________________
सिद्धराज की इस वात को सुनकर सभी विद्वानों की दृष्टि हेमचन्द्राचार्य जी पर स्थिर बनी । सभी विश्वास था कि यह भगीरथ कार्य हेंमचन्द्राचार्य जी को छोड़कर अन्य कोई नहीं कर सकता है ।
よ
सिद्धराज तुरन्त ही विद्वानों के अभिप्राय को समझ गया और हेमचन्द्राचार्य जी की ओर दृष्टि डालकर बोला :
'शब्दव्युत्पत्तिकृच्छास्त्र निर्मायास्मन्मनोरथम् | पुरयस्व महर्षे त्वं विना त्वामत्र कः प्रभुः ?"
अर्थ :- हे महर्षि ! शब्द की व्युत्पत्ति करने वाले शास्त्र की रचना करके हमारे मनोरथ को पूर्ण करो। आपके बिना यह कार्य करने में अन्य कौन समर्थ है ?
अभी अपना देश कलापक - कातन्त्र व्याकरण पढ रहा है, किन्तु उसमें शब्दों की व्युत्पत्ति स्पष्ट नहीं है । 'पाणिनि व्याकरण को वेदांग मानकर ब्राह्मणां विद्यार्थियों की अवगणना कर रहे है ।
नवीन व्याकरण - निर्माण की तीव्र अभिलाषा व्यक्त करते हुए सिद्धराज ने कहा
'यशो मम तव ख्यातिं पुण्यं च मुनिनायक । विश्वलोकोपकाराय, कुरु व्याकरणं नव || ८४||
( प्रभावक चरितम् )
अर्थ :- 'हे मुनीश्वर ! आप नवीन व्याकरण की रचना करो, जिससे मुझे यश मिलेगा और आपको ख्याति मिलेगी और समग्र लोक के उपकार का पुण्य होगा ।"
सिद्धराज की इस नम्र विनंति को सुनकर हेमचन्द्राचार्य जी ने कहा, हे राजन् ! अभी वर्तमान में आठ प्रकार के व्याकरण विद्यमान है, उन सब व्याकरणों को आप काश्मीर से मंगार ताकि एक सुन्दर व भव्य शब्द शास्त्र की रचना हो सके ।
हेमचन्द्राचार्य जी के निर्देशानुसार सिद्धराज ने प्रधान पुरुषो को भेजकर काश्मीर से सभी व्याकरण मंगाए और सभी व्याकरण आचार्य भगवन्त को समर्पित किये ।
हेमचन्द्राचार्य जी ने सभी व्याकरणों का सूक्ष्मता से परीक्षण किया और अपनी बुद्धि-प्रतिभा से उन सब व्याकरणों में रही क्षतियों को ध्यान में रखकर उन्होंने एक सुन्दर व्याकरण शास्त्र रचना की जो अनेकविध विशेषताओं से भरपूर है । उन्होंने इस व्याकरण का नाम 'सिद्व हेमचन्द्र शब्दानु - शासन रखा । यह व्याकरण सर्वाग संपूर्ण है । आठ अध्याय और उनके बत्तीस पादों में यह व्याकरण विभक्त है । प्रत्येक पाद के अन्त में एक-एक श्लोक और अन्त में चार श्लोकों की रचना कर ( कुल ३५ श्लोको ) उन्होंने चौलुक्य राजवंश का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है ।
शब्दानुशासन रूप शब्दशास्त्र के साथ साथ उन्होंने लघुवृत्ति, वृहद्वति, बृहन्न्यास, अभिधानचिंतामणी, धातुपारायण, द्वयाश्रय, लिंगानुशासन, आदि सभी अंगों की भी रचना की ।
हेमचन्द्राचार्यजी विरचित व्याकरण की पूर्णता को जानकर सिद्धराज ने उस व्याकरण को पट्टहस्ती