Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४८-४६
स्थापित करने पर दूसरे समय में भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण परिणामखण्ड प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार ततीय आदि समयों में भो परिणामस्थानों की रचना अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक कम से करनी चाहिए ।
अथवा, अध:प्रवृतकरण के प्रथम समय के परिणामस्थानों की खण्ड-विधि को इस प्रकार जानना चाहिए। यथा-दूसरे समय के जघन्य परिणाम के साथ प्रथम समय का जो परिणामस्थान : समान होता है, उनसे भिन्न पूर्व के समस्त परिणामस्थानों को ग्रहणकर प्रथम समय में प्रथमखण्ड । होता है।
पुनः तृतीय समय के जघन्य परिणामों के साथ प्रथम समय का जो परिणामस्थान । समान होता है उससे पूर्व के (नीचे के) पहले ग्रहण किये गये समस्त परिणामों से शेष बचे हुए । परिणामस्थानों को ग्रहण कर वहीं दूसरे खण्ड का प्रमागा होता है। इसप्रकार इस क्रम से जाकर पुनः प्रथम निर्वगणा काण्डक के अन्तिम समय के जघन्य परिणाम के साथ प्रथम समय के परिणामस्थानों में जो परिणामस्थान सरश होता है उससे 'पूर्व के (नीले के) पहले ग्रहण किये गये समस्त परिणामों से शेष बचे हुए परिणामस्थानों को ग्रहण कर प्रथम समय में द्वि चरम खण्ड का प्रमाण उत्पन्न होता है तथा उससे आगे के शेष समस्त विशुद्धिस्थानों के द्वारा अन्तिमखण्ड का प्रमाण उत्पन्न होता है और ऐसा करने पर अधःप्रवृत्तकरण काल के संख्यात भाग करके उनमें से एक भाग के जिनने समय होते हैं, उतने ही खण्ड हो जाते हैं । इसी प्रकार अधःप्रवत्तकरण के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक द्वितीयादि समयों में भी पृथक-पृथक् पूर्वोक्त कहो गई विधि से अन्तर्मुहूर्तप्रमाण खण्ड जानने चाहिए । इस प्रकार कहे गये समस्त परिणामस्थानों की संदृष्टि है--
१००००००००००० | १०००००००००००० | १००००००००००००
१००००००००००००००
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१०००००००००००
१०००००००००००० | १०००००००००००००
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१०००००००००००
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१००००
१०००००
१००००००
इस संदष्टि में अधःप्रवृत्तकरण का काल पाठ समय प्रमाण मानकर प्रत्येक समय के परिरणामों को खण्ड रूप से चार-चार भागों में विभाजित किया गया है। इस सम्बन्ध में कल्पित प्रकसंदृष्टि इस प्रकार है
- .- .- .-- १. ज. प. पु. १२ पृ. २३८ । २. ज. प. पु. १२ पृ. २३४-२३८