहि वाक्येन संज्ञा गम्यते,20 पूर्वोत्तरविभागप्रदर्शनार्थं तु विग्रहवाक्यम्, तद्धिते-दक्षिणस्यां शालायां भवःदाक्षिणशालः, एवमौत्तरशालः, पौर्वशालः, आपरशालः, अधिकं खल्वपिअधिकया षष्टया क्रीत:-अधिकां षष्टि भूतो भावी वा अधिकषाष्टिकः, एवमधिकसाप्ततिकः,-अयमपि नित्यः समासः, न हि तद्धिते वाक्यमस्ति, उत्तरपदे, दक्षिणो गौर्धनमस्य दक्षिणगवधनः, एवमुत्तरगवधनः, पूर्वगवीप्रियः,25 अपरगवीप्रियः, अधिकगवप्रियः, अधिकगवीप्रियः,-एषु तत्पुरुषलक्षणः समासान्त:, उत्तरपदेऽपि नित्यसमासः, त्रयाणामेका भाव एवोत्तरपदसंभवात्-तत्र च द्वयोर्व्यपेक्षाभावात् । संज्ञादिग्रहणं किम् ? उत्तरा वृक्षाः । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [ पा० १. सू० 28. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४८७ ‘विशेषणं विशेष्येण' - [ ३.१.६६ . ] इत्येव सिद्धे नियमार्थं वचनम् । दिगधिकं संज्ञातद्धितोत्तरपद एव समस्यते नान्यत्रेति । दक्षिणा गावोऽस्य सन्ति दक्षिणगुरित्यादौ सन्तीत्येतदनपेक्षयान्तरङ्गत्वेन बहुव्रीहिभावादुक्तार्थत्वेन मत्वर्थीयतद्धितविषयभाव एव नास्तीत्यनेन समासो न भवति ।। ६८ ।। न्या० स० -- दिगधि० । दिग्वाचीति एतदपि च न दिश्येव वर्त्तमानमपि तु 5 तद्वारेण जनपदादौ च वस्त्वन्तर इति अर्थप्रधानो निर्देशः । संज्ञायां तद्धिते चेति एकापि सप्तम्युत्पन्ना विषयभेदात् यथालक्ष्यं भिद्यते इति । विग्रहवाक्यमिति विभिन्न गृह्यतेऽनेनऽस्मिन् वा बाहुलकात् 'पुन्नाम्नि घः ' [ ५. ३. १३०. ] विग्रहं च तत् वाक्यं च विग्रहवाक्यम् । यद्वा विग्रहरणं 'युवर्ण' [ ५.३.२८. ] इत्यल् विग्रहस्तस्य वाक्यं । न हि तद्धिते वाक्यमस्तीति तद्धिता हि नाम्न उत्पद्यन्ते न तु समासारम्भकात् वाक्यात् ।10 पूर्वगवीप्रिय इति मतान्तरेणेदमुदाहरणं स्वमते तु प्रणाद्यन्तान्नाम्नो ङीरुक्तोऽत्र तु पूर्वगवीप्रिय इत्येवंरूपस्य नामत्वे पूर्व्वगवीत्यस्य नामत्वाभावे ङीर्न स्यात् ।। ३. १. ६८ ।। संख्या समाहारे च विगुश्चानाम्न्ययम् ॥ ३.१.६६ ॥ अनेकस्य कथंचिदेकत्वं समाहारः । संख्यावाचि नाम परेण नाम्ना सह समस्यते, संज्ञातद्धितयोर्विषयभूतयोरुत्तरपदे परे समाहारे चाभिधेये सच 15 समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । अयमेव चानाम्नि प्रसंज्ञायां द्विगुसंज्ञश्च भवति । संज्ञायाम् - पञ्चाम्राः, दशाम्राः, पञ्चर्षयः, सप्तर्षयः, दशार्हाः, पञ्चवटाः, दशवटाः, फलित एकः पञ्चाम्रः पुष्पितौ द्वौ पञ्चाम्रौ उदितास्त्रयः सप्तर्षयः, तद्धिते-द्वयोर्मात्रोरपत्यं द्वैमातुरः पाञ्चनापितिः, पञ्चसु कपालेषु संस्कृत प्रोदनः पञ्चकपाल प्रोदनः, पञ्चभ्यो जनेभ्यो हित: 20 पञ्चजनीनः, अध्यर्धेन कंसेन क्रीतः अध्यर्धकंसः एवमध्यर्धशूर्पः, अर्धतृतीयैः शूर्पै: क्रीतः अर्धतृतीयशूर्पः, एवमर्धपञ्चमशूर्पः, उत्तरपदे पञ्च गावो धनमस्य पञ्चगवधनः, पञ्च नाव: प्रिया यस्य स पञ्चनावप्रियः, द्व े अहनी जातस्य द्वचन्हजातः, अध्यर्धा नौर्धनमस्य अध्यर्धनावधन, अर्धतृतीया नावो धनमस्य अर्धतृतीयानावधनः समाहारे, - पञ्चानां पूलानां समाहारः पञ्चपूली, 25 दशपूली, पञ्चानां राज्ञां समाहारः पञ्चराजी, दशराजी, एवं पञ्चकुमारि, दशकुमारि, अध्यर्धानां पूलानां समाहारः अध्यर्धपूली, अर्धपञ्चमपूली । समाहारे चेति किम् ? अष्टौ प्रवचनमातरः, - 'विशेषणं विशेष्येण' , Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ६६.] इत्यादिनापि न भवति, नियमार्थत्वादस्य । एकस्य समाहारायोगादपूपेन समासे । कथमेकापूपी-एकस्याप्यनेकपर्यायोपनिपातिनोऽनेकत्वसंभवे समाहारोपपत्तेः । द्विगुश्चेति चकारः कर्मधारयतत्पुरुषसंज्ञा समावेशार्थः । अनाम्रीति किम् ? पञ्चर्षीणामिदं पाञ्चर्षम्, एवं दाशार्हम्,-अत्र द्विगुत्वेऽनपत्यप्रत्ययस्य लुप् स्यात् । अयंग्रहणमुत्तरत्र द्विगुश्चेत्यस्याननुवृत्त्यर्थम् । द्विगुप्रदेशाः 'द्विगोः 5 समाहारात्' [२. ४. २२.] इत्यादयः ॥ ६६ ।। न्या० स०--संख्या स०। पञ्चाम्रा इति सन्निवेशादिविशेषविशिष्टानां पञ्चानामाम्राणामियं संज्ञा। फलितः एकः पञ्चाम्र इति समुदायेषु हि वृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते इति बहुसंख्याकाम्राद्यभिधायकोऽपि पञ्चाम्रादिशब्द एकस्मिन्नप्याम्रादो प्रयुज्यत इति । अध्यर्द्ध कंस इति अत्र 'कंसार्द्धात्' [ ६.४. १३५. ] इतीकट 10 क्रीतेऽर्थे 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' [ ६. ४. १४१.] । पञ्चनावप्रिय इति मतान्तरेऽपि बाहुलकाद् बाधन्ते, स्वार्थिकाः क्वचिदित्यतो वा ङीन, स्वमते तु अणन्तानाम्नो विहितेति न प्राप्नोत्येव । द्वचह्नजातः त्रिमासजात इत्याद्यर्थमुत्तरग्रहणं कर्त्तव्यमेव अन्यथा द्विगुविषयाभावात् 'कालो द्विगौ च मेयैः' [३. १. ५७.] इति समासाप्रवृत्तिः स्यादतो न वाच्यं, तद्धितविषयेऽप्येषु समासो भविष्यतीति। पञ्चानाम् पूलानां समाहार इति15 समाहारः समूहः इति सामूहिकप्रत्ययः प्राप्नोति ? न, समासेनैव तस्योक्तत्वात् । ननु समाहारसमूहयोरेकार्थत्वात् तद्धित इत्येव समासो भविता किं समाहारग्रहणेन, अथ तद्धितोत्पत्तिः प्राप्नोतीति चेत् उत्पद्यतां द्विगुत्वात् 'द्विगोरनपत्ये' [६. १. २४.] इति लुप् भविष्यति इति न काचिद् हानिरिति ? सत्यं, 'परिमाणात्तद्धित' [ २. ४. २३. ] इति नियमात् पञ्चपूलीत्यादी 'द्विगो: समाहारात्' [२. ४. २२. ] इति डीन स्यात्,20 तथा पञ्चकुमारि इत्यादौ 'ङ यादेगौणस्य' [२. ४. ६५. ] इति हु यादेर्लोपः स्यात् । पञ्चगवमिति 'वाञ्चलेरलुकः' [ ७. ३. १०१. ] इत्यधिकृते 'गोस्तत्पुरुषात् [७. ३. १०५.] इत्यट् न स्यात् । अद्ध पञ्चमपूलीति संज्ञातद्धितोत्तरपदेषु नित्यसमासः, समाहारे तु विकल्पस्तत्र वाक्यमपि हि भवति, पञ्चानां पूलानां समाहार इति । समावेशार्थ इति तेन गोस्तत्पुरुषात्25 पञ्चसर्वविश्वादित्यादि सिद्धम् । अयंग्रहणमिति यद्ययमिति सूत्रांशो न स्यात्ततो यथा कर्मधारयश्चेत्यनुवर्तते तथा द्विगुश्चेत्युप्युत्तरत्रानुवर्ततेति वक्ष्यमाणा अपि समासा द्विगुसंज्ञाः स्युः, ततः परमा नौः परमनौरिति 'नावः' [७. ३. १०४.] इति समासान्तः स्यात्, समाहारे दिक्शब्दो न संभवति, समाहारो हि मूर्त्तानां युगपत्कालानां संभवति इति समाहारोदाहरणं दिग्शब्देन न दर्शितम्, पञ्च च ते गावश्चेत्यपि कृते समासान्त-30 विषयेऽपि कृते समासान्तविषये समासो भवत्येव, ततः पञ्चगवा इत्यादयोऽपि ।। ३. १.६६ ॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १००-१०१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४८६ निन्द्यं कुत्सनैरपापाद्यैः ॥ ३. १. १०० ॥ निन्द्यवाचि नामैकार्थं पापादिवजितैः कुत्सनैनिन्दाहेतुभिः सह समस्यते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । वैयाकरणश्चासौ खसूची च वैयाकरणखसूची, यः शब्दं पृष्टः सन्निष्प्रतिभत्वात् खं सूचयति स एवमुच्यते, वैयाकरणखसूचिरित्यन्ये,याज्ञिककितवः, अयाज्ययाजनात्तृष्णापरः,मीमांसकदुर्दु- 5 रूढः, दुर्दुरूटो नास्तिकः, क्षत्रियभीरुः, भिक्षुविटः, मुनिखेट:, ब्राह्मणचेलः, ब्राह्मणब्रुवः, राक्षसहतकः, ब्राह्मणजाल्मः, तापसापशदः, काण्डीरकाण्डपृष्टः, ग्राम्यधृष्टः, मुनिधूर्तः, कविचौरः, आरक्षितस्करः, पाषण्डिचाण्डालः । निन्द्यमिति किम् ? वैयाकरणश्चौरः-प्रत्यासत्तेनिन्द्यशब्दप्रवृत्तिनिमित्तकुत्सायामयं समास इष्यते, न चात्र चौर्येण वैयाकरणत्वं कुत्स्यते, किं तर्हि ? तदाश्रयो10 द्रव्यम्,-वैयाकरणत्वं तदुपलक्षणमात्रम्, तेनात्र विशेषणसमासो भवति-चौरवैयाकरणः खलवैयाकरणः । कुत्सनैरिति किम् ? कुत्सितो ब्राह्मणः । बहुलाधिकाराद्विशेषणसमासोऽप्यत्र न भवति, भवतीत्यन्ये-कुत्सितब्राह्मणः । अपापाद्यैरिति किम् ? पापवैयाकरणः, अणकवैयाकरणः,-प्रवृत्तिनिमित्तमेव कुत्स्यते, एवं पापकुलालः, अणकनापितः, हतविधिः, दग्धदैवम्, दुष्टामात्याः,15 क्षुद्रतापस इत्यादि । विशेष्यस्य पूर्वनिपातार्थं वचनम् । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।। १०० ।। न्या० स०-निन्द्य। काण्डीरकाण्डपृष्ट इति शस्त्राजीवः काण्डस्पृष्टः । आरक्षी इत्यत्र 'ग्रहादिभ्यो णिन्' [ ५. १. ५३. ] कुत्सितो ब्राह्मण इति । न हि ब्राह्मणः कुत्सनवचनः, अपि तु कुत्स्य एवेति व्यावृत्तिबलान्न समासः, ब्राह्मणश्चासौ कुत्सितश्चेत्यपि20 कृते कुत्सितशब्दस्य पापाद्यङ्गीकारादनेनाऽपि न समासः, पापवैयाकरणाणकवैयाकरणयोः पूर्वनिपाते कामचारः शेषेषु जातिशब्देषु पूर्वनिपात एव विशेषणस्य ।। ३. १. १०० ।। उपमानं सामान्यैः ॥ ३. १. १०१॥ उपमीयतेनेनेत्युपमानम्, उपमानोपमेययोः साधारणो धर्मः सामान्यम्, उपमानवाचि नामैकार्थं सामान्यवाचिभिर्नामभिः सह समस्यते स, च समास-25 स्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । शस्त्रीव शस्त्री, शस्त्री चासौ श्यामा च शस्त्रीश्यामा-शस्त्रीव श्यामेत्यर्थः, एवं न्यग्रोधपरिमण्डला, शरकाण्डगौरी, Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १०२.] शुकहरिणी, कुमुदश्येनी, तडित्पिशङ्गी, तित्तिरिकल्माषी, कुम्भकपाललोहिनी, । मृगीव मृगी सा चासौ चपला च मृगचपला, एवं हंसगद्गदा, काकवन्ध्या,अत्र शस्त्र्यादयः शब्दाः श्यामादयश्च श्यामादिकं गुणमुपादय यदोपमेये वर्तन्ते तदैकार्था भवन्ति । एवं च पुंवद्भावोऽपि सिद्धो भवति । उपमानमिति किम् ? देवदत्ता श्यामा । सामान्यैरिति किम् ? अग्निर्माणवकः । गौर्वा-5 हीकः, फालास्तन्दुलाः, पर्वता बलाहकाः । 'विशेषणं विशेष्येण' [३. १. ६६.] इत्येव समासे उपमानोपमेययोः साधारणधर्मप्रतीत्यन्यथानुपपत्त्यै । पूर्वनिपाते च सिद्धे उपमानं सामान्यैरेवेति नियमार्थं वचनम्-तेनाग्निर्माणवक इत्यादौ विशेषणसमासोऽपि न भवति ।। १०१ ।। न्या० स०-उपमानं । समानस्य भावः वर्णदृढादित्वात् ट्यण , फालास्तन्दुला10 इति फाला इव दीर्घत्वाद् विशदत्वात् खरत्वाद् वा उपमेयमेतन्न पुनः साधारणधर्मवाचि । न्यग्रोधश्चासौ परिमण्डला च अनया रीत्या वाक्यं कार्यम् । कुमुदं च तत् श्येनी च कुमुदश्येनी। नियमार्थमिति शस्त्रीश्यामेत्यादौ गुणमुपादाय प्रवर्त्तमानेन शस्त्र्यादिना श्यामादेविशेषणाच्छ्यामशस्त्रीत्युक्त पि साधारणधर्मप्रतीत्यभावादुपमानस्य समासे पूर्वनिपाते च सिद्धे विधिरारभ्यमाणो विध्यसंभवान्नियमार्थो भवति ।। ३. १. १०१ ॥ 15 उपमेयं व्याघ्राद्यै। साम्यानुक्तौ ॥ ३. १. १०२ ॥ उपमेयवाचि नामैकार्थं सामर्थ्यादुपमानवाचिभिर्व्याघ्राद्यैर्नामभिः सह समस्यते, साम्यानुक्तौ न चेदुपमानोपमेययोः साधारणधर्मवाची शब्दः प्रयुज्यते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । व्याघ्र इव व्याघ्रः पुरुषः स चासौ व्याघ्रश्च पुरुषव्याघ्रः, एवं पुरुषसिंहः, पुरुषवृषभः, वृषभसिंहः,20 राज्ञी चासौ व्याघ्री च राजव्याघ्री, शुनी चासौ सिंही च श्वसिंही,-अत्रापि कर्मधारयात् पुंवद्भावः । साम्यानुक्ताविति किम् ? पुरुषव्याघ्रः शूर इति मा भूत् । इदमेव च प्रतिषेधवचनं ज्ञापकम्-प्रधानस्य सापेक्षत्वेऽपि समासो भवति-तेन राजपुरुषो दर्शनीय इत्यादि सिद्धम् । व्याघ्र, सिंह, ऋषभ, वृषभ, महिष, चन्दन, वृक, वराह, हस्तिन्, कुञ्जर, रुरु, पृषत, पुण्डरीक, पलाविका25 क्रुञ्चा। बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन-वाग्वज्रः, मुखपद्म, पाणिपल्लवं, करकिसलयं, वदनेन्दुः, पार्थिवचन्द्रः, वानरश्वा, कुचकुम्भस्तनकलशांदयोऽपि Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० १०३ - १०४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४९१ भवन्ति । उपमानं सामान्यैरेवेत्यवधारणेन विशेषणसमासे प्रतिषिद्धे समासविधानार्थं वचनम् ।। १०२ ।। न्या० स० - - उपमेयं० । शब्दः प्रयुज्यत इति । यदा प्रकरणादिवशान्नियतसाधारणगुणप्रतिपत्तौ व्याघ्रादिशब्दः शौर्यादौ पुरुषार्थे एव वर्त्तते तदा साम्यानुक्तौ सामानाधिकरण्ये सति समासो भवति । यदा तु गुणान्तरव्यवच्छेदाय विशिष्टसाधारण - 5 गुणप्रतिपत्तये शूरादिशब्दप्रयोगस्तदा साम्यानुक्तिग्रहणात् समासाभावः । पुरुषव्याघ्रः शूर इति । नन्वत्र व्याघ्रः शूर इति व्याघ्रपदस्य शूरपदाऽपेक्षयाऽपि समासो न भविष्यति किं प्रतिषेधेन ? इत्याह- इदमेव चेति । पलाविकेति पलतेरचि तस्याविका पलाविका पक्षिणी ।। ३ १ १०२ ।। पूर्वापर प्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीरम् 10 ।। ३. १. १०३ ॥ पूर्वादीनि नामान्येकार्थानि परेण नाम्ना सह समस्यन्ते स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । पूर्वश्चासौ पुरुषश्च पूर्वपुरुषः, एवमपरपुरुषः, प्रथमपुरुषः, चरमपुरुषः, जघन्यपुरुषः, समानपुरुषः, मध्यपुरुषः, मध्यमपुरुषः, वीरपुरुषः । 'विशेषणं विशेष्येण' - [ ३. १. ε६. ] इत्यादिनैव 15 सिद्धे स्पर्धे परमिति पूर्वनिपातस्य विषयप्रदर्शनार्थमद्रव्यवाचिनोरनियमेन पूर्वापरभावप्रसक्तौ पूर्वनिपातनियमार्थं वचनम् - तेन पूर्वजरन्, वीरपूर्वः, पूर्वपटुः । कथमेकवीर इत्यादौ वीरादेः परस्य स्पर्धे पूर्वनिपातो न भवति ? बहुलाधिकारात् ।। १०३ ।। न्या० स० -- पूर्वापर० । पूर्व्वपुरुष इत्यादि । दिग्वाचकत्वेऽपि सूत्रोपादान - 20 सामर्थ्यात् समासः, न तु दिगधिकमित्यनेन निषेधः । पूर्व्वपटुरिति पूर्व्वशब्दो दिग्योगेन कालयोगेन वा द्रव्यं विशिनष्टि, पटुशब्दश्च पटुत्वेन । तत्र विशेषरणसमासे द्वयोरपि गुणवचनविशेषणत्वात् खञ्जकुण्टादिवदनियमेन पूर्वनिपातः स्यात् । बहुलाधिकारादिति अत्र सुधाकरस्त्वाह यद्यप्येकवीर इति शिष्टप्रयुक्तस्तथापि शिष्टप्रयोगात् साक्षात् स्मृतिरेव बलीयसीत्यसाधुरेवायमिति । ३. १. १०३ ।। श्रेण्यादि कृताद्यैश्च्व्यर्थे ॥ ३. १. १०४ ॥ श्रेण्यादि नामैकार्थं कृताद्यैर्नामभिः सह समस्यते, च्व्यर्थे गम्यमाने, स 25 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । अश्रेणयः श्रेणयः कृताःश्रेणिकृताः पुरुषाः, अनूका ऊकाः कृता ऊककृताः, - राशिस्थानीकृता इत्यर्थः, एवं पूगकृताः, श्रेणिमताः, श्रेणिमिताः, श्रेणिभूताः । व्यर्थे इति किम् ? श्रेणयः कृताः, किंचित् निगृहीता अनुगृहीता वेत्यर्थः - च्व्यन्तानां च्व्यर्थस्य च्विनैवोक्तत्वान्नानेन समासः, च्व्यर्थे हि समासेनाभिधेयेऽयं समासो भवति, 5 गत्यादिसूत्रेण तु नित्यसमासो भवत्येव, श्रेणीकृताः, ऊकीकृताः, श्रेणि, ऊक, पूग, कुन्दुम, कन्दुम, राशि, निचय, विशिष्ट, निधन, कृपण, इन्द्र, देव, मुण्ड, भूत, श्रमरण, वदान्य, अध्यायक, अध्यापक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, पटु, पण्डित, कुशल, चपल, निपुण - इति श्रेण्यादिः । कृत, मत, मित भूत, उप्त, उक्त, समाज्ञात, समाख्यात, समाम्नात, संभावित, अवधारित, अवकल्पित, निराकृत, 10 उपकृत, अपकृत, कलित, उदाहृत, उदीरित, उदित, दृष्ट, विश्रुत, विहित, निरूपित, आसीन, प्रस्थित, अवबद्ध इति कृतादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । यत्र सामर्थ्यं नास्ति तत्रेतिशब्दाध्याहारो द्रष्टव्यः - निर्धना निर्धना इत्युपकृता, अचपलाश्चपला-इत्यपाकृता, प्रभूता भूता इति निराकृताः । श्रेणिकृता इत्यादौ क्रियाकारकसंबन्धमात्रं न विशेषण 15 विशेष्यभाव इति वचनम् ।। १०४ ।। ४ε२ ] [ पा० १. सू० १०४. ] न्या० स० -- श्रेण्यादि ० । एकशिल्पपण्यजीविनां संघः श्रेणिः । च्व्यर्थः प्रागतत्तत्त्वलक्षणः स चेत् सस्य भवति न च्चिप्रत्ययः । व्यर्थे गम्यमाने इति । यद्यप्युत्तरपदार्थप्रधानोऽयं समासस्तथाप्युपसर्जनतया व्यर्थोऽपि प्रतीयते । उपसर्जनमपि ह्यर्थो भवति । केति श्रवते : 'विचिपुषि' २२ ( उणादि ) इति कित् कः, कुकेः कुन्दुमः । कन्दु स्वेदनिकां20 मिमीते कन्दुमः कान्दविकः । निचयः समूहः गन्धद्रव्यं च । ब्रह्म प्रणतीति कर्मणोऽरिण पृषोदरादित्वात् प्रकारलोपे दीर्घवे च । यत्र सामर्थ्यमिति श्रथ चपलापाकृता इत्यादौ चपलादीनां व्यर्थवृत्तीनामपाकृतादिभिः सामर्थ्याभावात् कथं समास: ? इत्याशङ्का श्रेणिकृता इत्यादाविति नन्वत्रापि विशेष्यभावोऽस्ति यतः कृताः के कर्म्मतापन्नाः श्रेणयः तन्न यतो न हि श्रेणयः एवंविधं विशेषणं किंतु प्रश्रेणयः श्रेणय इति पश्चात् श्रेणय25 इत्युक्त श्रेय इत्यपेक्षते इति श्रेणय इति न भवत्येव किन्तु करणक्रियापेक्षया कारकमेवेति क्रियाकारकसंबन्ध एव । यतो यथा नीलोत्पलमिति नील एव विशेषणशब्दोऽस्ति, तथाऽत्र श्रेरणय एवंविधो न यतो अश्रेणय इत्यपेक्षते. इति ।। ३. १. १०४ ॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू. १०५-१०६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६३ क्तं नादिभिन्नैः ॥ ३. १. १०५॥ नत्रादयो नप्रकाराः तैरेव भिन्न मिभिः सह क्तान्तं नामैकार्थ सामर्थ्यादनञ् समस्यते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । कृतं च तदकृतं च कृताकृतम्, एवं भुक्ताभुक्तम्, अशितानशितम् । इटः क्तावयवत्वाद्विकारस्य त्वेकदेशविकृतानन्यत्वान्न भेदकत्वम्, तेन 5 क्लिष्टाक्लिशितं,पूतापवितं, शाताशितं, छाताच्छितम्, आदिग्रहणात्कृतापकृतम्, भुक्तविभुक्तम्, पीतावपीतम् । क्तमिति किम् ? कर्तव्यमकर्तव्यं च । नत्रादिभिन्न रिति किम् ? कृतं प्रकृतम् । कृताकृतादिषु हि ईषदसमाप्तिद्योतकस्य नत्रः प्रयोगात् तदादयोऽपीषदसमाप्तिद्योतिन एवापादयो गृह्यन्ते । नादिभिरेव भिन्न रित्यवधारणं किम् ? कृतं चाविहितं चेति प्रकृतिभेदे,10 कृतं चाकर्तव्यं चेति प्रत्ययभेदे, गतश्च प्राप्तोऽगतश्चाज्ञात इत्यर्थभेदे, सिद्धं चाभुक्त चेति प्रकृत्यर्थयोर्भेदे च माभूत् । अवयवधर्मेण समुदायव्यपदेशात् कृताकृतादिष्वैकार्थ्यम् । 'विशेषणं विशेष्येण'-[३. १. ६६.] इत्येव समासः सिद्धः किंतु क्रियाशब्दत्वादनियमेन पूर्वापरनिपाते प्राप्ते पूर्वनिपातनियमार्थं वचनम्,-तेनाकृतकृतम् अनशिताशातमित्यादि न भवति ।। १०५ ॥ 15 न्या० स०--क्तं नमा०। न हि नत्रादयः पठ्यन्ते इत्यादिशब्दः प्रकारवाचीत्याह-नजादयो नप्रकारा इति । विसमाप्तिवचनोऽत्र नञ् । तेन विसमाप्तिद्योतिनो नन्प्रकाराः। विसमाप्तिश्च ईषन्निष्पत्तिरीषदपरिसमाप्तिर्वा नत्रादिभिन्नैरित्यत्र विनाऽप्येवकारेण तदर्थावगतिरस्ति सावधारणाधिक्ये भिन्नशब्दस्य वर्तमानत्वात् । यथा देवदत्तो यज्ञदत्तात् स्वाध्यायेन भिन्न इति, अत्र स्वाध्यायेनैव भिन्नो विशिष्टोऽधिक इति सर्वमन्यदाढ्य-20 त्वादि तुल्यमिति प्रतीयते। तैरेवेति न प्रकृत्या प्रत्ययेन शब्दान्तरेणार्थेन चेत्यर्थः । कर्तव्यमकर्त्तव्यं अकर्त्तव्यं कर्त्तव्यं चेति, उभयत्राऽपि विशेषसमासो भवत्येव । नत्रादिभिन्नैरिति किमिति । अन्यथा भिन्नैरित्येवोच्येत । कृताकृतादिष्विति ननु नत्रादेरपठितत्वान्नमोऽव्ययत्वात्तदादिग्रहणे प्रशब्दस्याव्ययस्य कुतो न ग्रहणं येनापादय एव दर्श्यन्ते ? इत्याशङ्का-अवयवधर्मेणेति अयमर्थः एकमनेकावयवं भवतीत्येकस्यावयवस्य कृतत्वादव-25 यवावयविनोः कथं चितभेदात्तदेकं कृतमुच्यते ? अवयवान्तरस्य त्वकृतत्वादकृतमित्येकस्य कृतत्वाकृतत्वयोः संभवादैकार्थ्यात् कृताकृतव्यपदेशो युज्यत इत्यर्थः ।। ३. १. १०५ ।। सेड्नानिटा ॥ ३. १. १०६ ॥ सेट् क्तान्तं नाम नत्रादिभिन्न नानिटा नाम्ना न समस्यते, पूर्वस्यापवादः । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] [ पा० १ सू० १०७-१०८. ] क्लिशितमक्लिष्टम्, पवितमपूतम्, इङ्ग्रहरणमर्थभेदाहेतोर्विकारस्य उपलक्षणम्,– तेन शिताशितम्, छिताच्छातमित्यादि न भवति । कथं विन्नावित्तं त्राणात्रातम् ? 'क्तादेशोऽषि' [ २. १. ६१. ] इति परे समासे नत्वस्यासत्त्वाद्भविष्यति । सेडिति किम् ? कृताकृतम् । शाताशातम्, छाताच्छातम् । अनिटेति किम् ? अशितानशितेन जीवति, - शिताशितम्, 5 छिताच्छितम् ।। १०६ ।। बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते न्या० स० - - सेड़ना० । उपलक्षरणमिति तेन सविकारमविकारेण न समस्यते इत्यपि सिद्धम् । कथं विन्नावित्तमिति ? - नन्वत्र विकारौ शब्दसादृश्यासादृश्यकृती नान्यकार्यापेक्षा इत्यत्राऽपि निषधः प्राप्नोतीत्याशङ्का ।। ३. १. १०६ ।। सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टं पूजायाम् ॥ ३. १. १०७ ।। 10 सदादीनि नामान्येकार्थानि पूजायां गम्यमानायां सामर्थ्यात्पूज्यमानवचनैर्नामभिः सह समस्यन्ते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । संश्चासौ पुरुषश्च सत्पुरुषः, एवं महापुरुषः, परमपुरुषः, उत्तमपुरुषः, उत्कृष्टपुरुषः । पूजायामिति किम् ? सन् घटः विद्यमान इत्यर्थः, उत्कृष्टो गौः कर्दमादुदृत इत्यर्थः । कथं महाजनः महोदधिः इति वैपुल्यं ह्यत्र गम्यते 15 न पूजा ? बहुलाधिकाराद्भविष्यति पूजायामेवेति नियमार्थं वचनम् पूर्वनिपातव्यवस्थार्थं च, तेन सच्छुक्ल इत्यादौ खञ्जकुटादिवदनियमेन पूर्वनिपातो न भवति । परमजरन् महावीरः परममहान् इत्यादौ च स्पर्धे परमिति यथापरं पूर्वनिपातश्च सिद्धो भवति ।। १०७ ।। न्या० स० -- सन्महत्० । परमपुरुष इति अत्र परमं चासौ न चेति कृते अपरम-20 मेव भवति, यतोऽयं योगो 'विशेषरणं विशेष्येण ' [ ३. १. १६. ] इति सूत्रस्य बाधक : अतो नत्रा सह सर्वोऽपि कर्म्मधारयो न । उत्तमपुरुष इति उत्ताम्यतीति अचि उत्तम । उगतार्थवृत्तेरुच्छब्दाद् वा तमप् । द्रव्यप्रकर्षवृत्तित्वाच्चामभावः ।। ३. १. १०७ ।। वृन्दारकनागकुञ्जरैः ॥ ३. १. १०८ ॥ पूजायां गम्यमानायामेभिर्नामभिः सामर्थ्यात्पूज्यमानवचनं नामैकार्थं 25 समस्यते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । वृन्दारक इव Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १ सू० १०६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६५ वृन्दारकः, गौश्वासौ वृन्दारकश्च गोवृन्दारकः, एवमश्ववृन्दारकः, गोनागः, अश्वनागः, गोकुञ्जरः श्रश्वकुञ्जरः, वृन्दारकादीनां जातिशब्दत्वेऽपि उपमानात्पूजावगतिः । पूजायामित्येव ? शोभना सीमा स्फटा यस्य स सुसीमो नागः, -नात्र नागशब्दः पूजां गमयति किंतु जातिमात्रम् । देवदत्तो नाग इव मूर्ख इत्यत्र तूपमानेनापि निन्दैव गम्यते । व्याघ्रादेराकृतिगणत्वात् 5 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः साम्यानुक्तौ' [ ३. १. १०२. ] नियमार्थं साम्योक्तावपि विधानार्थं च वचनम् - तेन सिद्धम् ।। १०८ ।। इत्येव सिद्धे पूजायामेवेति गोनागो बलवानित्यादि न्या० स०——-वृन्दारक० । वृन्दारकादीनामिति ननु वृन्दारकादयो जातिशब्दा न ते सदादिवत् पूजावचनाः कथं तैः समासे पूजा गम्यते ? इत्याह- उपमानादिति 110 अयमर्थः वृन्दारकादिगताः केचित् पूजानिमित्ता गुणाः स्वप्रवृत्तिनिमित्तैकार्थसमवायितया वृन्दारकादिशब्दैरुच्यन्ते तद्गतगुणोक्तावेव चोपमेयताऽपि । यथा संग्रामे विचरत्येष पुरुषः पुरुषो यथा । एवं वृन्दारकादिगुणप्रतिपादनपरे प्रयोगे उपमानगत्या पूजा गम्यत इत्यर्थः । सुसीमो नाग । इति अत्र सुसीमः संज्ञाशब्दस्तस्य नागेनाभिधेयं परिच्छिद्यते न तु पूजा प्रतिपाद्यत इत्याह- नात्रेत्यादि । इदं तु पूर्वैर्देशितत्वाद्दर्शितं परमार्थतस्तु नेदं प्रत्युदाहरणम् 115 यदुपाध्यायः सुसीमो नाग इति त्वनागस्य सुसीमत्वाभावात् सुसीमस्य नागविशेषसंज्ञात्वाद् विशेष्यत्वाभावान्न प्रत्युदाहरणमिति । अत एव द्वितीयं प्रत्युदाह्रियते देवदत्तो नाग इव मूर्ख इति । हस्तीव मूर्ख इत्यर्थः । अत्रोपमानेनाऽपि निन्दैव गम्यते न पूजा । कुञ्जरशब्दस्य व्याघ्रादिपाठे प्रयोजनं चिन्त्यम् ।। ३. १. १०८ ।। कतर कतमौजातिप्रश्ने ॥ ३.१.१०६ ॥ कतरकत मावित्येतावेकार्थों जातिप्रश्ने गम्यमाने सामर्थ्याज्जातिवाचिना नाम्ना सह समस्येते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । कतरश्वासौ कठश्च– कतरकठः, एवं कतरकालाप:, कतमकठः, कतमकालापः, कतरगार्ग्यः कतमगार्ग्यः । जातिप्रश्न इति किम् ? गुणक्रियाद्रव्यप्रश्ने न भवति - कतरः शुक्लः, कतमः शुक्लः, कतरो गन्ता, कतमो गन्ता, कतरः कुण्डली, कतमः 25 कुण्डली, - ' विशेषणं विशेष्येण' - [ ३. १. ε६. ] इत्येव सिद्धे जातिप्रश्न एवेति नियमार्थं वचनम् ।। १०६ ।। न्या० स० —— कतरक० । कतमगार्ग्य इति कठ इत्यादि चरणं गार्ग्य इत्यादि 20 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ११०-१११.] गोत्रं, ततो गोत्रं च चरणैः सहेति जातिः। कुण्डलीति ज्योत्स्नाद्यणप्राप्तौ 'शिखादिम्य । इन्' [७. २. ४.] ।। ३. १. १०६ ।। किं क्षेपे ॥ ३. १. ११० ॥ क्षेपो निन्दा, तस्मिन् गम्यमाने किमित्येतन्नामैकार्थमर्थात्क्षिप्यमाणवाचिनाम्ना सह समस्यते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । 5 को राजा किंराजा यो न रक्षति, एवं किंगौर्यो न वहति, किंसखा योऽभिद्र ह्यति, स किंवैयाकरणो यः शब्दं न ब्रूते,-सर्वत्र तत्कार्याकरणात् क्षेपो गम्यते, तथा कुत्सितो नरोश्वमुखत्वात् किंनरः, एवं किंपुरुषः, कुत्सितः शुकः किंचिन्नीलत्वात्किशुकः पलाशः, एवं किजल्कः, किंकिरातमित्यादि'न किमः क्षेपे' [७. ३. ७०.] इति समासान्तप्रतिषेधः। क्षेपे इति किम् ? 10 को राजा मथुरायाम् । 'विशेषणं विशेष्येण'-[३. १. ६६.] इत्येव सिद्धे क्षेपे एवेति नियमार्थं वचनम् ॥ ११० ॥ न्या० स० --कि क्षेपे। जल्कश्चूर्णः-किरातं । काञ्चनारवृक्षस्य पुष्पमित्यर्थः ।। ३. १. ११०॥ पोटायुवतिस्तोककतिपयगुष्टिधेनुवशावेहबष्कयणी-15 प्रवक्तुश्रोत्रियाध्यायकधूर्तप्रशंसासदैर्जा तिः ॥ ३. १. १११ ॥ जातिवाचि नामैकार्थं पोटादिभिर्नामभिः प्रशंसारूढेश्च सह समस्यते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । इभ्या च सा पोटा च इभ्यपोटा, आर्यपोटा, पुरुषवेषवारिणी स्त्री पोटा गर्भ एव दास्यं प्राप्ता वा उभयव्यञ्जना वा भुजिष्यदासी वा, इभ्या चासौ युवतिश्च इभ्ययुवतिः,20 नागयुवतिः, वृन्दारकयुवतिः, अग्निश्चासौ स्तोकं च अग्निस्तोकम्, विषस्तोकम्, दधि च तत् कतिपयं च दधिकतिपयम्, तक्रकतिपयम्, गौश्चासौ गृष्टिश्चेति गोगृष्टिः, अजगृष्टिः, गृष्टि: सकृत्प्रसूता, गोश्चासौ धेनुश्च गोधेनुः, अजधेनुः, धेनुर्नवप्रसूता, गोवशा, अजवशा, वशा वन्ध्या, गोवेहत्, अजवेहत्, वेहद्गर्भघातिनी, गोबष्कयणी अजबष्कयिणी,-बष्कयेण वृद्धवत्सेन या दुह्यते सा25 बष्कयिणी, कठप्रवक्ता कालापप्रवक्ता, प्रवक्ता उपाध्यायः, कठश्रोत्रियः, Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १११.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६७ कालापश्रोत्रियः, श्रोत्रियश्छन्दोऽध्यायी, कठाध्यायकः, कालापाध्यायकः, अध्यायकोऽध्येता, मृगधूर्तः गार्ग्यधूर्तः,-'निन्द्यं कुत्सनैः'-[३. १. १००.] इत्यत्र शब्दप्रवृत्तिनिमित्तकुत्सायां समास उक्त इह तु तदाश्रयकुत्सायां समासो यथा स्यादिति धूर्तग्रहणम् । प्रशंसायां रूढा मतल्लिकादय आविष्टलिङ्गास्तैः समासः,-गौश्चासौ मतल्लिका च गोमतल्लिका, एवमश्वमतल्लिका, गोमचचिका, 5 गोप्रकाण्डम्, पुरुषोद्घः, गोकुमारी, अश्वकुमारी, गोतल्लजकः, कुमारतल्लजकः, तातपादाः, आर्यमिश्राः, केशपाशः, केशहस्तः, अंसभित्तिः, वक्षस्थलम्, कपोलपाली, उरःकपाटः, स्तनतटम्, रूढग्रहणादिह न भवति, गौः रमणीया, गौः शोभना, जातिरिति किम् ? देवदत्ता पोटा, कालाक्षी वशा, चैत्रः प्रवक्ता, मैत्रो मतल्लिका, विशेष्यस्य जातेः पूर्वनिपातार्थं वचनम् ।। १११ ।। 10 न्या० स०--पोटायुवति। वृन्दारकयुवतिरिति अत्र 'वृन्दारकनागकुञ्जरैः' [३. १. १०८.] इति बाधित्वा परत्वादऽयमेव विधिः । अग्निस्तोकमिति स्तोचनं भावे घनि न्यङ क्वादित्वात् कत्वे स्तोकः । सोऽस्यास्तीत्यत्राभ्राद्यप्रत्यये स्तोकम् । भिन्नलिङ्गयोरपि सामानाधिकरण्यं वरं विरोध इतिवत् । सामान्यविशेषभावेनाऽयं प्रयोगः । तेनाऽग्निस्तोक इत्यपि । वेहदिति विहन्ति गर्भमिति 'संश्चत्' ८८२ (उणादि) इति15 निपातः । बष्कयिणीति बस्कतेरधिपृषोदरादित्वात् 'निष्कतुरष्क' २६ (उणादि) इति वा बष्का तां यातीति ये बष्कयः प्रौढवत् सः, सोऽस्या अस्ति । तदाश्रयकुत्सायामिति न चात्र कठप्रोक्तग्रन्थाऽध्येतृत्वं वेदितृत्वं वा कठशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं तेन कुत्स्यते, किं तर्हि प्रवृत्तिनिमित्तावच्छिन्नमभिधेयम् । प्रशंसायामिति-असति तु रूढग्रहणे जातिगुणशब्दा अपि परं स्तोतुमुपादीयमानाः प्रशंसायां वर्तन्ते इति तेऽपि गृह्य रन् । आविष्टलिङ्गा इति20 उपलक्षणत्वादाविष्टवचनाश्च तेन तातश्च ते पादाश्चेति सिद्धं । आविष्टं आगृहीतमपरित्यक्त स्वं लिङ्ग यैः । लिङ्गान्तरसंबन्धेऽपि न विशेष्यलिङ्गमुपाददते । मतल्लिकेति मया लक्ष्म्या तल्लातीति 'कुशिक' ४५ (उणादि) इति निपातः । मचिकेति मां लक्ष्मी चर्चयतीति के 'ङ यापो वा' [ २. ४. ६६. ] इति ह्रस्वत्वे । प्रकाण्डमिति प्रकृष्टतया कण्यते 'कण्यरिण' १६६ (उणादि) इति णिति डे। गोमतल्लि-25 कादयो नित्यसमासाः परमर्थप्रदर्शनार्थमलौकिकं वाक्यं क्रियते । न हि वाक्येन पूजा गम्यते। कुमारी इत्यत्र वयोऽभावात् गौरादित्वात् 'डी' प्रत्ययः । तल्ले आख्यातसरसि जातः सप्तम्या डे तल्लजः । तस्य तुल्ये कप्रत्यये तल्लजकः । यदा द्विरूपो जकारस्तदा लज्जते कर्तरि एकः, स लज्जको यस्य असौ तल्लज्जकः । रूढग्रहणादिति रूढग्रहणस्योक्तरूपमतल्लिकादिपरिग्राहकत्वाद् रमणीयशोभनशब्दयोश्च रमणीयत्वादिगुणमुपादाय 30 प्रशंसायां वर्तमानात्वादाभ्यां जातिर्न समस्यत इति ।। ३. १. १११ ॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ११२-११४.] चतुष्पाद्गभिण्या ॥ ३. १. ११२ ॥ चत्वारः पादा यस्याः सा चतुष्पाद्गवादिजातिः । तद्वाचिनामैकार्थं गभिण्या गर्भिणीति नाम्ना सह समस्यते स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । गौश्चासौ गभिरणी च गोगभिरणी। एवमजभिणी। अश्वभिणी। महिषगर्भिणी। चतुष्पादिति किम् ? 5 ब्राह्मणी गर्भिणी, जातिरित्येव ? कालाक्षी गर्भिणी, स्वस्तिमती गर्भिणी, संज्ञाशब्दाविमौ । जातेविशेष्यस्य पूर्वनिपातार्थं वचनम् ।। ११२ ।। न्या० स०--चतुष्पाद । ब्राह्मणो गभिणीति समासे हि सति ब्राह्मणीशब्दस्य पुवभावः स्यात् । संज्ञाशब्दाविमाविति एतौ चतुष्पादमाहतुर्न तु जाति ॥ ३.१.११२ ।। युवा खलतिपलितजरद्वलिनैः ॥ ३. १. ११३ ॥ 10 युवन्नित्येतन्नामैकार्थं खलत्यादिभिर्नामभिः सह समस्यते, स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । युवा चासौ खलतिश्च युवखलतिः, एवं युवपलितः, युवजरन्, युववलिनः, वलयोऽस्य सन्ति वलिनः, अङ्गादित्वान्नः । नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति युवतिश्चासौ खलतिश्च युवखलतिः, एवं युवपलिता, युवजरती, युववलिना। युवशब्दस्य15 विशेष्यत्वात्परनिपाते प्राप्ते द्वयोर्वा गुणवचनत्वात्खञ्जकुण्टादिवदनियमे पूर्वनिपातार्थं वचनम् ।। ११३ ।। __ न्या० स०-युवा०। युवजरनिति अत्र जरत्युत्साहादियुवधर्मोपलम्भात् यूनि वालस्यादिजरधर्मोपलम्भात् तद्रूपारोपात् सामानाधिकरण्यम् । विशेष्यत्वादिति विशेष्यो युवा शब्दोऽनया रीत्या युवत्वमग्रेऽपि प्रसिद्धं । ततो युवशब्देन पुरुष एवाभिधीयते,20 ततस्तस्य खलतीत्यादि विशेषणं ततः परनिपाते प्राप्ते । अथवा द्वयोरपि गुणवचनत्वं तदा युवत्वमप्रसिद्धं ततो युवशब्देन युवत्वविशिष्टो नरोऽभिधीयते, ततो गुणवचनत्वात् कामचारेण पूर्वनिपाते प्राप्ते । अथवा द्वयोरपि पूर्वनिपातनार्थं वचनमिति ॥ ३.१.११३ ।। कत्यतुल्याख्यमजात्या ॥ ३. १. ११४ ।। कृत्यप्रत्ययान्तं तुल्याख्यं च तुल्यपर्यायं नामैकार्थमजात्याजाति-25 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ११५. ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ४६६ वाचिनाम्ना सह समस्यते स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । भोज्यं च तदुष्णं च भोज्योष्णम्, एवं भोज्यलवरणम्, पानीयशीतम्, पानीयोष्णम्, हरणीयपूर्णो घटः, पेयाम्लम्, भृत्यभरणीयः - एकोऽत्र कृत्योऽर्हार्थेऽपरश्च शक्यार्थे, स्तुत्यपटुः पुरुषः । तुल्याख्य, - तुल्यश्व ेतः, तुल्यसन्, तुल्यमहान्, सदृशश्व ेतः, सदृशमहान् । जात्येति किम् ? भोज्य : 5 ओदनः, तुल्यो वैश्यः । सदृशी कन्या वोढव्या । कथं शीतपानीयम् । पानीयशब्दोऽय मौरणादिको जलवाची तस्यायं विशेषरणसमासः । समासस्याजातेः पूर्वत्वस्य च प्रतिषेधार्थं वचनम् ।। ११४ ।। जात्या न्या० स० -- कृत्यतुल्या० । आख्यायन्ते ग्राभिरित्याख्याः नामधेयानि । तुल्यस्याख्यास्तुल्याख्याः, अथवा तुल्यमाचक्षते तुल्याख्या: 'दश्र्वाङ' [ ५. १.७८ ] इति ङ: 110 प्रख्यग्रहणाद्ये पदान्तरनिरपेक्षास्तुल्यमर्थमाचक्षते इह ते गृह्यन्ते समानसदृशतुल्यप्रभृतयो न तु ये पदान्तरसान्निध्येन यथाऽग्निर्माणवक इति । अत्राऽपि तुल्यता प्रतीयते । परार्थे प्रयुज्यमानाः शब्दाः सादृश्यं गमयन्तीति । न त्वत्र तुल्यता पदार्थ इति । भोज्यं च तदुष्णं चेति । भोजनाहं भोक्तु वा शक्यमित्यर्थे ध्यरिण । लवरणमिति नन्द्याद्यनो गरणपाठात् णत्वं च । भोज्य ओदन इति श्रोदनत्वलक्षरणाया जातेरोदनशब्दो वाचक : 115 पीयते तदिति 'गयहृदय' ३७० ( उगादि ) इति पानीयम् ।। ३. १. ११४ ।। कुमार श्रमणादिना । ३. १. ११५ ।। कुमार इत्येतन्नामैकार्थं श्रमणादिना नाम्ना सह समस्यते स च समासस्तत्पुरुषसंज्ञः कर्मधारयसंज्ञश्च भवति । कुमारी चासौ श्रमणा च कुमारश्रमणा, एवं कुमारप्रव्रजिता, कुमारश्चासावध्यायकश्च कुमाराध्यायकः, 20 कुमारी चासावध्यायिका च कुमाराध्यायिका, एवं कुमाराभिरूपकः, कुमाराभिरूपिका, श्रमणा, प्रव्रजिता, कुलटा, गर्भिणी, तापसी, बन्धकी, दासीएते सप्त स्त्रीलिङ्गा एव । अध्यायक, अभिरूपक, पटु, मृदु, पण्डित, कुशल, चपल, निपुण, - येऽत्र स्त्रीलिङ्गास्तैः सह स्त्रीलिङ्ग एव कुमारशब्दः समस्यते शेषैस्तूभयलिङ्गः । नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति हि न्याय : 25 श्रमणादीनां स्त्रीलिङ्गानां पाठात् । पुंलिङ्गः पूर्वनिपाते कामचारः - कुमारश्रमणः, तापसकुमारः, कुमारशब्दस्य पूर्वनिपातनियमार्थं वचनम् । इह केचित् Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ११५.] 'पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलपूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीरपूजार्थसन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टा' इति, वृन्दारकनागकुञ्जरैरिति युवा खलतिपलितजरद्वलिनैरिति, कृत्यतुल्याख्यमजात्येति, कुमारः श्रमणादिनेति, पञ्चसूत्रीं विरचय्य तस्यामेव प्रथमान्तानां समावेशे परसूत्रनिर्दिष्टमेव प्रथमान्तं पूर्व निपतति, तृतीयान्तानां समावेशे परसूत्रनिर्दिष्टमेव तृतीयान्तं परं निपतति, 5 एकसूत्रोक्तानां तु प्रथमान्तानां तृतीयान्तानां च समावेशे पूर्वापरनिपाते कामचार इतीच्छन्ति,-प्रथमान्तसमावेशे, तुल्ययुवा, सदृशयुवा, कुमारपरमः, कुमारपरमा, कुमारसन्, कुमारसती। एवं महज्जघन्यप्रथमचरममध्यमध्यमादयोऽपि कुमारयुवा, कुमारतुल्यः, कुमारतुल्या। तृतीयान्तसमावेशे,वृन्दारकपलितः, वृन्दारकवलिनः, नागजरन्, वृन्दारकश्रमणा, खलतिश्रमरणा,10 वृन्दारकप्रव्रजिता, खलतिप्रव्रजिता, जरत्कुलटा, जरत्तापसी इत्यादि । श्रमणादीनां पुंलिङ्गत्वे त्वनियमः,-तेन वृन्दारकश्रमणः, श्रमणवृन्दारकः, नागतापसः, तापसनागः, कुञ्जरदासः, दासकुञ्जरः, तथा श्रमणखलतिः, खलतिश्रमणः । पलिततापसः तापसपलितः इत्यादि । अध्यायकादयस्तु लिङ्गान्तरेऽपि परनिपातना एव । वृन्दारकाध्यायकः । 15 वृन्दारिकाध्यायिका। खलत्यध्यायकः, खलत्यध्यायिका, पलिताभिरूपकः, पलिताभिरूपिका, एकसूत्रोक्तानां प्रथमान्तानां समावेशे,-प्रथमवीरः वीरप्रथमः, चरमजघन्यः जघन्यचरमः इत्यादि, तुल्यभोज्यः, भोज्यतुल्य इत्यादि । एकसूत्रे तृतीयान्तानां समावेशे,-खलतिपलितः, पलितखलतिः, जरद्वलिनः बलिनजरन् इत्यादि ।। ११५ ।। 20 न्या० स०-कुमारः। श्रमणेति श्रमं समस्तन्नयतीति डे 'पूर्वपदस्थात्' [२. ३. ६४.] इति संज्ञायां णत्वे श्राम्यतीति नन्द्यादित्वादने वा श्रमणा। कुलटेत्यत्र कुलात् कुलं चाटतीति कुलटा पृषोदरादिः । अभिरूपयत्यात्मानमिति के अभिरूपकः । ननु कुमारशब्दस्य पुलिङ्गस्य निर्देशात् कथं स्त्रीलिङ्गस्य समास ? इत्याह-नामग्रहरणे इत्यादि । हि शब्दोऽत्र यस्मादर्थे, यद्येवं नामग्रहणपरिभाषयैव स्त्रीलिङ्गेऽपि समासस्य25 सिद्धत्वात् किमर्थं स्त्रीलिङ्गानां श्रमणादीनां पाठः ? इत्याह-श्रमणादीनामित्यादि । कुमारशब्दस्येति 'विशेषणं' [ ३. १. ६६. ] इति समासे हि श्रमणादीनां पूर्वनिपातः स्यात् क्रियाशब्दत्वात् तेषां न कुमारशब्दस्य पूर्वनिपात इत्यर्थः ।। ३. १. ११५ ।। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ११६. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५०१ मयूरव्यंसकेत्यादयः ॥ ३. १. ११६ ॥ निपात्यन्ते । विगतावंसावस्य मयूरव्यंसकादयस्तत्पुरुषसमासा व्यंसस्तत्तुल्यो व्यंसकः, व्यंसयति वा छलयति व्यंसकः, व्यंसकश्वासौ मयूरश्च मयूरव्यंसकः, एवं छात्रव्यंसकः, मुण्डश्चासौ कम्बोजश्च कम्बोजमुण्डः, एवं यवनमुण्डः, व्यंसका चासौ मयूरी च मयूरव्यंसका, कर्मधारयलक्षणः पुंवद्भावः, 5 एतेषु विशेष्यस्य पूर्वनिपातनम् । ' एहीडादयोऽन्यपदार्थे' एहि इडे स्त्रि इति जल्पो यस्मिन् कर्मरिण काले वा तत् एहीडं वर्तते, एहि यवैरिति जल्पो यत्र कर्मणि काले वा तदेहियवं वर्तते, एतौ निपातनान्नपुंसकौ, एहि वाणिजेति जल्पो यस्यां क्रियायां सैहिवाणिजा, एवं प्रेहिवाणिजा, प्रपेहिवाणिजा, एहि स्वागता, हिस्वागता, एहिद्वितीया, प्रपेहिद्वितीया, एहिप्रघसा, अपेहिप्रघसा, 10 एहिविघसा, अपेहिविघसा, एहिप्रकसा, अपेहिप्रकसा । प्रोह कटमिति जल्पो यस्यां सा प्रोहकटा क्रिया, एवं प्रोहकर्दमा, प्रोहक पर्दा । उद्धम चूडे उद्धम चूडामिति वा जल्पो यस्यां सोद्धमचूडा क्रिया, आहर चेलमिति यस्यां सा आहरचेला क्रिया, एवमाहरवसना, आहरवितता, कृन्धि विचक्षणेति कृन्धि विचक्षणमिति वा यस्यां सा कृन्धिविचक्षरणा क्रिया, 15 fभfन्ध लवमिति यस्यां सा भिन्धिलवरणा, एवं पचलवरणा, उद्धरोत्सृजेति जल्पो यस्यां सोद्धरोत्सृजा, एवमुद्धरावसृजा, उद्धमविधमा, उद्वपनिवपा, उत्पतनिपता, उत्पचनिपचा । कृन्धि विक्षिणीहिति कृन्धि विक्षण, इति वा यस्यां सा कृन्धिविक्षणा । उन्मृजावमृजेति यस्यां सोन्मृजावमृजा, अत एव निपातनादिहैव च मृजेहौं शो भवति । 'प्राख्यातमाख्यातेन सातत्ये' - प्रश्नीत 20 पिबतेति सातत्येनोच्यते यस्यां साश्नीतपिबता, अश्नीतपचता, एवं खादतमोदता, पचतभृज्जता, लुनीतपुनीता, खादाचामा, प्रहरनिवपा, आवपनिष्किरा, पचप्रकूला, इह द्वितीयेति यस्यां क्रियायां सेहद्वितीया, एवमिह - पञ्चमी, अद्यद्वितीया, अद्यपञ्चमी । एहिरे याहिरे इति यस्यां क्रियायां सैहिरेयाहिरा, एवमेहिरेगच्छरा, 25 अहो अहं पुरुष इति यस्यां क्रियायां साहोपुरुषिका, अहं पूर्व इति यस्यां Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० १. सू० ११६. ] साहंपूर्विका, एवमहं प्रथमिका, अहमहमिति यस्यां साहमहमिका, विकृतं च प्रकृतं च यस्यां सा विचप्रका, निश्चितं च प्रचितं च यस्यां सा निश्चप्रचा, या इच्छा यस्यां सा यदृच्छा, एषु सर्वेषु क्रियैवान्यपदार्थ: । ' ह्यन्तं स्वकर्मणा बहुलमाभीक्ष्ण्ये कर्तरि समासाभिधेये' - जहि जोडमित्यभीक्ष्णं य ग्राह स उच्यते जहिजोडः। एवमुज्जहिजोडः, जहिस्तम्बः, उज्जहिस्तम्बः, कुरुकटः बहुलवचनान्न 5 च भवति-पचौदनमित्यभीक्ष्णमाह, स्नात्वा कालीभूतः स्नात्वाकालकः, एवं पीत्वास्थिरकः, भुक्त्वासुहितः, प्रोष्य विप्रयुक्तो भूत्वा पापीयान्निःस्नेहो भवति स प्रोष्यपापीपान्, उत्पत्याकाशे भूत्वा या पाकला पाण्डुर्भवति सोत्पत्यपाकला, निपत्य भूमौ निपतिता रोहिणी या रक्ता भवति सा निपत्यरोहिणी, निषद्य निषण्णा सती श्यामा जाता निषद्यश्यामा, निषण्णा श्यामा जाता निषण्ण - 10 श्यामा, उदक् चावाक् च उच्चितं चावचितं चेति वा उच्चावचम्, उच्चैश्च नीचैश्च उच्चितं च निचितं चेति वा उच्चनीचम्, प्रचितं चोपचितं च प्राचोपचम्, प्राचितं च अवचितं च प्राचोवचम्, प्राचितं च पराचितं च अर्वाक् च परस्ताच्चेति वा चपराचम्, निश्चितं च प्रचितं च निश्चप्रचम्, निष्कुषितं च निस्त्वचं च निश्चत्वचम् न भवति किंचन न क्वचिदुपयुज्यत 15 इति अकिंचनम्, नास्य कुतोऽपि भयमस्तीत्यकुतोभयम्, 'गतप्रत्यागतादय:'गतं च तत्प्रत्यागतं च गतप्रत्यागतम्, एवं यातानुयातम्, महान्क्रयोऽल्पः ऋयिका क्रयावयवयोगात् क्रयः क्रयिकावयवयोगात् क्रयिका क्रयश्चासौ क्रयिका च क्रयक्रयिका समुदायः, एवं पुटापुटिका, फलाफलिका, मानोन्मानिका, - एषु व्यवस्थित पूर्वोत्तरपदसमासः । J 20 'शाकपार्थिवादयः' - शाकप्रियः शाकभोजी शाकप्रधानो वा पार्थिवःपृथोरपत्यं शाकपार्थिवः, पृथिव्या ईश्वरः पार्थिवः इति वा तेन शाकपार्थिवः कुतपवस्त्रसौश्रुतः, सुश्रुतोऽपत्यं सौश्रुतः, कुतपसौश्रुतः प्रजापण्यस्तौल्वलिः, अजातौल्वलिः, यष्टिप्रहरणो यो मौद्गल्यः यष्टिमौद्गल्यः, एवं परशुरामः, घृतप्रधाना रोटिः घृत रोटि:, एवमोदनपाणिनिः, आणिमाण्डव्यः बलाकाकौशिकः, 25 विदर्भीकौण्डिन्यः, सहस्रबाहुरर्जुनः सहस्रार्जुनः, त्र्यवयवा विद्या त्रिविद्या, एकाधिका दश एकादश, एवं द्वादश, षोडश, एकविंशतिः, द्वाविंशतिः, एक Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ११६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५०३ शतम्, द्विशतम्, दध्युपसिक्त प्रोदनो दध्योदनः, एवं घृतौदनः, गुडमिश्रा धाना गुडधानाः, एवं तिलपृथकाः, अश्वयुक्तो रथ:-अश्वरथः, एवं गजरथः, घृतपूर्णो घटः-घृतघटः,-अत्र शाकपार्थिवादिषु प्रियादेरुत्तरपदस्य लोपः । तृतीयो भागः त्रिभागः, तृतीयभागः त्र्यंशः तृतीयांशः, षड्भागः षष्ठभागः, षडंशः, षष्ठांशः, त्रिदिवं, तृतीय दिवम्, त्रिविष्टपं, तृतीयविष्टप- 5 मित्यादिषु पूरणप्रत्ययस्य वा लुग् भवति । तथा सर्वेषां श्वेततरः-सर्वेश्वेतः, एवं सर्वमहान्-अत्र गुणेन तरबन्तेन निर्धारणषष्ठीसमासस्तरब्लोपश्च, एवमविहितलक्षणस्तत्पुरुषो मयूरव्यंसकादिषु द्रष्टव्यः । यच्चेह लक्षणेनानुपपन्न तत् सर्वं निपातनात्सिद्धम् । इतिशब्दः स्वरूपावधारणार्थः-तेन परमो मयूरव्यंसक इति समासान्तरं न भवति । उत्तरपदेन भवत्येवेत्यन्ये-मयूर-10 व्यंसकप्रिय इत्यादि । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन-विस्पष्टं पटुः-विस्पष्टपटुः, पुना राजा-पुनाराजः, एवं पुनर्गवः, पादाभ्यां ह्रियत इति पादहारकः, गले चोप्यत इति गलेचोपकः, सायंदोहः, प्रातर्दोहः, पुनर्दोहः, सायमाशः, प्रातराश, इत्यादयो द्रष्टव्याः ।। ११६ ।। ___न्या० स०--मयूरव्यंसक०। तत्पुरुषसमासा इति कर्मधारयसमासा इत्यपि 15 द्रष्टव्यम् । निपात्यन्त इति अत्र यादृशाः पठितास्तादृशाः एवाऽभ्यनुज्ञायन्ते साधुत्वेन, तेन लक्षणानन्वितहष्टकार्याणामपि साधुत्वं प्रति विचिकित्सा न कार्येत्यर्थः, व्यंसयतीति मतान्तरेण दन्त्यः । मयूरव्यंसक इति प्रथमव्युत्पत्तौ तथाभूता मयूरप्रकृतिरुच्यते, यदा तु व्यंसयति छलयति चुरादेपर्णक: क्रियते तदा यो लुञ्चकानां मयूरो गृहीतशैक्षो भवति अन्यानन्यान् मयूरान् छलयति स उच्यते । तदरूपेण लोकस्याऽपि वञ्चकः, व्यंसको20 विशेषणं मयूरो विशेष्यमिति विशेषणसमासे प्राप्ते मयूरव्यंसक इत्ययं समास इति दर्शयति । कम्बोजमुण्ड इति कम्बश्चासौ जश्व बाहुलकात् विभक्तरलुप्, मुण्डनं मुण्डः । सोऽस्यास्तीति अभ्राद्यः, कंबोजयवनशब्दाभ्यामपत्ये 'राष्ट्रक्षत्रियात्' [ ३. १. ११४. ] इत्यत्रः 'शक्रादिभ्यो द्रेः' [ ६. १. १२०.] इति लोपः । एवं च गोत्रं च चरणः सहेति जातित्वमनयोरित्यत्रापि गुणशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते जातिशब्दस्य पूर्वनिपातार्थोऽ-25 यमारम्भः । एहि इडे स्त्रि इतीत्यत्र ‘म्लेच्छीडेह्र स्वश्च वा' ३ (उणादि) इति अप्रत्यये वा ह्रस्वत्वे इडा इला स्त्रीत्यर्थः, यथा महती इला महेलेति, तदामन्त्रणमिडे इति । अनुकार्यानुकरणयोर्भेदे विभक्तिरपि शब्दरूपेति 'अनतो लुप्' [ १. ४. ५६. ] अथवा न दीयते विभक्तिः । एहि स्वागता इत्यत्र स्वाङ पूर्वात् गमे वे क्तः । तत एहि स्वागतमिति यस्यामिति बहुव्रीहिः । एहिप्रघसेत्यादिषु प्रात्तीत्यादिवाक्ये घस्लादेशे संबोधने वाक्यानि30 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू ११६.] पा भवन्ति । कपई इति पर्दतेरचि कुत्सितः पर्दः पृषोदरादित्वात् कुशब्दस्य कभावे । कृन्धिविक्षरणेत्यत्र कृन्धीत्यत्र 'धुटोधुटि' [ १. ३. ४८. ] इति तलोपे समासे सति निपातनात् 'इ उ' इत्यवयवयोरकारः । ततः स्त्रीलिङ्गत्वादाप् । उन्मजावमजेति पाख्यातयोः क्रियासातत्ये समासस्य वक्ष्यमाणत्वादसातत्यार्थोऽयमारम्भः, बहुव्रीहौ कच्प्रत्ययप्रसङ्गः स्यात् । 'पाख्यातमाख्यातेन सातत्ये' ( ) इति 5 सूत्रं शाकटायनस्य । ह्यन्तं स्वकर्मणेत्यादि पाणिनीयं सूत्रमेतत् । 'गतप्रत्यागतादयः' ( ) पाणिनेरिदमपि सूत्रम् । 'शाकपार्थिवादयः' ( ) शाकटायनसूत्रम् । मोदतेति आत्मनेपदस्यानित्यत्वात् परस्मैपदम्, 'मुदण्संसर्गे' विकल्पणिजन्ताद् वा, इहपञ्चमीत्यत्र निपातनात् ह्रस्वत्वाभावः । एहिरेयाहिरा इत्यत्र निपातनादेकारस्याकारः, एवमन्यत्राऽपि । प्राहोपुरुषिका इत्यत्र निपातनाच्चौरादित्वाद् वाऽकत्र , अहोपुरुष आत्मसंभावितत्वात्तस्य 10 भावः क्रिया आहोपुरुषिकोच्यते। अहं पूर्विकेत्यत्र अहंशब्दो विभक्त्यन्तप्रतिरूपको निपातः । अहं पूर्वमहं पूर्वमहं पूर्व प्रवर्ते इत्यर्थः । निपातनादकञ्यपि वृद्ध्यभावः । एवमहंप्रथमिकादयोऽपि । निश्चप्रचा इत्यत्र एषु सर्वेषु यल्लक्षणेनानुपपन्नं तत्सव्वं निपातनात् कर्त्तव्यम् । जोडमिति 'जुडण् प्रेरणे' इत्यतोऽचि जोडो दासः, स्तम्भेः 'स्तम्बतुम्बादयः' ( ) इति बे निपातनात् भ-लोपे स्तम्बः । स्नात्वाकालक15 इत्यत्र कालात् कप् प्रत्ययः। पीत्वास्थिरक इत्यत्र तु निपातनात् कः। भुक्त्वासुहित इत्यत्र यो यत्किंचिदशित्वा तृप्तो भवति, स एवमुच्यते । उत्पत्यपाकला लताविशेषः, एवं सर्वत्राप्यभ्यूह्यम् । प्रोष्यपापीयानिति प्रवसतेः । क्त्वि यबादेशे य्वति 'घस्वसः' [ २. ३. ३६. ] इति षत्वे, निषद्यश्यामान्तेषु स्नात्वाकालकादिष्वैकार्थ्याभावात् 'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः' [ ३. १. ४८ ] इति नियमात्20 क्त्वाप्रत्ययस्याव्ययस्य समासाप्राप्तावनेनाऽयं समासो निपात्यते । निषण्णश्यामेति 'विशेषणं' [ ३. १. ६६. ] इति समासे पूर्वनिपातेऽनियमः स्यात् । निश्चत्वचम् इत्यत्र त्वचशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति अकिंचनमिति नत्र स्याद्यन्तेन समास प्रारभ्यमाणः समुदायस्यानामत्वात् स्याद्यन्तत्वाभावान्न समासाप्रवृत्तावनेन समासः । गतप्रत्यागतम् इत्यत्र एकदेशस्य प्रत्यागतत्वात् । एवं पूर्वं यातं पश्चादनुयातमिति । यातानुयातम् । फलाफलिका इत्यत्र एषु सर्वेष्वत एव निपातनात् पूर्वपदस्य दीर्घत्वम् । अत्रावयवधर्मेण समुदायव्यपदेशात् सामानाधिकरण्यात् विशेषणसमाससिद्धावत्र पाठस्य फलमाह-एग्वित्यादि शाकप्रिय इत्यत्र, कुत्सितं तपतीत्यचि कुते: सौत्रात् "भुजिभृति' ३०५ (उणादि) इत्यपे वा कुतपं मृगाजिनं, गोरोममयं केचित् कम्बलं कुतपं विदुस्तद्वस्त्रं यस्य । अजातौल्वलिरित्यत्र 'तुलण उन्माने' णिजन्तात् 30 'तुलवले' ५०० (उणादि) इति किति वल प्रत्यये णिज्लोपे निपातनाद् गुणाभावे तुल्वलस्तस्यापत्यम् 'अत इज' [६. १. ३१.] । आरिणमाण्डव्य इत्यत्र आरिणशब्द आटिपर्यायादिषु वर्तते । विदर्भो कौण्डिन्य इत्यत्र विदर्भशब्दात् गौरादित्वात् ङोप्रत्ययः । 25 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ११७.] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५०५ कुण्डिनीशब्दे ग्रहादित्वात् णिनि ङ्यामपत्ये गर्गादियत्रि 'कौण्डिन्यागस्त्ययो:' ६.१.१२७.] इति निर्देशात प्रवद्धावाभावे सिद्धम। सर्व निपातनात सिद्धमिति निपात्यन्ते गम्यन्तेऽनुरूपाण्यविहितान्यपि लक्षणान्यस्मिन्निति निपातनं सूत्रे लक्ष्यस्य स्वरूपेणोपादानमिति ।। ३. १. ११६ ।। चा) वंद्वः सहोक्तौ ॥ ३. १. ११७ ॥ नाम नाम्ना सह सहोक्तिविषये चार्थे वर्तमान समस्यते, स च समासो द्वद्वसंज्ञो भवति । प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च-प्लक्षन्यग्रोधौ, एवं धवाश्वकणौं, वाक्च त्वक्च-वाक्त्वचम्, छत्रोपानहम्, नाम नाम्नेत्यनुवर्तमानेपि 'लघ्वक्षरा'[३. १. १६०.] दिसूत्रे एकग्रहणाद्बहूनामपि द्वंद्वो भवति-धवश्च खदिरश्च पलाशश्च धवखदिरपलाशाः-एवं होतृपोतृनेष्टोद्गातारः, द्वयोर्द्व योर्द्वन्द्व हि10 होतापोतानेष्टोद्गातारः इत्येव स्यात्, पीठच्छत्त्रोपानहम्, चार्थ इति किम् ? वीप्सासहोक्तौ माभूत्, ग्रामो ग्रामो रमणीयः । सहोक्ताविति किम् ? प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च वीक्ष्यताम्, वाक् च त्वक् च गृह्यताम्, खजश्चासौ कुण्टश्च खञ्जकुण्टः, इह समुच्चयान्वाचयेतरेतरयोगसमाहारभेदाच्चत्वारश्चार्था:-तत्रैकमर्थं प्रति व्यादीनां क्रियाकारकद्रव्यगुणानां15 तुल्यबलानाम् अविरोधिनामनियतक्रमयोगपद्यानाम् आत्मरूपभेदेन चीयमानता समुच्चयः-यथा चैत्रः पचति पठति च, चैत्रो मैत्रश्च पठति, राज्ञो गौश्चाश्वश्च, राज्ञो ब्राह्मणस्य च गौः, शुक्लश्चायं कृष्णश्च, नीलं च तदुत्पलं चेतिचशब्दमन्तरेणापि चायं संभवति, यथाहरहर्नयमानो गामश्व पुरुष पशु वैवस्वतो न तृप्यति सुराया इव दुर्मदी । 20 गुणप्रधानभावमात्रविशिष्ट: समुच्चय एवान्वाचयः-यथा वटो भिक्षामट गां चानय, स हि भिक्षां तावदटति यदि च गां पश्यति तामप्यानयति । द्रव्याणामेव परस्परसव्यपेक्षाणामुद्भूतावयवभेदः समूह इतरेतरयोगःयथा चैत्रश्च मैत्रश्च घटं कुर्वाते, चैत्रमैत्रौ घटं कुर्वाते, चैत्रश्च मैत्रश्च दत्तश्च पटं कुर्वन्ति, चैत्रमैत्रदत्ताः पटं कुर्वन्ति,-अत्रावयवानामुद्भूत-25 त्वात्तत्संख्यानिबन्धनं द्विवचन बहुवचनं च भवति, स एव तिरोहितावयवभेदः संहतिप्रधानः समाहारः । धवश्च खदिरश्च पलाशश्च तिष्ठति, धवखदिर Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ११७.] पलाशं तिष्ठति, अत्र तु समूहस्य प्राधान्यात् तस्य चैकत्वादेकवचनमेव भवतिएषु चाद्ययोः सहोक्त्यभावात्समासो न भवति-उत्तरयोस्तु चार्थयोः सहोक्त विद्यमानत्वात्समासो भवति । का पुनरियं सहोक्तिः-यर्तिपदैः प्रत्येक पदार्थानां युगपदभिधानं सा सहोक्तिः । प्लक्षन्यग्रोधावित्यत्र हि प्लक्षोऽपि द्वयर्थः, न्यग्रोधोऽपि द्वयर्थः। 5 प्लक्षश्च न्यग्रोधश्चेति वाक्येऽपि चकारेणायमेवार्थः कथ्यते-उत्तरपदेन समुदायेन वा यद्वतिपदार्थानां युगपदभिधानं सा सहोक्तिरित्यन्ये । वर्तिपदार्थानामेव सह क्रियादिसंबन्धस्य यत् वाक्येनाभिधानं सा सहोक्तिरित्यपरे । एकविंशतिः द्वाविंशतिरित्यादिसंख्याद्वद्वः समुदायसंख्यैकत्वानुरोधेन विंशत्यादिवत्संख्येयमाचष्टे इतीतरेतरयोगेऽप्येकवचनान्तो भवति । समाहारेऽपि 10 चाशतावन्द्व इति लक्षणात्स्त्रीलिङ्गो भवति । संख्याद द्वादन्यत्र तु एको देवदत्ताय दीयतां विंशतिश्चैत्रायेति एकविंशती अनयोर्देहि, एवं त्रिंशश्चत्वारिंशतौ, षष्टिसप्तत्यशीतय इत्यादौ द्विवचनबहुवचनान्तता द्वन्द्वप्रदेशाः 'द्वद्वे वा' [१. ४. ११.] इत्यादयः ।। ११७ ।। न्या० स०-चार्थे द्वंद्वः । एकग्रहणादिति तद्ध्यनेकस्य पूर्वनिपातप्रसक्तावेकस्य15 पूर्वनिपातनियमार्थं द्वयोश्च द्वद्वेऽनेकस्य पूर्वनिपातप्रसङ्गाभावादेकग्रहणमनर्थकं स्यात् । यद्वा नाम नाम्नेति व्यक्तिः पदार्थो नाश्रीयते । अपि तु जातिः, अनुवृत्तस्य हि रूपस्य यथा लक्ष्याऽनुग्रहो भवति । तथाऽर्थकल्पना क्रियते इति बहूनामप्ययं समासः । इत्येव स्यादिति पूर्वपदस्योत्तरपदे प्रत्येकं 'या द्वद्वे' [२. २. ३६.] इत्याकारः स्यादित्यर्थः । उद्गातार इत्यत्र मतान्तरेण पारादेशः । ग्रामो ग्राम इति अत्र च वीप्सायां सहोक्तिसंभवेऽपि20 चार्थाभावात् द्वद्वाभावः। सहोक्ताविति किमिति-यत्र समासे द्वयोर्द्धर्मयोमिणोर्वा भिन्नयो: प्राधान्यं विवेद्यते सा सहोक्तिः, कर्मधारये तु धर्मिण आश्रयस्यैव प्राधान्यात्तस्य चैकत्वमतः खजकुण्टादौ न सहोक्तिः । प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च वीक्ष्यतामिति पूर्ववेत्थं संबन्धः, इतरेतरयोगे तिष्ठतः कस्कः प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च समाहारे तु प्लक्षश्च न्यग्रोधश्चेति समुदायस्तिष्ठति, इह तु प्रत्येक 25 क्रियया संबन्ध इति सहोक्त्यभाव इत्यर्थः । इह समुच्चयेति अत्र चार्थस्यानुवादेन द्वद्वो विधीयते, अप्रसिद्धस्वरूपस्य चानुवदनं नोपपद्यते, अतस्तत्स्वरूपं प्रदर्शयति, चार्थानां लक्षणपूर्वमुदाहरणन्याह-तत्रैकमर्थं प्रतीत्यादि अर्थः क्रियाकारकद्रव्यरूपः। द्वयादीनां कियाकारकद्रव्यगुणानामिति तत्रैकस्मिन् कारकेऽनेकक्रियाणामेकस्यां क्रियायामनेक Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० ११७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५०७ कारकारणामेकस्मिन् द्रव्येऽनेककारकाणामेकस्मिन् कारकेऽनेकद्रव्याणामेकस्मिन् धर्मिण्यनेकधर्माणां ढौकनं समुच्चय इति, यथा चैत्रः पचति च पठति चेत्यादिषु यथाक्रमं दर्शयति । एकमर्थं प्रति द्वयादीनामात्मरूपभेदेन चीयमानता समुच्चय इत्येव लक्षणमन्यस्तस्यैव प्रपञ्चः । तथा अविरोधिनामिति यथा शीतोष्णादि विरुद्धं तथा न विरुद्धा भवन्ति, यथा बाल्ययौवनादीनां नियतः क्रमः यथा च शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानां नियतं 5 यौगपद्यं, तथा येषां नियते क्रमयौगपद्ये न भवतस्तेषामित्यर्थः । आत्मरूपभेदेनेति तनुप्रवृत्तिनिमित्तेनेति, अन्वाचयोऽप्येवंविध एव । इयता तु भिद्यते यत् समुच्चये समुच्चीयमानाः क्रियाकारकादिविशेषाः सर्वे तुल्यकक्षाः, अन्वाचये तु एकस्य गुणभावोऽन्यस्य प्रधानभावः । तद्यथा 'रुधां स्वराच्छ्नो न् लुक् च' [ ३. ४. ८२. ] इति, अत्र हि विधीयमानं श्नं न लोपोऽपेक्षते यत्र श्नस्तत्र न लोपो यथा 10 'भंजोंप् आमदने' भनक्ति । श्नस्तु न लोपं नापेक्षते तदभावेऽपि प्रवृत्तेर्यथा युनक्तीति । द्रव्याणामेव परस्परेत्यत्र इतरेतरयोगः परस्परापेक्षाणां क्रियां प्रति द्रव्यारणां ढौकनं, समाहारोऽपि तथैव । एतावांस्तु भेद उद्भूतावयवभेदा हि संहतिरितरेतरयोगः । प्रत एव द्वयात्मकत्वे तस्यावयवार्थगते द्वित्वे द्विवचनं चैत्रमैत्राविति । बह्वात्मकत्वे तु बहुत्वे बहुवचनं चैत्रमैत्रदत्ता इति । न्यग्भूतावयवभेदा तु संहतिः समाहारोऽतस्तस्या एक- 15 त्वादेकवचनमेव न त्ववयवगतसमाश्रयणेन द्विवचनबहुवचने, अवयवानामत्यन्तमनुमीयमानस्वरूपत्वात्, न हि यथेतरेतरयोगे उद्भूतस्वरूपोपदर्शनपूर्वकं समुदायमवयवार्था उपकुर्वन्ति तद्वत् समाहारे । धवश्च खदिरश्च पलाशश्च तिष्ठतीत्यत्र 'तरुतृणधान्यमृग' [ ३. १. १३३.] इति समाहारो भवति । एतावता चादीनां द्योतकानां व्युदासः । एषु चाद्ययोः सहोक्त्य - 20 भावादिति ननु समुच्चयान्वाचययोः सामर्थ्याभावादेव समासो न भविष्यति किं सहोक्ति - ग्रहणेन । तथाहि परस्परानपेक्षाणामनियतक्रमयौगपद्यानां क्रियाकारकादीनां समुच्चयो दृष्यते । यथा गामश्वमित्यत्र नयनक्रियायां गवादीनां, अन्वाचयेऽपि गौरणस्य प्रधानं प्रत्यपेक्षा न प्रधानस्य गौरणं प्रतीत्यत्र सामर्थ्याभाव: ? नैष दोषः । यतः कारकारिण क्रिययोप श्लिष्यन्ते, न परस्परेण क्रिया चौपश्लेषिका समुच्चयान्वाचययोरपि संभवति 25 तत्कथं समुच्चयेऽन्वाचये चासमर्थानि नामानि स्युः परस्परापेक्षा त्वविद्यमानापि न सामर्थ्यस्य विघातिका । सा हि न श्रौती किंतु वाक्यप्रकररणादिसमधिगम्या । तत्कथं श्रौतस्य सामर्थ्यस्य संभवे विपरीतस्य सामर्थ्यस्यासंभवः समासाप्रवृत्तौ निमित्तमिति सहोक्तिग्रहणमिति । यद्वत्तपदैरित्यादि प्रयमर्थः युगपत् द्वंद्ववाच्यं समुदायरूपं यदोच्यते तदा द्वो भवति । गामश्वमित्यादौ तु परस्परं निरपेक्षाः स्वतन्त्रा गवादयो भिन्नं रेव शब्दै : 30 पृथक् प्रत्याय्यन्त इति । युगपद्वाचित्वाभावात् द्वंद्वाभाव इति । यद्येवं पट्वीमृद्वय इत्यत्र एकैकेन शब्दे - नार्थद्वयस्याभिधानात्ससामानाधिकरण्यात्पु वद्भावप्रसङ्गः । प्रत्रोच्यते । अथेह दर्शनीयाया माता दर्शनीयाशब्दस्य वृत्तावेकार्थीभावान्मात्रर्थवृत्तित्वात् सामानाधिकरण्यसद्भावात् Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ११७.] पुवद्भाव : कस्मान्न भवति । अथ वृत्तौ यत्सामानाधिकरण्यं तस्य व्यभिचाराभावात् । वाक्यविषयं सामानाधिकरण्यमाश्रीयते इति चेत्तदा पट्वीमृद्व्यावित्यत्राऽपि न दोषः । यतो लौकिकं यद्वाक्यं प्रयोगार्ह तत्र सामानाधिकरण्यमाश्रीयते न त्वलौकिके प्रक्रियावाक्ये पव्यौ च मृद्व्यौ चेति । प्लक्षोऽपि द्वयर्थ इति नन्वत्र प्लक्षन्यग्रोधाविति शब्दक्रमात् क्रमवदर्थानुगमान्न संभवति एकैकेनानेकस्याभिधानम् ? न, तहि द्विवचनबहुवचनानुपपत्तिः, 5 प्लक्षन्यग्रोधौ प्लक्षन्यग्रोधा इति । यतः प्लक्षशब्दः सार्थको निवृत्तोऽन्यो न्यग्रोधशब्दः उपस्थितः । तत्र न्यग्रोधार्थप्रतिपत्तिकाले यदि प्लक्षार्थस्यावगतिर्न स्यात्तदा न्यग्रोधशब्दादेकार्थत्वादेकवचनं स्यात्तस्मात् द्विवचनबहुवचनान्यथानुपपत्त्या प्लक्षन्यग्रोधावित्यादावेककोऽनेकार्थाभिधायीत्यभ्यूपगन्तव्यम्, ततश्च एकैकेन युगपदनेकस्यार्थस्याभिधानात् प्लक्षोऽपि द्वयर्थो न्यग्रोधोऽपि द्वयर्थ इत्याह-प्लक्षन्यग्रोधावित्यत्रेत्यादि नन्वेवं तहि कथं प्लक्षश्च10 न्यग्रोधश्चेत्येकवचनान्तयोर्वाक्यं वृत्तौ प्रदर्शितं द्विवचनान्तयोहि न्याय्यम् ? सत्यं, लौकिकमेतत वाक्यं न प्रक्रियावाक्यम, यदा त परस्परशक्त्यनुप्रवेशेन द्वद्वो भविष्यतीत्यभिधित्सयातिवाहिकशरीरस्थानीयं वाक्यं क्रियते तदा खल्वलौकिकं समीपगतपदान्तरवस्तुखचितं द्विवचनान्तयोर्वाक्यं क्रियते, यदभाष्यं सति प्रदर्शियितव्ये वरमेवं वाक्यं धवौ च खदिरौ चेति, अलौकिकत्वाच्च वृत्तौ न प्रदर्शितम् । न चैवं प्लक्षन्यग्रोध-15 योद्विकद्वयसंकल्पनेनानेकार्थत्वाद् बहुवचनं प्राप्नोतीति वाच्यं, यतो नाऽत्र चत्वारोऽर्थाः, किं तहि द्वावेवाथौं यकाभ्यामेवात्रैकः शब्दो द्वयर्थस्ताभ्यामपरोऽपि । न हि द्वाभ्यां लक्षाभ्यामविभक्तो भ्रातरौ चतुर्लक्षौभवतः । समुदायरूपो हि द्वद्वार्थः प्रत्यवयवमवयविवत् प्रतिसंक्रान्त इति, यथा वनविटपिविलोकने वनं विलोकितमित्येकैकस्तथारूपप्रतिभासभाग भवति । तदुक्त अनुस्यूते च भेदाभ्यामेका प्रख्योपजायते । यद्वा सहविवक्षायां, तामाहुदद्वशेषयोः ।। १ ।। 20 इति । ननु लौकिकात् प्रयोगात् शब्दानामर्थावधारणं तत्र यथा घटशब्दः पटाथ न प्रत्याययति तथा प्लक्षन्यग्रोधशब्दौ परस्परार्थस्य प्रत्यायकौ न युक्तौ ? न, प्लक्षस्य शब्दस्य न्यग्रोधार्थत्वात् न्यग्रोधस्य च प्लक्षार्थत्वात् स्वार्थस्यैवाभिधानान्नैतयोरर्थान्तरा-25 भिधायित्वमुच्यते । वृत्तिविषये एकैकस्य द्वावर्थाविति स्वार्थावेव तौ। ननु परस्परसन्निधानेन यद्वयोः सामर्थ्यमाहितं तदन्यतरविगमेऽपि न हीयते वह्निनिवृत्तावपि वह्निसंपादितपाकजरूपादिवदिति प्लक्षेणोक्तत्वान्न्यग्रोधस्याप्रयोगः प्राप्नोति ? नैवं, न्यग्रोधार्थस्य प्लक्षेणाऽनुक्तत्वान्न्यग्रोधशब्दप्रयोगः । उक्त ह्य तत् द्वद्वावयवानामेवानेकार्थाभिधायित्वं न केवलानां यथा वह्निसन्निधावेव ताम्र द्रवरूपं भवति न तु तद् निवृत्ताविति ।30 एवमिहाऽपि सहभूतावेवान्योऽन्यस्यार्थमाहतुन तु पृथग्भूतौ भारोद्वाहकवत् सहभूतानां परस्परशक्त्याविर्भावादिति । ततश्च प्लक्षस्य न्यग्रोधस्य चानेकार्थत्वे यद्यपि बहुत्वं प्राप्त तथापि द्वंद्वाऽवयवत्वेन बाह्यमतो गौणं न तु मुख्यमिति न बहुवचनम् । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ११८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५०६ वाक्येनाभिधानं सा सहोक्तिरिति । नन्वस्तु यथाकथंचित् सहोक्तिः समाहारे तु न संभवति तस्यैकत्वात् सहोक्त श्च भेदनिबन्धत्वादिति ? उच्यते, समाहारो हि संघातः । स च संहन्यमानानां धर्मः । संहन्यमानाश्च सहोच्यमाना एव, न पृथगुच्यमाना इति तत्रापि सहोक्तिसंभव इत्यदोषः । एकविंशतिरित्यादि संख्याद्वद्वो यद्यवयंवप्रधानस्तदैकविंशतिरिति द्विवचनं प्राप्नोति, द्वाविंशतिरिति बहुवचनम् । अथ समुदायप्रधानस्तदा 5 नपुंसकत्वं स्यादित्याऽऽशङ्का। एकविंशती इति अत्राऽपि समाहारो यदा क्रियते तदा एकत्वं स्त्रीत्वं च, यथा एकविंशतिमनयोर्देहि ।। ३. १. ११७ ।। समानामर्थेनैका शेषः ॥ ३. १. ११८ ॥ अर्थन समानां समानार्थानां शब्दानां सहोक्तौ गम्यमानायाम् एकः शिष्यते अर्थादन्ये निवर्तन्ते, तत्र विशेषानुपादानात्पर्यायेण शेषो भवति,10 बहुवचनमतन्त्रम्-तेन द्वयोरप्येकः शिष्यते । वक्रश्च कुटिलश्च वक्रौ कुटिलौ वा, वक्रदण्डश्च कुटिलदण्डश्च वक्रदण्डौ कुटिलदण्डाविति वा, एवं लोहिताक्षौ रक्ताक्षाविति वा, सितश्च शुक्लश्च श्वतश्च सिताः शुक्लाः श्वेता वा, अर्थेन समानामिति किम् ? प्लक्षन्यग्रोधौ, धवखदिरपलाशाः, सहोक्तावित्येव ? वक्रश्च कुटिलश्च। द्वद्वापवादो योगः ।। ११८ ।। 15 न्या० स०--समाना०। समानामिति निर्धारणषष्ठ्यन्तं समुदायिसमुदायसंबन्धषष्ठ्यन्तं वा न तु स्थानषष्ठयन्तं । तत्र हि समानां स्थाने एकः शिष्यत इत्येक आदेशो भवतीति । अविशेषेऽपि यस्तदभिधाने समर्थः स एव तेषामन्यतमः स्यात् । ततश्च बिसे बिसानीति कृतसकारस्य षत्वं स्यादिति । निर्धारणषष्ठयां तु समानामित्येकसंख्याक: समानार्थो विशेष्यते । समुदायिसमुदायसंबन्धषष्ठयां च समानार्थारब्धे समुदाये समानार्थ20 एवावयवो विशिष्यत इत्यदोषः । शिषेः कर्मणि घत्रि कर्तर्यचि वा शेषः । एकः शिष्यत इति-ननु जातिः शब्देनाभिधीयते, सा चैका ततो बहूनां प्रयोगाप्राप्तौ नार्थ एकशेषेण ? न, प्रत्यर्थं शब्दनिवेशाद् द्रव्यं द्रव्यं प्रति शब्दप्रयोगादेकेन शब्देनानेकस्य द्रव्यस्याभिधानं नोपपद्यत इत्यनेकस्यार्थस्य प्रतिपादनेऽनेकशब्दानां वाचकानां प्रयोग: प्राप्नोतीति द्रव्यपदार्थदर्शने एकशेषारम्भः । अथ शेष इत्येकवचनादेक एव शेष इष्यते किमेकग्रहणेन ? 25 उच्यते, शेषस्य विधीयमानत्वेन प्राधान्यात् प्रधाने च संख्याया अविवक्षणात् द्वयोस्त्रयाणां वा शेषप्रसक्त स्तत्रापि शेषप्रक्रियागौरवापत्त्या एकस्यैव शेषस्य विधीयमानत्वेन प्राधान्यात् प्रधाने च संख्याया अपि संपत्त्यर्थमेकग्रहणं सुखार्थं वा । ननु समग्रमेवेदं सूत्रं नारम्भणीयं समानार्थैः शब्दैरनेकस्यार्थस्याभिधित्सायां व्यक्तावपि पदार्थे एकस्यैव तत्प्रत्यायने शक्तत्वादन्ये निवर्तन्ते उक्तार्थानामप्रयोग इति ।30 आरब्धेऽप्येकशेषे निवर्तमानार्थप्रत्यायने स्वाभाविकी शक्तिर्यावन्नानुसृता तावत् कथमसौ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ११६.] निवर्तमानानामर्थमभिदधीतेति ? सत्यं, एवं सति अर्थानुवादत्वाददोषः। प्लक्षन्यग्रो- । धाविति अर्थेन समानामिति वचनाल्लौकिक्या: समानार्थतायाः समाश्रयणादिहैकशेषो न भवति, लौकिकी तु समानार्थता द्वंद्वादन्यत्र विज्ञायते, द्वंद्वपदानां तु परस्परार्थसंक्रमात् समानार्थत्वे विज्ञायमानेऽर्थेन समानामित्यनर्थकं स्यादनुक्तावप्यत्रैकशेषस्य सिद्धत्वादिति । द्वद्वापवादो योग इति इहैकशेषे षट् पक्षा संभवन्ति । तत्र प्रत्येकमेव विभक्तौ परतो 5 विभक्तिपरित्यागेन नामैकशेषि स्यात् (१) अथवा सविभक्तिकानां वृक्षस् वृक्षस् इति स्थिते एकस्य वृक्षस् इत्यस्य शेषः अन्ये निवर्तन्ते (२) अथवा वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षश्च इति द्वंद्वे कृते सत्येकस्य वृक्ष इत्यस्य शेषः अपरे निवर्तन्ते (३) अथवा विभक्तिमनुत्पाद्यैव नाममात्रेण वृक्षवृक्षेत्येवंविधानामेव शेषः कार्यः, ततो विभक्तिः (४) अथवा सहोक्तौ वृक्षश्च वृक्षश्चेति द्वद्व प्राप्ते एकशेषः (५) अथवा नामसमुदायस्यैवार्थवत्त्वान्नामसंज्ञायां10 द्विवचनाद्युत्पत्तौ एकशेषः (६) इति षट् पक्षाः। तत्राद्यं पक्षत्रयं सावद्यकमिति तत्परिहारेणेतरत् पक्षत्रयमिहाश्रीयते । यथा हि तत्र प्रथमे पक्षे नामैकशेषेऽनेकविभक्तिश्रवणं स्यादिति प्रथमपक्षे दोषः । द्वितीये विभक्त्यन्तस्य लोपे कृते विभक्तभ्रातृधनन्यायेन शिष्यमाणस्य निवर्त्तमानपदसंख्यासंबन्धेऽपि विभक्त्यन्तत्वाद् द्विवचनबहुवचनानुपपत्तिः स्यात् । ततश्च वृक्ष15 इति नित्यमेव स्यादिति द्वितीयपक्षे दोषः । तृतीये तु समासान्तदोषः, तथाहि ऋक् चेति ऋक् चेति द्वंद्व तत एकशेषे 'चवर्गदषहः' [ ७. ३. ६८.] इति समासान्तः स्यात्, इति प्रथमपक्षत्रयं दुष्ट, इतरत्र तु पक्षत्रये न कश्चिद्दोषः, तथा हि वृक्षं वृक्षं इति स्थितानां नाम्नां विभक्तिमनुत्पाद्यैवैकशेषप्रवृत्तिरिति प्रथमपक्षो निर्दोषः, तथा तुल्यकालं नामानि यदा भारोद्यन्तृन्यायेन परस्परशक्त्यनुप्रवेशादभिधेयमाहुस्तदा द्वव कशेषौ इष्टाविति20 द्विवचन बहुवचनं चोपपन्नमिति द्वितीयेऽपि न दोषः । तृतीयपक्षेऽपि न कश्चिद्दोषः । नामसमुदायस्यैवार्थवत्त्वान्नामत्वाद् विभक्त्युत्पत्तेरिति सोऽपीहाश्रीयते इति पक्षत्रयेऽपि द्वंद्वः प्राप्तोऽनेनापोद्यते इत्याह द्वद्वापवादो योग इति ॥ ३. १. ११८ ।। स्यादावसंख्येयः ॥ ३. १. ११६ ॥ सरूपार्थं वचनम् सर्वस्मिन् स्यादौ विभक्तौ समानां तुल्यरूपाणां सहोक्तौ25 गम्यमानायामेकः शिष्यते, असंख्येयः संख्येयवाचि शब्दरूपं वर्जयित्वा । अक्षश्च शकटाक्षः अक्षश्च देवनाक्षः अक्षश्च विभीतकाक्षः अक्षाः, एवं पादाः, माषाः, श्येनी च श्येनी च श्येन्यौ, एवं हरिण्यौ, रौहिण्यौ, वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षौ, वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षाः । स्यादाविति किम् ? माता च जननी माता च धान्यस्य मातृमातारौ, याता च देवरजाया याता च गन्ता30 यातृयातारौ, अत्र ह्य कत्र मातरौ यातरावित्यन्यत्र मातारौ यातारौ इति Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० ११६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५११ औकारे रूपं भिद्यते । अन्ये तु यस्मिन्स्यादो ये शब्दास्तुल्यरूपा भवन्ति तस्मिन् स्यादौ तेषां स्याद्यन्तरे विरूपाणामप्येकः शेषो भवति-तेन मातृभ्यां मातृभिः मातृभ्यः मात्रोः मातृ णां मातृषु इत्याद्यपि भवतीत्याहुः । अपरे त्वत्रापि बहुवचने ताभिस्तैरित्याद्यनुप्रयोगवैषम्यान्न भवितव्यमेकशेषेण द्विवचनेन तु ताभ्यां तयोरित्यनुप्रयोगसाम्याद्भवितव्यमेवेत्याहुः । असंख्येय 5 इति किम् ? एकश्च एकश्च, द्वौ च द्वौ च, चत्वारश्च चत्वारश्च, द्वन्द्वोऽपि न भवत्यनभिधानात् । संख्येय इति कर्मनिर्देशात्संख्यानवाचिनो भवत्येवविंशतिश्च विंशतिश्च विंशती, नवतिश्च नवतिश्च नवतिश्च नवतयः, द्वन्द्वापवादोऽयं विधि:-तेनाकृतद्वन्द्वानामेवैकशेषे वाक् च वाक् च वाचावित्यादि सिद्धम्, अन्यथा द्वन्द्व कृते परत्वात्समासान्ते कृते वैरूप्यादेकशेषो न10 स्यात् ।। ११६ ।। न्या० स०-स्यादावसं०। सरूपार्थमिति अन्यथा अर्थसाम्यस्य स्यादावप्यभिद्यमानत्वात् पूर्वेणाऽपि सिद्ध्यति । पादा इति पादोऽह्रिश्लोकचतुर्थांशरश्मिप्रत्यन्तगिरिषु। माषो माने धान्यभेदे मूर्खत्वग्दोषभिद्यपि । औकारे रूपं भिद्यत इति अयमर्थः 'तृस्वसृ' [ १. ४. ३८. ] इति सूत्रे तृग्रहणेनैव नप्त्रादिग्रहणे सिद्धे यन्नप्त्रादीनां15 पृथगुपादानं तदेवं ज्ञापयति अत्र सूत्रे औरणादिकानामेषामेव ग्रहणमिति जननीदेवरजायावाचिनोमातृयातृशब्दयोरोणादिकयोरौकारे प्रार् न प्राप्नोति । द्वितीययोस्तु तृजन्तयोस्तृजद्वारा प्राप्नोतीति रूपभेदः । वाचावित्यादीति अत्र समाहारद्वद्वविषयेऽप्येकशेषे वागशब्दात् द्विवचनमेव भवति। कुतः 'क्लोबमन्येनैकं च वा' [३. १. १२८.] इत्यत्र समाहारेतरेतरविवक्षया20 विकल्पेनैकत्वे सिद्धेऽप्येकग्रहणात् । तेन विशेषाभावे सर्वत्र एकशेषे द्विवचनाद्येव भवति । असंख्येय इति कर्मोपादानफलमाह-विंशतिश्चेत्यादि । असंख्येय इति कर्मप्रधानस्य निषेधो विंशत्यादयस्तु न संख्येयप्रधानाः विंशतिर्गाव इति संख्येयसमानाधिकरणा अपि भवन्ति । संख्येयं संख्यानरूपमेवासाद्य तनिष्ठा एव सन्तो भवन्ति न संख्येयरूपनिष्ठाः । अत एव विंशतिर्गवामित्यसामानाधिकरण्यवत् सामानाधिकरण्येऽपि गुणलिङ्गसंख्या एव नैका-25 दिवत् संख्येयलिङ्गसंख्या इत्यसंख्येयवाचित्वादेकशेषः । रूपसाम्येऽप्यनेकशब्दस्य सहोक्तौ द्वद्वः प्राप्नोतीत्ययमपि तदपवाद एवेत्याह-द्वंद्वापवादोऽयं विधिरिति । एकश्च एकश्चेति 'त्यदादिः' [ ३. १. १२०. ] इत्यनेनापि न भवत्येकशेषः, व्यावृत्तिबलात् । ननु अन्यस्य संख्यावाचिनो व्यावृत्तिश्चरितार्था भविष्यति ? नैवं, व्यावृत्तेर्व्यक्त्या व्याप्त्या वा प्रवृत्तः ।। ३. १. ११६ ।। 30 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० १. सू० १२०. ] त्यदादिः ।। ३. १. १२० ॥ त्यदादि नान्येन च सहोक्तौ त्यदादिरेवैकः शिष्यते । स च चैत्रश्च तौ, यश्च मैत्रश्च यौ, प्रयं च चैत्रश्च इमौ कश्च मैत्रश्च कौ, स्पर्धे परमिति त्यदादीनां मिथः सहोत्तौ यद्यत्पाठे परं तत्तदेवैकं शिष्यते - स च यश्च यौ, यश्च एष च एतौ एष च प्रयं च एतौ स च त्वं च युवाम्, त्वं च भवांश्च 5 भवन्तौ, भवांश्च ग्रहं च आवाम्, अहं च कश्च कौ, ग्रहं च स च त्वं च वयम् । बहुलाधिकारात् क्वचित् पूर्वमपि स च यश्च तौ, अयं च एष च इमौ त्वं च भवांश्च युवाम् । त्यदादेः कृतैकशेषस्य स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गानां युगपत्प्रयोगात् पर्यायप्राप्तौ शिष्यमाणलिङ्गप्राप्तौ वा स्त्रीपुंनपुंसकानां सह वचने स्यात्परमिति यथापरमेव लिङ्ग ं भवति - सा च चैत्रश्च तौ, स च देवदत्ता च तौ प्रत्र 10 स्त्रीपुंसलिङ्गयोः परं पुंलिङ्गमेव भवति, सा च कुण्डे च तानि - अत्र स्त्रीनपुंसकयोः परं नपुंसकमेव भवति, स च कुण्डं च ते, - तच्च चैत्रश्च ते, -प्रत्र पुंनपुंसकयोः परं नपुंसकमेव भवति । कथं स च कुक्कुटः सा च मयूरी ते कुक्कुटमयूयौं ? उच्यते, परलिङ्गो द्वन्द्वोऽशीति समासार्थस्य लिङ्गातिदेशात् तद्विशेषणस्य त्यदादेरपि तल्लिङ्गतैव न्याय्येति ।। १२० ।। 15 न्या० स० त्यदादिः । अन्येन चेति सहोक्ताविति वर्तनात् सहार्थस्य च द्वितीयमन्तरेणाभावात् द्वितीयो लभ्यते, स च विशेषानुपादानात् त्यदादिरन्यश्च ग्रह्यते, इत्याह- त्यदादिनान्येन चेत्यादि । श्रन्यत्वं च प्रत्यासत्तेस्त्यदाद्यपेक्ष्यमेव । स च चैत्रश्चेति ननु च त्यदादेः सामान्यशब्दत्वाच्चैत्रोऽपि स चेति निर्देष्टुं शक्यो न च तावित्युक्त स च चैत्रश्चेति प्रत्ययः किन्तु स च स चेति तत्र च स्यादौ सरूपत्वात् पूर्वेणैव सिध्यतीति 20 व्यर्थोऽस्योपन्यासः ? न व्यर्थः, स च चैत्रश्चेत्येवंविवक्षायां द्वद्वः प्राप्नोतीति, तथाहितच्छब्दो यथा चैत्रव्यतिरिक्तार्थपरामर्शीति प्रकरणादिनाऽवगतं तदा गोबलीवर्द्ध वत्तच्चैत्राविति स्याद्वाक्यवत्तच्छब्दस्य वृत्तावप्यपेक्षा प्रतीयते इति द्वंद्वनिवृत्तिप्रदर्शनार्थोऽस्योपन्यास इत्यदोषः । पूर्व्वमपीति न केवलं तावत् स्पर्द्धे यत्परं तच्छिष्यत इति क्वचिच्च पूर्व्वमपीत्यर्थः 125 शिष्यमारणस्य लिङ्गानुशासने लिङ्गस्य चिन्तायां कृतायामपि विस्मरणशीलं प्रति स्मारयतुमाह- त्यदादेः कृतैकशेषस्येत्यादि । कथमिति यदि लिङ्गानां सहविवक्षायां परमेव लिङ्ग भवति, कथं ते कुक्कुटमयूय इति स्त्रीलिङ्गता ? इत्याशङ्कार्थः । उच्यतेइत्यादिनाऽत्र परिहारमाह-प्रयमर्थो द्वद्वस्य परलिङ्गत्वात् त्यदादेश्चात्र द्वद्वशेषत्वात् Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० १२१-१२२. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५१३ द्वद्वलिङ्गतैव द्रष्टव्या । द्व ंद्वाभावे तु सहोक्तौ तौ कुक्कुटो मयूरीति चार्थे गम्ये तौ कुक्कुटो मयूरो चेत्येकचयोगे तौ कुक्कुटश्च मयूरी चेति चकारद्वययोगे च भवति, स्त्रीपुंनपुसकानामिति वचनात् । अंशीति तच्चार्द्धं पिप्पल्या इति श्रर्द्धकथनम् । तत् पिप्पल्यर्द्धं सा च अर्द्धपिप्पलीत्यपि कृते 'समानामर्थे' [ ३.१.११८. ] इति सूत्रेरणांशिसमासवाचिनः शेषे तस्य च परलिङ्गत्वात् तद्विशेषणानामपि तल्लिङ्गतैव । षष्ठीतत्पुरुषवाचितत्पददेशे तु उत्तर- 5 पदप्राधान्यान्नपुंसकत्वं ततः तद्विशेषणानामपि तथैव भवति । परं ते इति क्लीबे स्त्रियां च न विशिष्यते दिगम्बरसमाधिवत् । ततश्च स्वाद्व्यौ अर्धपिप्पल्यौ स्वादुनी पिप्पल्यर्द्ध इति युक्त उदाहरणे । पिप्पल्यर्द्धस्य श्रर्द्धपिप्पल्याश्च शेषत्वाभावे तद्विशेषणानामेकशेषे नपुंसकलिङ्ग स्त्रीनपुंसकानां सहेति भणनात् ।। ३. १. १२० ।। भ्रातृपुत्रा' स्वसृदुहितृभिः ॥ ३. १. १२१ ॥ बहुवचनं पर्यायार्थम् स्वस्रर्थेन सहोक्तौ भ्रात्रर्थः शब्दो दुहित्रर्थेन सहोक्तौ पुत्रार्थ एकः शिष्यते । भ्राता च स्वसा च भ्रातरौ, सोदर्यश्च स्वसा च सोदयौं, भ्राता च भगिनी च भ्रातरौ पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ सुतश्च दुहिता च सुतौ पुत्रश्च सुता च पुत्रौ ।। १२१ ।। 10 त्वात् न्या० स०-- भ्रातृपुत्राः । बहुवचनमिति ननु भातृपुत्रयोः स्वसृदुहित्रोश्च द्वयर्थ- 15 द्विवचनेन भाव्यं किमर्थं बहुवचनम् ? इत्याशङ्का, बहुवचनाऽभावे हि 'पिता मात्रा' [ ३. १. १२२. ] इतिवद् उच्चारितरूपस्य परिग्रहः स्यान्न तदर्थशब्दान्तराणाम् । बहुवचने तु द्वयोर्बहुत्वायोगात् भ्रातरश्च पुत्राश्चेति तदर्थप्रतिपत्तौ तदर्थशब्दा निद्दिश्यन्त इति । भ्रातरावित्यत्र स्त्रीपुंनपुंसकानां सहवचने स्यात् परमिति पुंलिङ्गमेव भवति । भ्रातरौ शोभनाविति, एवं च भ्राता च भ्राता च भ्रातरौ भ्राता च स्वसा च भ्रातरा - 20 वित्युभयप्रतिपत्तावपि प्रकरणादिना विशेषावगतिः । सोदर्येत्यत्र समानोदरे जातो निपातनात् समानस्य सभावो यश्च प्रत्ययः ।। ३ १. १२१ ।। पिता मात्रा वा ।। ३. १. १२२ ॥ मातृशब्देन सहोक्तौ पितृशब्द एकः शिष्यते वा । पिता च माता च पितरौ, पक्षे - मातापितरौ । मातुरर्च्यत्वात्पूर्वनिपातः ।। १२२ ।। 25 न्या० स०-- पिता मात्राः० । पितृशब्दसाहचर्यात् संबन्धिशब्दत्वाज्जनयित्र्या एव मातुः परिग्रहो न धान्यमातुरिति ।। ३. १. १२२ ।। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १२३-१२४.] श्वशुर श्वश्रू भ्यां वा ॥ ३. १. १२३ ॥ श्वश्रूशब्देन सहोक्तौ श्वशुरशब्द एको वा शिष्यते । श्वशुरश्च श्वश्रूश्चश्वशुरौ, श्वश्रूश्वशुरौ। द्विवचनं जातौ धवयोगे च वर्तमानयोः श्वश्र्वोः परिग्रहार्थम्, तेन-जातौ तन्मात्रभेदे 'पुरुषः स्त्रिया' [३. १. १२६.] इति नित्यविधिन भवति ।। १२३ ।। न्या० स०--श्वशुरः। द्विवचनमिति अत एव पूर्वेण योगविभागः पितृश्वशुरौ मातृश्वश्रूभ्यां चेत्येकयोगे हि द्विवचनं श्वश्रूशब्दद्वयपरिग्रहार्थमिति विज्ञातुं न शक्यमिति । तेन जाताविति धवयोगे तु तन्मात्रभेदो न भवति । धवयोगादिलक्षणस्यार्थस्यापि भिन्नत्वात् इति जातावित्युक्तम् ।। ३. १. १२३ ॥ 10 वो यूना तन्मात्रभेदे ॥ ३. १. १२४ ॥ वृद्धः पौत्रादियुवा जीवद्श्यादिः । वृद्धस्य यूना सहोक्तौ वृद्धवाच्येकः शिष्यते, तन्मात्र एव चेद्भदो विशेषो भवति, न चेत्प्रकृतिभेदोऽर्थभेदो वान्यो भवतीत्यर्थः । गार्ग्यश्च गाायणश्च गाग्यौं, वात्स्यश्च वात्स्यायनश्च वात्स्यौ, दाक्षिश्च दाक्षायणश्च दाक्षी, औपगवश्च औपगविश्च औपगवौ वृद्ध इति किम् ? गर्गश्च गार्यायणश्च गर्गगाायणौ। यूनेति किम् ? गाय॑श्च15 गर्गश्च गार्यगगौं। तन्मात्रभेद इति किम् ? गार्यवात्स्यायनौ-अत्र प्रकृतिरन्या। भागवित्तिभागवित्तिकौ-अत्र कुत्सा सौवीरदेशत्वं चान्योऽर्थः ।। १२४ ।। न्या० स०--वृद्धो यूना० । लोकेऽपूर्ववया वृद्ध उच्यते । शास्त्रे तु व्यवहितमपत्यं पौत्रप्रभृति । ततश्च कृत्रिमाकृत्रिमयोरिति परिभाषया पौत्रप्रभृत्यपत्याभिधायिन एव20 वृद्धशब्दस्य ग्रहणं न वयोवृद्वस्य, एवं युवशब्दस्यापि । ननु ‘पौत्रादि वृद्धम्' [ ६. १. २. ] इति सूत्रे वृद्धमिति नपुसंकमत्र तु पुलिङ्गस्तत् कथं सोऽयं भवति ? उच्यते, सर्ववस्तुनः सर्वलिङ्गयोगित्वस्योक्तत्वात् स्ववाच्ये प्रसवे वृद्धशब्देन लिङ्गद्वयोपादानाददोषः । तन्मात्र एव चेत् भेद इति । अत्र अनयाऽपि रीत्या मात्रशब्दस्याऽवधारणं याति तावेव तन्मात्रम्, तच्चासौ भेदश्चेति । वृत्तौ तु तौ वृद्धयुवानावेव मात्र स्वभावो यस्येति 25 कर्तव्यमन्यथा प्रस्त्वं न स्यात, वद्धयवमात्र एवेत्यर्थः। गाावित्यत्र गार्ग्यश्च गार्ग्यश्च गार्याविति सिद्ध्यति, गार्यश्च गार्यायणश्चेति विवक्षायां तु द्वंद्वः स्यादिति शेषारम्भः । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० १२५ - १२६. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५१५ गार्ग्यगर्गाविति अत्र लघ्वक्षराद्यभावात् पूर्व्वनिपातानियमः । यदा तु गर्गस्यार्च्यत्वविवक्षा तदा तस्य पूर्वनिपातः । भागवितीत्यत्र भागेन वित्तस्तस्यापत्यमत इञि भागवित्तिः । तस्य सौवीरवृद्धस्यापत्यं युवा गहित इति 'भागवित्तिताणबिन्दवः' [ ६. १. १०५. ] इति इकरण ततो द्वद्व: ।। ३. १. १२४ ।। स्त्री पुं वच्च ॥ ३. १. १२५ ।। वृद्धस्त्रीवाची शब्दो युववाचिना सहोक्तावेकः शिष्यते पुंवत् पुंलिङ्गा चेयं भवति, स्त्र्यर्थः पुमर्थो भवतीत्यर्थः, तन्मात्रभेदे । गार्गी च गार्ग्यायणश्च गाग्यौं, वात्सी च वात्स्यायनश्च वात्स्यौ, दाक्षी च दाक्षायणश्च दाक्षी । गार्गी च गार्ग्यायणौ च गर्गाः, -अत्र पुंवद्भावात् ङीनिवृत्तौ यत्रो लुप्, गर्गानिति 'शसोऽता सश्च नः पुंसि' [ १. ४. ४६ ] इति नत्वं च । इमौ गार्ग्यावित्यनु-10 प्रयोगस्यापि पुंस्त्वम् ।। १२५ ।। 5 न्या० स०-- स्त्री पुं वच्च० । नन्वत्र पुंवद्ग्रहणं किमर्थं, स्त्रीत्येवोच्यतां ततश्व स्त्रीवाचिनो युववाचिना पुंसा एकशेषे स्त्रीपु नपुंसकानामित्येव पुंस्त्वं भविष्यति । न च वाच्यं युववाचिनो यदा स्त्रीत्वं तदा किं भविष्यतीति । अस्त्री युवेति भणनात् स्त्रीवाचिनो युवत्वसंज्ञाया अभावात् नापि युववाचिनो नपुंसकत्वं वाच्यं । श्रापत्यतद्धितस्य 15 स्त्रीपुंस्त्वस्यैवोक्तत्वात् ततः पु ंस्त्वस्य सिद्धत्वात् पुंवत्ग्रहणमतिरिच्यते ? न, स्त्रीपुन्नपुंसकानामित्यस्य प्रायस्त्यदादिविषय एव प्रवर्त्तनात्तेन प्रायिकत्वात् नियमार्थं वचनम् । किं च ग्ररुणाचार्येण अपत्यप्रत्ययान्तानामाश्रयलिङ्गत्वमुक्तं ततश्च गार्गीच गार्ग्यायणं चेत्यपि कृते तन्मतेऽपि पुंस्त्वं यथा स्यात् । स्त्र्यर्थः पुमर्थो भवतीति स्त्रीलक्षणोऽर्थो यस्य शब्दस्य स पुमर्थः । यद्वा शब्दस्येति वृत्तावध्याहर्त्तव्यं तस्य संबन्धी 20 स्त्रीलक्षणोऽर्थः पुमर्थः । श्रर्थग्रहणाच्च विशेषणानामपि पुंस्त्वं सिद्ध शब्दस्यैव पुंस्त्वे विशेषणानां न स्यात् । गार्ग्यावित्यत्र पुंवद्भावेनानुप्रयोगे विशेषः, शोभनौ गाग्यौं ।। ३. १. १२५ ।। पुरुषः स्त्रिया ॥। ३. १. १२६ ।। पुरुषशब्दोऽयं प्राणिनि पुंसि रूढः, स्त्रीवाचिना शब्देन सहोक्तौ 25 पुरुषवाची शब्द एकः शिष्यते, तन्मात्रभेदे स्त्रीपुरुषमात्रभेदश्च ेद्भवति । ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणौ, कुक्कुटश्च कुक्कुटी च कुक्कुटौ, मयूरश्च मयूरी च मयूरौ, कारकश्च कारिका च कारकौ, गोमांश्च गोमती च गोमन्तौ - पटुश्च Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ] .. बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १२६.] पट्वी च पटू, गौश्चायं गौश्चेयम् इमौ गावौ । पुरुष इति किम् ? तोरं नदनदीपतेः, घटघटीशरावोदञ्चनानि । तन्मात्रभेदे इत्येव ? हंसश्च वरटा च हंसवरटे, अश्ववडवौ, पुरुषयोषितौ, द्रुणीकच्छपौ, ऋश्यश्च रोहिच्च ऋश्यरोहितौ, क्षेमधृतयश्च क्षत्रियास्तनुकेश्यश्च तत्स्त्रियः क्षेमधृतितनुकेश्यः, अङ्गारकाश्च शकुनयः कालिकाश्च तस्त्रियः कालिकाङ्गारकाः-एषु प्रकृति- 5 भेदः । गणकगणक्यौ, इन्द्र न्द्राण्यौ, भवभवान्यौ, एषु धवयोगलक्षणोऽर्थभेदः, कुक्कुटमयूयौं, अजावर्करौ, अश्वाकिशोरी, कलभहस्तिन्यौ, गोवत्सौ-एषु प्रकृत्यर्थयोर्भेदः । कथं ब्राह्मणवत्सा च ब्राह्मणीवत्सश्च ब्राह्मणवत्साब्राह्मणीवत्सौ-न ह्यत्र स्त्रीपुरुषमात्रभेदादन्यो भेदोऽस्ति ? सत्यम्-तदित्यनेन प्रधानस्त्रीपुरुषौ परामृश्येते तेन प्रधानस्त्रीपुरुषमात्रकृत एव भेदे भवति, अत्र तु10 विशेषणीभूताप्रधानस्त्रीपुरुषकृतोऽपि भेदोऽस्तीति न भवति । अन्ये तु तन्मात्रभेदादधिके प्रकृतिभेदे एवैकशेषं नेच्छन्ति, अर्थभेदे त्विच्छन्त्येव । इन्द्रश्च इन्द्राणी च इन्द्रौ, तथा वरुणाविन्द्रौ भवौ शवौं रुद्रौ मृडाविति, एवं पूर्वसूत्रेऽपि भागवित्तिश्च भागवित्तिकश्च भागवित्तो ।। १२६ ।। - न्या० स०--पुरुषः स्त्रिया०। अत्र वृद्धो यूनेति नानुवर्तते अघटनात्, तदनुवृत्तौ15 हि वृद्धः पुरुषो यूना युवसंज्ञया स्त्रियेति स्यात्, न चैतदस्ति । अस्त्रीति वचनात् स्त्रिया युवसंज्ञाया अभावात् इति सामान्येनाह-स्त्रीवाचिनेत्यादि। ब्राह्मणाविति ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणावित्यादौ जातिसामान्यविवक्षायामऽविवक्षितविशेषत्वात् 'समानामर्थेन' [३. १. ११८.] इत्येकशेषः सिद्ध्यति । भेदविवक्षायां तु द्वंद्वः प्राप्नोतीति वचनम् । कारकश्च कारिका चेत्यत्र यद्यपि 'अस्यायत्तत्' [२.४. १११.120 इति प्रति रित्वं भवति । तथापि प्रकृतिरेकैव न त्वन्या। इमौ गावाविति 'स्यादावसंख्येयः' [ ३. १. ११६.] इत्यनेन त्वेकशेषे कदाचिदिमाविति स्यात् । कदाचिदिमे इति अथ स्त्रीपुनपुसकानां सहवचन इति परं भविष्यति ? सत्यं, ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणावित्यादिसिद्ध्यर्थमवश्यकर्त्तव्येनाऽनेनैव परत्वादिहाऽप्येकशेष इत्यदोषः । तीरं नदनदीपतेरिति नन्वत्र 'नदीदेश' [ ३. १. १४२.] इति सूत्रेणैकार्थता25 कथं न भवति । तथा च 'क्लोबे' [ २. ४. ६७. ] इति ह्रस्वत्वे नदनदिपतेरिति स्यात् ? उच्यते, नदीत्युक्त नदीविशेषो गृह्यते, अयं तु सामान्यवाचीति । घटघटीशरावोदञ्चनानोति चतुर्णामपि सहोक्तौ द्वयोरपि सहोक्तिरस्तीति घटघट्योरेकशेष घटशरावोदञ्चनानीति प्राप्तं । एवं पूर्वसूत्रेष्वपि बहूनामपि सहोक्तौ यथाप्राप्तयोः पदयोरेकशेषो भवत्येव । भेदोऽस्तीति न भवतीति तथाहि ब्राह्मणवत्सशब्दो भिद्यते कथमित्युच्यते30 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १२७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५१७ एकत्र ब्राह्मणस्य वत्सा ब्राह्मणवत्सेति पुमर्थो विशेषणम् । अन्यत्र तु ब्राह्मण्या वत्सो ब्राह्मणीवत्स इति स्त्र्यर्थ इत्यर्थोऽप्यन्य इति तन्मात्रभेदाभावादेकशेषाभावः । यदुपाध्यायः स्त्रीपू सयोः सहोक्तावेकशेषः सा च प्रधानयोरेव भवतीति यत्र प्रधानस्त्रीपूसकृतो विशेषस्तत्रैकशेषः, इह त्वप्रधानस्त्रीपूसकृतोऽपि विशेष इत्येकशेषाभावः । ब्राह्मणवत्सश्च ब्राह्मणीवत्सा चेत्यपि कृतेऽवान्तरस्त्रीलिङ्गभेदान्नैकशेषः ब्राह्मणवत्सा चेति तु 5 कृते भवत्येव ।। ३. १. १२६ ।। ग्राम्याशिशुदिवशफसंघे स्त्री प्रायः ॥ ३. १. १२७ ॥ ग्राम्या अशिशवो ये द्विशफा-द्विखुरा अर्थात्पशवः तेषां संघे स्त्रीपुरुषाणां सहोक्तौ प्रायः स्त्रीवाच्येकः शिष्यते, स्त्रीपुरुषमात्रभेदश्चेद्भवति । पूर्वेण पुरुषशेषे प्राप्ते स्त्रीशेषार्थं वचनम् । गावश्च स्त्रियः गावश्च पुरुषाः इमा10 गावः, अजाश्चेमे अजाश्चेमा इमा अजाः, एवं मेष्य इमाः, महिष्य इमाः । ग्राम्येति किम् ? प्रारण्यानां मा भूत,-रुरवश्चेमे रुरवश्चेमा इमे रुरवः, पृषताश्च पृषत्यश्च पृषता इमे अशिशुग्रहणं किम् ? वत्साश्चेमा वत्साश्चेमे इमे वत्साः, वर्कर्यश्च वर्कराश्च वर्कराः । द्विशफेति किम् ? अश्वाश्चेमे अश्वाश्चेमाः इमेऽश्वाः, गर्दभाश्च गर्दभ्यश्च गर्दभाः, मनुष्यश्चेमा मनुष्याश्चेमे इमे मनुष्याः, पक्षिण्यश्च15 पक्षिणश्च पक्षिणः । संघग्रहणं किम् ? गौश्चायं गौश्चेयम् इमौ गावौ, एवमेतावजौ, प्राय इति किम् ? उष्ट्रयश्च उष्ट्राश्च उष्ट्राः, छाग्यश्च छागाश्च छागाः, व्यावृत्तौ सर्वत्र पूर्वेण पुरुषशेष एव भवति । तन्मात्रभेद इत्येव ? गोवलीवर्दम्, अजाविकम् ।। १२७ ।। न्या० स०--ग्राम्याशिशु०। महिष्य इमा इति । ननु गावोऽजाश्च शिशवो20 भवन्ति तत्कथमत्राशिशव इत्युच्यमानः स्त्रीशेषः ? नैष दोषः । यद्यपि गावोऽजाश्च शिशवो भवन्ति । तत्राशिशूत्वकृतोऽयं विधिर्न तू शिशूत्वनिबन्धनः प्रतिषेधः । इमेऽश्वा इत्यादि एष्वश्वादीनां खुरसंबन्धेऽपि वृत्तैकखुरत्वात् मनुष्यादीनां खुररहितत्वात् द्वितुरत्वाभावात् सर्वत्र पुरुषशेष एव । इमौ गावाविति ननु समुदायस्य संघरूपत्वात्तस्य च द्वयोरपि संभवात् कथं संघ इति वचनात् द्वयोरपि न भवति? सत्यं, द्वितीयेन विना25 सहोक्त रभावात् सहोक्तिग्रहणादेव द्वयोः संघे सिद्ध संघग्रहणं संघप्रकर्षार्थम् । उष्ट्रा इति केचिदत्रोष्ट्रा न ग्राम्या इत्याहुः । तथापि छागा इत्येतदर्थं प्राय इति वक्तव्यम् । ! अजाविकमिति अत्र अविकशब्द उणादौ व्युत्पन्नः । गोबलोवईमित्यत्र 'पशुव्यञ्जनानान्' [ ३. १. १३२.] इति, अजाविकमित्यत्र तु 'गवाश्वादिः' [ ३. १. १४४. ] इति चैकत्वम् ।। ३. १. १२७ ।। 30 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १२८-१२६.] क्लीबमन्येनैकं च वा ॥ ३. १. १२८ ॥ क्लीब-नपुंसक नाम अन्येनाक्लीबेन सहोक्तावेक शिष्यते, तन्मात्रभेदे क्लीबाक्लीबमात्र एव चेद्भदो भवति, तच्च शिष्यमाणमेकमेकार्थं वा भवति, अर्थस्यैकत्वे तद्विशेषणानामपि तथाभावः । शुक्लं च वस्त्रम् शुक्लश्च कम्बलः तदिदं शुक्लम्, ते इमे शुक्ले वा। शुक्लं च वस्त्रं, शुक्ला च शाटी 5 तदिदं शुक्लं ते इमे शुक्ले वा, शुक्लं च वस्त्रं शुक्लश्च कम्बलः शुक्ला च शाटी तदिदं शुक्लं तानीमानि शुक्लानि वा। क्लीबग्रहणं किम् ? स्त्रीपुंसयोरपि शेषः स्यात् । अन्येनेति किम् ? शुक्लं च शुक्लं च शुक्ले, शुक्लं च शुक्लं च शुक्लं च इमानि शुक्लानि,-'स्यादावसंख्येयः'[३. १. ११६.] इत्येक शेषः, अनेन त्वेकशेषे विकल्पेनैकार्थत्वं प्रसज्ज्येत । तन्मात्रभेद इत्येव ? 10 महद्धिमं हिमानी, हिमं च हिमानी च हिमहिमान्यौ, महदरण्यमरण्यानी, अरण्यं च अरण्यानी च अरण्यारण्यान्यौ, अक्षाश्च देवनादयः अक्षारिण चेन्द्रियाणि अक्षाक्षाणि, पद्मश्च नागः पद्मा च लक्ष्मीः पद्म च जलजं पद्मपद्मापद्मानि, एषु प्रवृत्तिनिमित्तलक्षणार्थभेदोऽप्यस्तीति नैकशेषः ।। १२८ ।। न्या० स०-क्लोबम० । ननु समाहारेतरेतरविवक्षायामेकत्वविकल्पो भविष्यति किमेकग्रहणेन ? सत्यं, इदमेकग्रहणं ज्ञापयति, यत् अन्यत्रैकशेषे समाहारविवक्षायामपि एकत्वं न भवति, क्लीबापेक्षया अन्यत्वमित्याह-अन्येनाक्लीबेनेति । प्रान्तेनैवैकशेषेणैकप्रयोगस्य सिद्धत्वादेकं प्रयुज्यमानं क्लीबं विज्ञायते । तस्यैकत्वं चार्थद्वारकमेव वाग्रहणं चैकत्वेनैव संबध्यते न त्वेकशेषेणेत्याह-तच्चेत्यादि । शुक्लानीत्यत्र च क्लीबाक्लीबार्थ-20 योर्भेदात् 'समानाम्' [३. १. ११८.] इत्येकशेषाभावः । स्त्रीपुंसयोरपीति क्लीबग्रहणमन्तरेण यथा क्लोबस्याक्लीबेन सहोक्तावेकशेषस्तथा स्त्रीपुसयोरपि स्त्रीपुसाभ्यां सह वचने स्यादित्यर्थः। महदित्यादि ननु च एतेषु प्रकृतेरेकत्वात् स्त्रीत्वादिलिङ्गविशिष्टस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् को भेदः ? इत्याशङ क्याह-एग्वित्वादि ।। ३. १. १२८ ।। 25 पुष्यार्थाद्धे पुनर्वसुः ॥ ३. १. १२६ ॥ एकशेषो निवृत्तः, एकमित्यनुवर्तते, पुष्यार्थाच्छब्दाढ़े नक्षत्त्रे वर्तमानात्परो भे एव वर्तमानः पुनर्वसुशब्दः सहोक्तौ गम्यमानायां सामर्थ्यात् Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १३०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५१६ द्वयर्थः सन्ने क-एकार्थो भवति । उदितौ पुष्यपुनर्वसू, अर्थग्रहणं पर्यायार्थम्तिष्यपुनर्वसू, सिध्यपुनर्वसू, समाहारे तु पुष्यपुनर्वसु । पुष्यार्थादिति किम् ? आर्द्रापुनर्वसवः । पुनर्वसुरिति किम् ? पुष्यमघा: भ इति किम् ? पुष्यपुनर्वसवो माणवकाः । सहोक्तावित्येव । पुष्यः पुनर्वसू येषां ते पुष्यपुनर्वसवो मुग्धाः ।। १२६ ।। 5 न्या० स०-पुष्यार्था०। एकशेषो निवृत्त इति भिन्नसूत्रकरणात् इत्यर्थः । अन्यथा क्लीबमन्येनैकं च वा पुष्यार्थाढ़े पुनर्वसुश्च नित्यमित्येकमेव योगं कुर्यात् । मे नक्षत्रे वर्तमानादिति एकस्याप्यावृत्त्या उभयस्यापि विशेषणत्वम् । समाहारे त्विति समाहारे त्वेकत्वानेकत्वयोर्नास्ति विशेष इति । पुष्यपुनर्वसवो मारणवका इति । पुष्येण चन्द्रयुक्त न युक्तः काल: 'चन्द्रयुक्तात् काले' [६. २. ६.] इत्यण् एवं पुनर्वसुशब्दादपि,10 ततो 'लुप्त्वप्रयुक्त' ( ) इति लुप्, एवं कालवृत्तिभ्यां पुष्ये जातः पुनर्वस्वोर्जाताविति ‘भर्तु संध्यादेः' [६. ३. ८६.] इत्यण् 'बहुलानुराधा' [६. ३. १०७.] इति तस्य लोपः । ततः पुष्यश्च पुनर्वसू चेति द्वंद्वः । पुष्यपुनर्वसवो मुग्धा इति । मुग्धा इति मुह्यन्ति जना एष्विति 'अद्यर्थाच्चाधारे' [ ५. १. १२. ] इति क्त साध्यः । ततो येषां पुष्यपुनर्वस्वादीनां मुग्धानां कोऽर्थः ? मोहोत्पादकानां मध्ये पुष्यः पुनर्वसू ज्ञायते लोकैस्ते 15 पुष्यपुनर्वसवः मुग्धा इति । कर्तरि क्त तु विपर्यासप्रतिपत्तारः पुरुषाः उच्यन्ते । ततः पुनर्वस्वर्थस्यैकत्वेऽपि अन्यपदार्थतया पुरुषबहुत्वे सति बहुवचनमुपपद्यत एव । अत्रावयवेन विग्रहः समदायः समासार्थः । ततः पूष्य इत्येकोऽवयवः पुनर्वसू इति द्वितीयः । येषामिति समुदायः समासार्थः ।। ३. १. १२६ ।। विरोधिनामद्रव्याणां नवा द्वन्द्वः रवै ॥३. १. १३० ॥20 द्रव्यं गुणाद्याश्रयः,। विरोधिवाचिनां शब्दानां द्रव्यमप्रतिपादयतां द्वद्वो वा एक-एकार्थो भवति, स चेत् द्वद्वः स्वैः सजातीयैरेवारभ्यते । सुखदुःखम्, सुखदुःखे, शीतोष्णम्, शीतोष्णे, जननमरणम्, जननमरणे, लाभालाभम्, लाभालाभौ, संयोगविभागम्, संयोगविभागौ विरोधिनामिति किम् ? रूपरसगन्धस्पर्शाः, कामक्रोधौ, अद्रव्याणामिति किम् ? सुखदुःखाविमौ25 ग्रामौ, शीतोष्णे उदके। स्वैरिति किम् ? बुद्धिसुखदुःखानि । समाहारे चार्थे एकत्वस्येतरेतरयोगे चानेकत्वस्य सिद्धत्वाद्विकल्पे सिद्धे सर्वमिदं ' विकल्पानुक्रमणं नियमार्थम्-विरोधिनामेवाद्रव्याणामेव स्वैरेवेति, तथा च प्रत्युदाहरणे इतरेतरयोग एव भवति ।। १३० ।। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] बृहद्वृत्ति-लधुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १३१-१३२.] न्या स०--विरोधिनामद्रव्यागामिति । अत्र गुणादीनामाश्रयो द्रव्यं गृह्यते । न तु वैयाकरणप्रसिद्धमिदं तदित्यादिलक्षणम् । तस्मिस्तु गृह्यमाणे सुखदुःखादीनामपि द्रव्यत्वप्रसङ्गः। छायातपमिति न भवति तयोर्द्रव्यत्वात् । सजातीयैरेवेति असमानजातीयमविरोधि यद्यवयवान्तरमस्य न भवतीत्यर्थः । एतावता विरोधिपदारब्धत्वेन द्वद्वस्य सजातीयारब्धत्वमुक्तम् । रूपरसगन्धस्पर्शाः इत्यत्र रूपादीनामेकस्मिन्नपि नारङ्गादिपदार्थे 5 . सहावस्थानाद् विरोधाभावान्नायं विधिरिति । सुखदुःखाविमौ इत्यत्र सुखदुःखौ शीतोष्णौ उपचाराद् द्रव्ये वर्तेते । बुद्धिसुखदुःखानीति अत्र सुखदुःखे विरोधिनी बुद्धिस्त्वविरोधिनीति अविरोध्यवयवोऽप्यसौ द्वंद्व इति वचनान्न कवद्भावः । समाहारे चेत्यादि अनेकश्च नियमो वाक्यभेदेन समर्थ्यते, सर्वत्राऽपि च प्रत्युदाहरणं व्यवच्छेद्यम् ।। ३. १. १३० ।। अश्ववडवपूर्वापराघरोत्तराः ॥ ३. १. १३१ ॥ अश्ववडवेति पूर्वापरेति अधरोत्तरेति त्रयो द्वद्वा एकार्था वा भवन्ति, स्वैः । अश्वश्च वडवा चाश्ववडवम्, अश्ववडवौ-अश्ववडवेति निर्देशादेवेतरेतरयोगे ह्रस्वत्वं निपात्यते, पूर्वापरम्, पूर्वापरे, अधरोत्तरम् अधरोत्तरे, पशुविकल्पेनैव सिद्धेऽश्ववडवग्रहणं तत्पर्यायनिवृत्त्यर्थम्, हयवडवे । स्वैरित्येव अजाश्ववडवाः न्यायादेव विकल्पे सिद्धे पूर्वापरादिग्रहणं पदान्तरनिवृत्त्यर्थम्-15 तेन पूर्वपश्चिमौ, दक्षिणापरौ, अधरमध्यमौ, उत्तरदक्षिणावित्यत्र विकल्पो न भवति ।। १३१ ।। न्या० स०--अश्ववडव०। अजाश्ववडवा इति अत्रेतरेतर एव अन्यथा अश्ववडवेत्यस्य पशुद्वारो विकल्पः सिद्ध एवातो व्यावृत्त्यर्थं ग्रहणम् । न्यायादेवति समाहारेतरेतरलक्षणात् ।। ३. १. १३१ ॥ 20 पशुव्यञ्जनानाम् ॥ ३. १. १३२ ।। पशूनां व्यञ्जनानां च स्वैर्द्वन्द्व एक एकार्थो वा भवति । गौश्च महिषश्च गोमहिषम् गोमहिषौ, अश्वबलीवर्दम् अश्वबलीवदौं, वृष्णिस्तभम् वृष्णिस्तभौ, महाजोरभ्रम् महाजोरभ्रौ, व्यञ्जन-दधिघृतम्, दधिघृते, शाकसूपम्, शाकसूपौ। अश्वमहिषमित्यत्र तु परत्वात् 'नित्यवरस्य'25 [ ३. १. १४१. ] इति नित्यमेकत्वविधिः। स्वैरित्येव ? गोनरौ, दधिवारिणी, दध्युष्ट्रौ ।। १३२ ।। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५२१ न्या० स०-- पशुव्यञ्ज० । अत्रावयवावयविसंबन्धे षष्ठी, तेन पश्ववयवो व्यञ्जनावयवश्च द्वंद्व इत्यर्थः । अत्र पशवो ग्राम्या गवादयो ग्राह्या न त्वारण्या : कुरङ्गादयः । उत्तरत्र मृगग्रहणात् । व्यञ्जनमिति व्यञ्जनं येनान्न रुचिमापद्यते तद्दधिघृतशाकसूपादि । स्वरिति त्रापि पशुत्वेन व्यञ्जनत्वेन च स्वत्वम् । वृष्णिस्तभमित्यत्र स्तभेः सौत्रादचि स्तभोजः, पशुव्यखनानामिति बहुवचनात् बहूनां 5 पशु सेनाङ्गानां यदेकत्वं नित्यं तदनेन बाध्यते । तेन हस्त्यश्वं हस्त्यश्वा भवतीति न्यास: ।। ३. १. १३२ ।। [ पा० १. सू० १३३.] तरुतृणधान्यमृगपक्षिणां बहुत्वे ॥ ३. १. १३३ ॥ एतेषां बहुत्वे वर्तमानानां प्रत्येकं स्वैर्द्वन्द्व एक एकार्थो वा भवति । तरु, प्लक्षाश्च न्यग्रोधाच प्लक्षन्यग्रोधम् प्लक्षन्यग्रोधाः, एवं धवाश्वकर्णम् 10 धवाश्वकर्णाः, तृण–कुशकाशम् कुशकाशाः, मुञ्जवल्वजम् मुञ्जवल्वजाः, धान्य - तिलमाषं, तिलमाषाः, व्रीहियवम् व्रीहियवाः, मृग - रुरुपृषतम्, रुरुपृषताः, ऋश्यैणम्, ऋश्यैरणाः, पक्षिन् - हंसचक्रवाकम्, हंसचक्रवाकाः, तित्तिरिकपिञ्जलम्, तित्तिरिकपिञ्जलाः । एकस्यापि पदस्य बहुत्वे भवति -‍ - प्लक्षश्च न्यग्रोधाश्च प्लक्षन्यग्रोधम् प्लक्षन्यग्रोधाः, प्लक्षौ च न्यग्रोधाश्च प्लक्षन्यग्रोधम् प्लक्षन्यग्रोधा 15 इत्यादि । बहुत्व इति किम् ? प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधौ, प्लक्षौ च न्यग्रोधौ च प्लक्षश्च न्यग्रोधौ चेति वा प्लक्षन्यग्रोधाः । स्वैरित्येव ? प्लक्षयवाः, गोपृषताः श्रारण्याः पशवो मृगा इति मृगाणामपि पशुत्वात् पशुविकल्पेनैव सिद्धे सिद्धे मृगाणामिहोपादानम् प्रमृगैरबहुत्वे चैकत्वाभावार्थम् ।। १३३ । 20 न्या० स०-- तरुतृण० । तरुरिति सामान्येनोक्त ेऽपि तरुविशेषा गृह्यन्ते । तेन तरवश्व वृक्षाश्चेति धवाश्व वृक्षाश्चेति वा कृते इतरेतरयोग एव । प्लक्षाश्चेत्यादि ननु वृत्तौ वत्तिपदार्थानामभेदैकत्वसंख्याया एव भावात् कथमत्र बहुत्वम् ? नैवं यत्र संख्या भेदप्रतिपत्तौ निबन्धनमस्ति तत्र वत्तिपदान्यपि तमेव संख्याभेदमुपाददते । बहुत्वपरिग्रहे चाऽत्र एकवद्भावो निबन्धनं तत्रैव तस्य भावादित्यदोषः । हंसचक्रवाकमित्यत्र चक्र - 25 वाकमित्यत्र चक्र इति वाक आख्या यस्य । अथवा वचनं वाकश्र्चक्रस्येव वाको येषां ते चक्रवाकाः । प्लक्षौ च न्यग्रोधौ चेति तरुतृणादीनां द्वद्वावयवानामेव बहुत्व इति विशेषणात् द्वंद्वस्य बहुत्वेऽपि न समाहारः । अमृगैरबहुत्वे चेति यदा ग्राम्यपशूनामरण्यपशुभिः सहोक्तिर्भवति तदा माभूदित्यर्थः ।। ३. १. १३३ ।। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १३४.] सेनाकक्ष दजन्तूनाम् ॥ ३. १. १३४ ॥ सेनाङ्गानां क्षुद्रजन्तूनां च बहुत्वे वर्तमानानां स्वैर्द्वन्द्व एक एकार्थो नित्यं भवति, पृथग्योगाद्वति निवृत्तम् । सेनाङ्गम्, अश्वाश्च रथाश्चाश्वरथम्, रथिकाश्वारोहम्, हस्त्यश्वम्, केचित्तु सेनाङ्गानां पशूनां पशुलक्षणं विकल्पमिच्छन्ति-हस्त्यश्वम् हस्त्यश्वाः । क्षुद्रजन्तवोऽल्पकायाः प्राणिन प्रानकुलमिह 5 स्मर्यन्ते, यूकालिक्षम्, यूकामत्कुणम्, दंशमशकम्, शतश्वश्चोत्पादकाश्च शतशूत्पादकम् । कीटपिपीलिकम् । बहुत्व इत्येव ? सादिनिषादिनौ, अश्वरथौ, यूकालिखे, स्वैरित्येव ? हस्तिमशकाः ॥ १३४ ॥ न्या० स०-सेनाङ्गक्षुद्र०। अत्रापि सेनाङ्गत्वादिना स्वत्वं । एषु सर्वेषु बहुवचनमेकार्थविधेः क्वचिदन्यत्वख्यापनार्थमित्युपाध्यायसंप्रदायः । पृथग्योगादिति अन्यथा-10 र्थस्य समानत्वात् पूर्वेणैकयोगः स्यादित्यर्थः। अत्र यथाश्वरथमिति भवति तथा हस्त्यश्वारोहमिति न स्वकीयत्वाभावात् । न च वाच्यं सेनाङ्गत्वेन स्वत्वमिति । यतो सेनाङ्गेष्वपि पारोह्याणामारोह्यणारोहकाणामारोहकेण च स्वत्वमिष्यते । अत्र च न तथेति । एवं प्राणितूर्याङ्गाणामित्यत्राऽपि तूर्याङ्गेषु वाद्यानां वाद्येन वादकानां वादकेन च स्वत्वं दृश्यम् । केचित्त्वित्यत्र जयादित्यः, इदं तु 'पशुव्यञ्जनानाम्' [३. १. १३२.] 15 इति सूत्रे बहुवचनात् संगृहीतम् । क्षुद्रजन्तव इत्यत्र क्षुद्रशब्दोऽनेकार्थः, क्वचिदङ्गहीने शीलहीने। शोलहीनेऽत्र वर्तते यथा 'क्षुद्राभ्य एरण्वा' [६. १.८०] इति, अत्र हि शीलहीना अङ्गहीनाश्च स्त्रियो विज्ञायन्ते । क्वचित् कृपणे वर्तते यथा क्षुद्रो देवदत्तः, क्वचिदल्पपरिमाणे-यथा क्षुद्रास्तन्दुला इति । तत्रेह प्रतिषेधविषये प्रारम्भोपयोगात् क्षुद्राः प्राणिन एव प्रतिपाद्यन्ते इति जन्तुग्रहणमतिरिच्यते, तस्मात्तदुपादानसामर्थ्यादल्प-20 परिमाणाः प्राणिविशेषाः क्षुद्रजन्तुशब्देनोच्यन्ते इत्याह-क्षुद्रजन्तव इति । क्षुद्रजन्तुरनस्थिः स्यादथवा क्षुद्र एव यः । शतं वा प्रसृतिर्येषां केचिदा नकुलादपि ॥ १॥ क्षुद्रजन्तुरकाङ्कालो, येषां स्वं नास्ति शोणितम् । नाञ्जलिर्यत् सहस्रण केचिदा नकुलादिति ।। २ ॥ ____ द्वे अप्येकार्थे । आनकुलमिह स्मर्यन्ते इत्यत्र नकुलादारभ्य ये हीनकाया वा नकुलादयस्ततोऽप्यपचितपरिमाणाश्च यावत् कुन्थव इति क्षुद्रजन्तवः शिष्टः स्मर्यन्ते । यूकालिक्षमित्यत्र 'ऋजिऋषि' ५६७ (उणादि) इति कित् सप्रत्यये ऋफिडादित्वाद् रस्य लत्वम् ।। ३. १. १३४ ।। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १३५-१३६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५२३ 10 फलस्य जातौ ॥३. १. १३५ ॥ फलवाचिनां शब्दानां बहुत्वे वर्तमानानां जातौ विवक्षायां स्वर्द्वन्द्व एक एकार्थो भवति । बदराणि चामलकानि च बदरामलकम्, कुवलामलकम् । फलस्येति किम् ? ब्राह्मणक्षत्रियाः । जाताविति किम् ? व्यक्तिपरचोदनायां मा भूत्-एतानि बदरामलकानि तिष्ठन्ति । बहुत्वे इत्येव ? 5 बदरामलके, बदरामलकम् । स्वैरित्येव ? बदरशृगालाः ।। १३५ ।। न्या० स०-फलस्य०। बदरामलकमिति बदर्या विकारः फलं 'हेमादिभ्योऽन्' [६. २. ४५.] अामलक्या विकारः फलं 'दोरप्राणिनः' [६. २. ४६.] मयट् । द्वयोरपि 'फले लुप्' [६. २. ५८.] । व्यक्तिपरेति व्यक्तिः परं प्रधानं यस्यां सा तथा चोदना उक्तिस्तत्र ।। ३. १. १३५ ।। अप्राणिपश्वादेः ॥ ३. १. १३६ ॥ बहुत्व इति निवृत्तम्, पूर्वयोगारम्भात्, प्राणिभ्यः पश्वादिसूत्रोक्त भ्यश्च येऽन्ये द्रव्यभूताः पदार्थास्तेषां जातौ वर्तमानानां शब्दानां स्वैर्द्वन्द्व एक एकार्थो भवति । पारा च शस्त्री च पाराशस्त्रि, धाना च शष्कुली च धानाशष्कुलि, एवं युगवस्त्रम्, कुण्डबदरम्, तरुशैलम्, जातावित्येव । विन्ध्यहिमालयौ,15 नन्दकपाञ्चजन्यौ, जातिविवक्षायामयं विधिः, व्यक्तिविवक्षायां तु यथाप्राप्तम्-पाराशस्त्रि पाराशस्त्र्याविमे। प्राणिपश्वादिजातिवर्जनं किम् ? ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः, ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रम्, गोमहिषौ, गोमहिषम्, दधिघृते, दधिघृतम्, प्लक्षन्यग्रोधौ २, कुशकाशौ २, व्रीहियवौ २, रुरुपृषतौ २, हंसचक्रवाकौ २, अश्वरथौ २। अप्राणीति प्राणिनो द्रव्यस्य पर्युदासेना-20 प्राणिनो द्रव्यस्य ग्रहणादिह न भवति-रूपरसगन्धस्पर्शाः, उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणगमनानि । स्वैरित्येव । बदरशृगालौ ।। १३६ ।। न्या० स०-अप्रारिण। पूर्वयोगारम्भादिति फलस्याप्रारिणत्वेन अनेनैव सिद्धत्वात् । न च पूर्वयोगमन्तरेणात्र जाताविति न स्यादिति वाच्यं । अत्रैव जातिग्रहणं करिष्याम इति । द्रव्यभूता इत्यत्राप्राणीति पर्युदासेन तत्तुल्यस्य द्रव्यस्य प्रतिपत्तिस्तेषां25 च जाताविति विशेषणमित्याह-द्रव्यभूता इत्यादि। आराशस्त्रीति अत्र पाराशब्दो भिदादिः शस्त्रीविशेषवाचकः । तेन गोबलीवर्दन्यायेन सामान्यविशेषयोरत्र द्वंद्वो द्रष्टव्यः । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १३७.] यत्राप्राणीति वचनात् प्राप्तिस्ते पश्वादिसूत्रोक्ता व्यञ्जनादयो ग्राह्याः । न तु पशवस्तत्र 'अप्राणि' [ ३. १. १३६. ] इत्यनेनैव निषेधसिद्धेः । धाना च शष्कुली च इत्यत्र शष्कुलीशब्दो गौरादौ व्युत्पादितः । अन्ये त्विमं पृषोदरादित्वान्मूर्द्धन्यादि पठन्ति । नन्दकपाञ्चजन्यावित्यत्र नन्दतात् 'आशिष्यकन्' [ ५.१.७० ] पञ्च च ते जनाव पञ्चजनाः । ‘संख्या समाहारे च' [ ३.१.२८. ] इति समासे कृते पञ्च जना यस्येति 5 ar बहुव्रीहौ 'गम्भीरपञ्चजन' [ ६. ३. १३५. इति ञ्यः । संज्ञाशब्दावेतावनादिनिधनयोर्वैष्णवयोः शङ्खखड्गयोर्वर्त्तेते । ] ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रा इति पत्र प्राणिवर्जनात् ब्राह्मणादीनां च प्राणित्वादयं नित्यो विधिर्न भवति । दधिघृते इत्यादिप्रयोगेषु च पश्वादिवर्जनात् दधिघृतादीनां च पश्वादिसूत्रोक्तत्वादनेन नित्यैकवद्भावाभाव:, ततश्च यथाप्राप्तमेव भवति । कुशकाशाविति 10 वा बहुत्व इति व्यावृत्तिर्व्यक्तिविवक्षायां चरितार्था इति जातावेकार्थता प्रसज्येत । अश्वरथाविति नन्वत्र यथा पश्वादिसूत्रोक्तवर्जने दधिघृते दधिघृतमित्यादिषु यथाप्राप्तस्य विधानं दशितमेवं 'फलस्य जातौ' [ ३. १. १३५. ] इत्यस्याऽपि व्यवच्छिन्नत्वात् कथमत्र यथाप्राप्तं न दर्शितम् ? उच्यते, पश्वादिमध्ये पूर्वसूत्रं न गण्यते, अस्यैव सूत्रस्य प्रपञ्चात् । ततः पूर्वसूत्रव्यावृत्त्यैव समाहारनिषेधात् जातौ एकत्वद्वित्वयोरितरेतरो भवति 15 न समाहारः । अतो न दर्शितं प्रत्युदाहरणम् । श्रप्राणीति अत्र जातिप्रदेशेषु द्रव्यजातेक्रियाजाचा विशे प्रेरण ग्रहणदृष्टान्तादिहाऽपि तद्वदेवेति यः शङ्कते तं प्रत्याह प्राणीति । रूपरसगन्धस्पर्शा इत्यत्र वैकल्पिकोऽपि समाहारो न 'विरोधिनाम्' [ ३. १. १३०. ] इति नियमस्य व्याख्यानतः । बदरशृगालाविति अत्र बदरप्रमाणी शृगालः प्राणीति ।। ३. १. १३६ ।। 20 प्राणितूर्याङ्गाणाम् ॥ ३. १. १३७ ॥ प्राण्यङ्गानां तूर्याङ्गाणां च स्वैर्द्वन्द्व एक एकार्थो भवति । प्राण्यङ्गदन्ताश्च प्रष्ठौ चेदं दन्तोष्ठम्, इदं शिरोग्रीवम्, इदं पाणिपादम् इदं कर्णनासिकम्, तूर्याङ्ग- शङ्खशाङ्खिकादिसमुदाय स्तूर्यम् अङ्गान्यवयवाः, इदं शंखपटहम्, इदं भेरीमृदङ्गम्, शांखिकमौरजिकम्, मार्दङ्गिकपाणविकम्, 25 वीणावादकपरिवादकम् । स्वैरित्येव ? पाणिगृधौ, पीठपटहौ, पारिणपणवौ । प्राण्यङ्गानां तूर्याङ्गेषु च शंखपटहादीनामप्राणिजातित्वात् पूर्वेण सिद्धे व्यक्तिविवक्षायां विधानार्थम् जातिविवक्षायां प्राण्यङ्गाप्राण्यङ्गादिसंभेद एकत्व निराकरणार्थं च वचनम्, एतज्ज्ञापनार्थमेव च बहुवचनम् ।। १३७ ।। न्या० स० – प्राणितूर्या० । प्राण्यते एभिरिति 'व्यञ्जनाद् घञ्' [५. ३. १३२. ]30 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १३८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५२५ प्राणास्ततो मत्वा यः । प्राणी च तूयं चेति समाहारे इतरेतरयोगे वा द्वद्वः ततस्तस्याङ्गशब्देन तत्पुरुषः । तत्र समाहारद्वद्वे समाहारस्याङ्गायोगात् समहारिण एवाङ्गसंबन्धो विज्ञायते, इतरेतरयोगे तु द्वंद्वस्यावयवप्रधानत्वात् स्पष्ट एवावयवस्याङ्गसंबन्धः। शङ्खशाङ्घिकादिसमुदायेति शङ्खादीनि वाद्यानि शाङ्खिकादयो वादकाः । 'भीवृथि' ३८७ (उणादि) इति रेफे ङ यां च भेरी। यदा मृदङ्गश्च शङ्खपटहं चेति क्रियते तदा समाहारो 5 न भवति, तूर्याङ्गसमुदायत्वात् । निराकरणार्थमिति पाणिपणवावित्यत्र 'अप्राणिपश्वादेः' [ ३. १. १३६. ] इति प्राप्तस्य पाणिपणवयोरप्राणित्वेन स्वत्वात् ।।३.१.१३७।। चरणस्य स्थेणोऽद्यतन्यामनुवादे ॥ ३. १. १३८ ॥ शाखाध्ययननिमित्तकव्यपदेशभाजो द्विजन्मानश्चरणाः कठादयः, प्रमाणान्तरप्रतिपन्नस्यार्थस्य शब्देन संकीर्तनमनुवादः, यज्ञकर्मणि शंसितानु-10 शंसनमित्येके, अनुकरणमित्यपरे, अद्यतन्यां परभूतायां यौ स्थेणौ तयोः अनुकथने कर्तृत्वेन संबन्धिनो ये चरणास्तद्वाचिनां शब्दानां स्वैर्द्वन्द्वोऽनुवादविषय एक एकार्थो भवति । प्रत्यष्ठात् कठकालापम्, उदगात् कठकौथम् प्रत्यष्ठात् मौदपैष्पलादम्, एषामुदयप्रतिष्ठे कश्चिदनुवदति । चरणस्येति किम् ? उदगुस्तार्किकवैयाकरणाः । स्थेण इति किम् ? अगमन्कठकालापाः ।15 अद्यतन्यामिति किम् ? अतिष्ठन्कठकालापाः। अनुवाद इति किम् ? उदगुः कठकालापाः, अप्रसिद्ध कथयति । अन्ये तु स्थेणोद्यतनीप्रयोगादनु पश्चाद्वादश्चरणद्वन्द्वस्येत्यनुवादस्तत्रेच्छन्ति, तन्मते इह न भवति-कटकालापाः प्रत्यष्ठुः, कठकौथुमा उदगुः ।। १३८ ।। न्या० स०--चरणस्य०। प्रमाणान्तरप्रतिपन्नेति शब्दात् प्रमाणादन्यत् प्रत्य-20 क्षादि प्रमाणान्तरं तेन प्रतिपन्नम् । शंसितानुशंसनमिति शंसनं शंसः तं करोति णिच्, ततः क्तः, अन्यथा 'वेटोऽपतः' [ ४. ४. ६२. ] इतीटो निषधः । शंसितस्य कथितस्यानुशंसनम् । अनुकरणमिति पूर्वकृतस्य पश्चात् सादृश्येन वा करणं क्रिया। अनुकथने कर्तृत्वेनेति गौणमुख्ययो:* इति न्यायात् मुख्यवृत्त्या कर्ता लभ्यते । तेन यदा भावे प्रयोगस्तदा प्रत्यष्ठायि कठकालापाभ्यामिति भवति न तु समाहारः । कठकालापमिति25 करेन कलापिना प्रोक्त वेदं विदन्त्यऽधीयते वा 'तेन प्रोक्त' [ ६. ३. १८१. ] 'तद्वेत्यधीते' [६. २. ११७.] इत्यण् । तस्य प्रोक्तार्थस्य 'कठादिभ्यः' [६. ३. १८३. ] । इति चाणो लुप्। कालाप इत्यत्र तु 'कलापिकुथुमि' [ ७. ३. २४. ] इति इनो लुपि वृद्धौ कालापः। कठकौथुममिति कुथेः 'उद्वटिकुल्यलि' ३५१ (उणादि) इति कित्युमे कुथुमं30 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १३६.] वमी ततो मत्वर्थीये इनि 'तेन प्रोक्त' [ ६.३. १८१. ] इत्याद्यविधिः । मौदपैष्पलादमिति मुदस्य मोदस्य वा पिष्पलादस्य चापत्यं 'ऋषिवृष्ण्यण्' [ ६. १. ६१. ] मौदेन पैष्पलादेन च प्रोक्तमिति वाक्ये ईयस्य बाघको 'मौदादिभ्य:' [ ६. ३. १८२.] इत्यण् 'तवेत्त्यधीते' [६. २. ११७.] इत्यण् तस्य 'प्रोक्तात्' [ ६. २.१२९. ] इति लुप् । ताकिकेति तर्केण चरति तर्कः प्रयोजनमस्येति वा 'चरति ' [ ६. ४. ११. ] 'प्रयोजनम्' 5 [६.४.११७.] इति वा इकरिण, यद्वा तर्कं वेत्त्यधीते वा 'न्यायादेरिकरण ' [ ६.२.११८. ] परं तदा न्यायादिष्वपठितोऽपि दृश्यः ।। ३. १. १३८ ।। अक्लीबेऽध्वर्यु क्रतोः ।। ३. १. १३६ ।। अध्वर्यवो यजुर्वेदविदः, तेषां वेदोऽप्यध्वर्युः, तत्र विहिताः क्रतवोऽश्वमेधादयोऽध्वर्युक्रतवः, ससोमको यागः ऋतुः, अध्वर्युक्रतुवाचिनां शब्दानां 10 स्वैर्द्वन्द्व एक एकार्थो भवति, अक्लीबे क्लीबे चेदध्वर्युक्रतुवाची शब्दो न भवति । अर्कश्चाश्वमेधश्चार्काश्वमेधम्, साह्लातिरात्रम्, पौण्डरीकातिरात्रम्, अर्कादयः पुंलिङ्गाः । प्रक्लीबग्रहणं किम् ? गवामयनादित्यानामयने । प्रसज्यप्रतिषेधः किम् ? राजसूयं च वाजपेयं च राजसूयवाजपेये, इमौ ऋतू पुंलिङ्गावपि स्त इति पर्युदासाश्रयणेऽत्रापि स्यात् । अध्वर्युग्रहणं किम् ? इषुवत्रौ 15 उद्भिद्विलभदौ, इष्वादयः सामवेदे विहिताः । ऋतुग्रहणं किम् ? दर्शपौर्णमासौ ।। १३६ ।। وا न्या० स०-- प्रक्लीबे० । साङ्खातिरात्रमिति सह अह्ना वर्त्तते पृषोदरादित्वात् अह्नादेशे 'नाम्नि' [ ३. २. १४४. ] इति नित्यं सादेशः । यद्वा अह्नां समूहः 'अश्वादिभ्योऽञ्' ( ) अनीनाद्योऽनोऽस्य लुप् । सहाह्न ेन भवति ते सातश्चातिरात्रश्च 120 पुण्डरीको देवताऽस्य 'देवता' [ ६. २. १०१. ] इत्यरण । गवामयनादित्यानामयने इति श्रामीनातीति अच्, अमरण 'कुगुवलि' ३६५ ( उणादि ) इत्ययो वा । आमयं करोति 'णिज्बहुलं' [ ३. ४. ४२ ] ग्रामय्यन्ते सरोगीक्रियन्तेऽनेनानटि । ततो गवामामयनं गवामयनम् । अयनशब्दे वा उत्तरपदे बाहुलकात् षष्ठ्या प्रलुप् । तथा प्रदितेरपत्यानि आदित्या देवाः न श्रामयनं शेषं पूर्ववत् । प्रसज्यप्रतिषेधः किमिति क्लोबे चेदध्वर्यु ऋतु-25 वाची न भवतीति यः प्रसज्यप्रतिषेधो वृत्तौ दर्शितः स किमर्थः । प्रसज्यो हि नञ् क्रियया संबध्यते, इतरस्तु नाम्ना । राज्ञा सोतव्यो राजा वाऽत्र सूयते इति 'संचाय्यकुण्डपाय्य' [ ५. ४. २२. ] इति निपातः । वज्यत इति वाजः । कर्मणि घञ्, क्त सेट्त्वाद् गत्वाभावः पातव्यः पेयो वाजो यस्य । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १४०-१४१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५२७ क्रतुग्रहणं किमिति । अत्र ऋतुशब्दस्य ससोमके यागे रूढत्वाइंर्शपौर्णमासयोश्चानाम्नातसोमपानत्वाद्यजुर्वेदोपदिष्टत्वेऽपि ऋतुशब्देनानभिधानान्नैकवद्भाव इत्यर्थः । यत्र त्वसोमपानेऽपि ऋतुशब्दः श्रूयते दर्शपौर्णमासयोर्यज्ञक्रत्वोश्चत्वार ऋत्विज इति स प्रशंसार्थ औपचारिक इत्यदोषः । दर्शपौर्णमासाविति दृश्यतेऽनेन व्यञ्जनाद् घत्रि दर्शोऽमावस्या उपचारादर्शभवो यागोऽपि दर्शः। पूर्णो माश्चन्द्रोऽस्यां पूर्णमासोऽरण 5 डी:, पौर्णमास्यां यागः 'भर्तु संध्यादेरण' [ ६. ३. ८६.] ।। ३. १. १३६ ।। निकटपाठस्य ॥ ३. १. १४० ॥ निकटः पाठो येषामध्येतृ णां ते निकटपाठः, तद्वाचिनां द्वन्द्व एक-एकार्थो भवति स्वैः । पदमधीते पदकः, एवं क्रमकः, पदकश्च क्रमकश्च पदकक्रमकम्,पदानन्तरं क्रमस्य पाठात् पाठयोनिकटत्वम्, एवं क्रममधीते क्रमकः, वृत्तिमधीते10 वार्तिकः, क्रमकश्च वार्तिकश्च क्रमकवार्तिकम्, चर्चा पारयतीति चर्चापारः, स च खण्डिकश्च चर्चापारखण्डिकम् निकटेति किम् ? याज्ञिकवैयाकरणौ । पाठेति किम् ? पितापुत्रौ ।। १४० ।। न्या० स०--निकट। इह पाठशब्दो भावे कर्मणि वा। भावपक्षे पाठशब्देन पाठक्रियोच्यते तेन पाठक्रियया निकटव्यपदेशानामित्यर्थो जायते । निकटत्वं च कालरूपं1 प्रसिद्धमेव । यथा सूत्राध्ययनसमाप्तिसमनन्तरमेव धातवः पठ्यन्ते । तथैव पदान्यधीत्य क्रमोऽधीयते इत्यों भवति । यदा कर्मणि पठ्यते इति पाठो ग्रन्थो द्रव्यात्मा उच्यते । स च ग्रन्थ एकोऽपि पदक्रमसंहिताभेदकल्पनया भिन्नस्ततश्च पठयमानैकग्रन्थनिमित्तं कालरूपतो नैकटयं संभवति । तेन पाठयोरिति पाठक्रिययोः । पठ्यमानग्रन्थयोर्वेत्यर्थः, वृत्तिमधीते न्यायादित्वादिकणि-वात्तिकः यज्ञमधीते 'याज्ञिकौक्थिक' [६. २. १२२.] 20 इति निपातः । याज्ञिकः अत्र पाठक्रिये पठितव्यौ च ग्रन्थौ अत्यन्तं संनिकृष्टौ इति तन्निमित्तौ शब्दावपीति । पितापुत्राविति अत्र निकटा जननक्रिया न तु पाठ इति ।। ३. १. १४० ।। नित्यवैरस्य ॥ ३. १. १४१ ॥ नित्यमनिमित्तं जातिनिबद्धं वैरं येषां तद्वाचिनां शब्दानां स्वैद्वंद्व एक एकार्थो भवति । अहिनकुलम्, मार्जारमूषिकम्, ब्राह्मणश्रमणम्, श्वावराहम्-25 'शुनः' [ ३. २. ६०. ] इति दीर्घत्वम्, श्वचण्डालम्, पशुविकल्पः पक्षिविकल्पश्च परत्वादनेन बाध्यते-अश्वमहिषम्, काकोलूकम् । नित्यवैरस्येति किम् ? कौरवपाण्डवाः, कौरवपाण्डवम्, देवासुराः, देवासुरम्:,-नैषां Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते ५२८ ] [ पा० १. सू० १४२. ] निर्निमित्तं वैरमपि तु राज्यापहारादिकृतम् । अन्ये तु वैर एवाभिधेये समाहारमिच्छन्ति - श्वावराहम्, मार्जारमूषिकम् वैरमिति, वैरिषु तु यथाप्राप्तम्, दक्षिणाद्वामगमनं प्रशस्तं श्वशृगालयोर्विद्यते लोक प्रौत्पत्तिको विरोधो यथा मार्जारमूषिकयोः ।। १४१ ।। न्या० स०-- नित्यवैरस्य । ' गवाश्वादि:' [ ३. १. १४४ ] इत्यत्र नित्यवैरा- 5 भावपक्षे श्वचंडालमित्युक्त तच्च परमते ज्ञातव्यम् केचिदभ्यधुर्नानयोर्नित्यं वैरं किंतु कृतकं वैरम् । तथाहि - चण्डालः श्वानं हन्ति प्रथमं ततः श्वा पृष्ठतो घावति इति कृतकं वैरम् । नित्यमनिमित्तमिति जातेरन्यदर्थादि निमित्तं न विद्यत इत्यर्थः । पशुविकल्प इति पशुद्व द्वविकल्पो महाजोरभ्रमित्यादौ सावकाशोऽयं तु नित्यविधिर्ब्राह्मणश्रमण• मित्यादी अश्वमहिषं काकोलूकमित्य तूभयप्राप्तौ परत्वादयमेव विधिरित्यर्थः । कौरव - 10 पाण्डवा इति कुरुशब्दादिदमर्थे 'उत्सादेरञ्' [ ६. १. १६. ] पाण्डुशब्दादपत्ये 'शिवादेरण्' [ ६. १. ६०. ] । वैर एवेति तच्चोपचारात् श्वावराहादिकृतं वैरमपि श्वावराहम् । श्वावराहं वरमिति श्वा वराहश्चेत्युपचाराद् वैरे वर्त्तते । श्रौत्पत्तिक इत्यत्र उत्पत्तौ भवः 'अध्यात्मादिभ्य इकण्' [ ६. ३. ७८. ] जन्मप्रभव इत्यर्थः ।। ३. १. १४१ ।। नदीदेशपुरां विलिङ्गानाम् ॥ ३. १. १४२ ॥ विविधं लिङ्ग येषां तेषां नदीदेशपुराभिधायिनां शब्दानां स्वैर्द्वन्द्व एक एकार्थो भवति । नदी उद्ध्यश्च इरावती च उध्येरावति, गङ्गा च शोणश्च गङ्गाशोणम्, विपाट् च स्त्री चक्रभिच्च नपुंसकम् विपाट्चक्रभिदम् । देशकुरवश्च कुरुक्षेत्रं च कुरुकुरुक्षेत्रम्, कुरुकुरुजाङ्गलम्, वरेन्द्रीमगधम्, पुरम् - मथुरापाटलिपुत्रम्, काञ्चोकन्यकुब्जम् । पुरां देशत्वात्तद्ग्रहणेनैव सिद्धे पूर्ग्रहणं 20 ग्रामनिषेधार्थम्-जाम्बवश्च शालूकिनी च जाम्बवशालूकिन्यौ ग्रामौ । स्वैरित्येव ? शौर्यं च नगरं केतवता च ग्रामः शौर्यकेतवते, पूर्ग्रामसंभेदेऽपीच्छत्यन्यःशौर्यकेतवतम्, पूर्देशसंभेदेऽपीत्यपरे - श्रावस्ती मध्यदेशम्, मगधश्रावस्ति । नदीदेशपुरामिति किम् ? कुक्कुटमयूर्यौ । देशग्रहणेन चेह जनपदानां ग्रहणम् पृथग्नदीपूर्ग्रहणात् - तेनेह न भवति - गौरी च कैलासश्च गौरीकैलासौ पर्वतौ, 25 कैलासश्च गन्धमादनं च कैलासगन्धमादने पर्वतौ । विलिङ्गानामिति किम् ? गङ्गायमुने, मद्रकेकयाः मथुरातक्षशिले ।। १४२ ।। 15 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १४३-१४४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५२६ __ न्या० स० नदीदेश। उध्येरावतीति उज्झत्युदकं 'कुप्यभिद्य' [ ५. १. ३६. ] इति, ह्रदस्याऽपि नदीत्वं स्तोकविशेषात् यद्वा नदनद्योरभेदोपचारोऽत्र, यतो नदीविशेषो नदः, इरा विद्यतेऽस्यामिति, 'नद्यां मतुः' [ ६.२. ७२. ] विपाट् च स्त्रीति विशिष्टं पाशितवती क्विपि पृषोदरादित्वाद् विपाडिति न्यासः। तेन यत्र विप्राडिति दृश्यते तन्न साधु । कुरुकुरुक्षेत्रमिति कुरोरपत्यानि 'दुनादि' [६.१.११८.] इति ञ्यस्य 'बहुष्वस्त्रियाम्' 5 [६.१.१२४.] इति लुपि कुरवस्ततश्च कुरूणां क्षेत्रम् । एवं कुरुजाङ्गलमिति । काञ्चीकन्यकुब्जमिति कन्या कुब्जा यत्र बाहुलकात् ह्रस्वत्वम् । पुरां देशत्वादिति पुरामप्युपभोगस्थानत्वस्य देशलक्षणस्य विद्यमानत्वात् किमर्थं पूर्ग्रहणम् ? उपलक्षणं चेदं नदीग्रहणमपि ग्रामनिषेधार्थमेव । जाम्बवशालकिन्याविति जम्बूनामदूरभवो 'निवासादूरभवे' [६. ३. ६६.] इत्यण । शालूकान्युत्पलादिमूलान्यत्र सन्ति । शौयं चेति शूराणां निवासः 'सुपन्थ्या-10 देर्व्यः' [६. २. ८४.] 'श्रांक पाके' इति श्रान्तीति श्रास्तेषां वस्तिरिव संकीर्णत्वात् श्रावस्ती 'इतोऽक्त्यर्थात्' [२. ४. ३२.] डी नगरी। गौरीकलासाविति गौरी नाम पर्वतः, कं जलं इला भूमिस्तयोरास्ते अच् । के जले लासो लसनमस्येति वा केलासः स्फटिकस्तस्यायम् ॥ ३. १. १४२ ।। पाव्यशूद्रस्य ॥३. १. १४३ ॥ 15 यैक्ति पात्रं, संस्कारेण शुध्यति ते पात्रमहन्तीति पात्र्याः, पात्र्यशूद्रवाचिनां शब्दानां, द्वंद्व एक एकार्थो भवति स्वैः। तक्षायस्कारम्, रजकतन्तुवायम्, कुलालवरुटम्, किष्किन्धगन्धिकम्, शकयवनम् । पात्र्येति किम् ? जनंगमबुक्कसाः। शूद्रग्रहणं किम् ? ब्राह्मणक्षत्रियविशः ।। १४३ ।। 20 न्या० स०--पाच्यशू०। भुक्त पात्रमिति पात्रं कांस्यादि, संस्कारेण भस्मोद्वतनादिना 'शुद्ध्यति भस्मना कांस्यं, ताम्रमम्लेन शुद्ध्यति ।' इत्यादिमन्वादिशास्त्रोक्तन लोकप्रसिद्धेनैव । शुद्ध्यति विशिष्टलोकानामुपभोग्यं भवति । तक्षायस्कारमिति पात्र्यशूद्रा द्विप्रकाराः आर्यावर्तान्तर्गतास्तद् बाह्याश्च । अत्राऽपि आर्यावर्त्तजानां तैः स्वत्वं, तबाह्यानां बाह्य रिति द्रष्टव्यम्, उभयेऽपि क्रमेण तक्षायस्कारमित्यादिना25 दर्श्यन्ते । किं किं दधातीति वर्चस्कादित्वात् किष्किन्धः। किष्किन्धादयश्चत्वार आर्यावर्ताइ बाह्या म्लेच्छभेदाः। जनंगमबुक्कसा इति न ह्य तेभ्यस्त्रैवर्णिकाः स्वं पात्रं प्रयच्छन्ति । तैर्भुक्त पात्रस्य संस्कारेणाशुद्धेरिति ॥ ३. १. १४३ ॥ गवाश्वादिः ॥ ३. १. १४४ ॥ गवाश्वादिद्वन्द्व एक एकार्थो भवति । गौश्चाश्वश्च गवाश्वम्,30 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १४४.] गवाविकम्, गवैडकम्, अजाविकम्, अजैडकम्, कुब्जवामनम्, कुब्जकैरातम्, ' कुब्जकैरातकम्, पुत्रपौत्रम् । नित्यवैराभावपक्षे-श्वचण्डालम्, स्त्रीकुमारम्, दासीमाणवकम्, शाटीपच्छिकम्, उष्ट्रखरम्, उष्ट्रशशम्, मूत्रशकृत्, मूत्रपुरीषम्, यकृन्मेदः, मांसशोणितम्, दर्भशरम्, दर्भपूतीकम्, अर्जुनपुरुषम्, तृणोलपम्, कुडीकुडम्, दासीदासम्, भागवतीभागवतम्-त्रिष्वेतेषु 'पुरुषः स्त्रिया' 5 [३. १. १२६.] इत्येकशेषो न भवति निपातनात् । गवाश्वादिषु यथोच्चारितरूपग्रहणादन्यत्र नायं विधिः गोऽश्वौ, गोऽश्वम्, गोअश्वौ, गोअश्वम्, गोऽविकौ, गोऽविकम्, गवेलकौ, गवेलकम्, पशुविभाव भवति ।। १४४ ।। न्या० स०-गवा० । गवाश्वादिष्वजडकं यावत् 'पशुव्यञ्जनानाम्' [३.१.१३२.] 10 इति विकल्पे नित्यार्थः पाठः। सर्वेषु च 'स्वरे वाऽनक्षे' [ १. २. २६.] इत्यवादेशः । कुब्जवामनम्-इत्यादिषु चतुर्षु न्यायसिद्धे समाहारेतरेतरयोगे नित्यार्थः । श्वचण्डालमिति नित्यवैरे 'नित्यवरस्य' [ ३. १. १४१. ] इत्येव सिद्धमित्याह-नित्यवैराभावपक्षे इति । ये चाण्डालपाटके श्वानो वसन्ति तेऽत्र विवक्षिताः। न च तेषां चण्डालैः सह वैरमस्ति । यद्वा चण्डाला: श्वानं घ्नन्ति अतोऽसौ धावति इति नित्यवैराभावः । पद्यते: 'तुदिमदि'15 १२४ (उणादि) इति छकि गौरादित्वात् ङयां स्वाथिके के च पच्छिका छाजिकेति प्रसिद्धिः। शाटीपच्छिकमिति उपाध्यायस्त्वाह सततमनिमित्तवैरिणां कथमिव द्वंद्वो वैरं नाभिदध्यात् । न विवक्षितमिति चेत् वस्तुस्थितस्य कोदृश्यविवक्षा। तस्यामहिनकुलावित्यादयोऽप्रयोगा एव स्युः । उत्पलोद्योतकरादयो व्यावक्षते श्वचण्डालमित्यस्य पाठः शुनां चण्डालानां च नित्यवैरित्वाभावात् । न हि यथा श्वपचाः श्वानश्च नित्यवैरिणस्तथा20 श्वानश्च चण्डालाश्च । अत्र जातित्वात् 'अप्राणि' [३. १. १३६.] इति सिद्धावपि व्यक्तिपरनोदनायामपि यथा स्यादित्यस्य पाठः ।। उष्ट्रखरमिति पशुत्वाद् विकल्पे प्राप्ते। उष्ट्रशशमित्यत्र वितरेतरयोगे प्राप्ते । पशुविकल्पश्च नास्ति शशस्याग्राम्यत्वात् । मूत्रशकृदिति धर्मार्थादित्वात् शकृन्मूत्रमपि, मूत्रशकृदित्यादौ व्यक्तिपरनोदनायाम् 'अप्राणि' [ ३. १. १३६. ] इति न सिध्यतीत्यु-25 पादानम् । दर्भशरमिति दर्भादीनां तणजातित्वादप्राणीति नित्यविधेः पश्वादित्वात्तणविकल्पे बाधके प्राप्तेऽयं विधिः । अर्जुनपुरुषमिति पुरुषशब्दोऽत्र तृणविशेषवाची, परुष इत्यपि दृश्यते तच्चिन्त्यम् । कुडी 'कुडत् बाल्ये च' 'नाम्युपान्त्य' [५. १. ५४.] इति के 'वयस्यनन्त्ये' [२. ४. २१. ] इति ङयां कुडी बाला, कुडो बालः। कुटीकुटमिति उद्योतकरेण टो निरीक्षणीयः । गवेलकमिति 'स्वरे वानक्षे' [ १. २. २६. ] इत्यवा-30 देशेऽपि लत्वस्य विकृतत्वात्त्वसंहृतिः ॥ ३. १. १४४ ।। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १४५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५३१ न दधिपयादिः ॥ ३. १. १४५ ॥ दधिपयःप्रभृतिद्वन्द्व एक एकार्थो न भवति । दधि च पयश्च दधिपयसी, सर्पिर्मधुनी, मधुसर्पिषी, हरिवासवौ, ब्रह्मप्रजापती, शिववैश्रवणौ, स्कन्दविशाखौ, परिजाकौशिकौ, प्रवापसदौ, आद्यवसाने, सूर्याचन्द्रमसौ, मित्रावरुणौ, अग्नीषोमौ, सोमारुद्रौ, नारदपर्वतौ, खण्डामकौं, नरनारायणौ, 5 रामलक्ष्मणौ, भीमार्जुनौ, कम्बलाश्वतरौ, मातापितरौ, पितापुत्रौ, श्रद्धामेधे, शुक्लकृष्णे, इध्माबहिषी,-पूर्वस्य दीर्घत्वं निपातनात्, ऋक्सामे, वाङ्मनसे,अत्र 'ऋक्सामय॑जुष' [७. ३. ६७.] इत्यादिनाकारान्तत्वम्, याज्यानुवाक्ये, दीक्षातपसी, श्रद्धातपसी, श्रुततपसी, मेधातपसी, अध्ययनतपसी, उलूखलमुशले-अत्रायेषु त्रिषु व्यञ्जनविकल्पे शुक्लकृष्णे इत्यत्र 'विरोधिनाम-10 द्रव्याणाम्' [३. १. १३०.] इति विकल्पे, इध्माबहिषी, उलूखलमुशले इत्यत्र 'अप्राणिपश्वादेः' [३. १. १३६.] इति नित्यमेकत्वे, शेषेषु च 'चार्थे द्वन्द्वः सहोक्तौ' [३. १. ११७.] इत्युभयस्मिन् प्राप्ते प्रतिषेधोऽयम् । चण्डालमृतपादयश्चात्र द्रष्टव्याः ।। १४५ ॥ न्या० स०-न दधि०। मधुसर्पिषीति धर्मार्थादित्वात् पर्यायेण पूर्वनिपातः 115 ब्रह्मणो व्यतिरिक्तश्चतुर्दशभेदभिन्नः । प्रजापतिः, स्कन्दविशाखाविति अत्र स्कन्दस्य मित्रमपि स्कन्दः । यद्वा स्कन्दशब्देन विनायक उच्यते। परिजाकौशिकाविति परिजा नदी कौशिकश्च पव॑तः । कुशोऽस्यास्ति कुशिकस्यापत्यं बिदाद्यत्रि। अत्र नदीदेशेति स्वैरिति व्यावृत्त्या नित्यसमाहारो निवार्यते, न्यायेन वैकल्पिकस्तु प्राप्त एव स चानेन निषिध्यते । खण्डश्च मर्कश्च खण्डामको देवताविशेषौ। 'वेदसह [३. २.४१. ] इत्यात्वम्, तो हि20 पूर्व दैत्यौ सन्तौ राक्षसौ प्रशस्त्रवध्यौ। ततस्तद्वाधार्थ याग प्रारब्धः। खण्डामर्काभ्यां यजेत अनया आहुत्या अशस्त्रौ देवमध्यस्थितौ यज्ञहुतस्य ग्रहणाय आगतौ ततो देवी जाताविति । नरनारायणाविति नरशब्दानडाद्यायनणि नारायणः । नृणाते हुलकात् कर्मणि घञि नारा: आपः ता अयनं यस्येति वा नारायणः, यन्मनु: आपो नारा इति प्रोक्ता, आपो वै नरसूनवः । ता यदस्यायनं पूर्वं, तेन नारायणः स्मृतः ।। १ ।। अय॑त्वान्नारायणस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते राजदन्तादित्वान्नरस्य पूर्वनिपातः । भीमार्जुनाविति 'धर्मार्थादिषु द्वंद्वे' [ ३. १. १५६. ] इति भीमस्य पूर्वनिपातः। मातापितराविति मातुरय॑त्वात् पूर्वनिपातः। यदाह-- 25 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ] बृहद्वृत्ति-लधुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १४६.] सहस्र तु पितुर्माता, गौरवेणातिरिच्यते । तत् किं पितृगिरा रामो, विधत्ते रेणुकावधम् ।। १ ।। तन्न विचार्यम् । यदुक्त यत्कृतं परशुरामेण पितुर्वचनगौरवात् । तदन्यैस्तु न कर्त्तव्यं न देवचरितं चरेत् ।। २ ।। श्रद्धामेधे इति यद्यपि इमावद्रव्यशब्दौ तथाप्युपचाराद् द्रव्ये वर्तते तदा व्यक्तिविवक्षायां 'चार्थे द्वंद्वः सहोक्तौ' [३. १. ११७.] इत्यनेन प्राप्ते। याज्यानुवाक्ये इति 'याज्या दानचि' इज्यते इति याज्या याज्या च अनुवाक्या चेति वाक्यं कार्यम् । श्रुततपसी इति धर्मार्थादित्वात्तपःश्रुते इत्यपि। दीक्षातपसी इति अर्चितत्वाद् दीक्षायाः पूर्वनिपातः एवं श्रद्धातपसी इत्याद्यपि ।। ३. १. १४५ ।। 10 संख्याने ॥ ३. १. १४६ ॥ इयत्तापरिच्छेदः संख्यानम्, वर्तिपदार्थानां संख्याने गम्यमाने द्वन्द्व एकार्थो न भवति । दश गोमहिषाः, एतावन्ति दधिघृतानि, बहवः प्लक्षन्यग्रोधाः, दश हस्त्यश्वाः, शतं यूकालिक्षाः, तावन्ति बदरामलकानि, बहवः पाणिपादाः, कति मार्दङ्गिकपाणविकाः, उदगुर्दशेमे कठकालापाः,15 द्वावश्विमेधौ, द्वादश पदकक्रमकाः, द्वौ गङ्गाशोणौ, पञ्च तक्षायस्काराः, इयन्तो गवाश्वाः ।। १४६ ।। _ न्या० स०--संख्याने। इयत्तापरिच्छेद इति । इयतां भाव इयत्ता तस्याः परिच्छेदो दश द्वादश चेति संख्यापदैरवधारणम् । वत्तिपदार्थानामिति वर्तनं वर्त्तः, समासार्थः सोऽस्ति येषां पूर्वपदोत्तरपदार्थानां ते वत्तिनस्तदभिधायकानि पदानि वत्ति-20 पदानि पूर्वपदोत्तरपदस्वभावानि तेषामर्था अभिधेयरूपास्तेषामिति । दश गोमहिषा इति अत्र गोमहिषलक्षणस्य वत्तिपदार्थस्य दशेत्यनेन दशसंख्यायाः परिच्छेदः क्रियते । बहवः पाणिपादा इति ननु दशेत्यादिना बह्वर्थेन गोमहिषमित्याखेकार्थस्य सामानाधिकरण्याभावात् दशेत्यादिसंख्याशब्दप्रयोगादेव एकवद्भावस्यायोगादेकवद्भावो न भविष्यतीति किमर्थमस्यारम्भ इति ? उच्यते, अस्यानारम्भे विहितैकवद्भावप्रयोगे दशादि-25 संख्यापदप्रयोगायोगात्तत् प्रयोगे विहितैकवद्भावस्यानिवर्तनादस्यारम्भ इत्यदोषः ।। ३. १.१४६ ।। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १४७-१४६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५३३ वान्तिके ॥३. १. १४७ ॥ वर्तिपदार्थानां संख्यानस्यान्तिके समीपे गम्यमाने द्वन्द्व एकार्थो वा भवति । उपगता दश यस्य येषां वा उपदशं गोमहिषम्, उपदशा गोमहिषाः, उपदशाय गोमहिषाय, उपदशेभ्यो गोमहिषेभ्यः, द्वन्द्वार्थस्यैकत्वात्तदनुप्रयोगस्यापि बहुव्रीहेरेकवचनान्तत्वम् । यदा तु दशानां समीपमुपदशमित्य- 5 व्ययीभावस्तदोपदशं गोमहिषायेति भवति ।। १४७ ।। __ न्या० स०--वान्तिके० । अन्तिके समीप इति अन्तिकशब्दस्य समीपार्थत्वात् समीपस्य समीपिसापेक्षत्वात् संख्यानमेव विज्ञायत इति । उपदशं गोमहिषमिति यद्यप्युपदशं गोमहिषमित्येकवद्भावे समाहारस्य द्वंद्वाभिधेयस्यैकत्वात् साक्षात् तत्संख्यानं नास्ति तथापि तदवयवद्वारेण भवतीति ।। ३.१.१४७॥ 10 प्रथमोक्तं प्राक ॥ ३. १. १४८ ॥ अत्र समासप्रकरणे प्रथमया प्रथमान्तेन पदेन यदुक्त निर्दिष्टं तत्प्राक् पूर्वं निपतति । आसन्नदशाः, सप्तगङ्गम्, ऊरीकृत्य, कष्टश्रितः, शकुलाखण्डः, यूपदारु, वृकभयम्, राजपुरुषः, अक्षशौण्डः, नीलोत्पलम्, पञ्चाम्राः । वाक्यवत्समासेऽप्यनियमः स्यादिति वचनम् ।। १४८ ।। 15 राजदन्तादिषु ॥ ३. १. १४६ ॥ राजदन्त इत्यादिषु समासेष्वप्राप्तपूर्वनिपातं प्राक् निपतति । दन्तानां राजा राजदन्तः-'षष्ठी' [३. १. ७६.] इति प्रथमोक्तत्वेन दन्तशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते राजशब्दस्यानेन पूर्वनिपातः, पूर्वं वासितं पश्चाल्लिप्तं लिप्तवासितम्-अत्र 'पूर्वकाल' [३. १. ६७.] इति प्रथमोक्तत्वेन वासितस्य20 पूर्वनिपाते प्राप्ते लिप्तस्य पूर्वनिपातः, एवं सिक्तसंमृष्टं, भृष्टलुञ्चितं, नग्नमुषितम्, अवक्लिन्नपक्वम्, अर्पितोतम्, उप्तगाढम्, ऋणेऽधमोऽधमर्णः, अत्र 'सप्तमी' [३. १. ८८.] इति प्रथमोक्तत्वेन ऋणस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते अधमस्य पूर्वनिपातः, एवमुत्तमर्णः, उलूखलं च मुशलं च उलूखलमुशले-अत्र मुशलशब्दस्याल्पस्वरत्वात् पूर्वनिपाते प्राप्ते उलूखलशब्दस्यानेन 25 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] . बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १४६.] पूर्वनिपातः, एवं तन्दुलकिण्वम्, चित्ररथवालीको, स्रातकराजानौ, उशीरबीजशिजास्थम्, प्रारट्वायनिचान्धनि, अधरोष्ठम् । वैकारिमतगाजवाजम्, गौपालिधानपूलासम्, कुरण्डस्थलपूलासम्, दारजारौ, दारशब्द एकवचनान्तोप्यस्ति अत्र नियमे, दारार्थम् अत्र तु स्वराद्यदन्तत्वादर्थशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते दारशब्दस्य पूर्वनिपातः, एवं विष्वक्सेनार्जुनौ, शूद्रायौं, विषयेन्द्रियाणि, 5 गवाश्वम्, अवन्त्यश्मकाः, चित्रास्वाती, माणविके, केशश्मश्रु-अत्रेदुदन्तत्वेन स्वातिश्मश्रुशब्दयोः पूर्वनिपाते प्राप्ते चित्राकेशयोः पूर्वनिपातः, एवं भार्यापती, पुत्रपती, स्वसृपती, जायापती, जंपती, दंपती, गणपाठाज्जायाशब्दस्य जंभावो दंभावश्च वा निपात्यते, पुत्रपश्, शिरोजानु, शिरोविजु, नरनारायणौअय॑त्वान्नारायणस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते नरस्य पूर्वनिपातः, एवं सोमरुद्रौ,10 कुबेरकेशवौ, काकमयूरो, उमामहेश्वरौ, पाण्डुधृतराष्ट्रौ, ज्येष्ठभ्रातृत्वेन धृतराष्ट्रस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते पाण्डोः पूर्वनिपातः, एवं विष्ण वासवौ । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन क्वचिद्विकल्पः, पुरुषोत्तमः, उत्तमपुरुषः, मध्यगृहम्, गृहमध्यम्, अधरबिम्बम्, बिम्बाधरः, प्रोष्ठबिम्बम्, बिम्बोष्ठः इत्यादि ।। १४६ ।। 15 न्या० स०-राजद । दन्तानां राजेति तेन राजा च दन्ताश्चेति द्वंद्व राजदन्ताः दन्तराजान इत्यव्यवस्थैव । भृष्टलुञ्चितमिति 'ऋत्तुषमृष' [४. २. २४.] इति सूत्रे क्तस्यापि कित्त्वविकल्पं केचिदिच्छन्ति तन्मतेनेदम् । यद्वा ण्यन्तस्य लुञ्चां करोति रिणच, ततः क्तः। नग्नमषितमिति न वस्ते इति 'दिवनग्न' इति साधः । यदवा न विद्यन्ते ग्नाः श्रियश्छन्दांसि वा यस्य स नग्नः, अथवा 'अोलजैङ स्थाने प्रोनङ केचित्20 पठन्ति, तन्मतेन क्तप्रत्यये नग्नः । अपितोतमिति ऊयैङ इत्यस्य ऊतम्, वेंग इत्यस्य उतं वा। उप्तगाढमिति उप्यते स्मास्मिन्निति कार्यम् । तन्दुलकिण्वमिति किरिणः सौत्रः 'निघृषीष्यषि' ५११ (उणादि) इति किति वप्रत्यये किण्वं सुराबीजम् । चित्ररथो देवविशेषः, चित्रश्चासौ रथश्च वा, वेदं समाप्य 'स्नाताद्व दसमाप्तौ' [ ७. ३. २२. ] इति कप्रत्ययः। उशीरबीजशिजास्थमिति उशीरं बीजमस्मिन् उशीरवद् बीजमस्मिन्निति25 वा, उशीरबीजो नाम पवतः। शिजायां तिष्ठतीति शिवास्थः पर्वतस्ततो द्वद्वः । आरट्वायनिचान्धनीति आरटतीति 'प्रवाह' ५१४ (उणादि) इति 'लटिखटि' ५०५ (उणादि) इति बहुवचनाद् वा निपातस्तस्यापत्यं 'अवृद्धाद्दोर्नवा' [६. १. ११०.] इत्यायनि । 'चमन्तीति क्विप् दीर्घः', चामां धनमस्य स चान्धनः, यद्वा चम्यते Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १५०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५३५ 'शकितकि' [ ५. १. २६. ] इति ये चम्यं धनमस्य पृषोदरादिः । यद्वा चमतीति 'विदनगगन' २७५ (उणादि) चांधनः तस्यापत्यं 'अत इञ्' [ ६. १. ३१. ] ततो द्वद्वः । वैकारिमतगाजवाजमिति कर एव कारः। विविधः कारो यस्य विकारयतीति वा विकारः । तस्यापत्यमित्र , वैकारेर्मतः, गज मदने च । गजतीत्यच गजस्तस्याऽयं गाजः गाजयतीति वा अच गाजः। वजव्रजण गाजं वाजयतीत्यण गाजवाजः पुरुषविशेषस्ततो द्वद्वः। गौपालिधानपूलासमिति गोपालस्यापत्यमिति गौपालिः । स धोयतेऽस्मिन् गौपालिधानम्, पूलान् स्यति पूलासः । कुरण्डस्थलपूलासमिति कुरत् 'पिचण्डैरण्ड' १७६ (उणादि) इति कुरण्डः, कुरण्डानां स्थलं कुरण्डस्थलं, यद्वा कुत्सिता रण्डा यत्र बहुव्रीहिः, तत्र देशे तिष्ठतीति कुरण्डस्थलः। द्वौ नरौ तच्च पूलासश्च वा। ननु दारशब्दस्य बह्वर्थत्वेन द्विवचनानुपपत्तिरित्याह-दारशब्द इत्यादि । यथा धर्मप्रजासंपन्न दारे नान्यं 10 दारं कुर्वीत । एवं विष्वक्सेनार्जुनाविति यथा दारार्थशब्दस्य पूर्वनिपातः प्राप्त एवमिहापि विष्वक्सेनस्य वासुदेवरूपतया अर्जुनादय॑त्वेऽपि तदर्च्यत्वेऽपि तदविवक्षायां पूर्वनिपातार्थः पाठः। वासुदेवादन्यो वा विष्वक्सेनः । अश्मानोऽत्र सन्ति 'कोऽश्मादे:' [ ६. ४. ६७. ] अवन्तयश्चाश्मकाश्च । चित्रास्वाती इति। अत्र चित्रास्वातिशब्दात् 'चन्द्रयुक्तात् काले' [६. २. ६.] 15 इत्यणो 'लुप्त्त्वप्रयुक्त' ( ) इति लुपि ततस्तत्र जातेति 'भर्तुसंध्यादेरण' [६.३.८६.] इत्यणि 'चित्रारेवती' [ ६. ३. १०८. ] इति 'बहुलानुराधा' [ ६. ३. १०७. ] इति च लुपि चित्रा च स्वातिश्च । मारणविके इत्यनुप्रयोगेण नायं नक्षत्रद्वंद्व इति दर्शयति । तत्र हि ‘भतु तुल्यस्वरम्' [३. १. १६२.] इत्येव सिद्धम् । जंपती इति न चाल्पस्वरत्वादेव जम्दमोः पूर्वनिपातो भविष्यतीति वाच्यम् । पत्युरचितत्वात् पूर्वनिपातः स्यादित्यदोषः ।20 शिरोजानु इति भाष्यकारेण जानुशिरसी इत्यपि । कैय्यटेन न विचारित इत्युपेक्षितः । शिरोविजु इति । विजायते 'केवयु' ७४६ (उणादि) इत्यादिना डित्युप्रत्यये विजुः कृकाटिकाप्रदेशः। अधरबिम्बमिति अधरो बिम्बमिव 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः' [३. १. १०२.] समासः। प्रोष्ठबिम्बमिति प्रोष्ठो बिम्बमिव ।। ३. १. १४६ ॥ विशेषणसर्वादिसंख्यं बहुव्रीहौ ॥ ३. १. १५० ॥ 25 विशेषणवाचि सर्वादि संख्यावाचि च नाम बहुव्रीहौ पूर्वं निपतति । विशेषणम्-चित्रगुः, शबलगुः, कण्ठेकालः, उरसिलोमा, उदरेमणिः, सर्वादिसर्वं शुक्लमस्य सर्वशुक्लः, सर्वकृष्णः, सर्वसारः, सर्वगुरुः, सर्वलघुः, विश्वदेवः, विश्वामित्रः, उभयचेतनः, संख्या-द्वौ कृष्णौ गुणावस्य द्विकृष्णः, द्विशुक्लः, चतुर्ह स्वः, पञ्चदीर्घः, षडुन्नतः, सप्तरक्तः, उन्नतरक्तशब्दौ न तान्तावपि तु30 गुणशब्दौ-तेन स्पर्धे क्तलक्षणः पूर्वनिपातो न भवति । शब्दस्पर्धे Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू १५१.] परत्वात्सर्वादिसंख्ययोः संख्याया एव पूर्वनिपातः, त्र्यन्यः, द्वियुष्मत्क, द्वयष्मत्कः, उभयोस्तु सर्वादित्वे स्पर्धे परस्य पूर्वनिपातः-द्वयन्यः, बहुव्रीहाविति किम् ? उपसर्वम् । 'प्रथमोक्तम्' [३. १. १४८.] इत्यनियमे प्राप्ते नियमार्थं वचनम्, सर्वादिसंख्ययोविशेषणत्वेऽपि पृथग्वचनं शब्दपरस्पर्धार्थम् ।। १५० ॥ __ न्या० स०--विशेषण। कण्ठेकाल इति कण्ठे स्थिताः कण्ठेस्थिताः अलुग् सः। ततः कण्ठस्थिताः काला यस्य । अथवा कण्ठे काला अस्येति वैयधिकरण्येऽपि समासःप्राधेयं प्रत्याधारो विशेषणत्वं भजत इति वैयाकरणाः । सर्वशुक्ल इति अत्र शुक्लशब्देन सर्वार्थस्य विशेष्यमाणत्वाद् विशेषणत्वाभावेऽपि सर्वादित्वाइ सर्वशब्दस्य पूर्वनिपातः। विश्वदेव इति विश्वे देवा यस्येति विश्वदेवः। द्रव्यशब्देन विशेष्येणैव भवितव्यमिति नियमाभावात्10 सत्यपि द्रव्यशब्दत्वे देवा इति विश्वेषां विशेषणमिति सर्वादित्वाद् विश्वशब्दस्य पूर्वप्रयोगः । एवं विश्वामित्र इत्यत्रापि। द्विकृष्ण इति अत्र द्वयाद्यर्थस्य विशेष्यत्वेन विवक्षितत्वात् संख्यात्वादेव द्वयादिशब्दस्य पूर्वप्रयोगः । चतुर्हस्व इति 'ह्रस्वानि चत्वारि तु लिङ्गपृष्ठं, ग्रीवा च जङ्घ च हितप्रदानि'। पञ्चदीर्घ इति 'हनु लोचनबाहुनासिकास्तनयोरन्तरमत्र पञ्चमम्'। षडुन्नत इति 'वक्षोष्ठकक्षानखनासिकास्यं कृकाटिका15 चेति पडुन्नतानि'। सप्तरक्त इति 'नेत्रान्तपादकरताल्वधरौष्ठजिह्वा रक्ता नखाः सप्त सुखप्रदानि' । उन्नतरक्त ति उत्पूर्वनमतेरञ्जश्च 'पुत्तपित्त' २०४ (उणादि) इति निपातः । शब्दस्पर्धे परत्वादिति अस्याऽयं तात्पर्यार्थः अल्पस्वरत्वात् संख्याशब्दस्य पूर्वप्रयोगे प्राप्ते लक्षणातिक्रमेण 'विशेषणसर्वादिसंख्यम्' [ ३. १. १५०. ] इति निर्देश: शब्दपरस्पर्द्धार्थः तेन तत्र संख्येति सर्वादीति चोभयोः प्रसङ्ग द्वयोरन्यत्र सावकाशत्वात् परत्वात्20 संख्येति पूर्वप्रयोगो भवति । पूर्वनिपात इति सामान्येऽपि सर्वादित्वे पाठापेक्षया यः परः सर्वादिस्तेन भाव्यम् । उभयोस्त्विति संख्याशब्दस्य सर्वादित्वेऽसर्वादित्वे च पूर्वनिपात एव सूत्रे परत्रोपादानात् । द्वचन्य इति सर्वादिगणपाठापेक्षयाऽपि यातीत्युपात्तमन्यथा संख्यापेक्षयाऽपि याति । यदि वा द्वयन्य इति संख्यास्पर्द्धन सिद्धावपि गणपाठस्पोऽप्यस्तीति ज्ञापनार्थमुदाहरणदिक्त्वेनोदाहृतम् । गणपाठस्पर्धस्य तूदाहरणं संख्या-25 विमुक्त दक्षिणपूर्वा दिगित्यादि द्रष्टव्यम् । सर्वादिसंख्ययोरिति ननु सर्वादिसंख्याभ्यामारब्धेऽपि बहुव्रीहावन्यपदार्थस्यैव प्राधान्यात्तस्य च विशेष्यत्वादेतयोविशेषणत्वाद् विशेषणग्रहणेनैव भविष्यति किमर्थं पृथगुपादानमित्याशङ्का ।। ३. १. १५० ।। क्ताः ॥ ३.१.१५१ ॥ क्तप्रत्ययान्तं सर्वं बहुव्रीहौ पूर्वं निपतति । कृतः कटोऽनेन कृतकटः,30 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १५२-१५३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५३७ भिक्षितभिक्षः, क्तान्तस्य विशेषणत्वात्पूर्वेण सिद्ध्यति, विशेष्यार्थं तु वचनम्कटे कृतमनेन कृतकट:, स्पर्धे परत्वार्थं च-कृतभव्यकटः, कृतविश्व: । केचित्तु सर्वादिभ्यः क्तान्तस्य पूर्वं निपातं नेच्छन्ति कृतचत्वारः । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम्-तेन कृतप्रिय इत्यत्र परेणापि स्पर्धे क्तान्तस्यैव पूर्वनिपातः ।। १५१ ।। जातिकालसुखादेनवा ॥ ३. १. १५२ ॥ जातिवाचिभ्यः कालवाचिभ्यः सुखादिभ्यश्च शब्दरूपेभ्यो बहुव्रीहौ समासे क्तान्तं वा पूर्वं निपतति । जाति-शाङ्गरजग्धी, जग्धशाङ्गरा, पलाण्डुभक्षिती, भक्षितपलाण्डुः, पाणिगृहीती, गृहीतपाणिः, कटकृतः, कृतकटः । व्यक्तिविवक्षायां तु 'क्ताः' [३. १. १५१.] इत्यनेन कृतकट:10 इत्याद्य व भवति । अन्ये तु प्राकृतिव्यङ्गयजातिवाचिन एव क्तान्तस्य पूर्वनिपातमिछन्ति-तेनेह न भवति-पाहूतब्राह्मणः, सेवितक्षत्रियः, तर्पितदाक्षिः, प्रीणितकठः, काल-मासयाता, यातमासा, संवत्सरयाता, यातसंवत्सरा, मासगतः, गतमासः । सुखादयो दश क्यविधौ निर्दिष्टाः-सुखयाता, यातसुखा, हीनदुःखा, दुःखहीना, तृप्तोत्पन्ना, उत्पन्नतृप्ता, सुख, दुःख, तृप्त,15 कृच्छ, अस्र, अलीक, करुण, कृपण, सोढ, प्रतीप इति सुखादिः ।। १५२ ।। न्या० स०--जातिकाल। शाङ्गरजग्घीति शाङ्गरस्य वृक्षस्य विकारः फलं 'दोरप्राणिनः' [ ६. २. ४६. ] इति मयट्, 'फले लुक्' [ ६. २. ५८. ] शाङ्गरं जग्धमनया 'अनाच्छाद' [ २. ४. ४७. ] इति ङीः । पलाण्डु भक्षिती इति पलाण्डु भक्षितमनया । अन्ये त्वाकृतीति प्राकृतिः संस्थानं तया व्यङ ग्या या जातिर्गोत्वादिस्तद्वाचिन इत्यर्थः । 20 आहूत ब्राह्मण इति ब्राह्मणादिजातिरुपदेशादिगम्या न तु संस्थानव्यङ्ग्या ।। ३. १. १५२ ॥ आहिताग्न्यादिषु ॥ ३. १. १५३ ॥ आहिताग्न्यादिषु बहुव्रीहिसमासेषु क्तान्तं वा पूर्व निपतति । आहितोऽग्निर्येन स आहिताग्निः, अग्न्याहितः, जातपुत्रः, पुत्रजातः, जातदन्तः,25 दन्तजातः, जातश्मश्रुः, श्मश्रुजातः, पीततैलः, तैलपीतः, पीतघृतः, घृतपीतः, Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० १५४ - १५५. ] पीतमद्यः, मद्यपीतः, पीतविषः, विषपीतः, ऊढभार्यः, भार्योढः, गतार्थः । अर्थगतः, छिन्नशोर्षः, शीर्षच्छिन्नः बहुवचनमाकृतिगरणार्थम् - तेन पीतदधिः, दधिपीत इत्यादयोऽपि भवन्ति ।। १५३ ।। ५३८ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते , न्या० स० -- आहिता० । नन्वग्निशब्दस्य जातिवाचित्वात्, 'जातिकाल' [ ३. १. १५२. ] इत्यनेनैव सिद्ध्यति किमत्र पाठ: ? सत्यं, व्यक्तिविवक्षायामपि यथा 5 स्यादित्येवमर्थम् ।। ३. १. १५३ ।। प्रहरणात् ॥ ३. १. १५४ ॥ प्रहरणवाचिनः शब्दात् क्तान्तं बहुव्रीहौ वा पूर्वं निपतति । उद्यतोऽसिरनेन उद्यतासिः, स्युद्यतः, कलितप्रहरणः प्रहरणकलितः, उत्खातखड्गः, खड्गोत्खातः, आकृष्टधन्वा, धनुराकृष्टः, उद्यतमुशलः, मुशलोद्यतः ।। १५४ ।। 10 न्या० स० -- प्रहरणात् । नन्वस्यादीनां जातिशब्दात् 'जातिकाल' [ ३.१.१५२.] इत्यनेनैव क्तान्तस्य पूर्वनिपात: सिद्ध: किमनेन ? सत्यं, व्यक्तिविवक्षायामपि यथा स्यादित्यर्थम्, जातिकालेत्यनेन पृथग्योग उत्तरार्थस्तेनोत्तरत्र च शब्देन प्रहरणादित्या - कृष्यते ।। ३. १. १५४ ।। न सप्तमीन्वादिभ्यश्च ।। ३. १. १५५ ।। नजुपादानाद्व ेति न संबध्यते, इन्द्वादेः प्रहरणवाचिनश्च शब्दात्पूर्वं सप्तम्यन्तं न निपतति बहुव्रीहौ । इन्दुमौलौ यस्य इन्दुमौलिः, चन्द्रमौलिः, शशिशेखरः, पद्मनाभः, ऊर्णनाभः, पद्महस्तः, शंखपाणिः, दर्भपवित्रपाणिः, पद्मपाणिः इत्यादि । प्रहरणात् - प्रसिः पारणावस्य असिपारिणः, दण्डपाणिः, चक्रपाणिः, शूलपाणिः, साङ्ग पारिणः, धनुष्पाणिः, धनुर्हस्तः, पाशहस्त:, 20 खड्गहस्तः । वज्रहस्तः, वज्रपाणिः । बहुलाधिकारात् पाणिवज्रः, हस्तवज्र इत्यत्र पूर्वनिपातोऽपि बहुवचनं प्रयोगानुसारणार्थम् । एवमुत्तरत्रापि ।। १५५ । 15 न्या० स०--न सप्तमी० । ऊर्णनाभ इति 'ङयापो बहुलम्' [ २. ४. ६६.] इति ह्रस्वः, सर्वेषु उष्ट्रमुखादित्वात् समासः ।। ३. १. १५५ ।। 25 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १५६-१५८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५३६ गड्वादिभ्यः ॥ ३. १. १५६ ॥ वेत्यनुवर्तते, गड्वादिभ्यः शब्देभ्यो बहुव्रीहौ सप्तम्यन्तं वा पूर्व निपतति । गण्डकण्ठः, कण्ठेगडः, एवं शिरसिगडुः, गडुशिराः, शिरस्यरुः, अरुःशिराः, मध्येगुरुः, गुरुमध्यः, अन्तेगुरुः, गुर्वन्तः । व्यवस्थितविभाषया वहेगडुरित्येव भवति ।। १५६ ।। प्रियः॥ ३. १. १५७ ॥ प्रियशब्दो बहुव्रीहौ समासे पूर्व वा निपतति । प्रियगुडः, गुडप्रियः, प्रियविश्वः, विश्वप्रियः, प्रियचत्वाः, चतुष्प्रियः ।। १५७ ।। न्या० स०--प्रियः। प्रियगुड इति । अत्र प्रियशब्दस्य गुडादेर्वा विशेषणत्वेन नित्यमेकस्य पूर्वनिपातप्राप्तावुभयत्र प्रियशब्दस्य पाक्षिको निपातः। प्रियचत्वा इति 10 अत्र चतुःशब्दस्य संख्यात्वान्नित्यं पूर्वनिपातः प्राप्तः ।। ३. १. १५७ ।। कडारादयः कर्मधारये ॥ ३. १. १५८ ॥ कडारादयः शब्दाः कर्मधारये समासे वा पूर्व निपतन्ति । कडारजैमिनिः, जैमिनिकडारः, गडुलगालवः, गालवगडुलः, काणद्रोणः, द्रोणकाणः, खञ्जमौजायनः, मौजायनखञ्जः, कुण्टवात्स्यः, वात्स्यकुण्टः, खेलदाक्षिः,15 दाक्षिखेलः, खोडकहोडः, कहोडखोड:, खलतिखारपायणः, खारपायणखलतिः, गौरगौतमः, गौतमगौरः, पिङ्गलमाण्डव्यः, माण्डव्यपिङ्गलः, वृद्धमनुः, मनुवृद्धः, भिक्षुकदाक्षिः, दाक्षिभिक्षुकः, बठरच्छान्दसः, छान्दसबठरः, तनुतृणबिन्दुः, तृणबिन्दुतनुः, कूटप्लाक्षिः, प्लाक्षिकूटः । कडारादीनां गुणवचनत्वात् द्रव्यशब्दानित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते पक्षे परनिपातार्थं वचनम् ।20 यदा तु द्वावपि गुणशब्दौ तत्र निर्मातानिआताभ्यां विशेषणविशेष्यत्वे पर्यायेण पूर्वनिपात इत्युक्तमेव । गडुलकाणः, काणगडुलः, खजकुण्टः, कुण्टखञ्जः, खोडखलतिः, खलतिखोडः, गौरवृद्धः, वृद्धगौरः, पिङ्गलभिक्षुकः, भिक्षुकपिङ्गलः, बठरतनुः, तनुबठरः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्-तेन नटबधिरादयोऽपि द्रष्टव्याः ।। १५८ ।। ___25 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १५६.] न्या० स०--कडारा०। जैमिनिकडार इति जेमन्तीति 'विभुजेमामिनः' जेमिनः, ' यद्वा जेमेः 'विपिनाजिनादयः' २८४ (उणादि) इतीने जेमिनस्तस्यापत्यं ऋषित्वेऽपि बाह्वादेराकृतिगणत्वादिनि जैमिनिः। गडुलगालव इति गडुरस्याऽस्ति सिध्मादित्वात् लः। गडोरपत्यं, ऋष्णण्, ऋफिडादित्वाल्लः ।। ३. १. १५८ ।। धमर्थािदिषु द्वन्द्वे ॥ ३. १. १५६ ॥ धर्मार्थादौ द्वन्द्व समासे प्राप्तपूर्वनिपातं वा पूर्वं निपतति । धर्मायौं, अर्थधमौं, कामाथौं, अर्थकामौ, शब्दाथौं, अर्थशब्दौ, अाद्यन्तौ, अन्तादी, अग्नेन्द्रौ, इन्द्राग्नी, चन्द्राकौं, अर्कचन्द्रौ, अश्वत्थकपित्थौ, कपित्थाश्वत्थौ, इत्यादिषु स्वराद्यदन्तत्वान्नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते, सर्पिर्मधुनी, मधुसर्पिषी, गुणवृद्धी, वृद्धिगुणौ, दीर्घलघू, लघुदीघौं, चन्द्रराह, राहुचन्द्रौ, इत्यादिष्विदु-10 दन्तत्वान्नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते, तप:श्रुते, श्रुततपसी, द्रोणभीष्मौ भीष्मद्रोणौ,इत्यादिष्वय॑त्वान्नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते, शकृन्मूत्रम्, मूत्रशकृत्, कुशकाशम्, काशकुशम्, करभरासभौ, रासभकरभौ इत्यादिषु लघ्वक्षरत्वात्पूर्वनिपाते प्राप्ते, समीरणाग्नी, अग्नीसमीरणौ, आदित्यचन्द्रौ, चन्द्रादित्यौ, पाणिनीय रौढीयाः, रौढीयपाणिनीयाः, जित्याविपूयविनीयाः, विपूयविनीयजित्याः, इत्यादिष्वल्प-15 स्वरत्वान्नित्यं पूर्वनिपाते प्राप्ते, ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः, शूद्रविक्षत्रियविप्राः, भीमसेनार्जुनौ, अर्जुनभीमसेनौ, देवापिशंतनू, शंतनुदेवापी, इति वर्णभ्रातृलक्षणेऽनुपूर्वं निपाते प्राप्ते विकल्पार्थं वचनम् । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । तेन वसन्तग्रीष्मौ, ग्रीष्मवसन्तौ, शुक्रशुची, शुचिशुक्रौ इत्यादयोऽपि द्रष्टव्याः ।। १५६ ।। न्या० स०--धर्मार्थादि०। सपिर्मधुनी इति 'न दधि' [३. १. १४५.] इति न समाहारः । तपःश्रुते इति दधिपयमादित्वान्नित्यमत्रैकार्थत्वाभावः। अत्राय॑त्वात्तपोभीष्मयोनित्यं पूर्वनिपातः प्राप्त इति न्यासः । शकृन्मूत्रमिति अत्रैकवद्भावो ‘गवाश्वादिः' [ ३. १. १४४. ] इत्यनेन । रौढीया इति रूढस्यापत्यं रौढिस्तस्य छात्त्रा ‘दोरीयः' [६.३.३२. ] तेन नटवधीति नटस्यापि जातित्वं अत्रिलिङ्गा च यान्विता आजन्मेति अनेन25 कुमारादय इव नटं कुलमिति । विपूयविनीयजित्या इति यादृश एव गणे दृष्टस्तादृश एव प्रयोगः, न तु विनीयविपूयजित्यादयः जित्याशब्दस्यैव पूर्वपरभावः ॥ ३. १. १५६ ।। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० १. सू० १६०. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः लध्वक्षरासखीदुत्स्वराद्यद ल्पस्वरार्च्यमै कम् [ ५४१ ।। ३. १. १६० ॥ पृथग्योगाद्वति निवृत्तम्, लघ्वक्षरं सखिवजितेकारोकारान्तं स्वराद्यकारान्तमल्पस्वरमर्च्यवाचि च शब्दरूपं द्वन्द्व समासे पूर्वं निपतति, यत्र चानेकसंभवस्तत्रैकमेव । लघ्वक्षर - शरसीर्यम्, तृणकाष्ठम् । तिलमाषम् । 5 शैलौ - मलयदर्दुरौ, असखोदुत्, अग्नीषोमौ, अग्नीधूमम्, पतिसुतौ वायुतोयम्, स्वादुतिक्तौ । सखिवर्जनं किम् ? सुतसखायौ, सखिसुतौ, - ' ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधि:' इति तदन्तस्य प्रतिषेधो न भवति - बहुसखि बहुधनौ, स्पर्धे परमेव, व्रीहियवौ । प्रसखीदुदित्यैकपद्यादिदुतोः स्पर्धे कामचारः - पतिवसू, वसुपती । स्वराद्यत् - अस्त्रशस्त्रम्, इन्द्रचन्द्रौ, उष्ट्रमेषम्, अश्वरथम्, ऋश्य - 10 रोहितौ । स्पर्धे परमेव-उष्ट्रखरम्, उष्ट्रशशम्, इन्द्रवायू, इन्द्राविष्ण, अर्केन्द्र, अल्पस्वर - प्लक्षन्यग्रोधौ, स्पर्धे परमेव- धवखदिरौ, वागग्नी, वाग्वायू, वागर्थों, धवाश्वकर्णौ । - श्रद्धामेधे, स्पर्धे परम् - दीक्षातपसी, श्रद्धातपसी, मेधातपसी, मातापितरौ वधूवरी, रुद्राग्नी, रुद्र ेन्द्रौ वासुदेवार्जुनौ लघ्वादिग्रहणं किम् ? 15 कुक्कुटमयूरौ, मयूरकुक्कुटो, अध्येतृवेदितारौ वेदित्रध्येतारौ, अश्ववृक्षौ, वृक्षाश्व । एकमिति किम् ? युगपदनेकस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते एकस्यैव यथाप्राप्तं पूर्वं निपातः शेषाणां तु कामचार इति प्रदर्शनार्थम् - शंखदुन्दुभिवीणाः, वीणादुन्दुभिशंखाः, शंखवीणादुन्दुभयः, अश्वरथेन्द्राः, इन्द्राश्वरथाः, इन्द्ररथाश्वाः, दुन्दुभिशंखवीरणा इति रथेन्द्राश्वा इति च न भवति । कथं धनपति - 20 रामकेशवाः मृदङ्गशंखपणवाः, रामशंखशब्दयोरुत्तराभ्यां समासे सति पूर्वेण समासः । द्वन्द्व इत्येव ? विस्पष्टं पटुः विस्पष्टपटुः ।। १६० ।। न्या० स०-- लघ्वक्षरा० । अत्र अक्षरशब्देन स्वरोऽभिधीयते । शरसीर्यमिति पाठः, शरशीर्षमिति तु पाठे 'प्राणितयं' [ ३. १. १३७ ] इति स्वैरभावात् समाहाराप्राप्तिः । ग्रहणवतेति सत्यपि 'विशेषरणमन्त:' [ ७.४. ११३. ] इति न्याय इति शेष: 125 अस्त्रशस्त्रमिति अत्र अस्त्रशब्देन सामान्यधनुरुच्यते, शस्त्रशब्देन सामान्यमायुधं ततः 'समानामर्थेन' [ ३.१.११८. ] इति नैकशेषः, अप्राणिजातित्वादेकवद्भावः । श्रद्धामधे Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ ] बृहत्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा०.१. सू० १६१.] इति अर्थग्राहिणी श्रद्धा शब्दग्राहिणी मेधा। श्रद्धामूलत्वादभिप्रेतार्थसिद्धरय॑त्वम् ।। दीक्षातपसी इत्यादिषु तपसो लघ्वक्षरत्वेऽपि दीक्षाश्रद्धामेघानां बहूपकारत्वान्मूलभूतत्वाच्चाचितत्वात् परत्वात् पूर्वनिपातः। मातापितराविति अनुभूतग दिक्लेशत्वात् पितृतो माताभ्यहिता । एवं स्त्रीप्रधानत्वाद् विवाहस्य वरावधूरिति एवं रुद्रादावय॑त्वमूह्यम् । अध्येतृवेदिताराविति अत्र स्वरादित्वमस्ति न त्वदन्तत्वमित्यनियमः। एकस्यैव यथा- 5 प्राप्तमिति दुन्दुभिशब्दादिदन्तात् परत्वादल्पस्वरत्वात् शङ्खवीणाशब्दयोर्युगपत्पूर्वनिपातप्राप्तावेकग्रहणादेकस्यैव क्रमेण पूर्वनिपातः। शेषाणां त्विति शङ्गवीणाशब्दयोरिव युगपत् पूर्वनिपातप्राप्तौ एकस्यैव पूर्वनिपातः, दुन्दुभिरथादीनां तु कामचार इत्यर्थः, एकस्यैवेत्युक्त ऽपि दुन्दुभिरथादीनां न पूर्वनिपातः शब्दस्पर्द्धपरत्वात् । तथाहि दुन्दुभिशब्दोऽसखोदुत् शंखवीणाशब्दौ तु अल्पस्वराविति । एवमश्वरथेन्द्रा इत्यत्राऽपि10 रथशब्दो लघ्वक्षरः, अश्वेन्द्रशब्दौ तु स्वराद्यदन्तौ परौ इति तयोः पूर्वमेव पूर्वनिपातो न तु रथस्य । शङ्खदुन्दुभिवीणा इति 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' [ ३. १. १३७. ] इति बहुवचनं क्वचिदेकत्व विधेरनित्यार्थं । तेनात्रैकत्वाभावः, माङ्गल्यवाचकत्वेन शङ खशब्दस्य विवक्षत्वात् स्वैरित्यभावाद् वा। यतः तूर्याङ्गस्य तूर्याङ्गण स्वत्वं भवतीति। एवं15 मृदङ्गशङ्खपणवा इति । अथवा शङ्खदुन्दुभिवीणाः मृदङ्गशङ्खपणवा इति शङ्खादोनां तूर्याङ्गत्वादेकवद्भावः कुतो न भवतीति ? उच्यते, अत्र शङ्खादिशब्देन शङ्खादिसमुदायस्याभिधानात् तस्य चाऽतूर्याङ्गत्वादजातित्वाच्च नैकवद्भावः, उत्पलस्त्वाह तूर्याङ्गता शङ्खादिवादकानां न तु शङ्खादीनामिति तूर्याङ्गत्वादत्रैकवद्भावो यः प्राप्नोति स नाऽऽशङ्कनीयः, अत एव 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' [ ३. १. १३७. ] इत्यत्र पूर्वैर्मादङ्गिक-20 पाणविकं वीणावादकपरिवादकमित्येवोदाह्रियते, न तु भेरीमृदङ्गमित्यादि । तदा तु प्राणिरूपं तूर्याङ्गप्राणितूर्याङ्गमिति विग्रहः ।। ३. १. १६० ।। मासवर्णधात्रनुपूर्वम् ॥३. १. १६१ ॥ मासवाचि वर्णवाचि भ्रातृवाचि च शब्दरूपं द्वन्द्व समासे अनुपूर्वं यद्यत्पूर्वं तत्तत्पूर्वं निपतति, अनुग्रहणादेकमिति निवृत्तम् । मास-फाल्गुनचैत्रौ,25 वैशाखज्येष्ठौ, वर्ण-ब्राह्मणक्षत्रियौ, क्षत्त्रियवैश्यौ, वैश्यशूद्रौ, ब्राह्मणक्षत्रियविशः, ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः, भ्रातृ-बलदेववासुदेवौ युधिष्ठिरभीमार्जुनाः ।। १६१ ।। न्या० स०-मासवर्ण। मासश्च वर्णश्च भ्राता चेति समाहारद्वन्द्वः । अनुपूर्वमिति पदार्थानतिवृत्तौ 'योग्यतावीप्सा' [ ३. १. ४०.] इति अव्ययीभावः ।30 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० १. सू० १६२-१६३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५४३ फाल्गुनचैत्राविति फल्गुनशब्दार गौरादित्वात् । ड्यां फल्गुनीभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ता पौर्णमासी 'चन्द्रयुक्तात्' [ ६. २. ६. ] इत्यण् । अप्रयुक्तकालद्वारेण लुप् प्राप्नोति । चैत्रीकात्तिकीफाल्गुनीति निर्देशात् लुप् न भवति, ततः फाल्गुनी पौर्णमासी अस्येति विग्रहे ‘सास्य पौर्णमासी' [६. २. ६८.] इत्यण् । चित्राभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ता पौर्णमासी चैत्री चन्द्रयुक्तादण । तदनु चैत्री पौर्णमासी अस्य ‘सास्य पौर्णमासी' [६. २. ६८.] 5 इत्यण् । 'अवर्णवर्णस्य' [ ७. ४. ६८. ] इति ङीलुप्, विशाखाभिर्युक्ता पौर्णमासी, अण्, चैत्रीकात्तिकीत्युपलक्षणात् लुबत्राऽपि न भवति । ब्राह्मणक्षत्रियाविति अत्रानियमः प्राप्तः। क्षत्रियवैश्यावित्यत्र त्वल्पस्वरत्वाद् वैश्यशब्दस्य पूर्वनिपातः प्राप्त: । वैश्यशूद्रावित्यत्र अप्यनियमः। ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रा इत्यत्र त्वल्पस्वरत्वाद् विश: पूर्वनिपाते प्राप्तेऽनेन 10 ब्राह्मणादीनां मनुपूर्वं पूर्वनिपातः, अत्र आनुपूयं च जन्मकृतं यदाह मुखतो ब्राह्मणा जाता, बाहुभ्यां क्षत्रियाः स्मृताः । ऊरुभ्यां तु विशः प्रोक्ताः, पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।। १॥ न चात्राय॑त्वात् पूर्वनिपातः सिद्ध्यतीति वाच्यम् । निन्दितस्याऽपि ब्राह्मणादेः संभवादिति । बलदेववासुदेवाविति भ्रातृद्वन्द्व ऽनियमे सति इष्टपूर्वनिपाते वा प्राप्ते । 15 युधिष्ठिरभीमार्जुना इति अत्राऽपि जन्मकृतमेवानुपूर्व्यम् ।। ३. १. १६१ ।। भतुतुल्यस्वरम् ॥ ३. १. १६२ ॥ भं नक्षत्त्रम्, तदाचि ऋतुवाचि च तुल्यसंख्यस्वरं द्वंद्व समासेऽनुपूर्वं पूर्वं निपतति । भ-कृत्तिकारौहिण्यः, अश्विनीभरणीकृत्तिकाः, मृगशिरःपुनर्वसु, ऋतुः-हेमन्तशिशिरौ, शिशिरवसन्तौ, हेमन्तशिशिरवसन्ताः । तुल्यस्वरमिति 20 किम् ? प्रार्द्रामृगशिरसी, पुष्यपुनर्वसू, तिष्यपुनर्वसू ग्रीष्मवसन्तौ ।। १६२ ।। न्या० स०--भतु तुल्य० । अत्राऽपि नक्षत्राणामृतूनां चानुपूयं लोकप्रसिद्ध्यैव वेदितव्यम् । मृगशिरःपुनर्वसु इति अत्रोदन्तत्वात् पुनर्वसुशब्दस्य पूर्वनिपातः प्राप्तः । हेमन्तशिशिराविति लघ्वक्षरत्वाद्धि शिशिरशब्दस्य प्राप्तः ॥ ३. १. १६२. ।। संख्या समासे ॥ ३. १. १६३ ॥ 25 सर्वा संख्या प्रथमोक्त त्यनियमे आनुपूर्व्याः संख्यायाः पूर्वनिपाता) वचनम्, समासमात्र संख्यावाचिनामनुपूर्वं पूर्वं निपतति । बहुव्रीहौ-द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः, एवं त्रिचतुराः, पञ्चषाः, द्विर्दश द्विदशाः, एवं त्रिदशाः, Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ] बृह इवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १.] द्विगौ-द्वे शते समाहृते द्विशती, त्रिशती । द्वन्द्व-एकश्च दश चैकादश, एवं द्वादश, त्रयोदश, सप्ततिशतम्, अशीतिशितम्, नवतिशतम् ।। १६३ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासन बृहद्वृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ॥ असंरब्धा अपि चिरं दुःसहा वैरिभूभृताम् । चण्डाश्चामुण्डराजस्य प्रतापशिखिन: कणाः ।। १ ।। न्या० स०--संख्या स० । द्वित्राश्च चत्वारश्च चतुर्बित्राः, द्विवेति समुदाय इति न संख्याकार्य, एवं चतुष्पञ्चषाः द्वौ च एकविंशतिश्चेति कृते नियमः। यदा तु एकश्च विंशतिश्च एकविंशती अप्रसिद्धा संख्या तदाऽनया सह समासे पूर्वापरभावे यथाप्राप्तं लघ्वक्षरादिसूत्रेण । द्विदशा इति ननु द्विदशा इत्यादौ 'सुज्वार्थे' [ ३. १. १६.] इत्यनेन 0 सुजर्थसमासः, ततः 'प्रथमोक्त प्राक्' [ ३. १. १४८.] इत्यनेनाऽपि सिद्ध्यति किमेषामुपादानम् ? सत्यं, यदा दशन्शब्दः सुजर्थः समस्यते तदाप्यनेनानुपूर्व्याः संख्यायाः पूर्वनिपातो भवतीति फलं कोऽर्थः ? यदा द्विर्दशेति वाक्यं, तदा 'प्रथमोक्तम' [ ३. १. १४८. ] इत्यनेनैव सिद्धम्, यदा तु दशकृत्वो द्वौ तदा फलम् । एवं त्रिदशा इत्यत्रापि दशकृत्वस्त्रय इति वाक्ये फलम् ॥ ३. १. १६३. ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्र० तृतीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः । 15 0 प्रथ द्वितीय: पाद: परस्पराग्योन्येतरेतरस्याम् स्यादेर्वासि ॥ ३. २. १ ॥ परस्परादीनामपुंसि स्त्रियां नपुंसके च प्रयुज्यमानानां संबन्धिनः स्यादेः स्थाने आमादेशो वा भवति । इमे सख्यौ परस्परां भोजयतः, परस्परं भोज-20 यतः, आभिः सखीभिः परस्परां भोज्यते, परस्परेण भोज्यते, इमाः सख्यः परस्परां प्रयच्छन्ति, परस्परस्मै प्रयच्छन्ति, इमाः परस्परां परस्परस्माद्वा बिभ्यति, इमाः परस्परां परस्परस्य वा स्मरन्ति, इमाः परस्परां परस्परस्मिन्वा स्निह्यन्ति, इमे Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५४५ कुले परस्परां भोजयतः, परस्परं भोजयत इत्यादि । इमे सख्यौ कुले वा अन्योन्यामन्योन्यं वा भोजयतः, सखीभिः कुलैर्वा अन्योन्यामन्योन्येन वा भोज्यते, इमे सख्यौ कुले वा इतरेतरामितरेतरं वा भोजयतः, सखीभिः कुलैर्वा इतरेतरामितरेतरेण वा भोज्यते । अपुंसीति किम् ? इमे नराः परस्परं भोजयन्ति, नरैः परस्परेण भोज्यते, नरैः परस्परस्मै दीयते । 5 अपरोऽर्थः परस्परादीनामपुंसि प्रयुज्यमानानां संबन्धिनः स्यादेरमादेशो वा भवति । आभिः सखीभिः कुलैर्वा परस्परं परस्परेण वा भोज्यते, स्त्रीभिः कुलैर्वा परस्परं परस्परस्मै वा दीयते । अपरोऽर्थः परस्परादीनां पुंसि प्रयुज्यमानानां संबन्धिनः स्यादेरम्वा भवति । एभिर्नरैः परस्परं परस्परेण वा भोज्यते, एभिर्नरैः परस्परं परस्परस्मै वा दीयते । एवं च स्त्रीनपुंसकयोरमामौ10 द्वावादेशौ वा भवत इति त्रैरूप्यम् । इमे परस्परादयः शब्दाः स्वभावादेकत्वपुंस्त्ववृत्तयः कर्मव्यतीहारविषयाः, अस्मादेव च निर्देशात् परान्येतरशब्दानां सर्वनाम्नां द्विर्वचनादि निपात्यते ।। १ ॥ न्या० स०-परस्परान्योन्येतरेतरेति। समाहारद्वंद्वात् षष्ठी, न चान्योन्यशब्दस्य स्वराद्यदन्तत्वादल्पस्वरत्वाच्च परस्परशब्दात् पूर्वं प्रयोग आशङ्कनीयः ।15 पुर्व तस्येतरेतरशब्देन द्व परस्परशब्दस्यैवाल्पस्वरत्वादिति । इमे सख्यौ परस्परां भोजयत इति भुङक्त परस्परः कर्ता तं भुखानं सख्यौ प्रयुञ्जाते 'गतिबोध' [ २. २. ५. ] इत्यणिक्कतु: परस्परस्य कर्मत्वम्, विधानसामर्थ्यात् साम् न भवति, अन्यथा सामित्येव कुर्यात् । आभिः सखीभिः परस्परां भोज्यत इति अत्र करणे सहार्थे वा यदा तृतीया तदैको रिणग, कथं भुङक्त जनस्तं भुजानं सख्यः प्रयुखते रिणग, केन20 सह केन कृत्वा वा परस्परेणेति, यदा तु कर्तरि तृतीया, तदा रिणगद्वयं कथं भुङ्क्ते जनः तं भुखानं परस्परः प्रयुङ क्त रिणग् तं परस्परं भोजयन्तं सख्यः प्रयुञ्जते द्वितीयो णिग्, ततः कर्तरि तृतीयेति । इत्थमनुक्तस्यापि जनस्य कर्तृत्वं बोध्यमन्यथा 'गतिबोध' [ २. २. ५. ] इत्यादिना परस्परस्य कर्मत्वमेव स्यात् । अथवा प्रथमैकवचनस्यायमाम्भावः । तदभावपक्षे परस्परो भोज्यत इत्यादि द्रष्टव्यम्, एवमन्यत्रापि आमभावपक्षे 25 यथायोगमितरत् सर्वादिकार्य द्रष्टव्यम् । ___अपरोऽर्थ इति निर्देशस्य समानत्वात् प्राप्तमन्यदर्थद्वयं दर्शयति । ननु कथमिमे सख्यौ परस्परां भोजयतः आभिः सखीभिः परस्परेण भोज्यते इति द्वयोर्बहुषु चैकवचनं कथं च स्त्रियां प्राप्न भवति, कथं चैतेषां समूदायानां सद्यिपठितानां सर्वादिकार्य सर्वादित्वे वा कथं न नपुंसकस्य 'पञ्चतोऽन्यादेः' [ १. ४. ५८. ] इति दादेश30 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० २-४.] इत्याह-इमे परस्परादय इत्यादि कर्मव्यतिहारः क्रियाव्यतिहार एकस्यान्यतरभोजनादिरूपः । स विषयो येषामिति विग्रहः, पर अन्य इतर इति सर्वादिपाठात् सर्वादिकार्याविरोधः, यद्येवं कथं द्विवचनादि कार्यमित्याह । अस्मादेवेत्यादि नपुसके द्वितीयैकवचनस्य अन्योऽन्याम् अन्योन्यमित्यादेशद्वयसद्भावे आदेशाभावे तु अन्योन्यमिति भवति ।। ३. २. १. ।। अमव्ययीभावस्यातोपञ्चम्याः॥ ३. २. २ ॥ अव्ययीभावसमासस्याकारान्तस्य संबन्धिनः स्यादेरमित्ययमादेशो भवति 'अपञ्चम्याः' पञ्चमी च वर्जयित्वा । उपकुम्भं तिष्ठति, उपकुम्भं पश्य, उपकम्भं देहि, उपकुम्भं स्वामी। अव्ययीभावस्येति किम् ? कष्टश्रितः । तत्संबन्धिनः स्यादेरिति किम् ? प्रियोपकुम्भस्तिष्ठति, प्रियोपकुम्भाय देहि ।10 अत इति किम् ? अधिस्त्रि, उपवधु, उपकर्तृ । अपञ्चम्या इति किम् ? उपकुम्भात् ।। २ ॥ ___ न्या० स०--अमव्ययीभा० । नन्वत्राद्ग्रहणं किमर्थं यतः 'अनतो लुप्' [३.२.६.] इति सूत्रेण यत्राकारान्तत्वं तत्र लूबभावात अनेनाम् भविष्यतीति? सत्यं, अत्राद्ग्रहणं विना 'अनतः' [ ३. २. ६. ] इत्यत्र पर्यु दासो नञ् स्यात्ततश्च अतः स्वरस्य वर्जनमित्यन्य-15 स्मादपि स्वरान्तात् लुप् स्यात्ततो यत्र व्यञ्जनान्तत्वं स्यात् तत्राप्यमव्ययीभावस्यापञ्चम्या इति कृतेऽमादेशः स्यादिति अत्ग्रहणमिति । 'म' विधानेनैव सिद्धे 'अम्' विधानं संबोधने हे उपकुम्भ इत्यादौ 'अदेतः स्यमोः' [ १. ४. ४४.] इति अम्लोपार्थं उपजरसमिति जरसादेशार्थं च ॥ ३. २. २ ॥ वा तृतीयायाः॥ ३. २. ३ ॥ 20 अकारान्तस्याव्ययीभावस्य संबन्धिन्यास्तृतीयायाः स्थाने वा अम् भवति । कि त उपकुम्भम्, किं त उपकुम्भेन । तत्संबन्धिन्यास्तृतीयाया इति किम् ? किं नः प्रियोपकुम्भेन ।। ३ ।। सप्तम्या वा ॥३. २. ४ ॥ अकारान्तस्याव्ययीभावस्य संबन्धिन्याः सप्तम्या अमादेशो भवति वा ।25 उपकुम्भं निधेहि, उपकुम्भे निधेहि। तत्संबन्धिन्याः सप्तम्या इति किम् ? प्रियोपकुम्भे निधेहि । योगविभाग उत्तरार्थः ॥ ४ ॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ५-७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५४७ ऋद्धनदीवंश्यस्य ॥ ३. २. ५ ॥ ऋद्धं समृद्धम्, यस्य समृद्धिः सुशब्दादिना द्योत्यते, तदन्तस्य, नद्यन्तस्य, वंश्यान्तस्य चाकरान्तस्याव्ययीभावस्य सम्बन्धिन्याः सप्तम्याः स्थानेऽमादेशो भवति । ऋद्धं-मगधानां समृद्धिः, सुमगधं वसति, सुमद्र वसति,। नदीउन्मत्ता गङ्गा यस्मिन्नुन्मत्तगङ्ग देशे वसति, एवं लोहितगङ्गम्, शनैर्गङ्गम्, 5 तूष्णींगङ्ग वसति, द्वे यमुने द्वियमुनं वसति, एवं सष्ठगोदावरम् । वंश्य, एकविंशतिर्भारद्वाजा वंश्याः. एकविंशति भारद्वाजं वसति । एवं त्रिपञ्चाशद्गौतमम्, त्रिकोशलम्, प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणादिह न भवति । उपगङ्ग, उपयमुने पूर्वेण तु विकल्पो भवत्येव । नित्यार्थं वचनम् ।। ५ ।। न्या० स०--ऋद्धनदी०। भारद्वाजमिति भरन्तं वाजयति भरद्वाजः 'तस्येदम्'10 [ ६. ३. १६०. ] इत्यणि । बिदाद्यत्रि तु 'यात्रः' [ ६. १. १२६. ] इति लुप् स्यात् । भारद्वाजादिषु त्रिषु पूर्वपदार्थप्राधान्याद् बहुवचनं सुप् तस्याऽम् ।। ३. २. ५ ।। अनतो लुप् ॥ ३. २. ६ ॥ अकारान्तं वर्जयित्वान्यस्याव्ययीभावस्य संबन्धिनः स्यादेर्लुब् भवति । स्त्रीषु अधिस्त्रि, उपवधु, उपकर्तृ । अनत इति किम् ? उपकुम्भात्,15 उपकुम्भाभ्याम्, उपकुम्भेभ्यः, उपकुम्भेन, उपकुम्भे। तत्संबन्धिविज्ञानादिह न भवति, प्रियोपवधुः । अत्युपवधुः ।। ६ ।। अव्ययस्य ॥ ३. २. ७ ॥ अव्ययसंबन्धिनः स्यादेर्लुप् भवति । स्वः, प्रातः, उच्चैः, परमोच्चैः । कृत्वा। भोजभोजम् व्रजति, ततः, तत्र, कथं, ब्राह्मणवत्, पचतितराम्,20 द्विधास्ति । तत्संबन्धिविज्ञानादिह न भवति, अतिस्वरः, अत्युच्चसः। अत एव लुम्विधानादव्ययेभ्यः स्यादयोऽनुमीयन्ते । ततश्चाथो स्वस्ते गृहम्, अथोच्चैर्मम (मे) गृहमित्यादौ 'सपूर्वात्प्रथमान्ताद्वा' [२. १. ३२.] इति विकल्पेन ते मे आदेशौ पदसंज्ञा च सिद्धा भवति ॥ ७ ॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ८ - 8. ] ऐकार्थ्यं ॥ ३. २. ८ ॥ ऐकार्थ्यम् ऐकपद्यं तन्निमित्तस्य स्यादेर्लुप् भवति । चित्रा गावो यस्य चित्रगुः, राजपुरुषः, पुत्रमिच्छति पुत्रीयति, पुत्रकाम्यति, कुम्भं करोति कुम्भकारः, उपगोरपत्यमौपगवः, एषु चित्र अस् गो अस्, राजन् अस् पुरुष स्, पुत्र श्रम् य, पुत्र अम् काम्य, कुम्भ अस् कार, उपगु अम् इति स्थिते 5 ऐकार्थ्ये सति तन्निमित्तस्य स्यादेर्लुप् । अत एव च लुम्विधानात् ' नाम नाम्ना' - [ ३. १. १८. ] इत्युक्तावपि विभक्त्यन्तानामेव समासो विज्ञायते । ऐकार्थ्ये इति निमित्तसप्तमीविज्ञानादैकार्थ्योत्तरकालस्य न भवति । चित्रगुः । ऐकार्थ्य इति किम् ? चित्रा गावो यस्येत्यादिवाक्ये न भवति ।। ८ । न्या० स० -- ऐकार्थ्ये । ऐकार्थ्यमैकपद्यमित्युक्त ततश्चैकार्थ्यमित्युक्त ऐकपद्यं 10 कथं लभ्यते, यत ऐकार्थ्यमित्युक्त एकार्थता एवं प्राप्नोति पर्याय: ? उच्यते, ऐकार्थ्यहेतुत्वादैकपद्यमपि ऐकार्थ्यं । अथवा ऐकार्थ्यमस्यास्तीति ऐकार्थ्यमैकपद्यमभिधीयते, यत्र परित्यक्तस्वार्थान्युपसर्जनीभूतस्वार्थानि वा निरर्थकानि प्रर्थान्तरसंक्रमाद द्वयर्थानि भवन्ति तदैकार्थ्यं तच्च ऐकपद्यमेव । अर्थान्तराभिधायित्वात् घटपटादिवत् पदान्तरमेवेति । न ह्यसावर्थः पूर्वपदेनोत्तरपदेन वाऽभिधीयते । प्रक्रियार्थं तु पृथक् पदानि दर्श्यन्ते, अत एव 15 तदर्थस्य निवृत्तत्वाद् विभक्त रपि स्वयमेव निवृत्तेर्लु' शास्त्रमऽनुवादकमभिधीयते । ऐक - पद्यमिति नन्वैकार्थ्यं निमित्तं कारणं कथमभिधीयते यतः कार्यमिति वक्तव्यम् ? उच्यते, कार्ये कारणोपचारादिति प्रज्ञाकरगुप्तः । कार्यमपि कारणमभिधीयते यथा देवदत्तो गच्छति भोजनार्थं । अत्र भोजनं कार्यमपि कारणमस्ति यथा एवमत्रापि कार्यं कारणमभिधीयते, ऐकपद्ययोग्यत्वात् ऐकार्थ्यमत्रास्तीति 'अभ्रादिभ्यः ' [ ७. २. ४६. ] इति वा 120 अत एव चेति ननु नाम्नः समासविधानाद् विभक्तिरहितस्य च नामत्वात् समासे विभक्त्यभावादेव विभक्तिनिवृत्तेः सिद्धत्वात् पुत्रीयत्यौपगव इत्यादिसिद्ध्यर्थं प्रत्यय इत्येव कार्यम् ? नैष दोष:, अत एव लुब्विधानात् समासेऽपि विभक्त े : संभव इति । निमित्तसप्तमी विज्ञानादिति ऐकार्थ्यस्य च पूर्व्वकालवाचिन्येव विभक्तिनिमित्तं तस्यामैकार्थ्यस्य भावादुत्तरकालभाविन्यास्तु विभक्त रैकार्थ्यमेव निमित्तं सत्यैकपद्यं तस्या: 25 संभवादिति ।। ३२.८ ।। न नाम्येकस्वरात् खित्युत्तरपदेश्मः ॥ ३. २. ६ ॥ समासारम्भकापत्यं पदमुत्तरपदम् । नाम्यन्तादेकस्वरात्पूर्वपदात्परस्यामः Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० १०. ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५४६ खित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे परे लुप् न भवति । स्त्रीं स्त्रियं वात्मानं मन्यते स्त्रींमन्यः स्त्रियंमन्यः, श्रियंमन्यः, भ्र वंमन्यः, नरंमन्यः, रायंमन्यः, गांमन्यः, नावंमन्यः । अथ श्रियमात्मानं मन्यते श्रियंमन्यं कुलमित्यत्र नपुंसकलक्षणोऽमो लोपः कस्मान्न भवति ? उच्यते- श्रीशब्दस्यात्मसमानाधिकरणस्य नपुंसके वृत्त्यभावादाविष्टलिङ्गत्वाच्च न भवति, अन्ये त्वाहुः, यथा प्रष्ठादयः शब्दा 5 धवयोगात् स्त्रियां वर्तमानाः स्वलिङ्ग विहाय स्त्रीलिङ्गमुपाददते, तथा श्रीशब्दः कुले वर्तमानः स्वलिङ्गपरित्यागेन वर्तते, ततो नपुंसकलक्षणं ह्रस्वत्वममो लुप् च भवति, श्रियंमन्यं कुलमिति । नचायं नपुंसकलक्षणस्य लोपस्यापवादः, किंतु ऐकार्थ्यलक्षणस्योत्तरपदग्रहणात् । नामिग्रहणं किम् ? जंमन्यः, क्ष्मंमन्यः, वाग्मन्यः । एकस्वरादिति किम् ? हररिंणमन्या, 10 बुधमन्या । खितीति किम् ? स्त्रीमानी 'मन्याण्णिन् ' [ ५. १. ११६. ] । ॥ न्या० स०--न नाम्ये० । नाम्यन्तादिति व्याख्याने नाम्यवयवयोगात् समुदायोऽपि नामी । स तु अवयवोऽन्तर्मध्ये च संभवतीति । ततः संभवे व्यभिचारे च *विशेषरणमर्थवत् इति न्यायात्, 'विशेषणमन्तः ' [ ७. ४. ११३. ] इत्यन्तत्वम् । खित्प्रत्ययान्त इति नन्वत्र 'सप्तम्या आदि:' [ ७. ४. ११४.] इति खिदादावुत्तरपदे इति 15 प्राप्नोति ? न, खिदादेरुत्तरपदस्यासंभवादिति । ननु 'स्त्रियंमन्य' इत्यत्राऽलुपि सत्यां 'कर्म्मणि कृत:' [ २.२.८३.] इति सूत्रेण षष्ठी कथं न भवति यतोऽग्रे कृत्प्रत्ययोऽस्ति ? उच्यते, त एवामोऽलुब्विधानात् षष्ठी न भवति । अन्यथा ह्यमोऽलुप् कथं विधीयत इति । न चायमिति नन्वनेन निषेधः प्राप्नोति तत्कथममोऽलुबित्युक्तमन्यैरित्याशङ्का । ऐकार्थ्यलक्षणस्येति अयमपवाद उत्तरपदे एव प्राप्तस्य बाधक इत्यर्थः ।। ३. २. ε ।। 20 असत्त्वे इसेः ॥ ३.२.१० ॥ असत्त्वे विहितो यो ङसि तस्योत्तरपदे परे लुप् न भवति । स्तोकान्मुक्तः, अल्पान्मुक्तः, कृच्छ्रान्मुक्तः, कतिपयान्मुक्तः, अन्तिकादागतः, अभ्याशादागतः सविधादागतः दूरादागतः, विदूरादागतः विप्रकृष्टादागतः, 'क्त' नासत्त्वे' [ ३. १७४ ] इति समासः । सत्त्वे इति किम् ? 25 स्तोकभयम् स्तोकापेतः । उत्तरपद इत्येव ? स्तोकः ।। १० । निष्क्रान्तः - स्तोकान्नि Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ] [ पा० २. सू० ११-१२.] न्या० स०—असत्त्वे० । स्तोकान्मुक्त इत्यादौ ' स्तोकाल्पकृच्छ्र' [ २. २. ७६. ] इति पञ्चमी । अन्तिकादागत इत्यादौ तु 'असत्त्वारादर्थ' [ २. २. १२०. ] इति पञ्चमी भवति इत्यादि स्वयमूह्यम् ।। ३. २. १० । ब्राह्मणाच्छंसी ॥ ३. २. ११ ॥ ब्राह्मणाच्छंसीत्यत्र ङसेर्लुबभावो निपात्यते । शंसति ब्राह्मणाच्छंसी, ब्राह्मणाच्छंसिनौ, रूढिवशादृत्विग्विशेष उच्यते । उपात्तविषयमेव तदपादानं निपातनस्येष्टविषयत्वादृत्विग्विशेषादन्यत्र लुप् बृहद्वृत्ति - लघुम्याससंवलिते ब्राह्मणाद्ग्रन्थादादाय 5 ब्राह्मणाच्छंसिनः,यथा- कुसूलात्पचति । भवति - ब्राह्मणशंसिनी स्त्री ।। ११ ।। न्या० स०--ब्राह्मणा० । ब्राह्मरणाद्ग्रन्थात् इति ब्रह्मणा प्रोक्तो ग्रन्थो ब्राह्मणं 10 तेन प्रोक् । 'अणि' [ ७.४.५२. ] इति निषेधेऽपि 'ब्रह्मण:' [ ७. ४. ५७.] इत्यनेन ब्राह्ममस्त्रमितिवदत्रान्त्यस्वरादिलोपो न भवति । ‘वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव’ [ ६. २. १३०. ] इति निर्देशात्, अत एव निर्देशाद् वा । ब्राह्मणः श्रुताविति नपुंसकत्वं, ब्राह्मणाद्ग्रन्थादादाय शंसतीत्येवं ब्रह्म शंस् इति वाक्ये 'व्रताभीक्ष्ण्ये' [ ५.१.१५७. ] इति णिन् प्रत्ययः । उपात्तविषयेति प्रत्र हि प्रादानाङ्ग शंसने शंसिर्वर्तते इत्यादान - 15 क्रियापेक्षमपादानमित्यादि: ।। ३२.११ ।। ओजोञ्जसहोम्भस्तमस्तपसष्टः ।। ३. २. १२ ।। एभ्यः परस्य टस्तृतीयैकवचनस्योत्तरपदे परे लुब् न भवति । ओजसाकृतम्, अञ्जसाकृतम्, सहसाकृतम्, अम्भसाकृतम्, तमसाकृतम्, तपसाकृतम्, तपसाप्राप्तम् । कथं 'सततनैशतमोवृतमन्यत इति ? उत्तरपदस्य 20 संबन्धिशब्दत्वाद्यत्र पूर्वपदीभूतस्तमः शब्दस्तत्रायं निषेधः । यत्र तु पदान्तरेण समस्तस्तत्र न प्रतिषेधः । ट इति किम् ? प्रोजसो भावः प्रोजोभावः । तमसो नेच्छन्त्येके । तपसोऽन्ये ।। १२ ॥ न्या० स० – नोजोऽञ्जः । श्रोजसाकृतमिति प्रोजसा क्रियते स्म, एषु सर्वेषु कर्त्तरि षष्ठी न भवति । 'क्तयोरसदाधारे' [ २. २. ९१ ] इति निषेधात्, तृतीया तु25 कर्त्तरि करणे वा, सर्व्वत्र 'कारकं कृता' [ ३.१.६८ ] इति समासः । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १३-१४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५५१ तपनमण्डलदीपितमेकतः, सततनशतमोवृतमन्यतः । हसितभिन्नतमिस्रचयं पुरः, शिवमिवानुगतं गजचर्मणा ॥ १।। सततनैशतमोवतमिति निशायां भवं 'निशाप्रदोषात्' [ ६. ३.८३. ] इतीकणो विकल्पाद् भवेऽण । नैशं च तत् तमश्च सततं च तन्नैशतमश्च तेन वृतमिति ॥३.२.१२॥ पुजनुषोऽनुजान्धे ॥ ३. २. १३ ॥ पुम्स्शब्दाज्जनुःशब्दाच्च परस्य टावचनस्य यथासंख्यमनुजशब्देऽन्धशब्दे चोत्तरपदे परे लुब् न भवति । पुंसा करणेनानुजः पुंसानुजः, जनुषा जन्मनान्धः-जनुषान्धः,-अविकृताक्षो जात्यन्ध उच्यते । अन्ये तु जतुः शब्दात्तकारश्रुतेरिच्छन्ति । ट इत्येव ? पुमासमनुजाता पुमनुजा ।। १३ ।। न्या० स०-पुजनुषो० । अन्धेश्चुरादिणिजन्तादच्यन्धः अन्धनं वाऽन्धस्तदऽस्ति 10 अभ्रादित्वात्, उभयोः करणे तृतीया 'कारकं कृता' [ ३. १. ६८. ] इति समासः ॥ ३. २. १३ ॥ आत्मनः पूरणे ॥ ३. २. १४ ॥ आत्मनः परस्य टावचनस्य पूरणप्रत्ययान्ते उत्तरपदे परे लुप् न भवति । आत्मनाद्वितीयः, आत्मनातृतीयः, आत्मनाचतुर्थः, आत्मनापञ्चमः,15 आत्मनाषष्ठः, प्रात्मनैकादशः, पूर्वादित्वात्समासः । कथं जनार्दनस्त्वात्मचतुर्थ एवेति ? आत्मा चतुर्थोऽस्येति बहुव्रीहिः ।। १४ ।। न्या० स०--प्रात्मनः। अत्र पूरणार्थाभिधायक: प्रत्ययः पूरणशब्देनोच्यत इत्याह पूरणप्रत्ययान्ते इति । आत्मनाद्वितीय इति अथात्र केन तृतीया न ह्यत्र करणादिस्तृतीयाऽर्थोऽस्ति, करणादेः कारकत्वात् क्रियामन्तरेण च तस्याऽसंभवात् । न चाऽत्र20 काचित् क्रियास्ति? उच्यते, 'यद्भ दैः' [२. २. ४६. ] इत्यत्र तृतीया। समासस्तु पूर्खादित्वात् । गम्यक्रियापेक्षया करणे वा तृतीयाऽस्तु तदा बाहुलकात् समासः। बहुव्रीहिरिति ननु वत्तिपदार्थव्यतिरिक्त नाऽन्यपदार्थेन भाव्यं चित्रग्वादिवत् अत्र तु तस्यैवान्यपदार्थत्वात् कथं बहुव्रीहिः ? उच्यते, एकस्यैव वस्तुनो बुद्धिपरिकल्पितभेदस्य वत्तिपदार्थत्वमन्यपदार्थत्वं च न विरुध्यते । यथा शोभनशरीरः शिलापुत्रक इति25 ॥ ३. २. १४ ॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू. १५-१८.] मनसश्चाज्ञायिनि ॥३. २. १५ ॥ मनःशब्दादात्मशब्दाच्च परस्य टावचनस्याज्ञायिन्युत्तरपदे परे लुप् न भवति । मनसाज्ञातुं शोलमस्य मनसाज्ञायी, एवमात्मनाशायी । आत्मनो नेच्छन्त्येके ॥ १५ ॥ न्या० स०--मनसश्चा०। नन्विदं सूत्रमलुविधायकं न कर्त्तव्यं, यतो लुकि 5 कृतेऽपि सर्वाणि रूपाणि भविष्यन्ति ? उच्यते, यदि लुप् विधीयते तदा पदान्तत्वान्नलोपो रुत्वं विसर्गादिकं च कार्यं स्यादिति सूत्रम् ।। ३. २. १५ ॥ नाम्नि ॥ ३. २. १६ ।। मनसः परस्य टावचनस्योत्तरपदे परे नाम्नि संज्ञायां विषये लुप् न भवति । मनसादेवी, मनसागुप्ता, मनसादत्ता, मनसासंगता,-एवं नामा10 काचित् । नाम्नीति किम् ? मनोदत्ता कन्या ।। १६ ।। ___ न्या० स०-नाम्नि। मनसा दीव्यादित्याशास्यमाना लिहादित्वात् 'तिक्कृतौ नाम्नि' [ ५. १. ७१. ] इत्यच्, गौरादित्वात् ङ्यां 'कारकं कृता' [ ३. १. ६८. ] इति सः ।। ३. २. १६ ।। परात्मभ्यां हो ॥३. २. १७ ॥ परात्मशब्दाभ्यां परस्य अॅश्चतुर्थ्येकवचनस्योत्तरपदे परे नाम्नि विषये लुप् न भवति । परस्मैपदम्, परस्मैभाषा, आत्मनेपदम्, आत्मनेभाषा,'तादर्थ्य' [२. २. ५४.] चतुर्थी, हितादित्वात् समासः । नाम्नीत्येव ? परहितम्, अात्महितम् । कथं परहितो नाम कश्चित् ? नेयमनादिसंज्ञा ॥ १७ ॥ अव्यञ्जनात्सप्तम्या बहुलम् ॥ ३. २. १८ ॥ 20 अकारान्ताद्वयञ्जनान्ताच्च परस्याः सप्तम्या बहुलं लप् न भवति, नाम्नि विषये। अदन्तः-अरण्येतिलकाः, अरण्येमाषकाः, वनेकशेरुकाः, वनेबल्वजाः, वनेकिंशुलकाः, वनेहरिद्रकाः, कूपेपिशाचिकाः, पूर्वाह णेस्फोटकाः, मध्याह्न स्फोटकाः,व्यञ्जन-युधिष्ठिरः-बहुलवचनात्क्वचिद्विकल्पः-त्वचिसारः, त्वक्सारः, क्वचिद्भवति-जलकुक्कुटः, ग्रामसूकरः। अद्व्यञ्जनादिति25 15 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५५३ किम् ? भूमिपाशः नदीकुक्कुटिका । नाम्नीत्येव ? तीर्थकाकः, नगरवायसः, अक्षशौण्डः। सप्तम्या इति किम् ? गौरखरः । कथं गविष्ठिरः ? बिदादिपाठात् 'गवियुधेः स्थिरस्य' [२. ३. २५.] इति निर्देशाद्वा भविष्यति । नन्वन्तरङ्गत्वादवादेशे कृते व्यञ्जनान्तत्वादेव सिद्धं किं बिदादिपाठाश्रयणेन ? नैवम्, अन्तरङ्गानपि हि विधीन् बहिरङ्गाऽपि लुप् बाधते इत्युक्तम्, अन्यथा 5 नदीकुक्कुटिकादिष्वप्यन्तरङ्गत्वाद्यत्वे सत्यलुप् प्रसज्ज्यतेति ॥ १८ ।। न्या० स०--अव्यञ्जनादिति । किं भूमिपाश इत्यादि दर्शितं । ततश्च भूमौ पाश: भूमिपाश इत्यत्र स्वयमेव न भविष्यति अलुप् यत: संज्ञाशब्दोऽपि न भवति ? उच्यते, क्वचित्साध्यमाना क्वचिदसाध्यमाना च भवति संज्ञा ततश्चाऽत्र साध्यमानास्ति इति अव्यञ्जनादिति व्यावृत्तिः । वनेकिंशुलका इति दर्शितं ततश्च किं श्यतीति अध्वर्वा-10 दित्वाइ डिदुप्रत्यये किंशुः, लातीति डे किंशुलः, स एव किंशुलकः ।। ३. २. १८ ।। प्राक्कारस्य व्यञ्जने ॥ ३. २. १६ ॥ राजलभ्यो रक्षानिर्वेशः कारः, प्राचां देशे यः कारस्तस्य नाम्नि संज्ञायां गम्यमानायामद्वयञ्जनात्परस्याः सप्तम्या व्यञ्जनादावुत्तरपदे परे लुप् न भवति । मुकुटे मुकुटे कार्षापणो दातव्यः मुकुटेकार्षापरणः, एवं स्तूपेशाणः,15 हलेद्विपदिका, हलेत्रिपदिका, व्यञ्जन-दृषदिमाषकः, समिधिमाषकः,-वृत्तौ वीप्साया दानस्य चान्तर्भावः । प्रागिति किम् ? यूथे यूथे देयः पशु:यूथपशुः, एवं यूथवृषः,-उदीचां देशे कारोऽयम् न प्राचाम् । कार इति किम् ? अभ्यहितेऽभ्यहिते देयः पशुः अभ्यर्हितपशुः,-प्राचां देशे कारादन्यस्य देयस्य नामैतत् । व्यञ्जन इति किम् ? अविकटेऽविकटे उरणो दातव्यः-20 अविकटोरणः, अविकटोऽविसमूहः। अद्वयञ्जनादित्येव ? नध्रयां नध्रयां दोहो दातव्यः नध्रीदोहः । पूर्वेणैव सिद्ध नियमार्थोऽयं योगः, त्रिविधश्चात्र नियमः,-प्राचामेव, कारस्यैव नाम्नि, व्यञ्जनादावेवेति,-तथा च प्रत्युदाहृतम् ॥ १६ ।। न्या० स०--प्राक्कार०। कुर्वन्त्यनेनेति करः, 'पुन्नाम्नि घः' [ ५. ३. १३०. ] 25 अः इति वा, ततः प्रज्ञाद्यण-कारः। मुकुटेकार्षापरणादिषु सर्वेषु 'नाम्नि' [३. २. १४४.] इति सः । स्तूपो राशिः, शांणः कर्षचतुर्भागः, हले हले द्वौ द्वौ पादौ ददाति । 'संख्यादेः Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] बृहद्वृत्ति-लन्याससंवलिते [पा० २. सू० २०-२२.] पादादिभ्यः' [ ७. २. १५२. ] इत्यकल् । नह्यतेऽनया 'नीदाव्' [ ५. २. ८८.] इति । त्रट् ॥ ३. २. १६ ॥ तत्पुरुषे कृति ॥ ३. २. २० ॥ अद्वयञ्जनात्परस्याः सप्तम्याः कृदन्ते उत्तरपदे परे तत्पुरुष समासे लुब् न भवति, नाम्नीति निवृत्तम् । स्तम्बे रमते स्तम्बेरमः, एवं कर्णेजपः, 5 पात्रेसमितः, प्रवाहेमूत्रितम्, उदकेविशीर्णम्, अवतप्तेनकुलस्थितम्, व्यञ्जनभस्मनिहुतम्, भस्मनिमीढम् । बहुलाधिकारात्क्वचिदन्यतोऽपि गोषुचर । क्वचिन्निषेधो न भवति-मद्रचरः, ग्रामकारकः । क्वचिद्विकल्पः-खचरः, खेचरः, वनेचरः, वनचरः पङ्क रुहम्, पङ्करुहम्, सरसिरुहम्, सरोरुहम्, दिविषत्, द्युसत् । क्वचिदन्यदेव-हृदयं स्पृशति, हृदिस्पृक्,-द्वितीयार्थेऽत्र 10 सप्तमी, एवं दिविस्पृक् । तत्पुरुष इति किम् ? धन्वनि कारका यस्य स धन्वकारकः, एवं कल्याणाभिनिवेशः, धर्मरुचिः। कृतीति किम् ? अक्षशौण्डः, अक्षकितवः अव्यञ्जनादित्येव ? .. कुरुषु चरति कुरुचरः, एवं रात्रिचरः, नदीचरः, कथं परमे कारके उत्तमे कारके इति विग्रहे परमकारके उत्तमकारके तिष्ठतीत्यत्र सप्तम्या लुब् भवति ? उच्यते-15 अन्तरङ्गत्वात्प्रथमान्तयोरेव परमोत्तमशब्दयोः कारकशब्देन समास इति ताभ्यां सप्तम्येव नास्ति, यद्वा कृतीति कृनिमित्ताया एव सप्तम्या लुप्रतिषेधः, इह तु तिष्ठत्यादिक्रियापेक्षेति लुप् भवत्येव ।। २० । मध्यान्ताद्गुरी ॥३. २. २१ ॥ मध्यान्तशब्दाभ्यां परस्याः सप्तम्या गुरुशब्दे उत्तरपदे परे लुप् न20 भवति । मध्येगुरुः, अन्तगुरुः मध्यगुरुः, अन्तगुरुरित्यप्यन्ये ।। २१ ॥ न्या० स०–मध्यान्ता। अत्र समासविशेषस्यानुपादानात् यथा तत्पुरुषे लुक् न भवति तथा बहुव्रीहावपि ।। ३. २. २१ ॥ अमूर्धमस्तकात्स्वानादकामे ॥ ३. २. २२ ॥ मूर्धमस्तकशब्दवर्जितात्स्वाङ्गवाचिनोऽद्वयञ्जनान्ताच्छब्दात्परस्याः 25 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० २३-२४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५५५ 10 सप्तम्याः कामशब्दादन्यस्मिन्नुत्तरपदे परे लुब् न भवति । कण्ठे कालोऽस्य कण्ठेकालः, उदरेमणिः, वहेगडुः, पुतेवलिः, उरसिलोमा, शिरसिशिखः । अमूर्धमस्तकादिति किम् ? मूर्धशिखः, मस्तकशिखः । स्वाङ्गादिति किम् ? अक्षशौण्डः, मुखपुरुषा शाला। अकाम इति किम् ? मुखकामः । अद्वयञ्जनादित्येव ? अङ्गुलिव्रणः, जङ्घावलिः । बहुलाधिकारात्करकमलम्, 5 गलरोगः, गलवणः, इत्यादि सिद्धम् ।। २२ ।। न्या० स०-अमूर्ख। शब्दप्रधानो निर्देशो नाऽर्थप्रधान इति 'समानामर्थे' [ ३. १. ११८. ] इति नैकशेषः। वहेगडुरिति 'गड्वादिभ्यः' [ ३. १. १५६. ] इत्यनेन विकल्पितोऽपि बाहुलकात् नित्यं पूर्वनिपातः ।। ३. २. २२ ।। बन्धे घनि नवा ॥ ३. २. २३ ॥ बन्धशब्दे घनन्ते उत्तरपदे परे अद्वयञ्जनान्तात्परस्याः सप्तम्या वा लुब् न भवति, स्वाङ्गादस्वाङ्गाच्चायं विकल्पः । हस्ते बन्धो हस्ते बन्धोऽस्येति वा हस्तेबन्धः, हस्तबन्धः, चक्रेबन्धः, चक्रबन्धः । बन्ध इति किम् ? पुटपाकः, मनोरागः । घनीति किम् ? अजन्ते माभूत्, बध्नातीति बन्धः चक्रबन्धः, हस्तबन्धः, चारकबन्धः । अद्व्यञ्जनादित्येव गुप्तिबन्धः,15 काराबन्धः ।। २३ ।। न्या० स०-बन्धे घजि०। चकबन्धः, हस्तबन्ध इत्यादिष्वनेन सूत्रेण न भवति तर्हि मा भवतु 'तत्पुरुषे कृति' [३. २. २०.] इति अनेनालुप् कथं न भवति ? उच्यते, 'अद्व्यञ्जनात्' [ ३. २. १८. ] इत्यतः सूत्राद् बहुलमित्यनुवर्तते ततश्च तत्पुरुषे कृतीति बहुलमलुप् भवति ततश्चात्रालुप् न भवति, तर्हि अमूर्धमस्तकादित्यनेन सूत्रेणाऽलुप्20 कथं न भवति ? उच्यते, इदं सूत्रं न प्रवर्तते यत्र तत्पुरुषे कृतीति न प्राप्नोति, निषेधस्तत्रेदं प्रवर्तते । अत्र तु तत्पुरुषे निषेधस्ततश्च तेन बहुलं भवति । अतोऽलुप् न भवति ।। ३. २. २३ ॥ कालात्तनतरतमकाले ॥ ३. २. २४ ॥ अव्यञ्जनान्तात्कालवाचिनः शब्दात्परस्याः सप्तम्यास्तनतरतम-25 प्रत्ययेषु कालशब्दे चोत्तरपदे परे वा लुप् न भवति । तन,-पूर्वाह णेतनः, पूर्वाह णतनः, अपराह णेतनः,अपराह णतनः, तर-पूर्वाह णेतराम, पूर्वाह णतरे, Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० २५.] 15 अपराहणेतराम्, अपराहणतरे, तम-पूर्वाह णेतमाम्, पूर्वाहणतमे, अपराहणेतमाम्, अपराह णतमे, काल,-पूर्वाह णेकाले, पूर्वाह णकाले, अपराह णेकाले, अपराह णकाले । कालादिति किम् ? शुक्लतरे, शुक्लतमे, । अद्व्यञ्जनादित्येव ? रात्रितरायाम, निशातमायाम्, रात्रिकाले 'उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्य ग्रहणम्, न तदन्तस्य, 'नवा खित्कृदन्ते'- 5 [३. २. ११७.] इत्यत्रान्तग्रहणात्, तेनात्र तनतरतमप्रत्ययानां स्वरूपेणैव ग्रहणं भवति ।। २४ ।। न्या० स०-कालात्तन०। पूर्वाह्नतरां पूर्वाह्नतरे इति द्वयोर्मध्ये प्रकृष्टे विभज्ये वा पूर्वाह्न 'द्वयोविभज्ये च तरप्' [७. ३. ६.] यत्र सप्तम्या अलुप् तत्र प्रथमा सप्तम्यर्थस्य सप्तम्यैवोक्तत्वात् । यत्र तु सप्तम्या लुप् तत्र सप्तम्यर्थप्रतिपादनार्थं सप्तमी10 पुनर्दीयते । पूर्वाह्नतमामिति अथ क: प्रकर्षोऽत्र पूर्वाह्नस्य विवक्षावशादिति केचित्, तथाहि यत् सुप्रभाते कृतं यच्च प्रहरविरतौ तयोः सुप्रभाते कृतमतिशयेन पूर्वाह्न कृतमिति लोके व्यवह्रियते, न तु परमार्थतो नामार्थस्याऽत्र कश्चित् प्रकर्षयोगः। अन्य आह-नामार्थोऽधिकरणशक्तौ उपसर्जनभावान्न प्रकृष्यते, शक्तिरप्याधेयापेक्षत्वान्न स्वतः प्रकर्षमहतीत्याधेयापेक्षयाऽत्र नामार्थावच्छिन्नायाः शक्त: प्रकर्षो वर्णनीयः । पूर्वाह्न काल इति । सप्तम्यन्तयोविशेषणसमासः, यद्यपि पूर्वाह्नः कालं न व्यभिचरति तथापि बाहुलकात् समासो यथा पृथिवीद्रव्यमिति । अथवा पूर्वाले यः कालस्तस्मिन्निति वैयधिकरण्ये वा समासः, अत्र सत्रे कालग्रहणसामर्थ्याद वा, एवमपराहकाल इत्यादि । रात्रितरायामित्यादि अत्र रात्रेयद्यपि स्वतः प्रकर्षो नास्ति तथाऽपि गोतर इत्यादौ यथा जातेः स्वतः प्रकर्षासंभवे तत्सहचरदोहवाहाद्यपेक्षया प्रकर्षस्तथात्रापि रात्रिसहच-20 रान्धकारघोरत्वाद्यपेक्षयेति । अत्र सूत्रे यदा तनोतीति ताम्यतीति तरतीति क्रियते तदा अलुप् न भवति प्रत्ययाप्रत्यययोरिति न्यायात्। तेन पूर्वाह्नतनः पूर्वाह्नतमः पूर्वाह्नतर इत्याद्येव भवति ।। ३. २. २४ ।। शयवासिवासेष्वकालात् ॥ ३. २. २५ ॥ अकालवाचिनोऽद्व्यञ्जनान्ताच्छब्दात्परस्याः सप्तम्याः शयादिषुत्तरपदेषु 25 लुप् न भवति वा। बिलेशयः, बिलशयः, खेशयः, खशयः, वनेवासी, वनवासी, अन्तेवासी, अन्तवासी, ग्रामेवासः, ग्रामवासः । बहुलाधिकारान्मनसिशयः, कुशेशयमिति नित्यं लुब्भावः । हृच्छयः, चित्तशयः इत्यत्र तु नित्यं लुप् । अकालादिति किम् ? पूर्वाह णशयः, अपराह णशयः । अव्यञ्जनादित्येव ? भूमिशयः, गुहाशयः ।। २५ ।। ___30 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० २६-२६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५५७ 5 वर्षक्षरवराप्सरः शरोरोमनसो जे ॥ ३. २. २६ ॥ वर्ष, क्षर, वर, अप्, सरस्, शर, उरस्, मनस् इत्येतेभ्यः परस्याः सप्तम्या जे उत्तरपदे वालुप् भवति वर्षेजः, वर्षजः, क्षरेजः, क्षरजः, वरेजः, वरजः, अप्सुजम्, अब्जम्, सरसिजम्, सरोजम्, शरेजः, शरजः, उरसिजः, उरोजः, मनसिजः, मनोजः ।। २६ ।। न्या० स०-वर्षः। क्षरतीत्यचि क्षरे मेघे जातः क्षरजः । क्षरशब्देन जलं मेघश्च उच्यते ॥ ३. २. २६ ।। धुप्रावूड्वर्षाशरत्कालात् ॥ ३. २. २७ ॥ योगविभागाद्वेति निवृत्तम्, दिवप्रभृतिभ्यः परस्याः सप्तम्या जे उत्तरपदे परे लुप् न भवति । दिविजः, प्रावृषिजः, वर्षासुजः, शरदिजः,10 कालेजः ।। २७ ।। अपो ययोनिमतिचरे ॥ ३. २. २८ ।। अपशब्दात्परस्याः सप्तम्या यप्रत्यये योनिमतिचरेषु चोत्तरपदेषु लुब् न भवति । अप्सु भवः अप्सव्यः-दिगादित्वाद्यः, अप्सुयोनिः, अप्सुमतिः, अप्सुचरः ।। २८ ।। नेन्सिद्धस्थे ॥ ३. २. २६ ॥ इन्प्रत्ययान्ते सिद्ध स्थ इत्येतयोश्चोत्तरपदयोः सप्तम्या अलुप् न भवति, भवत्येवेत्यर्थः । इन्-स्थण्डिले वर्तते स्थण्डिलवर्ती, एवं स्थण्डिलशायी, सांकाश्यसिद्धः, काम्पील्यसिद्धः, समस्थः, विषमस्थः, 'शयवासी' [३. २. २५.] त्यादियोगद्वयविकल्पो 'धुप्रावृट्'-[ ३. २. २७. ] आदियोगद्वयविधिरनेन20 प्रतिषेधश्च, 'तत्पुरुषे कृति' [३. २. २०.] इत्यस्यैव प्रपञ्चः । ते वै विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपञ्चश्चेति ।। २६ ।। न्या० स०-नेन्सिद्ध०। इन्प्रत्ययान्ते इति । इहोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे तदन्तविध्यभावे ज्ञापितेऽपि सामर्थ्यात्तदन्तविधिः। इन्प्रत्ययो हि द्विविधः कृत्तद्धितश्च, 15 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ ] बृहवृत्ति-ल.न्याससंवलिते [पा० २. सू० ३०-३३.] तत्र कृद्धातोविधीयते तद्धितोऽपि प्रथमान्तादस्यास्त्युपाधिकस्तस्मात् सप्तम्यन्तात् तयोविधानाऽसंभवात् तदन्ते उत्तरपदे सप्तम्या अलुप् प्रतिषिध्यत इति । ते वै विषय इति वैशब्दो हेत्वर्थे ततो 'वै' इत्यस्य यत इत्यर्थः । परानुग्राहकं हि शास्त्रं तत्र केचित् तीक्ष्णधियस्तान् प्रति संक्षेपेण प्रणयनम् । केचिन्मन्दधियस्तान् प्रति प्रपञ्च प्रारभ्यते । ३. २. २६ । षष्ठया क्षेपे ॥ ३. २. ३० ॥ क्षेपे गम्यमाने उत्तरपदे परे षष्ठ्या लुप् न भवति । चौरस्यकुलम्, दासस्यभार्या, वृषल्याःपतिः। क्षेप इति किम् ? ब्राह्मणकुलम् । कथं चौरकुलं, दासभार्या, वृषलीपतिः । तत्त्वाख्यानमेतन्न क्षेपः ।। ३० ।। न्या० स०--षष्ठयाः क्षेपे। अत्र पूर्वपदात् क्षेपे अलुप् इष्यते तेन भूपस्य 10 जाल्मो भूपजाल्म इत्यत्र लुबेव भवति । एतत्तु व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरितिक इति न्यायात् न्याय्यम् ॥ ३. २. ३०॥ पुत्रे वा ॥ ३. २. ३१ ॥ पुत्रशब्दे उत्तरपदे क्षेपे गम्यमाने षष्ठया लुप् वा न भवति । दास्याःपुत्रः, दासीपुत्रः, वृषल्याःपुत्रः, वृषलीपुत्रः । क्षेपे इत्येव ? ब्राह्मणपुत्रः ।15 दासीपुत्र इति तु तत्त्वाख्याने । पूर्वेण नित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पः ।। ३१ ।। पश्यद्वाग्दिशो हरयुक्तिदण्डे ॥ ३. २. ३२ ॥ पश्यद्वाग्दिक्शब्देभ्यः परस्याः षष्ठ्या यथासंख्यं हरयुक्तिदण्डेषूत्तरपदेषु लुब् न भवति । पश्यतोहरः, अनादरे षष्ठीयम्, जनं पश्यन्तमनादृत्य हर्तेत्यर्थः, वाचोयुक्तिः, दिशोदण्डः, संबन्धषष्ठ्यौ ।। ३२ ।। न्या० स०--पश्यद्वाग् । पश्यतोहर इत्यत्र यदा पश्यतां हर इति क्रियते तदा अलुप भवति वा नवा ? उच्यते, शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् समासस्याप्यगमकत्वे समासाभावात् लुगपि न प्राप्नोति । यदा तु अर्थात् प्रकरणाद् वा बह्वर्थो ज्ञायते तदा भवत्येवाऽलुप् ।। ३. २. ३२ ।। अदसोऽकायनणोः ॥ ३. २. ३३ ॥ अदसः परस्या षष्ठया अकञ्प्रत्ययविषये उत्तरपदे प्रायनण प्रत्यये च 20 25 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३४-३५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५५६ परे लुप् न भवति । अमुष्य पुत्रस्य भावः प्रामुष्यपुत्रिका, एवमामुष्यकुलिका, चौरादित्वादकम्, अमुष्यापत्यमामुष्यायणः, नडादित्वादायनण , अदसोऽनन्तरमायनणो विधानान्न तत्रोत्तरपदसंभवः ।। ३३ ।। न्या० स०--अदसो०। अकञ्प्रत्ययविषये उत्तरपदे इत्युक्त ततश्चाकञ्प्रत्ययविषय इति विशेषणमत्तरपद इति विशेष्यं ततश्चाकाप्रत्ययविषय इति भिन्नविशेषणं कथं 5 क्रियते । अकञ्प्रत्ययान्तं यदुत्तरपदं तस्मिन् विषये कथं न भण्यते ? उच्यते, प्रत्ययस्यैव ग्रहणं भवति, प्रत्ययग्रहणं च 'नवा खित्' [ ३. २. ११७. ] इत्यत्रान्तग्रहात्, तहि 'नेन्सिद्धस्थे[ ३.२.२६.] इति सूत्रे इनः कथं प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं न भवति? उच्यते, असंभवात्, तह्यत्रापि असंभवात् ग्रहीष्यते अकञ्प्रत्ययान्ते उत्तरपद इति । नैवं ग्रहणं भवति असंभवात् । किं त्वत्र प्रत्ययस्य संभवात्प्रत्ययस्यैव ग्रहणं भवति, यतो विषयव्याख्याने 10 षष्ठ्यन्तपूर्वपदस्य पुत्रशब्दे उत्तरपदे अकञ्प्रत्ययः संभवत्येव । न च वाच्यमनन्तरे एव किमिति न भवति। यतोऽदसः परो नास्त्यऽकञ् अमुष्यपुत्र इति चौरादिपाठात् । अथ चौरिका इत्यत्राकान्तमुत्तरपदं संभवति ततः कथमकान्ते उत्तरपदे इति न भरिणतं यथा अमुष्यचौरिकेति ? उच्यते, अकान्तस्य निषेधोऽपि भवति, षष्ठया लुबभावस्य यथा अदश्चौरिका। प्रत्ययग्रहणे संभवे सति प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं भवतीत्याह-अदस इत्यादि ।15 प्रामुष्यपुत्रिकेति ननु अमुष्यपुत्राऽमुष्यकुलशब्दयोः षष्ठीसमासयोरकृतषष्ठीलोपयोश्चौरादित्वादमुष्येति च षष्ठयन्तस्य नडादिपाठसामर्थ्यादेवाकत्रायनणोः, षष्ठ्या लुबभावस्य सिद्धत्वात् किमर्थमिदमारभ्यते । एवं चामुष्यपुत्रस्यापत्यमामुष्यपुत्रिः प्रामुष्यपुत्रायणिः अमुष्यकुलस्यापत्यममुष्यकुलीनः अमुष्य पुत्रस्य भावोऽमुष्य कुलस्य भाव इति च वाक्यममुष्यपुत्राऽमुष्यकुल इति च केवलयोरपि प्रयोग उपपद्यते । गणपाठश्च पूर्वसूत्रेभ्य इति20 स एव प्रमाणी क्रियतामिति ? सत्यं, एतदर्थानुवादार्थमेवेदमित्यऽदोषः, एतच्च गमनिकामात्रमेव उत्तरं तु अन्यच्चिन्तनीयं । तदेतद् अस्मिन् सूत्रे कृतेऽकायनविषय एव अलुप् प्रवर्तते, सूत्रं विना तु सर्वत्रापि प्रादःपुत्रीत्यादिषु अलुप् प्रसज्येत । इदानीं तु न भवति ।। ३. २. ३३ ॥ देवानांप्रियः ॥ ३. २. ३४ ॥ 25 देवानांप्रिय इति षष्ठ्या लुबभावो निपात्यते, देवानांप्रियः ।। ३४ ।। न्या० स०-देवानां०। कथं देवप्रिय इति ? एकत्वद्वित्वयोर्बहुव्रीही वा भविष्यति । देवानांप्रिय ऋजुर्मूखों वा ।। ३. २. ३४ ॥ शेषपुच्छलाङ्ग्लेषु नाम्नि शुनः ॥ ३. २. ३५ ॥ श्वन्शब्दात् परस्याः षष्ठ्याः शेपादिषूत्तरपदेषु नाम्नि संज्ञायां विषये30 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ३६-३७.] लुप् न भवति । शुन: शेपमिव शेपमस्य शुनःशेपः, एवं शुनःपुच्छः, ' शुनोलाङ्गुलः, शेपःशब्दः सकारान्तोऽप्यस्ति इह त्वकारान्तस्य ग्रहणम् । नाम्नीति किम् ? श्वशेपम्, श्वपुच्छम्, श्वलाङ्ग्लम् । अन्ये तु सिंहस्यशेपं सिंहस्यपुच्छं सिंहस्यलाङ्गुलमित्यत्रापि इच्छन्ति तन्मतसंग्रहार्थं बहुवचनम् अनाम्न्यपि विध्यर्थम् ।। ३५ ।। न्या० स०-शेपपुच्छ० । अनाम्न्यपि विध्यर्थमिति प्रकृतेरन्यतोऽपि च इति शेषो ज्ञेयः, शेपशब्दस्य लिङ्गानुशासने पुलिङ्गत्वमुक्त पान्तत्वात् । अत्र तु नपुंसकत्वं चिन्त्यम् ।। ३. २. ३५ ।। वाचस्पतिवास्तोष्यतिदिवस्पतिदिवोदासम् ॥३. २. ३६ ॥10 वाचस्पत्यादयः शब्दाः षष्ठीलुबभावे निपात्यन्ते नाम्नि विषये । वाचस्पतिः, वास्तोष्पतिः, दिवस्पतिः, दिवोदासः । नाम्नीत्येव ? वाक्पतिः, वास्तुपतिः, धुपतिः, धुदासः ।। ३६ ।। न्या० स०-वाचस्पतिः। अत्र षत्वं सत्वं च निपातनात् ।। ३. २. ३६ ॥ ऋता विद्यायोनिसंबन्थे ॥ ३. २. ३७ ॥ 15 ऋकारान्तानां शब्दानां विद्याकृते योनिकृते च संबन्धे निमित्ते सति वर्तमानानां संबन्धिन्याः षष्ठ्या विद्यायोनिसंबन्धे एव निमित्ते सति प्रवर्तमाने उत्तरपदे लुप् न भवति । होतुःपुत्रः, होतुरन्तेवासी, पितुःपुत्रः, पितुरन्तेवासी । ऋतामिति किम् ? आचार्यपुत्रः, मातुलान्तेवासी। बहुवचनं विद्यासंबन्धनिमित्ते योनिसंबन्धनिमित्ते इति यथासंख्यप्रतिपत्तेढुंदासार्थम् । 20 ऋद्भ्य इति निर्देश प्राप्ते षष्ठीनिर्देश उत्तरार्थः । विद्यायोनिसंबन्ध इति किम् ? भर्तृ गृहम् । पूर्वपदविशेषणं किम् ? भर्तृ शिष्यः, भर्तृ पुत्रः । उत्तरपदविशेषणं किम् ? होतृधनम्, पितृगृहम् ।। ३७ ।। __ न्या० स०-ऋता-विद्या०। अत्र योनिशब्दस्यदन्तत्वात् पूर्वनिपाते प्राप्तेऽत एव निर्देशात् धर्मार्थादित्वाद् वा परनिपातः । पूर्वपदविशेषणं किमिति भर्तृ शिष्य इत्युक्त,25 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ३८-३९.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६१ ततश्चात्र नायकवाचको द्रष्टव्यः, यदा तु भर्तृवाचकस्तदा भर्तृ : शिष्य इत्येव भवति ।। ३.२.३७॥ 10 स्वसुपत्योर्वा ॥ ३. २. ३८ ॥ विद्यायोनिसंबन्धे निमित्ते सति प्रवर्तमानानामकारान्तानां शब्दानां संबन्धिन्याः षष्ठ्याः स्वसृपत्योरुत्तरपदयोर्योनिसंबन्धनिमित्तयोः परयोर्लुब् वा न 5 भवति । होतुःस्वसा, होतृस्वसा, पितुःष्वसा, पितुःस्वसा, पितृष्वसा, मातुःस्वसा, मातुःष्वसा, मातृष्वसा, दुहितुःपतिः, दुहितृपतिः, स्वसुःपतिः, स्वसृपतिः, ननान्दुःपतिः, ननान्दृपतिः। विद्यायोनिसंबन्ध इति पूर्वपदविशेषणं किम् ? भर्तृ स्वसा। उत्तरपदविशेषणं किम् ? होतृपतिः । पूर्वेण नित्यं प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पोऽयम् ।। ३८ ।। न्या० स०--स्वसपत्योः। धर्मार्थादित्वात् स्वसृशब्दस्य पूर्वनिपातः ॥३. २. ३८ ॥ आ द्वन्द्वे ॥ ३. २. ३६ ॥ विद्यायोनिसंबन्धनिमित्ते सति प्रवर्तमानानामृतां यो द्वन्द्वस्तस्मिन्सत्युत्तरपदे परे पूर्वपदस्याकारोन्तादेशो भवति । होता च पोता च होतापोतारौ,15 नेष्टोद्गातारौं, प्रशास्ताप्रतिहर्तारौ, मातादुहितरौ, मातापितरौ, ननान्दायातरौ । अथेह प्रथमयोः कस्मान्न भवति होतृपोतृनेष्टोद्गातार इति ? अन्त्यस्यैवोत्तरपदत्वात् । कथं तर्हि होतापोतानेष्टोद्गातार इति ? द्वयोर्द्व योर्द्वन्द्व भविष्यति । यदा च होता च पोता च नेष्टोद्गातारौ चेति विग्रहस्तदा होतृपोतानेष्टोद्गातार इति । ऋतामित्येव ? गुरुशिष्यौ । ऋतां20 द्वन्द्व इति किम् ? पितृपितामहौ। विद्यायोनिसंबन्ध इत्येव ? कर्तृ कारयितारौ । विद्यायोनिसंबन्धश्च ह प्रयासत्तेः समस्यमानानामृदन्तानामेव परस्परं द्रष्टव्यो न येन केनचित्, तेनेह न भवति-चैत्रस्य स्वसृदुहितरौ, नात्र स्वसृदुहित्रोः परस्परं संबन्धः, न हि स्वसा चैत्रस्य स्वसा भवन्ती दुहितरमपेक्षते दुहिता स्वसारमिति । यद्येवं कथं चैत्रस्य पितृभ्रातराविति अस्ति, ह्यत्र25 परस्परसंबन्धः । उच्यते-यद्यपि चैत्रस्य भ्राता भ्राता भवन् पितरमपेक्षते Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० २. सू० ४०-४१.] चैत्रपितृजनितस्यैव चैत्रभ्रातृत्वात्, तथापि पिता पिता भवन्न भ्रातरमपेक्षते । यद्येवं कथं मातापितरौ होतापोतारौ ? न ह्यत्र परस्परापेक्षस्तथाभावोऽपि तु पुत्रयजमानापेक्षः, नैवम्, अत्रापि मात्रादीनां परस्परसंबन्धात् । ते हि स्वकर्मणि प्रजने यागे च सहिता एव प्रवर्तन्ते, तत्कर्मनिमित्तश्चायं तेषां व्यपदेश इत्यदोषः । केचित्तु स्वसादुहितरावित्यत्रापीच्छन्ति ।। ३६ ।। 5 न्या० स०--आ द्वंद्व । विद्यायोनिसंबन्धश्चेहेति इहेति भणनात् स्वसृपत्योत्यत्र न प्रत्यासत्तिः । तेन ननान्दुः पतिरित्यादि सिद्धम् ॥ ३. २. ३६ ॥ पुत्रे ॥ ३. २. ४० ॥ पुत्रशब्दे उत्तरपदे द्वन्द्व समासे विद्यायोनिसंबन्धे निमित्ते सति प्रवर्तमानानामृकारान्तानामाकारोऽन्तादेशो भवति । मातापुत्रौ, पितापुत्रौ,10 होतापुत्रौ ।। ४० ॥ न्या० स०--पुत्रे। उत्तरपदस्य ऋदन्तत्वाभावात् पूर्वेणाप्राप्ते वचनम् । दुहिता पुत्राविति भग्नं । ततश्चानेन कारणेन भग्नं यदुत 'भ्रातृपुत्राः स्वसृदुहितृभिः' [३. १. १२१.] इत्येकशेषः प्राप्नोति ततश्च पुत्रावित्येव स्यात् ॥ ३. २. ४० ॥ वेदसहश तावायुदेवतानाम् ॥ ३. २. ४१ ॥ वेदे सहश्रुतानां वायुवजितदेवतानां द्वन्द्व पूर्वपदस्योत्तरपदे परे आकारान्तादेशो भवति । इन्द्रासोमौ, इन्द्रावरुणौ, इन्द्राबृहस्पती, शुनासीरी, अग्नामरुतौ, अग्नेन्द्रौ, अग्नाविष्ण , सोमारुद्रौ, सूर्याचन्द्रमसौ, मित्रावरुणौ । वेदेति किम् ? शिववैश्रवणौ, स्कन्दविशाखौ, ब्रह्मप्रजापती। सहेति किम् ? विष्ण शक्रौ । श्रुतेति किम् । चन्द्रसूयौं ? दिवाकरनिशाकरौ । वायुवर्जनं20 किम् ? अग्निवायू, वाय्वग्नी। देवतानामिति किम् ? यूपचषालौ, उलूखलमुशले ।। ४१ ॥ न्या० स०--वेदसह । शुनासोराविति वायुरवी इत्यर्थः । सूर्याचन्द्रमसाविति रविचन्द्रावित्यर्थः। स्कन्दो महासेनः, विशाखस्तू तस्यैव मृर्त्यन्तरविशेषः। चन्द्रसर्याविति एतौ हि वेदे शब्दान्तरेण विद्यते 'चन्द्रसूर्य' इत्यादिशब्देस्तु न श्रुतौ ।। ३. २. ४१ ।। 25 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ४२-४५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६३ ईषोमवरुणेऽग्नेः ॥ ३. २. ४२ ॥ वेदसहश्रतावायुदेवतानां द्वन्द्व षोमवरुणयोरुत्तरपदयोरग्निशब्दस्य ईकारान्तादेशो भवति, षोमेति निर्देशादीकारसंनियोगे षत्वं च निपात्यते । अग्नीषोमौ, अग्नीवरुणौ। षोमवरुणेति किम् ? अग्नेन्द्रौ। देवताद्द्व इत्येव ? अग्निसोमौ, माणवकौ, ईकारसंनियोगे विधानादिह षत्वमपि न 5 भवति ।। ४२ ॥ इव द्धिमत्यविष्णौ ॥ ३. २. ४३ ॥ विष्ण वजिते वृद्धिमत्युत्तरपदे परे देवताद्वद्वऽग्नेरिकारोऽन्तादेशो भवति, ईकाराकारयोरपवादः । अग्नीवरुणौ देवते अस्या आग्निवारुणीमनड्वाहोमालभेत, अग्नीषोमौ देवताऽस्य आग्निसौमं कर्म, एवमाग्निमारुतम् । 10 वृद्धिमतीति किम् ? अग्नीवरुणौ, अग्नीमरुतौ। आग्नेन्द्र कर्म, 'आतो नेन्द्रवरुणस्य' [७. ४. २६.] इति वृद्धिनिषेधः। अविष्णाविति किम् ? अग्नाविष्ण देवतास्य अग्नावैष्णवं चरु निर्वपेत् ।। ४३ ॥ न्या० स०--इर्वृद्धि। पत्र बहिरङ्गाऽपि लुप् अन्तरङ्गानपि विधीन् बाधते इति न्यायात् तद्धितोत्पत्तिभाविन्या लुपा बहिरङ्गयाऽन्तरङ्गा अपि दीर्घत्वादि-15 विधयो बाध्यन्ते। न चात्र वाच्यं वाक्यविभक्त रपि तहि लुबभावस्तदभावे हि तद्धितोत्पत्तिर्न स्यात् नाम्नो विधीयमानत्वेन वाक्यात् तद्धितस्यानुपपत्तेरिति ।। ३.२.४३ ॥ दिवो द्यावा ॥ ३. २. ४४ ॥ देवताद्वद्वे दिवशब्दस्योत्तरपदे परे द्यावा इत्ययमादेशो भवति । द्यौश्च भूमिश्च द्यावाभूमी, द्यावाक्ष्मे, द्यावानक्त-नक्तशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्त्य-20 नव्ययम् ।। ४४ ।। न्या० स०--दिवो द्यावा। द्यावाश्मे इति । पृषोदरादित्वादकारलोपे क्ष्मेति रूपम् ।। ३. २. ४४ ॥ दिवस्दिवः पृथिव्यां वा ॥ ३. २. ४५ ॥ दिव्शब्दस्य पृथिव्यामुत्तरपदे परे देवताद्वन्द्व दिवस् इति दिव25 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] बृहद वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू ४६-४८.] इत्येतावादेशौ वा भवतः । दिवस्पृथिव्यौ, दिवः पृथिव्यौ, द्यावापृथिव्यौ । दिवः इति विसर्गान्तस्य निर्देशात् दिवस् इति सकारस्य रुत्वं न भवति ।। ४५ । उषासोषसः ॥ ३. २. ४६ ॥ देवताद्व ंद्व उत्तरपदे परे उषस् शब्दस्योषासा इत्ययमादेशो भवति । 5 उषश्च सूर्यश्च उषासासूर्यम्, उषासानक्तम्, उषासानक्त । केचित्तु सूर्य शब्दस्यापीच्छन्ति - सूर्यश्च सोमश्च उषासासोमा ।। ४६ ।। उषः शब्दः प्रभातवाचको नपुंसकः । संध्या न्या० स० -- उषासोषसः । वाचकस्तु स्त्रीक्लीब: ।। ३. २. ४६ ।। मातरपितरं वा ।। ३. २. ४७ ।। मातृपितृशब्दयोः पूर्वोत्तरपदयोर्द्वन्द्व े मातरपितरेति ऋकारस्य अर इति निपात्यते वा । माता च पिता च मातरपितरौ मातरपितराभ्याम्, मातरपितरयोः, पक्षे-मातापितरौ मातापितृभ्याम्, मातापित्रोः, एकशेषे तु पितरौ । शब्दरूपापेक्षो नपुंसकैकवचननिर्देश उत्तरपदस्य अरभावाभिव्यक्त्यर्थः । उत्तरपदस्यारं नेच्छन्त्यन्ये ।। ४७ ।। न्या० स०--मातर० । अरभावाभिव्य इति अन्यथा मातरपितराविति कृते 'अङौं च ' [ १.४.३६ ] इत्यरादेशोऽपि संभाव्येत ।। ३ २ ४७ ।। 10 15 वर्चस्कादिष्ववस्करादयः ॥ ३. २.४८ ॥ शब्दाः कुत्सितं वर्चो वर्चस्कम् तदादिष्वर्थेष्ववस्करादयः कृतशषसाद्युत्तरपदाः साधवो भवन्ति । वर्चस्केऽवस्करः, अवकीर्यतेऽवस्करः-20 अन्नमलम्, तत्संबन्धात्तद्द शोप्यवस्करः, प्रवकरोऽन्यः, अपस्करो रथाङ्गे, अपकरोऽन्यः । कुत्सिता तुम्बुरुः कुस्तुम्बुरुरौषधिजातौ, तत्फलान्यपि कुस्तुम्बुरूरिण, अन्यत्र कुस्तुम्बुरुस्तिन्बुकवृक्षः । अवरस्परा, अपरस्परा वा क्रियासातत्ये, - प्रवरस्पराः साथ गच्छन्ति - सततं गच्छन्तीत्यर्थः, अन्यत्रावरपराः 4 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ४८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६५ सार्था गच्छन्ति-अवरे च अपरे च सकृदेव गच्छन्तीत्यर्थः । प्रास्पदं प्रतिष्ठायाम्-प्रतिष्ठा स्थानमात्मयापनापदम्, अन्यत्र आ ईषत् पदमा पदाद्वा प्रापदम्, आश्चर्यमद्भुते । आश्चर्य नीला द्यौः, अन्यत्र आश्चर्यं कर्म शोभनम्, प्रतिष्कशः सहाये-पुरोयायिनि दूते वा, ग्राममध्ये प्रवक्ष्यामि भव मे त्वं प्रतिष्कशः, अन्यत्र कशां प्रतिगतः प्रतिकशोऽश्वः, प्रस्कण्वहरिश्चन्द्रावृषौ, । 5 प्रगतं कण्वं पापमस्मादिति प्रस्कण्वः, हरिश्चन्द्र इवाह लादको यस्य हरिश्चन्द्रः, ऋषेरन्यत्र प्रकण्वो देशः, हरिचन्द्रो माणवकः, मस्करो वेण दण्डयोः । मा क्रियते प्रतिषिध्यतेऽनेनेति मस्करः, मकरशब्दस्य वाऽव्युत्पन्नस्य मस्कर इति रूपम्, अन्यत्र मकरो ग्राहः, मस्करी परिव्राजके-माकरणशीलो मस्करी, स ह्याह मा कृषत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसीति, मकरिन्शब्दस्य वा मस्करीति10 रूपम्, अन्यत्र मकरीति, समुद्रः, कास्तीराजस्तुन्दे नगरे, ईषत्तीरमजस्येव तुन्दमस्येति व्युत्पत्तिमात्रम्, कास्तोरमजस्तुन्दं च नगरम्, अन्यत्र कातीरम्, अजतुन्दम्, कारस्करो वृक्षे-कार करोति किल कारस्करो वृक्षः, कारकरोऽन्यः, वनस्पतिः पुष्पं विना फलवति वृक्षे। सर्वो हरितकायो वनस्पतिरित्यन्ये, वनपतिरन्यः, पारस्करो देशे, पारं करोति पारस्करो देशः, पारकरोऽन्यः,15 करस्करो गिरिवृक्षयोः, करं करोतीति करस्करो नाम गिरिः, करस्करो वृक्षः, करकरोऽन्यः, रथस्पा नद्याम् । ___रथं पाति पिबति वा रथस्पा नाम नदी, रथपाऽन्या, किष्कुरुः प्रहरणेकस्य कुरुः किष्कुरु: नाम प्रहरणम्, किमो मकारस्य षकारादेश , किष्कुः प्रमाणे-किमपीषत्यरिमेया कुर्भू मिरस्य किष्कुः वितस्तिहस्तो वा, किं20 करोतीति वा किष्कुः, करोतेथुप्रत्ययः किमो मकारस्य च षकारः, कार्य करोतीति वा किष्कुः, डुप्रत्ययः कार्यशब्दस्य च किष्भावः, किष्किन्ध इति गुहापर्वतयोः-किमप्यन्तर्दधाति किष्किन्धा नाम गुहा, किमो द्विर्वचनं पूर्वस्य च मकारस्य षकारः, किं किं दधाति किष्किन्धः पर्वतः, आस्कथं नगरे, आहृताः कथा अस्मिन्नित्यास्कथं नाम नगरम्, तस्करश्चौरे-तत् करोति तस्करश्चौरः,25 बृहस्पतिर्देवतायाम्, बृहतां पतिः बृहन् पतिरिति वा बृहस्पतिः, उभयत्र तकारस्य सकारः, अन्यत्र तत्करः बृहत्पतिः, प्रायश्चित्तप्रायश्चित्तो प्रतीचार Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ४८.] शोधने-प्रकर्षेणैत्यागच्छत्यस्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनिलोकः, चिन्त्यते स्मर्यते इति । चित्तम् चितिश्च व्रतम्, प्रायश्चित्तं चिन्तितं किल्बिषविशुद्धये प्रायश्चित्तमतिचारशोधनम् आलोचनप्रतिक्रमणादि, एवं प्रायश्चित्तिः, पक्षे विसर्जनीयपूर्वः शकार इत्यन्ये, प्रायःश्चित्तम्, प्रायःश्चित्तिः, अन्ये तु प्रायणं प्रायः 5 तस्य चित्तं प्रायश्चित्तं प्रायश्चित्तिरित्यपि मन्यन्ते, शष्कुली कृतान्न-शष्कुलशब्दाद्गौरादित्वात् डीः, कृतान्नादन्यत्र शकुली मत्स्यविशेषः, गोष्पदं गोसेविते प्रमाणे च-यत्र गावः पद्यन्ते स गोभिः सेवितो ग्रामसमीपादिर्देश उच्यते, प्रमाणे गोष्पदपूरं वृष्टो देवः, गोष्पदमात्रं क्षेत्रम्-अत्र गोः पदमन्यस्येयत्तां परिच्छेत्तुमुपादीयमानं प्रमाणं भवति, अन्यत्र गोपदम्, अगोष्पदं सेवारहिते, न10 विद्यते गोः पदं येषु तान्यगोष्पदान्यरण्यानि, अगोष्पदेष्वरण्येषु विश्वासमुपजग्मिवान् ननु गोष्पदप्रतिषेधादगोष्पदमिति सिध्यति, सत्यम्, किं तु यत्र गवां प्रसङ्गो न ताभिः सेवितस्तत्रैव स्यात् । यथा यत्र शुक्लगुणप्रसङ्गः स एवाशुक्ल इति भवति, नात्माकाशादि। यत्र तु गवामत्यन्तासंभवस्तत्र न स्यात्, तत्रापि यथा स्यादित्येवमर्थं निपातनम् । न विद्यते गोः पदं यत्रेति15 त्रिपदबहुव्रीहिविवक्षायां रूपान्तरनिवृत्त्यर्थम् च बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेनावोवचपरोवरादयोऽपि द्रष्टव्याः ।। ४८ ।। न्या० स०--वर्चस्का०। 'युवर्ण' [५. ३. २८.] इत्यलि अवस्करः । कुत्सिता तुम्बुरुरित्यत्र बाहुलकात् स्त्रीत्वम् । आस्पदमिति प्रापद्यते प्राप्यते सद्भिः वर्षादित्वादल। मस्कर इति 'पन्नाम्नि घः [५.३. १३०.] बाहलकाच्च समासो20 'नाम नाम्ना' [३. १. १८.] इत्यनेन 'पृषोदरा' [३. २. १५५.] इति माङो ह्रस्वः, कु ईषत् तीरं कास्तीरं 'अल्पे' [३. २. १३६.] कादेश: । कारस्करोऽयं टप्रत्ययेऽचि वा किष्किन्धाशब्दोऽप्रत्यये । 'शीरीभूदूमूघृपाधाग्' २२१ (उणादि) इत्यादिना औरणादिके क्त वा चित्तम् । अपरत्र 'श्रवादिभ्यः' [५. ३. ६२.] इति तौ, अन्ये तु प्रायणं प्राय इति कोऽर्थः ? परलोकगमनं भोजनत्यागो वा प्रायः। तस्य चित्तं प्रायचित्तं । गवां पदं25 गोष्पदं तस्य पूरणं 'वृष्टिमाने' [ ५. ४. ५७. ] इति णम् । गोष्पदमात्रमिति गोष्पदं मानमस्य स्यात् 'द्विगोः संशये च' [ ७. १. १४४. ] इत्यऽधिकारे 'मात्रट' [७. १. १५५.1 इति मात्रट् । रूपान्तरनिवृत्यर्थमिति अगोपदमिति रूपस्येत्यर्थः । गृह्णातीति वा 'ज्वलादिदुनी' इति ग्राहः। मस्करीति णिन्यारादेशे उभयत्रापि ह्रस्वः। प्राचोवच Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ४६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६७ परोवरादयोऽपीति आश्चतीति अवाञ्चतीति आङ च अवाङ च 'चवर्गदषहः' [७.३.६८.] अत् आचोवचमिति निपात्यम्, परश्चाऽवरश्च पराङ च प्रवराङ च इति वा परोवरम् ।। ३. २ ४८ ॥ परतः स्त्री पुवत् स्त्र्येकार्थेऽनूङ् ॥ ३. २. ४६ ॥ परतो विशेष्यवशाद्यः शब्दः स्त्रीलिङ्गः स स्त्रियां वर्तमाने एकार्थे 5 तुल्याधिकरणे उत्तरपदे परे पुंवद्भवति 'अनूङ' न चेदुङन्तो भवति । दर्शनीया भार्या यस्य स दर्शनीयभार्यः, एवं पटुभार्यः, कल्याणभार्यः, शोभनभार्यः, प्रसूतभार्यः, प्रजातभार्यः, एनी भार्या यस्य स एतभार्यः, एवं श्येतभार्यः, युवतिर्जायास्य युवजानिः, कल्याणी चासौ पञ्चमी च कल्याणपञ्चमी, पट्वी च मृद्वी च पट्वीमृदयौ, ते भार्ये अस्य पट्वीमृदुभार्यः, अत्र द्वद्वपदानां 10 परस्परार्थसंक्रमात् द्वयर्थस्य मृदुशब्दस्य द्वयर्थेन भार्याशब्देन सामानाधिकरण्यमिति पुंवद्भावः, पूर्वस्य तु व्यवधानान्न भवति । परत इति किम् ? द्रुणीभार्यः, वरटाभार्यः, वडवाभार्यः, अत्र पुंवद्भावे अर्थतः प्रत्यासन्नाः कूर्महंसाश्वशब्दाः प्राप्नुयुः द्रोणीभार्यः, कुटीभार्यः, पात्रीभार्यः,-अत्र पुंवद्भावे शब्दतः प्रत्यासन्ना द्रोणकुटपात्रशब्दाः प्राप्नुयुः । 15 स्त्रीति किम् ? ग्रामणि कुलं दृष्टिरस्य ग्रामरिणदृष्टिः, खलपुदृष्टिः । स्त्र्येकार्थे इति किम् ? कल्याण्याः वस्त्रम्, कल्याणीवस्त्रम् । स्त्रीग्रहणं किम् ? कल्याणी प्रधानमेषां कल्याणीप्रधानाः, गृहिणीनेत्राः । एकार्थ इति किम् ? कल्याण्याः माता कल्याणीमाता, दर्शनीयामाता। अनूङिति किम् ? ब्रह्मबन्धूभार्यः, करभोरूभार्यः । अनूङिति प्रसज्ज्यप्रतिषेधात् इडविडोऽपत्यं20 स्त्री अञ् तस्य लुप्, इडविड् सा चासौ भार्या च ऐडविडभार्येत्यादिषु उत्तरेण पुंवद्भावः । पर्युदासे हि ऊङ्सदृशप्रत्ययान्तस्यैव पुंवद्भावः स्यादिति ।। ४६ ।। न्या० स०--परतः स्त्री०। स्त्रियामेकार्थं स्त्री च तत् एकार्थं चेति वा स्त्र्येकार्थं तस्मिन् । अत्र पुंवद्धावे अर्थत इति द्रुणी इत्यादीनां त्रयाणामाविष्टलिङ्गानां25 पुलिङ्ग प्रयोगादर्शनात् किंरूपः पुवद्भावः स्यादित्याशङ्का। ननु द्रुणशब्दस्य वृश्चिकवाचकस्य पुंस्त्वमपि दृश्यते तत्कथं नित्यस्त्रीत्वम् ? सत्यं, न तत् वैयाकरण Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ५०.] सम्मतं अपि त्वभिधानकाराणामेव । शब्दतः प्रत्यासन्ना इति न त्वर्थत इत्यर्थः । ननु । कुटपात्रशब्दावन्यलिङ्गावपि स्तस्तत् कथमाविष्टलिङ्गत्वम् ? सत्यं, कुटशब्दो गेहे पात्रशब्दस्तु भाजने वर्तमानः स्त्रीलिङ्ग एव कैश्चिदुक्तस्तदभिप्रायाश्रयणेनेदमुच्यते । अनङिति किमिति । नन्वनूङिति निषेधोऽत्र सूत्रे किमुच्यते 'नाप्रियादौ' [३. २. ५३.] इत्यादौ प्रक्रमायाते प्रतिषेधाधिकारे एव तु युक्तः ? सत्यं, यद्यत्रैतं न कुर्यात् किंतु 5 निषेधाधिकारे ऊङिति सूत्रान्तरं विदध्यात् ततो यथा नाप्रियादीनां निषेधानां 'पुवत् कर्मधारये' [ ३. २. ५७.] इति प्रतिप्रसव उक्तस्तथाऽस्यापि स बाधक: स्यात् स मा भूदित्येवमर्थम् । उत्तरेण पुंवद्भाव इति । 'पुवत् कर्मधारये' [ ३. २. ५७. ] इत्यनेनेत्यर्थो न त्वनेन 'स्वाङ्गाद् ङीर्जातिश्च' [ ३. २. ५६. ] इति निषेधात् ।। ३. २. ४६ ।। क्य मानिपित्तद्धिते ॥ ३. २. ५० ॥ 10 क्यङि प्रत्यये मानिनि शब्दे चोत्तरपदे पिति तद्धिते च प्रत्यये परे परतः स्त्रीलिङ्गशब्दोऽनङ् पुंवद्भवति। क्यङ्-श्येनीवाचरति श्येतायते, मानिन्दर्शनीयां मन्यते दर्शनीयमानी अयमस्याः, दर्शनीयमानिनीयमस्याः, मानिन्ग्रहणमस्त्युत्तरपदार्थम् असमानाधिकरणार्थं च, दर्शनीयामात्मानं मन्यते दर्शनीयमानिनीति तु सामानाधिकरण्ये पूर्वेणैव भवति, पित्तद्धित थ्यप्-अजाय15 हितम् अजथ्यं यूथम्, पित्तिथट् बह्वीनां पूरणी बहुतिथी, पचरट्-भूतपूर्वा पट्वी पटुचरी, पित्तस्-बह्वीभ्यो बहुतः, त्रप-बह्वीषु बहुत्र। प्रशस्बह्वीभ्यो देहि-बहुशो देहि, अल्पाभ्यो देहि अल्पशो देहि, पाशप-निन्द्या दर्शनीया दर्शनीयपाशा, तमप्-इयमासामतिशयेन पक्वा पक्वतमा, तरप्इयमनयोरतिशयेन पक्वा, पक्वतरा, रूपप् प्रशस्ता दर्शनीया दर्शनीयरूपा,20 कल्पप्-ईषदसमाप्ता दर्शनीया-दर्शनीयकल्पा, देश्यप्-एवं दर्शनीयदेश्या, कप्ह्रस्वा दर्शनीया दर्शनीयका, कुत्सिता दरद्-दारदिका, कथं पट्विका ? मृद्विका ? 'ड्यादीदूतः के' [२. ४. १०३. ] इत्यत्र डीग्रहणं पुंवद्भावबाधनार्थमित्युक्तम्, तेनात्र ह्रस्वो भवति । पिद्ग्रहणं किम् ? पट्वीरूप्यम्, पवीमयम्, तन्वीं तन्वी खनति तन्वीशः खनति, ‘संख्यैकार्था-25 द्वीप्सायां शस्' [७. २. १५७.] इति शस् । तद्धित इति किम् ? पट्वीषु, बह्वीषु, कुमारीवाचरति क्विप्-कुमारयति, कुमारीयतेः क्विप् कुमारी बाह्मणः । पञ्चभिर्गाभिः गाायणीभिर्वा क्रीतः-पञ्चगर्गः, दशगर्गः, Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ५१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६६ अत्रेकणः 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' [६. ४. १४७.] इति प्लुपः, पित्त्वात्पुंस्त्वम्, ततो 'योश्या' [६. १. १२६.] इत्यादिना यत्रोः लुप् भवति । गतगतेत्यत्रापि प्लुप्चादावेकस्य स्यादेरित्यनुवर्तमाने 'आबाधे' [७. ४. ८५.] इति द्विर्वचने आदेः स्यादेलृपः, पित्त्वात्पुंस्त्वम् ।। ५० ।। न्या० स०-क्यङ्मानि०। प्रजभ्यमिति अत्र 'स्वाङ्गाद् डीर्जातिश्च' 5 [ ३. २. ५६. ] इति निषेधेऽपि पित्करणात् पुवद्भावः । दर्शनीयका अत्राऽसंदेहार्थमिकारो न कृतः, तथाहि किमत्र पुवद्भावे सति 'अस्यायत्तत्क्षिपकादीनाम्' [२.४.१११.] इत्यनेन इकारः। यद्वाऽकृतेऽपि पुंवद्भावे 'स्वज्ञाजभस्त्रा' [ २. ४. १०८. ] इत्यनेनाप एव स्थाने इति पुवद्भावाभावयोर्न विशेषप्रतीतिः स्यात् । दारदिकेति दरदां राज्ञी 'पुरुमगध' [ ६. १. ११६. ] इत्यण् । यदा त्वपत्यार्थेऽण तदा 'स्वाङ्गाद् ङी'10 [ ३. २. ५६. ] इति गोत्रं चरणैः सहेति जातित्वे पुवद्भावप्रतिषेधः स्यात् । अथेदृशे वाक्ये कृतेऽण न प्राप्नोति यतो राज्यऽभिधेये उक्तः । अत्र तु स्त्रीत्वविशिष्टोऽस्तीति न प्राप्नोति ? उच्यते, नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्याऽपीति भविष्यति ।। ३. २. ५० ।। जातिश्च णितद्धितयस्वरे ॥ ३. २. ५१ ॥ अन्या परतः स्त्री जातिश्च णिप्रत्यये यकारादौ स्वरादौ च तद्धिते15 विषयभूते उत्पत्स्यमाने तद्विवक्षायामेव पुंवद्भवति, अनूङ् । णि, पट्वीमाचष्टे, पटयति, लघयति, एवमेतयति, श्येतयति । तद्धितयः, एन्यां साधुः एत्यः, एवं श्येत्यः, एन्याः भावः ऐत्यम्, एवं श्यैत्यम्, लौहित्यम् । तद्धितस्वर, भवत्या इदं भावत्कम्, भवदीयम्, इयमासामतिशयेन पटवी पटिष्ठा, पटीयसी । जाति,-तद्धितय-दरदोऽपत्यं स्त्री अण, लुप्-दरत् तस्यां साधुः दारद्यः, एवम्20 औशिज्यः, पुंवद्भावादणो लुप् निवर्तते । तद्धितस्वरे,-गार्यायण्याः कुत्सितमपत्यं, गार्ग्यः, गार्गिकः, हस्तिनीनां समूहो हास्तिकम् । जातिग्रहणं जातिलक्षणप्रतिषेधनिवृत्त्यर्थम्, सति तस्मिन् चकारोऽन्यार्थः-जातिः परतः स्त्री अन्या च परतः स्त्री पुंवद्भवतीत्यर्थः, प्रकृते हि चकारे जातेरेव पुंवद्भावः स्यात् । तद्धितेति किम् ? हस्तिनीमिच्छति हस्तिनीयति, हस्तिन्यः, एनीयति,25 एन्यः । कथं यौवतम् ? भिक्षादौ युवतीति स्त्रीलिङ्गपाठात् कौण्डिन्य इति तु 'कौण्डिन्यागस्त्ययोः'-[६. १. १२७.] इति निर्देशेन पुंवद्भावस्यानित्यत्वात्, अत एव च मानाय्य इत्यत्रापि न भवति । सापत्न इत्यपि 'सपत्न्यादौ' Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ] बृहद्द्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ५२. ] [ २.४.५० ] इति सूत्रे सपत्नीति समुदायनिपातनात्, अत एव सपत्नीभार्य इत्यत्रापि न भवति, सपत्नस्यायं सापत्न इति वा भविष्यति । तद्धितस्वर इति विषयसप्तम्याश्रयणं किम् ? पट्ट्ट्याः भावः-पाटवम्, अत्र प्रत्ययोत्पत्तेः पूर्वमेव पुंवद्भावे लघ्वादित्वात् 'य्वृवरर्णाल्लघ्वादे:' [ ७. १. ६६.] इत्यण् भवति । परसप्तमीसमाश्रयणे तु पट्वीशब्दस्य लघ्वादित्वाभावात्तत्तोऽण् s न स्यादिति । यस्वर इति किम् ? पट्ट्ट्या आगतम् पट्वीरूप्यम् पट्वीमयम् ।। ५१ ।। न्या० स० -- जातिश्च रिग० । पटयतीति णिजि पुंवद्भावे 'नामिनोऽक लिहले ः ' [ ४. ३. ५१. ] इति वृद्धौ अन्त्यस्वरादिलोपे । यद्यत्र वृद्धिमकृत्वैव उकारस्यैव लोपं विदध्यात् ततोऽपीपटदित्यादौ समानलोपित्वादित्वं न स्यात् । ऐश्यमिति 'वर्णदृढादिभ्यः ' 10 [ ७. १.५६ ] ट्यण् । औशिज्य इति वशक्० वष्टि न्यायं वशे: कित् इज् 'वशेरयङि' [ ४. १. ८३] य्वृत् उशिजोऽपत्यं 'पुरुषमगध' [ ६. १. ११६. ] इत्यण 'द्रेरञ' [ ६. १. १२३. ] लोपः उशिजि साधुः । गार्ग्य इत्यादि 'वृद्धस्त्रियाः क्षेपे णेकरण ' [ ६. १. ८७. ] ततः पुंवत्त्वे ' तद्धितयस्वरेऽनादि' [ २.४.६२. ] इति यलोपः । पुंवद्भावस्यानित्यत्वादिति गर्गादित्वाद् यत्रि पुंवद्भावे तु 'नोऽपदस्य' [ ७. ४. ६१. ]15 इत्यन्त्यस्वरादिलोपे कौण्डय इति स्यात् । अत एव चेति श्रनित्यत्वादेवेत्यर्थः, मनोर्भार्या 'मनोरौ च वा' [ २.४. ६१. ] ङी ऐश्व । मनाय्या अपत्यं 'गर्गादेर्यञ्' [ ६.१.४२. ] मानाय्यः । सपत्न्या अपत्यं 'शिवादेरण' [ ६. १. ६०. ] सापन्नः । ननु मनायीशब्दस्य गर्गादिपाठात् स्वयमेव न भविष्यति । यथा यौवतमित्यत्र भिक्षादिपाठात् स्त्रीलिङ्गस्य युवतिशब्दस्य पुंवद्भावो न भवति एवमत्राऽपि ? उच्यते, गर्गादिगणेऽणे- 20 प्राप्तावस्य पाठ इति तत्राप्युक्तं ततश्च पुंवद्भावः प्राप्नोति स मा भूदिति कौण्डिन्यनिर्देशात् पुंवद्भावो न भवतीत्युक्तम् । सपत्नस्यायमिति सपत्नशब्दश्च सपत्न्यास्तुल्यः ‘अः सपत्न्याः' [ ७. १. ११० ] ण प्रणादिको वा । पाटवमिति अत्र ह्यविषये पुंवद्भावस्ततोऽ ।। ३. २. ५१ ।। एयेनायी ॥। ३. २. ५२ ।। अग्नाय्या तद्धिते प्रत्यये परे अग्नाय्येव परतः स्त्री पुंवद्भवति । अपत्यम् आग्नेयः, अग्नायी देवताऽस्य प्राग्नेयः, -स्थालीपाकः । पूर्वेण सिद्धे नियमार्थं वचनम् - तेन श्यैनेयः, रौहिणेयः - अत्र पूर्वेणापि पुंवद्भावो न भवति ।। ५२ ।। 25 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ५३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५७१ न्या० स०--एयेऽग्नायी। आग्नेय इति 'कल्पग्नेरेयण' [ ६. १. १७. ] । श्यनेयेति 'द्विस्वरादनद्याः' रौहिणेयेति 'ड्याप्त्यूङ:' [ ६. १. ७०.] इति एयण । नियमार्थमिति विपरीतनियमस्तु न भवति प्रतिषेधाधिकारेऽग्न्याय्यनेये इत्यकरणात् । अत्रैव वा आग्नेय इत्यनिपातनात् । विपरीतनियमे हि अग्नाय्यै हितः 'तस्मै हिते' [७.१.३५. ] इतीये 'जातिश्च' [३. २.५१.] इत्यनेनाऽपि पूवत् न स्यात् । 5 ततश्चाग्नायीय इति स्यात् । स्थिते त्वऽग्नीय इत्येव भवति ।। ३. २. ५२ ॥ नाप्रियादौ ॥ ३. २. ५३ ॥ पूरण्यप्प्रत्ययान्ते स्त्र्येकार्थे उत्तरपदे प्रियादौ च परे परतः स्त्री पुंवन्न भवति । अप्-कल्याणी पञ्चमी प्रासां कल्याणीपञ्चमा रात्रयः, एवं कल्याणीदशमाः,-पूरण्यबन्तस्य ग्रहणात् इह पुंवद्भावो भवत्येव, बह व्य10 ऋचो यस्य स बह वृचश्चरणः। प्रियादि,-कल्याणी प्रिया अस्य कल्याणीप्रियः, एवं भव्याप्रियः, भव्यामनोज्ञः, प्रियाकल्याणीकः, प्रियासुभगः, कल्याणीदुर्भगः, कल्याणीस्वः, प्रियाक्षान्तः, दर्शनीयाकान्तः, प्रियावामनः, दर्शनीयासमः, प्रियासचिवः, प्रियाचपलः, प्रियाबालः, कल्याणीतनयः, कल्याणीदुहितृकः, कल्याणीभक्तिः, गिरितनया भक्तिरस्य गिरितनयाभक्तिः । 15 कथं दृढभक्तिः स्थिरभक्तिः शोभनभक्तिः परिपूर्णभक्तिरित्यादि ? दृढं भक्तिरस्येत्येवम् अस्त्रीपूर्वपदस्य विवक्षितत्वात् । अप्प्रियादाविति किम् ? कल्याणी पञ्चमी अस्मिन् कल्याणपञ्चमीकः पक्षः, कल्याणप्रमाणी येषां ते कल्याणीप्रमाणाः । प्रिया, मनोज्ञा, कल्याणी, सुभगा, दुर्भगा, स्वा, क्षान्ता, कान्ता, वामना, समा, सचिवा, चपला, बाला, तनया, दुहितु, भक्ति इति प्रियादिः 120 वामेत्यप्यन्ये-प्रियवामः ।। ५३ ।। न्या० स०--नाप्रिया०। पूरण्यपप्रत्ययान्त इति । प्रियादेः स्वरान्तस्याबन्तस्य उत्तरपदत्वं तत्साहचर्यादप्प्रत्ययोऽपि स्वरान्तादेव विहितो गृह्यते स च पूरणीप्रत्ययान्तादेव संभवति । यद्वा अबिति 'पूरणीभ्यस्तत्प्राधान्येऽप्' [ ७. ३. १३०. ] इति सूत्रश्रुतो गृह्यते नत्वऽधिकारानुमितः। श्रुतानुमितयोः श्रौतस्यैव ग्रहणात्। प्रियाक्षान्त इति25 क्षमते 'पुतपित्त' २०४ (उणादि) इति निपात्यते, क्षान्तिरस्या अस्ति । अभ्रादिभ्योऽप्रत्ययो वा। क्ते तु 'क्ताः' [ ३. १. १५१. ] इति बहुत्वनिर्देशात् प्रिय इति विकल्पं बाधित्वा नित्यमेव प्राक् स्यात्, एवं कान्तोऽपि। गिरितनयाभक्तिरित्यत्र कर्मरिण क्तिः । भज्यते सेव्यतेऽसौ, गिरितनया भक्तिः सेव्या यस्य । अस्त्रीपूर्वपदस्येति ननु चात्र भक्तो Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते _[पा० २. सू० ५४.] स्त्रियां विशेष्यायां गुणवचनानामाश्रयतो लिङ्गवचनानीति दृढादिभि: स्त्रीलिङ्गर्भाव्यम् ? । सत्यं, दृढादिशब्दोऽत्राऽदाढ्ादिनिवृत्तिपरः प्रयुज्यते। तत्र चादाढर्यादिनिवृत्तिपरायां नोदनायां लिङ्गविशेषोपादानस्यानुपकारित्वाद् भक्त : स्त्रीत्वविवक्षामन्तरेणाऽपि दाढर्यादिमात्रविवक्षयाप्यदाढर्यादिनिवृत्तेः सिद्धत्वात् स्त्रीत्वमत्र न विवक्षितमित्यौत्सर्गिक नपुंसकत्वमेव भवति । कल्याणी भक्तिरित्यादौ तूत्तरपदसमानाधिकरण्याभिव्यक्त्यर्थं 5 पूर्वपदे स्त्रीत्वमुच्यते । विवक्षाद्वयसंभवे हि यथाकामं प्रयोगो भवतीति समाधानार्थः ।। ३. २.५३ ॥ तद्धिताककोपान्त्यपूरण्याख्याः ॥ ३. २. ५४ ।। तद्धितप्रत्ययस्याकप्रत्ययस्य च यः कः स उपान्त्यो यासां तास्तद्धिताककोपान्त्याः, पूरणीप्रत्ययान्ता, आख्याः संज्ञास्त पाश्च परतः स्त्रियः पुंवन्न 10 भवन्ति । तद्धित-मद्रिकाभार्यः, वृजिकाभार्यः, लाक्षिकीभार्यः लाक्षिकीबृहतिकः, लाक्षिकीदेश्या, रौचनिकीचरी, मद्रिकायते, वृजिकामानिनी । अक:-कारिकाभार्यः,हारिकाभार्यः, विलेपिकायाधर्म्य-वैलेपिकम्, प्रानुलेपिकम्, कारिकाकल्पा, पाचिकारूपा, कारिकायते, पाचिकामानिनी। पूरणीद्वितीयाभार्यः, पञ्चमीभार्यः, द्वितीयाकल्पा, पञ्चमीदेश्या, पञ्चमीयते,15 षष्ठीमानिनी। आख्या-दत्ताभार्यः, गुप्ताभार्यः, दत्तारूपा, गुप्तापाशा, गुप्तामानिनी। कस्य तद्धिताकविशेषणं किम् ? पाकभार्यः, मूकभार्यः, जल्पाकभार्यः, कामुककल्पा। जागरूकरूपा, लुण्टाकायते, कुट्टाकायते, कुट्टाकमानिनी ।। ५४ ।। न्या० स०--तद्धिता०। तद्धितश्चाकश्च तद्धिताको तद्धिताकयोः कः स20 उपान्त्यो येषां परतः स्त्रीरूपाणां शब्दानामिति कृत्यम् । वृत्त्यभिप्रायेण तु यासामिति कृते ह्रस्वत्वं न स्यात् । अत्र ड्यन्तेभ्यो रूपप्कल्पपौ नोदाह्रियेते, तयोः परत्वात् 'ड्यः' [ ३. २. ६४. ] इत्यनेन ह्रस्वत्वं भवति । एवमुत्तरयोरपि सूत्रयोर्द्रष्टव्यम् । वैलेपिकम् इत्यत्र 'ऋन्नरादे०' [६. ४. ५१. ] एवमग्रतनेऽपि । कारिकाकल्प इति बाधन्ते स्वार्थिकाः क्वचिदित्याप् न । ननु दत्तागुताशब्दौ संज्ञाशब्दत्वात् स्वतः स्त्रीलिङ्गौ25 तत्कथमनेन निषेधः ? सत्यं, एतौ संज्ञायामपि वर्तमानौ दानगोपनक्रियासंबन्धात् सर्वेष्वप्यर्थेषु स्त्रीपुन्नपुसकेषु वर्तते इत्यत्र स्त्रीविवक्षणात् परतः स्त्रीलिङ्गता ।। ३.२.५४ ।। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ५५-५६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५७३ तद्धितः स्वरवृदिधहेतुररक्तविकारे ॥ ३. २. ५५ ।। स्वरस्थानाया वृद्धों हेतुस्तद्धितो रक्ताद्विकाराच्चान्यत्रार्थे विहितस्तदन्तः परतः स्त्रीलिङ्गः पुंवन्न भवति । माथुरीभार्यः स्रोग्घ्नीभार्यः, वैदिशीभार्यः, वैदर्भीभार्यः, सौतंगमीभार्यः कार्तवी-भार्यः माथुरीदेश्या, नादेयीचरी, सौतंगमीयते, वैदर्भीमानिनी, स्रोग्घ्नीमानिनी। तद्धित इति किम् ? 5 कुम्भकारी भार्या अस्य स कुम्भकारभार्यः, एवं काण्डलावभार्यः । वृद्धिहेतुरिति किम् ? अर्धप्रस्थे भवा अर्धप्रस्था,-अर्धप्रस्था भार्या यस्य सः अर्धप्रस्थभार्यः, शोभनतरभार्यः,। मध्यमभार्यः, स्वरेति किम् ? वैयाकरणभार्यः । अन्ये तु वृद्धिमात्रहेतोणितस्तद्धितस्य पुंवत्प्रतिषेधमिच्छन्ति, तन्मते वैयाकरणीभार्यः । अरक्तविकारे इति किम् ? कषायेण रक्ता काषायी सा बृहतिकास्य काषाय-10 बृहतिकः, एवं माञ्जिष्ठबृहतिकः, लोहस्य विकारो लौही सा ईषास्य लौहेषः, एवं खादिरेषः ।। ५५ ।। न्या० स०--तद्धितः स्वर०। वैदिशोभार्य इति । विदिशायां भवा जाता वा। सौतङ्गमीभार्य इति सुतंगमस्यापत्यं स्त्री ऋष्यण , ततो ङीप्रत्ययः सुतंगमादेरि नानीयते 'देशे नाम्नि' [२.३.७०.] इति भणनात्, यतोऽसौ सौतंगमीति कस्याश्चित् संज्ञा सा15 भार्याऽस्येति । कार्तवीर्योभार्य इति कृतं वीर्यमनेन तस्यापत्यं स्त्री ऋष्यण् । अर्धप्रस्थेति 'अर्द्धात् परिमाणस्य' [ ७. ४. २०. ] इत्यत्राऽकारस्य वृद्धिविधौ वर्जनात् आद्यस्य च वावचनादत्र वृद्ध्यभावः। अन्ये त्विति तेन वैयाकरणीभार्य इत्यत्र स्वरस्थानवृद्ध्यभावेऽपि पुवन्निषेधः, न ह्यत्रकारः स्वरस्थानी। ईषतीति 'नाम्युपान्त्य' [ ५. १. ५४. ] इति के ईषा ।। ३. २. ५५ ॥ 20 स्वानान्कीर्जातिश्चामानिनि ॥ ३. २. ५६ ॥ स्वाङ्गाद्यो विहितो ङीस्तदन्तो जातिवाची च यः शब्दः परतः स्त्री स पुंवन्न भवति, अमानिनि मानिन्शब्दश्चेत्परो न भवति । दीर्घकेशीभार्यः, चन्द्रमुखीभार्यः, कलकण्ठीदेश्या, तनुगात्रीचरी, चन्द्रमुखीयते । जातिकठीभार्यः, बह वृचीभार्यः, कठीदेश्या, बह वृचोचरी, शूद्राभार्यः, क्षत्रियाभार्यः,25 शूद्रापाशा, क्षत्रियादेश्या । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू ५७ ] आकृतिग्रहरणा जातिः, अत्रिलिङ्गा च यान्विता । आजन्मनाशमर्थानां सामान्यमपरे विदुः ।। १ ।। अत्र प्रथमजातिलक्षणानुसारेण कुमारीभार्यः, किशोरीभार्य इति भवति, द्वितीयजातिलक्षणानुसारेण कुमारभार्यः, किशोरभार्य इति भवति, न हि कुमारत्वादि उत्पत्तेः प्रभृत्याविनाशमनुवर्तते । स्वाङ्गादिति किम् ? पटुभार्यः । ङीरिति किम् ? सकेशभार्यः । श्रमानिनीति किम् ? दीर्घकेशमानिनी, कठमानिनी -- असमासनिर्देशः सुखार्थः ।। ५६ ।। 5 न्या० स०-- स्वाङान्ङी० । शूद्रेति शीयते वर्जयति षट् कर्माणीति शूद्रः 'शदेरूच्च' ३९४ ( उणादि) पूर्वत्र जातिलक्षणे उक्तऽपि प्रत्रैवंविधा जातिग्रह्यति वैचित्र्यार्थमाह- श्राकृतिग्रहणेति ततश्च प्राकृतिग्रहरणा जातिरिति प्रथमा जातिः । अनया 10 च कुमारीभार्यः किशोरीभार्य इति सिद्धम् । अत्रिलिङ्गा च यान्विता श्राजन्मनाशम नामिति द्वितीया, केचित्तु श्राजन्मनाशमर्थानामन्विता इति प्राकृतिग्रहरणा जातिरित्यस्य विशेषणं कुर्वन्ति तन्मताभिप्रायेण कुमारभार्यः किशोरभार्य इत्येव भवति । न हि कुमारत्वादि उत्पत्तेः प्रभृति प्राविनाशमऽनुवर्त्तते ।। ३. २. ५६ ।। पुंवत्कर्मधारये ॥ ३. २. ५७ ।। परतः स्त्र्यनूङ् कर्मधारये समासे स्त्र्येकार्थे उत्तरपदे परे पुंवद्भवति, प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थं प्रारम्भः । नाप्रियादौ [ ३. २. ५३ ] इत्युक्तं तत्रापि भवति, कल्याणी चासौ प्रिया च कल्याणप्रिया, एवं कल्याणमनोज्ञा, 'तद्धिताककोपान्त्यपूरण्याख्या:' [ ३. २. ५४. ] इत्युक्तं तत्रापि भवति, - मद्रिका चासौ भार्या च मद्रकभार्या, लाक्षिकबृहतिका, पाचकवृन्दारिका, कारक - 20 वृन्दारिका, पञ्चमवृन्दारिका, षष्ठवृन्दारिका, दत्तवृन्दारिका, गुप्तवृन्दारिका, 'तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुर रक्तविकारे' [३. २. ५५. ] इत्युक्तं तत्रापि भवति, माथुरी चासौ वृन्दारिका च माथुरवृन्दारिका, स्रौघ्नवृन्दारिका, 'स्वाङ्गान्ङीजतिश्चामानिनि' [ ३. २. ५६ ] इत्युक्तं तत्रापि भवति, -- चन्द्रमुखी चासौ वृन्दारिका च चन्द्रमुखवृन्दारिका, दीर्घकेशवृन्दारिका, कठवृन्दारिका, बह वृच - 25 वृन्दारिका, वतण्डस्यापत्यं वातण्ड्यः, स्त्री चेत् वतण्डी, सा चासौ वृन्दारिका च वातण्ड्यवृन्दारिका, गर्गस्यापत्यं गार्ग्यः स्त्री चेत् गार्गी, सा चासौ 15 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५७५ वृन्दारिका च गार्ग्यवृन्दारिका, -कपोतपाक एव कापोतपाक्यः स्त्री चेत्, कापोतपाका, सा चासौ वृन्दारिका - च कापोतपाक्यवृन्दारिका, कुञ्जस्यापत्यं कौञ्जायन्यः स्त्री चेत् कौञ्जायनी, सा चासौ वृन्दारिका च-- कौञ्जायन्यवृन्दारिका, अङ्गस्यापत्यानि श्रङ्गाः, स्त्रियश्चेदाङ्गयः, ताश्च ता वृन्दारिकाश्च अङ्गवृन्दारिकाः, एवं गर्गवृन्दारिकाः । इडविड्, पृथ्, दरद्, उशिज् एते 5 जनपदशब्दाः क्षत्त्रियवाचिनः एभ्योऽपत्यप्रत्ययस्य स्त्रियां लुपि, इडविट् चासौ वृन्दारिका चेत्यादिविग्रहे-- ऐडविडवृन्दारिका, पार्थवृन्दारिका, दारदवृन्दारिका, शिजवृन्दारिका इति भवति । परतः स्त्रीत्येव ? खट्वावृन्दारिका, अनूङित्येव ? ब्रह्मबन्धूवृन्दारिका ।। ५७ ।। [पा० २. सू० ५८. ] न्या० स० -- पुंवत् कर्म्म० । पुंवत् ग्रहणं किमर्थं यतो न कर्म्मधारये इति 10 क्रियते ततः कर्म्मधारये पुवन्न न भवति अपि तु भवत्येव पाश्चात्यसूत्रात् नत्रिति वर्त्तते ? उच्यते, उत्तरार्थं कृतम् । लाक्षिकबृहतिका इति प्ररक्तविकार इत्यनयाऽपि व्यावृत्त्या सिद्धमिदं तत्कथमत्र दर्शितम् ? उच्यते, यदि 'तद्धितः स्वरवृद्धि' [ ३. २.५५ ] इति निषेधः क्रियते तदानीं सिद्ध्यति व्यावृत्त्या । यदा तु तद्धिताककोपान्त्येति निषेधः प्राप्नोति तदाऽनेनापि पुवन्न स्यादिति दर्शितम् । सर्वत्र जातिलक्षणङीबाघको वृन्दारिकाशब्दे 15 अजादित्वादाप् । 'द्व्येषसूत पुत्र वृन्दारकस्य' [ २.४. १०६.] इति विकल्पेन इत्वं भवति । कापोतपाका इति कपोतं पचति प्रण । अत्राणलक्षणं जातिनिमित्तं वा ङीप्रत्ययं बाधित्वा ‘अजादेः' [२. ४. १६. ] इत्याप् ।। ३. २. ५७ ।। रिति ॥ ३.२.५८ ॥ परतः स्त्र्यनूङ् रिति प्रत्यये जातीये देशीये च पुंवद्भवति । पट्वी 20 प्रकारोऽस्याः पटुजातीया, ईषदपरिसमाप्ता पट्वी पटुदेशीया, मद्रकजातीया, मद्रकदेशीया, पाचकजातीया, पाचकदेशीया, पञ्चमजातीया, षष्ठदेशीया, दत्तजातीया, गुप्तदेशीया, माथुरजातीया, स्रौग्घ्नदेशीया, दार्घकेशजातीया, चन्द्रमुखदेशीया, कठजातीया, बह, वृचदेशीया, वातण्ड्यजातीया, गार्ग्यदेशीया, कापोतपाक्यजातीया, कौञ्जायन्यदेशीया, अङ्गजातीया, गर्गदेशीया, ऐडविड - 25 जातीया, पार्थदेशीया, दारदजातीया, प्रशिजदेशीया, परतः स्त्रीत्येव ? कुटीजातीया, द्रुणीदेशीया । अनूङित्येव ? करभोरूजातीया, मद्रबाहू देशीया ।। ५८ ।। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ५६.] न्या० स०-रिति०। ननु रानुबन्धा ये प्रत्ययाः ते पानुबन्धाः क्रियन्तां ततश्च 'क्यङ मानि०' [ ३. २. ५०. ] इति पुवद्भावसिद्धौ रितीति सूत्रं न कार्यम् ? सत्यं, यदि पानुबन्धाः क्रियन्ते तदा माथुरी प्रकारोऽस्या इति कृते 'तद्धितः स्वर' [३. २. ५५.] इति निषेधः प्राप्नोति तद्बाधनार्थं विधीयते। अप्राप्तप्रापणार्थोऽयमारम्भः। ननु मद्रकजातीया इत्यादिषु 'तद्धिताककोपान्त्य' [ ३. २. ५४. ] इत्यादिभिः 5 कथं पुवनिषेधो न भवति ? उच्यते, सर्वबाधनार्थं चैतत् वचनमन्यथा क्यङ मानिरित्पित्तद्धिते इत्येकमेव योगं कुर्यात् ।। ३. २. ५८ ।। त्वते गुणः ॥ ३. २. ५६ ॥ परतः स्त्र्यनूङ् गुणवचनः शब्दस्त्वत इत्येतयोः प्रत्यययोः परयोः पुमान् भवति । पव्याः भावः पटुत्वम्, पटुता, एन्याः भावः एतत्वम्, एतता,10 श्येन्याः भावः-श्येतत्वम्, श्येतता। त्वत इति किम् ? पट्वीरूप्यम्, पट्वीमयम् । गुण इति किम् ? कठीत्वम्, कठीता, दत्तात्वम्, दत्ताता, कीत्वम्, कीता। केचित्तु जातिसंज्ञाजितस्य विशेषणमात्रस्य पुंवद्भावमिच्छन्ति,पाचिकायाः भावः-पाचकत्वं, पाचकता, मद्रिकायाः भावः-मद्रकत्वम्, मद्रकता, आनुकूलिक्याः भाव प्रानुकूलिकत्वम्, प्रानुकूलिकता, पाक्षिक्याः-आक्षिकत्वम्,15 आक्षिकता, द्वितीयायाः द्वितीयत्वम्, द्वितीयता, पञ्चम्याः पञ्चमत्वम्, पञ्चमता, माथुर्या:-माथुरत्वम् माथुरता, स्रोग्घ्न्याः -स्रोग्घ्नत्वम्, स्रोग्नता, चन्द्रमुख्या:-चन्द्रमुखत्वम्, चन्द्रमुखता, सुकेश्याः -सुकेशत्वं, सुकेशता । सैन्याः श्रियामनुपभोगनिरर्थकत्व-मिथ्यापवादममृजन् वननिम्नगानाम् । सस्नुः पयः पपुरनेनिजुरम्वराणि, जक्षुर्बिसन्धृतविकाशिबिसप्रसूनाः ।। १ ।।20 तदवितथमवादीर्यन्मम त्वं प्रियेति प्रियजनपरिभुक्तं यदुकलं दधानः । तदधिवसति मा गाःकामिनां मण्डनश्रीव्र जति हि सफलत्वं वल्लभालोकनेन।।२।। तथा-रसवत्या धूमवत्त्वम्, भुवस्तृणवत्त्वम् शालाया दण्डित्वमित्यादौ ।। ५६ ।। न्या० स०-स्वते गुरगः। अनुकूलं वर्तते 'तं प्रत्यनोलोम' [७. ४. २८. 25 इति इकण् । अत्र यथा 'भावे त्वतल' [७. १. ५५.] इति विहितस्तल् गृह्यते तथा 'देवात्तल' Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ६०-६१.] श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५७७ [ ७. २. १६२. ] इत्यपि । तेन देव एव देवतेतिवत् नामग्रहणे इति न्यायाद् देवीशब्दादपि तलि देवतेति सिद्धम् । ऐश्वर्यरूपगुणाभिधायकत्वाद् देवीशब्दोऽपि गुणवचनः । जातिवाचित्वे तु देव्येव देवीता देव्या भावो देवीत्वं देवीतेति भवति । गुरण इति गुणद्वारेण गुणिनि वर्त्तमानो गुणवचनो गृह्यते । गुणमात्रवृत्तेरस्त्रीलिङ्गत्वात् पुभावाप्राप्तिरिति कठत्वमिति ननु कठोत्वमिति गुरण इति व्यावृत्तौ कथं दर्शितं यतोऽत्र 5 गुण इत्यसत्यपि जाते पुभावप्रतिषेधादेव न भविष्यति ? नैवं, सर्वापवादत्वादस्य । किंच कर्त्रीत्वं कर्त्रीता इत्यादिक्रियाशब्दार्थं गुणग्रहणं कर्त्तव्यमेव तस्मिंश्च सति जातावपि प्रत्युदाह्रियते । केचित्रिवति तन्मतसंग्रहार्थं गुणो विशेषरणमित्यपि व्याख्येयम् ।। ३. २. ५६ ॥ च्वौ क्वचित् ॥ ३. २. ६० ॥ परत: स्त्री अनूङ् च्वौ पुंवद्भवति क्वचिल्लक्ष्यानुरोधेन । महती महती भूता मद्भूता कन्या, एवं बृहत्कृता क्वचिद्ग्रहणादगोमती गोमतीभूता गोमतीभूतेत्यादौ न स्यादेव, पट्वीभूता पटूभूता, मृद्रीकृता मृदूकृतेत्यादौ विकल्पः । महतीभूतेत्यपि केचित् ।। ६० ।। 10 सर्वादयोःस्यादौ ॥। ३. २. ६१ ॥ सर्वादिर्गणः परतः स्त्री पुंवत् भवति, 'अस्यादौ' स्यादिश्चेत्ततः परो न भवति । सर्वासां स्त्रियः सर्वस्त्रियः भवत्याः पुत्रः भवत्पुत्रः, एकस्याः क्षीरमेकक्षीरम्, एकस्या आगतमेकरूप्यम्, एकमयम्, तया प्रकृत्या - तथा, एवं यथा, तस्यां वेलायां तदा, एवं यदा कदा सर्वदा, अन्यदा तर्हि, यहि, कहि, सर्वामिच्छति, सर्वकाम्यति, भवत्काम्यति, एककाम्यति, परत्वात्प्रतिषेध - 20 विषयेऽपि भवति, सर्वा प्रियाऽस्य सर्वप्रियः, एवं सर्वमनोज्ञः, सर्विका भार्याऽस्य सर्वकभार्यः, एवं विश्वकभार्यः । सर्वादय इति किम् ? कन्यापुरम्, कुमारीनिवासः । अस्यादाविति किम् ? सर्वस्यै, दक्षिणपूर्वस्यै, उत्तरपूर्वस्यै । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन भूतपूर्व सर्वादेरपि भवति, दक्षिणोत्तरपूर्वाणाम् इयादि ।। ६१ ।। न्या० स० -- सर्वादयो० । तया प्रकृत्येति स्त्रीत्वव्यक्त्यर्थमिदं वाक्यं तेन प्रकारेणेति वक्तव्ये । अथ चात्र पुंवद्भावः किमर्थः समजनि ? उच्यते, अत्र पुंवद्भावे सति 15 25 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुम्याससंवलिते [पा० २. सू० ६२-६३.] स्त्रियामाप् न भवति । एवं यथा तदेत्यादि । परत्वादिति कल्याणीप्रियेत्यादौ 'नाप्रियादो' [ ३. २. ५३. ] इत्यादिप्रतिषेधः सावकाशः । भवत्पुत्र इत्यादौ त्वयं विधिः सर्वा प्रियास्य सर्व्वप्रिय इत्यादौ तूभयप्राप्तौ द्वयोरन्यत्र सावकाशत्वे परत्वादनेन पुंरंभाव इत्यर्थः । कन्यापुरमिति कन्याशब्दो व्याकरणे कन्य इति पुमानपि प्रसिद्ध इति 'परत: स्त्री' [ ३. २. ४६. ] इति । अस्यादाविति किमिति न च स्याद्युत्पत्तेः प्रागेवात्र पुभाव: 5 कथं न भवतीति वाच्यं । श्रस्यादाविति वचनात् । यतः परः स्यादिः प्रयुज्यते तस्य पुं भावो न भवति । अन्यथाऽस्यादावित्यस्यानर्थक्यं स्यात् । प्रथोत्तरपदे परे इत्यनुवर्त्तनात् सर्वस्यै दक्षिणपूर्व इत्यादी निमित्तभूतस्योत्तरपदस्याभावात् पुं भावो न भविष्यति किमऽस्यादावित्यनेन ? सत्यं, अत एव सर्वस्यै इत्यादौ निमित्तभूतस्योत्तरपदस्याभावात् पुभावनिवृत्त्यर्थादऽस्यादाविति वचनादत्रोत्तरपद इति नास्तीति ज्ञायते । तेन यथेत्यादावपि 10 पुभावः सिद्धः । न च अस्याः पुत्र इत्याक्रोशे षष्ठ्या प्रलुप्युत्तरपदे पुरं भावनिषेधार्थंमस्यादाविति वाच्यं, अत्र विभक्त्या व्यवधानादुत्तरपदे सर्वाद्यऽभावात् । एतदर्थत्वे च ङसः प्रतिषेध एव कर्त्तव्यः स्यान्नास्यादाविति । दक्षिणोत्तर पूर्वारणामिति 'न सर्वादि: ' [१. ४. १२.] इति सर्वादित्वाभावः । सर्वस्यै । दक्षिणपूर्वस्यै इत्युक्तं ततश्चात्र पुंवद्भावः स्वयमेव न भविष्यति । सर्वादेङ स्पूर्वेति ङस्विधानात्, अन्यथा प्राबन्तेत्वाभावात् स15 न स्यात् ? उच्यते, यदा सर्वाशब्दादऽग्रे भ्यस् तदापि पुंवत् माभूत् इत्यस्यादिग्रहणम् ।। ३. २. ६१ ।। ५७८ ] मृगक्षीरादिषु वा ॥ ३. २. ६२ ॥ मृगक्षीरादिसमासशब्देषु परतः स्त्रीलिङ्गमनेकार्थेऽस्त्र्यर्थे चोत्तरपदे पुंवद्वा भवति । मृग्याः क्षीरं मृगक्षीरम् - मृगीक्षीरम्, एवं मृगपदम्, मृगीपदम्, 20 मृगशावः, मृगीशावः, कुक्कुटाण्डम्, कुक्कुटचण्डम्, मयूराण्डम्, मयूर्यण्डम्, काकाण्ड, काक्यण्डम्, काकशावः, काकीशावः । पुंस्त्रीलिङ्गपूर्वपदभेदेन समासविवक्षायां सूत्रानारम्भे मृगक्षीरादयो न सिद्ध्यन्ति, मृगक्षीरादयः प्रयोगतोऽनुसर्तव्याः ।। ६२ ।। न्या० स० - - मृगक्षीरा० । पुंस्त्रीलिङ्ग ेति ननु मृगस्य पदं मृगपदं मृग्याः पदं 25 मृगीपदमिति कृते सेत्स्यति किमर्थमिदमित्याशङ्का । मृगक्षीरादय इति प्रादिशब्दात् मयूराण्डमित्यादि । एतच्च मृग्याः क्षीरमिति कृते द्रष्टव्यम् ।। ३. २. ६२ ।। दुदित्तरतमरूपकल्पबुवचेलड्गोत्रमतहते वा ह्रस्वश्च ।। ३. २. ६३ ॥ ऋदिदुदिच्च परतः स्त्रीलिङ्गशब्दस्तरादिषु प्रत्ययेषु ब्रुवादिषु च30 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५७६ स्त्र्येकार्थेषुत्तरपदेषु ह्रस्वाऽन्तः पुंवच्च वा भवति । तर, पचन्तितरा, पचत्तरा, पचन्तीतरा, श्रेयसितरा, श्रेयस्तरा, श्रेयसीतरा, विदुषितरा, विद्वत्तरा, विदुषीतरा। तम, पचन्तितमा, पचत्तमा,पचन्तीतमा, श्रेयसितमा श्रेयस्तमा,श्रेयसीतमा, विदुषितमा, बिद्वत्तमा, विदुषीतमा, रूप, पचन्तिरूपा, पचद्र पा, पचन्तीरूपा, श्रेयसिरूपा, श्रेयोरूपा, श्रेयसीरूपा, विदुषिरूपा, विद्वद् पा, विदुषीरूपा। कल्प, 5 पचन्तिकल्पा, पचत्कल्पा, पचन्तीकल्पा, विदुषिकल्पा, विद्वत्कल्पा, विदुषीकल्पा, ब्रुव, पचन्ती चासौ ब्रुवा च पचन्तिब्रुवा, पचब्रुवा, पचन्तीब्रुवा, श्रेयसिब्रुवा, श्रेयोब्रुवा, श्रेयसीब्रुवा, विदुषिब्रुवा, विद्वब्रुवा, विदुषीब्रुवा, चेलट्, टिद्वचनं ङ्यर्थम्- पचन्ती चासौ चेली च पचन्तिचेली, पचच्चेली, पचन्तीचेली, श्रेयसिचेली, श्रेयश्चेली, श्रेयसीचेली, विदुषिचेली, विद्वच्चेली, विदुषीचेली, गोत्र,10 पचन्ती चासौ गोत्रा च पचन्तिगोत्रा, पचद्गोत्रा, पचन्तीगोत्रा, श्रेयसिगोत्रा, श्रेयोगोत्रा, श्रेयसीगोत्रा, विदुषिगोत्रा, विद्वद्गोत्रा, विदुषीगोत्रा, मत, पचन्ती चासौ मता च पचन्तिमता, पचन्मता, पचन्तीमता, श्रेयसिमता, श्रेयोमता, श्रेयसीमता, विदुषिमता, विद्वन्मता, विदुषीमता, हत, पचन्ती चासौ हता च पचन्तिहता, पचद्धता, पचन्तीहता,श्रेयसिहता, श्रेयोहता,श्रेयसीहता, विदुषिहता,15 विद्वद्धता, विदुषीहता, एवं सुदतितरेत्यादि ब्रुवादयः कुत्साशब्दाः 'निन्द्यं कुत्सनैः' [३. १. १००.] इति च समासः । ऋदुदिदिति किम् ? कुमारितरा, किशोरितरा, किशोरितमा। एकार्थ इत्येव ? पचन्त्या हता-पचन्तीहता। विदुष्या हता-विदुषीहता। तरादिष्विति किम् ? पचत्पाशा। विद्वद्वृन्दारिका ।। ६३ ।। 20 न्या० स०--ऋदुदि० । अत्र श्रेयस् शब्दात् कल्पप् नोदाह्रियते अतमबादेरिति वचनात् । पचन्तिहतेति हतशब्दस्य पापादित्वेऽपि सूत्रत्वाद् बाहुलकाद् वा समासः । चेलेति 'चिलत् वसने' चिलति गुणान् इति 'लिहादिभ्यः' [५. १. ५० ] इत्यच् । गोत्रेति अहं पचामोत्येवंरूपां गां वाचं त्रायत इति गोत्रा, 'पातो ड' [५. १. ७६.] इति डः। मतेति मन्यतेः सत्यर्थे 'ज्ञानेच्छा' [ ५. २. ६२. ] इत्यादिना क्तः। कुमारितरे-25 त्यादिषु 'ड्यः' [३. २. ६४.] इत्यनेन सूत्रेण ह्रस्वः ।। ३. २. ६३ ।। ड्यः ॥ ३. २.६४ ॥ यन्तस्य परत: स्त्रीलिङ्गस्य तरादिषु प्रत्ययेषु ब्रुवादिषु चोत्तरपदेषु Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ६५-६६.] एकार्थेष ह्रस्वोऽन्तादेशो भवति । गौरितरा, गौरितमा, नर्तकिरूपा, कुमारि- । कल्पा, ब्राह्मणिब्रुवा, गार्गिचेली, ब्राह्मणिगोत्रा, गार्गिमता, गौरिहता। परत्वाद्यथाप्राप्तं वद्भावं बाधते । ङय इति किम् ? मद्रिकातरा, कारिकातमा, दत्तारूपा, सेनानीरूपा, ग्रामणीकल्पा। परतः स्त्रिया इत्येव ? बदरीतरा, आमलकीतरा । एकार्थ इत्येव ? ब्राह्मण्या हता ब्राह्मणीहता, 5 'नवैकस्वराणाम्' [३. २. ६६.] इत्युत्तरत्र वचनादनेकस्वरस्यैवायं विधिः ।। ६४ ॥ न्या० स०---यः। परत्वादिति दर्शनीयतरा विद्वद्वन्दारिकेत्यादौ पुभावः सावकाशः, नर्तकिरूपेत्यादौ तु कोपान्त्यत्वात् पुभावप्रतिषेधादयं विधिः गौरितरेत्यादौ तुभयप्राप्तौ 'स्पर्द्ध परः' [ ७. ४. ११६.] इति परत्वादयमेव विधिरित्यर्थः । 'मलि 10 मल्लि धारणे' । आमलिषीष्ट पुष्पफलानीति 'तिक्कृतौ नाम्नि' [ ५. १. ७१. ] इति अकः । अथवा अमण अामयति श्लेष्मप्रधानमिति आमलकी। 'कीचक' ३३ (उणादि) इति अकान्तो निपात्यते 'जातेरयान्त' [२. ४. ५४.] इति डी। यन्मते नित्यस्त्री तन्मते गौरादित्वात् डी । स्वमते तु त्रिलिङ्गः ।। ३. २. ६४ ।।। भोगवद्गोरिमतोर्नाम्नि ॥ ३. २. ६५ ॥ भोगवद्गौरिमतोर्नाम्नि संज्ञायां वर्तमानयोर्डीप्रत्ययस्य तरादिषु प्रत्ययेषु ब्रुवादिषु चोत्तरपदेष्वेकार्थेषु ह्रस्वो भवति । भोगवतितरा, भोगवतितमा, गौरिमतितमा, भोगवतिरूपा, गौरिमतिकल्पा, भोगवतिब्र वा, गौरिमतिचेली, भोगवतिगोत्रा, गौरिमतिमता, भोगवतिहता । नाम्नीति किम् ? भोगवतितरा, भोगवत्तरा, भोगवतीतरा, एवं गौरिमतितरेत्यादि । उदित्त्वात्पूर्वेण20 त्रैरूप्यम् ।। ६५ ।। न्या० स०--भोगवद्। भोगवतीति भोगा: सर्पकञ्चुकाः सन्त्यस्यां भोगावती नाम नदी 'अनजिरादि' [३. २. ७८.] इति दीर्घत्वं ततोऽत एव निर्देशात् पूर्वस्य ह्रस्वत्वम् । गौरिमतीत्यत्र तु 'ड्यापो बहुलम्' [२.४.६६.] इति मतो ह्रस्वः । गौरीति गौरस्यापत्यं इञ् 'नुते:' [ २. ४. ७२. ] इति ङी: गौरादित्वाद्वा ।। ३. २. ६५ ।। 25 नवैकस्वराणाम् ॥ ३. २. ६६ ॥ बहुवचनात्परतः स्त्रीति निवृत्तम्, सामान्येन तु विधानम्, स्त्र्येकार्थे Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६७-६८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५८१ इत्यनुवर्तते । एकस्वरस्य ड्यन्तस्य तरादिषु प्रत्ययेषु, ब्रुवादिषु चोत्तरपदेषु स्त्र्येकार्थेषु ह्रस्वोऽन्तादेशो भवति वा । स्त्रितरा, स्त्रीतरा, ज्ञस्य भार्या जी, ज्ञितमा, शीतमा, अस्यापत्य स्त्री ई, इरूपा, ईरूपा, कस्य भार्या की, किकल्पा, कीकल्पा, जिब्रुवा, ज्ञोब्र वा, इचेली, ईचेली, किगोत्रा, कीगोत्रा, स्त्रिमता, स्त्रीमता, स्त्रिहता, स्त्रीहता--एकस्वरोणामिति किम् ? कुटीतरा, द्रणीतमा, 5 आमलकीतरा, बदरीतमा, कवलीरूषा। ङ्य इत्येव ? श्रीतरा, हीतमा, धीरूपा, एकार्थ इत्येव ? स्त्रिया हता-स्त्रीहता। नित्यदितामनेकस्वराणामपीच्छन्त्येके, तन्मते,--ग्रामलकितरा, बदरितमा, कुवलिरूपा, लक्ष्मिकल्पा, तन्त्रितरेत्याद्यपि भवति ।। ६६ ।। न्या०स०--नवैक० । ज्ञीतमा कीकल्पा इत्यादौ ह्रस्वविकल्पपक्षे पुवन्न भवति,10 धवयोगे ङ्यां पश्चात्संज्ञाविवक्षायां 'तद्धिताकको' [३. २. ५४.] इति निषेधात् कौण्डिन्यागस्त्ययोरिति ज्ञापकेन पुभावाऽनित्यत्वाद्वा । ईरूपा इत्यत्र तु गोत्रं च चरणैः सहेति जातित्वे 'स्वाङ्गान्डीः' [ ३. २. ५६. ] इति निषेधात् रूपसाम्याद्वा न पुवत् । ईचेलीत्यत्रापि 'पुवत्कर्मधारये' [ ३. २. ५७. ] इत्यनेन प्राप्त: पुभावोऽनित्यत्वान्न भवति । कुटोतरेति परतः स्त्रीत्वाभावात् 'ड्यः' [ ३. २. ६४. ] इत्यपि नित्यं ह्रस्वो न15 भवति ।। ३. २. ६६ ।। ऊङः ॥ ३. २. ६७ ॥ ऊङन्तस्य तरादिषु प्रत्ययेषु, ब्रु वादिषु चोत्तरपदेषु स्त्र्येकार्थेषु वा ह्रस्वो भवति । ब्रह्मबन्धुतरा, ब्रह्मबन्धूतरा, वामोरुतमा, वामोरूतमा, मद्रबाहुरूपा, मद्रबाहूरूपा, कमण्डलुकल्पा, कमण्डलूकल्पा, कद्र ब्र वा, कद्र ब्र वा,20 पगुचेली, पङ्चेली, श्वश्रुगोत्रा, श्वश्रूगोत्रा, कुरुमता, कुरूमता, भीरुहता, भीरूहता। एकार्थ इत्येव ? भीर्वा हता-भीरूहता ।। ६७ ।। महतः करघासविशिष्टे डाः ॥ ३. २. ६८ ॥ करादिषूत्तरपदेषु महतो डा इत्ययमन्तादेशो वा भवति । वैयधिकरण्ये इयं विभाषा, सामानाधिकरण्ये तु परत्वादुत्तरेण नित्य एव विधिः । महतां25 करः महाकरः, महत्करः, कर एव कार इति महाकारः, महत्कारः, महाघासः, Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ६९-७०.] महद्घासः, महाविशिष्टः, महद्विशिष्टः। महत इति किम् ? राजकरःकरादिष्विति किम् ? महतः पुत्रः महत्पुत्रः, डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः, स च उत्तरार्थः ।। ६८ ।। स्त्रियाम् ॥ ३. २. ६६ ॥ स्त्रियां वर्तमानस्य महतः करादिषूत्तरपदेषु नित्यं डा अन्तादेशो भवति । 5 महत्याः करः-महाकरः, एवं महाघासः, महाविशिष्टः । 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति पूर्वेणैव सिद्धे, नित्यार्थमिदम् ।। ६६ ।। जातीयैकार्थेऽच्वेः ॥ ३. २. ७० ॥ महतोऽव्यन्तस्य जातीय प्रत्यये, एकार्थे चोत्तरपदे डान्तादेशो भवति । महान् प्रकारोऽस्य इत्यादि, महाजातीयः, महाजातीया । एकार्थे,-महांश्वासौ10 वीरश्च महावीरः । एवं महामुनिः, महान् भागोऽस्य-महाभागः। एवं महायशाः। महती चासौ देवी च-महादेवी, एवं महाराज्ञी, महती कीर्तिरस्य महाकीर्तिः, महास्तुतिः, महांश्चासौ करश्च, महान् करोऽस्येति वा महाकरः, एवं महाघासः, महाविशिष्टः, महान्तमात्मानं मन्यते महामानी, एवं महंमन्यः-खशि डाह्रस्वत्वे मोऽन्तः । जातीय-एकार्थ इति किम् ? प्रकृष्टो महान् महत्तरः, महत्याः15 पुत्रो महतीपुत्रः, महत्याः पतिः महतीपतिः, अच्वेरिति किम् ? अमहान् महान् संपन्नो महद्भूतश्चन्द्रमाः, अमहती महती संपन्ना महद्भूता कन्या ।। ७० ।। न्या० स०--जातीयका। महाकर इति करादिष्वपि सामानाधिकरण्य (सामानाधिकरण्ये परत्वादिति पाठान्तरम्) फलत्वान्नित्यमस्य प्रवृत्ति दर्शयितुमाह-20 एकार्थ इति किमिति नन्वेकार्थ इति किमर्थं जातीये चेति कृतेऽपि चकारेण उत्तरपदाकर्षणात् तेन च समासाक्षेपात् लक्षणप्रतिपदोक्तपरिभाषया च ‘सन्महत्परम' [३.१.१०७.] इति प्रतिपदोक्तस्यैव समासस्य ग्रहणाल्लाक्षणिके षष्ठीतत्पुरुषे न भविष्यति ? नैवं, षष्ठीतत्पुरुषवत् महान् भागोऽस्येत्यादौ बहुव्रीहावपि न स्यात् । महान् संपन्न इति संपन्न इत्यर्थकथनम्, अमहान् महान् भूत इति तु दृश्यमऽन्यथा च्वेरऽभावः ।। ३. २. ७० ।।25 Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ७१-७३.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५८३ न वनिषेधे ॥ ३. २. ७१ ॥ महतः पुंवन्निषेधविषये उत्तरपदे डा न भवति । महती प्रिया अस्य महतीप्रियः, महतीमनोज्ञः ।। ७१ ।। इच्यस्वरे दीर्घ आच्च ॥ ३. २. ७२ ॥ इच्प्रत्ययान्तेऽस्वरादावुत्तरपदे परे पूर्वपदस्य दीर्घ प्राकारश्चान्तादेशो 5 भवति । बाहुषु च बाहुषु च मिथो गृहीत्वा व्यासक्त बाहूबाहवि व्यासजेताम्, बाहाबाहवि, एवं केशाकेशि, मुष्टिभिश्च, मुष्टिभिश्च प्रहृत्य कृतं युद्धं मुष्टीमुष्टि, मुष्टामुष्टि, एवं यष्टायष्टि, यष्टीयष्टि दण्डादण्डि, दीर्घत्वात्वयोरकारान्तादन्यत्र विशेषः । दीर्घसाहचर्यादात्वमपि स्वरान्तानामेव भवति, तेनेह न भवति, दोर्दोषि, धनुर्धनुषि । अस्वर इति किम् ? अस्यसि,10 इष्विषवि ।। ७२ ।। न्या० स०--इच्यस्वरे०। साहचर्यादिति स्वरस्य ह्रस्वदीर्घप्लुता: इति न्यायादित्यर्थः ।। ३. २. ७२ ।। हविष्यष्टनः कपाले ॥ ३. २. ७३ ॥ हविष्यभिधेयेऽष्टन्शब्दस्य कपाले उत्तरपदे दीर्घोऽन्तादेशो भवति । 15 अष्टसु कपालेषु संस्कृतम्-अष्टाकपालं हविः । हविषीति किम् ? अष्टानां कपालानां समाहारः-अष्टकपालम्, पात्रादित्वात्स्त्रीत्वाभावः । कपाल इति किम् ? अष्टपात्रं हविः ।। ७३ ।। न्या० स०--हवि० । प्रायोगिकस्य बहुसंख्यार्थाभिधायकस्याऽष्टन् इत्यनुकरणम्, तत: प्रायोगिकस्यैकसंख्यस्य शब्दस्याभिधायकमिति षष्ठयेकवचनम् । अनुक्रियमाणस्य 20 स्वरूपविनाशप्रसङ्गात् 'अनोऽस्य' [ २. १. १०८. ] इत्यकारलोपो न भवति । अष्टाकपालमिति अत्राष्टनो व्यञ्जनान्तत्वाव्यभिचाराद् दीर्घ परविधौ नलोपस्या (क्वचिदऽसत्त्वेऽपीति पाठः स च प्रकटार्थः) भावेऽपि दीर्घस्य स्वरधर्मत्वादकारस्योपान्त्यस्यापि स्वरापेक्षयान्त्यत्वाद्वा दीर्घोऽनेन ।। ३.२.७३ ।। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ७४-७५.] गवि युक्ते ॥ ३. २. ७४ ॥ अष्टन्शब्दस्य गव्युत्तरपदे युक्त ऽभिधेये दीर्घोऽन्तादेशो भवति । अष्टागवं शकटम्, अष्टौ गावो युक्ता अस्मिन्निति त्रिपदे बहुव्रीहौ कृते उत्तरपदे परे द्वयोद्विगुः 'गोस्तत्पुरुषात्' [७. ३. १०५.] इत्यः समासान्तः, तत्र दीर्घत्वेन युक्तार्थसंप्रत्ययाद्गतार्थत्वाद्युक्तशब्दस्य निवृत्तिः, अथवा-समाहार- 5 द्विगुः, तत्र साहचर्यादुपचारादष्टगवेन युक्त शकटमष्टागवमुच्यते, गवीति किम् ? अष्टतुरगो रथः । युक्त इति किम् ? अष्टगवम् ब्राह्मणधनम्, अष्टगुश्चैत्रः ।। ७४ ।। न्या० स०--गवि युक्त । अष्टौ गावो युक्ता अस्मिन् शकटे अष्टागवं शकटमिति उक्त ततश्च अन्यपदार्थे शकटेऽभिधेये किमिति समासः क्रियते यतोऽष्टौ गावो युक्ता इति 10 कथं न क्रियते यत इति कृतेऽपि युक्तोऽर्थो गम्यते। यतोऽष्टौ गावो युक्ताः कोऽर्थोऽष्टौ गावः संबद्धा इत्यर्थ इति युक्तोऽर्थोऽत्रापि गम्यते तत्कथमऽन्यपदार्थे क्रियते ? उच्यते, प्रत्यासत्तिन्यायात् यदा तैर्गोभिर्युक्त वाच्यं शकटं भवति तदाऽनेनाकार इष्यते। यतस्तैर्गोभिर्युक्त शकटमेवासन्नमस्तीति प्रत्यासत्तिः। तहि कथं गवीति किं अष्टतुरगो रथ इत्यत्र द्वयङ्गविकलत्वं व्यावृत्तेर्यतो युक्तोऽप्यर्थो नास्ति ? उच्यते, अष्टौ तुरगा अस्य15 रथस्येत्यत्र विद्यते षष्ठी सा च योज्ययोजकसंबन्धऽस्ति । ततश्च योज्यास्तुरगाः संबद्धाः कर्तव्याः केन ? योजकेन देवदत्तलक्षणेन परं सहसामर्थ्याद् रथेनैवैति युक्तोऽर्थोऽस्तीति न द्वयङ्गविकलत्वं व्यावृत्तेः । उपचारो ह्यनेकधाऽत प्राह साहचर्यादिति । अष्टतुरगो रथ इति अष्टानां तुरगाणां समाहारः पात्रादित्वात् अष्टतुरगमत्राऽस्ति अभ्रादित्वादः । इदं यदि न क्रियते तदा द्वयङ्गविकलता स्यात् । अष्टगवमिति अष्टानां गवां समाहारे 'गोस्तत्पुरुषात्'20 [७.३.१०५.] अट् समासान्तः ।। ३. २. ७४ ।। नाम्नि ॥ ३. २. ७५ ॥ अष्टन्शब्दस्योत्तरपदे परे नाम्नि संज्ञायां दीर्घोऽन्तादेशो भवति । अष्टौ पदान्यत्र अष्टापदः कैलाशः, अष्टापदं-सुवर्णम् अष्टावक्रो मुनिः, अष्टाविटपो नाम कश्चित् । नाम्नीति किम् ? अष्टदण्डः, अष्टगुण-25 मैश्वर्यम् ।। ७५ ।। ___ न्या० स०-नाम्नि। अष्टापदमिति अष्टसु लोहेषु पदं प्रतिष्ठा यस्य तत् ।। ३. २. ७५ ।। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ७६-७७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५८५ कोटरमिश्रकसिधकपुरगसारिकस्य वणे ॥ ३. २. ७६ ॥ कोटरादीनां कृतरणत्वे वनशब्दे उत्तरपदे दीर्घोऽन्तादेशो भवति 'नाम्नि' संज्ञायां विषये । कोटरावणम्, मिश्रकावणम्, सिध्रकावणम्, पुरगावणम्, सारिकावणम्, 'पूर्वपदस्थान्नाम्न्यगः' [२. ३. ६५.] इति गत्वे सिद्धे कृतणत्वस्य वनशब्दस्य निर्देशो नियमार्थः, तेन पूर्वपदस्थादिति 5 सूत्रेण वनशब्दस्य णत्वमाकारसंनियोगे एव भवति, ततश्च कुबेरवनम्, शतधारवनम् इत्यादौ संज्ञायामपि णत्वं न भवति ।। ७६ ।। न्या० स०-कोटर० । पूर्वपदस्थादिति अथ समासे कृते दीर्घ च नामत्वाद् वनशब्दस्य पूर्वपदस्थादित्येव णत्वं भविष्यति किमर्थं कृतणत्वस्य वनशब्दस्य निर्देश इत्याशङ्का । पुरगावणमिति पुरं गच्छतीति 'नाम्नो गमः' [ ५.१.१३१] इति ड: ।10 सारिकावरणमिति सारोऽस्त्येषां 'अतोऽनेक' [७.२.६] इति इक: कुबेरवनमिति । कुत्सितं कुष्ठित्वात् बेरं शरीरमऽस्य ।। ३. २. ७६. ।। अजनादीनां गिरौ ॥ ३. २. ७७ ॥ अञ्जनादीनां गिरावुत्तरपदे दीर्घोऽन्तादेशो भवति, नाम्नि । अञ्जनागिरिः, भाञ्जनागिरिः, किंशुकागिरिः, किंशुलकागिरिः, साल्वागिरिः,15 लोहितागिरिः, कुक्कुटागिरिः, खद् नागिरिः, नलागिरिः, पिङ्गलागिरिः । अञ्जनादीनामिति किम् ? कृष्णगिरिः, श्वेतगिरिः । नाम्नीत्येव ? अञ्जनस्य गिरिः-अजनगिरिः । अञ्जन, भाञ्जन, किंशुक, किंशुलक, साल्व, लोहित, कुक्कुट, खद् न, (खडून) नल, पिङ्गल इत्यञ्जनादिः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।। ७७ ।। 20 न्या० स०-अञ्जनादीनां० । अञ्जनागिरिरिति अञ्जनवृक्षस्य उपचाराद् गिरिरञ्जनागिरिः। भाञ्जनागिरिरिति भज्यतेऽनेन भजनः तत्र कुशलः कुशलेऽणि भाजनो राजा। साल्वागिरिरिति सल्यन्ते व्यवहारिभिरिति ‘सलेरिणद् वा' ५१० (उणादि) इति वे साल्वा जनपद:। खद्रूनागिरिरिति अश्नुते भावान् 'अशेडित्खः' ८७ (उणादि) खं दूनमेभिः ? खदूना वृक्षाः । नलागिरिरिति गल गन्धेऽच् । पिङ्गला-25 गिरिरिति 'पातोडोऽह्वावामः' [ ५.१.७६. ] इति ड: ।। ३. २. ७७ ।। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ७८-७९.] अनजिरादिबहुस्वरशरादीनां मतौ ॥ ३. २. ७८ ॥ अजिरादिवजितबहस्वराणां शरादीनां च मतौ प्रत्यये दीर्घोऽन्तादेशो भवति, नाम्नि । बहुस्वर,-उदुम्बरावती, मशकावती, वीरणावती, पुष्करावती, अमरावती, शरादि,-शरावती, वंशावती, शुचीमती, कुशावती, धूमावती, अहीवती, कपीवती, मुनीवती, मणीवती, वार्दावान्नाम गिरिः, 5 वेटावान्नाम गिरिः । शर, वंश, शुचि, कुश, धूम, अहि, कपि, मुनि, मणि, वार्द वेट इति शरादिः। बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । तेन ऋषीवती, मृगावती, पद्मावती, वातावती, भोगावतीत्यादि सिद्धम् । बहुस्वरशरादीनामिति किम् ? व्रीहिमती, इक्षुमती, द्रमती, मधुमती । बहुस्वरस्यानजिरादिविशेषणं किम् ? अजिरवती, खदिरवती, खपुरवती,10 स्थविरवती, पुलिनवती, मलयवती, हंसकारण्डववती, चक्रवाकवती, अलंकारवती, शशाङ्कवती । हिरण्यवती, अजिरादिराकृतिगणः । नाम्नीत्येव ? वलयवती कन्या, शरवती तूणा ।। ७८ ॥ न्या० स०-अनजिरा०। उदुम्बरावतीति उदुम्बराः सन्त्यस्यामित्यादिश्चातुरथिको नद्यां मतुः 'नाम्नि' [ २. १. ६५. ] इति मस्य वः । पुष्करावतीति पुष्करशब्दात्15 मत्वर्थवर्ज मतुः मत्वर्थे तु 'पुष्करादेर्दशे' [७. २. ७०.] इतीन् स्यात् । शुचीमती इत्यत्र शुचिरस्त्यस्यां नोादित्वाद् वत्वाभावः। वार्दावानिति वारं ददातीति 'पातो ड' [५. १. ७६. ] इति ड: वार्दा मेघास्ते सन्त्यत्र 'मध्वादे:' [ ६. २. ७३. ] इति मतुः । वेटावानिति वेटन्ति पक्षिभिरऽचि वेटा वृक्षास्ते सन्त्यत्र । मलयवतीति मलयस्य पर्वतस्य अदूरभवा 'नद्यां मतुः' [ ६. २. ६२. ] हंसकारण्डववतीति हंसश्च कारण्डवश्च हंसका-20 रण्डवावस्यां स्तः मतुः । यदा हंसकारण्डवतीति दृश्यते । तदा करण्ड : 'प्रज्ञादिभ्योऽण्' [७. २. १६५.] हंसस्य कारण्डः हंसकारण्डः । चक्रवाकवतीति चक्रस्येव वाको वाग्यस्य चक्रशब्देनोच्यते वा घन ॥ ३. २. ७८ ।। ऋषौ विश्वस्य मित् ॥ ३. २. ७६ ॥ विश्वशब्दस्य मित्त्रे उत्तरपदे, ऋषावभिधेये नाम्नि विषये,25 दीर्घोऽन्तादेशो भवति । विश्वामित्रो नामर्षिः। ऋषाविति किम् ? विश्वमित्रो माणवकः नाम्नीत्येव ? विश्व मित्रमस्य विश्वमित्रो मुनिः ।। ७६ ॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० ८०-८४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५८७ नरे ॥ ३.२.८० ॥ विश्वशब्दस्य नरशब्दे उत्तरपदे नाम्नि विषये दीर्घोऽन्तादेशो भवति । नर इति किम् ? विश्वसेनः । विश्व नरा अस्य विश्वानरो नाम कश्चित् । नाम्नीत्येव विश्वनरो राजा ।। ८० ।। वसुराटो ॥ ३.२. ८१ ॥ पृथग्योगान्नाम्नीति निवृत्तम्, विश्वशब्दस्य वसौ, राटि चोत्तरपदे दीर्घोऽन्तादेशो भवति । विश्व वस्वस्य विश्वावसुः, विश्वस्मिन् राजते इति विश्वाराट् ! राडिति विकृतनिर्देशादिह न भवति । विश्वराजौ, विश्वराजः ।। ८१ ॥ वलच्यपित्रादेः ॥ ३. २. ८२ ॥ वलच्प्रत्यये परे पित्रादिवर्जितानां स्वरान्तानां शब्दानां दीर्घोऽन्तादेशो भवति । प्रसुतिः सुरा साऽस्यास्तीत्यासुतीवलः, एवम् कृषीवलः, दन्तावलः, उत्सङ्गावलः, पुत्रावलः । अपित्रादेरिति किम् ? पितृवलः, मातृवलः, भ्रातृवलः, उत्साहवल: । चकारः किम् ? उत्तरपदे माभूत् कायवलम्, नागवलम् ।। ८२ ॥ न्या० स० - वलच्य० । श्रसवनमासुतिः 'समिरणासुग: ' [ ५. ३. ९३.] क्ति: प्रत्ययः । कृष्यादिभ्यो वलच् । चकारः किमिति * प्रत्ययाऽप्रत्यययोः इति न्यायस्तु कादाचित्क इत्याह- उत्तरेति । ३. २. ८२ ॥ 5 स्वामिचिह्नस्याविष्टाष्टपञ्चभिन्नच्छिन्नच्छिद्रसवस्वस्तिकस्य कर्णे ॥। ३. २. ८४ ॥ स्वामी चिन्यते येन तत्स्वामिचिह्नम्, तद्वाचिनो विष्टादिवर्जितस्य 10 15 चिते' कचि ॥ ३.२. ८३ ॥ चितिशब्दस्य कचि प्रत्यये परे दीर्घोऽन्तादेशो भवति । एका20 चितिरस्मिन् एकचितीकः, द्विचितीकः, त्रिचितीकः ।। ८३ ।। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ८४.] कर्णशब्दे उत्तरपदे परे दीर्घोऽन्तादेशो भवति । दात्रमिव दात्रम्, दात्रं चिह्न कर्णे यस्य स दात्रमिव वा कणौं यस्य स दात्राकर्णः पशुः, एवं शङ्ककर्णः, द्विगुणाकर्णः, द्वयगुलाकर्णः। स्वामिचिह्नस्येति किम् ? शोभनकर्णः । स्वामिग्रहणं किम् ? लम्बकर्णः अविद्धकर्णः, शिशुः । चिह्नग्रहणं किम् ? वाहनस्य कर्णः वाहनकर्णः विष्टादिवर्जनं किम् ? विष्टकर्णः, अष्टकर्णः, 5 पञ्चकर्णः, भिन्नकर्णः, छिन्नकर्णः, छिद्रकर्णः, स्रवकर्णः, स्वस्तिककर्णः । कर्ण इति किम् ? चक्रसक्थः ।। ८४ ।। न्या० स०--स्वामि०। चिह्न करोति णिज् ततः स्वामी चिह्नयते येन 'वर्षादयः क्लीबे' [५. ३. २६.] इत्यल् । तद्वाचिन इति कर्णस्य यथा स्वरूपेण ग्रहणं नैवं स्वामिचिह्नस्य । एतच्च विष्टादीनां चिह्नवाचिनां दीर्घप्रतिषधात् ज्ञायते ।10 स्वरूपग्रहणे हि विष्टादीनां प्रतिषेधो व्यर्थः स्यात् । द्विगुणाकर्ण इति द्विगुणं चिह्न कणे यस्य । द्वयगुलाकर्ण इति द्वे अङ गुले मानमस्य द्वे अङ गुली मानमस्येति वा वाक्ये तद्धितप्रत्यये विषयभूते 'संख्याव्ययादङ गुले:' [ ७. ३. १२४. ] इति डः । पश्चान्मात्र, 'द्विगो: संशये च' [७. १. १४४.] इति लुप् द्वयङ गुलं कर्णयोर्यस्य यद्वा द्वयोरङ गुल्यो: समाहारः ‘संख्याव्ययादङ गुलेर्डः' [७. ३. १२४.] द्व्यङ गुलं15 कणे यस्य । शोभनकर्ण इति शोभनत्वमनेकविधमिति तच्चिह्नमपि न भवति । लम्बकर्णत्वं त्वेकविधमिति चिह्न भवति परं न स्वामिनः इति परस्परं सादृश्यं नास्ति । वाहनकर्ण इति उह्यते तेन करणेऽनट् 'वाह्याद्वाहनस्य' [२. ३. ७२.] इति निर्देशाद् दीर्घः । यद्वा वहनमेव 'प्रज्ञादिभ्योऽण' [ ७. २. १६५. ] यदवा वाह्यते तदिति णिगन्तात् भुजिपत्यादित्वादनटि वाहनम् । विष्टकणं इत्यादि विष्टं प्रविष्टं20 व्याप्तं वा चिह्न कर्णे यस्य विशेविषेरशोटेश्च कर्मणि क्त विष्टाष्टशब्दौ । संख्यावचनो वाऽष्टशब्दः । एवं पञ्चशब्दोऽपि। भिदेश्छिदेश्च क्त .'रदादमूर्छ' [ ४. २. ६६. ] इति दतयोर्नत्वे छिन्नभिन्नौ छिदेः 'ऋज्यजि' ३८८ (उणादि) इति रे छिद्र, स्रवत्यस्मादिति 'निघृषि' ५११ (उणादि) इति किति वप्रत्यये स्र वः । स्वस्तिशब्दोऽव्ययं स्वस्ति कायति स्वस्तिकः । विष्टं कर्णे यस्य । अष्टं कर्णे यस्य । संख्यापक्षे तु अष्टौ25 कर्णेऽस्य । अष्टपञ्चशब्दौ चाऽत्र अष्टगुणे पञ्चगुणे च चिह्नविशेषे वर्त्तते । भिन्नौ कण्णौं यस्य । छिन्नौ कण्णौं यस्य, भेदच्छेदौ हि स्वामिविशेषज्ञापनाय कर्णयोः क्रियेते। एवं छिद्रमपि । स्र वाकारं चिह्न स्रवेणोच्यते । स्वस्तिकः साक्षादेव चिह्न तत्कणे यस्य । चक्रसक्थ इति चक्र सक्थनि अस्य 'सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्ग ट:' [७. ३. १२६. ] । ३. २.८४ ।। 30 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ८५-८६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५८६ . गतिकारकस्य नहितिवृषिष्यधिरुचिसहितनौ क्वौ ॥३. २. ८५॥ गतिसंज्ञस्य कारकवाचिनश्च नह्यादिषु क्विबन्तेषूत्तरपदेषु परेषु दीर्घोऽन्तादेशो भवति । उपनह्यति उपनद्यते वा उपानत्. परीणत्, वृत्,नीवृत्, उपावृत्, वृष,-प्रावृट्, परीवृट, व्यध्,-श्वावित्, मर्मावित्, रुच्,-नीरुक्, 5 अतीरुक्, अभीरुक्, सह-तुरासट, ऋतीषट्, भीरुष्ठानादित्वात् षत्वम्, जलासट, तन्,-परीतत्, ‘गमां क्वौ' [४. २. ५८.] इति नलोपः । गतिकारकस्येति किम् ? पटुरुक्, तिग्मरुक्, तीव्ररुक्, श्व तरुक्, कमलरुक् केचित्तु रुजाविच्छन्ति न रुचौ,-तेन रुजरुच्योर्मतभेदेन विकल्पः सिद्धः, रुज्,-निरुक्, नीरुक्, रुच्,-अतिरुक्, अतीरुक् । क्वाविति किम् ? उपनद्धम्, विततम् । इह क्विग्रह-10 णादन्यत्र धातुग्रहणे तदादिविधिर्लभ्यते, तेनायस्कृतम् अयस्कार इत्यादौ सकारः सिद्धो भवति, अन्यथा ह्ययस्कृदित्यत्रैव स्यात् ।। ८५ ।। न्या० स०--गतिकारक०। प्रवर्षन्ति मेघा अस्यां अनटबाधकः 'क्रुत्संपदा' [५. ३. ११४.] इति क्विप् । तुरासडिति तुरेर्जुहोत्यादिपाठात् तुतोत्ति नाम्युपान्त्य' [५. १. ५४.] इति कः । तुरं सहति तुरासट् । तुरासाडिति तु छान्दसः । ऋतीषडिति15 अरणमृतिः पीडा तां सहते। पटुरुगित्यादि प्रत्यासत्त्या रुच्यादिक्रियापेक्षं कारकत्वं गृह्यते तेन पटवी तिग्मा तीव्रा श्वेता कमलेव रुग् यस्येत्येवं वर्ततइत्यादिक्रियापेक्षे कारकत्वे न भवति ।। ३.२.८५ ।। घन्युपसर्गस्य बहुलम् ॥ ३. २. ८६ ॥ घबन्ते उत्तरपदे परे उपसर्गस्य बहुलं दीर्घोऽन्तादेशो भवति । नीक्लेदः,20 नीमेदः, नीमार्गः, नोवारः, प्रावारः, नीशारः, क्वचिन्न भवति-निषादः, विषदनं विषादः, प्रतपनं प्रतापः, प्रभावः, प्रभारः, प्रहारः, क्वचिद्विकल्पःप्रतीवेशः, प्रतिवेशः, प्रतीपादः २, प्रतीबोधः २, परीणामः २, प्रतीहारः २, प्रतीकारः २, अतीसारः २, वीसर्पः २, क्वचिद्विषयभेदेन-प्रासादो गृहम्, प्रसादोऽन्यः, प्राकारो वप्रः, प्रकारोऽन्यः, अपामार्ग औषधिः, अपमार्गोऽन्यः,25 नीहारो हिमम्, निहारोऽन्यः, परीरोधो मृगावरोधः, परिरोधोऽन्यः, परीहारो देशानुग्रहः, परिहारोऽन्यः, वीतंसः-पक्षिबन्धनम्, वितंसोऽन्यः। उपसर्गस्येति Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ८७-८८.] किम् ? चन्दनसारः, खदिरसारः, मार्गमतिक्रान्तः अतिमार्गः। घनीति किम् ? अवसायः अवहारः णप्रत्ययोऽयम् । बहुलवचनादनुपसर्गस्यापि अघञ्यपि च भवति दक्षिणापथः, उत्तरापथः क्वचिद्विकल्पः अन्धतमः, अन्धातमः, अन्धतमसम्, अन्धातमसम् । क्वचिद्विषयभेदेन अधीदन्तः, अधीकर्ण , अधीकण्ठः, अधीपादः-एते आधिक्ये, अन्यत्र अधिदन्त इत्यादि भवति । 5 क्वचिदनुत्तरपदेऽपि विकल्पः पूरुषः, पुरुषः, नारकः, नरकः, सादनम्, सदनम्, अतिशायनम्, अतिशयनम् । काशशब्दे च घन्ते विकल्पः-नीकाशः, निकाशः, प्रतीकाशः, प्रतिकाशः, अजन्ते तूत्तरो विधिः ।। ८६ ।। न्या० स०--घञ्युप०। देशानुग्रहो हिण्डः। उत्तरपदाऽधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणमिति ज्ञापितेऽपि धातोविधीयमानस्य घत्र उपसर्गपरत्वासंभवेन 10 सामर्थ्यात् घान्तस्योत्तरपदस्य ग्रहणं न्याय्यम् । वीतंस इति भूषतसु० नोन्ते वितस्यते घ। अन्धातमसमिति अमत्यन्येनाकृष्यमाणः 'स्कन्द्यमिभ्यां धः' २५१ (उणादि) अन्धं करोति णिज । 'अन्धरण दृष्टयपसंहारे' अस्माद् वाऽच । अन्धं च तत्तमश्च समवान्धात्तमसोऽत् समासान्तः । काशशब्दे चेति । बहुलवचनादेवेति यदि घनि विकल्पः तर्हि उत्तरो नित्यविधिः क्व स्यादित्याह-अजन्ते विति ।। ३. २.८६ ।। 15 नामिनः काशे ॥ ३. २. ८७ ॥ नाम्यन्तस्योपसर्गस्य 'अच्' [५. १. ४६.] इत्यजन्ते काशशब्दे उत्तरपदे परे दीर्घोऽन्तादेशो भवति । निकाशते निकाश्यत इति वा नीकाशः, विकाशते इति वीकाशः, अनूकाशः, प्रतीकाशः। बहुलाधिकारान्निकाश इत्यपि । नामिन इति किम् ? प्रकाशते इति प्रकाशः ।। ८७ ।। 20 दस्ति ॥ ३. २. ८८ ॥ दा इत्येतस्य यस्तकारादिरादेशस्तस्मिन्परे नाम्यन्तस्योपसर्गस्य दीर्घोऽन्तादेशो भवति । नीत्तम्, वीत्तम्, परीत्तम्, परीत्तवान्, परोत्तिमम्, प्रणीत्तिमम् । द इति किम् ? वितीर्णम् । तीति किम् ? सुदत्तम् । नामिन इत्येव ? प्रत्तम् अवत्तम् ।। ८८ ।। 25 न्या० स०--दस्ति । निदीयते स्म दासंज्ञानां चतुर्णामन्यतमात् क्त कृते Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ८६-६१.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६१ ददित्यस्यापवाद: 'स्वरादुपसर्गात्' [४. ४. ६.] इति दा इत्यस्य त् इत्यादेशः । दागस्तु निदातुमारब्धं 'प्रारम्भे' [ ५. १. १०.] क्तः । 'निविस्वन्ववात्' [४. ४. ८. ] विकल्पेन त् ॥ ३. २. ८८ ।। अपील्वादेवहे ॥ ३. २. ८६ ॥ पील्वादिजितस्य नाम्यन्तस्य वहे उत्तरपदे परे दीर्घोऽन्तादेशो भवति । 5 वहतीति वहम्, 'अच्' [५. १. ४६.] इत्यच् । ऋषीणां वहम्-ऋषीवहम्, मुनीवहम्, कपीवहम्, एवं नामानि नगराणि । घान्ते तु वहशब्दे ऋषीवहः, मुनीवहः, कपीवहः । अपील्वादेरिति किम् ? पीलुवहम्, दारुवहम्, चारुवहम् । नामिन इत्येव ? पिण्डवहम्, काष्ठवहम् ।। ८६ ।। न्या० स०--अपील्वा०। अत्र वहशब्दोऽजन्तो घान्तश्च गृह्यते लिङ्गाच्च10 विशेषो वाच्यः ।। ३. २.८६ ।। शुनः ॥ ३. २. ६० ॥ श्वन् इत्येतस्योत्तरपदे परे दीर्घोऽन्तादेशो भवति । शुनो दन्तः श्वादन्तः एवं श्वादंष्ट्रा, श्वाकर्णः, श्वाकर्दः । श्वाकूर्दः, श्वावराहम् । बहुलाधिकारात्क्वचिद्विकल्पः श्वापुच्छम्, श्वपुच्छम् । क्वचिद्विषयान्तरे-शुनः15 पदमिव पदमस्य श्वापदम् व्याघ्रादिः, शुनः पदं-श्वपदम् । क्वचिन्न भवतिश्वफल्कः श्वमुखः ।। ६० ।। न्या० स०--शुनः। श्वापदम् इत्यत्र बाहुलकानपुसकत्वमऽन्यथा देहिनामत्वात् पुस्त्वं स्यात् ।। ३. २. ६० ।। एकादश षोडश षोडन् षोढा षड्ढा ॥ ३. २. ६१ ॥ 20 एकादयः शब्दा दशादिषु उत्तरपदादिषु कृतदीर्घत्वादयो निपात्यन्ते । एकोत्तरा दश, एकं च दश च वा एकादश, अत्रकस्य दशशब्दे उत्तरपदे दीर्घः, षडुत्तरा दश, षट् च दश च वा षोडश,-अत्र षषोऽन्तस्योत्वम् उत्तरपददकारस्य च डकारः, षड् दन्ता अस्य षोडन्, अत्र दन्तशब्दस्य दत्रादेशे कृते दस्य डत्वं च षषोऽन्तस्योत्वम्, एवं षोडन्तौ, षोडन्तः, स्त्रियां तु षोडती, अन्ये तु दत्रादेशे25 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते ५६२ ] [पा० २. सू० ε२. ] कृते षोडन्निति शब्दान्तरं नकारान्तं राजन् शब्दवन्निपातयन्ति । ततश्च षोडानमिच्छतीति क्यनि, नकारलोपे ईत्वे च षोडीयतीति सिद्ध्यतीति मन्यन्ते । षड्भिः प्रकारैः षोढा, षड्ढा, अत्र धाप्रत्यये षषोऽन्तस्य वोत्वं धकारस्य तु नित्यं ढत्वम् । यत्तु षड्धेति रूपं न तत् धाप्रत्यये किं तु षड् दधाति धयति वेति 'प्रातो डोऽह्वावाम:' [५. १७६.] इति डे कृते स्त्रियामापि च 5 भवति, निपातनस्य चेष्टविषयत्वादत्रोत्वढत्वे न भवतः ।। ६१ ।। न्या० स० - एकादश० । उत्तरपदादिष्विति । प्रदिपदाद्धाप्रभृतिप्रत्ययानां ग्रहः । एकोत्तरा दशेति श्रत्रोत्तरशब्दोऽधिकवचनः । नकारान्तमिति स्वमते तु तकारान्तो निपातः ।। ३. २. ६१ ।। दिवत्र्यष्टानां द्वाश्रयोऽष्टा प्राक् शतादनशीतिबहु- 10 व्रीहौ ॥। ३. २. ६२ ॥ पञ्चदश । द्विष्टिन् इत्येतेषां यथासंख्यं द्वा त्रयस् प्रष्टा इत्येते प्रदेशा प्राक् शतात् संख्यायामुत्तरपदे भवन्ति, 'अनशीतिबहुव्रीहौ' प्रशीति बहुव्रीहिसमासविषयं चोत्तरपदं वर्जयित्वा । द्वाभ्यामधिका दश द्वौ च दश चेति वा द्वादश, एवं द्वाविंशतिः, द्वात्रिंशत्, त्रयोदश, त्रयोविंशतिः, त्रयस्त्रिंशत्, अष्टादश, 15 अष्टाविंशतिः, अष्टात्रिंशत् । द्वित्र्यष्टानामिति किम् ? प्राक्शतादिति किम् ? द्विशतम्, त्रिशतम्, अष्टशतम्, द्विसहस्रम् । त्रिसहस्रम् अष्टसहस्रम्, अनशीतिबहुव्रीहाविति किम् ? द्वयशीतिः, त्र्यशीतिः, द्वौ वा यो वा द्वित्राः, त्रिचतुराः, अष्टनवाः, द्विर्दश द्विदशा, एवं त्रिदशाः । प्राक्शतादित्यवधेः संख्यापरिग्रहादिह न भवति, द्वैमातुरः, त्रैमातुरः, 20 अष्टमातुरः, द्विमुनि व्याकरणस्य, त्रिमुनि व्याकरणस्य ।। ६२ ।। न्या० स०-- द्वित्र्यष्टानां । संख्यायामुत्तरपदे इति पूर्वपदस्य साक्षादेव निर्देशात् प्राक् शतादित्यवधेरनशीतिपर्युदासादशीतेः संख्यायाः प्रतिषेधात् संख्यारूपस्यैवोत्तरपदस्य ग्रहणम् । विंशतिरिति द्वौ दशतौ मानमस्या: 'विंशत्यादय:' [ ६.४.१७३.] देशदर्थे विम्भावः शतिश्च प्रत्ययः ।। ३. २. ६२ ।। 25 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा०-२. सू० ६३-६४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६३ चत्वारिंशदादौ वा ॥ ३. २. ६३ ॥ द्वित्र्यष्टानां प्राक्शताच्चत्वारिंशदादौ संख्यायामुत्तरपदे यथासंख्यं द्वा त्रयस् अष्टा इत्येते आदेशा वा भवन्ति, अनशीतिबहुव्रीहौ। द्वाभ्यामधिका द्वौ च चत्वारिंशच्चेति वा द्वाचत्वारिंशत्, द्विचत्वारिंशत्, त्रयश्चत्वारिंशत्, त्रिचत्वारिंशत्, अष्टाचत्वारिंशत्, अष्टचत्वारिंशत्, द्वापञ्चाशत्, द्विपञ्चाशत्, 5 त्रयःपञ्चाशत्, त्रिपञ्चाशत्, अष्टापञ्चाशत्, अष्टपञ्चाशत्, द्वाषष्टिः, द्विषष्टिः, त्रयःषष्टिः, त्रिषष्टिः, अष्टाषष्टिः, अष्टषष्टिः, द्वासप्ततिः, द्विसप्ततिः, त्रयःसप्ततिः, त्रिसप्ततिः, अष्टासप्ततिः, अष्टसप्ततिः, द्वानवतिः, द्विनवतिः, त्रयोनवतिः, त्रिनवतिः, अष्टानवतिः, अष्टनवतिः। अनशीतिबहुव्रीहावित्येव ? द्वयशीतिः, त्र्यशीतिः, अष्टाशीतिः, द्विश्चत्वारिंशत्, द्विचत्वारिंशाः, एवं10 त्रिचत्वारिंशाः अष्टौ चत्वारिंशतोऽस्मिन् अष्टचत्वारिंशत् । पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पार्थमिदम् ।। ६३ ।। हृदयस्य हल्लासलेखाण्ये ॥ ३. २. ६४ ॥ हृदयशब्दस्य लासलेखयोरुत्तरपदयोरणि ये च प्रत्यये परे हृदित्ययमादेशो भवति । लास,-हृदयस्य लासो हृल्लासः, लेख,-हृदयं लिखतीति15 हृल्लेखः, अण संनिधानाल्लेखशब्दोऽणन्तो गृह्यते, तेन घबन्ते न भवति, हृदयस्य लेखः हृदयलेखः, अण, हृदयस्येदं हार्दम्,-सौहार्दम्, दौहार्दम्, य,हृदयस्य प्रियः हृद्यः, हृदयस्य बन्धनो मन्त्रः हृद्यः, हृदये भवं हृदयाय हितम् हृद्यम् । अणीत्येव सिद्धे लेखग्रहणं ज्ञापकम् 'उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणं न भवति । 'खित्यनव्यय-[३. २. १११.] इत्यादौ तु असंभवात्त-20 दन्तग्रहणम्-हृदयशब्दसमानार्थेन हृच्छब्देनैव सिद्धे हृदादेश विधानं लासादिषु हृदयशब्दप्रयोगनिवृत्त्यर्थम्, अन्यत्र तूभयं प्रयुज्यते, सौहार्यम्, सौहृदय्यम्, हृच्छोकः, हृदयशोकः, हृद्रोगः, हृदयरोगः, हृच्छकुः, हृदयशङ्कुः, हृच्छू लम्, हृदयशूलम्, हृच्छल्यम्, हृदयशल्यम्, हृद्दाहः, हृदयदाहः, हृद्द :खम्, हृदयदुःखम्, हृत्कमलम्, हृदयकमलम्, हृत्पुण्डरीकम्, हृदयपुण्डरीकम् इत्यादि ।। ६४ ।। 25 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ६५-६६.] न्या० स०-हृदयस्य०। सौहाईमिति । सुष्ठु हृदयं यस्य दुष्टं हृदयं यस्य स ' सुहृदयः, दुहृदयः 'तस्येदम्' [ ६. ३. १६०. ] इत्यण । हृद्भगसिन्धोरुभयपदवृद्धिः । सुहृदयस्य भाव इति वाक्ये 'युवादेरण' [ ७. १. ६७. ] वा। निद्दिश्यमानत्वात् हृदयशब्दस्यैवादेशः। प्रथमवाक्यद्वये 'हृद्यपद्य' इति यः । भवार्थे दिगादित्वात् यः । हितार्थे तु 'प्राण्यङ्ग' [७. १. ३७.] इति यः। सौहार्य मिति 'पतिराजान्त' [७. १. ६०.] 5 इति टयण ।। ३. २. ६४ ॥ पदः पादस्याज्यातिगोपहते ॥ ३. २. ६५ ॥ पादशब्दस्याज्यादिषूत्तरपदेषु पद इत्ययमादेशो भवति । पादाभ्यामजति अतति चेति औरणादिके इणि-पदाजिः, पदातिः, अत एव निर्देशात् अजेर्वी न भवति । पादाभ्यां गच्छति-पदगः, 'नाम्नो गमः'-[५. १. १३१.] इत्यादिना10 डः, पादाभ्यामुपहतः, पदोपहतः,। पादशब्दसमानार्थः पदशब्दोऽस्ति आज्यादिषु तु पादशब्दप्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् । कथं दिग्धश्चासौ पादश्च दिग्धपादः, तेनोपहतः दिग्धपादोपहतः-उत्तरपदसंनिधापितेन पूर्वपदेन पादशब्दो विशेष्यते, न चात्र पादशब्दः पूर्वपदमपि तु दिग्धपादः, तेनात्र न भवति ।। ६५ ॥ 15 हिमहतिकाषिये पद् ॥ ३. २. ६६ ॥ हिमादिषूत्तरपदेषु पादसंबन्धिनि ये च प्रत्यये पादशब्दस्य पदित्ययमादेशो भवति। पादयोहिम पद्धिमम्, पादाभ्यां हतिः पद्धतिः, पादौ कषतीत्येवंशीलः, पुनः पुनः पादौ कषति, पादाभ्यां साधु कषतीति वा पत्काषी, परमश्चासौ पत्काषी च परमपत्काषी। यदा च परमौ च तौ पादौ20 च परमपादौ तत्कषणशीलादिविवक्ष्यते तदा पादशब्दस्य पूर्वपदत्वाभावात् परमपादकाषीत्येव भवति, पादौ विध्यन्ति पद्याः-शर्कराः, पादयोर्भवाः, पद्याःपांसवः, पादाभ्यां हितं पद्यं-घृतम् । कथं पादार्थमुदकं पाद्यम् ? 'पाद्यार्थ्य' [७. १. २३] इति निपातनात् । पादशब्दसंबन्धिनि य इति किम् ? द्विगु समाससंबन्धिनि माभूत्, द्वाभ्यां पादाभ्यां क्रीतं द्विपाद्यम्, त्रिपाद्यम्, एवं25 त्रिपाद्यम्, अध्यर्धपाद्यम्, 'पणपादमाषाद्यः' [६. ४. १४८.] इति यः । यद्वा ग्राज्यादिषु करणभावः प्राण्यङ्गस्यैवेति पूर्वत्र पादशब्दः प्राण्यङ्गवचनः स एव Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ६७.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६५ चेहानुवर्तत इति परिमाणार्थस्य न भवति । अन्ये तु गोपहतयोरपीच्छन्ति, पादाभ्यां गच्छतीति-पद्गः, पादाभ्यामुपहतः पदुपहतः, कथं हस्तिपादस्यापत्यं हास्तिपद इत्यत्र अपत्याणि पद्भावः । 'कौपिजलहास्तिपदादण' [६. ३. १७०.] इति निर्देशाद्भविष्यति, पादाभ्यां चरति पदिक इति तु 'पदिकः' [६. ४. १३.] इति निपातनात् ।। ६६ ।। न्या० स०--हिमहति०। पादसंबन्धिनि ये चेति प्रत्यासत्त्या आवृत्त्या वा पादस्य यो यः प्रत्ययस्तस्मिन् न तु समाससंबन्धिनीत्यर्थः। 'विध्यत्यनन्येन' [७.१.८.] 'दिगादिदहाशाद्यः' [ ६. ३. १२४. ] 'प्राण्यङ्गरथखल' [ ७. १. ३७. ] इत्यादिना पद्याः शर्करा इत्यादिषु त्रिषु उदाहरणेषु यथाक्रम ज्ञातव्यानि । निपातनादिति अयमर्थः यथा 'पाद्यार्थे' [७. १. २३.] इति सूत्रनिपातनात् प्रत्ययोऽनुक्तोऽप्यानीयते तथा10 पद्भावाभावोऽपि निपात्यत इति । समाससंबन्धिनीति अयमर्थः न हि पादशब्दात् केवलादेव यप्रत्ययो विधीयते किंतु पादान्ताद् द्विगोः। ततश्च 'प्रत्ययः प्रकृत्यादे:' [७. ४. ११५.] इति यस्मात् प्रत्ययो विधीयते, तदादेरेव ग्राहको न, तदवयवस्येति नाऽयं पादसंबन्धी य: किन्तु द्विगोरिति न भवति । पणपादमाषाद्य इति अत्र सूत्रे पणमाषसाहचर्यात् पादशब्दः परिमारणार्थ एव गृह्यते न प्राण्यङ्गवचन इति । आज्यादिष्विति 15 यत आज्यादयः क्रियावचनाः । प्राजिशब्दो हि युद्धक्रियावचनः उपहतशब्दश्च हननक्रियावचनः, तत्र च करणभावः प्राण्यङ्गस्यैव, न परिमारणार्थस्य पादशब्दस्य चतुर्भागार्थस्य । अपत्यारणीति अत एव निर्देशाद् 'अत इन्' [६. १. ३१.] इतीचं बाधित्वा 'ङसोऽपत्ये' [६. १. २८.] इत्यण प्रत्ययो भवति ।। ३. २. ६६ ।। 20 ऋचः शसि ॥ ३. २. १७ ॥ ऋचः संबन्धिनः पादस्य शकारादौ शस्प्रत्यये पदित्ययमादेशो भवति । पादं पादं गायत्र्याः शंसति, पच्छां गायत्रीं शंसति, वाक्यगम्यस्य गायत्र्याः पादसंबन्धस्य वृत्तौ निवृत्तत्वात् स्वाभाविकं शंसनक्रियापेक्षं कर्मत्वं भवति, ऋच इति किम् ? पादं पादं कार्षापणस्य ददाति पादशः कार्षापणं ददाति, एवं पादशः श्लोकं व्याचष्टे । शसो द्विःशकारपाठात् विभक्तिशसि न भवति,25 ऋचः पादान् पश्य ।। ६७ ।। न्या० स०--ऋचः शसि । ऋचः पादो नामेयत्तावच्छिन्नोऽक्षरपिण्ड इति नात्र प्राण्यङ्गार्थस्य पादशब्दस्य संभव इति सामान्येन न ग्रहणम् । वाक्यगम्यस्येति ननु चेह पादं गायत्र्याः शंसतीति गायत्र्याः पादशब्देन संबन्धाद् वाक्यवद्वृत्तावपि षष्ठया Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ६८ - १०१.] भाव्यमिति कथं गायत्रीमित्यत्र द्वितीयेत्याशङ्का । शंसनक्रियापेक्षमिति वाक्ये हि पादं पादं गायत्र्याः शंसतीति गायत्र्याः पादशब्देन संबन्धो यः स पच्छ इति वृत्तौ निवर्त्तते । केवलं पच्छ इति शंसनक्रियाविशेषणत्वेनैवाऽवतिष्ठते श्रतस्तत्र षष्ठी न भवति । तदभावेऽपि कथं द्वितीया ? इत्याह-शंसनेत्यादि । ३. २. ९७ ।। ५६६ ] 5 शब्द निष्कघोषमिश्र वा ॥ ३.२.६८ ॥ शब्दादिषूत्तरपदेषु पादस्य पदित्ययमादेशो वा भवति । पादयोः शब्दः पच्छब्दः, पादशब्दः, एवं पन्निष्कः, पादनिष्कः, पद्घोषः पादघोषः पादाभ्यां मिश्र: पन्मिश्रः, पादमिश्रः ।। ६८ ।। नस् नासिकायास्त क्ष दे ॥ ३.२. ६६ ॥ नासिकाशब्दस्य तस्प्रत्यये क्षुद्रशब्दे चोत्तरपदे परे नसित्ययमादेशो 10 भवति । नासिकया नासिकायां वा नस्तः, नासिकायां नासिकया वा क्षुद्रः नःक्षुद्रः ।। ६६ ।। ये वर्णे ।। ३. २. १०० ॥ नासिकाशब्दस्य यप्रत्यये वरर्णादन्यस्मिन्नभिधेये नसत्त्ययमादेशो भवति । नासिकायै हितं तत्र भवं वा नस्यम् य इति किम् ? नासिक्यं 15 नगरम्, चातुरर्थिकोऽयं ञ्यः । निरनुबन्धग्रहणे च न सानुबन्धस्य ग्रहणं भवति । अव इति किम् ? नासिक्यो वर्णः ।। १०० ।। शिरसः शीर्षन् ॥ ३. २. १०१ ॥ शिरस्शब्दस्य शीर्षन्नित्ययमादेशो भवति ये प्रत्यये परे । शिरसि भवः शीर्षण्यः स्वरः, एवं शीर्षण्यो व्ररणः, शिरसे हितं शीर्षण्यं तैलम् य इत्येव ? 20 शिरस्तः, सशिरस्कः, निरनुबन्धग्रहणे च न सानुबन्धस्य ग्रहणं तेनेहापि न भवति । शिर इच्छति शिरस्यति, तथा हस्तिनः शिर इव शिरो यस्य ( स ) हस्तिशिराः, तस्यापत्यं स्त्री बाह्वादित्वादित्रि ' शीर्षः स्वरे तद्धिते' [३. २. १०३.] इति शिरसः शोर्षादेशे 'अनार्षे वृद्धे' - [ २. ४. ७८.] Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० १०२ - १०४.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६७ इत्यादिना चेञ: ष्यादेशे हास्तिशीर्ष्या, एवं पैलुशीर्ष्या । अत्र ष्यशीर्षादेशयोः स्थान्विद्भावात् शीर्षन्नादेशः स्यात् । शिरस इति चादेशेन संबध्यते न प्रत्ययेन तेन हास्तिशीषिरित्यादौ समाससंबन्धिन्यपि तद्धिते उत्तरसूत्रेण शीर्षादेशो भवति ।। १०१ ।। न्या० स० -- शिरसः ० । स्थानिवद्भावादिति इञ् प्रत्ययस्तदादेशोऽपि प्रत्यय 5 इत्येवंरूपं स्थानित्वं दृश्यं न त्वित्रः स्वरूपेण तस्येवरूपत्वात् । शीर्षादेशस्य तु स्वरूपेण वर्णसमुदायस्य वर्णविधित्वाभावात् ।। ३. २. १०१ ।। केशे वा ॥ ३.२. १०२ ॥ शिरसः केशविषये यप्रत्यये परे शीर्षन्नादेशो वा भवति । शिरसि भवाः शीर्षण्याः केशाः, शिरस्याः केशाः केचित्तु इल्वला मृगशीर्षस्य 10 शिरस्यास्तारकाः स्मृताः इति प्रयोगदर्शनात्, केशादन्यत्रापि विकल्पमिच्छन्ति, शाखादियप्रत्यये च शीर्षन्निति नेच्छन्त्येव । शिरसस्तुल्यः शिरस्यः, शाखादित्वाद्यः ।। १०२ ।। शीर्षः स्वरे तद्धिते ॥ ३. २. १०३ ॥ शिरस् शब्दस्य स्वरादौ तद्धिते परे शीर्ष इत्ययमादेशो भवति 115 हस्तिशिरसोऽपत्य हास्तिशीर्षिः, एवं स्थौलशीर्षिः, पैलुशीर्षिः, मृगशिरसा चन्द्रयुक्तेन युक्ता मार्गशीर्षी पौर्णमासी, स्थूलशिरस इदं स्थौलशीर्षम्, शिरसि कृतं शैर्षम्, शिरसा तरति शीर्षिकः । स्वर इति किम् ? शिरस्कल्पः । तद्धित इति किम् ? शिरसा, स्थूलशिरसमाचष्टे स्थूलशिरयति । कथमत्वला मृगशीर्षस्येति ? शीर्षशब्दः प्रकृत्यन्तरमस्ति । शीर्षच्छेद्यं परिच्छिद्येति, - अनेनैव च सिद्धे उक्तविषये शिरसः प्रयोगनिवृत्यर्थं वचनम् ।। १०३ ।। -20 न्या० स० -- शीर्षः स्वरे० । शीर्षच्छेद्यमिति शीर्षच्छेदमर्हति 'शीर्षच्छेदाद्यो वा' [ ६. ४. १८४. ] यप्रत्ययः ।। ३ २ १०३ ।। उदकस्योद' पेषंधिवासवाहने । ३. २. १०४ ॥ उदकशब्दस्य पेषमादिषूत्तरपदेषु उद इत्ययमादेशो भवति । उदकेन 25 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ], बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० २. सू० १०५-१०७.] पिनष्टि उदपेषं पिनष्टि तगरम्, उदकं धीयतेऽस्मिन्निति उदधिः-घटः, वासउदकस्य वासः उदवासः, एवम्-उदवाहनः । अनामार्थं वचनम्, नाम्न्युत्तरेणैव सिद्धम् ।। १०४ ।। न्या० स०--उदक० । उदवाहन इति उदकं वाहनमस्येति कार्यम् ।।३.२.१०४॥ वैकव्यञ्जने पूर्यं ॥ ३. २. १०५॥ उदकशब्दस्य पूरयितव्यवाचिन्येकव्यञ्जनेऽसंयुक्तव्यञ्जनादावुत्तरपदे उदादेशो वा भवति । उदकुम्भः, उदककुम्भः, उदघटः, उदकघटः, उदपात्रम्, उदकपात्रम् । व्यञ्जन इति किम् ? उदकामत्रम् । एकेति किम् ? उदकस्थालम् । पूर्य इति किम् ? उदकपर्वतः, उदकदेशः ।। १०५ ।। न्या० स०-वैकव्यञ्जने। उदकादिना द्रव्येण पूरयितव्यं घटादि पूर्य 10 तत्रोत्तरपदे इति वैयधिकरण्येन संबध्यते । पूर्ये यदुत्तरपदं वर्तते तस्मिन्निति ।।३.२.१०५।। मन्थोदनसक्तुबिन्दुवज्रभारहारवीवधगाहे वा ॥३. २. १०६॥ मन्थादिषुत्तरपदेषदकशब्दस्योदादेशो वा भवति । उदमन्थः उदकमन्थः, उदौदनः, उदकौदनः, उदसक्तुः, उदकसक्तुः, उदबिन्दुः, उदकबिन्दुः, उदवज्रः,15 उदकवज्रः, उदभारः, उदकभारः, उदहारः, उदकहारः, उदवीवधः, उदकवीवधः, उदगाहः, उदकगाहः, अपूर्यार्थो यत्नः ।। १०६ ।। न्या० स०–मन्थोदन। उदमन्थ इति उदकेन मथ्यते कर्मणि घत्रि 'कारक कृता' [ ३. १. ६८.] इति समासः । उदौदन इति उदकेनोपसिक्त प्रोदनः, 'मयूरव्यंसक' [ ३. १. ११६. ] इति समासः । उपसिक्तक्रियायाश्च वृत्तावन्तर्भावादुदकोदनयो:20 सामर्थ्यम् । उदकवीवध इति वीवधशब्दोऽव्युत्पन्नः पथि पर्याहारे च वर्तते । 'हनो वा वध् च' [ ५. ३. ४६. ] इत्यऽलि वधादेशे बहुव्रीही बाहुलकाद् दीर्घत्वे वा वीवधः । ३. २. १०६ ॥ नाम्न्युत्तरपदस्य च ॥ ३. २. १०७ ॥ उदकशब्दस्य पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च नाम्नि संज्ञायां विषये उद इत्यय-25 Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० १०८ - ११०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ५६६ मादेशो भवति । उदमेघो नाम यस्यौदमेघिः पुत्रः, उदवाहो नाम यस्यौदवाहिः पुत्रः, उदपानम् निपानम् । उदधिः समुद्रः, उत्तरपदस्य, लवणोदः, कालोदः, क्षीरोदः, एवंनामानः समुद्राः, लोहितोदा, क्षीरोदा नाम नदी, अच्छोदम्, सितोदम्, अरुणोदम्, लोहितोदम्, एवंनामानि सरांसि ।। १०७ ।। न्या० स० -- नाम्न्युत्तर० । उत्तरपदाधिकारात् पूर्वपदस्यैव स्यादित्युत्तरपदस्ये- 5 त्युच्यते । चकाराभावे च पूर्वपदस्य न स्यादिति चकारः ।। ३. २. १०७ ।। ते लुग्वा ॥ ३.२.१०८ ॥ नामविषये ये पूर्वोत्तरपदे ते लुग्वा भवतः । देवदत्तः, देवः, दत्तः, सत्यभामा, सत्या, भामा - शब्द साम्येऽपि प्रकरणादेरर्थविशेषनिश्चयः ।। १०८ ।। न्या० स० -- ते लुग्वा । ननु पूर्वपदस्योत्तरपदस्य वा लोपे यः समुदायमनु- 10 वर्त्तते देवादिशब्दः स देवदत्ताद्यर्थेन च त्रिदशार्थेन च समान इति कथं निश्चयो भवति अयं देवदत्तार्थ एव न तु त्रिदशाद्यर्थ इत्याह- शब्देत्यादि । शब्दानां भिन्नार्थानां साम्येऽपि तुल्यरूपत्वेऽपि ।। ३. २. १०८ ।। द्वयन्तरनवर्णोपसर्गादप ईप् ॥ ३. २. १०६ ॥ द्वि अन्तर् इत्येताभ्यामनवरर्णान्तेभ्यश्चोपसर्गेभ्यः ः परस्याप् इत्येतस्यो - 15 त्तरपदस्य ईप् इत्ययमादेशो भवति । द्विधा गता आपोऽस्मिन्निति द्वीपम्, एवमन्तरीपम्, नीपम्, प्रतीपम्, समीपम्, अन्वीपम्, वीपम् । उपसर्गादिति किम् ? शोभना प्रापः स्वापः पूजिता प्रापः प्रत्यापः, स्वती पूजायां नोपसगौं, अत एव समासान्तो न भवति । अनवर्णेति किम् ? प्रापम्, परापम्, संश्लिष्टा आगता आपोऽस्मिन् समापो देवयजनम् ।। १०६ ।। 20 न्या० स०-- द्वयन्तर० । द्वीपमिति यथा द्वीपमित्यत्राऽस्वपदविग्रहः एवमन्तर्गताः निवृत्ताः प्रत्यावृत्ता: संगता: अनुगता: प्रापोऽस्मिन्निति प्रस्वपदो बहुव्रीहिः 'एकार्थं चानेकं च' [ ३. १. २२. ] इति । सर्वेषु 'ऋक् पूः पथ्यपोऽत्' [ ७. ३. ७६. ] समासान्तः ।। ३. २. १०६ ।। अनोर्देश उप् ॥ ३. २. ११० ॥ अनोः परस्यापो देशेऽभिधेये उप् इत्ययमादेशो भवति । अनुगता 25 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १११-११२.] आपोऽस्मिन्ननूपो देशः । देश इति किम् ? अन्वीपं वनम् । कथं कूपः सूपः । यूपः ? पृषोदरादित्वात् ।। ११० ।। रिखत्यनव्ययारुषो मोऽस्तो ह्रस्वश्च ॥ ३. २. १११॥ अनव्ययस्य अर्थात्स्वरान्तस्यारुषश्च खित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे मोऽन्तो भवति, यथासंभवं ह्रस्वश्चान्तादेशो भवति । ज्ञमात्मानं मन्यते शंमन्यः, 5 पण्डितंमन्यः, ममन्यः, खट्वंमन्या, महंमन्यः, रात्रिमन्यमहः, द्र रिणमन्यः, ग्रामरिंगमन्यः, वधुंमन्यः, खलपुंमन्यः, क्षेमंकरः, मेघंकरः, पाढय भविष्ण :, आढय भावुकः, सुभगंकरणम् । आशितंभवो वर्तते, मितंगमः विहंगमः, पतङ्गः। परत्वात्पुंवद्भावो ह्रस्वत्वेन बाध्यते:-कालिंमन्या, हरिणिमन्याः अरुस्-अरुंतुदः, खितीति किम् ? पण्डितमानी, सुभगमानी अनव्ययेति10 किम् ? दोषामन्यमहः, दिवामन्या रात्रिः । अव्ययप्रतिषेधात् खिति तदन्तग्रहणम्, न ह्यव्ययात्परः खित्संभवति । अरुःशब्दोपादानादनव्ययस्य व्यञ्जनान्तस्य मो न भवति, गीर्मन्यः । 'स्वरस्य ह्रस्वदीर्घप्लुताः' इति ह्रस्वः स्वरस्यैव । कृद्ग्रहणे सति गतिकारकस्यापि ग्रहणात्-कूलमद्र जः कूलमुद्वह इत्यत्रापि भवति ।। १११ ।। न्या० स०--खित्यनव्यया। ग्रामण्यं खलप्वमात्मानं मन्यते। अर्थादिति अरुर्ग्रहणादनव्ययानां स्वरान्तत्वं लभ्यते इति । अरुंतुद इति 'बहुविध्वरुर्' [५. १. १२४.] इति खश् । अत्र मोऽन्ते सति 'संयोगस्यादौ' [ २. १.८८. ] इति 'स' लोपः। न ह्यव्ययादिति ननु यथाऽव्ययात् खिन्न संभवत्येवमऽनव्ययादपि न संभवति? न, धातोरनव्ययात् स्यात् । तथा च शंमन्य इत्यादौ ज्ञमन्य इति स्यादित्यव्ययप्रतिषेधः समाश्रीयते 120 गीर्मन्य इति नन्वत्र मोऽन्तेऽपि 'पदस्य' [२. १. ८६. ] इति लोपे गीर्मन्य इति भविष्यति किं मोन्तप्रतिषेधेन ? उच्यते, 'रात् सः' [२. १. ६० ] इति नियमाल्लोपो न स्यादिति प्रतिषेधः ॥ ३. २. १११ ।। सत्यागदास्तोः कारे ॥ ३. २. ११२ ॥ सत्यादिभ्यः कारशब्दे उत्तरपदे परे मोऽन्तो भवति । सत्यं करोति25 सत्यस्य कार इति वा सत्यंकारः, एवमगदंकारः, अस्तुंकारः, अस्त्विति निपातः क्रियाप्रतिरूपकोऽभ्युपगमे वर्तते ॥ ११२ ।। 15 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू. ११३-११५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ६०१ न्या. स०--सत्यागदा०। अस्त्वितीति यदीदं तुवन्तं तदा 'नाम नाम्ना' [ ३. १. १८.] इति समासो न प्राप्नोति तदभावे कथमुत्तरपदमित्याशङ्का । ॥ ३. २. ११२ ।। लोकंपृणमध्यंदिनानभ्याशमित्यम् ॥ ३. २. ११३ ॥ एते शब्दाः कृतपूर्वपदमान्ता निपात्यन्ते । लोकं पृणति लोकस्य वा 5 पृणः लोकंपृणः, मध्यं दिनस्य मध्यं च तत् दिनं चेति वा मध्यंदिनम्, प्रश्नोतेर्घञ्यभ्याश इति रूपम्, अनभ्याशं दूरमित्यं गन्तव्यमस्यानभ्याशमित्यः, दूरतः परिहर्तव्यः, अनभ्याशेनेत्योऽनभ्याश मित्य इति वा दूरेण प्राप्यो न त्वन्तिकेनेत्यर्थः । अन्ये तु प्रोणातेरिणगन्तस्याचि ह्रस्वत्वं निपात्य लोकप्रिणः लोकप्रीणक इत्यर्थ इत्युदाहरन्ति । कश्चित्त्वकृतह्रस्वत्वमेव मन्यते10 लोकंप्रीण ॥ ११३ ॥ न्या० स०-लोकंपृण । लोकं पृणतीति वाक्ये 'मूलविभुजादयः' [५. १. १४४.] इति कः, यदा लोकस्य पृणः तदा 'नाम्युपान्त्य' [ ५. १. ५४. ] इति कः ।। ३. २. ११३ ।। भ्राष्ट्राग्नेरिन्धे ॥ ३. २. ११४ ॥ भ्राष्ट्राग्निभ्यामिन्धशब्दे उत्तरपदे परे मोऽन्तो भवति । भ्राष्ट्रस्येन्धः15 भ्राष्ट्रमिन्धः, एवमग्निमिन्धः ॥ ११४ ।। न्या० स०--भ्राष्ट्राग्ने । भ्राष्ट्रमिन्ध इति इन्धानं प्रयुक्त णिग् भावे अल्, इन्ध्यतेऽनेनेति वा 'पुन्नाम्नि' [ ५. ३. १३०. ] इति घः । इन्धयतीत्यचि वा, घत्रि तु 'दशनावोद' [ ४. २. ५४. ] इति 'न' लोपः स्यात् ।। ३. २. ११४ ।। अगिलाद्गिलगिलगिलयोः ॥ ३. २. ११५॥ 20 गिलान्तशब्दजितात् पूर्वपदात्परे गिले गिलगिले चोत्तरपदे परे मोऽन्तो भवति । तिमि गिलतीति तिमिङ्गिलः, एवं मत्स्यंगिलः, बालंगिलो राक्षसः, अपत्यंगिला शिशुमारी। तिमीनां गिलगिलः तिमिगिलगिलः, गिलगिलशब्द गिलशब्दो नोत्तरपदमिति गिलगिलोपादानम् । गिलशब्दस्य स्वरान्तस्य पर्युदासेन स्वरान्ताद्विधिस्तेन व्यञ्जनान्तान्न भवति, धूगिलः 125 अगिलादिति किम् ? तिमिगिलं गिलति तिमि गिलगिलः । गिलं गिलति Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू. ११६-११७.] गिलगिल इत्यत्र गिलगिलेति निर्देशादेव मोऽन्तो न संभवति । अगिलादिति । तु निषेधो गिलान्तस्यापि निवृत्त्यर्थः ।। ११५ ।।। न्या० स०-अगिला। तिमिगिल इति बाहुलकात् 'नाम्युपान्त्य' [५. १. ५४.] इति कः, 'मूलविभुजादयः' [५. १. १४४.] इति वा। गिलगिलशब्दे इति । गिलगिल इत्येवंरूपस्याखण्डस्य विद्यमानत्वात् । नन्वऽगिलादित्यस्य गिलगिल इति प्रत्युदाहरणं 5 युक्त, अत्र गिल: पूर्वपदमस्तीति । तिमि गिलगिल इत्यत्र तु न गिलः पूर्वपदं किन्तु गिलान्तः शब्द इत्याह-गिलं गिलतीत्यादि । गिलगिलेति निर्देशादेव गिलगिले मोऽन्तो नास्तीति न तदर्थमगिलादित्यऽतस्तदन्तस्यैव प्रतिषेधार्थम् । अन्यथाऽऽनर्थक्यं स्यादिति । गिलान्तस्यापीति 'अपि' शब्द उक्तसमुच्चये न केवलं गिलान्तस्याऽपिशब्दात् केवलादपि मोऽन्तो न भवतीति । अपि शब्दोऽवधारणेऽन्यथा वर्जनानर्थक्यमिति तु न्यासः । यद्10 वागिलस्येति विशेषणत्वात् तदन्तस्य निषेधः, अन्यथोत्तरपदसन्निधापितपूर्वपदस्य केवलस्यैव निषेधः स्यात् । यथा दिग्धपादोपहतः। गिलस्य गिलः गिलं गिलति गिलगिल इत्यत्र तु आद्यन्तवदुपचारात् ॥ ३. २. ११५ ।। भद्रोष्णात्करणे ॥ ३. २. ११६ ॥ भद्रशब्दादुष्णशब्दाच्च करणशब्दे उत्तरपदे मोऽन्तो भवति । भद्रस्य15 करणं भद्रकरणम्, एवमुष्णंकरणम् ।। ११६ ।। न्या० स०--भद्रोष्णा। भद्रकरणमिति कृतिः करणं क्रियतेऽनेनेति वा ततो भद्रोष्णयोः कर्मषष्ठ्यन्तयोः 'कृति' [ ३. १.७७. ] इति समासः ।। ३. २. ११६. ।। नवारिवत्कृदन्ते रात्रेः ॥ ३. २. ११७ ॥ रात्रिशब्दस्य खिद्वजितकृदन्ते उत्तरपदे मोऽन्तो वा भवति । रात्रौ20 चरति रात्रिचरः, रात्रिचरः, रात्रिचरी, रात्रिचरी, रात्रावट:, रात्रिमट:, रात्र्यटः, रात्रिमटति-रात्रिमाटः, रात्र्याटः, रात्रेः करणम्-रात्रिकरणम्, रात्रिकरणम् । खिद्वर्जनं किम् ? रात्रिमन्यमहः, 'खित्यनव्यय'[३. २. १११.] इत्यादिना नित्यमेव भवति । कृदन्त इति किम् ? रात्रिसुखम् । अन्तग्रहणं किम् ? रात्रिरिवाचरति क्विप्, लुक्, तृच्,25 रात्रयिता। इदमेवान्तग्रहणं ज्ञापकम् इहोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययस्यैव ग्रहणं, न तदन्तस्य, तेन 'कालात्तनतरतम'-[३. २. २४.] इत्यादौ प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं सिद्धम्, 'न नाम्येकस्वरात् खिति'-[३. २. ६.] इत्यादौ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० ११८-१२०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ६०३ त्वसंभवात्तदन्तग्रहणम् । केचित्तीर्थंकरः तीर्थकर इत्यत्रापि विकल्पमिच्छन्ति, तदर्थं नवाऽखित्कृदन्ते इति रात्रेरिति च योगो विभजनीयः ।। ११७ ।। न्या० स०--नवाखित् । रात्रिसुखमिति । अत्र सुखशब्दोऽव्युत्पन्नो न कृदन्त इति मोऽन्तो न भवति ।। ३. २. ११७ ।। 10 धेनो व्यायाम् ॥ ३. २. ११८ ॥ धेनुशब्दाद्भव्याशब्दे उत्तरपदे मोऽन्तो वा भवति । धेनुश्चासौ भव्या च धेनुंभव्या, धेनुभव्या। केचित्तु नित्यमिच्छन्ति ।। ११८ ।। न्या० स०--धेनोभव्या०। धेनुभव्या इति । धेनोविशेषणत्वेन विवक्षितत्वात् विशेष्यत्वेऽपि वा धेनोभव्यायामिति भव्यामिति भव्याशब्दस्य निमित्तत्वेनोपादानात् धेनोः पूर्वनिपातः ।। ३. २. ११८ ॥ अषष्ठीतूतीयादन्याहोऽर्थे ॥ ३. २. ११६ ॥ अषष्ठयन्तादतृतीयान्ताच्चान्यशब्दादर्थशब्द उत्तरपदे दोऽन्तो वा भवति । अन्यश्चासौ अर्थश्च, अन्योऽर्थोऽस्येति वा अन्यदर्थः, अन्यार्थः, अन्यस्मै इदम्-अन्यदर्थम्, अन्यार्थम्, अन्यस्मिन्नर्थः अन्यदर्थः, अन्यार्थः, अषष्ठीतृतीयादिति किम् ? अन्यस्यार्थः अन्यार्थः, अन्येनार्थः अन्यार्थः ।। ११६ ॥ 15 आशीराशास्थितास्थोत्सुकोतिरागे ॥ ३. २. १२० ॥ वेति निवृत्तम् पृथग्योगात् । अषष्ठीतृतीयान्तादन्यशब्दादाशिस्, आशा, आस्थित, आस्था, उत्सुक, ऊति, राग इत्येतेषूत्तरपदेषु दोऽन्तो भवति । अन्या आशीः अन्यदाशीः, अन्या आशा अन्यदाशा, अन्यमास्थितः अन्यदास्थितः, अन्या आस्था अन्यदास्था, अन्यस्मिन् उत्सुकः अन्यदुत्सुकः, अन्या20 ऊतिः अन्यदूतिः, अन्यत्र रागः अन्यद्रागः, अषष्ठीतृतीयादित्येव ? अन्यस्याशीः अन्याशीः, अन्येनास्थितः अन्यास्थितः ।। १२० ।। न्या० स०--आशीरा। आश्यतीति 'उपसर्गादातो' [ ५. १. ५६. ] आश्यत्यऽनया वा 'उपसर्गादातः' [५. ३. ११०.] ।। ३. २. १२० ।। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] .... बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १२१-१२३.] 5 ईयकारके ॥३. २. १२१ ॥ पृथग्योगादषष्ठीतृतीयादिति निवृत्तम्, अन्यशब्दादीये प्रत्यये कारकशब्दे चोत्तरपदे दोऽन्तो भवति । अन्यस्यायमन्यदीयः, गहादित्वादीयः, अन्यस्मै हितमन्यदीयम्, अन्यस्यान्येन वा कारक: अन्यत्कारकः, अन्यः कारकः अन्यत्कारकः, अन्यत्कारिका ।। १२१ ।। न्या० स०--ईयकारके । अन्यस्य अन्येन वा कारकेति 'याजकादिभिः' [ ३. १. ७८. ] 'कारकं कृता' [ ३. १. ६८ ] च समासः ।। ३. २. १२१ ।। सर्वा दिविष्वग्देवाद्रि क्व्यञ्चौ ॥ ३. २. १२२ ॥ सर्वादेविष्वग्देवशब्दाभ्यां च परः क्विबन्तेऽञ्चतावुत्तरपदे परे डद्रिरन्तो भवति । सर्वमञ्चति सर्वद्यङ्, सर्वद्यञ्चौ, सर्वद्यञ्चः, सर्वद्रीचः, सर्व-10 द्रीचा, सर्वद्रीची, एवं तघङ्, तञ्चौ , तद्यञ्चः, तद्रीचः, तद्रीचा, तद्रीची, अदाङ्, अदञ्चौ , अदद्यञ्चः, अदद्रीचः, अदद्रीचा, अदद्रीची, काङ्, कञ्चौ , कद्यञ्चः, कद्रीचः, कद्रीचा, द्वयद्यङ्, द्वयद्यञ्चौ, द्वयद्यञ्चः, विषू अवतीति विषः,-विष्वमञ्चति विष्वङ्, विष्वगित्यव्ययं वा, विष्वगञ्चति विष्वद्यङ्, विष्वाञ्चौ, विष्वद्यञ्चः, विष्वद्रीचः, विष्वद्रीचा, विष्वद्रीची,15 देवानञ्चतीति-देवघङ, देवद्यञ्चौ, देवद्यञ्चः, देवद्रीचः, देवद्रीचा, देवद्रीची, सर्वादिविष्वग्देवादिति किम् ? अश्वमञ्चति अश्वाची, विष्वमञ्चति विषूची । अञ्चाविति किम् ? विश्वयुक्, विष्वग्युक, देवयुक् । क्वीति-किम् ? विष्वगञ्चनम् । 'धातुग्रहणे तदादेः समुदायस्य ग्रहणं प्राप्नोति' इति क्वीत्युक्तम् । डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः ।। १२२ ।। न्या० स०--सर्वादिविष्वग्। सर्वेषु 'डस्युक्तम्' [ ३. १. ४६. ] इत्युपपदसमासस्य नित्यत्वेन नित्यमेकपदत्वे "ह्रस्वोऽपदे वा' [ १. २. २२. ] इति न ह्रस्वो डनेरिकारस्येति । नामग्रहणे* इति न्यायस्यानित्यत्वाद् विषूचीशब्दान्न डद्रिः । तस्मिन् सति हि विषू चद्रयङिति अनिष्टं रूपं स्यात्, यदा सर्वाऽमञ्चतीति देवीमञ्चतीति क्रियते तदा डद्रिर्भवत्येव, यतोऽत्रामु न्यायं मन्यन्ते ।। ३. २. १२२ ।।.. 25 सहसमः सधिसमि ॥ ३. २. १२३ ॥ सहसम् इत्येतयोः स्थानेऽञ्चतौ क्विबन्ले उत्तरपदे परे यथासंख्यं सध्रि 20 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १२४-१२६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ६०५ समि इत्येतावादेशौ भवतः । सहाञ्चति सध्रयङ्, सध्रयञ्चौ, सध्रयञ्चः, सध्रीचः, सध्रीचा, सध्रीची, सध्रीचीनः, समञ्चति-सम्यङ्, सम्यञ्चौ, सम्यञ्चः, समीचः, समीचा, समीची, समीचीनः । सहसम इति किम् ? प्राङ्, प्राञ्चौ । अञ्चावित्येब ? सहयुक्, संयुक्, क्वीत्येव ? सहाञ्चनम्, समञ्चनम् ।। १२३ ॥ 5 तिरसस्तिर्यति ॥ ३. २. १२४ ॥ तिरस्शब्दस्याति अकारादावञ्चतौ क्विबन्ते उत्तरपदे परे तिरि इत्ययमादेशो भवति । तिरस्तिरको वा अञ्चति, तिर्यङ्, तिर्यञ्चौ, तिर्यञ्चः, तिर्यग्भ्याम्, तिर्यग्भिः, तिर्यग्भ्यः, तिर्यक्षु । अतीति किम् ? तिरश्चः, तिरश्चा, तिरश्ची. तिरश्चीनः ।। १२४ ।। 10 न्या० स०-तिरसस्तियति । शब्दरूपापेक्षया च नपुसकत्वे 'अनतो लुप्' [ १. ४. ५६. ] से: सूत्रत्वाद् वा। तिरि इतीति असंदेहार्थमविभक्तिको निर्देशः । ।। ३. २. १२४ ॥ नात्॥३. २. १२५ ॥ नशब्द उत्तरपदे परेऽकारो भवति । अचौरः पन्थाः, अमक्षिको देशः,15 अमशकं वर्तते, अमक्षिकं वर्तते, अहिंसा, अस्तेयम् अकारः किम् ? पामनपुत्रः । उत्तरपद इति किम् ? न भुङ्क्त ।। १२५ ।। न्या० स०--नात् । अकारः किमिति । ननु चादिषु निरनुबन्ध एव नत्र पठ्यतां स एव चेहाऽनुक्रियतामिति ? सत्यं, निरनुबन्धपाठे पामनपुत्र इत्यादौ 'नोङ्गादेः' [७. २. २६.] इति विहितस्य 'न' प्रत्ययस्याऽत्र ग्रहणं स्यात्, यतः प्रत्ययाऽप्रत्यययो:20 प्रत्ययस्यैव ग्रहणम् इति न्यायः । ततः सानुबन्धपाठो युक्त एव । न च अनुक्रियमाणेऽप्यनुबन्ध स्त्रणपुत्र इत्यत्र कथ न भवतीति वाच्य। प्रत्ययस्यव ग्रहणम् इति न्यायः । 'प्रत्यय' त्रित्त्वस्य वृद्धौ चरितार्थत्वान्निपातत्रित्त्वस्यानर्थक्यात् तस्यैव ग्रहणमिति ।। ३. २. १२५ ।। त्यादी क्षेपे ॥ ३. २. १२६ ।। . 25 ... त्याद्यन्ते पदे परतः क्षेपे गम्यमाने नञ् अकारो भवति । अपचसि त्वं जाल्म, अकरोषि त्वं जाल्म | त्यादाविति किम् ? न पाचको जाल्मः । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ ] बृहत्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १२७-१२८.] क्षेप इति किम् ? न पचति चैत्रः । अ, मा, नो, ना, प्रतिषेध इत्यकारेण प्रतिषेधार्थीयेनैव सिद्धौ क्षेपे नत्रः श्रवणनिवारणार्थम्, अनुत्तरपदार्थं च वचनम् ।। १२६ ।। न्या० स०-त्यादौ क्षेपे। न पाचक इति असमासोऽयं नसमासस्य पाक्षिकत्वात् पाचक इति नोत्तरपदमिति पूर्वेणापि न भवति । अनुत्तरपदार्थमिति त्याद्यन्तेन 5 समासाऽभावतः समासे च सति पूर्वोत्तरपदव्यवहारात् ।। ३. २. १२६ ।।। नगोऽप्राणिनि वा ॥ ३. २. १२७ ॥ अप्राणिन्यभिधेये नग इति निपात्यते वा। न गच्छतीति नगःपर्वतः, अगः पर्वतः, नगा वृक्षाः, अगा वृक्षाः । अप्राणिनीति किम् ? अगो वृषलः शीतेन । पूर्वेण नित्यमादेशे प्राप्ते विकल्पोऽयम् ।। १२७ ॥ 10 नरखादयः ॥ ३. २. १२८ ॥ नखादयः शब्दा अकृताकाराद्यादेशा निपात्यन्ते । नास्य खमस्तीति नखः, न भ्राजते इति नभ्राट् क्विबन्तः, न पातीति नपात् शत्रन्तः, त्रिलिङ्गोऽयम्, निपातनात्तु नाभावः, न वेत्तीति नवेदाः, औरणादिकोऽस्, सत्सु साधुः सत्यः, 'साधौ' यः न सत्यः असत्यः, नासत्यः, नासत्यौ, नासत्याः, न15 मुखतीति नमुचिः, औणादिक: किः, नास्य कुलमस्तीति नकुलः । कथं न न भ्राजते किंतु भ्राजत एवेति नभ्राट् ? पृषोदरादित्वादेकस्य नको लोपे भविष्यति, एवं न न पाति नपात्, न न वेत्ति नवेदाः, न न मुञ्चति नमुचिः, न न कुलमस्त्यस्य नकुलः, न न खमस्त्यस्य नखः, न पुमान् न स्त्रीति नपुंसकम्, अत एव निपातनात् स्त्रीपुंसयोः पुंसकादेशः । न क्षीयते न क्षरति वा20 नक्षत्रम्, औणादिके त्रटि, क्षभावे निपात्यते । न कामति न क्रीणाति वा नक्रः, डप्रत्ययो निपातनात्, नास्मिन्नकं दुःखमस्ति नाकः, न विद्यन्ते ग्नाः श्रियः छन्दांसि वास्य नग्नः, न अगः नागः, न विद्यते भागोऽस्य नभागः, नारमञ्चति नाराचः, न प्राप्यत इति नापितः न मोयतेऽसाविति नमेरुः, नाभिनन्दति वधूमिति ननान्दा, नान्तरेण भवति, नान्तरीयकम्, न न चिकेत्ति25 नाचिकेतः, अत एव निपातनात् कित् ज्ञापनार्थो जुहोत्यादौ द्रष्टव्यः अस्माच्च Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पा० २. सू० १२६ - १३०.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ६०७ नञ् द्वयोपपदान्नाम्नि शव् प्रत्ययो भवति । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् तेन - नास्तिकः, नभः, नारङ्गमित्यादयोऽपि द्रष्टव्याः ।। १२८ ।। न्या० स० नखादयः । नख इत्यत्र बहुव्रीहौ 'नञ्ऽत्' [ ३. २. १२५. ] प्राप्तोऽनेन निषिध्यते, उष्ट्रमुखादित्वात् समासः । खन्यत इति 'क्वचित्' [५. १. १७१.] इति डः । सत्य इति न नखादौ किंतु नासत्य इत्ययम् । श्ररीणां समूह प्रारं 5 ' षष्ठ्याः समूहे' [ ६. २. ९. ] अण् । नारमञ्चति 'कर्म्मणोऽण्' [ ५.१.७२. ] निपातनादऽञ्चेर्नलोपः, 'आप्लृण लम्भने' नत्र आपेः । न मीयते ' शिग्रुगेरुनमेर्वादयः ' ८११ ( उणादि ) मिगस्तु 'चिनीपीमिसिभ्यो रु ८०६ ( उणादि ) ' यतिननदिभ्यो दीर्घश्च' ८५६ ( उणादि ) । नान्तरीयकमिति नान्तरेणेत्यर्थकथनं सप्तम्यन्तात्तु गहादित्वादीय:, ततः स्वार्थिकः । नास्तिक इति नास्ति पुण्यं पापं चेति मतिरस्येति 10 'नास्तिकास्तिक' ६. ४. ६६. ] इति निपातनादेव सिद्धं । यदा तु न प्रास्तिको नास्तिक इति क्रियते तदा गरणपाठफलम् । नभ इति न बभस्तीति क्विप् न भातीति वा 'मिथिरञ्च्युषि' ९७१ ( उणादि ) इति बहुवचनात् किदऽस् । नारङ्गमिति न न रङ्गति शोभां अच् न अरङ्गमिति वा । रूढिशब्दा एते यथाकथंचित् व्युत्पाद्या नात्राऽवयवार्थाभिनिवेशः कार्यः ॥। ३. २. १२८ ।। अन् स्वरे ॥ ३.२. १२६ ॥ नञः स्वरादावुत्तरपदे परेऽन् इत्ययमादेशो भवति । न विद्यते अन्तोऽस्येति अनन्तो जिनः, - एवमनादिः प्रजानामभावोऽनजम्, न श्वोऽनश्वः । अन् इति स्वरूपनिर्देशात् नलोपो द्वित्वं च न भवति ।। १२६ ।। " को कत्तत्पुरुषे ॥ ३. २. १३० ॥ तत्पुरुषे समासे स्वरादावुत्तरपदे कुशब्दस्य कदित्ययमादेशो भवति । कुत्सितः अश्वः कदश्वः, कदुष्ट्रः, कदन्नम्, कदशनम्, तत्पुरुष इति किम् ? कुत्सिता उष्ट्रा अस्मिन् कूष्ट्रो देशः । स्वर इत्येव ? कुब्राह्मणः ।। १३० ।। 15 20 न्या० स० -- कोः कत्तत्पुरुषे । प्रतिपदोक्तोऽयं तत्पुरुषो गृह्यते तेन कु पृथिवी - मतीतः क्वतीत इत्यत्र कदादेशो न भवति । अथेत्थं भरिणष्यन्ति श्रितादित्वात् समासे 25 सति प्रतिपदोक्तत्व मऽस्तीति । तदपि न वाच्यं यतो द्वितीयान्तं श्रितादिभिः सह समस्यते ततश्च द्वितीयान्तं सामान्यं नाम न प्रतिपदोक्तमिति कदादेशो न भवति ।। ३. २. १३० । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा. २. सू० १३१-१३४.] रथवदे॥३. २. १३१॥ रथवदयोरुत्तरपदयोः कुशब्दस्य कदादेशो भवति । कुत्सितो रथः कद्रथः, कुत्सितो रथोऽस्य कद्रथः, कुत्सितो वद: कद्वदः, कुत्सितो वदोऽस्य कद्वदः । तत्पुरुष एवेच्छन्त्येके, अन्यत्र कुरथो राजा कुवदो मूर्खः ।। १३१ ।। तुणे जातौ ॥ ३. २. १३२ ॥ कुशब्दस्य तृणे उत्तरपदे जातावभिधेयायां कदादेशो भवति । कुत्सितं तृणमस्याः कत्तृणा नाम रौहिषाख्या तृणजातिः । जाताविति किम् ? कुत्सितानि तृणानि कुतृणानि ।। १३२ ।। न्या० स०--तृणे जातौ। कत्तणशब्दो जातिवाची अवयवार्थस्तु वृत्तावऽसन्नेव दर्श्यते कुत्सितं तृणमस्या इत्येवंरूपः । रौहिष इति रोहति अरण्ये 'रुहेवृद्धिश्च'10 ५४८ (उणादि) इति इषग्रत्ययः ।। ३. २. १३२ ॥ कत्त्रिाः ॥ ३. २. १३३ ॥ कुशब्दस्य किंशब्दस्य वा त्रिशब्दे उत्तरपदे कदादेशो निपात्यते । कुत्सितास्त्रयः, के वा त्रयः कत्त्रयः, कुत्सितास्त्रयोऽस्य के वा त्रयोऽस्य कत्त्रिः । किमो नेच्छन्त्यन्ये-किंत्रयः ।। १३३ ।। 15 न्या० स०--कत्रिः। श्रावित्येव सिद्धे कत्रीति करणं किमोऽपि परिग्रहार्थम् । । ३. २. १३३ ।। काक्षपथोः ॥ ३. २. १३४ ॥ अक्ष पथिन इत्येतयोरुत्तरपदयोः कोः का इत्ययमादेशो भवति, अक्षशब्दस्याकारान्तस्य कृतसमासान्तस्य चाविशेषेण ग्रहणम् । कुत्सितोऽक्षः पाश-20 कादिः काक्षः, कुत्सितमक्षमिन्द्रियं काक्षम्, कुत्सितोऽक्षो यस्य काक्षो-रथः, कुत्सितमक्षि अक्षं वाऽस्य काक्षः, कुत्सितः पन्थाः कापथम्, कुत्सितः पन्था अस्मिन् कापथो देशः, साकोऽपि भवति, ककु 'कुत्सितः' अक्षः काक्षः, एवं कापथः । पथिशब्दनिर्देशात्तत्पर्यायेऽव्युत्पन्ने पथशब्दे न भवति-कुत्सितः पथः कुपथः, कुपथं वनम् । अनीषदर्थार्थं वचनम् ।। १३४ ।।। . . . 25 Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १३५-१३८.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ६०६ 10 न्या० स०--काक्ष०। कापथमिति पथः संख्येति नपुसकत्वं, बहुव्रीही त्वाश्रयलिङ्गता। एवं कापथ इति अत्र पुस्त्वमित्यमरः । गौडश्च यदाह 'व्यध्वौ विपथकापथौ' स्वमते तु नपुंसकत्वमेव भवति । कुत्सितः पथः कुपथ इति भवति न तु कुपथम् । । ३. २. १३४ ।। पुरुषे वा ॥ ३. २. १३५ ॥ कुशब्दस्य पुरुषशब्दे उत्तरपदे कादेशो भवति वा। कुत्सितः पुरुषः कापुरुषः, कुपुरुषः, कुत्सिताः पुरुषा अस्मिन् कापुरुषो ग्रामः, कुपुरुषो ग्रामः । अनीषदर्थे विकल्पोऽयम्, ईषदर्थे तु परत्वादुत्तरेण नित्यमेव, तत्रापि विकल्प एवेति कश्चित्,-ईषत्पुरुषः, कापुरुषः, कुपुरुषः ॥ १३५ ।। अल्पे ॥ ३. २. १३६ ॥ ईषदर्थे वर्तमानस्य कुशब्दस्योत्तरपदे परे कादेशो भवति । ईषन्मधुरं कामधुरं कालवणम् । स्वरादावपि परत्वादीषदर्थे कादेश एव भवति, ईषदम्लम्, काम्लम्, एवं काच्छम् ।। १३६ ।। न्या० स०--अल्पे। स्वरादावपि इति न 'कोः कत् तत्पुरुषे' [ ३. २. १२०. ] इति कदादेश इत्यर्थः ।। ३. २. १३६ ॥ काकवी वोष्णे ॥ ३. २. १३७ ॥ कुशब्दस्योष्णशब्दे उत्तरपदे का कव इत्येतावादेशौ वा भवतः । ईषत्कुत्सितं वा उष्णम् कोष्णम्, कवोष्णम्, ईषत् कुत्सितं वा उष्णमत्र कोष्णः, कवोष्णो देशः, पक्षे यथाप्राप्तम् इति-तत्पुरुषे कदुष्णम् । बहुव्रीहौ तु कदादेशो न भवति, कूष्णो देशः । अन्यस्त्वग्नावपीच्छति, काग्निः,20 कवाग्निः, कदग्निः ।। १३७ ।। कृत्येऽवश्यमो लुक ॥ ३. २. १३८ ॥ अवश्यम्शब्दस्य कृत्यप्रत्ययान्ते उत्तरपदे लुक् अन्तादेशो भवति । अवश्यकार्यम्, अवश्यस्तुत्यम्, अवश्यदेयम्, अवश्यकर्तव्यम्, अवश्यकरणीयम् । कृत्य इति किम् ? अवश्यंलावकः ।। १३८ ।। 25 न्या० स०--कृत्ये०। 'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः' [ ३. १. ४८. ] 'मयूरव्यंसक' [ ३. १. ११६ ] इत्यादिना वा सर्वत्राऽत्र समासः ।। ३. २. १३८ ।। 15 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १३९-१४३.] समस्ततहिते वा ॥ ३. २. १३६ ॥ सम्शब्दस्य तते हिते चोत्तरपदे लुगन्तादेशो वा भवति । सततम्, संततम्, सहितम्, संहितम् ।। १३६ ।। तुमश्च मनःकामे ॥ ३. २. १४० ॥ तुम्प्रत्ययान्तस्य सम्शब्दस्य च प्रत्येकं मनसि कामे चोत्तरपदे 5 लुगन्तादेशो भवति । भोक्तुं मनोऽस्य भोक्तुमनाः, गन्तुं कामोऽस्य गन्तुकामः, सम्यग्मनोऽस्य समनाः, एवं सकामः । सहशब्देनापि सिद्धौ समः श्रुतिनिवृत्त्यर्थं वचनम् ।। १४० ॥ मांसस्यानधनि पचि नवा ॥ ३. २. १४१ ॥ मांसशब्दस्यानडन्ते घबन्ते च पचावुत्तरपदे लुगन्तादेशो वा भवति ।10 मांसस्य पचनं मांस्पचनम्, मांसपचनम्, मांस्पचनी, मांसपचनी, मांसस्य पाकः, मांस्पाकः, मांसपाकः । अनड्घजीति किम् ? मांसपक्तिः । पचाविति किम् ? मांसदाहः, मांसदहनी ॥ १४१ ।। __ न्या० स०--मांसस्य०। मांस्पचनमिति अत्र प्रसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग * इति न्यायादलोपस्यासिद्धत्वात सो रुन भवति, न तु 'स्वरस्य परे । ७.४.११०.] इति 15 स्थानित्वं । 'न संघि' [ १. ३. ५२.] इत्यनेनासविधौ स्थानित्वनिषेधात् ।। ३. २. १४१ ।। दिकशब्दात्तीरस्य तारः ॥ ३. २. १४२ ॥ दिक्शब्दात्परस्य तीरशब्दस्योत्तरपदस्य तार इत्ययमादेशो वा भवति । दक्षिणस्या दिशः दक्षिणस्य वा देशस्य तीरं दक्षिणतारं, दक्षिणतीरम्-20 एवमुत्तरतारमुत्तरतीरम्, पश्चिमतारं पश्चिमतीरम्, पूर्वतारं, पूर्वतीरम्, । दिक्शब्दादिति किम् ? गङ्गातीरम् ।। १४२ ।। न्या० स०-दिकशब्दा०। पश्चिमतारमिति स्त्रियां तु सर्वादित्वाभावात् पुभावाप्रवृत्ती पश्चिमातारं पश्चिमातीरमिति भवति ।। ३. २. १४२ ।। सहस्य सोन्याथें ॥ ३. २. १४३ ॥ . 25 अन्यार्थे अन्यपदार्थे बहुव्रीहौ समासे उत्तरपदे परे सहशब्दस्य स Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा. २. सू० १४४-१४६.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ६११ इत्ययमादेशो भवति वा। सह पुत्रेण सपुत्र आगतः सहपुत्र आगतः, एवं सशिष्यः सहशिष्य आगतः, सह लोम्ना वर्तते सलोमकः सहलोमकः, विद्यमानलोमक इत्यर्थः । अन्यार्थ इति किम् ? सहयुध्वा, सहकृत्वा, सहकारी, सहजः । कथं सहकृत्वा प्रियोऽस्य सहकृत्वप्रियः प्रियः सहकृत्वास्य प्रियसहकृत्वेति ? बहुव्रीहौ यदुत्तरपदं तस्मात्पूर्वः सहशब्दो न भवतीति 5 सादेशो न भवति ।। १४३ ।। नाम्नि ॥ ३. २. १४४ ॥ योगारम्भाद्वेति निवृत्तम् । अन्यार्थे समासे उत्तरपदे परे सहशब्दस्य सादेशो भवति, नाम्नि संज्ञायां विषये। सहाश्वत्थेन वर्तते-साश्वत्थम्, सपलाशम्, सशिंशपम्, एवंनामानि वनानि, सह रसेन सरसा दूर्वा, । अन्यार्थ10 इत्येव ? सह चरतीति सहचरः कुरण्टकः, सह दीव्यतीति सहदेवः कुरुः, सहदेवा अोषधिः, सह जायते सहजन्या अप्सराः ।। १४४ ।। न्या० स०-नाम्नि। सह चरतीति सहचरः अच् । 'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः' [ ३. १. ४८. ] इति समासः । सहदेवा ओषधिरिति 'लिहादिभ्योऽच्, [ ५. १. ५०. ] सह जायते सहजन्या अप्सरा इति 'भव्यगेयजन्य' [५. १. ७.] इत्यादिना कर्तरि घ्यण् ।15 'न जनवधः' [४. ३. ५४.] । इति वृद्ध्यभावः ॥ ३. २. १४४ ।। अदृश्याधिके ॥ ३. २. १४५ ॥ अदृश्यं परोक्षम अधिकमधिरूढम, तद्वाचिनोरुत्तरपदयोरन्यार्थे समासे सहशब्दस्य सादेशो भवति । अदृश्य-साग्निः कपोतः, सपिशाचा वात्या, सराक्षसीका विद्युत्, समुशलो व्रीहिकंस: अधिके,-सद्रोणा खारी, समाष:20 कार्षापणः, सकाकणीको माषः। 'सहस्य सोऽन्यार्थे' [३. २. १४३.] इत्यनेनैव सिद्धे नित्यार्थं वचनम् ।। १४५ ॥ . न्या० स०-अदृश्याधिके। व्रीहिकंस इति । कंस इति खार्यादिवत् मानविशेषस्य नाम तत्परिमाणपरिच्छिन्नव्रीहिमध्यगतस्य मुसलस्य आवृतत्वाददृश्यता ।। ३. २. १४५।। अकालेऽव्ययीभावे ॥ ३. २. १४६ ॥ सहशब्दस्याकालवाचिन्युत्तरपदेऽव्ययीभावसमासे सादेशो भवति । 25 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० १४७ - १४६.] ब्रह्मणः संपत् सब्रह्म साधूनाम्, एवं सवृत्तं सुविहितानाम्, सक्षत्रं यदूनाम् । संपत्तावव्ययीभावः । युगपच्चक्रेण चक्राणि वा धेहि सचक्रं धेहि, एवं सधुरं प्राजः । यौगपद्येऽव्ययीभावः - तृणैः सह सतृणमभ्यवहरति, एवं समूलघातं हन्ति । साकल्येऽव्ययीभावः । षड्जीवनिकामन्तमवसानं कृत्वाधीते सषड्जीवनिकमधीते श्रावकः, एवं सलोकबिन्दुसारमधीते पूर्वधरः । ग्रन्त इत्यव्ययी - S भावः । काल इति किम् ? सहपूर्वा शेते, सहापरात भुङ्क्ते । श्रयमपि साकल्येऽव्ययीभावः । अव्ययीभाव इति किम् ? सहयुध्वा ।। १४६ ।। ६१२ ] न्या० स०—– अकाले० । समूलघातमिति श्रत्र मूलानां साकल्यं समूलं हननं 'हनश्व समूलात्' [ ५. ४. ६३ ] गम् । षड़जीवनिकामिति षट् संख्या जीवाः तान्नियतं कायति डः, अथवा जीव्यतेऽनयाऽनटि स्वार्थे के षण्णां प्राणिनां जीवनिका षट्जीवनिका 10 ।। ३. २. १४६ ॥ ग्रन्थान्ते ॥ ३. २. १४७ ।। ग्रन्थस्यान्तो ग्रन्थान्तः, तद्वाचिन्युत्तरपदेऽव्ययीभावे समासे सहशब्दस्य सादेशो भवति । कलामन्तं कृत्वा सकलं ज्यौतिषमधीते, एवं सकाष्ठम्, समुहूर्तम् । कलादिशब्दाः कालविशेषवाचिनोऽपि तत्सहचारिषु ग्रन्थेषु वर्तन्त 15 इति ग्रन्थान्तवाचित्वमुत्तरपदस्य । अन्त इत्यव्ययीभावः कालार्थ आरम्भः ।। १४७ ।। नाशिष्यगोवत्सहले ॥। ३. २. १४८ ॥ आशिषि गम्यमानायां गवादिवर्जित उत्तरपदे परे सहशब्दस्य सादेशो स्वस्ति गुरवे सहशिष्याय, भद्रं सह -20 सपुत्रः सहपुत्र आगतः । अगोवत्सहल सहगवे, सवत्साय, सहवत्साय, सहलाय, न भवति । स्वस्ति राज्ञे सहराष्ट्राय संघायाचार्याय । आशिषीति किम् ? इति किम् ? स्वस्ति भवते सगवे, सहहलाय ।। १४८ ।। समानस्य धर्मादिषु ॥। ३. २. १४६ ॥ समानशब्दस्य धर्मादिषूत्तरपदेषु सादेशो भवति । समानो धर्मोऽस्य 25 सधर्मा, समानो वा धर्मः सधर्मः, समाना जातिरस्य सजातीयः, समानं नामास्य सनामा, समानं नाम सनाम । धर्म, जातीय, नामन्, गोत्र, रूप, Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १५०-१५२.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ६१३ स्थान, वर्ण, वयस्, वचन, ज्योतिस्, जनपद, रात्रि, नाभि, बन्धु, पक्ष, गन्ध, पिण्ड, देश, कर, लोहित, कुक्षि, वेणि इति धर्मादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । अन्ये तु धर्मादिषु वचनान्तेषु नवसु विकल्पमिच्छन्ति । सधर्मा, समानधर्मा, सजातीयः, समानजातीयः । सनामा, समाननामा, सगोत्रः, समानगोत्रः, सरूपः, समानरूपः, सस्थानः समानस्थानः, सवर्णः, समानवर्णः, 5 सवयाः, समानवयाः, सवचनः, समानवचनः । अपरे तु नामादिषु बन्धुपर्यन्तेषु द्वादशस्वेव समानस्य सभावं नित्यमिच्छन्ति अन्येषु तु नेच्छन्त्येव । सधर्मसपक्षादिशब्दांस्तु सहशब्देन समानपर्यायेण कृतसादेशेन साधयन्ति, समानशब्दप्रयोगे तु समानधर्मा, समानपक्षः समानजातोय इत्याद्येव मन्यन्ते । कथं समानोदरे जात:-सोदर्यः ? समाने तीर्थे वसति सतीर्थ्य इति, ? “सोदर्यसमा-10 नोदयौं' [६. ३. १११.] इति 'सतीर्थ्यः' [६. ४. ७८.] इति च निपातनाद्भविष्यतः ।। १४६ ।। सब्रह्मचारी ॥ ३. २. १५० ॥ . सब्रह्मचारीति निपात्यते । समानो ब्रह्मचारी समाने ब्रह्मण्यागमे गुरुकुले वा व्रतं चरतीति वा सब्रह्मचारी, निपातनादेव व्रतशब्दस्यापि15 लोपः ।। १५० ।। हगहशहक्षे॥ ३. २. १५१ ॥ दृदृशदृक्ष इत्येतेषूत्तरपदेषु समानस्य सादेशो भवति । समान इव दृश्यते सदृक्, सदृशः, सदृक्षः। दृशदृक्षसाहचर्यात् टक्सक्प्रत्ययसहचरितक्विबन्तस्यैव दृशो ग्रहणात् इह न भवति, समाना दृक् समानदृक् ।। १५१ ।। 20 अन्यत्यदादेरा ॥ ३. २. १५२ ॥ अन्यशब्दस्य त्यदादेश्च दृक्दृशदृक्षेषूत्तरपदेषु आकारोऽन्तादेशो भवति । अन्य इव दृश्यते अन्यादृक्, अन्यादृशः, अन्यादृक्षः, एवं त्यादृक् त्यादृशः, त्यादृक्षः, तादृक्, तादृशः, तादृक्षः, यादृक्, यादृशः, यादृक्ष, अमूदृक्, अमूदृशः, अमूदृक्षः, भवादृक्, भवादृशः, भवादृक्षः, त्वादृक्, त्वादृशः, त्वादृक्षः, 'मादृक्,25 मादृशः, मादृक्षः, एकादृक्, एकादृशः, एकादृक्षः । द्वादृक्, द्वादृशः, द्वादृक्षः, युष्मादृक्, युष्मादृशः, युष्मादृक्षः, अस्मादृक्, अस्मादृशः, अस्मादृक्षः । कथं Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ ] बृहवृत्ति-लघुग्याससंवलिते [पा० २. सू० १५३-१५५.] यत्परिमाणमस्य यावान्, एवं तावान् ? एतावान् ? 'यत्तदेतदो डावादिः' [७. १. १४६.] इति डावतौ भविष्यति ।। १५२ ।। इदं किमीत्की ॥ ३. २. १५३ ॥ ___इदंशब्दः किंशब्दश्च दृक्दशदक्षेषत्तरपदेषु परेषु यथासंख्यमीकाररूपः कीकाररूपश्च भवति । अयमिव दृश्यते ईदृक्, ईदृशः, ईदृक्षः, क इव दृश्यते । कीदृक्, कीदृशः, कीदृक्षः, कथं इदं किं वा परिमाणमस्य इयान् कियान् ? 'इदंकिमोऽतुरिय किय चास्य' [७. १. १४८.] इति भविष्यति ।। १५३ ।। अनञः क्त्वो यप् ॥ ३. २. १५४ ॥ नवजितादव्ययात्पूर्वपदाद्यत्परमुत्तरपदं तदवयवस्य क्त्वाप्रत्ययस्य यवादेशो भवति । प्रकृत्य, प्रहृत्य, उच्चैःकृत्य, नानाकृत्य । निज इति10 किम् ? अकृत्वा, अहृत्वा, परमकृत्वा, अनञ इति नसदृशमव्ययं गृह्यत इति इह नजोऽनव्ययाच्च न भवति । उत्तरपदस्येत्येव ? अलं कृत्वा, खलु कृत्वा ।। १५४ ।। न्या० स०--अनञः क्त्वो०। उच्चैःकृत्य इत्यत्र 'कृगोऽव्यय' [ ५. ४. ८४. ] इति क्त्वा। नानाकृत्य इत्यत्र तु 'स्वाङ्गतश्च्व्य र्थ' [५. ४. ८६. ] इत्यनेन । परम-15 कृत्वेति । परमं च तत् कृत्वा चेति कार्य । 'सन्महत्' [ ३. १. १०७.] इति समासः। परमं करणं पूर्व वा, परमस्य करणमित्यत्र तु समासो न स्यात् 'तृप्तार्थपूरण' [३.१.८५.] इत्यादावऽव्ययद्वारेण निषिद्धत्वात् षष्ठीसमासस्य ।। ३. २. १५४ ।। पृषोदरादयः॥ ३. २. १५५ ॥ पृषोदर इत्येवंप्रकाराः शब्दा विहितलोपागमवर्णविकाराः शिष्ट:20 प्रयुज्यमानाः साधवो भवन्ति । पृषदुदरमुदरे वास्य पृषोदरः, पृषत उदरं पृषोदरम्, पृषत उद्वानं पृषोद्वानम्, एवं पृषोद्धारम्,-अत्र तकारलोपो निपात्यते । जीवनस्य जलस्य मूतः पुटबन्धः, जीमूतः, अत्र वनस्य लोपः, वारिणो वाहको बलाहकः, अत्र पूर्वपदस्य बः उत्तरपदादेश्च ल आदेशः, प्राध्यायन्ति तमिति ाढयः, अत्र ध्यस्य ढ्यादेशः, कृ ण दास्यते नास्यते दभ्यते25 च खलि, दुष्टो दासो नासो दम्भ इति वा दूडासः, दूणासः, दूडभः, दुष्टं ध्यायति दूढयः, एषु पूर्वपदस्य दुसो दूभावः उत्तरपदादेश्वडत्वणत्वढत्वानि दम्भेनलोपश्च ।। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पा० २. सू० १५५.] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः [ ६१५ मह्यां रौति मयूरः, रौतेरच्यन्तलोपो महीशब्दस्य मयूभावः,। मह्यां शेते महिषः । ढः । अत्र पूर्वपदस्य ह्रस्वत्वं शस्य च षत्वम् । पिशितमश्नाति पिशाचः । अत्र पिशितस्य पिशादेशः अश्नातेः शस्य चादेशः । शवानां शयनं श्मशानम्, पूर्वपदस्य श्मादेशः उत्तरपदस्य च शानादेशः। ब्रुवन्तोऽस्यां सीदन्ति विषीदन्ति वृसी। अत्र डट् प्रत्ययः । पूर्वपदस्य वृभावः । ऊर्ध्वं खं 5 विलं वास्य उदूखलम् । उलूखलं वा। अत्र पूर्वपदस्योद्भाव उलूभावश्च उत्तरपदस्य खलादेशः । दिवि द्यौवौंक एषां दिवौकसः । अत्राकारागमः । अश्व इव तिष्ठति अश्वत्थः । कपिरिव तिष्ठति कपयोऽस्मिस्तिष्ठन्ति इति वा कपित्थः, दध्नि तिष्ठति दधित्थः, मह्यां तिष्ठति महित्थः, एषु तिष्ठतेः सकारस्य तकारः, मुहुः स्वनं लाति मुहुर्मुहुलसतीति वा मुसलम् । अत्र मुहुः10 शब्दस्य मुभावः । स्वनशब्दस्य सभावः । पक्षान्तरे लसयोविपर्ययश्च । ऊध्वौं कर्णावस्येत्युलूकः, अत्रोवंशब्दस्योलादेशः कर्णशब्दस्योकादेशश्च । मेहनस्य खं मेहनखं तस्य माला मेखला । अत्र मेहनखे हनस्य मालाशब्दे च माशब्दस्य लोपः । को जीर्यति कुञ्जरः, अत्र कुशब्दस्य मोऽन्तः । आश्वस्य विषमस्ति आशीविषः, अत्राशुशब्दस्याशीभावः । बलं वर्धयति बलीवर्दः, अत्र बलस्ये-15 कारोऽन्तादेशो वर्धधकारस्य च दकारः । मनस ईष्टे मनीषी, अत्र मनसोऽन्त्यस्वरादिलोपः ईशेः शस्य च षः । विलं दारयतीति विडालः, अत्र विलशब्दस्य ललोपः, उत्तरपदस्य डालादेशः । मृदमालीयते, डः, मृणालः । __ अत्र मृदो दकारस्य णकारः । असृगालीयते, डः, सृगालः । अत्रदेलोपः । असृगिलति वा सृगालः, अत्रासृज आद्यन्तलोपः । पुरो दाश्यते पुरोडाशः,20 अत्रोत्तरपदादेर्डत्वम् । अश्वस्याम्बा वडवा। अत्राश्वस्याशो लोपः ड चान्तः । अम्बाशब्दे च मो लोपः । शकस्यान्धुः शकन्धुः । अत्र पूर्वपदान्तस्योत्तरपदादेर्वा लोपः । एवं कर्कन्धुः, अटतीत्यच अटा, कुलानामटा कुलटा । अव अवाक् अटन्त्यस्मिन्निति बाहुलकात् 'पुनाम्नि' [५. ३. १३०.] इति घः, अवटः । हिनस्तीति सिंहः, अत्र सकारहकारस्योविपर्ययः । कृतकेन25 शलति कृकलाशः, अत्र तकारस्य लोपः, शकारलकारयोस्तु विपर्ययः। भ्रमन् रौति ड: भ्रमरः, अत्र तलोपः। एवंप्रकाराः शिष्टः प्रयुक्ताः पृषोदरादयः । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ ] बृहद्वृत्ति-लवुन्याससंवलिते [पा० २. सू० १५६.] मयूरमहिपादीनामुणादौ व्युत्पादितानामपीह व्युत्पादनमनेकधा शब्दव्युत्पत्तिज्ञापनार्थम् । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । तेन मुहूर्तमारग्वधोऽश्वत्थामनिर्लयनीत्यादयोऽपि द्रष्टव्याः। वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरो वर्णविकारनाशौ । धातोः तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ।। १५५ ।। न्या० स०--पृषोदरा०। पृषोद्वानमिति '4 ओवै शोषणे' उद्वायत इति उद्वानं 5 पृषत उद्वानं पृषोद्वानम् । पृषोद्धारमिति घृग् णिगि अच्, उद्पूर्वस्य धृगो णिगि अचि। यदा उद्धरमिति तदा धृगोऽरिणगन्तस्य । प्राढ्य इत्यत्र 'स्थादिभ्यः कः' [ ५. ३. ८२. ] । आशीविष इति यदापि आश्यतीत्यचि ततो 'गौरादिभ्यो' [ २. ४. १६. ] (इति) ङी:, आश्यां दंष्ट्रायां विषमस्तीति अथवा आशिषि दंष्ट्रायां विषमस्येति तदाऽप्यनेन निपातनम् । तदर्थाऽतिशयेनेति स प्रसिद्धोऽर्थस्तदर्थः शब्दलक्षणस्तस्यातिशयो माधुर्यादिस्तेन 10 योगः यथा मयूर इति, अत्र हि रौते रवणार्थस्यातिशयेन योगः। कृकलाश इति 'वा बलादि' इति णः । कृकं लासयतीति ये व्युत्पादयन्ति तन्मते दन्त्यसकारः । महुरियति स्म 'गत्यर्थ' [ ५. १. ११. ] इति क्तः प्रत्ययः । पारात् वध्यते 'स्थादिभ्यः कः' [ ५. ३. ८२. ] तस्य गः, अश्व इव तिष्ठतीति मन् निलीयतेऽस्यां अनट् ।। ३. २. १५५ ।। वावाप्योस्तनिकोधाग्नहोर्वपी॥ ३. २. १५६ ॥ 15 अवशब्दस्योपसर्गस्य तनिक्रीणात्योः परयोरपिशब्दस्य च धाग्नहोः परयोर्यथासंख्यं व पि इत्येतावादेशौ वा भवतः । वतंसः, अवतंसः, वक्रयः, अवक्रयः, पिहितम्, अपिहितम्, पिधानम्, अपिधानम्, पिदधाति, अपिदधाति, पिनद्धम्, अपिनद्धम्, । धातृनियमं नेच्छन्त्येके । पृषोदरादिप्रपञ्च एषः तेन शिष्टप्रयोगोऽनुसरणीयः ।। १५६ ।। 20 इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ।। श्रीमद्वल्लभराजस्य प्रतापः कोऽपि दुःसहः । प्रसरन् वैरिभूपेषु दीर्घनिद्रामकल्पयत् ।। न्या० स०--वावाप्यो। अथ पृषोदरादित्वादेवाऽवाप्योः पाक्षिके अकारलोपे25 वतंस इत्यादि सिध्यत्येव किमर्थोऽयं योग इत्याह-पृषोदरादीति । शिष्टा उक्तरूपास्तर्यः प्रयुज्यते तदनुसरणादन्यदपि सर्वं सिद्धम् ।। ३. २. १५६ ।। 卐 इत्याचार्यश्रीहेम० लघुन्यासे तृतीयस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्त: Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SR WA S KAN RO