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धीरे-धीरे दिन बीतने लगे और एक शुभ दिन पिता ने पुत्र का नामकरण किया और बालक का नाम 'चौंगदेव' रखा ।', चांगदेव' के भौतिक देह में भी अद्भुत आकर्षण था । शांत व गम्भीर उसकी मुख मुद्रा थी । विशाल भाल, गौर वर्ण और तेजस्वी नेत्र सभी के आकर्षण के लिए पर्याप्त थे ।
पाहिनी एक सुसंस्कारी और पवित्रात्मा स्त्री थी । जिनशासन का अनुराग उसके रोम रोम में भरा हुआ था । बाल्यकाल से ही माँ पाहिनी ने पुत्र चांगदेव के जीवन में सुसंस्कारों का अद्भुत सिंचन किया था । धीरे-धीरे चांगदेव की उम्र बढ़ने लगी ।
चांगदेव की उम्र मात्र ५ वर्ष की थी और उसके जीवन में एक अभूतपूर्व घटना बन गई । एक दिन माँ पाहिनी अपने पुत्र रत्न चांगदेव को लेकर जिनमन्दिर दर्शनार्थ निकल पडी ।माँ भक्तिसभर हृदय से परमात्मा के दर्शन कर रही थी... बालक चांगदेव भी साथ में ही था । द्रव्यपूजा समाप्ति के बाद पाहिनी परमात्मा की भावपूजा में तल्लीन थी... इसी समय बालक चांगदेव मन्दिर - से बाहर निकलकर पास में रहे उपाश्रय में पहुँच गया । उस समय उपाश्रय में आचार्य भगवंत विद्यमान नहीं थे... वे बाहर स्थंडिल भूमि गए हुए थे. इसी बीच चांगदेव उपाश्रय में जाकर आचार्य भगवंतश्री के आसन पर बैठ गया' थोड़ी ही देर में आचार्य भगवंत पधार गए' सुश्राविका पाहिनी भी आचार्य भगवंत को वन्दन करने के लिए उपाश्रय में आई ।
आचार्य भगवंतने उपाश्रय में प्रवेश किया और अपने आसन पर आश्चर्यमुग्ध हो गए' आचार्य भगवंतने वालक की तेजस्वी प्रतिभा को इस बालक को सुयोग्य संयोगों की प्राप्ति हो तो अवश्य ही जिन बन सकता है' इस प्रकार विचार कर आचार्य भगवंतने अत्यन्त सौम्य तू अपने स्वप्न को याद कर ! पुत्र के लक्षण देख... तू अपनी ममता का त्याग कर दे, जिन शासन के चरणों में यदि इस पुत्र का समर्पण करेगी तो यह पुत्र जिनशासन का एक महान् प्रभावक बन सकेगा ।'
'चांगदेव' को बैठे देखकर देखा और सोचने लगे 'यदि शासन का महान् प्रभावक वाणी से कहा, ' हे पाहिनी !
गुरुदेव श्री के मुख से वात्सल्यपूर्ण वाणी सुनकर पाहिनी के हृदय में रहा पुत्र मोह धीरे-धीरे कम होने लगा और आत्महित की आकांक्षा वाली पाहिनी ने पुत्र की ममता को त्याग कर अपने पुत्र को गुरु चरणों में समर्पित कर दिया ।
पाहिनी एक आदर्श माता थी, जिन शासन के चरणों में अपने पुत्र रत्नकी भेट धरकर एक महान् त्याग किया है । ऐसी महान माताएँ ही स्वार्थ को तिलांजलि दे सकती हैं और आत्महित के मार्ग को अपना सकती है ।
पांचवर्षीय बालक चांगदेव को साथ में लेकर आचार्य देवचन्द्रसूरिजी म. ने धंधूका से खंभात की ओर विहार प्रारम्भ किया । कुछ ही दिनों की पद यात्रा के बाद आचार्य श्री खंभात पहुँच गए ।
दीक्षा ग्रहण
खंभात पहुँचने के बाद आचार्यश्री के मुख से 'चांगदेव' की दीक्षा के संदर्भ में उदयन मन्त्री को
प्रत्ता चला।