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हेमचन्द्राचार्य जी के वाक्चातुर्य को सुनकर सभी ब्राह्मण शांत हो गए और सिद्धराज ने आचार्य श्री को व्याख्यान चालू रखने के लिए निवेदन किया ।
समर्थ व्याख्याता ___ एक बार सिद्धराज की राजसभा में आमिग नामक पुरोहित ने ईर्ष्या से प्रेरित होकर हेमचन्द्राचार्य जी से प्रश्न किया -
विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशनास्तेऽपि स्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः । आहार सुदृढ पुनर्बलकर ये भुञ्जते मानवा
स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद विन्ध्यः प्लवेत् सागरे । अर्थः --
बिश्वामित्र और पराशर ऋषि आदि जल और पत्र भोजी थे फिर भी लावण्यपूर्ण स्त्री के मुख कमल को देखकर मोहित हो गए तो जो मनुष्य सुन्दर पुष्टिकर रसवती का भोजन करके इन्द्रिय निग्रह कर सके...तब तो विन्ध्य पर्वत सागर में तर जाय ।'
श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य जी के विराट व्यक्तित्व पर शका कर इर्ष्याग्रस्त होकर आमिग ने उपर्युक्त बात कही' परन्तु अत्यन्त प्रतिभाबन्त हेमचन्द्राचार्य जी ने भी उसकी समस्या का सुन्दर समाधान करते हुए कहा
'सिंहो बली हरिणशूकरमांसभोजी, संम्वत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् । पारापतः खरशिलाकणभोजिनोऽपि
कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः ? अर्थ :
बलवान् ऐसा सिंह हरिण, सुअर आदि का मांस खाने वाला हैं फिर भी वर्ष में एक ही बार विषय सेवन करता हैं; जब कि कबुतर कंकड़ और धान्य खाता हैं फिर भी नि रतर कामी बना रहता हैं । कहो, इसका कया कारण है ?
आचार्यश्री के मुख से युक्ति सम्पन्न जवाब सुनकर सिद्धराज अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसने ईर्ष्यालु आमिग को उपालम्भ दिया ।
सिद्धराज की राजसभा में सम्बत् ११८१ वैशाख शुक्ला तृर्णिमा के दिन दिगंबराचार्य कुमुदचन्द्र और श्वेतांबर आचार्य वादिदेवसूरि के बीच वाद हुआ था और इस वाद में वादिदेवसूरि की विजय हुई थी...इस वाद में आ० वादिदेवसूरिजी को हेमचन्द्रसूरिजी म. का सबल हस्तावलम्ब था ।
. सिद्धराज के हृदय में आचार्य श्री के प्रति अद्भुत श्रद्धा और बहुमान का भाव था । सिद्धराज आचार्य श्री के साथ अनेकबार धर्मगोष्ठी करता था... क्रमशः आचार्य श्री और सिद्धराज की यशोगाथा दिग्-दिगन्त तक फैलने लगी ।