Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५६३-५६४
नाम अधिकार ( प्रथम अधिकार) का कथन
जीवाजीवं दध्यं रूवारूवित्ति होदि पत्तेयं ।
संसारत्था ख्वा
अज्जीवेसु य रूवी पुग्गलदन्वारिण धम्म आगासं कालोवि य चत्तारि प्ररूविणो
सम्यक्त्वमारा / ६२९
कम्मferent श्रवगया ॥ ५६३॥
इवरोषि । होंति ।। ५६४ ।।
गाथार्थ - द्रव्य दो प्रकार का है जीव द्रव्य और प्रजीव द्रव्य । इनमें से प्रत्येक रूपी और ग्ररूपी दो-दो प्रकार के हैं । संसारस्थित जीव (संसारी जीव ) रूपी है। कर्म से विमुक्त (सिद्ध) जीव अरूपी है ।। २६३ ।। अजीव द्रव्य में पुद्गल रूपी है, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, श्राकाश द्रव्य और काल द्रव्य ये चार रूपी हैं ॥५६४।।
विशेषार्थ मूर्त और रूप एकार्थवाची हैं । ( रूपं मूर्तिरित्यर्थः स. सि. ५/५ ) इसी प्रकार अमूर्त व ग्ररूपी एकार्थवाची हैं। 'मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् ॥ १०३ ॥ " | श्रापपद्धति ] । मुर्त के भाव को अर्थात् रूप रस गन्ध स्पर्श युक्तता को भूर्तत्व कहते हैं । प्रमूर्त का भाव अर्थात् रूप रसगन्धस्पर्ण से रहा है। रस गन्ध व का सद्भाव जिराका स्वभाव है वह मूर्त है, स्पर्श रस गन्ध व का प्रभाव जिसका स्वभाव है वह अमूर्त है। जीव यद्यपि स्वभाव से अमूर्त है तथापि पररूप के प्रवेश से ( अनादि द्रव्य कर्म-बन्ध की अपेक्षा से) मुर्त भी है ।"
अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ है । * कर्मबन्ध के कारण संसारी जीत्र भी पुद्गल भाव अर्थात् रूपी भाव को प्राप्त हो जाने से अवधिज्ञान का प्रत्यक्ष विषय वन जाता है । "
जीव के प्रदेश अनादिकालीन बन्धन से बद्ध होने के कारण मूर्त हैं, अतः उनका मूर्त शरीर के साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं पाता है ।
कर्म और नोकर्म के अनादि सम्बन्ध से जीव मूर्तपने को प्राप्त होता है । अनादि कालीन कर्मबन्धन से बद्ध रहने के कारण जीव के संसार अवस्था में अमूर्तत्व का अभाव है।
१. "मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् ॥ १०३॥ श्रमूर्तस्य भावोऽमृतत्वं रूपादिरहितत्वम् ।। १०४॥ श्राप] २. परसगंधव सद्मावस्वभावं मूर्त | स्वरसग्रंथवमिावस्वभाषमभूर्त । स्परसवर्णवत्या मूर्त्या रहितत्वादमूर्ता भवन्ति ।" [ पंचास्तिकाय गा. ९७ टीका ] 1 ३. "अमूर्त स्वरूपेण जीवः पररूया वेणान्मृतपि [पंवास्तिकाय गा. ६७ टीका | बंधं पडि एवं लक्खदो वह तस्स गात्तं । तम्हा प्रमुत्ति भावोऽतो होइ जीवस्स ।" [स.नि. [२७] । ४. "रूपिष्ववचेः " ।।२३।। [त. सू. श्र. १ ] । ५. "कम्मसंबंध वसेर पोलभावमुबयजीवदव्वाणं न पच्चकर्षण परिच्छित्ति कुणइ प्रोहियाणं ।" [जवधत्रल पु. १ पृ. ४३ ] । ६. अनादिबन्धनत्वतो मूर्तानां जीवावयवानां मूर्ते शरीरेण सम्बन्धं प्रति विरोधासिद्धेः " [ घ. १ पृ. २६२ ] । " तस्स मंत्रा भुत्तमात्रमुवगयस्स जीवस्स सभरीरेण सह संबंधस्स विररोहाभावादो ।" [अक्ल पु. १६ पृ. ५१२] । ७. "कम्मलोकम्माणमादि संबंधेगा मुत्तत्तमुगयस्स जीवम्स" | घबल पु. १४ पृ. ४५ ] | "कर्मस्कन्धसम्बन्धतो मूर्तीभूतमात्मान ।" [घवल ५. १ पृ. २५४ ] | ८. श्रणादिबंधाबद्धस्स जीवस्य संभागवस्थाए प्रमुत्तसाभावादो | [म. १५ पृ. ३२ ] |