Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 774
________________ ७४० / गो. सा. जीवकाण्ड गाथा ६७६-६८४ समाधान - ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि आहारकमिश्र काययोग पर्याप्तकों के होता है । इससे सिद्ध होता है कि छठे गुणस्थानवर्ती संयत अपर्याप्त भी होते हैं ।" शङ्का - जनकि कपाट-समुद्घातगत केवली अवस्था में अभिप्रेत होने के कारण 'औदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है यह सूत्र पर हैं तो 'संयतस्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं, इस सूत्र में श्राये हुए नियम शब्द की क्या सार्थकता रह गई? और ऐसी अवस्था में यह प्रश्न होता है कि उक्त सूत्र में आया हुआ नियम शब्द सप्रयोजन है कि निष्प्रयोजन ? समाधान- इन दोनों विकल्पों में से दूसरा विकल्प तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि श्री पुष्पदन्त के वचन मे निकले हुए तत्वों में निष्प्रयोजन ( निरर्थकता ) का होना विरुद्ध है । और सूत्र को नित्यता का प्रकाशन करना भी नियम शब्द का फल नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर जिन सूत्रों में नियम शब्द नहीं पाया जाता है, उन्हें अनित्यता का प्रसंग आजायेगा । परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर औदारिक काययोग पर्याप्तको के होता है इस सूत्र में नियम शब्द का प्रभाव होने से अपर्याप्तकों में भी औदारिक काययोग के प्रस्तित्व का प्रसंग प्राप्त होगा जो कि इष्ट नहीं है। अतः सूत्र में आपा हुआ नियम शब्द ज्ञापक है, नियामक नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो उसको अनर्थकपने का प्रसंग आजायेगा । - इस नियम शब्द के द्वारा क्या जापित होता है १२ शंका समाधान - इससे यह ज्ञापित होता है कि 'सम्यरिमध्यादृष्टि, संयतासंयत और संयतस्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं यह सूत्र अनित्य है । अपने विषय में सर्वत्र समान प्रवृत्ति का नाम नित्यता है और अपने विषय में ही कहीं प्रवृत्ति हो और कहीं न हो, इसका नाम प्रनित्यता है। इससे उत्तर शरीर को उत्पन्न करने वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयतों के तथा कपाट, प्रतर और लोकपूररणसमुद्घात को प्राप्त केवलियों के अपर्याप्तपना सिद्ध हो जाता है। 3 शङ्का - प्रारम्भ किया हुआ शरीर जिसके अर्ध (अपूर्ण) है वह अपर्याप्त है । परन्तु सयोगीअवस्था में शरीर का प्रारम्भ तो होता नहीं अतः सयोगी के अपर्याप्तपना नहीं बन सकता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि कपाट यादि समुद्घात अवस्था में योगी जिन छह पर्याप्त रूप शक्ति से रहित होते हैं, प्रतएव वे पर्याप्त हैं। देव व नारकियों के पर्याप्त अवस्था में वैत्रिविक काययोग में मिथ्यात्त्र, सामादन सम्यग्मिथ्यात्व और असंयत सम्यत्रत्व अर्थात् पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा ये चार गुणस्थान होते हैं। इन्हीं के अपर्याप्त अवस्था में वैक्रियिकमिश्र काययोग में सम्यरिमथ्यात्व तोमरा गुणस्थान नहीं होता| इतनो विशेषता है कि नारकियों के वैक्रियिक मिश्र काययोग में सासादन दूसरा गुणस्थान भी नहीं होता अर्थात् पहला और चौथा ये दो गुणस्थान होते हैं । देवों के क्रियिकमिश्रकाययोग में पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुगास्थान होते हैं। भवन देवों के और सब देवियों के वैक्रियिकमिश्र काययोग में पहला और दूसरा ये वो गुणस्थान होते हैं । १. धवल पु. २ पृ. ४४१ । २. घतल पु. २ पु. ४४३ । ३. धवल पु. २ पृ. ४४३४ ला पु. २. पू. ४४४ ।

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