Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६७६ ६८४
अन्तर्भाव / ७३६ होता है ||६७६ ।। मदारिक काययोग स्थावर पर्याप्त से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त होता है । औदारिक मिश्र अपर्याप्त के चार गुणस्थानों में नियम से होता है ||६८० || वे चार गुणस्थान मिथ्यात्व सासादन, असंयत सम्यग्दृष्टि व सयोगकेवली हैं। श्रसंयत सम्यक्त्व पुरुषवेदी के ही और कपाटगत सयोगकेवली के ही श्रीदारिकमिकाययोग होता है ।।६८१|| देव व नारकी पर्याप्त के वैक्रियिक काययोग में चार गुणस्थान होते हैं । अपर्याप्त अवस्था में वैक्रियिक मिश्र काययोगी के भी मिश्र गुणस्थान बिना शेष तीन गुणस्थान होते हैं ||६६२|| छठे गुणस्थानवतीं श्राहारक समुद्घात वाले मुनि के पर्याप्त अवस्था में प्राहारक काययोग होता है और अपर्याप्त अवस्था में आहार मिश्र काययोग होता है जिसका काल अन्तर्मुहूर्त है ||६६३॥ श्रदारिकमिश्र काययोग के समान कार्मण काययोग में भी चार गुणस्थान होते हैं। चतुर्गति जीवों के विग्रह गति में और सयोग केवली के प्रतर व लोकपूरण यवस्था में कार्मण काययोग होता है ।। ६८४ ॥
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विशेषार्थ - गाथा में कहे गये "मभिमचउमणवणे" शब्द से चार मनोयोगों में से बीच के दो मनोयोग (असत्य व उभय ) तथा चार वचनयोगों में से बीच के वो वचनयोग (असत्य व उभय ) ; कुल चार योग ग्रहण करने चाहिए। इन चारों योगों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुगास्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं, किन्तु ये चारों योग संज्ञी जीवों के ही होते हैं। शेष प्रर्थात् सत्य मनोयोग व सत्य वचन योग में तथा ग्रनुभय मनोयोग व ग्रनुभय वचनयोग में भी पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर संयोग- केवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। इतनी विशेषता है कि अनुभवचनयोग विकलचतुष्क ( द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय) जीवों के भी होता है और इनके एक मिध्यात्व गुणस्थान होता है। असजी पंचेन्द्रिय जीवों के मन न होने से वे विकल कहे जाते हैं। इस प्रकार चारों मनोयोग व चारों वचनयोग के स्वामी व उनमें होने वाले गुणस्थानों का कथन किया गया ।
दारिक काययोग में पर्याप्त स्थावर काय अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान तक के तेरह गुरणस्थान होते हैं, किन्तु ये पर्याप्त अवस्था में होते हैं क्योंकि श्रदारिक काययोग पर्याप्त अवस्था में होता है। प्रौदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्त अवस्था में होता है, उसमें मिथ्यात्व सासादन, असंयत सम्यक्त्व व सयोगकेवली अर्थात् पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ ये चार गुणस्थान होते हैं। चौथा गुणस्थान प्रदारिक मिश्र में पुरुषवेदी मनुष्य या तिर्यत्र के होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मरकर अप्रशस्त वेद वाले मनुष्य या तियंत्रों में उत्पन्न ( जन्म ) नहीं होता । सयोगकेवली के कपाट समुद्घात में श्रदारिक मिश्र काययोग होता है। इसलिए श्रदारिक मिश्र काययोग में तेरहवाँ गुणस्थान कहा गया है ।
शंका- कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्यात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या पर्याप्त ?
समाधान- उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि श्रदारिकमिश्र काययोग और कार्मण काययोग अपर्याप्तकों के होता है, इसलिए वे अपर्याप्त हैं ।
शङ्का - सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयत नियम से पर्याप्तक होते हैं ऐसा वाक्य है । इससे सिद्ध होता है कि सयोगकेवली पर्याप्तक हैं। सयोगकेवली के अतिरिक्त अन्य औदारिक मिश्र काय योग वाले जीव अपर्याप्तक होते हैं। ऐसा क्यों न माना जाये ?