Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७५४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६६
क्षायिक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है किन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त अवस्था में हो होता है । मनुष्यिती में क्षायिक, क्षायोपशमिक व औपशमिक ये तीनों सम्यक्त्व पर्याप्त अवस्था में होते हैं, अपर्याप्त अवस्था में नहीं होते। मनुष्यिनियों में क्षायिक सम्यक्त्व भाववेद की अपेक्षा से है । द्रव्यस्त्रियों के क्षाधिक सम्यक्प नहीं हमें सम्यग्वष्ट, संयतासंयत और संगत गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दष्टि, वेदक सम्यग्दष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं ।
वेदक सम्यग्सष्ट जीव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर प्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं ।। १४६ ।। ३ नरक में वेदक सम्यग्दर्शन पर्याप्त अवस्था में होता है किन्तु प्रथम नरक में कृतकृत्यवेदक पर्याप्त अवस्था में भी होता है। पंचेन्द्रिय संजी पर्याप्त तिर्यंचों में वेदक सम्यग्दर्शन में चौथा व गुगास्थान होता है। किन्तु अपर्याप्त अवस्था में भोगभूमिया पुरुषवेदी तिथंच के कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्व में एक असंपत सम्यग्दृष्टि चौथा गुगास्थान होता है।" मनुष्य गति में मनुष्यों की पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था में वेदक सम्यक्त्व में चौथा गुणस्थान होता है किन्तु पर्याप्त अवस्था में चौथ से सातवें गुणस्थान तक होता है। देवों में भी वेदक सम्यक्त्व में चोथा गुणस्थान होता है । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती मनुष्यों के प्रपर्याप्त अवस्था में छहों लेश्यायें होती हैं, कारण यह है कि प्रथम नरक से लेकर छठी पृथिवी तक के असंयत सम्यग्ग्रष्टि नारकी मरण करके मनुष्यों में अपनी-अपनी पृथिवी के योग्य अशुभ लेग्याओं के साथ ही उत्पन्न होते हैं इसलिए तो कृष्ण, नील कापोत लेश्या पाई जाती है, उसी प्रकार असंयतसम्यग्वष्टि देव भी मरण करके मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए अपनीअपनी पीत पद्म और शुक्ल लेश्याओं के साथ ही उत्पन्न होते हैं ।
प्रथमोपम सम्यक्त्व में चौथे से सातवें तक चार गुणस्थान होते हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में चौथे से ग्यारहवें तक आठ गुणस्थान होते हैं । वेदक सम्यक्त्व से द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है । मिथ्यात्व से प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है ।
अनन्तानुबन्धी को मान माया-लोभ,
सम्यक्प्रकृति, सम्यरिमध्यात्व, मिथ्यात्व इन मात प्रकृतियों का संयत सम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंगत गुणस्थान तक इन चार गुणस्थानों में रहने बाला जीव उष्णम करने वाला होता है । अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति रूप से रहना अनन्तानुवन्धी का उपशम है और उदय में नहीं माना ही दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम है। इस प्रकार वेदक सम्यमष्टि चौथे गुणस्थान से सातवें गुग्गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में द्वितीयोपणम मम्यग्दृष्टि होकर उपणमश्रेणी चढ़ने के प्रभिमुख
१. "मनुवस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । क्षायिकं पुनर्भाववेदेनेव । इत्र्य वेदस्त्रीगणां तासां नायिकासम्भवात् । " [स.सि. १/७/ २. चंवल पु. १ पृ. ४०५ सूत्र १६४ । ३. धवल पु. १ पृ३६७ सुत्र १४६ । ४. भवल पु. २ पृ. ४५० व ४६४ ०११। ५. धवल पु. २ पु. ४७३ व ११ । ६. “प्रताधिकोष- मान-माया लोभ मम्मत-सम्मामिच्छत मित्तमित्रि एदाओ सत्त पयडीश्रां श्रसंजदसम्माइलि हूडि जाव अप्पमत्तमंदो तिलाब एसु जो वा मो वा उवसामंदि । सएवं खुड्डियां अथग-पर्याडसमताणुबन्धीनामुत्रसमो दंसगतियस्स उदयाभावो उचसमो " [ धवल पु. १ पृ. २१०] "चतुर्थ पचमठ सप्तमेषु गुगास्थानेषु मध्ये श्रन्यतमगुणस्थाने अनन्तानुबन्धि चतुष्कस्य मिध्यात्वप्रकृतित्रयस्य च करपविधान धर्मयात उपशमं कृत्वा उपशमसमष्टिभंवति ।" [स्त्रा.का.अ. गा. ४८४ टीका ] "अनन्तानुबन्धिक्रोध- मान-माया-नोम-सम्यक्त्व-मिध्यात्व-मभ्यमिध्यात्वानीत्येताः सप्तप्रकृती: संतसादिसंयतासंयत-प्रमत्तसंपातादिनां मध्ये कोयेक उपशम्यति [मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ गा. २०५ टीका ] ।